भागसूचना
अष्टमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अश्वत्थामाके द्वारा रात्रिमें सोये हुए पांचाल आदि समस्त वीरोंका संहार तथा फाटकसे निकलकर भागते हुए योद्धाओंका कृतवर्मा और कृपाचार्य द्वारा वध
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा प्रयाते शिबिरं द्रोणपुत्रे महारथे।
कच्चित् कृपश्च भोजश्च भयार्तौ न व्यवर्तताम् ॥ १ ॥
मूलम्
तथा प्रयाते शिबिरं द्रोणपुत्रे महारथे।
कच्चित् कृपश्च भोजश्च भयार्तौ न व्यवर्तताम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! जब महारथी द्रोणपुत्र इस प्रकार शिविरकी ओर चला, तब कृपाचार्य और कृतवर्मा भयसे पीड़ित हो लौट तो नहीं गये?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिन्न वारितौ क्षुद्रै रक्षिभिर्नोपलक्षितौ।
असह्यमिति मन्वानौ न निवृत्तौ महारथौ ॥ २ ॥
कच्चिदुन्मथ्य शिविरं हत्वा सोमकपाण्डवान्।
(कृता प्रतिज्ञा सफला कच्चित् संजय सा निशि।)
मूलम्
कच्चिन्न वारितौ क्षुद्रै रक्षिभिर्नोपलक्षितौ।
असह्यमिति मन्वानौ न निवृत्तौ महारथौ ॥ २ ॥
कच्चिदुन्मथ्य शिविरं हत्वा सोमकपाण्डवान्।
(कृता प्रतिज्ञा सफला कच्चित् संजय सा निशि।)
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं नीच द्वार-रक्षकोंने उन्हें रोक तो नहीं दिया? किसीने उन्हें देखा तो नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वे दोनों महारथी इस कार्यको असह्य मानकर लौट गये हों? संजय! क्या उस शिविरको मथकर सोमकों और पाण्डवोंकी हत्या करके रातमें अश्वत्थामाने अपनी प्रतिज्ञा सफल कर ली?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनस्य पदवीं गतौ परमिकां रणे ॥ ३ ॥
पञ्चालैर्निहतौ वीरौ कच्चिन्नास्वपतां क्षितौ।
कच्चित् ताभ्यां कृतं कर्म तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ४ ॥
मूलम्
दुर्योधनस्य पदवीं गतौ परमिकां रणे ॥ ३ ॥
पञ्चालैर्निहतौ वीरौ कच्चिन्नास्वपतां क्षितौ।
कच्चित् ताभ्यां कृतं कर्म तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों वीर पांचालोंके द्वारा मारे जाकर धरतीपर सदाके लिये सो तो नहीं गये? रणभूमिमें मरकर दुर्योधनके ही उत्तम मार्गपर चले तो नहीं गये? क्या उन दोनोंने भी वहाँ कोई पराक्रम किया? संजय! ये सब बातें मुझे बताओ॥३-४॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् प्रयाते शिबिरं द्रोणपुत्रे महात्मनि।
कृपश्च कृतवर्मा च शिविरद्वार्यतिष्ठताम् ॥ ५ ॥
मूलम्
तस्मिन् प्रयाते शिबिरं द्रोणपुत्रे महात्मनि।
कृपश्च कृतवर्मा च शिविरद्वार्यतिष्ठताम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! महामनस्वी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा जब शिविरके भीतर जाने लगा, उस समय कृपाचार्य और कृतवर्मा भी उसके दरवाजेपर जा खड़े हुए॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थामा तु तौ दृष्ट्वा यत्नवन्तौ महारथौ।
प्रहृष्टः शनकै राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ ६ ॥
मूलम्
अश्वत्थामा तु तौ दृष्ट्वा यत्नवन्तौ महारथौ।
प्रहृष्टः शनकै राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उन दोनों महारथियोंको अपना साथ देनेके लिये प्रयत्नशील देख अश्वत्थामाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने उनसे धीरेसे इस प्रकार कहा—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्तौ भवन्तौ पर्याप्तौ सर्वक्षत्रस्य नाशने।
किं पुनर्योधशेषस्य प्रसुप्तस्य विशेषतः ॥ ७ ॥
मूलम्
यत्तौ भवन्तौ पर्याप्तौ सर्वक्षत्रस्य नाशने।
किं पुनर्योधशेषस्य प्रसुप्तस्य विशेषतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि आप दोनों सावधान होकर चेष्टा करें तो सम्पूर्ण क्षत्रियोंका विनाश करनेके लिये पर्याप्त हैं। फिर इन बचे-खुचे और विशेषतः सोये हुए योद्धाओंको मारना कौन बड़ी बात है?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं प्रवेक्ष्ये शिबिरं चरिष्यामि च कालवत्।
यथा न कश्चिदपि वा जीवन् मुच्येत मानवः ॥ ८ ॥
तथा भवद्भ्यां कार्यं स्यादिति मे निश्चिता मतिः।
मूलम्
अहं प्रवेक्ष्ये शिबिरं चरिष्यामि च कालवत्।
यथा न कश्चिदपि वा जीवन् मुच्येत मानवः ॥ ८ ॥
तथा भवद्भ्यां कार्यं स्यादिति मे निश्चिता मतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तो इस शिविरके भीतर घुस जाऊँगा और वहाँ कालके समान विचरूँगा। आपलोग ऐसा करें जिससे कोई भी मनुष्य आप दोनोंके हाथसे जीवित न बच सके, यही मेरा दृढ़ विचार है’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा प्राविशद् द्रौणिः पार्थानां शिबिरं महत् ॥ ९ ॥
अद्वारेणाभ्यवस्कन्द्य विहाय भयमात्मनः ।
मूलम्
इत्युक्त्वा प्राविशद् द्रौणिः पार्थानां शिबिरं महत् ॥ ९ ॥
अद्वारेणाभ्यवस्कन्द्य विहाय भयमात्मनः ।
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर द्रोणकुमार पाण्डवोंके विशाल शिविरमें बिना दरवाजेके ही कूदकर घुस गया। उसने अपने जीवनका भय छोड़ दिया था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स प्रविश्य महाबाहुरुद्देशज्ञश्च तस्य ह ॥ १० ॥
धृष्टद्युम्नस्य निलयं शनकैरभ्युपागमत् ।
मूलम्
स प्रविश्य महाबाहुरुद्देशज्ञश्च तस्य ह ॥ १० ॥
धृष्टद्युम्नस्य निलयं शनकैरभ्युपागमत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह महाबाहु वीर शिविरके प्रत्येक स्थानसे परिचित था, अतः धीरे-धीरे धृष्टद्युम्नके खेमेमें जा पहुँचा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तु कृत्वा महत् कर्म श्रान्ताश्च बलवद् रणे॥११॥
प्रसुप्ताश्चैव विश्वस्ताः स्वसैन्यपरिवारिताः ।
मूलम्
ते तु कृत्वा महत् कर्म श्रान्ताश्च बलवद् रणे॥११॥
प्रसुप्ताश्चैव विश्वस्ताः स्वसैन्यपरिवारिताः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ वे पांचाल वीर रणभूमिमें महान् पराक्रम करके बहुत थक गये थे और अपने सैनिकोंसे घिरे हुए निश्चिन्त सो रहे थे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ प्रविश्य तद् वेश्म धृष्टद्युम्नस्य भारत ॥ १२ ॥
पाञ्चाल्यं शयने द्रौणिरपश्यत् सुप्तमन्तिकात्।
क्षौमावदाते महति स्पर्ध्यास्तरणसंवृते ॥ १३ ॥
माल्यप्रवरसंयुक्ते धूपैश्चूर्णैश्च वासिते ।
मूलम्
अथ प्रविश्य तद् वेश्म धृष्टद्युम्नस्य भारत ॥ १२ ॥
पाञ्चाल्यं शयने द्रौणिरपश्यत् सुप्तमन्तिकात्।
क्षौमावदाते महति स्पर्ध्यास्तरणसंवृते ॥ १३ ॥
माल्यप्रवरसंयुक्ते धूपैश्चूर्णैश्च वासिते ।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! धृष्टद्युम्नके उस डेरेमें प्रवेश करके द्रोणकुमारने देखा कि पांचालराजकुमार पास ही बहुमूल्य बिछौनोंसे युक्त तथा रेशमी चादरसे ढकी हुई एक विशाल शय्यापर सो रहा है। वह शय्या श्रेष्ठ मालाओंसे सुसज्जित तथा धूप एवं चन्दन चूर्णसे सुवासित थी॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं शयानं महात्मानं विश्रब्धमकुतोभयम् ॥ १४ ॥
प्राबोधयत पादेन शयनस्थं महीपते।
मूलम्
तं शयानं महात्मानं विश्रब्धमकुतोभयम् ॥ १४ ॥
प्राबोधयत पादेन शयनस्थं महीपते।
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! अश्वत्थामाने निश्चिन्त एवं निर्भय होकर शय्यापर सोये हुए महामनस्वी धृष्टद्युम्नको पैरसे ठोकर मारकर जगाया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्बुध्य चरणस्पर्शादुत्थाय रणदुर्मदः ॥ १५ ॥
अभ्यजानादमेयात्मा द्रोणपुत्रं महारथम् ।
मूलम्
सम्बुध्य चरणस्पर्शादुत्थाय रणदुर्मदः ॥ १५ ॥
अभ्यजानादमेयात्मा द्रोणपुत्रं महारथम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
अमेय आत्मबलसे सम्पन्न रणदुर्मद धृष्टद्युम्न उसके पैर लगते ही जाग उठा और जागते ही उसने महारथी द्रोणपुत्रको पहचान लिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्पतन्तं शयनादश्वत्थामा महाबलः ॥ १६ ॥
केशेष्वालभ्य पाणिभ्यां निष्पिपेष महीतले।
मूलम्
तमुत्पतन्तं शयनादश्वत्थामा महाबलः ॥ १६ ॥
केशेष्वालभ्य पाणिभ्यां निष्पिपेष महीतले।
अनुवाद (हिन्दी)
अब वह शय्यासे उठनेकी चेष्टा करने लगा। इतनेहीमें महाबली अश्वत्थामाने दोनों हाथसे उसके बाल पकड़कर पृथ्वीपर पटक दिया और वहाँ अच्छी तरह रगड़ा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबलं तेन निष्पिष्टः साध्वसेन च भारत ॥ १७ ॥
निद्रया चैव पाञ्चाल्यो नाशकच्चेष्टितुं तदा।
मूलम्
सबलं तेन निष्पिष्टः साध्वसेन च भारत ॥ १७ ॥
निद्रया चैव पाञ्चाल्यो नाशकच्चेष्टितुं तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! धृष्टद्युम्न भय और निद्रासे दबा हुआ था। उस अवस्थामें जब अश्वत्थामाने उसे जोरसे पटककर रगड़ना आरम्भ किया, तब उससे कोई भी चेष्टा करते न बना॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाक्रम्य पदा राजन् कण्ठे चोरसि चोभयोः ॥ १८ ॥
नदन्तं विस्फुरन्तं च पशुमारममारयत्।
मूलम्
तमाक्रम्य पदा राजन् कण्ठे चोरसि चोभयोः ॥ १८ ॥
नदन्तं विस्फुरन्तं च पशुमारममारयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उसने पैरसे उसकी छाती और गला दोनोंको दबा दिया और उसे पशुकी तरह मारना आरम्भ किया। वह बेचारा चीखता और छटपटाता रह गया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुदन्नखैस्तु स द्रौणिं नातिव्यक्तमुदाहरत् ॥ १९ ॥
आचार्यपुत्र शस्त्रेण जहि मां मा चिरं कृथाः।
त्वत्कृते सुकृताल्ँलोकान् गच्छेयं द्विपदां वर ॥ २० ॥
मूलम्
तुदन्नखैस्तु स द्रौणिं नातिव्यक्तमुदाहरत् ॥ १९ ॥
आचार्यपुत्र शस्त्रेण जहि मां मा चिरं कृथाः।
त्वत्कृते सुकृताल्ँलोकान् गच्छेयं द्विपदां वर ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अपने नखोंसे द्रोणकुमारको बकोटते हुए अस्पष्ट वाणीमें कहा—‘मनुष्योंमें श्रेष्ठ आचार्यपुत्र! अब देरी न करो। मुझे किसी शस्त्रसे मार डालो, जिससे तुम्हारे कारण मैं पुण्यलोकोंमें जा सकूँ’॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु वचनं विरराम परंतपः।
सुतः पाञ्चालराजस्य आक्रान्तो बलिना भृशम् ॥ २१ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु वचनं विरराम परंतपः।
सुतः पाञ्चालराजस्य आक्रान्तो बलिना भृशम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर बलवान् शत्रुके द्वारा बड़े जोरसे दबाया हुआ शत्रुसंतापी पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न चुप हो गया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याव्यक्तां तु तां वाचं संश्रुत्य द्रौणिरब्रवीत्।
आचार्यघातिनां लोका न सन्ति कुलपांसन ॥ २२ ॥
तस्माच्छस्त्रेण निधनं न त्वमर्हसि दुर्मते।
मूलम्
तस्याव्यक्तां तु तां वाचं संश्रुत्य द्रौणिरब्रवीत्।
आचार्यघातिनां लोका न सन्ति कुलपांसन ॥ २२ ॥
तस्माच्छस्त्रेण निधनं न त्वमर्हसि दुर्मते।
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी उस अस्पष्ट वाणीको सुनकर द्रोणपुत्रने कहा—‘रे कुलकलंक! अपने आचार्यकी हत्या करनेवाले लोगोंके लिये पुण्यलोक नहीं है; अतः दुर्मते! तू शस्त्रके द्वारा मारे जानेके योग्य नहीं है’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवाणस्तं वीरं सिंहो मत्तमिव द्विपम् ॥ २३ ॥
मर्मस्वभ्यवधीत् क्रुद्धः पादाष्ठीलैः सुदारुणैः।
मूलम्
एवं ब्रुवाणस्तं वीरं सिंहो मत्तमिव द्विपम् ॥ २३ ॥
मर्मस्वभ्यवधीत् क्रुद्धः पादाष्ठीलैः सुदारुणैः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस वीरसे ऐसा कहते हुए क्रोधी अश्वत्थामाने मतवाले हाथीपर चोट करनेवाले सिंहके समान अपनी अत्यन्त भयंकर एड़ियोंसे उसके मर्मस्थानोंपर प्रहार किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य वीरस्य शब्देन मार्यमाणस्य वेश्मनि ॥ २४ ॥
अबुध्यन्त महाराज स्त्रियो ये चास्य रक्षिणः।
मूलम्
तस्य वीरस्य शब्देन मार्यमाणस्य वेश्मनि ॥ २४ ॥
अबुध्यन्त महाराज स्त्रियो ये चास्य रक्षिणः।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय मारे जाते हुए वीर धृष्टद्युम्नके आर्तनादसे उस शिविरकी स्त्रियाँ तथा सारे रक्षक जाग उठे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते दृष्ट्वा धर्षयन्तं तमतिमानुषविक्रमम् ॥ २५ ॥
भूतमेवाध्यवस्यन्तो न स्म प्रव्याहरन् भयात्।
मूलम्
ते दृष्ट्वा धर्षयन्तं तमतिमानुषविक्रमम् ॥ २५ ॥
भूतमेवाध्यवस्यन्तो न स्म प्रव्याहरन् भयात्।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने उस अलौकिक पराक्रमी पुरुषको धृष्टद्युम्नपर प्रहार करते देख उसे कोई भूत ही समझा; इसीलिये भयके मारे वे कुछ बोल न सके॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु तेनाभ्युपायेन गमयित्वा यमक्षयम् ॥ २६ ॥
अध्यतिष्ठत तेजस्वी रथं प्राप्य सुदर्शनम्।
स तस्य भवनाद् राजन् निष्क्रम्यानादयन् दिशः ॥ २७ ॥
रथेन शिबिरं प्रायाज्जिघांसुर्द्विषतो बली।
मूलम्
तं तु तेनाभ्युपायेन गमयित्वा यमक्षयम् ॥ २६ ॥
अध्यतिष्ठत तेजस्वी रथं प्राप्य सुदर्शनम्।
स तस्य भवनाद् राजन् निष्क्रम्यानादयन् दिशः ॥ २७ ॥
रथेन शिबिरं प्रायाज्जिघांसुर्द्विषतो बली।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस उपायसे धृष्टद्युम्नको यमलोक भेजकर तेजस्वी अश्वत्थामा उसके खेमेसे बाहर निकला और सुन्दर दिखायी देनेवाले अपने रथके पास आकर उसपर सवार हो गया। इसके बाद वह बलवान् वीर अन्य शत्रुओंको मार डालनेकी इच्छा रखकर अपनी गर्जनासे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करता हुआ रथके द्वारा प्रत्येक शिविरपर आक्रमण करने लगा॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपक्रान्ते ततस्तस्मिन् द्रोणपुत्रे महारथे ॥ २८ ॥
सहितै रक्षिभिः सर्वैः प्राणेदुर्योषितस्तदा।
मूलम्
अपक्रान्ते ततस्तस्मिन् द्रोणपुत्रे महारथे ॥ २८ ॥
सहितै रक्षिभिः सर्वैः प्राणेदुर्योषितस्तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
महारथी द्रोणपुत्रके वहाँसे हट जानेपर एकत्र हुए सम्पूर्ण रक्षकोंसहित धृष्टद्युम्नकी रानियाँ फूट-फूटकर रोने लगीं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानं निहतं दृष्ट्वा भृशं शोकपरायणाः ॥ २९ ॥
व्याक्रोशन् क्षत्रियाः सर्वे धृष्टद्युम्नस्य भारत।
मूलम्
राजानं निहतं दृष्ट्वा भृशं शोकपरायणाः ॥ २९ ॥
व्याक्रोशन् क्षत्रियाः सर्वे धृष्टद्युम्नस्य भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! अपने राजाको मारा गया देख धृष्टद्युम्नकी सेनाके सारे क्षत्रिय अत्यन्त शोकमें मग्न हो आर्तस्वरसे विलाप करने लगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां तु तेन शब्देन समीपे क्षत्रियर्षभाः ॥ ३० ॥
क्षिप्रं च समनह्यन्त किमेतदिति चाब्रुवन्।
मूलम्
तासां तु तेन शब्देन समीपे क्षत्रियर्षभाः ॥ ३० ॥
क्षिप्रं च समनह्यन्त किमेतदिति चाब्रुवन्।
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्रियोंके रोनेकी आवाज सुनकर आस-पासके सारे क्षत्रियशिरोमणि वीर तुरंत कवच बाँधकर तैयार हो गये और बोले—‘अरे! यह क्या हुआ?’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियस्तु राजन् वित्रस्ता भारद्वाजं निरीक्ष्य ताः ॥ ३१ ॥
अब्रुवन् दीनकण्ठेन क्षिप्रमाद्रवतेति वै।
राक्षसो वा मनुष्यो वा नैनं जानीमहे वयम् ॥ ३२ ॥
हत्वा पाञ्चालराजानं रथमारुह्य तिष्ठति।
मूलम्
स्त्रियस्तु राजन् वित्रस्ता भारद्वाजं निरीक्ष्य ताः ॥ ३१ ॥
अब्रुवन् दीनकण्ठेन क्षिप्रमाद्रवतेति वै।
राक्षसो वा मनुष्यो वा नैनं जानीमहे वयम् ॥ ३२ ॥
हत्वा पाञ्चालराजानं रथमारुह्य तिष्ठति।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे सारी स्त्रियाँ अश्वत्थामाको देखकर बहुत डर गयी थीं; अतः दीन कण्ठसे बोलीं—‘अरे! जल्दी दौड़ो! जल्दी दौड़ो! हमारी समझमें नहीं आता कि यह कोई राक्षस है या मनुष्य। देखो, यह पांचालराजकी हत्या करके रथपर चढ़कर खड़ा है’॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते योधमुख्याश्च सहसा पर्यवारयन् ॥ ३३ ॥
स तानापततः सर्वान् रुद्रास्त्रेण व्यपोथयत्।
मूलम्
ततस्ते योधमुख्याश्च सहसा पर्यवारयन् ॥ ३३ ॥
स तानापततः सर्वान् रुद्रास्त्रेण व्यपोथयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन श्रेष्ठ योद्धाओंने सहसा पहुँचकर अश्वत्थामाको चारों ओरसे घेर लिया; परंतु अश्वत्थामाने पास आते ही उन सबको रुद्रास्त्रसे मार गिराया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नं च हत्वा स तांश्चैवास्य पदानुगान् ॥ ३४ ॥
अपश्यच्छयने सुप्तमुत्तमौजसमन्तिके ।
मूलम्
धृष्टद्युम्नं च हत्वा स तांश्चैवास्य पदानुगान् ॥ ३४ ॥
अपश्यच्छयने सुप्तमुत्तमौजसमन्तिके ।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार धृष्टद्युम्न और उसके सेवकोंका वध करके अश्वत्थामाने निकटके ही खेमेमें पलंगपर सोये हुए उत्तमौजाको देखा॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमप्याक्रम्य पादेन कण्ठे चोरसि तेजसा ॥ ३५ ॥
तथैव मारयामास विनर्दन्तमरिंदमम् ।
मूलम्
तमप्याक्रम्य पादेन कण्ठे चोरसि तेजसा ॥ ३५ ॥
तथैव मारयामास विनर्दन्तमरिंदमम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो शत्रुदमन उत्तमौजाके भी कण्ठ और छातीको बलपूर्वक पैरसे दबाकर उसने उसी प्रकार पशुकी तरह मार डाला। वह बेचारा भी चीखता-चिल्लाता रह गया था॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधामन्युश्च सम्प्राप्तो मत्वा तं रक्षसा हतम् ॥ ३६ ॥
गदामुद्यम्य वेगेन हृदि द्रौणिमताडयत्।
मूलम्
युधामन्युश्च सम्प्राप्तो मत्वा तं रक्षसा हतम् ॥ ३६ ॥
गदामुद्यम्य वेगेन हृदि द्रौणिमताडयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तमौजाको राक्षसद्वारा मारा गया समझकर युधामन्यु भी वहाँ आ पहुँचा। उसने बड़े वेगसे गदा उठाकर अश्वत्थामाकी छातीमें प्रहार किया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमभिद्रुत्य जग्राह क्षितौ चैनमपातयत् ॥ ३७ ॥
विस्फुरन्तं च पशुवत् तथैवैनममारयत्।
मूलम्
तमभिद्रुत्य जग्राह क्षितौ चैनमपातयत् ॥ ३७ ॥
विस्फुरन्तं च पशुवत् तथैवैनममारयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामाने झपटकर उसे पकड़ लिया और पृथ्वीपर दे मारा। वह उसके चंगुलसे छूटनेके लिये बहुतेरा हाथ-पैर मारता रहा; किंतु अश्वत्थामाने उसे भी पशुकी तरह गला घोंटकर मार डाला॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा स वीरो हत्वा तं ततोऽन्यान् समुपाद्रवत् ॥ ३८ ॥
संसुप्तानेव राजेन्द्र तत्र तत्र महारथान्।
स्फुरतो वेपमानांश्च शमितेव पशून् मखे ॥ ३९ ॥
मूलम्
तथा स वीरो हत्वा तं ततोऽन्यान् समुपाद्रवत् ॥ ३८ ॥
संसुप्तानेव राजेन्द्र तत्र तत्र महारथान्।
स्फुरतो वेपमानांश्च शमितेव पशून् मखे ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! इस प्रकार युधामन्युका वध करके वीर अश्वत्थामाने अन्य महारथियोंपर भी वहाँ सोते समय ही आक्रमण किया। वे सब भयसे काँपने और छटपटाने लगे। परंतु जैसे हिंसाप्रधान यज्ञमें वधके लिये नियुक्त हुआ पुरुष पशुओंको मार डालता है, उसी प्रकार उसने भी उन्हें मार डाला॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निस्त्रिंशमादाय जघानान्यान् पृथक् पृथक्।
भागशो विचरन् मार्गानसियुद्धविशारदः ॥ ४० ॥
मूलम्
ततो निस्त्रिंशमादाय जघानान्यान् पृथक् पृथक्।
भागशो विचरन् मार्गानसियुद्धविशारदः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर तलवारसे युद्ध करनेमें कुशल अश्वत्थामाने हाथमें खड्ग लेकर प्रत्येक भागमें विभिन्न मार्गोंसे विचरते हुए वहाँ बारी-बारीसे अन्य वीरोंका भी वध कर डाला॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव गुल्मे सम्प्रेक्ष्य शयानान् मध्यगौल्मिकान्।
श्रान्तान् व्यस्तायुधान् सर्वान् क्षणेनैव व्यपोथयत् ॥ ४१ ॥
मूलम्
तथैव गुल्मे सम्प्रेक्ष्य शयानान् मध्यगौल्मिकान्।
श्रान्तान् व्यस्तायुधान् सर्वान् क्षणेनैव व्यपोथयत् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार खेमेमें मध्य श्रेणीके रक्षक सैनिक भी थककर सो रहे थे। उनके अस्त्र-शस्त्र अस्त-व्यस्त होकर पड़े थे। उन सबको उस अवस्थामें देखकर अश्वत्थामाने क्षणभरमें मार डाला॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योधानश्वान् द्विपांश्चैव प्राच्छिनत् स वरासिना।
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः कालसृष्ट इवान्तकः ॥ ४२ ॥
मूलम्
योधानश्वान् द्विपांश्चैव प्राच्छिनत् स वरासिना।
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः कालसृष्ट इवान्तकः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अपनी अच्छी तलवारसे योद्धाओं, घोड़ों और हाथियोंके भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उसके सारे अंग खूनसे लथपथ हो रहे थे, वह कालप्रेरित यमराजके समान जान पड़ता था॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विस्फुरद्भिश्च तैर्द्रोणिर्निस्त्रिंशस्योद्यमेन च ।
आक्षेपणेन चैवासेस्त्रिधा रक्तोक्षितोऽभवत् ॥ ४३ ॥
मूलम्
विस्फुरद्भिश्च तैर्द्रोणिर्निस्त्रिंशस्योद्यमेन च ।
आक्षेपणेन चैवासेस्त्रिधा रक्तोक्षितोऽभवत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मारे जानेवाले योद्धाओंका हाथ-पैर हिलाना, उन्हें मारनेके लिये तलवारको उठाना तथा उसके द्वारा सब ओर प्रहार करना—इन तीन कारणोंसे द्रोणपुत्र अश्वत्थामा खूनसे नहा गया था॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य लोहितरक्तस्य दीप्तखड्गस्य युध्यतः।
अमानुष इवाकारो बभौ परमभीषणः ॥ ४४ ॥
मूलम्
तस्य लोहितरक्तस्य दीप्तखड्गस्य युध्यतः।
अमानुष इवाकारो बभौ परमभीषणः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह खूनसे रँग गया था। जूझते हुए उस वीरकी तलवार चमक रही थी। उस समय उसका आकार मानवेतर प्राणीके समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये त्वजाग्रन्त कौरव्य तेऽपि शब्देन मोहिताः।
निरीक्ष्यमाणा अन्योन्यं दृष्ट्वा दृष्ट्वा प्रविव्यथुः ॥ ४५ ॥
मूलम्
ये त्वजाग्रन्त कौरव्य तेऽपि शब्देन मोहिताः।
निरीक्ष्यमाणा अन्योन्यं दृष्ट्वा दृष्ट्वा प्रविव्यथुः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! जो जाग रहे थे, वे भी उस कोलाहलसे किंकर्तव्यविमूढ हो गये थे। परस्पर देखे जाते हुए वे सभी सैनिक अश्वत्थामाको देख-देखकर व्यथित हो रहे थे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् रूपं तस्य ते दृष्ट्वा क्षत्रियाः शत्रुकर्षिणः।
राक्षसं मन्यमानास्तं नयनानि न्यमीलयन् ॥ ४६ ॥
मूलम्
तद् रूपं तस्य ते दृष्ट्वा क्षत्रियाः शत्रुकर्षिणः।
राक्षसं मन्यमानास्तं नयनानि न्यमीलयन् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे शत्रुसूदन क्षत्रिय अश्वत्थामाका वह रूप देख उसे राक्षस समझकर आँखें मूँद लेते थे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स घोररूपो व्यचरत् कालवच्छिविरे ततः।
अपश्यद् द्रौपदीपुत्रानवशिष्टांश्च सोमकान् ॥ ४७ ॥
मूलम्
स घोररूपो व्यचरत् कालवच्छिविरे ततः।
अपश्यद् द्रौपदीपुत्रानवशिष्टांश्च सोमकान् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह भयानक रूपधारी द्रोणकुमार सारे शिविरमें कालके समान विचरने लगा। उसने द्रौपदीके पाँचों पुत्रों और मरनेसे बचे हुए सोमकोंको देखा॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन शब्देन वित्रस्ता धनुर्हस्ता महारथाः।
धृष्टद्युम्नं हतं श्रुत्वा द्रौपदेया विशाम्पते ॥ ४८ ॥
मूलम्
तेन शब्देन वित्रस्ता धनुर्हस्ता महारथाः।
धृष्टद्युम्नं हतं श्रुत्वा द्रौपदेया विशाम्पते ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! धृष्टद्युम्नको मारा गया सुनकर द्रौपदीके पाँचों महारथी पुत्र उस शब्दसे भयभीत हो हाथमें धनुष लिये आगे बढ़े॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवाकिरन् शरव्रातैर्भारद्वाजमभीतवत् ।
ततस्तेन निनादेन सम्प्रबुद्धाः प्रभद्रकाः ॥ ४९ ॥
शिलीमुखैः शिखण्डी च द्रोणपुत्रं समार्दयन्।
मूलम्
अवाकिरन् शरव्रातैर्भारद्वाजमभीतवत् ।
ततस्तेन निनादेन सम्प्रबुद्धाः प्रभद्रकाः ॥ ४९ ॥
शिलीमुखैः शिखण्डी च द्रोणपुत्रं समार्दयन्।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने निर्भय-से होकर अश्वत्थामापर बाण-समूहोंकी वर्षा आरम्भ कर दी। तदनन्तर वह कोलाहल सुनकर वीर प्रभद्रकगण जाग उठे। शिखण्डी भी उनके साथ हो लिया। उन सबने द्रोणपुत्रको पीड़ा देना आरम्भ किया॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भारद्वाजः स तान् दृष्ट्वा शरवर्षाणि वर्षतः ॥ ५० ॥
ननाद बलवन्नादं जिघांसुस्तान् महारथान्।
मूलम्
भारद्वाजः स तान् दृष्ट्वा शरवर्षाणि वर्षतः ॥ ५० ॥
ननाद बलवन्नादं जिघांसुस्तान् महारथान्।
अनुवाद (हिन्दी)
उन महारथियोंको बाणोंकी वर्षा करते देख अश्वत्थामा उन्हें मार डालनेकी इच्छासे जोर-जोरसे गर्जना करने लगा॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परमसंक्रुद्धः पितुर्वधमनुस्मरन् ॥ ५१ ॥
अवरुह्य रथोपस्थात् त्वरमाणोऽभिदुद्रुवे ।
सहस्रचन्द्रविमलं गृहीत्वा चर्म संयुगे ॥ ५२ ॥
खड्गं च विमलं दिव्यं जातरूपपरिष्कृतम्।
मूलम्
ततः परमसंक्रुद्धः पितुर्वधमनुस्मरन् ॥ ५१ ॥
अवरुह्य रथोपस्थात् त्वरमाणोऽभिदुद्रुवे ।
सहस्रचन्द्रविमलं गृहीत्वा चर्म संयुगे ॥ ५२ ॥
खड्गं च विमलं दिव्यं जातरूपपरिष्कृतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पिताके वधका स्मरण करके वह अत्यन्त कुपित हो उठा और रथकी बैठकसे उतरकर सहस्रों चन्द्राकार चिह्नोंसे युक्त चमकीली ढाल और सुवर्णभूषित दिव्य एवं निर्मल खड्ग लेकर युद्धमें बड़ी उतावलीके साथ उनकी ओर दौड़ा॥५१-५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदेयानभिद्रुत्य खड्गेन व्यधमद् बली ॥ ५३ ॥
ततः स नरशार्दूलः प्रतिविन्धयं महाहवे।
कुक्षिदेशेऽवधीद् राजन् स हतो न्यपतद् भुवि ॥ ५४ ॥
मूलम्
द्रौपदेयानभिद्रुत्य खड्गेन व्यधमद् बली ॥ ५३ ॥
ततः स नरशार्दूलः प्रतिविन्धयं महाहवे।
कुक्षिदेशेऽवधीद् राजन् स हतो न्यपतद् भुवि ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बलवान् वीरने द्रौपदीके पुत्रोंपर आक्रमण करके उन्हें खड्गसे छिन्न-भिन्न कर दिया। राजन्! उस समय पुरुषसिंह अश्वत्थामाने उस महासमरमें प्रतिविन्ध्यको उसकी कोखमें तलवार भोंककर मार डाला। वह मरकर पृथ्वीपर गिर पड़ा॥५३-५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासेन विद्ध्वा द्रौणिं तु सुतसोमः प्रतापवान्।
पुनश्चासिं समुद्यम्य द्रोणपुत्रमुपाद्रवत् ॥ ५५ ॥
मूलम्
प्रासेन विद्ध्वा द्रौणिं तु सुतसोमः प्रतापवान्।
पुनश्चासिं समुद्यम्य द्रोणपुत्रमुपाद्रवत् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् प्रतापी सुतसोमने द्रोणकुमारको पहले प्राससे घायल करके फिर तलवार उठाकर उसपर धावा किया॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुतसोमस्य सासिं तं बाहुं छित्त्वा नरर्षभ।
पुनरप्याहनत् पार्श्वे स भिन्नहृदयोऽपतत् ॥ ५६ ॥
मूलम्
सुतसोमस्य सासिं तं बाहुं छित्त्वा नरर्षभ।
पुनरप्याहनत् पार्श्वे स भिन्नहृदयोऽपतत् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! तब अश्वत्थामाने तलवारसहित सुतसोमकी बाँह काटकर पुनः उसकी पसलीमें आघात किया। इससे उसकी छाती फट गयी और वह धराशायी हो गया॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाकुलिस्तु शतानीको रथचक्रेण वीर्यवान्।
दोर्भ्यामुत्क्षिप्य वेगेन वक्षस्येनमताडयत् ॥ ५७ ॥
मूलम्
नाकुलिस्तु शतानीको रथचक्रेण वीर्यवान्।
दोर्भ्यामुत्क्षिप्य वेगेन वक्षस्येनमताडयत् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद नकुलके पराक्रमी पुत्र शतानीकने अपनी दोनों भुजाओंसे रथचक्रको उठाकर उसके द्वारा बड़े वेगसे अश्वत्थामाकी छातीपर प्रहार किया॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अताडयच्छतानीकं मुक्तचक्रं द्विजस्तु सः।
स विह्वलो ययौ भूमिं ततोऽस्यापाहरच्छिरः ॥ ५८ ॥
मूलम्
अताडयच्छतानीकं मुक्तचक्रं द्विजस्तु सः।
स विह्वलो ययौ भूमिं ततोऽस्यापाहरच्छिरः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शतानीकने जब चक्र चला दिया, तब ब्राह्मण अश्वत्थामाने भी उसपर गहरा आघात किया। इससे व्याकुल होकर वह पृथ्वीपर गिर पड़ा। इतनेहीमें अश्वत्थामाने उसका सिर काट लिया॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतकर्मा तु परिघं गृहीत्वा समताडयत्।
अभिद्रुत्य ययौ द्रौणिं सव्ये सफलके भृशम् ॥ ५९ ॥
मूलम्
श्रुतकर्मा तु परिघं गृहीत्वा समताडयत्।
अभिद्रुत्य ययौ द्रौणिं सव्ये सफलके भृशम् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब श्रुतकर्मा परिघ लेकर अश्वत्थामाकी ओर दौड़ा। उसने उसके ढालयुक्त बायें हाथमें भारी चोट पहुँचायी॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु तं श्रुतकर्माणमास्ये जघ्ने वरासिना।
स हतो न्यपतद् भूमौ विमूढो विकृताननः ॥ ६० ॥
मूलम्
स तु तं श्रुतकर्माणमास्ये जघ्ने वरासिना।
स हतो न्यपतद् भूमौ विमूढो विकृताननः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामाने अपनी तेज तलवारसे श्रुतकर्माके मुखपर आघात किया। वह चोट खाकर बेहोश हो पृथ्वीपर गिर पड़ा। उस समय उसका मुख विकृत हो गया था॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन शब्देन वीरस्तु श्रुतकीर्तिर्महारथः।
अश्वत्थामानमासाद्य शरवर्षैरवाकिरत् ॥ ६१ ॥
मूलम्
तेन शब्देन वीरस्तु श्रुतकीर्तिर्महारथः।
अश्वत्थामानमासाद्य शरवर्षैरवाकिरत् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह कोलाहल सुनकर वीर महारथी श्रुतकीर्ति अश्वत्थामाके पास आकर उसके ऊपर बाणोंकी वर्षा करने लगा॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यापि शरवर्षाणि चर्मणा प्रतिवार्य सः।
सकुण्डलं शिरः कायाद् भ्राजमानमुपाहरत् ॥ ६२ ॥
मूलम्
तस्यापि शरवर्षाणि चर्मणा प्रतिवार्य सः।
सकुण्डलं शिरः कायाद् भ्राजमानमुपाहरत् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी बाण-वर्षाको ढालसे रोककर अश्वत्थामाने उसके कुण्डलमण्डित तेजस्वी मस्तकको धड़से अलग कर दिया॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भीष्मनिहन्ता तं सह सर्वैः प्रभद्रकैः।
अहनत् सर्वतो वीरं नानाप्रहरणैर्बली ॥ ६३ ॥
शिलीमुखेन चान्येन भ्रुवोर्मध्ये समार्पयत्।
मूलम्
ततो भीष्मनिहन्ता तं सह सर्वैः प्रभद्रकैः।
अहनत् सर्वतो वीरं नानाप्रहरणैर्बली ॥ ६३ ॥
शिलीमुखेन चान्येन भ्रुवोर्मध्ये समार्पयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर समस्त प्रभद्रकोंसहित बलवान् भीष्महन्ता शिखण्डी नाना प्रकारके अस्त्रोंद्वारा अश्वत्थामापर सब ओरसे प्रहार करने लगा तथा एक दूसरे बाणसे उसने उसकी दोनों भौंहोंके बीचमें आघात किया॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु क्रोधसमाविष्टो द्रोणपुत्रो महाबलः ॥ ६४ ॥
शिखण्डिनं समासाद्य द्विधा चिच्छेद सोऽसिना।
मूलम्
स तु क्रोधसमाविष्टो द्रोणपुत्रो महाबलः ॥ ६४ ॥
शिखण्डिनं समासाद्य द्विधा चिच्छेद सोऽसिना।
अनुवाद (हिन्दी)
तब महाबली द्रोणपुत्रने क्रोधके आवेशमें आकर शिखण्डीके पास जा अपनी तलवारसे उसके दो टुकड़े कर डाले॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिखण्डिनं ततो हत्वा क्रोधाविष्टः परंतपः ॥ ६५ ॥
प्रभद्रकगणान् सर्वानभिदुद्राव वेगवान् ।
यच्च शिष्टं विराटस्य बलं तु भृशमाद्रवत् ॥ ६६ ॥
मूलम्
शिखण्डिनं ततो हत्वा क्रोधाविष्टः परंतपः ॥ ६५ ॥
प्रभद्रकगणान् सर्वानभिदुद्राव वेगवान् ।
यच्च शिष्टं विराटस्य बलं तु भृशमाद्रवत् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधसे भरे हुए शत्रुसंतापी अश्वत्थामाने इस प्रकार शिखण्डीका वध करके समस्त प्रभद्रकोंपर बड़े वेगसे धावा किया। साथ ही, राजा विराटकी जो सेना शेष थी, उसपर भी जोरसे चढ़ाई कर दी॥६५-६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रुपदस्य च पुत्राणां पौत्राणां सुहृदामपि।
चकार कदनं घोरं दृष्ट्वा दृष्ट्वा महाबलः ॥ ६७ ॥
मूलम्
द्रुपदस्य च पुत्राणां पौत्राणां सुहृदामपि।
चकार कदनं घोरं दृष्ट्वा दृष्ट्वा महाबलः ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महाबली वीरने द्रुपदके पुत्रों, पौत्रों और सुहृदोंको ढूँढ़-ढूँढ़कर उनका घोर संहार मचा दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यानन्यांश्च पुरुषानभिसृत्याभिसृत्य च ।
न्यकृन्तदसिना द्रौणिरसिमार्गविशारदः ॥ ६८ ॥
मूलम्
अन्यानन्यांश्च पुरुषानभिसृत्याभिसृत्य च ।
न्यकृन्तदसिना द्रौणिरसिमार्गविशारदः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तलवारके पैंतरोंमें कुशल द्रोणपुत्रने दूसरे-दूसरे पुरुषोंके भी निकट जाकर तलवारसे ही उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालीं रक्तास्यनयनां रक्तमाल्यानुलेपनाम् ।
रक्ताम्बरधरामेकां पाशहस्तां कुटुम्बिनीम् ॥ ६९ ॥
ददृशुः कालरात्रिं ते गायमानामवस्थिताम्।
नराश्वकुञ्जरान् पाशैर्बद्ध्वा घोरैः प्रतस्थुषीम् ॥ ७० ॥
मूलम्
कालीं रक्तास्यनयनां रक्तमाल्यानुलेपनाम् ।
रक्ताम्बरधरामेकां पाशहस्तां कुटुम्बिनीम् ॥ ६९ ॥
ददृशुः कालरात्रिं ते गायमानामवस्थिताम्।
नराश्वकुञ्जरान् पाशैर्बद्ध्वा घोरैः प्रतस्थुषीम् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय पाण्डवपक्षके योद्धाओंने मूर्तिमती कालरात्रिको देखा, जिसके शरीरका रंग काला था, मुख और नेत्र लाल थे। वह लाल फूलोंकी माला पहने और लाल चन्दन लगाये हुए थी। उसने लाल रंगकी ही साड़ी पहन रखी थी। वह अपने ढंगकी अकेली थी और हाथमें पाश लिये हुए थी। उसकी सखियोंका समुदाय भी उसके साथ था। वह गीत गाती हुई खड़ी थी और भयंकर पाशोंद्वारा मनुष्यों, घोड़ों एवं हाथियोंको बाँधकर लिये जाती थी॥६९-७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वहन्तीं विविधान् प्रेतान् पाशबद्धान् विमूर्धजान्।
तथैव च सदा राजन् न्यस्तशस्त्रान् महारथान् ॥ ७१ ॥
स्वप्ने सुप्तान्नयन्तीं तां रात्रिष्वन्यासु मारिष।
ददृशुर्योधमुख्यास्ते घ्नन्तं द्रौणिं च सर्वदा ॥ ७२ ॥
मूलम्
वहन्तीं विविधान् प्रेतान् पाशबद्धान् विमूर्धजान्।
तथैव च सदा राजन् न्यस्तशस्त्रान् महारथान् ॥ ७१ ॥
स्वप्ने सुप्तान्नयन्तीं तां रात्रिष्वन्यासु मारिष।
ददृशुर्योधमुख्यास्ते घ्नन्तं द्रौणिं च सर्वदा ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! मुख्य-मुख्य योद्धा अन्य रात्रियोंमें भी सपनेमें उस कालरात्रिको देखते थे। राजन्! वह सदा नाना प्रकारके केशरहित प्रेतोंको अपने पाशोंमें बाँधकर लिये जाती दिखायी देती थी, इसी प्रकार हथियार डालकर सोये हुए महारथियोंको भी लिये जाती हुई स्वप्नमें दृष्टिगोचर होती थी। वे योद्धा सबका संहार करते हुए द्रोणकुमारको भी सदा सपनोंमें देखा करते थे॥७१-७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतः प्रभृति संग्रामः कुरुपाण्डवसेनयोः।
ततः प्रभृति तां कन्यामपश्यन् द्रौणिमेव च ॥ ७३ ॥
तांस्तु दैवहतान् पूर्वं पश्चाद् द्रौणिर्व्यपातयत्।
त्रासयन् सर्वभूतानि विनदन् भैरवान् रवान् ॥ ७४ ॥
मूलम्
यतः प्रभृति संग्रामः कुरुपाण्डवसेनयोः।
ततः प्रभृति तां कन्यामपश्यन् द्रौणिमेव च ॥ ७३ ॥
तांस्तु दैवहतान् पूर्वं पश्चाद् द्रौणिर्व्यपातयत्।
त्रासयन् सर्वभूतानि विनदन् भैरवान् रवान् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबसे कौरव-पाण्डव सेनाओंका संग्राम आरम्भ हुआ था, तभीसे वे योद्धा कन्यारूपिणी कालरात्रिको और कालरूपधारी अश्वत्थामाको भी देखा करते थे। पहलेसे ही दैवके मारे हुए उन वीरोंका द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने पीछे वध किया था। वह अश्वत्थामा भयानक स्वरसे गर्जना करके समस्त प्राणियोंको भयभीत कर रहा था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदनुस्मृत्य ते वीरा दर्शनं पूर्वकालिकम्।
इदं तदित्यमन्यन्त दैवेनोपनिपीडिताः ॥ ७५ ॥
मूलम्
तदनुस्मृत्य ते वीरा दर्शनं पूर्वकालिकम्।
इदं तदित्यमन्यन्त दैवेनोपनिपीडिताः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दैवपीडित वीरगण पूर्वकालके देखे हुए सपनेको याद करके ऐसा मानने लगे कि ‘यह वही स्वप्न इस रूपमें सत्य हो रहा है’॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तेन निनादेन प्रत्यबुद्ध्यन्त धन्विनः।
शिबिरे पाण्डवेयानां शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ७६ ॥
मूलम्
ततस्तेन निनादेन प्रत्यबुद्ध्यन्त धन्विनः।
शिबिरे पाण्डवेयानां शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अश्वत्थामाके उस सिंहनादसे पाण्डवोंके शिविरमें सैकड़ों और हजारों धनुर्धर वीर जाग उठे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽच्छिनत् कस्यचित् पादौ जघनं चैव कस्यचित्।
कांश्चिद् बिभेद पार्श्वेषु कालसृष्ट इवान्तकः ॥ ७७ ॥
मूलम्
सोऽच्छिनत् कस्यचित् पादौ जघनं चैव कस्यचित्।
कांश्चिद् बिभेद पार्श्वेषु कालसृष्ट इवान्तकः ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कालप्रेरित यमराजके समान उसने किसीके पैर काट लिये, किसीकी कमर टूक-टूक कर दी और किन्हींकी पसलियोंमें तलवार भोंककर उन्हें चीर डाला॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्युग्रप्रतिपिष्टैश्च नदद्भिश्च भृशोत्कटैः ।
गजाश्वमथितैश्चान्यैर्मही कीर्णाभवत् प्रभो ॥ ७८ ॥
मूलम्
अत्युग्रप्रतिपिष्टैश्च नदद्भिश्च भृशोत्कटैः ।
गजाश्वमथितैश्चान्यैर्मही कीर्णाभवत् प्रभो ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब-के-सब भयानक रूपसे कुचल दिये गये थे, अतः उन्मत्त-से होकर जोर-जोरसे चीखते और चिल्लाते थे। इसी प्रकार छूटे हुए घोड़ों और हाथियोंने भी अन्य बहुत-से योद्धाओंको कुचल दिया था। प्रभो! उन सबकी लाशोंसे धरती पट गयी थी॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोशतां किमिदं कोऽयं कः शब्दः किं नु किं कृतम्।
एवं तेषां तथा द्रौणिरन्तकः समपद्यत ॥ ७९ ॥
मूलम्
क्रोशतां किमिदं कोऽयं कः शब्दः किं नु किं कृतम्।
एवं तेषां तथा द्रौणिरन्तकः समपद्यत ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घायल वीर चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे कि ‘यह क्या है? यह कौन है? यह कैसा कोलाहल हो रहा है? यह क्या कर डाला?’ इस प्रकार चीखते हुए उन सब योद्धाओंके लिये द्रोणकुमार अश्वत्थामा काल बन गया था॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपेतशस्त्रसन्नाहान् सन्नद्धान् पाण्डुसृंजयान् ।
प्राहिणोन्मृत्युलोकाय द्रौणिः प्रहरतां वरः ॥ ८० ॥
मूलम्
अपेतशस्त्रसन्नाहान् सन्नद्धान् पाण्डुसृंजयान् ।
प्राहिणोन्मृत्युलोकाय द्रौणिः प्रहरतां वरः ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवों और सृंजयोंमेंसे जिन्होंने अस्त्र-शस्त्र और कवच उतार दिये थे तथा जिन लोगोंने पुनः कवच बाँध लिये थे, उन सबको प्रहार करनेवाले योद्धाओंमें श्रेष्ठ द्रोणपुत्रने मृत्युके लोकमें भेज दिया॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तच्छब्दवित्रस्ता उत्पतन्तो भयातुराः ।
निद्रान्धा नष्टसंज्ञाश्च तत्र तत्र निलिल्यिरे ॥ ८१ ॥
मूलम्
ततस्तच्छब्दवित्रस्ता उत्पतन्तो भयातुराः ।
निद्रान्धा नष्टसंज्ञाश्च तत्र तत्र निलिल्यिरे ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग नींदके कारण अंधे और अचेत-से हो रहे थे, वे उसके शब्दसे चौंककर उछल पड़े; किंतु पुनः भयसे व्याकुल हो जहाँ-तहाँ छिप गये॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊरुस्तम्भगृहीताश्च कश्मलाभिहतौजसः ।
विनदन्तो भृशं त्रस्ताः समासीदन् परस्परम् ॥ ८२ ॥
मूलम्
ऊरुस्तम्भगृहीताश्च कश्मलाभिहतौजसः ।
विनदन्तो भृशं त्रस्ताः समासीदन् परस्परम् ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी जाँघें अकड़ गयी थीं। मोहवश उनका बल और उत्साह मारा गया था। वे भयभीत हो जोर-जोरसे चीखते हुए एक-दूसरेसे लिपट जाते थे॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रथं पुनर्द्रौणिरास्थितो भीमनिःस्वनम्।
धनुष्पाणिः शरैरन्यान् प्रैषयद् वै यमक्षयम् ॥ ८३ ॥
मूलम्
ततो रथं पुनर्द्रौणिरास्थितो भीमनिःस्वनम्।
धनुष्पाणिः शरैरन्यान् प्रैषयद् वै यमक्षयम् ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद द्रोणकुमार अश्वत्थामा पुनः भयानक शब्द करनेवाले अपने रथपर सवार हुआ और हाथमें धनुष ले बाणोंद्वारा दूसरे योद्धाओंको यमलोक भेजने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरुत्पततश्चापि दूरादपि नरोत्तमान् ।
शूरान् सम्पततश्चान्यान् कालरात्र्यै न्यवेदयत् ॥ ८४ ॥
मूलम्
पुनरुत्पततश्चापि दूरादपि नरोत्तमान् ।
शूरान् सम्पततश्चान्यान् कालरात्र्यै न्यवेदयत् ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामा पुनः उछलने और अपने ऊपर आक्रमण करनेवाले दूसरे-दूसरे नरश्रेष्ठ शूरवीरोंको दूरसे भी मारकर कालरात्रिके हवाले कर देता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव स्यन्दनाग्रेण प्रमथन् स विधावति।
शरवर्षैश्च विविधैरवर्षच्छात्रवांस्ततः ॥ ८५ ॥
मूलम्
तथैव स्यन्दनाग्रेण प्रमथन् स विधावति।
शरवर्षैश्च विविधैरवर्षच्छात्रवांस्ततः ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अपने रथके अग्रभागसे शत्रुओंको कुचलता हुआ सब ओर दौड़ लगाता और नाना प्रकारके बाणोंकी वर्षासे शत्रुसैनिकोंको घायल करता था॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनश्च सुविचित्रेण शतचन्द्रेण चर्मणा।
तेन चाकाशवर्णेन तथाचरत सोऽसिना ॥ ८६ ॥
मूलम्
पुनश्च सुविचित्रेण शतचन्द्रेण चर्मणा।
तेन चाकाशवर्णेन तथाचरत सोऽसिना ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वह सौ चन्द्राकार चिह्नोंसे युक्त विचित्र ढाल और आकाशके रंगवाली चमचमाती तलवार लेकर सब ओर विचरने लगा॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च शिबिरं तेषां द्रौणिराहवदुर्मदः।
व्यक्षोभयत राजेन्द्र महाह्रदमिव द्विपः ॥ ८७ ॥
मूलम्
तथा च शिबिरं तेषां द्रौणिराहवदुर्मदः।
व्यक्षोभयत राजेन्द्र महाह्रदमिव द्विपः ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! रणदुर्मद द्रोणकुमारने उन शत्रुओंके शिविरको उसी प्रकार मथ डाला, जैसे कोई गजराज किसी विशाल सरोवरको विक्षुब्ध कर डालता है॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पेतुस्तेन शब्देन योधा राजन् विचेतसः।
निद्रार्ताश्च भयार्ताश्च व्यधावन्त ततस्ततः ॥ ८८ ॥
मूलम्
उत्पेतुस्तेन शब्देन योधा राजन् विचेतसः।
निद्रार्ताश्च भयार्ताश्च व्यधावन्त ततस्ततः ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस मार-काटके कोलाहलसे निद्रामें अचेत पड़े हुए योद्धा चौंककर उछल पड़ते और भयसे व्याकुल हो इधर-उधर भागने लगते थे॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विस्वरं चुक्रुशुश्चान्ये बह्वबद्धं तथा वदन्।
न च स्म प्रत्यपद्यन्त शस्त्राणि वसनानि च ॥ ८९ ॥
मूलम्
विस्वरं चुक्रुशुश्चान्ये बह्वबद्धं तथा वदन्।
न च स्म प्रत्यपद्यन्त शस्त्राणि वसनानि च ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही योद्धा गला फाड़-फाड़कर चिल्लाते और बहुत-सी ऊटपटाँग बातें बकने लगते थे। वे अपने अस्त्र-शस्त्र तथा वस्त्रोंको भी नहीं ढूँढ़ पाते थे॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुक्तकेशाश्चाप्यन्ये नाभ्यजानन् परस्परम् ।
उत्पतन्तोऽपतन् श्रान्ताः केचित् तत्राभ्रमंस्तदा ॥ ९० ॥
मूलम्
विमुक्तकेशाश्चाप्यन्ये नाभ्यजानन् परस्परम् ।
उत्पतन्तोऽपतन् श्रान्ताः केचित् तत्राभ्रमंस्तदा ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे बहुत-से योद्धा बाल बिखेरे हुए भागते थे। उस दशामें वे एक-दूसरेको पहचान नहीं पाते थे। कोई उछलते हुए भागते और थककर गिर जाते थे तथा कोई उसी स्थानपर चक्कर काटते रहते थे॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरीषमसृजन् केचित् केचिन्मूत्रं प्रसुस्रुवुः।
बन्धनानि च राजेन्द्र संच्छिद्य तुरगा द्विपाः ॥ ९१ ॥
समं पर्यपतंश्चान्ये कुर्वन्तो महदाकुलम्।
मूलम्
पुरीषमसृजन् केचित् केचिन्मूत्रं प्रसुस्रुवुः।
बन्धनानि च राजेन्द्र संच्छिद्य तुरगा द्विपाः ॥ ९१ ॥
समं पर्यपतंश्चान्ये कुर्वन्तो महदाकुलम्।
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही मलत्याग करने लगे। कितनोंके पेशाब झड़ने लगे। राजेन्द्र! दूसरे बहुत-से घोड़े और हाथी बन्धन तोड़कर एक साथ ही सब ओर दौड़ने और लोगोंको अत्यन्त व्याकुल करने लगे॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र केचिन्नरा भीता व्यलीयन्त महीतले ॥ ९२ ॥
तथैव तान् निपतितानपिंषन् गजवाजिनः।
मूलम्
तत्र केचिन्नरा भीता व्यलीयन्त महीतले ॥ ९२ ॥
तथैव तान् निपतितानपिंषन् गजवाजिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही योद्धा भयभीत हो पृथ्वीपर छिपे पड़े थे। उन्हें उसी अवस्थामें भागते हुए घोड़ों और हाथियोंने अपने पैरोंसे कुचल दिया॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तथा वर्तमाने रक्षांसि पुरुषर्षभ ॥ ९३ ॥
हृष्टानि व्यनदन्नुच्चैर्मुदा भरतसत्तम ।
मूलम्
तस्मिंस्तथा वर्तमाने रक्षांसि पुरुषर्षभ ॥ ९३ ॥
हृष्टानि व्यनदन्नुच्चैर्मुदा भरतसत्तम ।
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर! भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार जब वह मार-काट मची हुई थी, उस समय हर्षमें भरे हुए राक्षस बड़े जोर-जोरसे गर्जना करते थे॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शब्दः पूरितो राजन् भूतसंघैर्मुदायुतैः ॥ ९४ ॥
अपूरयद् दिशः सर्वा दिवं चातिमहान् स्वनः।
मूलम्
स शब्दः पूरितो राजन् भूतसंघैर्मुदायुतैः ॥ ९४ ॥
अपूरयद् दिशः सर्वा दिवं चातिमहान् स्वनः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आनन्दमग्न हुए भूतसमुदायोंके द्वारा किया हुआ वह महान् कोलाहल सम्पूर्ण दिशाओं तथा आकाशमें गूँज उठा॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामार्तरवं श्रुत्वा वित्रस्ता गजवाजिनः ॥ ९५ ॥
मुक्ताः पर्यपतन् राजन् मृद्नन्तः शिबिरे जनम्।
मूलम्
तेषामार्तरवं श्रुत्वा वित्रस्ता गजवाजिनः ॥ ९५ ॥
मुक्ताः पर्यपतन् राजन् मृद्नन्तः शिबिरे जनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मारे जानेवाले योद्धाओंका आर्तनाद सुनकर हाथी और घोड़े भयसे थर्रा उठे और बन्धनमुक्त हो शिविरमें रहनेवाले लोगोंको रौंदते हुए चारों ओर दौड़ लगाने लगे॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैस्तत्र परिधावद्भिश्चरणोदीरितं रजः ॥ ९६ ॥
अकरोच्छिबिरे तेषां रजन्यां द्विगुणं तमः।
मूलम्
तैस्तत्र परिधावद्भिश्चरणोदीरितं रजः ॥ ९६ ॥
अकरोच्छिबिरे तेषां रजन्यां द्विगुणं तमः।
अनुवाद (हिन्दी)
उन दौड़ते हुए घोड़ों और हाथियोंने अपने पैरोंसे जो धूल उड़ायी थी, उसने पाण्डवोंके शिविरमें रात्रिके अन्धकारको दुगुना कर दिया॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तमसि संजाते प्रमूढाः सर्वतो जनाः ॥ ९७ ॥
नाजानन् पितरः पुत्रान् भ्रातॄन् भ्रातर एव च।
मूलम्
तस्मिंस्तमसि संजाते प्रमूढाः सर्वतो जनाः ॥ ९७ ॥
नाजानन् पितरः पुत्रान् भ्रातॄन् भ्रातर एव च।
अनुवाद (हिन्दी)
वह घोर अन्धकार फैल जानेपर वहाँ सब लोगोंपर मोह छा गया। उस समय पिता पुत्रोंको और भाई भाइयोंको नहीं पहचान पाते थे॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजा गजानतिक्रम्य निर्मनुष्या हया हयान् ॥ ९८ ॥
अताडयंस्तथाभञ्जंस्तथामृद्नंश्च भारत ।
मूलम्
गजा गजानतिक्रम्य निर्मनुष्या हया हयान् ॥ ९८ ॥
अताडयंस्तथाभञ्जंस्तथामृद्नंश्च भारत ।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! हाथी हाथियोंपर और बिना सवारके घोड़े घोड़ोंपर आक्रमण करके एक-दूसरेपर चोट करने लगे। उन्होंने अंग-भंग करके एक-दूसरेको रौंद डाला॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते भग्नाः प्रपतन्ति स्म निघ्नन्तश्च परस्परम् ॥ ९९ ॥
न्यपातयंस्तथा चान्यान् पातयित्वा तदापिषन्।
मूलम्
ते भग्नाः प्रपतन्ति स्म निघ्नन्तश्च परस्परम् ॥ ९९ ॥
न्यपातयंस्तथा चान्यान् पातयित्वा तदापिषन्।
अनुवाद (हिन्दी)
परस्पर आघात करते हुए वे हाथी, घोड़े स्वयं भी घायल होकर गिर जाते थे तथा दूसरोंको भी गिरा देते और गिराकर उनका कचूमर निकाल देते थे॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचेतसः सनिद्राश्च तमसा चावृता नराः ॥ १०० ॥
जग्मुः स्वानेव तत्राथ कालेनैव प्रचोदिताः।
मूलम्
विचेतसः सनिद्राश्च तमसा चावृता नराः ॥ १०० ॥
जग्मुः स्वानेव तत्राथ कालेनैव प्रचोदिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही मनुष्य निद्रामें अचेत पड़े थे और घोर अन्धकारसे घिर गये थे। वे सहसा उठकर कालसे प्रेरित हो आत्मीय जनोंका ही वध करने लगे॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्त्वा द्वाराणि च द्वाःस्थास्तथा गुल्मानि गौल्मिकाः ॥ १०१ ॥
प्राद्रवन्त यथाशक्ति कांदिशीका विचेतसः।
मूलम्
त्यक्त्वा द्वाराणि च द्वाःस्थास्तथा गुल्मानि गौल्मिकाः ॥ १०१ ॥
प्राद्रवन्त यथाशक्ति कांदिशीका विचेतसः।
अनुवाद (हिन्दी)
द्वारपाल दरवाजोंको और तम्बूकी रक्षा करनेवाले सैनिक तम्बुओंको छोड़कर यथाशक्ति भागने लगे। वे सब-के-सब अपनी सुध-बुध खो बैठे थे और यह भी नहीं जानते थे कि ‘उन्हें किस दिशामें भागकर जाना है’॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रणष्टाश्च तेऽन्योन्यं नाजानन्त तथा विभो ॥ १०२ ॥
क्रोशन्तस्तात पुत्रेति दैवोपहतचेतसः ।
मूलम्
विप्रणष्टाश्च तेऽन्योन्यं नाजानन्त तथा विभो ॥ १०२ ॥
क्रोशन्तस्तात पुत्रेति दैवोपहतचेतसः ।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! वे भागे हुए सैनिक एक-दूसरेको पहचान नहीं पाते थे। दैववश उनकी बुद्धि मारी गयी थी। वे ‘हा तात! हा पुत्र!’ कहकर अपने स्वजनोंको पुकार रहे थे॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पलायतां दिशस्तेषां स्वानप्युत्सृज्य बान्धवान् ॥ १०३ ॥
गोत्रनामभिरन्योन्यमाक्रन्दन्त ततो जनाः ।
हाहाकारं च कुर्वाणाः पृथिव्यां शेरते परे ॥ १०४ ॥
मूलम्
पलायतां दिशस्तेषां स्वानप्युत्सृज्य बान्धवान् ॥ १०३ ॥
गोत्रनामभिरन्योन्यमाक्रन्दन्त ततो जनाः ।
हाहाकारं च कुर्वाणाः पृथिव्यां शेरते परे ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने सगे सम्बन्धियोंको भी छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओंमें भागते हुए योद्धाओंके नाम और गोत्रको पुकार-पुकारकर लोग परस्पर बुला रहे थे। कितने ही मनुष्य हाहाकार करते हुए धरतीपर पड़ गये थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् बुद्ध्वा रणमत्तोऽसौ द्रोणपुत्रो व्यपोथयत्।
तत्रापरे वध्यमाना मुहुर्मुहुरचेतसः ॥ १०५ ॥
शिबिरान् निष्पतन्ति स्म क्षत्रिया भयपीडिताः।
मूलम्
तान् बुद्ध्वा रणमत्तोऽसौ द्रोणपुत्रो व्यपोथयत्।
तत्रापरे वध्यमाना मुहुर्मुहुरचेतसः ॥ १०५ ॥
शिबिरान् निष्पतन्ति स्म क्षत्रिया भयपीडिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धके लिये उन्मत्त हुआ द्रोणपुत्र अश्वत्थामा उन सबको पहचान-पहचानकर मार गिराता था। बारंबार उसकी मार खाते हुए दूसरे बहुत-से क्षत्रिय भयसे पीड़ित और अचेत हो शिविरसे बाहर निकलने लगे॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तु निष्पतितांस्त्रस्तान् शिबिराज्जीवितैषिणः ॥ १०६ ॥
कृतवर्मा कृपश्चैव द्वारदेशे निजघ्नतुः।
मूलम्
तांस्तु निष्पतितांस्त्रस्तान् शिबिराज्जीवितैषिणः ॥ १०६ ॥
कृतवर्मा कृपश्चैव द्वारदेशे निजघ्नतुः।
अनुवाद (हिन्दी)
प्राण बचानेकी इच्छासे भयभीत हो शिविरसे निकले हुए उन क्षत्रियोंको कृतवर्मा और कृपाचार्यने दरवाजेपर ही मार डाला॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विस्रस्तयन्त्रकवचान् मुक्तकेशान् कृताञ्जलीन् ॥ १०७ ॥
वेपमानान् क्षितौ भीतान् नैव कांश्चिदमुञ्चताम्।
नामुच्यत तयोः कश्चिन्निष्क्रान्तः शिबिराद् बहिः ॥ १०८ ॥
मूलम्
विस्रस्तयन्त्रकवचान् मुक्तकेशान् कृताञ्जलीन् ॥ १०७ ॥
वेपमानान् क्षितौ भीतान् नैव कांश्चिदमुञ्चताम्।
नामुच्यत तयोः कश्चिन्निष्क्रान्तः शिबिराद् बहिः ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके यन्त्र और कवच गिर गये थे। वे बाल खोले, हाथ जोड़े, भयभीत हो थरथर काँपते हुए पृथ्वीपर खड़े थे, किंतु उन दोनोंने उनमेंसे किसीको भी जीवित नहीं छोड़ा। शिविरसे निकला हुआ कोई भी क्षत्रिय उन दोनोंके हाथसे जीवित नहीं छूट सका॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपश्चैव महाराज हार्दिक्यश्चैव दुर्मतिः।
भूयश्चैव चिकीर्षन्तौ द्रोणपुत्रस्य तौ प्रियम् ॥ १०९ ॥
त्रिषु देशेषु ददतुः शिबिरस्य हुताशनम्।
मूलम्
कृपश्चैव महाराज हार्दिक्यश्चैव दुर्मतिः।
भूयश्चैव चिकीर्षन्तौ द्रोणपुत्रस्य तौ प्रियम् ॥ १०९ ॥
त्रिषु देशेषु ददतुः शिबिरस्य हुताशनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कृपाचार्य तथा दुर्बुद्धि कृतवर्मा दोनों ही द्रोणपुत्र अश्वत्थामाका अधिक-से-अधिक प्रिय करना चाहते थे; अतः उन्होंने उस शिविरमें तीन ओरसे आग लगा दी॥१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रकाशे शिबिरे खड्गेन पितृनन्दनः ॥ ११० ॥
अश्वत्थामा महाराज व्यचरत् कृतहस्तवत्।
मूलम्
ततः प्रकाशे शिबिरे खड्गेन पितृनन्दनः ॥ ११० ॥
अश्वत्थामा महाराज व्यचरत् कृतहस्तवत्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उससे सारे शिविरमें उजाला हो गया और उस उजालेमें पिताको आनन्दित करनेवाला अश्वत्थामा हाथमें खड्ग लिये एक सिद्धहस्त योद्धाकी भाँति बेखटके विचरने लगा॥११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कांश्चिदापततो वीरानपरांश्चैव धावतः ॥ १११ ॥
व्ययोजयत खड्गेन प्राणैर्द्विजवरोत्तमः ।
मूलम्
कांश्चिदापततो वीरानपरांश्चैव धावतः ॥ १११ ॥
व्ययोजयत खड्गेन प्राणैर्द्विजवरोत्तमः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कुछ वीर क्षत्रिय आक्रमण कर रहे थे और दूसरे पीठ दिखाकर भागे जा रहे थे। ब्राह्मणशिरोमणि अश्वत्थामाने उन दोनों ही प्रकारके योद्धाओंको तलवारसे मारकर प्राणहीन कर दिया॥१११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कांश्चिद् योधान् स खड्गेन मध्ये संछिद्य वीर्यवान् ॥ ११२ ॥
अपातयद् द्रोणपुत्रः संरब्धस्तिलकाण्डवत् ।
मूलम्
कांश्चिद् योधान् स खड्गेन मध्ये संछिद्य वीर्यवान् ॥ ११२ ॥
अपातयद् द्रोणपुत्रः संरब्धस्तिलकाण्डवत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधसे भरे हुए शक्तिशाली द्रोणपुत्रने कुछ योद्धाओंको तिलके डंठलोंकी भाँति बीचसे ही तलवारसे काट गिराया॥११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निनदद्भिर्भृशायस्तैर्नराश्वद्विरदोत्तमैः ॥ ११३ ॥
पतितैरभवत् कीर्णा मेदिनी भरतर्षभ।
मूलम्
निनदद्भिर्भृशायस्तैर्नराश्वद्विरदोत्तमैः ॥ ११३ ॥
पतितैरभवत् कीर्णा मेदिनी भरतर्षभ।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! अत्यन्त घायल हो पृथ्वीपर गिरकर चिल्लाते हुए मनुष्यों, घोड़ों और बड़े-बड़े हाथियोंसे वहाँकी भूमि ढँक गयी थी॥११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानुषाणां सहस्रेषु हतेषु पतितेषु च ॥ ११४ ॥
उदतिष्ठन् कबन्धानि बहून्युत्थाय चापतन्।
मूलम्
मानुषाणां सहस्रेषु हतेषु पतितेषु च ॥ ११४ ॥
उदतिष्ठन् कबन्धानि बहून्युत्थाय चापतन्।
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्रों मनुष्य मारे जाकर पृथ्वीपर पड़े थे। उनमेंसे बहुतेरे कबन्ध (धड़) उठकर खड़े हो जाते और पुनः गिर पड़ते थे॥११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सायुधान् साङ्गदान् बाहून् विचकर्त शिरांसि च ॥ ११५ ॥
हस्तिहस्तोपमानूरून् हस्तान् पादांश्च भारत।
मूलम्
सायुधान् साङ्गदान् बाहून् विचकर्त शिरांसि च ॥ ११५ ॥
हस्तिहस्तोपमानूरून् हस्तान् पादांश्च भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उसने आयुधों और भुजबंदोंसहित बहुत-सी भुजाओं तथा मस्तकोंको काट डाला। हाथीकी सूँड़के समान दिखायी देनेवाली जाँघों, हाथों और पैरोंके भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृष्ठच्छिन्नान् पार्श्वच्छिन्नान् शिरश्छिन्नांस्तथा परान् ॥ ११६ ॥
स महात्माकरोद् द्रौणिः कांश्चिच्चापि पराङ्मुखान्।
मूलम्
पृष्ठच्छिन्नान् पार्श्वच्छिन्नान् शिरश्छिन्नांस्तथा परान् ॥ ११६ ॥
स महात्माकरोद् द्रौणिः कांश्चिच्चापि पराङ्मुखान्।
अनुवाद (हिन्दी)
महामनस्वी द्रोणकुमारने किन्हींकी पीठ काट डाली, किन्हींकी पसलियाँ उड़ा दीं, किन्हींके सिर उतार लिये तथा कितनोंको उसने मार भगाया॥११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्यदेशे नरानन्यांश्चिच्छेदान्यांश्च कर्णतः ॥ ११७ ॥
अंसदेशे निहत्यान्यान् काये प्रावेशयच्छिरः।
मूलम्
मध्यदेशे नरानन्यांश्चिच्छेदान्यांश्च कर्णतः ॥ ११७ ॥
अंसदेशे निहत्यान्यान् काये प्रावेशयच्छिरः।
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से मनुष्योंको अश्वत्थामाने कटिभागसे ही काट डाला और कितनोंको कर्णहीन कर दिया। दूसरे-दूसरे योद्धाओंके कंधेपर चोट करके उनके सिरको धड़में घुसेड़ दिया॥११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विचरतस्तस्य निघ्नतः सुबहून् नरान् ॥ ११८ ॥
तमसा रजनी घोरा बभौ दारुणदर्शना।
मूलम्
एवं विचरतस्तस्य निघ्नतः सुबहून् नरान् ॥ ११८ ॥
तमसा रजनी घोरा बभौ दारुणदर्शना।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अनेकों मनुष्योंका संहार करता हुआ वह शिविरमें विचरण करने लगा। उस समय दारुण दिखायी देनेवाली वह रात्रि अन्धकारके कारण और भी घोर तथा भयानक प्रतीत होती थी॥११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किञ्चित्प्राणैश्च पुरुषैर्हतैश्चान्यैः सहस्रशः ॥ ११९ ॥
बहुना च गजाश्वेन भूरभूद् भीमदर्शना।
मूलम्
किञ्चित्प्राणैश्च पुरुषैर्हतैश्चान्यैः सहस्रशः ॥ ११९ ॥
बहुना च गजाश्वेन भूरभूद् भीमदर्शना।
अनुवाद (हिन्दी)
मरे और अधमरे सहस्रों मनुष्यों और बहुसंख्यक हाथी-घोड़ोंसे पटी हुई भूमि बड़ी डरावनी दिखायी देती थी॥११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यक्षरक्षःसमाकीर्णे रथाश्वद्विपदारुणे ॥ १२० ॥
क्रुद्धेन द्रोणपुत्रेण संछन्नाः प्रापतन् भुवि।
मूलम्
यक्षरक्षःसमाकीर्णे रथाश्वद्विपदारुणे ॥ १२० ॥
क्रुद्धेन द्रोणपुत्रेण संछन्नाः प्रापतन् भुवि।
अनुवाद (हिन्दी)
यक्षों तथा राक्षसोंसे भरे हुए एवं रथों, घोड़ों और हाथियोंसे भयंकर दिखायी देनेवाले रणक्षेत्रमें कुपित हुए द्रोणपुत्रके हाथोंसे कटकर कितने ही क्षत्रिय पृथ्वीपर पड़े थे॥१२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातॄनन्ये पितॄनन्ये पुत्रानन्ये विचुक्रुशुः ॥ १२१ ॥
केचिदूचुर्न तत् क्रुद्धैर्धार्तराष्ट्रैः कृतं रणे।
यत् कृतं नः प्रसुप्तानां रक्षोभिः क्रूरकर्मभिः ॥ १२२ ॥
मूलम्
भ्रातॄनन्ये पितॄनन्ये पुत्रानन्ये विचुक्रुशुः ॥ १२१ ॥
केचिदूचुर्न तत् क्रुद्धैर्धार्तराष्ट्रैः कृतं रणे।
यत् कृतं नः प्रसुप्तानां रक्षोभिः क्रूरकर्मभिः ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग भाइयोंको, कुछ पिताओंको और दूसरे लोग पुत्रोंको पुकार रहे थे। कुछ लोग कहने लगे—‘भाइयो! रोषमें भरे हुए धृतराष्ट्रके पुत्रोंने भी रणभूमिमें हमारी वैसी दुर्गति नहीं की थी, जो आज इन क्रूरकर्मा राक्षसोंने हम सोये हुए लोगोंकी कर डाली है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असांनिध्याद्धि पार्थानामिदं नः कदनं कृतम्।
न चासुरैर्न गन्धर्वैर्न यक्षैर्न च राक्षसैः ॥ १२३ ॥
शक्यो विजेतुं कौन्तेयो गोप्ता यस्य जनार्दनः।
ब्रह्मण्यः सत्यवाग् दान्तः सर्वभूतानुकम्पकः ॥ १२४ ॥
मूलम्
असांनिध्याद्धि पार्थानामिदं नः कदनं कृतम्।
न चासुरैर्न गन्धर्वैर्न यक्षैर्न च राक्षसैः ॥ १२३ ॥
शक्यो विजेतुं कौन्तेयो गोप्ता यस्य जनार्दनः।
ब्रह्मण्यः सत्यवाग् दान्तः सर्वभूतानुकम्पकः ॥ १२४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज कुन्तीके पुत्र हमारे पास नहीं हैं, इसीलिये हमलोगोंका यह संहार किया गया है। कुन्तीपुत्र अर्जुनको तो असुर, गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षस कोई भी नहीं जीत सकते; क्योंकि साक्षात् श्रीकृष्ण उनके रक्षक हैं। वे ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी, जितेन्द्रिय तथा सम्पूर्ण भूतोंपर दया करनेवाले हैं॥१२३-१२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च सुप्तं प्रमत्तं वा न्यस्तशस्त्रं कृताञ्जलिम्।
धावन्तं मुक्तकेशं वा हन्ति पार्थो धनंजयः ॥ १२५ ॥
मूलम्
न च सुप्तं प्रमत्तं वा न्यस्तशस्त्रं कृताञ्जलिम्।
धावन्तं मुक्तकेशं वा हन्ति पार्थो धनंजयः ॥ १२५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीनन्दन अर्जुन सोये हुए, असावधान, शस्त्रहीन, हाथ जोड़े हुए, भागते हुए अथवा बाल खोलकर दीनता दिखाते हुए मनुष्यको कभी नहीं मारते हैं॥१२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं नः कृतं घोरं रक्षोभिः क्रूरकर्मभिः।
इति लालप्यमानाः स्म शेरते बहवो जनाः ॥ १२६ ॥
मूलम्
तदिदं नः कृतं घोरं रक्षोभिः क्रूरकर्मभिः।
इति लालप्यमानाः स्म शेरते बहवो जनाः ॥ १२६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज क्रूरकर्मा राक्षसोंद्वारा हमारी यह भयंकर दुर्दशा की गयी है।’ इस प्रकार विलाप करते हुए बहुत-से मनुष्य रणभूमिमें सो रहे थे॥१२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तनतां च मनुष्याणामपरेषां च कूजताम्।
ततो मुहूर्तात् प्राशाम्यत् स शब्दस्तुमुलो महान् ॥ १२७ ॥
मूलम्
स्तनतां च मनुष्याणामपरेषां च कूजताम्।
ततो मुहूर्तात् प्राशाम्यत् स शब्दस्तुमुलो महान् ॥ १२७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर दो ही घड़ीमें कराहते और विलाप करते हुए मनुष्योंका वह भयंकर कोलाहल शान्त हो गया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोणितव्यतिषिक्तायां वसुधायां च भूमिप।
तद्रजस्तुमुलं घोरं क्षणेनान्तरधीयत ॥ १२८ ॥
मूलम्
शोणितव्यतिषिक्तायां वसुधायां च भूमिप।
तद्रजस्तुमुलं घोरं क्षणेनान्तरधीयत ॥ १२८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! खूनसे भीगी हुई पृथ्वीपर गिरकर वह भयानक धूल क्षणभरमें अदृश्य हो गयी॥१२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेष्टमानानुद्विग्नान् निरुत्साहान् सहस्रशः।
न्यपातयन्नरान् क्रुद्धः पशून् पशुपतिर्यथा ॥ १२९ ॥
मूलम्
स चेष्टमानानुद्विग्नान् निरुत्साहान् सहस्रशः।
न्यपातयन्नरान् क्रुद्धः पशून् पशुपतिर्यथा ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे प्रलयके समय क्रोधमें भरे हुए पशुपति रुद्र समस्त पशुओं (प्राणियों)-का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार कुपित हुए अश्वत्थामाने ऐसे सहस्रों मनुष्योंको भी मार डाला, जो किसी प्रकार प्राण बचानेके प्रयत्नमें लगे हुए थे, एकदम घबराये हुए थे और सारा उत्साह खो बैठे थे॥१२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यं सम्परिष्वज्य शयानान् द्रवतोऽपरान्।
संलीनान् युद्ध्यमानांश्च सर्वान् द्रौणिरपोथयत् ॥ १३० ॥
मूलम्
अन्योन्यं सम्परिष्वज्य शयानान् द्रवतोऽपरान्।
संलीनान् युद्ध्यमानांश्च सर्वान् द्रौणिरपोथयत् ॥ १३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग एक-दूसरेसे लिपटकर सो रहे थे, दूसरे भाग रहे थे, तीसरे छिप गये थे और चौथी श्रेणीके लोग जूझ रहे थे, उन सबको द्रोणकुमारने वहाँ मार गिराया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दह्यमाना हुताशेन वध्यमानाश्च तेन ते।
परस्परं तदा योधा अनयन् यमसादनम् ॥ १३१ ॥
मूलम्
दह्यमाना हुताशेन वध्यमानाश्च तेन ते।
परस्परं तदा योधा अनयन् यमसादनम् ॥ १३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक ओर लोग आगसे जल रहे थे और दूसरी ओर अश्वत्थामाके हाथसे मारे जाते थे, ऐसी दशामें वे सब योद्धा स्वयं ही एक-दूसरेको यमलोक भेजने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या रजन्यास्त्वर्धेन पाण्डवानां महद् बलम्।
गमयामास राजेन्द्र द्रौणिर्यमनिवेशनम् ॥ १३२ ॥
मूलम्
तस्या रजन्यास्त्वर्धेन पाण्डवानां महद् बलम्।
गमयामास राजेन्द्र द्रौणिर्यमनिवेशनम् ॥ १३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उस रातका आधा भाग बीतते-बीतते द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने पाण्डवोंकी उस विशाल सेनाको यमराजके घर भेज दिया॥१३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशाचराणां सत्त्वानां रात्रिः सा हर्षवर्धिनी।
आसीन्नरगजाश्वानां रौद्री क्षयकरी भृशम् ॥ १३३ ॥
मूलम्
निशाचराणां सत्त्वानां रात्रिः सा हर्षवर्धिनी।
आसीन्नरगजाश्वानां रौद्री क्षयकरी भृशम् ॥ १३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह भयानक रात्रि निशाचर प्राणियोंका हर्ष बढ़ानेवाली थी और मनुष्यों, घोड़ों तथा हाथियोंके लिये अत्यन्त विनाशकारिणी सिद्ध हुई॥१३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रादृश्यन्त रक्षांसि पिशाचाश्च पृथग्विधाः।
खादन्तो नरमांसानि पिबन्तः शोणितानि च ॥ १३४ ॥
मूलम्
तत्रादृश्यन्त रक्षांसि पिशाचाश्च पृथग्विधाः।
खादन्तो नरमांसानि पिबन्तः शोणितानि च ॥ १३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ नाना प्रकारकी आकृतिवाले बहुत-से राक्षस और पिशाच मनुष्योंके मांस खाते और खून पीते दिखायी देते थे॥१३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करालाः पिङ्गलाश्चैव शैलदन्ता रजस्वलाः।
जटिला दीर्घशङ्खाश्च पञ्चपादा महोदराः ॥ १३५ ॥
मूलम्
करालाः पिङ्गलाश्चैव शैलदन्ता रजस्वलाः।
जटिला दीर्घशङ्खाश्च पञ्चपादा महोदराः ॥ १३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बड़े ही विकराल और पिंगलवर्णके थे। उनके दाँत पहाड़ों-जैसे जान पड़ते थे। वे सारे अंगोंमें धूल लपेटे और सिरपर जटा रखाये हुए थे। उनके माथेकी हड्डी बहुत बड़ी थी। उनके पाँच-पाँच पैर और बड़े-बड़े पेट थे॥१३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्चादङ्गुलयो रूक्षा विरूपा भैरवस्वनाः।
घण्टाजालावसक्ताश्च नीलकण्ठा विभीषणाः ॥ १३६ ॥
सपुत्रदाराः सक्रूराः सुदुर्दर्शाः सुनिर्घृणाः।
विविधानि च रूपाणि तत्रादृश्यन्त रक्षसाम् ॥ १३७ ॥
मूलम्
पश्चादङ्गुलयो रूक्षा विरूपा भैरवस्वनाः।
घण्टाजालावसक्ताश्च नीलकण्ठा विभीषणाः ॥ १३६ ॥
सपुत्रदाराः सक्रूराः सुदुर्दर्शाः सुनिर्घृणाः।
विविधानि च रूपाणि तत्रादृश्यन्त रक्षसाम् ॥ १३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी अंगुलियाँ पीछेकी ओर थीं। वे रूखे, कुरूप और भयंकर गर्जना करनेवाले थे। बहुतोंने घंटोंकी मालाएँ पहन रखी थीं। उनके गलेमें नील चिह्न था। वे बड़े भयानक दिखायी देते थे। उनके स्त्री और पुत्र भी साथ ही थे। वे अत्यन्त क्रूर और निर्दय थे। उनकी ओर देखना भी बहुत कठिन था। वहाँ उन राक्षसोंके भाँति-भाँतिके रूप दृष्टिगोचर हो रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीत्वा च शोणितं हृष्टाः प्रानृत्यन् गणशोऽपरे।
इदं परमिदं मेध्यमिदं स्वाद्विति चाब्रुवन् ॥ १३८ ॥
मूलम्
पीत्वा च शोणितं हृष्टाः प्रानृत्यन् गणशोऽपरे।
इदं परमिदं मेध्यमिदं स्वाद्विति चाब्रुवन् ॥ १३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई रक्त पीकर हर्षसे खिल उठे थे। दूसरे अलग-अलग झुंड बनाकर नाच रहे थे। वे आपसमें कहते थे—‘यह उत्तम है, यह पवित्र है और यह बहुत स्वादिष्ट है’॥१३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेदोमज्जास्थिरक्तानां वसानां च भृशाशिताः।
परमांसानि खादन्तः क्रव्यादा मांसजीविनः ॥ १३९ ॥
मूलम्
मेदोमज्जास्थिरक्तानां वसानां च भृशाशिताः।
परमांसानि खादन्तः क्रव्यादा मांसजीविनः ॥ १३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेदा, मज्जा, हड्डी, रक्त और चर्बीका विशेष आहार करनेवाले मांसजीवी राक्षस एवं हिंसक जन्तु दूसरोंके मांस खा रहे थे॥१३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसाश्चैवापरे पीत्वा पर्यधावन् विकुक्षिकाः।
नानावक्त्रास्तथा रौद्राः क्रव्यादाः पिशिताशनाः ॥ १४० ॥
मूलम्
वसाश्चैवापरे पीत्वा पर्यधावन् विकुक्षिकाः।
नानावक्त्रास्तथा रौद्राः क्रव्यादाः पिशिताशनाः ॥ १४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे कुक्षिरहित राक्षस चर्बियोंका पान करके चारों ओर दौड़ लगा रहे थे। कच्चा मांस खानेवाले उन भयंकर राक्षसोंके अनेक मुख थे॥१४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयुतानि च तत्रासन् प्रयुतान्यर्बुदानि च।
रक्षसां घोररूपाणां महतां क्रूरकर्मणाम् ॥ १४१ ॥
मुदितानां वितृप्तानां तस्मिन् महति वैशसे।
समेतानि बहून्यासन् भूतानि च जनाधिप ॥ १४२ ॥
मूलम्
अयुतानि च तत्रासन् प्रयुतान्यर्बुदानि च।
रक्षसां घोररूपाणां महतां क्रूरकर्मणाम् ॥ १४१ ॥
मुदितानां वितृप्तानां तस्मिन् महति वैशसे।
समेतानि बहून्यासन् भूतानि च जनाधिप ॥ १४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उस महान् जनसंहारमें तृप्त और आनन्दित हुए क्रूर कर्म करनेवाले घोर रूपधारी महाकाय राक्षसोंके कई दल थे। किसी दलमें दस हजार, किसीमें एक लाख और किसीमें एक अर्बुद (दस लाख) राक्षस थे। नरेश्वर! वहाँ और भी बहुत-से मांसभक्षी प्राणी एकत्र हो गये थे॥१४१-१४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यूषकाले शिबिरात् प्रतिगन्तुमियेष सः।
नृशोणितावसिक्तस्य द्रौणेरासीदसित्सरुः ॥ १४३ ॥
पाणिना सह संश्लिष्ट एकीभूत इव प्रभो।
मूलम्
प्रत्यूषकाले शिबिरात् प्रतिगन्तुमियेष सः।
नृशोणितावसिक्तस्य द्रौणेरासीदसित्सरुः ॥ १४३ ॥
पाणिना सह संश्लिष्ट एकीभूत इव प्रभो।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रातःकाल पौ फटते ही अश्वत्थामाने शिविरसे बाहर निकल जानेका विचार किया। प्रभो! उस समय नररक्तसे नहाये हुए अश्वत्थामाके हाथसे सटकर उसकी तलवारकी मूठ ऐसी जान पड़ती थी, मानो वह उससे अभिन्न हो॥१४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्गमां पदवीं गत्वा विरराज जनक्षये ॥ १४४ ॥
युगान्ते सर्वभूतानि भस्म कृत्वेव पावकः।
मूलम्
दुर्गमां पदवीं गत्वा विरराज जनक्षये ॥ १४४ ॥
युगान्ते सर्वभूतानि भस्म कृत्वेव पावकः।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे प्रलयकालमें आग सम्पूर्ण प्राणियोंको भस्म करके प्रकाशित होती है, उसी प्रकार वह नरसंहार हो जानेपर अपने दुर्गम लक्ष्यतक पहुँचकर अश्वत्थामा अधिक शोभा पाने लगा॥१४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाप्रतिज्ञं तत् कर्म कृत्वा द्रौणायनिः प्रभो ॥ १४५ ॥
दुर्गमां पदवीं गच्छन् पितुरासीद् गतज्वरः।
मूलम्
यथाप्रतिज्ञं तत् कर्म कृत्वा द्रौणायनिः प्रभो ॥ १४५ ॥
दुर्गमां पदवीं गच्छन् पितुरासीद् गतज्वरः।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! अपने पिताके दुर्गम पथपर चलता हुआ द्रोणकुमार अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार सारा कार्य पूर्ण करके शोक और चिन्तासे रहित हो गया॥१४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव संसुप्तजने शिबिरे प्राविशन्निशि ॥ १४६ ॥
तथैव हत्वा निःशब्दे निश्चक्राम नरर्षभः।
मूलम्
यथैव संसुप्तजने शिबिरे प्राविशन्निशि ॥ १४६ ॥
तथैव हत्वा निःशब्दे निश्चक्राम नरर्षभः।
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार रातके समय सबके सो जानेपर शान्त शिविरमें उसने प्रवेश किया था, उसी प्रकार वह नरश्रेष्ठ वीर सबको मारकर कोलाहलशून्य हुए शिविरसे बाहर निकला॥१४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निष्क्रम्य शिबिरात् तस्मात् ताभ्यां संगम्य वीर्यवान् ॥ १४७ ॥
आचख्यौ कर्म तत् सर्वं हृष्टः संहर्षयन् विभो।
मूलम्
निष्क्रम्य शिबिरात् तस्मात् ताभ्यां संगम्य वीर्यवान् ॥ १४७ ॥
आचख्यौ कर्म तत् सर्वं हृष्टः संहर्षयन् विभो।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! उस शिविरसे निकलकर शक्तिशाली अश्वत्थामा उन दोनोंसे मिला और स्वयं हर्षमग्न हो उन दोनोंका हर्ष बढ़ाते हुए उसने अपना किया हुआ सारा कर्म उनसे कह सुनाया॥१४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावथाचख्यतुस्तस्मै प्रियं प्रियकरौ तदा ॥ १४८ ॥
पञ्चालान् सृञ्जयांश्चैव विनिकृत्तान् सहस्रशः।
मूलम्
तावथाचख्यतुस्तस्मै प्रियं प्रियकरौ तदा ॥ १४८ ॥
पञ्चालान् सृञ्जयांश्चैव विनिकृत्तान् सहस्रशः।
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामाका प्रिय करनेवाले उन दोनों वीरोंने भी उस समय उससे यह प्रिय समाचार निवेदन किया कि हम दोनोंने भी सहस्रों पांचालों और सृंजयोंके टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं॥१४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीत्या चोच्चैरुदक्रोशंस्तथैवास्फोटयंस्तलान् ॥ १४९ ॥
एवंविधा हि सा रात्रिः सोमकानां जनक्षये।
प्रसुप्तानां प्रमत्तानामासीत् सुभृशदारुणा ॥ १५० ॥
मूलम्
प्रीत्या चोच्चैरुदक्रोशंस्तथैवास्फोटयंस्तलान् ॥ १४९ ॥
एवंविधा हि सा रात्रिः सोमकानां जनक्षये।
प्रसुप्तानां प्रमत्तानामासीत् सुभृशदारुणा ॥ १५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो वे तीनों प्रसन्नताके मारे उच्चस्वरसे गर्जने और ताल ठोकने लगे। इस प्रकार वह रात्रि उस जन-संहारकी वेलामें असावधान होकर सोये हुए सोमकोंके लिये अत्यन्त भयंकर सिद्ध हुई॥१४९-१५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंशयं हि कालस्य पर्यायो दुरतिक्रमः।
तादृशा निहता यत्र कृत्वास्माकं जनक्षयम् ॥ १५१ ॥
मूलम्
असंशयं हि कालस्य पर्यायो दुरतिक्रमः।
तादृशा निहता यत्र कृत्वास्माकं जनक्षयम् ॥ १५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसमें संशय नहीं कि कालकी गतिका उल्लंघन करना अत्यन्त कठिन है। जहाँ हमारे पक्षके लोगोंका संहार करके विजयको प्राप्त हुए वैसे-वैसे वीर मार डाले गये॥१५१॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रागेव सुमहत् कर्म द्रौणिरेतन्महारथः।
नाकरोदीदृशं कस्मान्मत्पुत्रविजये धृतः ॥ १५२ ॥
मूलम्
प्रागेव सुमहत् कर्म द्रौणिरेतन्महारथः।
नाकरोदीदृशं कस्मान्मत्पुत्रविजये धृतः ॥ १५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! अश्वत्थामा तो मेरे पुत्रको विजय दिलानेका दृढ़ निश्चय कर चुका था। फिर उस महारथी वीरने पहले ही ऐसा महान् पराक्रम क्यों नहीं किया?॥१५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ कस्माद्धते क्षुद्रं कर्मेदं कृतवानसौ।
द्रोणपुत्रो महात्मा स तन्मे शंसितुमर्हसि ॥ १५३ ॥
मूलम्
अथ कस्माद्धते क्षुद्रं कर्मेदं कृतवानसौ।
द्रोणपुत्रो महात्मा स तन्मे शंसितुमर्हसि ॥ १५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब दुर्योधन मार डाला गया, तब उस महामनस्वी द्रोणपुत्रने ऐसा नीच कर्म क्यों किया? यह सब मुझे बताओ॥१५३॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां नूनं भयान्नासौ कृतवान् कुरुनन्दन।
असांनिध्याद्धि पार्थानां केशवस्य च धीमतः ॥ १५४ ॥
सात्यकेश्चापि कर्मेदं द्रोणपुत्रेण साधितम्।
मूलम्
तेषां नूनं भयान्नासौ कृतवान् कुरुनन्दन।
असांनिध्याद्धि पार्थानां केशवस्य च धीमतः ॥ १५४ ॥
सात्यकेश्चापि कर्मेदं द्रोणपुत्रेण साधितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— कुरुनन्दन! अश्वत्थामाको पाण्डव, श्रीकृष्ण और सात्यकिसे सदा भय बना रहता था; इसीलिये पहले उसने ऐसा नहीं किया। इस समय कुन्तीके पुत्र, बुद्धिमान् श्रीकृष्ण तथा सात्यकिके दूर चले जानेसे अश्वत्थामाने अपना यह कार्य सिद्ध कर लिया॥१५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को हि तेषां समक्षं तान् हन्यादपि मरुत्पतिः ॥ १५५ ॥
एतदीदृशकं वृत्तं राजन् सुप्तजने विभो।
मूलम्
को हि तेषां समक्षं तान् हन्यादपि मरुत्पतिः ॥ १५५ ॥
एतदीदृशकं वृत्तं राजन् सुप्तजने विभो।
अनुवाद (हिन्दी)
उन पाण्डव आदिके समक्ष कौन उन्हें मार सकता था? साक्षात् देवराज इन्द्र भी उस दशामें उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। प्रभो! नरेश्वर! उस रात्रिमें सब लोगोंके सो जानेपर यह इस प्रकारकी घटना घटित हुई॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जनक्षयं कृत्वा पाण्डवानां महात्ययम् ॥ १५६ ॥
दिष्ट्या दिष्ट्यैव चान्योन्यं समेत्योचुर्महारथाः।
मूलम्
ततो जनक्षयं कृत्वा पाण्डवानां महात्ययम् ॥ १५६ ॥
दिष्ट्या दिष्ट्यैव चान्योन्यं समेत्योचुर्महारथाः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय पाण्डवोंके लिये महान् विनाशकारी जनसंहार करके वे तीनों महारथी जब परस्पर मिले, तब आपसमें कहने लगे—‘बड़े सौभाग्यसे यह कार्य सिद्ध हुआ है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्यष्वजत् ततो द्रौणिस्ताभ्यां सम्प्रतिनन्दितः ॥ १५७ ॥
इदं हर्षात् तु सुमहदाददे वाक्यमुत्तमम्।
मूलम्
पर्यष्वजत् ततो द्रौणिस्ताभ्यां सम्प्रतिनन्दितः ॥ १५७ ॥
इदं हर्षात् तु सुमहदाददे वाक्यमुत्तमम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन दोनोंका अभिनन्दन स्वीकार करके द्रोणपुत्रने उन्हें हृदयसे लगाया और बड़े हर्षसे यह महत्त्वपूर्ण उत्तम वचन मुँहसे निकाला—॥१५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चाला निहताः सर्वे द्रौपदेयाश्च सर्वशः ॥ १५८ ॥
सोमका मत्स्यशेषाश्च सर्वे विनिहता मया।
मूलम्
पञ्चाला निहताः सर्वे द्रौपदेयाश्च सर्वशः ॥ १५८ ॥
सोमका मत्स्यशेषाश्च सर्वे विनिहता मया।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सारे पांचाल, द्रौपदीके सभी पुत्र, सोमकवंशी क्षत्रिय तथा मत्स्य देशके अवशिष्ट सैनिक ये सभी मेरे हाथसे मारे गये॥१५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीं कृतकृत्याः स्म याम तत्रैव मा चिरम्।
यदि जीवति नो राजा तस्मै शंसमहे वयम् ॥ १५९ ॥
मूलम्
इदानीं कृतकृत्याः स्म याम तत्रैव मा चिरम्।
यदि जीवति नो राजा तस्मै शंसमहे वयम् ॥ १५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय हम कृतकृत्य हो गये। अब हमें शीघ्र वहीं चलना चाहिये। यदि हमारे राजा दुर्योधन जीवित हों तो हम उन्हें भी यह समाचार कह सुनावें’॥१५९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि रात्रियुद्धे पाञ्चालादिवधेऽष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वमें रात्रियुद्धके प्रसंगमें पांचाल आदिका वधविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल १५९ श्लोक हैं।)
मूलम्
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल १५९ श्लोक हैं।)