००७

भागसूचना

सप्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अश्वत्थामाद्वारा शिवकी स्तुति, उसके सामने एक अग्निवेदी तथा भूतगणोंका प्राकट्‌य और उसका आत्मसमर्पण करके भगवान् शिवसे खड्ग प्राप्त करना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संचिन्तयित्वा तु द्रोणपुत्रो विशाम्पते।
अवतीर्य रथोपस्थाद् देवेशं प्रणतः स्थितः ॥ १ ॥

मूलम्

एवं संचिन्तयित्वा तु द्रोणपुत्रो विशाम्पते।
अवतीर्य रथोपस्थाद् देवेशं प्रणतः स्थितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— प्रजानाथ! ऐसा सोचकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा रथकी बैठकसे उतर पड़ा और देवेश्वर महादेवजीको प्रणाम करके खड़ा हो इस प्रकार स्तुति करने लगा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

द्रौणिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उग्रं स्थाणुं शिवं रुद्रं शर्वमीशानमीश्वरम्।
गिरिशं वरदं देवं भवभावनमीश्वरम् ॥ २ ॥
शितिकण्ठमजं शुक्रं दक्षक्रतुहरं हरम्।
विश्वरूपं विरूपाक्षं बहुरूपमुमापतिम् ॥ ३ ॥
श्मशानवासिनं दृप्तं महागणपतिं विभुम्।
खट्‌वाङ्गधारिणं रुद्रं जटिलं ब्रह्मचारिणम् ॥ ४ ॥
मनसा सुविशुद्धेन दुष्करेणाल्पचेतसा ।
सोऽहमात्मोपहारेण यक्ष्ये त्रिपुरघातिनम् ॥ ५ ॥

मूलम्

उग्रं स्थाणुं शिवं रुद्रं शर्वमीशानमीश्वरम्।
गिरिशं वरदं देवं भवभावनमीश्वरम् ॥ २ ॥
शितिकण्ठमजं शुक्रं दक्षक्रतुहरं हरम्।
विश्वरूपं विरूपाक्षं बहुरूपमुमापतिम् ॥ ३ ॥
श्मशानवासिनं दृप्तं महागणपतिं विभुम्।
खट्‌वाङ्गधारिणं रुद्रं जटिलं ब्रह्मचारिणम् ॥ ४ ॥
मनसा सुविशुद्धेन दुष्करेणाल्पचेतसा ।
सोऽहमात्मोपहारेण यक्ष्ये त्रिपुरघातिनम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वत्थामा बोला— प्रभो! आप उग्र, स्थाणु, शिव, रुद्र, शर्व, ईशान, ईश्वर और गिरिश आदि नामोंसे प्रसिद्ध वरदायक देवता तथा सम्पूर्ण जगत्‌को उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर हैं। आपके कण्ठमें नील चिह्न है। आप अजन्मा एवं शुद्धात्मा हैं। आपने ही दक्षके यज्ञका विनाश किया है। आप ही संहारकारी हर, विश्वरूप, भयानक नेत्रोंवाले, अनेक रूपधारी तथा उमादेवीके प्राणनाथ हैं। आप श्मशानमें निवास करते हैं। आपको अपनी शक्तिपर गर्व है। आप अपने महान् गणोंके अधिपति, सर्वव्यापी तथा खट्‌वांगधारी हैं, उपासकोंका दुःख दूर करनेवाले रुद्र हैं, मस्तकपर जटा धारण करनेवाले ब्रह्मचारी हैं। आपने त्रिपुरासुरका विनाश किया है। मैं विशुद्ध हृदयसे अपने-आपकी बलि देकर, जो मन्दमति मानवोंके लिये अति दुष्कर है, आपका यजन करूँगा॥२—५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तुतं स्तुत्यं स्तूयमानममोघं कृत्तिवाससम्।
विलोहितं नीलकण्ठमसह्यं दुर्निवारणम् ॥ ६ ॥
शुक्रं ब्रह्मसृजं ब्रह्म ब्रह्मचारिणमेव च।
व्रतवन्तं तपोनिष्ठमनन्तं तपतां गतिम् ॥ ७ ॥
बहुरूपं गणाध्यक्षं त्र्यक्षं पारिषदप्रियम्।
धनाध्यक्षेक्षितमुखं गौरीहृदयवल्लभम् ॥ ८ ॥
कुमारपितरं पिङ्गं गोवृषोत्तमवाहनम् ।
तनुवाससमत्युग्रमुमाभूषणतत्परम् ॥ ९ ॥
परं परेभ्यः परमं परं यस्मान्न विद्यते।
इष्वस्त्रोत्तमभर्तारं दिगन्तं देशरक्षिणम् ॥ १० ॥
हिरण्यकवचं देवं चन्द्रमौलिविभूषणम् ।
प्रपद्ये शरणं देवं परमेण समाधिना ॥ ११ ॥

मूलम्

स्तुतं स्तुत्यं स्तूयमानममोघं कृत्तिवाससम्।
विलोहितं नीलकण्ठमसह्यं दुर्निवारणम् ॥ ६ ॥
शुक्रं ब्रह्मसृजं ब्रह्म ब्रह्मचारिणमेव च।
व्रतवन्तं तपोनिष्ठमनन्तं तपतां गतिम् ॥ ७ ॥
बहुरूपं गणाध्यक्षं त्र्यक्षं पारिषदप्रियम्।
धनाध्यक्षेक्षितमुखं गौरीहृदयवल्लभम् ॥ ८ ॥
कुमारपितरं पिङ्गं गोवृषोत्तमवाहनम् ।
तनुवाससमत्युग्रमुमाभूषणतत्परम् ॥ ९ ॥
परं परेभ्यः परमं परं यस्मान्न विद्यते।
इष्वस्त्रोत्तमभर्तारं दिगन्तं देशरक्षिणम् ॥ १० ॥
हिरण्यकवचं देवं चन्द्रमौलिविभूषणम् ।
प्रपद्ये शरणं देवं परमेण समाधिना ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें आपकी स्तुति की गयी है, भविष्यमें भी आप स्तुतिके योग्य बने रहेंगे और वर्तमानकालमें भी आपकी स्तुति की जाती है। आपका कोई भी संकल्प या प्रयत्न व्यर्थ नहीं होता। आप व्याघ्र-चर्ममय वस्त्र धारण करते हैं, लोहितवर्ण और नीलकण्ठ हैं। आपके वेगको सहन करना असम्भव है और आपको रोकना सर्वथा कठिन है। आप शुद्धस्वरूप ब्रह्म हैं। आपने ही ब्रह्माजीकी सृष्टि की है। आप ब्रह्मचारी, व्रतधारी तथा तपोनिष्ठ हैं, आपका कहीं अन्त नहीं है। आप तपस्वी जनोंके आश्रय, बहुत-से रूप धारण करनेवाले तथा गणपति हैं। आपके तीन नेत्र हैं। अपने पार्षदोंको आप बहुत प्रिय हैं। धनाध्यक्ष कुबेर सदा आपका मुख निहारा करते हैं। आप गौरांगिनी गिरिराजनन्दिनीके हृदय-वल्लभ हैं। कुमार कार्तिकेयके पिता भी आप ही हैं। आपका वर्ण पिंगल है। वृषभ आपका श्रेष्ठ वाहन है। आप अत्यन्त सूक्ष्म वस्त्र धारण करनेवाले और अत्यन्त उग्र हैं। उमादेवीको विभूषित करनेमें तत्पर रहते हैं। ब्रह्मा आदि देवताओंसे श्रेष्ठ और परात्पर हैं। आपसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है। आप उत्तम धनुष धारण करनेवाले, दिगन्तव्यापी तथा सब देशोंके रक्षक हैं। आपके श्रीअंगोंमें सुवर्णमय कवच शोभा पाता है। आपका स्वरूप दिव्य है तथा आप चन्द्रमय मुकुटसे विभूषित होते हैं। मैं अपने चित्तको पूर्णतः एकाग्र करके आप परमेश्वरकी शरणमें आता हूँ॥६—११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमां चेदापदं घोरां तराम्यद्य सुदुष्कराम्।
सर्वभूतोपहारेण यक्ष्येऽहं शुचिना शुचिम् ॥ १२ ॥

मूलम्

इमां चेदापदं घोरां तराम्यद्य सुदुष्कराम्।
सर्वभूतोपहारेण यक्ष्येऽहं शुचिना शुचिम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मैं आज इस अत्यन्त दुष्कर और भयंकर विपत्तिसे पार पा जाऊँ तो मैं सर्वभूतमय पवित्र उपहार समर्पित करके आप परम पावन परमेश्वरकी पूजा करूँगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति तस्य व्यवसितं ज्ञात्वा योगात् सुकर्मणः।
पुरस्तात् काञ्चनी वेदी प्रादुरासीन्महात्मनः ॥ १३ ॥

मूलम्

इति तस्य व्यवसितं ज्ञात्वा योगात् सुकर्मणः।
पुरस्तात् काञ्चनी वेदी प्रादुरासीन्महात्मनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अश्वत्थामाका दृढ़ निश्चय जानकर उसके शुभकर्मके योगसे उस महामनस्वी वीरके आगे एक सुवर्णमयी वेदी प्रकट हुई॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां वेद्यां तदा राजंश्चित्रभानुरजायत।
स दिशो विदिशः खं च ज्वालाभिरिव पूरयन् ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्यां वेद्यां तदा राजंश्चित्रभानुरजायत।
स दिशो विदिशः खं च ज्वालाभिरिव पूरयन् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस वेदीपर तत्काल ही अग्निदेव प्रकट हो गये, जो अपनी ज्वालाओंसे सम्पूर्ण दिशाओं-विदिशाओं और आकाशको परिपूर्ण-सा कर रहे थे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीप्तास्यनयनाश्चात्र नैकपादशिरोभुजाः ।
रत्नचित्राङ्गदधराः समुद्यतकरास्तथा ॥ १५ ॥
द्वीपशैलप्रतीकाशाः प्रादुरासन् महागणाः ।

मूलम्

दीप्तास्यनयनाश्चात्र नैकपादशिरोभुजाः ।
रत्नचित्राङ्गदधराः समुद्यतकरास्तथा ॥ १५ ॥
द्वीपशैलप्रतीकाशाः प्रादुरासन् महागणाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वहीं बहुत-से महान् गण प्रकट हो गये, जो द्वीपवर्ती पर्वतोंके समान बहुत ऊँचे कदके थे। उनके मुख और नेत्र दीप्तिसे दमक रहे थे। उन गणोंके पैर, मस्तक और भुजाएँ अनेक थीं। वे अपनी बाहोंमें रत्न-निर्मित विचित्र अंगद धारण किये हुए थे। उन सबने अपने हाथ ऊपर उठा रखे थे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्ववराहोष्ट्ररूपाश्च हयगोमायुगोमुखाः ॥ १६ ॥
ऋक्षमार्जारवदना व्याघ्रद्वीपिमुखास्तथा ।
काकवक्त्राः प्लवमुखाः शुकवक्त्रास्तथैव च ॥ १७ ॥
महाजगरवक्त्राश्च हंसवक्त्राः सितप्रभाः ।
दार्वाघाटमुखाश्चापि चाषवक्त्राश्च भारत ॥ १८ ॥

मूलम्

श्ववराहोष्ट्ररूपाश्च हयगोमायुगोमुखाः ॥ १६ ॥
ऋक्षमार्जारवदना व्याघ्रद्वीपिमुखास्तथा ।
काकवक्त्राः प्लवमुखाः शुकवक्त्रास्तथैव च ॥ १७ ॥
महाजगरवक्त्राश्च हंसवक्त्राः सितप्रभाः ।
दार्वाघाटमुखाश्चापि चाषवक्त्राश्च भारत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके रूप कुत्ते, सूअर और ऊँटोंके समान थे; मुँह घोड़ों, गीदड़ों और गाय-बैलोंके समान जान पड़ते थे। किन्हींके मुख रीछोंके समान थे तो किन्हींके बिलावोंके समान। कोई बाघोंके समान मुँहवाले थे तो कोई चीतोंके। कितने ही गणोंके मुख कौओं, वानरों, तोतों, बड़े-बड़े अजगरों और हंसोंके समान थे। भारत! कितनोंकी कान्ति भी हंसोंके समान सफेद थी, कितने ही गणोंके मुख कठफोरवा पक्षी और नीलकण्ठके समान थे॥१६—१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूर्मनक्रमुखाश्चैव शिशुमारमुखास्तथा ।
महामकरवक्त्राश्च तिमिवक्त्रास्तथैव च ॥ १९ ॥
हरिवक्त्राः क्रौञ्चमुखाः कपोतेभमुखास्तथा ।
पारावतमुखाश्चैव मद्‌गुवक्त्रास्तथैव च ॥ २० ॥

मूलम्

कूर्मनक्रमुखाश्चैव शिशुमारमुखास्तथा ।
महामकरवक्त्राश्च तिमिवक्त्रास्तथैव च ॥ १९ ॥
हरिवक्त्राः क्रौञ्चमुखाः कपोतेभमुखास्तथा ।
पारावतमुखाश्चैव मद्‌गुवक्त्रास्तथैव च ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार बहुत-से गण कछुए, नाकें, सूँस, बड़े-बड़े मगर, तिमि नामक मत्स्य, मोर, क्रौंच (कुरर), कबूतर, हाथी, परेवा तथा मद्‌गु नामक जलपक्षीके समान मुखवाले थे॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणिकर्णाः सहस्राक्षास्तथैव च महोदराः।
निर्मांसाः काकवक्त्राश्च श्येनवक्त्राश्च भारत ॥ २१ ॥
तथैवाशिरसो राजन्नृक्षवक्त्राश्च भारत ।
प्रदीप्तनेत्रजिह्वाश्च ज्वालावर्णास्तथैव च ॥ २२ ॥

मूलम्

पाणिकर्णाः सहस्राक्षास्तथैव च महोदराः।
निर्मांसाः काकवक्त्राश्च श्येनवक्त्राश्च भारत ॥ २१ ॥
तथैवाशिरसो राजन्नृक्षवक्त्राश्च भारत ।
प्रदीप्तनेत्रजिह्वाश्च ज्वालावर्णास्तथैव च ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्हींके हाथोंमें ही कान थे। कितने ही हजार-हजार नेत्र और लंबे पेटवाले थे। कितनोंके शरीर मांसरहित, हड्डियोंके ढाँचे मात्र थे। भरतनन्दन! कोई कौओंके समान मुखवाले थे तो कोई बाजके समान। राजन्! किन्हीं-किन्हींके तो सिर ही नहीं थे। भारत! कोई-कोई भालूके समान मुखवाले थे। उन सबके नेत्र और जिह्वाएँ तेजसे प्रज्वलित हो रही थीं। अंगोंकी कान्ति आगकी ज्वालाके समान जान पड़ती थी॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्वालाकेशाश्च राजेन्द्र ज्वलद्रोमचतुर्भुजाः ।
मेषवक्त्रास्तथैवान्ये तथा छागमुखा नृप ॥ २३ ॥

मूलम्

ज्वालाकेशाश्च राजेन्द्र ज्वलद्रोमचतुर्भुजाः ।
मेषवक्त्रास्तथैवान्ये तथा छागमुखा नृप ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उनके केश भी अग्नि-शिखाके समान प्रतीत होते थे। उनका रोम-रोम प्रज्वलित हो रहा था। उन सबके चार भुजाएँ थीं। नरेश्वर! कितने ही गणोंके मुख भेड़ों और बकरोंके समान थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्खाभाः शङ्खवक्त्राश्च शङ्खवर्णास्तथैव च।
शङ्खमालापरिकराः शङ्खध्वनिसमस्वनाः ॥ २४ ॥

मूलम्

शङ्खाभाः शङ्खवक्त्राश्च शङ्खवर्णास्तथैव च।
शङ्खमालापरिकराः शङ्खध्वनिसमस्वनाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितनोंके मुख, वर्ण और कान्ति शंखके सदृश थे। वे शंखकी मालाओंसे अलंकृत थे और उनके मुखसे शंखध्वनिके समान ही शब्द प्रकट होते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जटाधराः पञ्चशिखास्तथा मुण्डाः कृशोदराः।
चतुर्दंष्ट्राश्चतुर्जिह्वाः शङ्कुकर्णाः किरीटिनः ॥ २५ ॥

मूलम्

जटाधराः पञ्चशिखास्तथा मुण्डाः कृशोदराः।
चतुर्दंष्ट्राश्चतुर्जिह्वाः शङ्कुकर्णाः किरीटिनः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई समूचे सिरपर जटा धारण करते थे, कोई पाँच शिखाएँ रखते थे और कितने ही मूड़ मुड़ाये रहते थे। बहुतोंके उदर अत्यन्त कृश थे, कितनोंके चार दाढ़ें और चार जिह्वाएँ थीं। किन्हींके कान खूँटीके समान जान पड़ते थे और कितने ही पार्षद अपने मस्तकपर किरीट धारण करते थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मौञ्जीधराश्च राजेन्द्र तथा कुञ्चितमूर्धजाः।
उष्णीषिणो मुकुटिनश्चारुवक्त्राः स्वलङ्कृताः ॥ २६ ॥

मूलम्

मौञ्जीधराश्च राजेन्द्र तथा कुञ्चितमूर्धजाः।
उष्णीषिणो मुकुटिनश्चारुवक्त्राः स्वलङ्कृताः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! कोई मूँजकी मेखला पहने हुए थे, किन्हींके सिरके बाल घुँघराले दिखायी देते थे, कोई पगड़ी धारण किये हुए थे तो कोई मुकुट। कितनोंके मुख बड़े ही मनोहर थे। कितने ही सुन्दर आभूषणोंसे विभूषित थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पद्मोत्पलापीडधरास्तथा मुकुटधारिणः ।
माहात्म्येन च संयुक्ताः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २७ ॥

मूलम्

पद्मोत्पलापीडधरास्तथा मुकुटधारिणः ।
माहात्म्येन च संयुक्ताः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई अपने मस्तकपर कमलों और कुमुदोंका किरीट धारण करते थे। बहुतोंने विशुद्ध मुकुट धारण कर रखा था। वे भूतगण सैकड़ों और हजारोंकी संख्यामें थे और सभी अद्भुत माहात्म्यसे सम्पन्न थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतघ्नीवज्रहस्ताश्च तथा मुसलपाणयः ।
भुशुण्डीपाशहस्ताश्च दण्डहस्ताश्च भारत ॥ २८ ॥

मूलम्

शतघ्नीवज्रहस्ताश्च तथा मुसलपाणयः ।
भुशुण्डीपाशहस्ताश्च दण्डहस्ताश्च भारत ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उनके हाथोंमें शतघ्नी, वज्र, मूसल, भुशुण्डी, पाश और दण्ड शोभा पाते थे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृष्ठेषु बद्धेषुधयश्चित्रबाणोत्कटास्तथा ।
सध्वजाः सपताकाश्च सघण्टाः सपरश्वधाः ॥ २९ ॥

मूलम्

पृष्ठेषु बद्धेषुधयश्चित्रबाणोत्कटास्तथा ।
सध्वजाः सपताकाश्च सघण्टाः सपरश्वधाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी पीठोंपर तरकस बँधे थे। वे विचित्र बाण लिये युद्धके लिये उन्मत्त जान पड़ते थे। उनके पास ध्वजा, पताका, घंटे और फरसे मौजूद थे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महापाशोद्यतकरास्तथा लगुडपाणयः ।
स्थूणाहस्ताः खड्‌गहस्ताः सर्पोच्छ्रितकिरीटिनः ॥ ३० ॥

मूलम्

महापाशोद्यतकरास्तथा लगुडपाणयः ।
स्थूणाहस्ताः खड्‌गहस्ताः सर्पोच्छ्रितकिरीटिनः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अपने हाथोंमें बड़े-बड़े पाश उठा रखे थे, कितनोंके हाथोंमें डंडे, खम्भे और खड्ग शोभा पाते थे तथा कितनोंके मस्तकपर सर्पोंके उन्नत किरीट सुशोभित होते थे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महासर्पाङ्गदधराश्चित्राभरणधारिणः ।
रजोध्वस्ताः पङ्कदिग्धाः सर्वे शुक्लाम्बरस्रजः ॥ ३१ ॥

मूलम्

महासर्पाङ्गदधराश्चित्राभरणधारिणः ।
रजोध्वस्ताः पङ्कदिग्धाः सर्वे शुक्लाम्बरस्रजः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितनोंने बाजूबंदोंके स्थानमें बड़े-बड़े सर्प धारण कर रखे थे। कितने ही विचित्र आभूषणोंसे विभूषित थे, बहुतोंके शरीर धूलि-धूसर हो रहे थे। कितने ही अपने अंगोंमें कीचड़ लपेटे हुए थे। उन सबने श्वेत वस्त्र और श्वेत फूलोंकी माला धारण कर रखी थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीलाङ्गाः पिङ्गलाङ्गाश्च मुण्डवक्त्रास्तथैव च।
भेरीशङ्खमृदङ्गांश्च झर्झरानकगोमुखान् ॥ ३२ ॥
अवादयन् पारिषदाः प्रहृष्टाः कनकप्रभाः।
गायमानास्तथैवान्ये नृत्यमानास्तथा परे ॥ ३३ ॥

मूलम्

नीलाङ्गाः पिङ्गलाङ्गाश्च मुण्डवक्त्रास्तथैव च।
भेरीशङ्खमृदङ्गांश्च झर्झरानकगोमुखान् ॥ ३२ ॥
अवादयन् पारिषदाः प्रहृष्टाः कनकप्रभाः।
गायमानास्तथैवान्ये नृत्यमानास्तथा परे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितनोंके अंग नील और पिंगलवर्णके थे। कितनोंने अपने मस्तकके बाल मुँड़वा दिये। कितने ही सुनहरी प्रभासे प्रकाशित हो रहे थे। वे सभी पार्षद हर्षसे उत्फुल्ल हो भेरी, शंख, मृदंग, झाँझ, ढोल और गोमुख बजा रहे थे। कितने ही गीत गा रहे थे और दूसरे बहुत-से पार्षद नाच रहे थे॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लङ्घन्तः प्लवन्तश्च वल्गन्तश्च महारथाः।
धावन्तो जवना मुण्डाः पवनोद्धूतमूर्धजाः ॥ ३४ ॥

मूलम्

लङ्घन्तः प्लवन्तश्च वल्गन्तश्च महारथाः।
धावन्तो जवना मुण्डाः पवनोद्धूतमूर्धजाः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे महारथी भूतगण उछलते, कूदते और लाँघते हुए बड़े वेगसे दौड़ रहे थे। उनमेंसे कितने तो माथ मुँड़ाये हुए थे और कितनोंके सिरके बाल हवाके झोंकेसे ऊपरकी ओर उठ गये थे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्ता इव महानागा विनदन्तो मुहुर्मुहुः।
सुभीमा घोररूपाश्च शूलपट्टिशपाणयः ॥ ३५ ॥

मूलम्

मत्ता इव महानागा विनदन्तो मुहुर्मुहुः।
सुभीमा घोररूपाश्च शूलपट्टिशपाणयः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मतवाले गजराजोंके समान बारंबार गर्जना करते थे। उनके हाथोंमें शूल और पट्टिश दिखायी देते थे। वे घोर रूपधारी और भयंकर थे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानाविरागवसनाश्चित्रमाल्यानुलेपनाः ।
रत्नचित्राङ्गदधराः समुद्यतकरास्तथा ॥ ३६ ॥

मूलम्

नानाविरागवसनाश्चित्रमाल्यानुलेपनाः ।
रत्नचित्राङ्गदधराः समुद्यतकरास्तथा ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके वस्त्र नाना प्रकारके रंगोंमें रँगे हुए थे। वे विचित्र माला और चन्दनसे अलंकृत थे। उन्होंने रत्ननिर्मित विचित्र अंगद धारण कर रखे थे और उन सबके हाथ ऊपरकी ओर उठे हुए थे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्तारो द्विषतां शूराः प्रसह्यासह्यविक्रमाः।
पातारोऽसृग्वसौघानां मांसान्त्रकृतभोजनाः ॥ ३७ ॥

मूलम्

हन्तारो द्विषतां शूराः प्रसह्यासह्यविक्रमाः।
पातारोऽसृग्वसौघानां मांसान्त्रकृतभोजनाः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे शूरवीर पार्षद हठपूर्वक शत्रुओंका वध करनेमें समर्थ थे। उनका पराक्रम असह्य था। वे रक्त और वसा पीते तथा आँत और मांस खाते थे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चूडालाः कर्णिकाराश्च प्रहृष्टाः पिठरोदराः।
अतिह्रस्वातिदीर्घाश्च प्रलम्बाश्चातिभैरवाः ॥ ३८ ॥

मूलम्

चूडालाः कर्णिकाराश्च प्रहृष्टाः पिठरोदराः।
अतिह्रस्वातिदीर्घाश्च प्रलम्बाश्चातिभैरवाः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितनोंके मस्तकपर शिखाएँ थीं। कितने ही कनेरके फूल धारण करते थे। बहुतेरे पार्षद अत्यन्त हर्षसे खिल उठे थे। कितनोंके पेट बटलोई या कड़ाहीके समान जान पड़ते थे। कोई बहुत नाटे, कोई बहुत मोटे, कोई बहुत लंबे और कोई अत्यन्त भयंकर थे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकटाः काललम्बोष्ठा बृहच्छेफाण्डपिण्डिकाः ।
महार्हनानामुकुटा मुण्डाश्च जटिलाः परे ॥ ३९ ॥

मूलम्

विकटाः काललम्बोष्ठा बृहच्छेफाण्डपिण्डिकाः ।
महार्हनानामुकुटा मुण्डाश्च जटिलाः परे ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितनोंके आकार बहुत विकट थे, कितनोंके काले-काले और लंबे ओठ लटक रहे थे, किन्हींके लिंग बड़े थे तो किन्हींके अण्डकोष। किन्हींके मस्तकोंपर नाना प्रकारके बहुमूल्य मुकुट शोभा पाते थे, कुछ लोग मथमुंडे थे और कुछ जटाधारी॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सार्केन्दुग्रहनक्षत्रां द्यां कुर्युस्ते महीतले।
उत्सहेरंश्च ये हन्तुं भूतग्रामं चतुर्विधम् ॥ ४० ॥

मूलम्

सार्केन्दुग्रहनक्षत्रां द्यां कुर्युस्ते महीतले।
उत्सहेरंश्च ये हन्तुं भूतग्रामं चतुर्विधम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्रोंसहित सम्पूर्ण आकाश-मण्डलको पृथ्वीपर गिरा सकते थे और चार प्रकारके समस्त प्राणिसमुदायका संहार करनेमें समर्थ थे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये च वीतभया नित्यं हरस्य भ्रुकुटीसहाः।
कामकारकरा नित्यं त्रैलोक्यस्येश्वरेश्वराः ॥ ४१ ॥

मूलम्

ये च वीतभया नित्यं हरस्य भ्रुकुटीसहाः।
कामकारकरा नित्यं त्रैलोक्यस्येश्वरेश्वराः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सदा निर्भय होकर भगवान् शंकरके भ्रूभंगको सहन करनेवाले थे। प्रतिदिन इच्छानुसार कार्य करते और तीनों लोकोंके ईश्वरोंपर भी शासन कर सकते थे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यानन्दप्रमुदिता वागीशा वीतमत्सराः ।
प्राप्याष्टगुणमैश्वर्यं ये न यास्यन्ति वै स्मयम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

नित्यानन्दप्रमुदिता वागीशा वीतमत्सराः ।
प्राप्याष्टगुणमैश्वर्यं ये न यास्यन्ति वै स्मयम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे पार्षद नित्य आनन्दमें मग्न रहते थे, वाणीपर उनका अधिकार था। उनके मनमें किसीके प्रति ईर्ष्या और द्वेष नहीं रह गये थे। वे अणिमा-महिमा आदि आठ प्रकारके ऐश्वर्यको पाकर भी कभी अभिमान नहीं करते थे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां विस्मयते नित्यं भगवान् कर्मभिर्हरः।
मनोवाक्कर्मभिर्युक्तैर्नित्यमाराधितश्च यैः ॥ ४३ ॥

मूलम्

येषां विस्मयते नित्यं भगवान् कर्मभिर्हरः।
मनोवाक्कर्मभिर्युक्तैर्नित्यमाराधितश्च यैः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साक्षात् भगवान् शंकर भी प्रतिदिन उनके कर्मोंको देखकर आश्चर्यचकित हो जाते थे। वे मन, वाणी और क्रियाओंद्वारा सदा सावधान रहकर महादेवजीकी आराधना करते थे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोवाक्कर्मभिर्भक्तान् पाति पुत्रानिवौरसान् ।
पिबन्तोऽसृग्वसाश्चान्ये क्रुद्धा ब्रह्मद्विषां सदा ॥ ४४ ॥

मूलम्

मनोवाक्कर्मभिर्भक्तान् पाति पुत्रानिवौरसान् ।
पिबन्तोऽसृग्वसाश्चान्ये क्रुद्धा ब्रह्मद्विषां सदा ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन, वाणी और कर्मसे अपने प्रति भक्ति रखनेवाले उन भक्तोंका भगवान् शिव सदा औरस पुत्रोंकी भाँति पालन करते थे। बहुत-से पार्षद रक्त और वसा पीकर रहते थे। वे ब्रह्मद्रोहियोंपर सदा क्रोध प्रकट करते थे॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्विधात्मकं सोमं ये पिबन्ति च सर्वदा।
श्रुतेन ब्रह्मचर्येण तपसा च दमेन च ॥ ४५ ॥
ये समाराध्य शूलाङ्कं भवसायुज्यमागताः।

मूलम्

चतुर्विधात्मकं सोमं ये पिबन्ति च सर्वदा।
श्रुतेन ब्रह्मचर्येण तपसा च दमेन च ॥ ४५ ॥
ये समाराध्य शूलाङ्कं भवसायुज्यमागताः।

अनुवाद (हिन्दी)

अन्न, सोमलताका रस, अमृत और चन्द्रमण्डल—चे चार प्रकारके सोम हैं, वे पार्षदगण इनका सदा पान करते हैं। उन्होंने वेदोंके स्वाध्याय, ब्रह्मचर्यपालन, तपस्या और इन्द्रिय-संयमके द्वारा त्रिशूल-चिह्नित भगवान् शिवकी आराधना करके उनका सायुज्य प्राप्त कर लिया है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यैरात्मभूतैर्भगवान् पार्वत्या च महेश्वरः ॥ ४६ ॥
महाभूतगणैर्भुङ्क्ते भूतभव्यभवत्प्रभुः ।

मूलम्

यैरात्मभूतैर्भगवान् पार्वत्या च महेश्वरः ॥ ४६ ॥
महाभूतगणैर्भुङ्क्ते भूतभव्यभवत्प्रभुः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे महाभूतगण भगवान् शिवके आत्मस्वरूप हैं, उनके तथा पार्वतीदेवीके साथ भूत, वर्तमान और भविष्यके स्वामी महेश्वर यज्ञ-भाग ग्रहण करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानावादित्रहसितक्ष्वेडितोत्क्रुष्टगर्जितैः ॥ ४७ ॥
संत्रासयन्तस्ते विश्वमश्वत्थामानमभ्ययुः ।

मूलम्

नानावादित्रहसितक्ष्वेडितोत्क्रुष्टगर्जितैः ॥ ४७ ॥
संत्रासयन्तस्ते विश्वमश्वत्थामानमभ्ययुः ।

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् शिवके वे पार्षद नाना प्रकारके बाजे बजाने, हँसने, सिंहनाद करने, ललकारने तथा गर्जने आदिके द्वारा सम्पूर्ण विश्वको भयभीत करते हुए अश्वत्थामाके पास आये॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्तुवन्तो महादेवं भाः कुर्वाणाः सुवर्चसः ॥ ४८ ॥
विवर्धयिषवो द्रौणेर्महिमानं महात्मनः ।
जिज्ञासमानास्तत्तेजः सौप्तिकं च दिदृक्षवः ॥ ४९ ॥
भीमोग्रपरिघालातशूलपट्टिशपाणयः ।
घोररूपाः समाजग्मुर्भूतसङ्घाः समन्ततः ॥ ५० ॥

मूलम्

संस्तुवन्तो महादेवं भाः कुर्वाणाः सुवर्चसः ॥ ४८ ॥
विवर्धयिषवो द्रौणेर्महिमानं महात्मनः ।
जिज्ञासमानास्तत्तेजः सौप्तिकं च दिदृक्षवः ॥ ४९ ॥
भीमोग्रपरिघालातशूलपट्टिशपाणयः ।
घोररूपाः समाजग्मुर्भूतसङ्घाः समन्ततः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूतोंके वे समूह बड़े भयंकर और तेजस्वी थे तथा सब ओर अपनी प्रभा फैला रहे थे। अश्वत्थामामें कितना तेज है, इस बातको वे जानना चाहते थे और सोते समय जो महान् संहार होनेवाला था, उसे भी देखनेकी इच्छा रखते थे। साथ ही महामनस्वी द्रोणकुमारकी महिमा बढ़ाना चाहते थे; इसीलिये महादेवजीकी स्तुति करते हुए वे चारों ओरसे वहाँ आ पहुँचे। उनके हाथोंमें अत्यन्त भयंकर परिघ, चलते लुआठे, त्रिशूल और पट्टिश शोभा पा रहे थे॥४८—५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनयेयुर्भयं ये स्म त्रैलोक्यस्यापि दर्शनात्।
तान् प्रेक्षमाणोऽपि व्यथां न चकार महाबलः ॥ ५१ ॥

मूलम्

जनयेयुर्भयं ये स्म त्रैलोक्यस्यापि दर्शनात्।
तान् प्रेक्षमाणोऽपि व्यथां न चकार महाबलः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् भूतनाथके वे गण दर्शन देनेमात्रसे तीनों लोकोंके मनमें भय उत्पन्न कर सकते थे, तथापि महाबली अश्वत्थामा उन्हें देखकर तनिक भी व्यथित नहीं हुआ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ द्रौणिर्धनुष्पाणिर्बद्धगोधाङ्‌गुलित्रवान् ।
स्वयमेवात्मनात्मानमुपहारमुपाहरत् ॥ ५२ ॥

मूलम्

अथ द्रौणिर्धनुष्पाणिर्बद्धगोधाङ्‌गुलित्रवान् ।
स्वयमेवात्मनात्मानमुपहारमुपाहरत् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर हाथमें धनुष लिये और गोहके चर्मके बने दस्ताने पहने हुए द्रोणकुमारने स्वयं ही अपने-आपको भगवान् शिवके चरणोंमें भेंट चढ़ा दिया॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनूंषि समिधस्तत्र पवित्राणि शिताः शराः।
हविरात्मवतश्चात्मा तस्मिन् भारत कर्मणि ॥ ५३ ॥

मूलम्

धनूंषि समिधस्तत्र पवित्राणि शिताः शराः।
हविरात्मवतश्चात्मा तस्मिन् भारत कर्मणि ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस आत्मसमर्पणरूपी यज्ञकर्ममें आत्मबल-सम्पन्न अश्वत्थामाका धनुष ही समिधा, तीखे बाण ही कुशा और शरीर ही हविष्यरूपमें प्रस्तुत हुए॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सौम्येन मन्त्रेण द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
उपहारं महामन्युरथात्मानमुपाहरत् ॥ ५४ ॥

मूलम्

ततः सौम्येन मन्त्रेण द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
उपहारं महामन्युरथात्मानमुपाहरत् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर महाक्रोधी प्रतापी द्रोणपुत्रने सोमदेवता-सम्बन्धी मन्त्रके1 द्वारा अपने शरीरको ही उपहारके रूपमें अर्पित कर दिया॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं रुद्रं रौद्रकर्माणं रौद्रैः कर्मभिरच्युतम्।
अभिष्टुत्य महात्मानमित्युवाच कृताञ्जलिः ॥ ५५ ॥

मूलम्

तं रुद्रं रौद्रकर्माणं रौद्रैः कर्मभिरच्युतम्।
अभिष्टुत्य महात्मानमित्युवाच कृताञ्जलिः ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयंकर कर्म करनेवाले तथा अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले महात्मा रुद्रदेवकी रौद्रकर्मोंद्वारा ही स्तुति करके अश्वत्थामा हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला॥

मूलम् (वचनम्)

द्रौणिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इममात्मानमद्याहं जातमाङ्गिरसे कुले ।
स्वग्नौ जुहोमि भगवन् प्रतिगृह्णीष्व मां बलिम् ॥ ५६ ॥

मूलम्

इममात्मानमद्याहं जातमाङ्गिरसे कुले ।
स्वग्नौ जुहोमि भगवन् प्रतिगृह्णीष्व मां बलिम् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वत्थामाने कहा— भगवन्! आज मैं आंगिरस कुलमें उत्पन्न हुए अपने शरीरकी प्रज्वलित अग्निमें आहुति देता हूँ। आप मुझे हविष्यरूपमें ग्रहण कीजिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवद्भक्त्या महादेव परमेण समाधिना।
अस्यामापदि विश्वात्मन्नुपाकुर्मि तवाग्रतः ॥ ५७ ॥

मूलम्

भवद्भक्त्या महादेव परमेण समाधिना।
अस्यामापदि विश्वात्मन्नुपाकुर्मि तवाग्रतः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वात्मन्! महादेव! इस आपत्तिके समय आपके प्रति भक्तिभावसे अपने चित्तको पूर्ण एकाग्र करके आपके समक्ष यह भेंट समर्पित करता हूँ (आप इसे स्वीकार करें)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयि सर्वाणि भूतानि सर्वभूतेषु चासि वै।
गुणानां हि प्रधानानामेकत्वं त्वयि तिष्ठति ॥ ५८ ॥

मूलम्

त्वयि सर्वाणि भूतानि सर्वभूतेषु चासि वै।
गुणानां हि प्रधानानामेकत्वं त्वयि तिष्ठति ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! सम्पूर्ण भूत आपमें स्थित हैं और आप सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित हैं। आपमें ही मुख्य-मुख्य गुणोंकी एकता होती है॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूताश्रय विभो हविर्भूतमवस्थितम् ।
प्रतिगृहाण मां देव यद्यशक्याः परे मया ॥ ५९ ॥

मूलम्

सर्वभूताश्रय विभो हविर्भूतमवस्थितम् ।
प्रतिगृहाण मां देव यद्यशक्याः परे मया ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विभो! आप सम्पूर्ण भूतोंके आश्रय हैं। देव! यदि शत्रुओंका मेरे द्वारा पराभव नहीं हो सकता तो आप हविष्यरूपमें सामने खड़े हुए मुझ अश्वत्थामाको स्वीकार कीजिये॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा द्रौणिरास्थाय तां वेदीं दीप्तपावकाम्।
संत्यज्यात्मानमारुह्य कृष्णवर्त्मन्युपाविशत् ॥ ६० ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा द्रौणिरास्थाय तां वेदीं दीप्तपावकाम्।
संत्यज्यात्मानमारुह्य कृष्णवर्त्मन्युपाविशत् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा प्रज्वलित अग्निसे प्रकाशित हुई उस वेदीपर चढ़ गया और प्राणोंका मोह छोड़कर आगके बीचमें बैठ गया॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमूर्ध्वबाहुं निश्चेष्टं दृष्ट्वा हविरुपस्थितम्।
अब्रवीद् भगवान् साक्षान्महादेवो हसन्निव ॥ ६१ ॥

मूलम्

तमूर्ध्वबाहुं निश्चेष्टं दृष्ट्वा हविरुपस्थितम्।
अब्रवीद् भगवान् साक्षान्महादेवो हसन्निव ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे हविष्यरूपसे दोनों बाँहें ऊपर उठाये निश्चेष्ट भावसे बैठे देख साक्षात् भगवान् महादेवने हँसते हुए-से कहा—॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यशौचार्जवत्यागैस्तपसा नियमेन च ।
क्षान्त्या भक्त्या च धृत्या च बुद्ध्या च वचसा तथा॥६२॥
यथावदहमाराद्धः कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा ।
तस्मादिष्टतमः कृष्णादन्यो मम न विद्यते ॥ ६३ ॥

मूलम्

सत्यशौचार्जवत्यागैस्तपसा नियमेन च ।
क्षान्त्या भक्त्या च धृत्या च बुद्ध्या च वचसा तथा॥६२॥
यथावदहमाराद्धः कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा ।
तस्मादिष्टतमः कृष्णादन्यो मम न विद्यते ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीकृष्णने सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तपस्या, नियम, क्षमा, भक्ति, धैर्य, बुद्धि और वाणीके द्वारा मेरी यथोचित आराधना की है; अतः श्रीकृष्णसे बढ़कर दूसरा कोई मुझे परम प्रिय नहीं है॥६२-६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्वता तात सम्मानं त्वां च जिज्ञासता मया।
पञ्चालाः सहसा गुप्ता मायाश्च बहुशः कृताः ॥ ६४ ॥

मूलम्

कुर्वता तात सम्मानं त्वां च जिज्ञासता मया।
पञ्चालाः सहसा गुप्ता मायाश्च बहुशः कृताः ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! उन्हींका सम्मान और तुम्हारी परीक्षा करनेके लिये मैंने पांचालोंकी सहसा रक्षा की है और बारंबार मायाओंका प्रयोग किया है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतस्तस्यैव सम्मानः पञ्चालान् रक्षता मया।
अभिभूतास्तु कालेन नैषामद्यास्ति जीवितम् ॥ ६५ ॥

मूलम्

कृतस्तस्यैव सम्मानः पञ्चालान् रक्षता मया।
अभिभूतास्तु कालेन नैषामद्यास्ति जीवितम् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पांचालोंकी रक्षा करके मैंने श्रीकृष्णका ही सम्मान किया है; परंतु अब वे कालसे पराजित हो गये हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है’॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा महात्मानं भगवानात्मनस्तनुम् ।
आविवेश ददौ चास्मै विमलं खड्‌गमुत्तमम् ॥ ६६ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा महात्मानं भगवानात्मनस्तनुम् ।
आविवेश ददौ चास्मै विमलं खड्‌गमुत्तमम् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामना अश्वत्थामासे ऐसा कहकर भगवान् शिवने अपने स्वरूपभूत उसके शरीरमें प्रवेश किया और उसे एक निर्मल एवं उत्तम खड्ग प्रदान किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाविष्टो भगवता भूयो जज्वाल तेजसा।
वेगवांश्चाभवद् युद्धे देवसृष्टेन तेजसा ॥ ६७ ॥

मूलम्

अथाविष्टो भगवता भूयो जज्वाल तेजसा।
वेगवांश्चाभवद् युद्धे देवसृष्टेन तेजसा ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान्‌का आवेश हो जानेपर अश्वत्थामा पुनः अत्यन्त तेजसे प्रज्वलित हो उठा। उस देवप्रदत्त तेजसे सम्पन्न हो वह युद्धमें और भी वेगशाली हो गया॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमदृश्यानि भूतानि रक्षांसि च समाद्रवन्।
अभितः शत्रुशिबिरं यान्तं साक्षादिवेश्वरम् ॥ ६८ ॥

मूलम्

तमदृश्यानि भूतानि रक्षांसि च समाद्रवन्।
अभितः शत्रुशिबिरं यान्तं साक्षादिवेश्वरम् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साक्षात् महादेवजीके समान शत्रुशिविरकी ओर जाते हुए अश्वत्थामाके साथ-साथ बहुत-से अदृश्य भूत और राक्षस भी दौड़े गये॥६८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि द्रौणिकृतशिवार्चने सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वमें द्रोणपुत्रद्वारा की हुई भगवान् शिवकी पूजाविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७॥


  1. वह मन्त्र इस प्रकार है—‘आप्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम्। भवा वाजस्य सङ्गथे॥’ ↩︎