भागसूचना
पञ्चमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अश्वत्थामा और कृपाचार्यका संवाद तथा तीनोंका पाण्डवोंके शिविरकी ओर प्रस्थान
मूलम् (वचनम्)
कृप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुश्रूषुरपि दुर्मेधाः पुरुषोऽनियतेन्द्रियः ।
नालं वेदयितुं कृत्स्नौ धर्मार्थाविति मे मतिः ॥ १ ॥
मूलम्
शुश्रूषुरपि दुर्मेधाः पुरुषोऽनियतेन्द्रियः ।
नालं वेदयितुं कृत्स्नौ धर्मार्थाविति मे मतिः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृपाचार्य बोले— अश्वत्थामन्! मेरा विचार है कि जिस मनुष्यकी बुद्धि दुर्भावनासे युक्त है तथा जिसने अपनी इन्द्रियोंको काबूमें नहीं रखा है, वह धर्म और अर्थकी बातोंको सुननेकी इच्छा रखनेपर भी उन्हें पूर्णरूपसे समझ नहीं सकता॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव तावन्मेधावी विनयं यो न शिक्षते।
न च किंचन जानाति सोऽपि धर्मार्थनिश्चयम् ॥ २ ॥
मूलम्
तथैव तावन्मेधावी विनयं यो न शिक्षते।
न च किंचन जानाति सोऽपि धर्मार्थनिश्चयम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार मेधावी होनेपर भी जो मनुष्य विनय नहीं सीखता, वह भी धर्म और अर्थके निर्णयको थोड़ा भी नहीं समझ पाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरं ह्यपि जडः शूरः पण्डितं पर्युपास्य हि।
न स धर्मान् विजानाति दर्वी सूपरसानिव ॥ ३ ॥
मूलम्
चिरं ह्यपि जडः शूरः पण्डितं पर्युपास्य हि।
न स धर्मान् विजानाति दर्वी सूपरसानिव ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी बुद्धिपर जडता छा रही हो, वह शूरवीर योद्धा दीर्घकालतक विद्वान्की सेवामें रहनेपर भी धर्मोंका रहस्य नहीं जान पाता। ठीक उसी तरह जैसे करछुल दालमें डूबी रहनेपर भी उसके स्वादको नहीं जानती है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तमपि तं प्राज्ञः पण्डितं पर्युपास्य हि।
क्षिप्रं धर्मान् विजानाति जिह्वा सूपरसानिव ॥ ४ ॥
मूलम्
मुहूर्तमपि तं प्राज्ञः पण्डितं पर्युपास्य हि।
क्षिप्रं धर्मान् विजानाति जिह्वा सूपरसानिव ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे जिह्वा दालके स्वादको जानती है, उसी प्रकार बुद्धिमान् पुरुष यदि दो घड़ी भी विवेकशीलकी सेवामें रहे तो वह शीघ्र ही धर्मोंका रहस्य जान लेता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुश्रूषुस्त्वेव मेधावी पुरुषो नियतेन्द्रियः।
जानीयादागमान् सर्वान् ग्राह्यं च न विरोधयेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
शुश्रूषुस्त्वेव मेधावी पुरुषो नियतेन्द्रियः।
जानीयादागमान् सर्वान् ग्राह्यं च न विरोधयेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला मेधावी पुरुष यदि विद्वानोंकी सेवामें रहे और उनसे कुछ सुननेकी इच्छा रखे तो वह सम्पूर्ण शास्त्रोंको समझ लेता है तथा ग्रहण करनेयोग्य वस्तुका विरोध नहीं करता॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेयस्त्ववमानी यो दुरात्मा पापपूरुषः।
दिष्टमुत्सृज्य कल्याणं करोति बहुपापकम् ॥ ६ ॥
मूलम्
अनेयस्त्ववमानी यो दुरात्मा पापपूरुषः।
दिष्टमुत्सृज्य कल्याणं करोति बहुपापकम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जिसे सन्मार्गपर नहीं ले जाया जा सकता, जो दूसरोंकी अवहेलना करनेवाला है तथा जिसका अन्तःकरण दूषित है, यह पापात्मा पुरुष बताये हुए कल्याणकारी पथको छोड़कर बहुत-से पापकर्म करने लगता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाथवन्तं तु सुहृदः प्रतिषेधन्ति पातकात्।
निवर्तते तु लक्ष्मीवान् नालक्ष्मीवान् निवर्तते ॥ ७ ॥
मूलम्
नाथवन्तं तु सुहृदः प्रतिषेधन्ति पातकात्।
निवर्तते तु लक्ष्मीवान् नालक्ष्मीवान् निवर्तते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सनाथ है, उसे उसके हितैषी सुहृद् पापकर्मोंसे रोकते हैं, जो भाग्यवान् है—जिसके भाग्यमें सुख भोगना बदा है, वह मना करनेपर उस पापकर्मसे रुक जाता है; परंतु जो भाग्यहीन है, वह उस दुष्कर्मसे नहीं निवृत्त होता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा ह्युच्चावचैर्वाक्यैः क्षिप्तचित्तो नियम्यते।
तथैव सुहृदा शक्यो न शक्यस्त्ववसीदति ॥ ८ ॥
मूलम्
यथा ह्युच्चावचैर्वाक्यैः क्षिप्तचित्तो नियम्यते।
तथैव सुहृदा शक्यो न शक्यस्त्ववसीदति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मनुष्य विक्षिप्त चित्तवाले पागलको नाना प्रकारके ऊँच-नीच वचनोंद्वारा समझा-बुझाकर या डरा-धमकाकर काबूमें लाते हैं, उसी प्रकार सुहृद्गण भी अपने स्वजनको समझा-बुझाकर और डाँट-डपटकर वशमें रखनेकी चेष्टा करते हैं। जो वशमें आ जाता है, वह तो सुखी होता है और जो किसी तरह काबूमें नहीं आ सकता, वह दुःख भोगता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव सुहृदं प्राज्ञं कुर्वाणं कर्म पापकम्।
प्राज्ञाः सम्प्रतिषेधन्ति यथाशक्ति पुनः पुनः ॥ ९ ॥
मूलम्
तथैव सुहृदं प्राज्ञं कुर्वाणं कर्म पापकम्।
प्राज्ञाः सम्प्रतिषेधन्ति यथाशक्ति पुनः पुनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह विद्वान् पुरुष पापकर्ममें प्रवृत्त होनेवाले अपने बुद्धिमान् सुहृद्को भी यथाशक्ति बारंबार मना करते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कल्याणे मनः कृत्वा नियम्यात्मानमात्मना।
कुरु मे वचनं तात येन पश्चान्न तप्यसे ॥ १० ॥
मूलम्
स कल्याणे मनः कृत्वा नियम्यात्मानमात्मना।
कुरु मे वचनं तात येन पश्चान्न तप्यसे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तुम भी स्वयं ही अपने मनको काबूमें करके उसे कल्याणसाधनमें लगाकर मेरी बात मानो, जिससे तुम्हें पश्चात्ताप न करना पड़े॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वधः पूज्यते लोके सुप्तानामिह धर्मतः।
तथैवापास्तशस्त्राणां विमुक्तरथवाजिनाम् ॥ ११ ॥
ये च ब्रूयुस्तवास्मीति ये च स्युः शरणागताः।
विमुक्तमूर्धजा ये च ये चापि हतवाहनाः ॥ १२ ॥
मूलम्
न वधः पूज्यते लोके सुप्तानामिह धर्मतः।
तथैवापास्तशस्त्राणां विमुक्तरथवाजिनाम् ॥ ११ ॥
ये च ब्रूयुस्तवास्मीति ये च स्युः शरणागताः।
विमुक्तमूर्धजा ये च ये चापि हतवाहनाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सोये हुए हों, जिन्होंने अस्त्र-शस्त्र रख दिये हों, रथ और घोड़े खोल दिये हों, ‘जो मैं आपका ही हूँ’ ऐसा कह रहे हों, जो शरणमें आ गये हों, जिनके बाल खुले हुए हों तथा जिनके वाहन नष्ट हो गये हों, इस लोकमें ऐसे लोगोंका वध करना धर्मकी दृष्टिसे अच्छा नहीं समझा जाता॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य स्वप्स्यन्ति पञ्चाला विमुक्तकवचा विभो।
विश्वस्ता रजनीं सर्वे प्रेता इव विचेतसः ॥ १३ ॥
यस्तेषां तदवस्थानां द्रुह्येत पुरुषोऽनृजुः।
व्यक्तं स नरके मज्जेदगाधे विपुलेऽप्लवे ॥ १४ ॥
मूलम्
अद्य स्वप्स्यन्ति पञ्चाला विमुक्तकवचा विभो।
विश्वस्ता रजनीं सर्वे प्रेता इव विचेतसः ॥ १३ ॥
यस्तेषां तदवस्थानां द्रुह्येत पुरुषोऽनृजुः।
व्यक्तं स नरके मज्जेदगाधे विपुलेऽप्लवे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आज रातमें समस्त पांचाल कवच उतारकर निश्चिन्त हो मुर्दोंके समान अचेत सो रहे होंगे। उस अवस्थामें जो क्रूर मनुष्य उनके साथ द्रोह करेगा, वह निश्चय ही नौकारहित अगाध एवं विशाल नरकके समुद्रमें डूब जायगा॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वास्त्रविदुषां लोके श्रेष्ठस्त्वमसि विश्रुतः।
न च ते जातु लोकेऽस्मिन् सुसूक्ष्ममपि किल्बिषम् ॥ १५ ॥
मूलम्
सर्वास्त्रविदुषां लोके श्रेष्ठस्त्वमसि विश्रुतः।
न च ते जातु लोकेऽस्मिन् सुसूक्ष्ममपि किल्बिषम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारके सम्पूर्ण अस्त्रवेत्ताओंमें तुम श्रेष्ठ हो। तुम्हारी सर्वत्र ख्याति है। इस जगत्में अबतक कभी तुम्हारा छोटे-से-छोटा दोष भी देखनेमें नहीं आया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं पुनः सूर्यसंकाशः श्वोभूत उदिते रवौ।
प्रकाशे सर्वभूतानां विजेता युधि शात्रवान् ॥ १६ ॥
मूलम्
त्वं पुनः सूर्यसंकाशः श्वोभूत उदिते रवौ।
प्रकाशे सर्वभूतानां विजेता युधि शात्रवान् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल सबेरे सूर्योदय होनेपर तुम सूर्यके समान प्रकाशित हो उजालेमें युद्ध छेड़कर समस्त प्राणियोंके सामने पुनः शत्रुओंपर विजय प्राप्त करना॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असम्भावितरूपं हि त्वयि कर्म विगर्हितम्।
शुक्ले रक्तमिव न्यस्तं भवेदिति मतिर्मम ॥ १७ ॥
मूलम्
असम्भावितरूपं हि त्वयि कर्म विगर्हितम्।
शुक्ले रक्तमिव न्यस्तं भवेदिति मतिर्मम ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सफेद वस्त्रमें लाल रंगका धब्बा लग जाय, उस प्रकार तुममें निन्दित कर्मका होना सम्भावनासे परेकी बात है, ऐसा मेरा विश्वास है॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
अश्वत्थामोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेव यथाऽऽत्थ त्वं मातुलेह न संशयः।
तैस्तु पूर्वमयं सेतुः शतधा विदलीकृतः ॥ १८ ॥
मूलम्
एवमेव यथाऽऽत्थ त्वं मातुलेह न संशयः।
तैस्तु पूर्वमयं सेतुः शतधा विदलीकृतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामा बोला— मामाजी! आप जैसा कहते हैं, निःसंदेह वही ठीक है; परंतु पाण्डवोंने ही पहले इस धर्म-मर्यादाके सैकड़ों टुकड़े कर डाले हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं भूमिपालानां भवतां चापि संनिधौ।
न्यस्तशस्त्रो मम पिता धृष्टद्युम्नेन पातितः ॥ १९ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षं भूमिपालानां भवतां चापि संनिधौ।
न्यस्तशस्त्रो मम पिता धृष्टद्युम्नेन पातितः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृष्टद्युम्नने समस्त राजाओंके सामने और आपलोगोंके निकट ही मेरे उस पिताको मार गिराया, जिन्होंने अस्त्र-शस्त्र रख दिये थे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णश्च पतिते चक्रे रथस्य रथिनां वरः।
उत्तमे व्यसने मग्नो हतो गाण्डीवधन्वना ॥ २० ॥
मूलम्
कर्णश्च पतिते चक्रे रथस्य रथिनां वरः।
उत्तमे व्यसने मग्नो हतो गाण्डीवधन्वना ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंमें श्रेष्ठ कर्णको भी गाण्डीवधारी अर्जुनने उस अवस्थामें मारा था, जब कि उनके रथका पहिया गड्ढेमें गिरकर फँस गया था और इसीलिये वे भारी संकटमें पड़े हुए थे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा शान्तनवो भीष्मो न्यस्तशस्त्रो निरायुधः।
शिखण्डिनं पुरस्कृत्य हतो गाण्डीवधन्वना ॥ २१ ॥
मूलम्
तथा शान्तनवो भीष्मो न्यस्तशस्त्रो निरायुधः।
शिखण्डिनं पुरस्कृत्य हतो गाण्डीवधन्वना ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार शान्तनुनन्दन भीष्म जब हथियार डालकर अस्त्रहीन हो गये, उस अवस्थामें शिखण्डीको आगे करके गाण्डीवधारी धनंजयने उनका वध किया था॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूरिश्रवा महेष्वासस्तथा प्रायगतो रणे।
क्रोशतां भूमिपालानां युयुधानेन पातितः ॥ २२ ॥
मूलम्
भूरिश्रवा महेष्वासस्तथा प्रायगतो रणे।
क्रोशतां भूमिपालानां युयुधानेन पातितः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाधनुर्धर भूरिश्रवा तो रणभूमिमें अनशन व्रत लेकर बैठ गये थे। उस अवस्थामें समस्त भूमिपाल चिल्ला-चिल्लाकर रोकते ही रह गये; परंतु सात्यकिने उन्हें मार गिराया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनश्च भीमेन समेत्य गदया रणे।
पश्यतां भूमिपालानामधर्मेण निपातितः ॥ २३ ॥
मूलम्
दुर्योधनश्च भीमेन समेत्य गदया रणे।
पश्यतां भूमिपालानामधर्मेण निपातितः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने भी सम्पूर्ण राजाओंके देखते-देखते रणभूमिमें गदायुद्ध करते समय दुर्योधनको अधर्मपूर्वक गिराया था॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकाकी बहुभिस्तत्र परिवार्य महारथैः।
अधर्मेण नरव्याघ्रो भीमसेनेन पातितः ॥ २४ ॥
मूलम्
एकाकी बहुभिस्तत्र परिवार्य महारथैः।
अधर्मेण नरव्याघ्रो भीमसेनेन पातितः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ राजा दुर्योधन अकेला था और बहुत-से महारथियोंने उसे वहाँ घेर रखा था, उस दशामें भीमसेनने उसको धराशायी किया है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलापो भग्नसक्थस्य यो मे राज्ञः परिश्रुतः।
वार्तिकाणां कथयतां स मे मर्माणि कृन्तति ॥ २५ ॥
मूलम्
विलापो भग्नसक्थस्य यो मे राज्ञः परिश्रुतः।
वार्तिकाणां कथयतां स मे मर्माणि कृन्तति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
टूटी जाँघोंवाले राजा दुर्योधनका जो विलाप मैंने सुना है और संदेशवाहक दूतोंके मुखसे जो समाचार मुझे ज्ञात हुआ है, वह सब मेरे मर्मस्थानोंको विदीर्ण किये देता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चाधार्मिकाः पापाः पञ्चाला भिन्नसेतवः।
तानेवं भिन्नमर्यादान् किं भवान् न निगर्हति ॥ २६ ॥
मूलम्
एवं चाधार्मिकाः पापाः पञ्चाला भिन्नसेतवः।
तानेवं भिन्नमर्यादान् किं भवान् न निगर्हति ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे सब-के-सब पापी और अधार्मिक हैं। पांचालोंने भी धर्मकी मर्यादा तोड़ डाली है। इस तरह मर्यादा भंग करनेवाले उन पाण्डवों और पांचालोंकी आप निन्दा क्यों नहीं करते हैं?॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृहन्तॄनहं हत्वा पञ्चालान् निशि सौप्तिके।
कामं कीटः पतङ्गो वा जन्म प्राप्य भवामि वै॥२७॥
मूलम्
पितृहन्तॄनहं हत्वा पञ्चालान् निशि सौप्तिके।
कामं कीटः पतङ्गो वा जन्म प्राप्य भवामि वै॥२७॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताकी हत्या करनेवाले पांचालोंका रातको सोते समय वध करके मैं भले ही दूसरे जन्ममें कीट या पतंग हो जाऊँ, सब कुछ स्वीकार है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वरे चाहमनेनाद्य यदिदं मे चिकीर्षितम्।
तस्य मे त्वरमाणस्य कुतो निद्रा कुतः सुखम् ॥ २८ ॥
मूलम्
त्वरे चाहमनेनाद्य यदिदं मे चिकीर्षितम्।
तस्य मे त्वरमाणस्य कुतो निद्रा कुतः सुखम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय मैं जो कुछ करना चाहता हूँ, उसीको पूर्ण करनेके उद्देश्यसे उतावला हो रहा हूँ। इतनी उतावलीमें रहते हुए मुझे नींद कहाँ और सुख कहाँ?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स जातः पुमाल्ँलोके कश्चिन्न स भविष्यति।
यो मे व्यावर्तयेदेतां वधे तेषां कृतां मतिम् ॥ २९ ॥
मूलम्
न स जातः पुमाल्ँलोके कश्चिन्न स भविष्यति।
यो मे व्यावर्तयेदेतां वधे तेषां कृतां मतिम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें ऐसा कोई पुरुष न तो पैदा हुआ है और न होगा ही, जो उन पांचालोंके वधके लिये किये गये मेरे इस दृढ़ निश्चयको पलट दे॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा महाराज द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
एकान्ते योजयित्वाश्वान् प्रायादभिमुखः परान् ॥ ३० ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा महाराज द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
एकान्ते योजयित्वाश्वान् प्रायादभिमुखः परान् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! ऐसा कहकर प्रतापी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा एकान्तमें घोड़ोंको जोतकर शत्रुओंकी ओर चल दिया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रूतां महात्मानौ भोजशारद्वतावुभौ ।
किमर्थं स्यन्दनो युक्तः किञ्च कार्यं चिकीर्षितम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
तमब्रूतां महात्मानौ भोजशारद्वतावुभौ ।
किमर्थं स्यन्दनो युक्तः किञ्च कार्यं चिकीर्षितम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भोजवंशी कृतवर्मा और शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्य दोनों महामनस्वी वीरोंने उससे कहा—‘अश्वत्थामन्! तुमने किसलिये रथको जोता है? तुम इस समय कौन-सा कार्य करना चाहते हो?॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकसार्थप्रयातौ स्वस्त्वया सह नरर्षभ।
समदुःखसुखौ चापि नावां शङ्कितुमर्हसि ॥ ३२ ॥
मूलम्
एकसार्थप्रयातौ स्वस्त्वया सह नरर्षभ।
समदुःखसुखौ चापि नावां शङ्कितुमर्हसि ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरश्रेष्ठ! हम दोनों एक साथ तुम्हारी सहायताके लिये चले हैं। तुम्हारे दुःख-सुखमें हमारा समान भाग होगा, तुम्हें हम दोनोंपर संदेह नहीं करना चाहिये’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थामा तु संक्रुद्धः पितुर्वधमनुस्मरन्।
ताभ्यां तथ्यं तथाऽऽचख्यौ यदस्यात्मचिकीर्षितम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
अश्वत्थामा तु संक्रुद्धः पितुर्वधमनुस्मरन्।
ताभ्यां तथ्यं तथाऽऽचख्यौ यदस्यात्मचिकीर्षितम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अश्वत्थामा पिताके वधका स्मरण करके रोषसे आगबबूला हो रहा था। उसके मनमें जो कुछ करनेकी इच्छा थी, वह सब उसने उन दोनोंसे ठीक-ठीक कह सुनाया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा शतसहस्राणि योधानां निशितैः शरैः।
न्यस्तशस्त्रो मम पिता धृष्टद्युम्नेन पातितः ॥ ३४ ॥
मूलम्
हत्वा शतसहस्राणि योधानां निशितैः शरैः।
न्यस्तशस्त्रो मम पिता धृष्टद्युम्नेन पातितः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह बोला—‘मेरे पिता अपने तीखे बाणोंसे लाखों योद्धाओंका वध करके जब अस्त्र-शस्त्र नीचे डाल चुके थे, उस अवस्थामें धृष्टद्युम्नने उन्हें मारा है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तथैव हनिष्यामि न्यस्तधर्माणमद्य वै।
पुत्रं पाञ्चालराजस्य पापं पापेन कर्मणा ॥ ३५ ॥
मूलम्
तं तथैव हनिष्यामि न्यस्तधर्माणमद्य वै।
पुत्रं पाञ्चालराजस्य पापं पापेन कर्मणा ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः धर्मका परित्याग करनेवाले उस पापी पांचालराजकुमारको भी मैं उसी प्रकार पापकर्मद्वारा ही मार डालूँगा॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं च निहतः पापः पाञ्चाल्यः पशुवन्मया।
शस्त्रेण विजिताल्ँलोकान् नाप्नुयादिति मे मतिः ॥ ३६ ॥
मूलम्
कथं च निहतः पापः पाञ्चाल्यः पशुवन्मया।
शस्त्रेण विजिताल्ँलोकान् नाप्नुयादिति मे मतिः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरा ऐसा निश्चय है कि मेरे हाथसे पशुकी भाँति मारे गये पापी पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्नको किसी तरह भी अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा मिलनेवाले पुण्यलोकोंकी प्राप्ति न हो!!॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्रं संनद्धकवचौ सखड्गावात्तकार्मुकौ ।
मामास्थाय प्रतीक्षेतां रथवर्यौ परंतपौ ॥ ३७ ॥
मूलम्
क्षिप्रं संनद्धकवचौ सखड्गावात्तकार्मुकौ ।
मामास्थाय प्रतीक्षेतां रथवर्यौ परंतपौ ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप दोनों रथियोंमें श्रेष्ठ और शत्रुओंको संताप देनेवाले वीर हैं। शीघ्र ही कवच बाँधकर खड्ग और धनुष लेकर रथपर बैठ जाइये तथा मेरी प्रतीक्षा कीजिये’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा रथमास्थाय प्रायादभिमुखः परान्।
तमन्वगात् कृपो राजन् कृतवर्मा च सात्वतः ॥ ३८ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा रथमास्थाय प्रायादभिमुखः परान्।
तमन्वगात् कृपो राजन् कृतवर्मा च सात्वतः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! ऐसा कहकर अश्वत्थामा रथपर आरूढ़ हो शत्रुओंकी ओर चल दिया। कृपाचार्य और सात्वतवंशी कृतवर्मा भी उसीके मार्गका अनुसरण करने लगे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते प्रयाता व्यरोचन्त परानभिमुखास्त्रयः।
हूयमाना यथा यज्ञे समिद्धा हव्यवाहनाः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ते प्रयाता व्यरोचन्त परानभिमुखास्त्रयः।
हूयमाना यथा यज्ञे समिद्धा हव्यवाहनाः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंकी ओर जाते समय वे तीनों तेजस्वी वीर यज्ञमें आहुति पाकर प्रज्वलित हुए तीन अग्नियोंकी भाँति प्रकाशित हो रहे थे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययुश्च शिबिरं तेषां सम्प्रसुप्तजनं विभो।
द्वारदेशं तु सम्प्राप्य द्रौणिस्तस्थौ महारथः ॥ ४० ॥
मूलम्
ययुश्च शिबिरं तेषां सम्प्रसुप्तजनं विभो।
द्वारदेशं तु सम्प्राप्य द्रौणिस्तस्थौ महारथः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! वे तीनों पाण्डवों और पांचालोंके उस शिविरके पास गये, जहाँ सब लोग सो गये थे। शिविरके द्वारपर पहुँचकर महारथी अश्वत्थामा खड़ा हो गया॥४०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि द्रौणिगमने पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वमें अश्वत्थामाका प्रयाणविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५॥