भागसूचना
चतुर्थोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कृपाचार्यका कल प्रातःकाल युद्ध करनेकी सलाह देना और अश्वत्थामाका इसी रात्रिमें सोते हुओंको मारनेका आग्रह प्रकट करना
मूलम् (वचनम्)
कृप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या ते प्रतिकर्तव्ये मतिर्जातेयमच्युत।
न त्वां वारयितुं शक्तो वज्रपाणिरपि स्वयम् ॥ १ ॥
मूलम्
दिष्ट्या ते प्रतिकर्तव्ये मतिर्जातेयमच्युत।
न त्वां वारयितुं शक्तो वज्रपाणिरपि स्वयम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृपाचार्य बोले— तात! तुम अपनी टेकसे टलने-वाले नहीं हो, सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारे मनमें बदला लेनेका दृढ़ विचार उत्पन्न हुआ। तुम्हें साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी इस कार्यसे रोक नहीं सकते॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुयास्यावहे त्वां तु प्रभाते सहितावुभौ।
अद्य रात्रौ विश्रमस्व विमुक्तकवचध्वजः ॥ २ ॥
मूलम्
अनुयास्यावहे त्वां तु प्रभाते सहितावुभौ।
अद्य रात्रौ विश्रमस्व विमुक्तकवचध्वजः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज रातमें कवच और ध्वजा खोलकर विश्राम करो। कल सबेरे हम दोनों एक साथ होकर तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं त्वामनुयास्यामि कृतवर्मा च सात्वतः।
परानभिमुखं यान्तं रथावास्थाय दंशितौ ॥ ३ ॥
मूलम्
अहं त्वामनुयास्यामि कृतवर्मा च सात्वतः।
परानभिमुखं यान्तं रथावास्थाय दंशितौ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब तुम शत्रुओंका सामना करनेके लिये आगे बढ़ोगे, उस समय मैं और सात्वतवंशी कृतवर्मा दोनों ही कवच धारण करके रथोंपर आरूढ़ हो तुम्हारे साथ चलेंगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवाभ्यां सहितः शत्रून् श्वो निहन्ता समागमे।
विक्रम्य रथिनां श्रेष्ठ पञ्चालान् सपदानुगान् ॥ ४ ॥
मूलम्
आवाभ्यां सहितः शत्रून् श्वो निहन्ता समागमे।
विक्रम्य रथिनां श्रेष्ठ पञ्चालान् सपदानुगान् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंमें श्रेष्ठ वीर! कल सबेरेके संग्राममें हम दोनोंके साथ रहकर तुम अपने शत्रु पांचालों और उनके सेवकोंको बलपूर्वक मार डालना॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्तस्त्वमसि विक्रम्य विश्रमस्व निशामिमाम्।
चिरं ते जाग्रतस्तात स्वप तावन्निशामिमाम् ॥ ५ ॥
मूलम्
शक्तस्त्वमसि विक्रम्य विश्रमस्व निशामिमाम्।
चिरं ते जाग्रतस्तात स्वप तावन्निशामिमाम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तुम पराक्रम दिखाकर शत्रुओंका वध करनेमें समर्थ हो, अतः इस रातमें विश्राम कर लो। तुम्हें जागते हुए बहुत देर हो गयी है, अब इस रातमें सो लो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्रान्तश्च विनिद्रश्च स्वस्थचित्तश्च मानद।
समेत्य समरे शत्रून् वधिष्यसि न संशयः ॥ ६ ॥
मूलम्
विश्रान्तश्च विनिद्रश्च स्वस्थचित्तश्च मानद।
समेत्य समरे शत्रून् वधिष्यसि न संशयः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मानद! थकावट दूर करके नींद पूरी कर लेनेसे तुम्हारा चित्त स्वस्थ हो जायगा। फिर तुम समरभूमिमें जाकर शत्रुओंका वध कर सकोगे, इसमें संशय नहीं है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि त्वां रथिनां श्रेष्ठं प्रगृहीतवरायुधम्।
जेतुमुत्सहते शश्वदपि देवेषु वासवः ॥ ७ ॥
मूलम्
न हि त्वां रथिनां श्रेष्ठं प्रगृहीतवरायुधम्।
जेतुमुत्सहते शश्वदपि देवेषु वासवः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम रथियोंमें श्रेष्ठ हो, तुमने अपने हाथमें उत्तम आयुध ले रखा है। तुम्हें देवताओंके राजा इन्द्र भी कभी जीतनेका साहस नहीं कर सकते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपेण सहितं यान्तं गुप्तं च कृतवर्मणा।
को द्रौणिं युधि संरब्धं योधयेदपि देवराट् ॥ ८ ॥
मूलम्
कृपेण सहितं यान्तं गुप्तं च कृतवर्मणा।
को द्रौणिं युधि संरब्धं योधयेदपि देवराट् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कृतवर्मासे सुरक्षित हो द्रोणपुत्र अश्वत्थामा मुझ कृपाचार्यके साथ कुपित होकर युद्धके लिये प्रस्थान करेगा, उस समय कौन वीर, वह देवराज इन्द्र ही क्यों न हो, उसका सामना कर सकता है?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वयं निशि विश्रान्ता विनिद्रा विगतज्वराः।
प्रभातायां रजन्यां वै निहनिष्याम शात्रवान् ॥ ९ ॥
मूलम्
ते वयं निशि विश्रान्ता विनिद्रा विगतज्वराः।
प्रभातायां रजन्यां वै निहनिष्याम शात्रवान् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हमलोग रातमें विश्राम करके निद्रारहित और विगतज्वर हो प्रातःकाल अपने शत्रुओंका संहार करेंगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव ह्यस्त्राणि दिव्यानि मम चैव न संशयः।
सात्वतोऽपि महेष्वासो नित्यं युद्धेषु कोविदः ॥ १० ॥
मूलम्
तव ह्यस्त्राणि दिव्यानि मम चैव न संशयः।
सात्वतोऽपि महेष्वासो नित्यं युद्धेषु कोविदः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें संशय नहीं कि तुम्हारे और मेरे पास भी दिव्यास्त्र हैं तथा महाधनुर्धर कृतवर्मा भी युद्ध करनेकी कलामें सदा ही कुशल हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वयं सहितास्तात सर्वान् शत्रून् समागतान्।
प्रसह्य समरे हत्वा प्रीतिं प्राप्स्याम पुष्कलाम् ॥ ११ ॥
मूलम्
ते वयं सहितास्तात सर्वान् शत्रून् समागतान्।
प्रसह्य समरे हत्वा प्रीतिं प्राप्स्याम पुष्कलाम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! हम सब लोग एक साथ होकर समरांगणमें सामने आये हुए समस्त शत्रुओंका संहार करके अत्यन्त हर्षका अनुभव करेंगे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्रमस्व त्वमव्यग्रः स्वप चेमां निशां सुखम्।
अहं च कृतवर्मा च त्वां प्रयान्तं नरोत्तमम् ॥ १२ ॥
अनुयास्याव सहितौ धन्विनौ परतापनौ।
रथिनं त्वरया यान्तं रथमास्थाय दंशितौ ॥ १३ ॥
मूलम्
विश्रमस्व त्वमव्यग्रः स्वप चेमां निशां सुखम्।
अहं च कृतवर्मा च त्वां प्रयान्तं नरोत्तमम् ॥ १२ ॥
अनुयास्याव सहितौ धन्विनौ परतापनौ।
रथिनं त्वरया यान्तं रथमास्थाय दंशितौ ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम व्यग्रता छोड़कर विश्राम करो और इस रातमें सुखपूर्वक सो लो। कल सबेरे युद्धके लिये प्रस्थान करते समय तुम-जैसे नरश्रेष्ठ वीरके पीछे शत्रुओंको संताप देनेवाले हम और कृतवर्मा धनुष लेकर एक साथ चलेंगे। बड़ी उतावलीके साथ आगे बढ़ते हुए रथी अश्वत्थामाके साथ हम दोनों भी कवच धारण करके रथपर आरूढ़ हो यात्रा करेंगे॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गत्वा शिबिरं तेषां नाम विश्राव्य चाहवे।
ततः कर्तासि शत्रूणां युध्यतां कदनं महत् ॥ १४ ॥
मूलम्
स गत्वा शिबिरं तेषां नाम विश्राव्य चाहवे।
ततः कर्तासि शत्रूणां युध्यतां कदनं महत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अवस्थामें शत्रुओंके शिविरमें जाकर युद्धके लिये अपने नामकी घोषणा करके सामने आकर जूझते हुए उन शत्रुओंका बड़ा भारी संहार मचा देना॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वा च कदनं तेषां प्रभाते विमलेऽहनि।
विहरस्व यथा शक्रः सूदयित्वा महासुरान् ॥ १५ ॥
मूलम्
कृत्वा च कदनं तेषां प्रभाते विमलेऽहनि।
विहरस्व यथा शक्रः सूदयित्वा महासुरान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे इन्द्र बड़े-बड़े असुरोंका विनाश करके सुखपूर्वक विचरते हैं, उसी प्रकार तुम भी कल प्रातःकाल निर्मल दिन निकल आनेपर उन शत्रुओंका विनाश करके इच्छानुसार विहार करो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि शक्तो रणे जेतुं पञ्चालानां वरूथिनीम्।
दैत्यसेनामिव क्रुद्धः सर्वदानवसूदनः ॥ १६ ॥
मूलम्
त्वं हि शक्तो रणे जेतुं पञ्चालानां वरूथिनीम्।
दैत्यसेनामिव क्रुद्धः सर्वदानवसूदनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सम्पूर्ण दानवोंका संहार करनेवाले इन्द्र कुपित होनेपर दैत्योंकी सेनाको जीत लेते हैं, उसी प्रकार तुम भी रणभूमिमें पांचालोंकी विशाल वाहिनीपर विजय पानेमें समर्थ हो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया त्वां सहितं संख्ये गुप्तं च कृतवर्मणा।
न सहेत विभुः साक्षाद् वज्रपाणिरपि स्वयम् ॥ १७ ॥
मूलम्
मया त्वां सहितं संख्ये गुप्तं च कृतवर्मणा।
न सहेत विभुः साक्षाद् वज्रपाणिरपि स्वयम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धस्थलमें जब तुम मेरे साथ खड़े होओगे और कृतवर्मा तुम्हारी रक्षामें लगे होंगे, उस समय हाथमें वज्र लिये हुए साक्षात् देवसम्राट् इन्द्र भी तुम्हारा वेग नहीं सह सकेंगे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाहं समरे तात कृतवर्मा न चैव हि।
अनिर्जित्य रणे पाण्डून् न च यास्यामि कर्हिचित् ॥ १८ ॥
मूलम्
न चाहं समरे तात कृतवर्मा न चैव हि।
अनिर्जित्य रणे पाण्डून् न च यास्यामि कर्हिचित् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! समरांगणमें मैं और कृतवर्मा पाण्डवोंको परास्त किये बिना कभी पीछे नहीं हटेंगे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा च समरे क्रुद्धान् पञ्चालान् पाण्डुभिः सह।
निवर्तिष्यामहे सर्वे हता वा स्वर्गगा वयम् ॥ १९ ॥
मूलम्
हत्वा च समरे क्रुद्धान् पञ्चालान् पाण्डुभिः सह।
निवर्तिष्यामहे सर्वे हता वा स्वर्गगा वयम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें कुपित हुए पांचालोंको पाण्डवोंसहित मारकर ही हम सब लोग पीछे हटेंगे अथवा स्वयं ही मारे जाकर स्वर्गलोककी राह लेंगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वोपायैः सहायास्ते प्रभाते वयमाहवे।
सत्यमेतन्महाबाहो प्रब्रवीमि तवानघ ॥ २० ॥
मूलम्
सर्वोपायैः सहायास्ते प्रभाते वयमाहवे।
सत्यमेतन्महाबाहो प्रब्रवीमि तवानघ ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप महाबाहु वीर! कल प्रातःकाल हमलोग सभी उपायोंसे युद्धमें तुम्हारे सहायक होंगे। मैं तुमसे यह सच्ची बात कह रहा हूँ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्ततो द्रौणिर्मातुलेन हितं वचः।
अब्रवीन्मातुलं राजन् क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ २१ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्ततो द्रौणिर्मातुलेन हितं वचः।
अब्रवीन्मातुलं राजन् क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मामाके इस प्रकार हितकारक वचन कहनेपर द्रोणकुमार अश्वत्थामाने क्रोधसे लाल आँखें करके उनसे कहा—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आतुरस्य कुतो निद्रा नरस्यामर्षितस्य च।
अर्थांश्चिन्तयतश्चापि कामयानस्य वा पुनः।
तदिदं समनुप्राप्तं पश्य मेऽद्य चतुष्टयम् ॥ २२ ॥
मूलम्
आतुरस्य कुतो निद्रा नरस्यामर्षितस्य च।
अर्थांश्चिन्तयतश्चापि कामयानस्य वा पुनः।
तदिदं समनुप्राप्तं पश्य मेऽद्य चतुष्टयम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मामाजी! जो मनुष्य शोकसे आतुर हो, अमर्षसे भरा हुआ हो, नाना प्रकारके कार्योंकी चिन्ता कर रहा हो अथवा किसी कामनामें आसक्त हो, उसे नींद कैसे आ सकती है? देखिये, ये चारों बातें आज मेरे ऊपर एक साथ आ पड़ी हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य भागश्चतुर्थो मे स्वप्नमह्नाय नाशयेत्।
किं नाम दुःखं लोकेऽस्मिन् पितुर्वधमनुस्मरन् ॥ २३ ॥
हृदयं निर्दहन्मेऽद्य रात्र्यहानि न शाम्यति।
मूलम्
यस्य भागश्चतुर्थो मे स्वप्नमह्नाय नाशयेत्।
किं नाम दुःखं लोकेऽस्मिन् पितुर्वधमनुस्मरन् ॥ २३ ॥
हृदयं निर्दहन्मेऽद्य रात्र्यहानि न शाम्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन चारोंका एक चौथाई भाग जो क्रोध है, वही मेरी निद्राको तत्काल नष्ट किये देता है। अपने पिताके वधकी घटनाका बारंबार स्मरण करके इस संसारमें कौन-सा ऐसा दुःख है, जिसका मुझे अनुभव न होता हो। वह दुःखकी आग रात-दिन मेरे हृदयको जलाती हुई अबतक बुझ नहीं पा रही है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च निहतः पापैः पिता मम विशेषतः ॥ २४ ॥
प्रत्यक्षमपि ते सर्वं तन्मे मर्माणि कृन्तति।
कथं हि मादृशो लोके मुहूर्तमपि जीवति ॥ २५ ॥
मूलम्
यथा च निहतः पापैः पिता मम विशेषतः ॥ २४ ॥
प्रत्यक्षमपि ते सर्वं तन्मे मर्माणि कृन्तति।
कथं हि मादृशो लोके मुहूर्तमपि जीवति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन पापियोंने विशेषतः मेरे पिताजीको जिस प्रकार मारा था, वह सब आपने प्रत्यक्ष देखा है। वह घटना मेरे मर्मस्थानोंको छेदे डालती है। ऐसी अवस्थामें मेरे-जैसा वीर इस जगत्में दो घड़ी भी कैसे जीवित रह सकता है?॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणो हतेति यद् वाचः पञ्चालानां शृणोम्यहम्।
धृष्टद्युम्नमहत्वा तु नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ २६ ॥
मूलम्
द्रोणो हतेति यद् वाचः पञ्चालानां शृणोम्यहम्।
धृष्टद्युम्नमहत्वा तु नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्नके हाथसे मारे गये’ यह बात जब मैं पांचालोंके मुखसे सुनता आ रहा हूँ, तब धृष्टद्युम्नका वध किये बिना जीवित नहीं रह सकता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मे पितुर्वधाद् वध्यः पञ्चाला ये च संगताः।
विलापो भग्नसक्थस्य यस्तु राज्ञो मया श्रुतः ॥ २७ ॥
स पुनर्हृदयं कस्य क्रूरस्यापि न निर्दहेत्।
मूलम्
स मे पितुर्वधाद् वध्यः पञ्चाला ये च संगताः।
विलापो भग्नसक्थस्य यस्तु राज्ञो मया श्रुतः ॥ २७ ॥
स पुनर्हृदयं कस्य क्रूरस्यापि न निर्दहेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘धृष्टद्युम्न तो पिताजीका वध करनेके कारण मेरा वध्य होगा और उसके संगी-साथी जो पांचाल हैं, वे भी उसका साथ देनेके कारण मारे जायँगे। इधर जिसकी जाँघें तोड़ डाली गयी हैं, उस राजा दुर्योधनका जो विलाप मैंने अपने कानों सुना है, वह किस क्रूर मनुष्यके भी हृदयको शोक-दग्ध नहीं कर देगा?॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्य ह्यकरुणस्यापि नेत्राभ्यामश्रु नाव्रजेत् ॥ २८ ॥
नृपतेर्भग्नसक्थस्य श्रुत्वा तादृग् वचः पुनः।
मूलम्
कस्य ह्यकरुणस्यापि नेत्राभ्यामश्रु नाव्रजेत् ॥ २८ ॥
नृपतेर्भग्नसक्थस्य श्रुत्वा तादृग् वचः पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘टूटी जाँघवाले राजा दुर्योधनकी वैसी बात पुनः सुनकर किस निष्ठुरके भी नेत्रोंसे आँसू नहीं बह चलेगा?॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चायं मित्रपक्षो मे मयि जीवति निर्जितः ॥ २९ ॥
शोकं मे वर्धयत्येष वारिवेग इवार्णवम्।
एकाग्रमनसो मेऽद्य कुतो निद्रा कुतः सुखम् ॥ ३० ॥
मूलम्
यश्चायं मित्रपक्षो मे मयि जीवति निर्जितः ॥ २९ ॥
शोकं मे वर्धयत्येष वारिवेग इवार्णवम्।
एकाग्रमनसो मेऽद्य कुतो निद्रा कुतः सुखम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे जीते-जी जो यह मेरा मित्र-पक्ष परास्त हो गया, वह मेरे शोककी उसी प्रकार वृद्धि कर रहा है, जैसे जलका वेग समुद्रको बढ़ा देता है। आज मेरा मन एक ही कार्यकी ओर लगा हुआ है, फिर मुझे नींद कैसे आ सकती है और मुझे सुख भी कैसे मिल सकता है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवार्जुनाभ्यां च तानहं परिरक्षितान्।
अविषह्यतमान् मन्ये महेन्द्रेणापि सत्तम ॥ ३१ ॥
मूलम्
वासुदेवार्जुनाभ्यां च तानहं परिरक्षितान्।
अविषह्यतमान् मन्ये महेन्द्रेणापि सत्तम ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ मामाजी! पाण्डव और पांचाल जब श्रीकृष्ण और अर्जुनसे सुरक्षित हों, उस दशामें मैं उन्हें देवराज इन्द्रके लिये भी अत्यन्त असह्य एवं अजेय मानता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि शक्तः संयन्तुं कोपमेतं समुत्थितम्।
तं न पश्यामि लोकेऽस्मिन् यो मां कोपान्निवर्तयेत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
न चापि शक्तः संयन्तुं कोपमेतं समुत्थितम्।
तं न पश्यामि लोकेऽस्मिन् यो मां कोपान्निवर्तयेत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय जो क्रोध उत्पन्न हुआ है, इसे मैं स्वयं भी रोक नहीं सकता। इस संसारमें किसी भी ऐसे पुरुषको नहीं देख रहा हूँ, जो मुझे क्रोधसे दूर हटा दे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव निश्चिता बुद्धिरेषा साधु मता मम।
वार्तिकैः कथ्यमानस्तु मित्राणां मे पराभवः ॥ ३३ ॥
पाण्डवानां च विजयो हृदयं दहतीव मे।
मूलम्
तथैव निश्चिता बुद्धिरेषा साधु मता मम।
वार्तिकैः कथ्यमानस्तु मित्राणां मे पराभवः ॥ ३३ ॥
पाण्डवानां च विजयो हृदयं दहतीव मे।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसी प्रकार मैंने जो अपनी बुद्धिमें शत्रुओंके संहारका यह दृढ़ निश्चय कर लिया है, यही मुझे अच्छा प्रतीत होता है। जब संदेशवाहक दूत मेरे मित्रोंकी पराजय और पाण्डवोंकी विजयका समाचार कहने लगते हैं, तब वह मेरे हृदयको दग्ध-सा कर देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं तु कदनं कृत्वा शत्रूणामद्य सौप्तिके।
ततो विश्रमिता चैव स्वप्ता च विगतज्वरः ॥ ३४ ॥
मूलम्
अहं तु कदनं कृत्वा शत्रूणामद्य सौप्तिके।
ततो विश्रमिता चैव स्वप्ता च विगतज्वरः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तो आज सोते समय शत्रुओंका संहार करके निश्चिन्त होनेपर ही विश्राम करूँगा और नींद लूँगा’॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि द्रौणिमन्त्रणायां चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वमें अश्वत्थामाकी मन्त्रणाविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ॥४॥