००३

भागसूचना

तृतीयोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अश्वत्थामाका कृपाचार्य और कृतवर्माको उत्तर देते हुए उन्हें अपना क्रूरतापूर्ण निश्चय बताना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपस्य वचनं श्रुत्वा धर्मार्थसहितं शुभम्।
अश्वत्थामा महाराज दुःखशोकसमन्वितः ॥ १ ॥

मूलम्

कृपस्य वचनं श्रुत्वा धर्मार्थसहितं शुभम्।
अश्वत्थामा महाराज दुःखशोकसमन्वितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! कृपाचार्यका वचन धर्म और अर्थसे युक्त तथा मंगलकारी था। उसे सुनकर अश्वत्थामा दुःख और शोकमें डूब गया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दह्यमानस्तु शोकेन प्रदीप्तेनाग्निना यथा।
क्रूरं मनस्ततः कृत्वा तावुभौ प्रत्यभाषत ॥ २ ॥

मूलम्

दह्यमानस्तु शोकेन प्रदीप्तेनाग्निना यथा।
क्रूरं मनस्ततः कृत्वा तावुभौ प्रत्यभाषत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके हृदयमें शोककी आग प्रज्वलित हो उठी। वह उससे जलने लगा और अपने मनको कठोर बनाकर कृपाचार्य और कृतवर्मा दोनोंसे बोला—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषे पुरुषे बुद्धिर्या या भवति शोभना।
तुष्यन्ति च पृथक् सर्वे प्रज्ञया ते स्वया स्वया॥३॥

मूलम्

पुरुषे पुरुषे बुद्धिर्या या भवति शोभना।
तुष्यन्ति च पृथक् सर्वे प्रज्ञया ते स्वया स्वया॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मामाजी! प्रत्येक मनुष्यमें जो पृथक्-पृथक् बुद्धि होती है, वही उसे सुन्दर जान पड़ती है। अपनी-अपनी उसी बुद्धिसे वे सब लोग अलग-अलग संतुष्ट रहते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वो हि मन्यते लोक आत्मानं बुद्धिमत्तरम्।
सर्वस्यात्मा बहुमतः सर्वात्मानं प्रशंसति ॥ ४ ॥

मूलम्

सर्वो हि मन्यते लोक आत्मानं बुद्धिमत्तरम्।
सर्वस्यात्मा बहुमतः सर्वात्मानं प्रशंसति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सभी लोग अपने-आपको अधिक बुद्धिमान् समझते हैं। सबको अपनी ही बुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण जान पड़ती है और सब लोग अपनी ही बुद्धिकी प्रशंसा करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वस्य हि स्वका प्रज्ञा साधुवादे प्रतिष्ठिता।
परबुद्धिं च निन्दन्ति स्वां प्रशंसन्ति चासकृत् ॥ ५ ॥

मूलम्

सर्वस्य हि स्वका प्रज्ञा साधुवादे प्रतिष्ठिता।
परबुद्धिं च निन्दन्ति स्वां प्रशंसन्ति चासकृत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सबकी दृष्टिमें अपनी ही बुद्धि धन्यवाद पानेके योग्य ऊँचे पदपर प्रतिष्ठित जान पड़ती है। सब लोग दूसरोंकी बुद्धिकी निन्दा और अपनी बुद्धिकी बारंबार सराहना करते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कारणान्तरयोगेन योगे येषां समागतिः।
अन्योन्येन च तुष्यन्ति बहु मन्यन्ति चासकृत् ॥ ६ ॥

मूलम्

कारणान्तरयोगेन योगे येषां समागतिः।
अन्योन्येन च तुष्यन्ति बहु मन्यन्ति चासकृत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि किन्हीं दूसरे कारणोंके संयोगसे एक समुदायमें जिनके-जिनके विचार परस्पर मिल जाते हैं, वे एक-दूसरेसे संतुष्ट होते हैं और बारंबार एक-दूसरेके प्रति अधिक सम्मान प्रकट करते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैव तु मनुष्यस्य सा सा बुद्धिस्तदा तदा।
कालयोगे विपर्यासं प्राप्यान्योन्यं विपद्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्यैव तु मनुष्यस्य सा सा बुद्धिस्तदा तदा।
कालयोगे विपर्यासं प्राप्यान्योन्यं विपद्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किंतु समयके फेरसे उसी मनुष्यकी वही-वही बुद्धि विपरीत होकर परस्पर विरुद्ध हो जाती है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचित्रत्वात् तु चित्तानां मनुष्याणां विशेषतः।
चित्तवैक्लव्यमासाद्य सा सा बुद्धिः प्रजायते ॥ ८ ॥

मूलम्

विचित्रत्वात् तु चित्तानां मनुष्याणां विशेषतः।
चित्तवैक्लव्यमासाद्य सा सा बुद्धिः प्रजायते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सभी प्राणियोंके विशेषतः मनुष्योंके चित्त एक-दूसरेसे विलक्षण तथा भिन्न-भिन्न प्रकारके होते हैं; अतः विभिन्न घटनाओंके कारण जो चित्तमें व्याकुलता होती है, उसका आश्रय लेकर भिन्न-भिन्न प्रकारकी बुद्धि पैदा हो जाती है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हि वैद्यः कुशलो ज्ञात्वा व्याधिं यथाविधि।
भैषज्यं कुरुते योगात् प्रशमार्थमिति प्रभो ॥ ९ ॥
एवं कार्यस्य योगार्थं बुद्धिं कुर्वन्ति मानवाः।
प्रज्ञया हि स्वया युक्तास्तां च निन्दन्ति मानवाः ॥ १० ॥

मूलम्

यथा हि वैद्यः कुशलो ज्ञात्वा व्याधिं यथाविधि।
भैषज्यं कुरुते योगात् प्रशमार्थमिति प्रभो ॥ ९ ॥
एवं कार्यस्य योगार्थं बुद्धिं कुर्वन्ति मानवाः।
प्रज्ञया हि स्वया युक्तास्तां च निन्दन्ति मानवाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! जैसे कुशल वैद्य विधिपूर्वक रोगकी जानकारी प्राप्त करके उसकी शान्तिके लिये योग्यतानुसार औषध प्रदान करता है, इसी प्रकार मनुष्य कार्यकी सिद्धिके लिये अपनी विवेकशक्तिसे विचार करके किसी निश्चयात्मक बुद्धिका आश्रय लेते हैं; परंतु दूसरे लोग उसकी निन्दा करने लगते हैं॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यया यौवने मर्त्यो बुद्ध्या भवति मोहितः।
मध्येऽन्यया जरायां तु सोऽन्यां रोचयते मतिम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अन्यया यौवने मर्त्यो बुद्ध्या भवति मोहितः।
मध्येऽन्यया जरायां तु सोऽन्यां रोचयते मतिम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्य जवानीमें किसी और ही प्रकारकी बुद्धिसे मोहित होता है, मध्यम अवस्थामें दूसरी ही बुद्धिसे वह प्रभावित होता है; किंतु वृद्धावस्थामें उसे अन्य प्रकारकी ही बुद्धि अच्छी लगने लगती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यसनं वा महाघोरं समृद्धिं चापि तादृशीम्।
अवाप्य पुरुषो भोज कुरुते बुद्धिवैकृतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

व्यसनं वा महाघोरं समृद्धिं चापि तादृशीम्।
अवाप्य पुरुषो भोज कुरुते बुद्धिवैकृतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भोज1! मनुष्य जब किसी अत्यन्त घोर संकटमें पड़ जाता है अथवा उसे किसी महान् ऐश्वर्यकी प्राप्ति हो जाती है, तब उस संकट और समृद्धिको पाकर उसकी बुद्धिमें क्रमशः शोक एवं हर्षरूपी विकार उत्पन्न हो जाते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस्मिन्नेव पुरुषे सा सा बुद्धिस्तदा तदा।
भवत्यकृतधर्मत्वात् सा तस्यैव न रोचते ॥ १३ ॥

मूलम्

एकस्मिन्नेव पुरुषे सा सा बुद्धिस्तदा तदा।
भवत्यकृतधर्मत्वात् सा तस्यैव न रोचते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस विकारके कारण एक ही पुरुषमें उसी समय भिन्न-भिन्न प्रकारकी बुद्धि (विचारधारा) उत्पन्न हो जाती है; परंतु अवसरके अनुरूप न होनेपर उसकी अपनी ही बुद्धि उसीके लिये अरुचिकर हो जाती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निश्चित्य तु यथाप्रज्ञं यां मतिं साधु पश्यति।
तया प्रकुरुते भावं सा तस्योद्योगकारिका ॥ १४ ॥

मूलम्

निश्चित्य तु यथाप्रज्ञं यां मतिं साधु पश्यति।
तया प्रकुरुते भावं सा तस्योद्योगकारिका ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्य अपने विवेकके अनुसार किसी निश्चयपर पहुँचकर जिस बुद्धिको अच्छा समझता है, उसीके द्वारा कार्य-सिद्धिकी चेष्टा करता है। वही बुद्धि उसके उद्योगको सफल बनानेवाली होती है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वो हि पुरुषो भोज साध्वेतदिति निश्चितः।
कर्तुमारभते प्रीतो मारणादिषु कर्मसु ॥ १५ ॥

मूलम्

सर्वो हि पुरुषो भोज साध्वेतदिति निश्चितः।
कर्तुमारभते प्रीतो मारणादिषु कर्मसु ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कृतवर्मन्! सभी मनुष्य ‘यह अच्छा कार्य है’ ऐसा निश्चय करके प्रसन्नतापूर्वक कार्य आरम्भ करते हैं और हिंसा आदि कर्मोंमें भी लग जाते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे हि बुद्धिमाज्ञाय प्रज्ञां वापि स्वकां नराः।
चेष्टन्ते विविधां चेष्टां हितमित्येव जानते ॥ १६ ॥

मूलम्

सर्वे हि बुद्धिमाज्ञाय प्रज्ञां वापि स्वकां नराः।
चेष्टन्ते विविधां चेष्टां हितमित्येव जानते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सब लोग अपनी ही बुद्धि अथवा विवेकका आश्रय लेकर तरह-तरहकी चेष्टाएँ करते हैं और उन्हें अपने लिये हितकर ही समझते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपजाता व्यसनजा येयमद्य मतिर्मम।
युवयोस्तां प्रवक्ष्यामि मम शोकविनाशिनीम् ॥ १७ ॥

मूलम्

उपजाता व्यसनजा येयमद्य मतिर्मम।
युवयोस्तां प्रवक्ष्यामि मम शोकविनाशिनीम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज संकटमें पड़नेसे मेरे अंदर जो बुद्धि पैदा हुई है, उसे मैं आप दोनोंको बता रहा हूँ। वह मेरे शोकका विनाश करनेवाली है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा कर्म तासु विधाय च।
वर्णे वर्णे समाधत्ते ह्येकैकं गुणभाग् गुणम् ॥ १८ ॥

मूलम्

प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा कर्म तासु विधाय च।
वर्णे वर्णे समाधत्ते ह्येकैकं गुणभाग् गुणम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गुणवान् प्रजापति ब्रह्माजी प्रजाओंकी सृष्टि करके उनके लिये कर्मका विधान करते हैं और प्रत्येक वर्णमें एक-एक विशेष गुणकी स्थापना कर देते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणे वेदमग्र्यं तु क्षत्रिये तेज उत्तमम्।
दाक्ष्यं वैश्ये च शूद्रे च सर्ववर्णानुकूलताम् ॥ १९ ॥

मूलम्

ब्राह्मणे वेदमग्र्यं तु क्षत्रिये तेज उत्तमम्।
दाक्ष्यं वैश्ये च शूद्रे च सर्ववर्णानुकूलताम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे ब्राह्मणमें सर्वोत्तम वेद, क्षत्रियमें उत्तम तेज, वैश्यमें व्यापारकुशलता तथा शूद्रमें सब वर्णोंके अनुकूल चलनेकी वृत्तिको स्थापित कर देते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदान्तो ब्राह्मणोऽसाधुर्निस्तेजाः क्षत्रियोऽधमः ।
अदक्षो निन्द्यते वैश्यः शूद्रश्च प्रतिकूलवान् ॥ २० ॥

मूलम्

अदान्तो ब्राह्मणोऽसाधुर्निस्तेजाः क्षत्रियोऽधमः ।
अदक्षो निन्द्यते वैश्यः शूद्रश्च प्रतिकूलवान् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मन और इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला ब्राह्मण अच्छा नहीं माना जाता। तेजोहीन क्षत्रिय अधम समझा जाता है, जो व्यापारमें कुशल नहीं है, उस वैश्यकी निन्दा की जाती है और अन्य वर्णोंके प्रतिकूल चलनेवाले शूद्रको भी निन्दनीय माना जाता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽस्मि जातः कुले श्रेष्ठे ब्राह्मणानां सुपूजिते।
मन्दभाग्यतयास्म्येतं क्षत्रधर्ममनुष्ठितः ॥ २१ ॥

मूलम्

सोऽस्मि जातः कुले श्रेष्ठे ब्राह्मणानां सुपूजिते।
मन्दभाग्यतयास्म्येतं क्षत्रधर्ममनुष्ठितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं ब्राह्मणोंके परम सम्मानित श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न हुआ हूँ, तथापि दुर्भाग्यके कारण इस क्षत्रिय-धर्मका अनुष्ठान करता हूँ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रधर्मं विदित्वाहं यदि ब्राह्मण्यमाश्रितः।
प्रकुर्यां सुमहत् कर्म न मे तत् साधुसम्मतम् ॥ २२ ॥

मूलम्

क्षत्रधर्मं विदित्वाहं यदि ब्राह्मण्यमाश्रितः।
प्रकुर्यां सुमहत् कर्म न मे तत् साधुसम्मतम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि क्षत्रियके धर्मको जानकर भी मैं ब्राह्मणत्वका सहारा लेकर कोई दूसरा महान् कर्म करने लगूँ तो सत्पुरुषोंके समाजमें मेरे उस कार्यका सम्मान नहीं होगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारयंश्च धनुर्दिव्यं दिव्यान्यस्त्राणि चाहवे।
पितरं निहतं दृष्ट्वा किं नु वक्ष्यामि संसदि ॥ २३ ॥

मूलम्

धारयंश्च धनुर्दिव्यं दिव्यान्यस्त्राणि चाहवे।
पितरं निहतं दृष्ट्वा किं नु वक्ष्यामि संसदि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं दिव्य धनुष और दिव्य अस्त्रोंको धारण करता हूँ तो भी युद्धमें अपने पिताको अन्यायपूर्वक मारा गया देखकर यदि उसका बदला न लूँ तो वीरोंकी सभामें क्या कहूँगा?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमद्य यथाकामं क्षत्रधर्ममुपास्य तम्।
गन्तास्मि पदवीं राज्ञः पितुश्चापि महात्मनः ॥ २४ ॥

मूलम्

सोऽहमद्य यथाकामं क्षत्रधर्ममुपास्य तम्।
गन्तास्मि पदवीं राज्ञः पितुश्चापि महात्मनः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः आज मैं अपनी रुचिके अनुसार उस क्षत्रियधर्मका सहारा लेकर अपने महात्मा पिता तथा राजा दुर्योधनके पथका अनुसरण करूँगा॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य स्वप्स्यन्ति पञ्चाला विश्वस्ता जितकाशिनः।
विमुक्तयुग्यकवचा हर्षेण च समन्विताः ॥ २५ ॥
जयं मत्वाऽऽत्मनश्चैव श्रान्ता व्यायामकर्शिताः।

मूलम्

अद्य स्वप्स्यन्ति पञ्चाला विश्वस्ता जितकाशिनः।
विमुक्तयुग्यकवचा हर्षेण च समन्विताः ॥ २५ ॥
जयं मत्वाऽऽत्मनश्चैव श्रान्ता व्यायामकर्शिताः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज अपनी जीत हुई जान विजयसे सुशोभित होनेवाले पांचाल योद्धा बड़े हर्षमें भरकर कवच उतार, जूओंमें जुते हुए घोड़ोंको खोलकर बेखटके सो रहे होंगे। वे थके तो होंगे ही, विशेष परिश्रमके कारण चूर-चूर हो गये होंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां निशि प्रसुप्तानां सुस्थानां शिबिरे स्वके ॥ २६ ॥
अवस्कन्दं करिष्यामि शिबिरस्याद्य दुष्करम्।

मूलम्

तेषां निशि प्रसुप्तानां सुस्थानां शिबिरे स्वके ॥ २६ ॥
अवस्कन्दं करिष्यामि शिबिरस्याद्य दुष्करम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘रातमें सुस्थिर चित्तसे सोये हुए उन पांचालोंके अपने ही शिविरमें घुसकर मैं उन सबका संहार कर डालूँगा। समूचे शिविरका ऐसा विनाश करूँगा जो दूसरोंके लिये दुष्कर है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानवस्कन्द्य शिबिरे प्रेतभूतविचेतसः ॥ २७ ॥
सूदयिष्यामि विक्रम्य मघवानिव दानवान्।

मूलम्

तानवस्कन्द्य शिबिरे प्रेतभूतविचेतसः ॥ २७ ॥
सूदयिष्यामि विक्रम्य मघवानिव दानवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे इन्द्र दानवोंपर आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार मैं भी शिविरमें मुर्दोंके समान अचेत पड़े हुए पांचालोंकी छातीपर चढ़कर उन्हें पराक्रमपूर्वक मार डालूँगा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य तान् सहितान् सर्वान् धृष्टद्युम्नपुरोगमान् ॥ २८ ॥
सूदयिष्यामि विक्रम्य कक्षं दीप्त इवानलः।
निहत्य चैव पञ्चालान् शान्तिं लब्धास्मि सत्तम ॥ २९ ॥

मूलम्

अद्य तान् सहितान् सर्वान् धृष्टद्युम्नपुरोगमान् ॥ २८ ॥
सूदयिष्यामि विक्रम्य कक्षं दीप्त इवानलः।
निहत्य चैव पञ्चालान् शान्तिं लब्धास्मि सत्तम ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘साधुशिरोमणे! जैसे जलती हुई आग सूखे जंगल या तिनकोंकी राशिको जला डालती है, उसी प्रकार आज मैं एक साथ सोये हुए धृष्टद्युम्न आदि समस्त पांचालोंपर आक्रमण करके उन्हें मौतके घाट उतार दूँगा। उनका संहार कर लेनेपर ही मुझे शान्ति मिलेगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चालेषु भविष्यामि सूदयन्नद्य संयुगे।
पिनाकपाणिः संक्रुद्धः स्वयं रुद्रः पशुष्विव ॥ ३० ॥

मूलम्

पञ्चालेषु भविष्यामि सूदयन्नद्य संयुगे।
पिनाकपाणिः संक्रुद्धः स्वयं रुद्रः पशुष्विव ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे प्रलयके समय क्रोधमें भरे हुए साक्षात् पिनाकधारी रुद्र समस्त पशुओं (प्राणियों)-पर आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार आज युद्धमें मैं पांचालोंका विनाश करता हुआ उनके लिये कालरूप हो जाऊँगा॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्याहं सर्वपञ्चालान् निहत्य च निकृत्य च।
अर्दयिष्यामि संहृष्टो रणे पाण्डुसुतांस्तथा ॥ ३१ ॥

मूलम्

अद्याहं सर्वपञ्चालान् निहत्य च निकृत्य च।
अर्दयिष्यामि संहृष्टो रणे पाण्डुसुतांस्तथा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज मैं रणभूमिमें समस्त पांचालोंको मारकर उनके टुकड़े-टुकड़े करके हर्ष और उत्साहसे सम्पन्न हो पाण्डवोंको भी कुचल डालूँगा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्याहं सर्वपञ्चालैः कृत्वा भूमिं शरीरिणीम्।
प्रहृत्यैकैकशस्तेषु भविष्याम्यनृणः पितुः ॥ ३२ ॥

मूलम्

अद्याहं सर्वपञ्चालैः कृत्वा भूमिं शरीरिणीम्।
प्रहृत्यैकैकशस्तेषु भविष्याम्यनृणः पितुः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज समस्त पांचालोंके शरीरोंसे रणभूमिको शरीरधारिणी बनाकर एक-एक पांचालपर भरपूर प्रहार करके मैं अपने पिताके ऋणसे मुक्त हो जाऊँगा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनस्य कर्णस्य भीष्मसैन्धवयोरपि ।
गमयिष्यामि पञ्चालान् पदवीमद्य दुर्गमाम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

दुर्योधनस्य कर्णस्य भीष्मसैन्धवयोरपि ।
गमयिष्यामि पञ्चालान् पदवीमद्य दुर्गमाम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज पांचालोंको दुर्योधन, कर्ण, भीष्म तथा जयद्रथके दुर्गम मार्गपर भेजकर छोड़ूँगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य पाञ्चालराजस्य धृष्टद्युम्नस्य वै निशि।
नचिरात् प्रमथिष्यामि पशोरिव शिरो बलात् ॥ ३४ ॥

मूलम्

अद्य पाञ्चालराजस्य धृष्टद्युम्नस्य वै निशि।
नचिरात् प्रमथिष्यामि पशोरिव शिरो बलात् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज रातमें मैं शीघ्र ही पांचालराज धृष्टद्युम्नके सिरको पशुके मस्तककी भाँति बलपूर्वक मरोड़ डालूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य पाञ्चालपाण्डूनां शयितानात्मजान् निशि।
खड्गेन निशितेनाजौ प्रमथिष्यामि गौतम ॥ ३५ ॥

मूलम्

अद्य पाञ्चालपाण्डूनां शयितानात्मजान् निशि।
खड्गेन निशितेनाजौ प्रमथिष्यामि गौतम ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गौतम! आज रातके युद्धमें सोये हुए पांचालों और पाण्डवोंके पुत्रोंको भी मैं अपनी तीखी तलवारसे टूक-टूक कर दूँगा॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य पाञ्चालसेनां तां निहत्य निशि सौप्तिके।
कृतकृत्यः सुखी चैव भविष्यामि महामते ॥ ३६ ॥

मूलम्

अद्य पाञ्चालसेनां तां निहत्य निशि सौप्तिके।
कृतकृत्यः सुखी चैव भविष्यामि महामते ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामते! आज रातको सोते समय उस पांचाल-सेनाका वध करके मैं कृतकृत्य एवं सुखी हो जाऊँगा’॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि द्रौणिमन्त्राणायां तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वमें अश्वत्थामाकी मन्त्रणाविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥३॥


  1. भोजका अर्थ है भोजवंशी कृतवर्मा। ↩︎