नमस्कारः
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
सूचना (हिन्दी)
श्रीमहाभारतम्
भागसूचना
सौप्तिकपर्व
प्रथमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
तीनों महारथियोंका एक वनमें विश्राम, कौओंपर उल्लूका आक्रमण देख अश्वत्थामाके मनमें क्रूर संकल्पका उदय तथा अपने दोनों साथियोंसे उसका सलाह पूछना
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
मूलम्
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तर्यामी नारायण भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और उनकी लीलाओंका संकलन करनेवाले महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये।
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते सहिता वीराः प्रयाता दक्षिणामुखाः।
उपास्तमनवेलायां शिबिराभ्याशमागताः ॥ १ ॥
मूलम्
ततस्ते सहिता वीराः प्रयाता दक्षिणामुखाः।
उपास्तमनवेलायां शिबिराभ्याशमागताः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! दुर्योधनकी आज्ञाके अनुसार कृपाचार्यके द्वारा अश्वत्थामाका सेनापतिके पदपर अभिषेक हो जानेके अनन्तर वे तीनों वीर अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा एक साथ दक्षिण दिशाकी ओर चले और सूर्यास्तके समय सेनाकी छावनीके निकट जा पहुँचे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुच्य वाहांस्त्वरिता भीता समभवंस्तदा।
गहनं देशमासाद्य प्रच्छन्ना न्यविशन्त ते ॥ २ ॥
मूलम्
विमुच्य वाहांस्त्वरिता भीता समभवंस्तदा।
गहनं देशमासाद्य प्रच्छन्ना न्यविशन्त ते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंको पता न लग जाय, इस भयसे वे सब-के-सब डरे हुए थे, अतः बड़ी उतावलीके साथ वनके गहन प्रदेशमें जाकर उन्होंने घोड़ोंको खोल दिया और छिपकर एक स्थानपर वे जा बैठे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेनानिवेशमभितो नातिदूरमवस्थिताः ।
निकृत्ता निशितैः शस्त्रैः समन्तात् क्षतविक्षताः ॥ ३ ॥
मूलम्
सेनानिवेशमभितो नातिदूरमवस्थिताः ।
निकृत्ता निशितैः शस्त्रैः समन्तात् क्षतविक्षताः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ सेनाकी छावनी थी, उस स्थानके पास थोड़ी ही दूरपर वे तीनों विश्राम करने लगे। उनके शरीर तीखे शस्त्रोंके आघातसे घायल हो गये थे। वे सब ओरसे क्षत-विक्षत हो रहे थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य पाण्डवानेव चिन्तयन्।
श्रुत्वा च निनदं घोरं पाण्डवानां जयैषिणाम् ॥ ४ ॥
अनुसारभयाद् भीताः प्राङ्मुखाः प्राद्रवन् पुनः।
मूलम्
दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य पाण्डवानेव चिन्तयन्।
श्रुत्वा च निनदं घोरं पाण्डवानां जयैषिणाम् ॥ ४ ॥
अनुसारभयाद् भीताः प्राङ्मुखाः प्राद्रवन् पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
वे गरम-गरम लंबी साँस खींचते हुए पाण्डवोंकी ही चिन्ता करने लगे। इतनेहीमें विजयाभिलाषी पाण्डवोंकी भयंकर गर्जना सुनकर उन्हें यह भय हुआ कि पाण्डव कहीं हमारा पीछा न करने लगें; अतः वे पुनः घोड़ोंको रथमें जोतकर पूर्व दिशाकी ओर भाग चले॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते मुहूर्तात् ततो गत्वा श्रान्तवाहाः पिपासिताः ॥ ५ ॥
नामृष्यन्त महेष्वासाः क्रोधामर्षवशं गताः।
राज्ञो वधेन संतप्ता मुहूर्तं समवस्थिताः ॥ ६ ॥
मूलम्
ते मुहूर्तात् ततो गत्वा श्रान्तवाहाः पिपासिताः ॥ ५ ॥
नामृष्यन्त महेष्वासाः क्रोधामर्षवशं गताः।
राज्ञो वधेन संतप्ता मुहूर्तं समवस्थिताः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दो ही घड़ीमें उस स्थानसे कुछ दूर जाकर क्रोध और अमर्षके वशीभूत हुए वे महाधनुर्धर योद्धा प्याससे पीड़ित हो गये। उनके घोड़े भी थक गये। उनके लिये यह अवस्था असह्य हो उठी थी। वे राजा दुर्योधनके मारे जानेसे बहुत दुःखी हो एक मुहूर्ततक वहाँ चुपचाप खड़े रहे॥५-६॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्रद्धेयमिदं कर्म कृतं भीमेन संजय।
यत् स नागायुतप्राणः पुत्रो मम निपातितः ॥ ७ ॥
मूलम्
अश्रद्धेयमिदं कर्म कृतं भीमेन संजय।
यत् स नागायुतप्राणः पुत्रो मम निपातितः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! मेरे पुत्र दुर्योधनमें दस हजार हाथियोंका बल था तो भी उसे भीमसेनने मार गिराया। उनके द्वारा जो यह कार्य किया गया है, इसपर सहसा विश्वास नहीं होता॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध्यः सर्वभूतानां वज्रसंहननो युवा।
पाण्डवैः समरे पुत्रो निहतो मम संजय ॥ ८ ॥
मूलम्
अवध्यः सर्वभूतानां वज्रसंहननो युवा।
पाण्डवैः समरे पुत्रो निहतो मम संजय ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! मेरा पुत्र नवयुवक था। उसका शरीर वज्रके समान कठोर था और इसीलिये वह सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अवध्य था, तथापि पाण्डवोंने समरांगणमें उसका वध कर डाला॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दिष्टमभ्यतिक्रान्तुं शक्यं गावल्गणे नरैः।
यत् समेत्य रणे पार्थैः पुत्रो मम निपातितः ॥ ९ ॥
मूलम्
न दिष्टमभ्यतिक्रान्तुं शक्यं गावल्गणे नरैः।
यत् समेत्य रणे पार्थैः पुत्रो मम निपातितः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गवल्गणकुमार! कुन्तीके पुत्रोंने मिलकर रणभूमिमें जो मेरे पुत्रको धराशायी कर दिया है, इससे जान पड़ता है कि कोई भी मनुष्य दैवके विधानका उल्लंघन नहीं कर सकता॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्रिसारमयं नूनं हृदयं मम संजय।
हतं पुत्रशतं श्रुत्वा यन्न दीर्णं सहस्रधा ॥ १० ॥
मूलम्
अद्रिसारमयं नूनं हृदयं मम संजय।
हतं पुत्रशतं श्रुत्वा यन्न दीर्णं सहस्रधा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! निश्चय ही मेरा हृदय पत्थरके सारतत्त्वका बना हुआ है, जो अपने सौ पुत्रोंके मारे जानेका समाचार सुनकर भी इसके सहस्रों टुकड़े नहीं हो गये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं हि वृद्धमिथुनं हतपुत्रं भविष्यति।
न ह्यहं पाण्डवेयस्य विषये वस्तुमुत्सहे ॥ ११ ॥
मूलम्
कथं हि वृद्धमिथुनं हतपुत्रं भविष्यति।
न ह्यहं पाण्डवेयस्य विषये वस्तुमुत्सहे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाय! अब हम दोनों बूढ़े पति-पत्नी अपने पुत्रोंके मारे जानेसे कैसे जीवित रहेंगे? मैं पाण्डुकुमार युधिष्ठिरके राज्यमें नहीं रह सकता॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं राज्ञः पिता भूत्वा स्वयं राजा च संजय।
प्रेष्यभूतः प्रवर्तेयं पाण्डवेयस्य शासनात् ॥ १२ ॥
मूलम्
कथं राज्ञः पिता भूत्वा स्वयं राजा च संजय।
प्रेष्यभूतः प्रवर्तेयं पाण्डवेयस्य शासनात् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! मैं राजाका पिता और स्वयं भी राजा ही था। अब पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरकी आज्ञाके अधीन हो दासकी भाँति कैसे जीवननिर्वाह करूँगा?॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आज्ञाप्य पृथिवीं सर्वां स्थित्वा मूर्ध्नि च संजय।
कथमद्य भविष्यामि प्रेष्यभूतो दुरन्तकृत् ॥ १३ ॥
मूलम्
आज्ञाप्य पृथिवीं सर्वां स्थित्वा मूर्ध्नि च संजय।
कथमद्य भविष्यामि प्रेष्यभूतो दुरन्तकृत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! पहले समस्त भूमण्डलपर मेरी आज्ञा चलती थी और मैं सबका शिरमौर था; ऐसा होकर अब मैं दूसरोंका दास बनकर कैसे रहूँगा। मैंने स्वयं ही अपने जीवनकी अन्तिम अवस्थाको दुःखमय बना दिया है!॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं भीमस्य वाक्यानि श्रोतुं शक्ष्यामि संजय।
येन पुत्रशतं पूर्णमेकेन निहतं मम ॥ १४ ॥
मूलम्
कथं भीमस्य वाक्यानि श्रोतुं शक्ष्यामि संजय।
येन पुत्रशतं पूर्णमेकेन निहतं मम ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ओह! जिसने अकेले ही मेरे पूरे-के-पूरे सौ पुत्रोंका वध कर डाला, उस भीमसेनकी बातोंको मैं कैसे सुन सकूँगा?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं सत्यं वचस्तस्य विदुरस्य महात्मनः।
अकुर्वता वचस्तेन मम पुत्रेण संजय ॥ १५ ॥
मूलम्
कृतं सत्यं वचस्तस्य विदुरस्य महात्मनः।
अकुर्वता वचस्तेन मम पुत्रेण संजय ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! मेरे पुत्रने मेरी बात न मानकर महात्मा विदुरके कहे हुए वचनको सत्य कर दिखाया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मेण हते तात पुत्रे दुर्योधने मम।
कृतवर्मा कृपो द्रौणिः किमकुर्वत संजय ॥ १६ ॥
मूलम्
अधर्मेण हते तात पुत्रे दुर्योधने मम।
कृतवर्मा कृपो द्रौणिः किमकुर्वत संजय ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात संजय! अब यह बताओ कि मेरे पुत्र दुर्योधनके अधर्मपूर्वक मारे जानेपर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामाने क्या किया?॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गत्वा तु तावका राजन् नातिदूरमवस्थिताः।
अपश्यन्त वनं घोरं नानाद्रुमलतावृतम् ॥ १७ ॥
मूलम्
गत्वा तु तावका राजन् नातिदूरमवस्थिताः।
अपश्यन्त वनं घोरं नानाद्रुमलतावृतम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! आपके पक्षके वे तीनों वीर वहाँसे थोड़ी ही दूरपर जाकर खड़े हो गये। वहाँ उन्होंने नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे भरा हुआ एक भयंकर वन देखा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते मुहूर्तं तु विश्रम्य लब्धतोयैर्हयोत्तमैः।
सूर्यास्तमनवेलायां समासेदुर्महद् वनम् ॥ १८ ॥
नानामृगगणैर्जुष्टं नानापक्षिगणावृतम् ।
नानाद्रुमलताच्छन्नं नानाव्यालनिषेवितम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ते मुहूर्तं तु विश्रम्य लब्धतोयैर्हयोत्तमैः।
सूर्यास्तमनवेलायां समासेदुर्महद् वनम् ॥ १८ ॥
नानामृगगणैर्जुष्टं नानापक्षिगणावृतम् ।
नानाद्रुमलताच्छन्नं नानाव्यालनिषेवितम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस स्थानपर थोड़ी देरतक ठहरकर उन सब लोगोंने अपने उत्तम घोड़ोंको पानी पिलाया और सूर्यास्त होते-होते वे उस विशाल वनमें जा पहुँचे, जहाँ अनेक प्रकारके मृग और भाँति-भाँतिके पक्षी निवास करते थे, तरह-तरहके वृक्षों और लताओंने उस वनको व्याप्त कर रखा था और अनेक जातिके सर्प उसका सेवन करते थे॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानातोयैः समाकीर्णं नानापुष्पोपशोभितम् ।
पद्मिनीशतसंछन्नं नीलोत्पलसमायुतम् ॥ २० ॥
मूलम्
नानातोयैः समाकीर्णं नानापुष्पोपशोभितम् ।
पद्मिनीशतसंछन्नं नीलोत्पलसमायुतम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें जहाँ-तहाँ अनेक प्रकारके जलाशय थे, भाँति-भाँतिके पुष्प उस वनकी शोभा बढ़ा रहे थे, शत-शत रक्तकमल और असंख्य नीलकमल वहाँके जलाशयोंमें सब ओर छा रहे थे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविश्य तद् वनं घोरं वीक्षमाणाः समन्ततः।
शाखासहस्रसंछन्नं न्यग्रोधं ददृशुस्ततः ॥ २१ ॥
मूलम्
प्रविश्य तद् वनं घोरं वीक्षमाणाः समन्ततः।
शाखासहस्रसंछन्नं न्यग्रोधं ददृशुस्ततः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस भयंकर वनमें प्रवेश करके सब ओर दृष्टि डालनेपर उन्हें सहस्रों शाखाओंसे आच्छादित एक बरगदका वृक्ष दिखायी दिया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपेत्य तु तदा राजन् न्यग्रोधं ते महारथाः।
ददृशुर्द्विपदां श्रेष्ठाः श्रेष्ठं तं वै वनस्पतिम् ॥ २२ ॥
मूलम्
उपेत्य तु तदा राजन् न्यग्रोधं ते महारथाः।
ददृशुर्द्विपदां श्रेष्ठाः श्रेष्ठं तं वै वनस्पतिम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मनुष्योंमें श्रेष्ठ उन महारथियोंने पास जाकर उस उत्तम वनस्पति (बरगद)-को देखा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽवतीर्य रथेभ्यश्च विप्रमुच्य च वाजिनः।
उपस्पृश्य यथान्यायं संध्यामन्वासत प्रभो ॥ २३ ॥
मूलम्
तेऽवतीर्य रथेभ्यश्च विप्रमुच्य च वाजिनः।
उपस्पृश्य यथान्यायं संध्यामन्वासत प्रभो ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! वहाँ रथोंसे उतरकर उन तीनोंने अपने घोड़ोंको खोल दिया और यथोचितरूपसे स्नान आदि करके संध्योपासना की॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्तं पर्वतश्रेष्ठमनुप्राप्ते दिवाकरे ।
सर्वस्य जगतो धात्री शर्वरी समपद्यत ॥ २४ ॥
मूलम्
ततोऽस्तं पर्वतश्रेष्ठमनुप्राप्ते दिवाकरे ।
सर्वस्य जगतो धात्री शर्वरी समपद्यत ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सूर्यदेवके पर्वतश्रेष्ठ अस्ताचलपर पहुँच जानेपर धायकी भाँति सम्पूर्ण जगत्को अपनी गोदमें विश्राम देनेवाली रात्रिदेवीका सर्वत्र आधिपत्य हो गया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रहनक्षत्रताराभिः सम्पूर्णाभिरलंकृतम् ।
नभोंऽशुकमिवाभाति प्रेक्षणीयं समन्ततः ॥ २५ ॥
मूलम्
ग्रहनक्षत्रताराभिः सम्पूर्णाभिरलंकृतम् ।
नभोंऽशुकमिवाभाति प्रेक्षणीयं समन्ततः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण ग्रहों, नक्षत्रों और ताराओंसे अलंकृत हुआ आकाश जरीकी साड़ीके समान सब ओरसे देखनेयोग्य प्रतीत होता था॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छया ते प्रवल्गन्ति ये सत्त्वा रात्रिचारिणः।
दिवाचराश्च ये सत्त्वास्ते निद्रावशमागताः ॥ २६ ॥
मूलम्
इच्छया ते प्रवल्गन्ति ये सत्त्वा रात्रिचारिणः।
दिवाचराश्च ये सत्त्वास्ते निद्रावशमागताः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रात्रिमें विचरनेवाले प्राणी अपनी इच्छाके अनुसार उछल-कूद मचाने लगे और जो दिनमें विचरनेवाले जीव-जन्तु थे, वे निद्राके अधीन हो गये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रात्रिंचराणां सत्त्वानां निर्घोषोऽभूत् सुदारुणः।
क्रव्यादाश्च प्रमुदिता घोरा प्राप्ता च शर्वरी ॥ २७ ॥
मूलम्
रात्रिंचराणां सत्त्वानां निर्घोषोऽभूत् सुदारुणः।
क्रव्यादाश्च प्रमुदिता घोरा प्राप्ता च शर्वरी ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रात्रिमें घूमने-फिरनेवाले जीवोंका अत्यन्त भयंकर शब्द प्रकट होने लगा। मांसभक्षी प्राणी प्रसन्न हो गये और वह भयंकर रात्रि सब ओर व्याप्त हो गयी॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् रात्रिमुखे घोरे दुःखशोकसमन्विताः।
कृतवर्मा कृपो द्रौणिरुपोपविविशुः समम् ॥ २८ ॥
मूलम्
तस्मिन् रात्रिमुखे घोरे दुःखशोकसमन्विताः।
कृतवर्मा कृपो द्रौणिरुपोपविविशुः समम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रात्रिका प्रथम प्रहर बीत रहा था। उस भयंकर वेलामें दुःख और शोकसे संतप्त हुए कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा एक साथ ही आस-पास बैठ गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रोपविष्टाः शोचन्तो न्यग्रोधस्य समीपतः।
तमेवार्थमतिक्रान्तं कुरुपाण्डवयोः क्षयम् ॥ २९ ॥
निद्रया च परीताङ्गा निषेदुर्धरणीतले।
श्रमेण सुदृढं युक्ता विक्षता विविधैः शरैः ॥ ३० ॥
मूलम्
तत्रोपविष्टाः शोचन्तो न्यग्रोधस्य समीपतः।
तमेवार्थमतिक्रान्तं कुरुपाण्डवयोः क्षयम् ॥ २९ ॥
निद्रया च परीताङ्गा निषेदुर्धरणीतले।
श्रमेण सुदृढं युक्ता विक्षता विविधैः शरैः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वटवृक्षके समीप बैठकर कौरवों तथा पाण्डव-योद्धाओंके उसी विनाशकी बीती हुई बातके लिये शोक करते हुए वे तीनों वीर निद्रासे सारे अंग शिथिल हो जानेके कारण पृथ्वीपर लेट गये। उस समय वे भारी थकावटसे चूर-चूर हो रहे थे और नाना प्रकारके बाणोंसे उनके सारे अंग क्षत-विक्षत हो गये थे॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निद्रावशं प्राप्तौ कृपभोजौ महारथौ।
सुखोचितावदुःखार्हौ निषण्णौ धरणीतले ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततो निद्रावशं प्राप्तौ कृपभोजौ महारथौ।
सुखोचितावदुःखार्हौ निषण्णौ धरणीतले ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कृपाचार्य और कृतवर्मा—इन दोनों महारथियोंको गाढ़ी नींद आ गयी। वे सुख भोगनेके योग्य थे, दुःख पानेके योग्य कदापि नहीं थे, तो भी धरतीपर ही सो गये थे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ तु सुप्तौ महाराज श्रमशोकसमन्वितौ।
महार्हशयनोपेतौ भूमावेव ह्यनाथवत् ॥ ३२ ॥
क्रोधामर्षवशं प्राप्तो द्रोणपुत्रस्तु भारत।
न वै स्म स जगामाथ निद्रां सर्प इव श्वसन्॥३३॥
मूलम्
तौ तु सुप्तौ महाराज श्रमशोकसमन्वितौ।
महार्हशयनोपेतौ भूमावेव ह्यनाथवत् ॥ ३२ ॥
क्रोधामर्षवशं प्राप्तो द्रोणपुत्रस्तु भारत।
न वै स्म स जगामाथ निद्रां सर्प इव श्वसन्॥३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! बहुमूल्य शय्या एवं सुखसामग्रीसे सम्पन्न होनेपर भी उन दोनों वीरोंको परिश्रम और शोकसे पीड़ित हो अनाथकी भाँति पृथ्वीपर ही पड़ा देख द्रोणपुत्र अश्वत्थामा क्रोध और अमर्षके वशीभूत हो गया। भारत! उस समय उसे नींद नहीं आयी। वह सर्पके समान लंबी साँस खींचता रहा॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न लेभे स तु निद्रां वै दह्यमानो हि मन्युना।
वीक्षाञ्चक्रे महाबाहुस्तद् वनं घोरदर्शनम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
न लेभे स तु निद्रां वै दह्यमानो हि मन्युना।
वीक्षाञ्चक्रे महाबाहुस्तद् वनं घोरदर्शनम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधसे जलते रहनेके कारण नींद उसके पास फटकने नहीं पाती थी। उस महाबाहु वीरने भयंकर दिखायी देनेवाले उस वनकी ओर बारंबार दृष्टिपात किया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीक्षमाणो वनोद्देशं नानासत्त्वैर्निषेवितम् ।
अपश्यत महाबाहुर्न्यग्रोधं वायसैर्युतम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
वीक्षमाणो वनोद्देशं नानासत्त्वैर्निषेवितम् ।
अपश्यत महाबाहुर्न्यग्रोधं वायसैर्युतम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाना प्रकारके जीव-जन्तुओंसे सेवित वनस्थलीका निरीक्षण करते हुए महाबाहु अश्वत्थामाने कौओंसे भरे हुए वटवृक्षपर दृष्टिपात किया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र काकसहस्राणि तां निशां पर्यणामयन्।
सुखं स्वपन्ति कौरव्य पृथक् पृथगुपाश्रयाः ॥ ३६ ॥
मूलम्
तत्र काकसहस्राणि तां निशां पर्यणामयन्।
सुखं स्वपन्ति कौरव्य पृथक् पृथगुपाश्रयाः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! उस वृक्षपर सहस्रों कौए रातमें बसेरा ले रहे थे। वे पृथक्-पृथक् घोंसलोंका आश्रय लेकर सुखकी नींद सो रहे थे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्तेषु तेषु काकेषु विश्रब्धेषु समन्ततः।
सोऽपश्यत् सहसा यान्तमुलूकं घोरदर्शनम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
सुप्तेषु तेषु काकेषु विश्रब्धेषु समन्ततः।
सोऽपश्यत् सहसा यान्तमुलूकं घोरदर्शनम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन कौओंके सब ओर निर्भय होकर सो जानेपर अश्वत्थामाने देखा कि सहसा एक भयानक उल्लू उधर आ निकला॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महास्वनं महाकायं हर्यक्षं बभ्रुपिङ्गलम्।
सुदीर्घघोणानखरं सुपर्णमिव वेगितम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
महास्वनं महाकायं हर्यक्षं बभ्रुपिङ्गलम्।
सुदीर्घघोणानखरं सुपर्णमिव वेगितम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी बोली बड़ी भयंकर थी। डील-डौल भी बड़ा था। आँखें काले रंगकी थीं, उसका शरीर भूरा और पिंगलवर्णका था। उसकी चोंच और पंजे बहुत बड़े थे और वह गरुड़के समान वेगशाली जान पड़ता था॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽथ शब्दं मृदुं कृत्वा लीयमान इवाण्डजः।
न्यग्रोधस्य ततः शाखां प्रार्थयामास भारत ॥ ३९ ॥
मूलम्
सोऽथ शब्दं मृदुं कृत्वा लीयमान इवाण्डजः।
न्यग्रोधस्य ततः शाखां प्रार्थयामास भारत ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! वह पक्षी कोमल बोली बोलकर छिपता हुआ-सा बरगदकी उस शाखापर आनेकी इच्छा करने लगा॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संनिपत्य तु शाखायां न्यग्रोधस्य विहङ्गमः।
सुप्ताञ्जघान सुबहून् वायसान् वायसान्तकः ॥ ४० ॥
मूलम्
संनिपत्य तु शाखायां न्यग्रोधस्य विहङ्गमः।
सुप्ताञ्जघान सुबहून् वायसान् वायसान्तकः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौओंके लिये कालरूपधारी उस विहंगमने वटवृक्षकी उस शाखापर बड़े वेगसे आक्रमण किया और सोये हुए बहुत-से कौओंको मार डाला॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केषांचिदच्छिनत् पक्षान् शिरांसि च चकर्त ह।
चरणांश्चैव केषांचिद् बभञ्ज चरणायुधः ॥ ४१ ॥
मूलम्
केषांचिदच्छिनत् पक्षान् शिरांसि च चकर्त ह।
चरणांश्चैव केषांचिद् बभञ्ज चरणायुधः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अपने पंजोंसे ही अस्त्रका काम लेकर किन्हीं कौओंके पंख नोच डाले, किन्हींके सिर काट लिये और किन्हींके पैर तोड़ डाले॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षणेनाहन् स बलवान् येऽस्य दृष्टिपथे स्थिताः।
तेषां शरीरावयवैः शरीरैश्च विशाम्पते ॥ ४२ ॥
न्यग्रोधमण्डलं सर्वं संछन्नं सर्वतोऽभवत्।
मूलम्
क्षणेनाहन् स बलवान् येऽस्य दृष्टिपथे स्थिताः।
तेषां शरीरावयवैः शरीरैश्च विशाम्पते ॥ ४२ ॥
न्यग्रोधमण्डलं सर्वं संछन्नं सर्वतोऽभवत्।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! उस बलवान् उल्लूने, जो-जो कौए उसकी दृष्टिमें आ गये, उन सबको क्षणभरमें मार डाला। इससे वह सारा वटवृक्ष कौओंके शरीरों तथा उनके विभिन्न अवयवोंद्वारा सब ओरसे आच्छादित हो गया॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तु हत्वा ततः काकान् कौशिको मुदितोऽभवत् ॥ ४३ ॥
प्रतिकृत्य यथाकामं शत्रूणां शत्रुसूदनः।
मूलम्
तांस्तु हत्वा ततः काकान् कौशिको मुदितोऽभवत् ॥ ४३ ॥
प्रतिकृत्य यथाकामं शत्रूणां शत्रुसूदनः।
अनुवाद (हिन्दी)
वह शत्रुओंका संहार करनेवाला उलूक उन कौओंका वध करके अपने शत्रुओंसे इच्छानुसार भरपूर बदला लेकर बहुत प्रसन्न हुआ॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् दृष्ट्वा सोपधं कर्म कौशिकेन कृतं निशि ॥ ४४ ॥
तद्भावकृतसंकल्पो द्रौणिरेकोऽन्वचिन्तयत् ।
मूलम्
तद् दृष्ट्वा सोपधं कर्म कौशिकेन कृतं निशि ॥ ४४ ॥
तद्भावकृतसंकल्पो द्रौणिरेकोऽन्वचिन्तयत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
रात्रिमें उल्लूके द्वारा किये गये उस कपटपूर्ण क्रूर कर्मको देखकर स्वयं भी वैसा ही करनेका संकल्प लेकर अश्वत्थामा अकेला ही विचार करने लगा—॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपदेशः कृतोऽनेन पक्षिणा मम संयुगे ॥ ४५ ॥
शत्रूणां क्षपणे युक्तः प्राप्तः कालश्च मे मतः।
मूलम्
उपदेशः कृतोऽनेन पक्षिणा मम संयुगे ॥ ४५ ॥
शत्रूणां क्षपणे युक्तः प्राप्तः कालश्च मे मतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस पक्षीने युद्धमें क्या करना चाहिये, इसका उपदेश मुझे दे दिया। मैं समझता हूँ कि मेरे लिये इसी प्रकार शत्रुओंके संहार करनेका समय प्राप्त हुआ है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाद्य शक्या मया हन्तुं पाण्डवा जितकाशिनः ॥ ४६ ॥
बलवन्तः कृतोत्साहाः प्राप्तलक्ष्याः प्रहारिणः।
मूलम्
नाद्य शक्या मया हन्तुं पाण्डवा जितकाशिनः ॥ ४६ ॥
बलवन्तः कृतोत्साहाः प्राप्तलक्ष्याः प्रहारिणः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डव इस समय विजयसे उल्लसित हो रहे हैं। वे बलवान्, उत्साही और प्रहार करनेमें कुशल हैं। उन्हें अपना लक्ष्य प्राप्त हो गया है। ऐसी अवस्थामें आज मैं अपनी शक्तिसे उनका वध नहीं कर सकता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञः सकाशात् तेषां तु प्रतिज्ञातो वधो मया ॥ ४७ ॥
पतङ्गाग्निसमां वृत्तिमास्थायात्मविनाशिनीम् ।
न्यायतो युध्यमानस्य प्राणत्यागो न संशयः ॥ ४८ ॥
मूलम्
राज्ञः सकाशात् तेषां तु प्रतिज्ञातो वधो मया ॥ ४७ ॥
पतङ्गाग्निसमां वृत्तिमास्थायात्मविनाशिनीम् ।
न्यायतो युध्यमानस्य प्राणत्यागो न संशयः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इधर मैंने राजा दुर्योधनके समीप पाण्डवोंके वधकी प्रतिज्ञा कर ली है। परंतु यह कार्य वैसा ही है, जैसा पतिंगोंका आगमें कूद पड़ना। मैंने जिस वृत्तिका आश्रय लेकर पूर्वोक्त प्रतिज्ञा की है, वह मेरा ही विनाश करनेवाली है। इसमें संदेह नहीं कि यदि मैं न्यायके अनुसार युद्ध करूँगा तो मुझे अपने प्राणोंका परित्याग करना पड़ेगा॥४७-४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छद्मना च भवेत् सिद्धिः शत्रूणां च क्षयो महान्।
तत्र संशयितादर्थाद् योऽर्थो निःसंशयो भवेत् ॥ ४९ ॥
तं जना बहु मन्यन्ते ये च शास्त्रविशारदाः।
मूलम्
छद्मना च भवेत् सिद्धिः शत्रूणां च क्षयो महान्।
तत्र संशयितादर्थाद् योऽर्थो निःसंशयो भवेत् ॥ ४९ ॥
तं जना बहु मन्यन्ते ये च शास्त्रविशारदाः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि छलसे काम लूँ तो अवश्य मेरे अभीष्ट मनोरथकी सिद्धि हो सकती है। शत्रुओंका महान् संहार भी तभी सम्भव होगा। जहाँ सिद्धि मिलनेमें संदेह हो, उसकी अपेक्षा उस उपायका अवलम्बन करना उत्तम है, जिसमें संशयके लिये स्थान न हो। साधारण लोग तथा शास्त्रज्ञ पुरुष भी उसीका अधिक आदर करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चाप्यत्र भवेद् वाच्यं गर्हितं लोकनिन्दितम् ॥ ५० ॥
कर्तव्यं तन्मनुष्येण क्षत्रधर्मेण वर्तता।
मूलम्
यच्चाप्यत्र भवेद् वाच्यं गर्हितं लोकनिन्दितम् ॥ ५० ॥
कर्तव्यं तन्मनुष्येण क्षत्रधर्मेण वर्तता।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस लोकमें जिस कार्यको गर्हणीय समझा जाता हो, जिसकी सब लोग भरपेट निन्दा करते हों, वह भी क्षत्रिय-धर्मके अनुसार बर्ताव करनेवाले मनुष्यके लिये कर्तव्य माना गया है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निन्दितानि च सर्वाणि कुत्सितानि पदे पदे ॥ ५१ ॥
सोपधानि कृतान्येव पाण्डवैरकृतात्मभिः ।
मूलम्
निन्दितानि च सर्वाणि कुत्सितानि पदे पदे ॥ ५१ ॥
सोपधानि कृतान्येव पाण्डवैरकृतात्मभिः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपवित्र अन्तःकरणवाले पाण्डवोंने भी तो पद-पदपर ऐसे कार्य किये हैं, जो सब-के-सब निन्दा और घृणाके योग्य रहे हैं। उनके द्वारा भी अनेक कपटपूर्ण कर्म किये ही गये हैं॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन्नर्थे पुरा गीता श्रूयन्ते धर्मचिन्तकैः ॥ ५२ ॥
श्लोका न्यायमवेक्षद्भिस्तत्त्वार्थास्तत्त्वदर्शिभिः ।
मूलम्
अस्मिन्नर्थे पुरा गीता श्रूयन्ते धर्मचिन्तकैः ॥ ५२ ॥
श्लोका न्यायमवेक्षद्भिस्तत्त्वार्थास्तत्त्वदर्शिभिः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस विषयमें न्यायपर दृष्टि रखनेवाले धर्मचिन्तक एवं तत्त्वदर्शी पुरुषोंने प्राचीन कालमें ऐसे श्लोकोंका गान किया है, जो तात्त्विक अर्थका प्रतिपादन करनेवाले हैं। वे श्लोक इस प्रकार सुने जाते हैं—॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिश्रान्ते विदीर्णे वा भुञ्जाने वापि शत्रुभिः ॥ ५३ ॥
प्रस्थाने वा प्रवेशे वा प्रहर्तव्यं रिपोर्बलम्।
मूलम्
परिश्रान्ते विदीर्णे वा भुञ्जाने वापि शत्रुभिः ॥ ५३ ॥
प्रस्थाने वा प्रवेशे वा प्रहर्तव्यं रिपोर्बलम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंकी सेना यदि बहुत थक गयी हो, तितर-बितर हो गयी हो, भोजन कर रही हो, कहीं जा रही हो अथवा किसी स्थानविशेषमें प्रवेश कर रही हो तो भी विपक्षियोंको उसपर प्रहार करना ही चाहिये॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निद्रार्तमर्धरात्रे च तथा नष्टप्रणायकम् ॥ ५४ ॥
भिन्नयोधं बलं यच्च द्विधा युक्तं च यद् भवेत्।
मूलम्
निद्रार्तमर्धरात्रे च तथा नष्टप्रणायकम् ॥ ५४ ॥
भिन्नयोधं बलं यच्च द्विधा युक्तं च यद् भवेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सेना आधी रातके समय नींदमें अचेत पड़ी हो, जिसका नायक नष्ट हो गया हो, जिसके योद्धाओंमें फूट हो गयी हो और जो दुविधामें पड़ गयी हो, उसपर भी शत्रुको अवश्य प्रहार करना चाहिये’॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं निश्चयं चक्रे सुप्तानां निशि मारणे ॥ ५५ ॥
पाण्डूनां सह पञ्चालैर्द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
मूलम्
इत्येवं निश्चयं चक्रे सुप्तानां निशि मारणे ॥ ५५ ॥
पाण्डूनां सह पञ्चालैर्द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विचार करके प्रतापी द्रोणपुत्रने रातको सोते समय पांचालोंसहित पाण्डवोंको मार डालनेका निश्चय किया॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स क्रूरां मतिमास्थाय विनिश्चित्य मुहुर्मुहुः ॥ ५६ ॥
सुप्तौ प्राबोधयत् तौ तु मातुलं भोजमेव च।
मूलम्
स क्रूरां मतिमास्थाय विनिश्चित्य मुहुर्मुहुः ॥ ५६ ॥
सुप्तौ प्राबोधयत् तौ तु मातुलं भोजमेव च।
अनुवाद (हिन्दी)
क्रूरतापूर्ण बुद्धिका आश्रय ले बारंबार उपर्युक्त निश्चय करके अश्वत्थामाने सोये हुए अपने मामा कृपाचार्यको तथा भोजवंशी कृतवर्माको भी जगाया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ प्रबुद्धौ महात्मानौ कृपभोजौ महाबलौ ॥ ५७ ॥
नोत्तरं प्रतिपद्येतां तत्र युक्तं ह्रिया वृतौ।
मूलम्
तौ प्रबुद्धौ महात्मानौ कृपभोजौ महाबलौ ॥ ५७ ॥
नोत्तरं प्रतिपद्येतां तत्र युक्तं ह्रिया वृतौ।
अनुवाद (हिन्दी)
जागनेपर महामनस्वी महाबली कृपाचार्य और कृतवर्माने जब अश्वत्थामाका निश्चय सुना, तब वे लज्जासे गड़ गये और उन्हें कोई उचित उत्तर नहीं सूझा॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मुहूर्तमिव ध्यात्वा बाष्पविह्वलमब्रवीत् ॥ ५८ ॥
हतो दुर्योधनो राजा एकवीरो महाबलः।
यस्यार्थे वैरमस्माभिरासक्तं पाण्डवैः सह ॥ ५९ ॥
मूलम्
स मुहूर्तमिव ध्यात्वा बाष्पविह्वलमब्रवीत् ॥ ५८ ॥
हतो दुर्योधनो राजा एकवीरो महाबलः।
यस्यार्थे वैरमस्माभिरासक्तं पाण्डवैः सह ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अश्वत्थामा दो घड़ीतक चिन्तामग्न रहकर अश्रु-गद्गद वाणीमें इस प्रकार बोला—‘संसारका अद्वितीय वीर महाबली राजा दुर्योधन मारा गया, जिसके लिये हमलोगोंने पाण्डवोंके साथ वैर बाँध रखा था॥५८-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकाकी बहुभिः क्षुद्रैराहवे शुद्धविक्रमः।
पातितो भीमसेनेन एकादशचमूपतिः ॥ ६० ॥
मूलम्
एकाकी बहुभिः क्षुद्रैराहवे शुद्धविक्रमः।
पातितो भीमसेनेन एकादशचमूपतिः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो किसी दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओंका स्वामी था, वह राजा दुर्योधन विशुद्ध पराक्रमका परिचय देता हुआ अकेला युद्ध कर रहा था; किंतु बहुत-से नीच पुरुषोंने मिलकर युद्धस्थलमें उसे भीमसेनके द्वारा धराशायी करा दिया॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृकोदरेण क्षुद्रेण सुनृशंसमिदं कृतम्।
मूर्धाभिषिक्तस्य शिरः पादेन परिमृद्नता ॥ ६१ ॥
मूलम्
वृकोदरेण क्षुद्रेण सुनृशंसमिदं कृतम्।
मूर्धाभिषिक्तस्य शिरः पादेन परिमृद्नता ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक मूर्धाभिषिक्त सम्राट्के मस्तकपर लात मारते हुए नीच भीमसेनने यह बड़ा ही क्रूरतापूर्ण कार्य कर डाला है॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनर्दन्ति च पञ्चालाः क्ष्वेलन्ति च हसन्ति च।
धमन्ति शङ्खान् शतशो हृष्टा घ्नन्ति च दुन्दुभीन् ॥ ६२ ॥
मूलम्
विनर्दन्ति च पञ्चालाः क्ष्वेलन्ति च हसन्ति च।
धमन्ति शङ्खान् शतशो हृष्टा घ्नन्ति च दुन्दुभीन् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पांचालयोद्धा हर्षमें भरकर सिंहनाद करते, हल्ला मचाते, हँसते, सैकड़ों शंख बजाते और डंके पीटते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वादित्रघोषस्तुमुलो विमिश्रः शङ्खनिःस्वनैः ।
अनिलेनेरितो घोरो दिशः पूरयतीव ह ॥ ६३ ॥
मूलम्
वादित्रघोषस्तुमुलो विमिश्रः शङ्खनिःस्वनैः ।
अनिलेनेरितो घोरो दिशः पूरयतीव ह ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शंखध्वनिसे मिला हुआ नाना प्रकारके वाद्योंका गम्भीर एवं भयंकर घोष वायुसे प्रेरित हो सम्पूर्ण दिशाओंको भरता-सा जान पड़ता है॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वानां हेषमाणानां गजानां चैव बृंहताम्।
सिंहनादश्च शूराणां श्रूयते सुमहानयम् ॥ ६४ ॥
मूलम्
अश्वानां हेषमाणानां गजानां चैव बृंहताम्।
सिंहनादश्च शूराणां श्रूयते सुमहानयम् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हींसते हुए घोड़ों और चिग्घाड़ते हुए हाथियोंकी आवाजके साथ शूरवीरोंका यह महान् सिंहनाद सुनायी दे रहा है॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिशं प्राचीं समाश्रित्य हृष्टानां गच्छतां भृशम्।
रथनेमिस्वनाश्चैव श्रूयन्ते लोमहर्षणाः ॥ ६५ ॥
मूलम्
दिशं प्राचीं समाश्रित्य हृष्टानां गच्छतां भृशम्।
रथनेमिस्वनाश्चैव श्रूयन्ते लोमहर्षणाः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हर्षमें भरकर पूर्व दिशाकी ओर वेगपूर्वक जाते हुए पाण्डव-योद्धाओंके रथोंके पहियोंके ये रोमांचकारी शब्द कानोंमें पड़ रहे हैं॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवैर्धार्तराष्ट्राणां यदिदं कदनं कृतम्।
वयमेव त्रयः शिष्टा अस्मिन् महति वैशसे ॥ ६६ ॥
मूलम्
पाण्डवैर्धार्तराष्ट्राणां यदिदं कदनं कृतम्।
वयमेव त्रयः शिष्टा अस्मिन् महति वैशसे ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाय! पाण्डवोंने धृतराष्ट्रके पुत्रों और सैनिकोंका जो यह विनाश किया है, इस महान् संहारसे हम तीन ही बच पाये हैं॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचिन्नागशतप्राणाः केचित् सर्वास्त्रकोविदाः ।
निहताः पाण्डवेयैस्ते मन्ये कालस्य पर्ययम् ॥ ६७ ॥
मूलम्
केचिन्नागशतप्राणाः केचित् सर्वास्त्रकोविदाः ।
निहताः पाण्डवेयैस्ते मन्ये कालस्य पर्ययम् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कितने ही वीर सौ-सौ हाथियोंके बराबर बलशाली थे और कितने ही सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंकी संचालन-कलामें कुशल थे; किंतु पाण्डवोंने उन सबको मार गिराया। मैं इसे समयका ही फेर समझता हूँ॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतेन भाव्यं हि नूनं कार्येण तत्त्वतः।
यथा ह्यस्येदृशी निष्ठा कृतकार्येऽपि दुष्करे ॥ ६८ ॥
मूलम्
एवमेतेन भाव्यं हि नूनं कार्येण तत्त्वतः।
यथा ह्यस्येदृशी निष्ठा कृतकार्येऽपि दुष्करे ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही इस कार्यसे ठीक ऐसा ही परिणाम होनेवाला था। हमलोगोंके द्वारा अत्यन्त दुष्कर कार्य किया गया तो भी इस युद्धका अन्तिम फल इस रूपमें प्रकट हुआ॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवतोस्तु यदि प्रज्ञा न मोहादपनीयते।
व्यापन्नेऽस्मिन् महत्यर्थे यन्नः श्रेयस्तदुच्यताम् ॥ ६९ ॥
मूलम्
भवतोस्तु यदि प्रज्ञा न मोहादपनीयते।
व्यापन्नेऽस्मिन् महत्यर्थे यन्नः श्रेयस्तदुच्यताम् ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि आप दोनोंकी बुद्धि मोहसे नष्ट न हो गयी हो तो इस महान् संकटके समय अपने बिगड़े हुए कार्यको बनानेके उद्देश्यसे हमारे लिये क्या करना श्रेष्ठ होगा? यह बताइये’॥६९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि द्रौणिमन्त्रणायां प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वमें अश्वत्थामाकी मन्त्रणाविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥