भागसूचना
पञ्चषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनकी दशा देखकर अश्वत्थामाका विषाद, प्रतिज्ञा और सेनापतिके पदपर अभिषेक
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्तिकाणां सकाशात् तु श्रुत्वा दुर्योधनं हतम्।
हतशिष्टास्ततो राजन् कौरवाणां महारथाः ॥ १ ॥
विनिर्भिन्नाः शितैर्बाणैर्गदातोमरशक्तिभिः ।
अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः ॥ २ ॥
त्वरिता जवनैरश्वैरायोधनमुपागमन् ।
मूलम्
वार्तिकाणां सकाशात् तु श्रुत्वा दुर्योधनं हतम्।
हतशिष्टास्ततो राजन् कौरवाणां महारथाः ॥ १ ॥
विनिर्भिन्नाः शितैर्बाणैर्गदातोमरशक्तिभिः ।
अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः ॥ २ ॥
त्वरिता जवनैरश्वैरायोधनमुपागमन् ।
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! संदेशवाहकोंके मुखसे दुर्योधनके मारे जानेका समाचार सुनकर मरनेसे बचे हुए कौरव महारथी अश्वत्थामा, कृपाचार्य और सात्वतवंशी कृतवर्मा—जो स्वयं भी तीखे बाण, गदा, तोमर और शक्तियोंके प्रहारसे विशेष घायल हो चुके थे, तेज चलनेवाले घोड़ोंसे जुते हुए रथपर सवार हो तुरंत ही युद्धभूमिमें आये॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रापश्यन् महात्मानं धार्तराष्ट्रं निपातितम् ॥ ३ ॥
प्रभग्नं वायुवेगेन महाशालं यथा वने।
भूमौ विचेष्टमानं तं रुधिरेण समुक्षितम् ॥ ४ ॥
महागजमिवारण्ये व्याधेन विनिपातितम् ।
विवर्तमानं बहुशो रुधिरौघपरिप्लुतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
तत्रापश्यन् महात्मानं धार्तराष्ट्रं निपातितम् ॥ ३ ॥
प्रभग्नं वायुवेगेन महाशालं यथा वने।
भूमौ विचेष्टमानं तं रुधिरेण समुक्षितम् ॥ ४ ॥
महागजमिवारण्ये व्याधेन विनिपातितम् ।
विवर्तमानं बहुशो रुधिरौघपरिप्लुतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ आकर उन्होंने देखा कि महामनस्वी धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन मार गिराया गया है, मानो वनमें कोई विशाल शालवृक्ष वायुके वेगसे टूटकर धराशायी हो गया हो। खूनसे लथपथ हो दुर्योधन पृथ्वीपर पड़ा छटपटा रहा था, मानो जंगलमें किसी व्याधने बहुत बड़े हाथीको मार गिराया हो। रक्तकी धारामें डूबा हुआ वह बारंबार करवटें बदल रहा था॥३—५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदृच्छया निपतितं चक्रमादित्यगोचरम् ।
महावातसमुत्थेन संशुष्कमिव सागरम् ॥ ६ ॥
पूर्णचन्द्रमिव व्योम्नि तुषारावृतमण्डलम् ।
रेणुध्वस्तं दीर्घभुजं मातङ्गमिव विक्रमे ॥ ७ ॥
मूलम्
यदृच्छया निपतितं चक्रमादित्यगोचरम् ।
महावातसमुत्थेन संशुष्कमिव सागरम् ॥ ६ ॥
पूर्णचन्द्रमिव व्योम्नि तुषारावृतमण्डलम् ।
रेणुध्वस्तं दीर्घभुजं मातङ्गमिव विक्रमे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे दैवेच्छासे सूर्यका चक्र गिर पड़ा हो, बहुत बड़ी आँधी चलनेसे समुद्र सूख गया हो, आकाशमें पूर्ण चन्द्रमण्डलपर कुहरा छा गया हो, वही दशा उस समय दुर्योधनकी हुई थी। मतवाले हाथीके समान पराक्रमी और विशाल भुजाओंवाला वह वीर धूलमें सन गया था॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृतं भूतगणैर्घोरैः क्रव्यादैश्च समन्ततः।
यथा धनं लिप्समानैर्भृत्यैर्नृपतिसत्तमम् ॥ ८ ॥
मूलम्
वृतं भूतगणैर्घोरैः क्रव्यादैश्च समन्ततः।
यथा धनं लिप्समानैर्भृत्यैर्नृपतिसत्तमम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे धन चाहनेवाले भृत्यगण किसी श्रेष्ठ राजाको घेरे रहते हैं, उसी प्रकार भयंकर मांसभक्षी भूतोंने चारों ओरसे उसे घेर रखा था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रुकुटीकृतवक्त्रान्तं क्रोधादुद्वृत्तचक्षुषम् ।
सामर्षं तं नरव्याघ्रं व्याघ्रं निपतितं यथा ॥ ९ ॥
मूलम्
भ्रुकुटीकृतवक्त्रान्तं क्रोधादुद्वृत्तचक्षुषम् ।
सामर्षं तं नरव्याघ्रं व्याघ्रं निपतितं यथा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके मुँहपर भौंहें तनी हुई थीं, आँखें क्रोधसे चढ़ी हुई थीं और गिरे हुए व्याघ्रके समान वह नरश्रेष्ठ वीर अमर्षमें भरा हुआ दिखायी देता था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तं दृष्ट्वा महेष्वासं भूतले पतितं नृपम्।
मोहमभ्यागमन् सर्वे कृपप्रभृतयो रथाः ॥ १० ॥
मूलम्
ते तं दृष्ट्वा महेष्वासं भूतले पतितं नृपम्।
मोहमभ्यागमन् सर्वे कृपप्रभृतयो रथाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाधनुर्धर राजा दुर्योधनको पृथ्वीपर पड़ा हुआ देख कृपाचार्य आदि सभी महारथी मोहके वशीभूत हो गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवतीर्य रथेभ्यश्च प्राद्रवन् राजसंनिधौ।
दुर्योधनं च सम्प्रेक्ष्य सर्वे भूमावुपाविशन् ॥ ११ ॥
मूलम्
अवतीर्य रथेभ्यश्च प्राद्रवन् राजसंनिधौ।
दुर्योधनं च सम्प्रेक्ष्य सर्वे भूमावुपाविशन् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने रथोंसे उतरकर राजाके पास दौड़े गये और दुर्योधनको देखकर सब लोग उसके पास ही जमीनपर बैठ गये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्रौणिर्महाराज बाष्पपूर्णेक्षणः श्वसन्।
उवाच भरतश्रेष्ठं सर्वलोकेश्वरेश्वरम् ॥ १२ ॥
मूलम्
ततो द्रौणिर्महाराज बाष्पपूर्णेक्षणः श्वसन्।
उवाच भरतश्रेष्ठं सर्वलोकेश्वरेश्वरम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय अश्वत्थामाकी आँखोंमें आँसू भर आये। वह सिसकता हुआ सम्पूर्ण जगत्के राजाधिराज भरतश्रेष्ठ दुर्योधनसे इस प्रकार बोला—॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नूनं विद्यते सत्यं मानुषे किंचिदेव हि।
यत्र त्वं पुरुषव्याघ्र शेषे पांसुषु रूषितः ॥ १३ ॥
मूलम्
न नूनं विद्यते सत्यं मानुषे किंचिदेव हि।
यत्र त्वं पुरुषव्याघ्र शेषे पांसुषु रूषितः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषसिंह! निश्चय ही इस मनुष्यलोकमें कुछ भी सत्य नहीं है, सभी नाशवान् है, जहाँ तुम्हारे-जैसा राजा धूलमें सना हुआ लोट रहा है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूत्वा हि नृपतिः पूर्वं समाज्ञाप्य च मेदिनीम्।
कथमेकोऽद्य राजेन्द्र तिष्ठसे निर्जने वने ॥ १४ ॥
मूलम्
भूत्वा हि नृपतिः पूर्वं समाज्ञाप्य च मेदिनीम्।
कथमेकोऽद्य राजेन्द्र तिष्ठसे निर्जने वने ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजेन्द्र! तुम पहले सम्पूर्ण जगत्के मनुष्योंपर आधिपत्य रखकर सारे भूमण्डलपर हुक्म चलाते थे। वही तुम आज अकेले इस निर्जन वनमें कैसे पड़े हुए हो?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःशासनं न पश्यामि नापि कर्णं महारथम्।
नापि तान् सुहृदः सर्वान् किमिदं भरतर्षभ ॥ १५ ॥
मूलम्
दुःशासनं न पश्यामि नापि कर्णं महारथम्।
नापि तान् सुहृदः सर्वान् किमिदं भरतर्षभ ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतश्रेष्ठ! न तो मैं दुःशासनको देखता हूँ और न महारथी कर्णको। अन्य सब सुहृदोंका भी मुझे दर्शन नहीं हो रहा है, यह क्या बात है?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखं नूनं कृतान्तस्य गतिं ज्ञातुं कथंचन।
लोकानां च भवान् यत्र शेषे पांसुषु रूषितः ॥ १६ ॥
मूलम्
दुःखं नूनं कृतान्तस्य गतिं ज्ञातुं कथंचन।
लोकानां च भवान् यत्र शेषे पांसुषु रूषितः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही काल और लोकोंकी गतिको जानना किसी प्रकार भी कठिन ही है, जिसके अधीन होकर आप धूलमें सने हुए पड़े हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष मूर्धाभिषिक्तानामग्रे गत्वा परंतपः।
सतृणं ग्रसते पांसुं पश्य कालस्य पर्ययम् ॥ १७ ॥
मूलम्
एष मूर्धाभिषिक्तानामग्रे गत्वा परंतपः।
सतृणं ग्रसते पांसुं पश्य कालस्य पर्ययम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! ये मूर्धाभिषिक्त राजाओंके आगे चलनेवाले शत्रुसंतापी महाराज दुर्योधन तिनकोंसहित धूल फाँक रहे हैं। यह कालका उलट-फेर तो देखो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व ते तदमलं छत्रं व्यजनं क्व च पार्थिव।
सा च ते महती सेना क्व गता पार्थिवोत्तम॥१८॥
मूलम्
क्व ते तदमलं छत्रं व्यजनं क्व च पार्थिव।
सा च ते महती सेना क्व गता पार्थिवोत्तम॥१८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नृपश्रेष्ठ! महाराज! कहाँ है आपका वह निर्मल छत्र, कहाँ है व्यजन और कहाँ गयी आपकी वह विशाल सेना?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्विज्ञेया गतिर्नूनं कार्याणां कारणान्तरे।
यद् वै लोकगुरुर्भूत्वा भवानेतां दशां गतः ॥ १९ ॥
मूलम्
दुर्विज्ञेया गतिर्नूनं कार्याणां कारणान्तरे।
यद् वै लोकगुरुर्भूत्वा भवानेतां दशां गतः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘किस कारणसे कौन-सा कार्य होगा, इसको समझ लेना निश्चय ही बहुत कठिन है; क्योंकि सम्पूर्ण जगत्के आदरणीय नरेश होकर भी आज तुम इस दशाको पहुँच गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्रुवा सर्वमर्त्येषु श्रीरुपालक्ष्यते भृशम्।
भवतो व्यसनं दृष्ट्वा शक्रविस्पर्धिनो भृशम् ॥ २० ॥
मूलम्
अध्रुवा सर्वमर्त्येषु श्रीरुपालक्ष्यते भृशम्।
भवतो व्यसनं दृष्ट्वा शक्रविस्पर्धिनो भृशम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम तो अपनी साम्राज्य-लक्ष्मीके द्वारा इन्द्रकी समानता करनेवाले थे। आज तुमपर भी यह संकट आया हुआ देखकर निश्चय हो गया कि किसी भी मनुष्यकी सम्पत्ति सदा स्थिर नहीं देखी जा सकती’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा दुःखितस्य विशेषतः।
उवाच राजन् पुत्रस्ते प्राप्तकालमिदं वचः ॥ २१ ॥
विमृज्य नेत्रे पाणिभ्यां शोकजं बाष्पमुत्सृजन्।
कृपादीन् स तदा वीरान् सर्वानेव नराधिपः ॥ २२ ॥
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा दुःखितस्य विशेषतः।
उवाच राजन् पुत्रस्ते प्राप्तकालमिदं वचः ॥ २१ ॥
विमृज्य नेत्रे पाणिभ्यां शोकजं बाष्पमुत्सृजन्।
कृपादीन् स तदा वीरान् सर्वानेव नराधिपः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अत्यन्त दुःखी हुए अश्वत्थामाकी वह बात सुनकर आपके पुत्र राजा दुर्योधनके नेत्रोंसे शोकके आँसू बहने लगे। उसने दोनों हाथोंसे नेत्रोंको पोंछा और कृपाचार्य आदि समस्त वीरोंसे यह समयोचित वचन कहा—॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईदृशो लोकधर्मोऽयं धात्रा निर्दिष्ट उच्यते।
विनाशः सर्वभूतानां कालपर्यायमागतः ॥ २३ ॥
मूलम्
ईदृशो लोकधर्मोऽयं धात्रा निर्दिष्ट उच्यते।
विनाशः सर्वभूतानां कालपर्यायमागतः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मित्रो! इस मर्त्यलोकका ऐसा ही धर्म (नियम) है। विधाताने ही इसका निर्देश किया है, ऐसा कहा जाता है; इसलिये कालक्रमसे एक-न-एक दिन सम्पूर्ण प्राणियोंके विनाशकी घड़ी आ ही जाती है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽयं मां समनुप्राप्तः प्रत्यक्षं भवतां हि यः।
पृथिवीं पालयित्वाहमेतां निष्ठामुपागतः ॥ २४ ॥
मूलम्
सोऽयं मां समनुप्राप्तः प्रत्यक्षं भवतां हि यः।
पृथिवीं पालयित्वाहमेतां निष्ठामुपागतः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वही यह विनाशका समय अब मुझे भी प्राप्त हुआ है, जिसे आपलोग प्रत्यक्ष देख रहे हैं। एक दिन मैं सारी पृथ्वीका पालन करता था और आज इस अवस्थाको पहुँच गया हूँ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या नाहं परावृत्तो युद्धे कस्यांचिदापदि।
दिष्ट्याहं निहतः पापैश्छलेनैव विशेषतः ॥ २५ ॥
मूलम्
दिष्ट्या नाहं परावृत्तो युद्धे कस्यांचिदापदि।
दिष्ट्याहं निहतः पापैश्छलेनैव विशेषतः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तो भी मुझे इस बातकी खुशी है कि कैसी ही आपत्ति क्यों न आयी, मैं युद्धमें कभी पीछे नहीं हटा। पापियोंने मुझे मारा भी तो छलसे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्साहश्च कृतो नित्यं मया दिष्ट्या युयुत्सता।
दिष्ट्या चास्मिन् हतो युद्धे निहतज्ञातिबान्धवः ॥ २६ ॥
मूलम्
उत्साहश्च कृतो नित्यं मया दिष्ट्या युयुत्सता।
दिष्ट्या चास्मिन् हतो युद्धे निहतज्ञातिबान्धवः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सौभाग्यवश मैंने रणभूमिमें जूझनेकी इच्छा रखकर सदा ही उत्साह दिखाया है और भाई-बन्धुओंके मारे जानेपर स्वयं भी युद्धमें ही प्राण-त्याग कर रहा हूँ, इससे मुझे विशेष संतोष है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या च वोऽहं पश्यामि मुक्तानस्माज्जनक्षयात्।
स्वस्तियुक्तांश्च कल्यांश्च तन्मे प्रियमनुत्तमम् ॥ २७ ॥
मूलम्
दिष्ट्या च वोऽहं पश्यामि मुक्तानस्माज्जनक्षयात्।
स्वस्तियुक्तांश्च कल्यांश्च तन्मे प्रियमनुत्तमम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सौभाग्यकी बात है कि मैं आपलोगोंको इस नरसंहारसे मुक्त देख रहा हूँ। साथ ही आपलोग सकुशल एवं कुछ करनेमें समर्थ हैं—यह मेरे लिये और भी उत्तम एवं प्रसन्नताकी बात है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा भवन्तोऽत्र तप्यन्तां सौहृदान्निधनेन मे।
यदि वेदाः प्रमाणं वो जिता लोका मयाक्षयाः ॥ २८ ॥
मूलम्
मा भवन्तोऽत्र तप्यन्तां सौहृदान्निधनेन मे।
यदि वेदाः प्रमाणं वो जिता लोका मयाक्षयाः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपलोगोंका मुझपर स्वाभाविक स्नेह है, इसलिये मेरी मृत्युसे यहाँ आपलोगोंको जो दुःख और संताप हो रहा है, वह नहीं होना चाहिये। यदि आपकी दृष्टिमें वेदशास्त्र प्रामाणिक हैं तो मैंने अक्षय लोकोंपर अधिकार प्राप्त कर लिया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्यमानः प्रभावं च कृष्णस्यामिततेजसः।
तेन न च्यावितश्चाहं क्षत्रधर्मात् स्वनुष्ठितात् ॥ २९ ॥
स मया समनुप्राप्तो नास्मि शोच्यः कथंचन।
मूलम्
मन्यमानः प्रभावं च कृष्णस्यामिततेजसः।
तेन न च्यावितश्चाहं क्षत्रधर्मात् स्वनुष्ठितात् ॥ २९ ॥
स मया समनुप्राप्तो नास्मि शोच्यः कथंचन।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं अमित तेजस्वी श्रीकृष्णके अद्भुत प्रभावको मानता हुआ भी कभी उनकी प्रेरणासे अच्छी तरह पालन किये हुए क्षत्रियधर्मसे विचलित नहीं हुआ। मैंने उस धर्मका फल प्राप्त किया है; अतः किसी प्रकार भी मैं शोकके योग्य नहीं हूँ॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं भवद्भिः सदृशमनुरूपमिवात्मनः ॥ ३० ॥
यतितं विजये नित्यं दैवं तु दुरतिक्रमम्।
मूलम्
कृतं भवद्भिः सदृशमनुरूपमिवात्मनः ॥ ३० ॥
यतितं विजये नित्यं दैवं तु दुरतिक्रमम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपलोगोंने अपने स्वरूपके अनुरूप योग्य पराक्रम प्रकट किया और सदा मुझे विजय दिलानेकी ही चेष्टा की; तथापि दैवके विधानका उल्लंघन करना किसीके लिये भी सर्वथा कठिन है’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदुक्त्वा वचनं बाष्पव्याकुललोचनः ॥ ३१ ॥
तूष्णीं बभूव राजेन्द्र रुजासौ विह्वलो भृशम्।
मूलम्
एतावदुक्त्वा वचनं बाष्पव्याकुललोचनः ॥ ३१ ॥
तूष्णीं बभूव राजेन्द्र रुजासौ विह्वलो भृशम्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! इतना कहते-कहते दुर्योधनकी आँखें आँसुओंसे भर आयीं और वह वेदनासे अत्यन्त व्याकुल होकर चुप हो गया—उससे कुछ बोला नहीं गया॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा दृष्ट्वा तु राजानं बाष्पशोकसमन्वितम् ॥ ३२ ॥
द्रौणिः क्रोधेन जज्वाल यथा वह्निर्जगत्क्षये।
मूलम्
तथा दृष्ट्वा तु राजानं बाष्पशोकसमन्वितम् ॥ ३२ ॥
द्रौणिः क्रोधेन जज्वाल यथा वह्निर्जगत्क्षये।
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दुर्योधनको शोकके आँसू बहाते देख अश्वत्थामा प्रलयकालकी अग्निके समान क्रोधसे प्रज्वलित हो उठा॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च क्रोधसमाविष्टः पाणौ पाणिं निपीड्य च ॥ ३३ ॥
बाष्पविह्वलया वाचा राजानमिदमब्रवीत् ।
मूलम्
स च क्रोधसमाविष्टः पाणौ पाणिं निपीड्य च ॥ ३३ ॥
बाष्पविह्वलया वाचा राजानमिदमब्रवीत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
रोषके आवेशमें भरकर उसने हाथपर हाथ दबाया और अश्रुगद्गद वाणीद्वारा उसने राजा दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता मे निहतः क्षुद्रैः सुनृशंसेन कर्मणा ॥ ३४ ॥
न तथा तेन तप्यामि यथा राजंस्त्वयाद्य वै।
मूलम्
पिता मे निहतः क्षुद्रैः सुनृशंसेन कर्मणा ॥ ३४ ॥
न तथा तेन तप्यामि यथा राजंस्त्वयाद्य वै।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! नीच पाण्डवोंने अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्मके द्वारा मेरे पिताका वध किया था; परंतु उसके कारण भी मैं उतना संतप्त नहीं हूँ, जैसा कि आज तुम्हारे वधके कारण मुझे कष्ट हो रहा है’॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु चेदं वचो मह्यं सत्येन वदतः प्रभो ॥ ३५ ॥
इष्टापूर्तेन दानेन धर्मेण सुकृतेन च।
अद्याहं सर्वपञ्चालान् वासुदेवस्य पश्यतः ॥ ३६ ॥
सर्वोपायैर्हि नेष्यामि प्रेतराजनिवेशनम् ।
अनुज्ञां तु महाराज भवान् मे दातुमर्हति ॥ ३७ ॥
मूलम्
शृणु चेदं वचो मह्यं सत्येन वदतः प्रभो ॥ ३५ ॥
इष्टापूर्तेन दानेन धर्मेण सुकृतेन च।
अद्याहं सर्वपञ्चालान् वासुदेवस्य पश्यतः ॥ ३६ ॥
सर्वोपायैर्हि नेष्यामि प्रेतराजनिवेशनम् ।
अनुज्ञां तु महाराज भवान् मे दातुमर्हति ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! मैं सत्यकी शपथ खाकर जो कह रहा हूँ, मेरी इस बातको सुनो। मैं अपने इष्ट, आपूर्त, दान, धर्म तथा अन्य शुभ कर्मोंकी शपथ खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज श्रीकृष्णके देखते-देखते सम्पूर्ण पांचालोंको सभी उपायोंद्वारा यमराजके लोकमें भेज दूँगा। महाराज! इसके लिये तुम मुझे आज्ञा दे दो’॥३५—३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति श्रुत्वा तु वचनं द्रोणपुत्रस्य कौरवः।
मनसः प्रीतिजननं कृपं वचनमब्रवीत् ॥ ३८ ॥
आचार्य शीघ्रं कलशं जलपूर्णं समानय।
मूलम्
इति श्रुत्वा तु वचनं द्रोणपुत्रस्य कौरवः।
मनसः प्रीतिजननं कृपं वचनमब्रवीत् ॥ ३८ ॥
आचार्य शीघ्रं कलशं जलपूर्णं समानय।
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणपुत्रका यह मनको प्रसन्न करनेवाला वचन सुनकर कुरुराज दुर्योधनने कृपाचार्यसे कहा—‘आचार्य! आप शीघ्र ही जलसे भरा हुआ कलश ले आइये’॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तद् वचनमाज्ञाय राज्ञो ब्राह्मणसत्तमः ॥ ३९ ॥
कलशं पूर्णमादाय राज्ञोऽन्तिकमुपागमत् ।
मूलम्
स तद् वचनमाज्ञाय राज्ञो ब्राह्मणसत्तमः ॥ ३९ ॥
कलशं पूर्णमादाय राज्ञोऽन्तिकमुपागमत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजाकी वह बात मानकर ब्राह्मणशिरोमणि कृपाचार्य जलसे भरा हुआ कलश ले उसके समीप आये॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीन्महाराज पुत्रस्तव विशाम्पते ॥ ४० ॥
ममाज्ञया द्विजश्रेष्ठ द्रोणपुत्रोऽभिषिच्यताम् ।
सैनापत्येन भद्रं ते मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
तमब्रवीन्महाराज पुत्रस्तव विशाम्पते ॥ ४० ॥
ममाज्ञया द्विजश्रेष्ठ द्रोणपुत्रोऽभिषिच्यताम् ।
सैनापत्येन भद्रं ते मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! प्रजानाथ! तब आपके पुत्रने उनसे कहा—‘द्विजश्रेष्ठ! आपका कल्याण हो। यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मेरी आज्ञासे द्रोणपुत्रका सेनापतिके पदपर अभिषेक कीजिये॥४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञो नियोगाद् योद्धव्यं ब्राह्मणेन विशेषतः।
वर्तता क्षत्रधर्मेण ह्येवं धर्मविदो विदुः ॥ ४२ ॥
मूलम्
राज्ञो नियोगाद् योद्धव्यं ब्राह्मणेन विशेषतः।
वर्तता क्षत्रधर्मेण ह्येवं धर्मविदो विदुः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्राह्मणको विशेषतः राजाकी आज्ञासे क्षत्रिय-धर्मके अनुसार बर्ताव करते हुए युद्ध करना चाहिये—ऐसा धर्मज्ञ पुरुष मानते हैं’॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा कृपः शारद्वतस्तथा।
द्रौणिं राज्ञो नियोगेन सैनापत्येऽभ्यषेचयत् ॥ ४३ ॥
मूलम्
राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा कृपः शारद्वतस्तथा।
द्रौणिं राज्ञो नियोगेन सैनापत्येऽभ्यषेचयत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाकी वह बात सुनकर शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्यने उसकी आज्ञाके अनुसार अश्वत्थामाका सेनापतिके पदपर अभिषेक किया॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽभिषिक्तो महाराज परिष्वज्य नृपोत्तमम्।
प्रययौ सिंहनादेन दिशः सर्वा विनादयन् ॥ ४४ ॥
मूलम्
सोऽभिषिक्तो महाराज परिष्वज्य नृपोत्तमम्।
प्रययौ सिंहनादेन दिशः सर्वा विनादयन् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! अभिषेक हो जानेपर अश्वत्थामाने नृपश्रेष्ठ दुर्योधनको हृदयसे लगाया और अपने सिंहनादसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए वहाँसे प्रस्थान किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनोऽपि राजेन्द्र शोणितेन परिप्लुतः।
तां निशां प्रतिपेदेऽथ सर्वभूतभयावहाम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
दुर्योधनोऽपि राजेन्द्र शोणितेन परिप्लुतः।
तां निशां प्रतिपेदेऽथ सर्वभूतभयावहाम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! खूनमें डूबे हुए दुर्योधनने भी सम्पूर्ण भूतोंके मनमें भय उत्पन्न करनेवाली वह रात वहीं व्यतीत की॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपक्रम्य तु ते तूर्णं तस्मादायोधनान्नृप।
शोकसंविग्नमनसश्चिन्ताध्यानपराभवन् ॥ ४६ ॥
मूलम्
अपक्रम्य तु ते तूर्णं तस्मादायोधनान्नृप।
शोकसंविग्नमनसश्चिन्ताध्यानपराभवन् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! शोकसे व्याकुलचित्त हुए वे तीनों महारथी उस युद्धभूमिसे तुरंत ही दूर हट गये और चिन्ता एवं कर्तव्यके विचारमें निमग्न हो गये॥४६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि अश्वत्थामसैनापत्याभिषेके पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें अश्वत्थामाका सेनापतिके पदपर अभिषेकविषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६५॥
सूचना (हिन्दी)
॥ शल्यपर्व सम्पूर्णम् ॥