०६४ दुर्योधनविलापे

भागसूचना

चतुःषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनका संजयके सम्मुख विलाप और वाहकोंद्वारा अपने साथियोंको संदेश भेजना

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिष्ठितः पदा मूर्ध्नि भग्नसक्थो महीं गतः।
शौटीर्यमानी पुत्रो मे किमभाषत संजय ॥ १ ॥
अत्यर्थं कोपनो राजा जातवैरश्च पाण्डुषु।
व्यसनं परमं प्राप्तः किमाह परमाहवे ॥ २ ॥

मूलम्

अधिष्ठितः पदा मूर्ध्नि भग्नसक्थो महीं गतः।
शौटीर्यमानी पुत्रो मे किमभाषत संजय ॥ १ ॥
अत्यर्थं कोपनो राजा जातवैरश्च पाण्डुषु।
व्यसनं परमं प्राप्तः किमाह परमाहवे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! जब जाँघें टूट जानेके कारण मेरा पुत्र पृथ्वीपर गिर पड़ा और भीमसेनने उसके मस्तकपर पैर रख दिया, तब उसने क्या कहा? उसे अपने बलपर बड़ा अभिमान था। राजा दुर्योधन अत्यन्त क्रोधी तथा पाण्डवोंसे वैर रखनेवाला था। उस युद्धभूमिमें जब वह बड़ी भारी विपत्तिमें फँस गया, तब क्या बोला?॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि यथावृत्तं नराधिप।
राज्ञा यदुक्तं भग्नेन तस्मिन् व्यसन आगते ॥ ३ ॥

मूलम्

शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि यथावृत्तं नराधिप।
राज्ञा यदुक्तं भग्नेन तस्मिन् व्यसन आगते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! सुनिये। नरेश्वर! उस भारी संकटमें पड़ जानेपर टूटी जाँघवाले राजा दुर्योधनने जो कुछ कहा था, वह सब वृत्तान्त यथार्थरूपसे बता रहा हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भग्नसक्थो नृपो राजन् पांसुना सोऽवगुण्ठितः।
यमयन् मूर्धजांस्तत्र वीक्ष्य चैव दिशो दश ॥ ४ ॥
केशान् नियम्य यत्नेन निःश्वसन्नुरगो यथा।
संरम्भाश्रुपरीताभ्यां नेत्राभ्यामभिवीक्ष्य माम् ॥ ५ ॥
बाहू धरण्यां निष्पिष्य सुदुर्मत्त इव द्विपः।
प्रकीर्णान् मूर्धजान् धुन्वन् दन्तैर्दन्तानुपस्पृशन् ॥ ६ ॥
गर्हयन् पाण्डवं ज्येष्ठं निःश्वस्येदमथाब्रवीत्।

मूलम्

भग्नसक्थो नृपो राजन् पांसुना सोऽवगुण्ठितः।
यमयन् मूर्धजांस्तत्र वीक्ष्य चैव दिशो दश ॥ ४ ॥
केशान् नियम्य यत्नेन निःश्वसन्नुरगो यथा।
संरम्भाश्रुपरीताभ्यां नेत्राभ्यामभिवीक्ष्य माम् ॥ ५ ॥
बाहू धरण्यां निष्पिष्य सुदुर्मत्त इव द्विपः।
प्रकीर्णान् मूर्धजान् धुन्वन् दन्तैर्दन्तानुपस्पृशन् ॥ ६ ॥
गर्हयन् पाण्डवं ज्येष्ठं निःश्वस्येदमथाब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जब कौरव-नरेशकी जाँघें टूट गयीं तब वह धरतीपर गिरकर धूलमें सन गया। फिर बिखरे हुए बालोंको समेटता हुआ वहाँ दसों दिशाओंकी ओर देखने लगा। बड़े प्रयत्नसे अपने बालोंको बाँधकर सर्पके समान फुफकारते हुए उसने रोष और आँसुओंसे भरे हुए नेत्रोंद्वारा मेरी ओर देखा। इसके बाद दोनों भुजाओंको पृथ्वीपर रगड़कर मदोन्मत्त गजराजके समान अपने बिखरे केशोंको हिलाता, दाँतोंसे दाँतोंको पीसता तथा ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिरकी निन्दा करता हुआ वह उच्छ‌्वास ले इस प्रकार बोला—॥४—६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मे शान्तनवे नाथे कर्णे शस्त्रभृतां वरे ॥ ७ ॥
गौतमे शकुनौ चापि द्रोणे चास्त्रभृतां वरे।
अश्वत्थाम्नि तथा शल्ये शूरे च कृतवर्मणि ॥ ८ ॥
इमामवस्थां प्राप्तोऽस्मि कालो हि दुरतिक्रमः।

मूलम्

भीष्मे शान्तनवे नाथे कर्णे शस्त्रभृतां वरे ॥ ७ ॥
गौतमे शकुनौ चापि द्रोणे चास्त्रभृतां वरे।
अश्वत्थाम्नि तथा शल्ये शूरे च कृतवर्मणि ॥ ८ ॥
इमामवस्थां प्राप्तोऽस्मि कालो हि दुरतिक्रमः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘शान्तनुनन्दन भीष्म, अस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ कर्ण, कृपाचार्य, शकुनि, अस्त्रधारियोंमें सर्वश्रेष्ठ द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, शूरवीर शल्य तथा कृतवर्मा मेरे रक्षक थे तो भी मैं इस दशाको आ पहुँचा। निश्चय ही कालका उल्लंघन करना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकादशचमूभर्ता सोऽहमेतां दशां गतः ॥ ९ ॥
कालं प्राप्य महाबाहो न कश्चिदतिवर्तते।

मूलम्

एकादशचमूभर्ता सोऽहमेतां दशां गतः ॥ ९ ॥
कालं प्राप्य महाबाहो न कश्चिदतिवर्तते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! मैं एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेनाका स्वामी था; परंतु आज इस दशामें आ पड़ा हूँ। वास्तवमें कालको पाकर कोई उसका उल्लंघन नहीं कर सकता॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आख्यातव्यं मदीयानां येऽस्मिन् जीवन्ति संयुगे ॥ १० ॥
यथाहं भीमसेनेन व्युत्क्रम्य समयं हतः।

मूलम्

आख्यातव्यं मदीयानां येऽस्मिन् जीवन्ति संयुगे ॥ १० ॥
यथाहं भीमसेनेन व्युत्क्रम्य समयं हतः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे पक्षके वीरोंमेंसे जो लोग इस युद्धमें जीवित बच गये हों, उन्हें यह बताना कि भीमसेनने किस तरह गदायुद्धके नियमका उल्लंघन करके मुझे मारा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहूनि सुनृशंसानि कृतानि खलु पाण्डवैः ॥ ११ ॥
भूरिश्रवसि कर्णे च भीष्मे द्रोणे च श्रीमति।

मूलम्

बहूनि सुनृशंसानि कृतानि खलु पाण्डवैः ॥ ११ ॥
भूरिश्रवसि कर्णे च भीष्मे द्रोणे च श्रीमति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवोंने भूरिश्रवा, कर्ण, भीष्म तथा श्रीमान् द्रोणाचार्यके प्रति बहुत-से नृशंस कार्य किये हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं चाकीर्तिजं कर्म नृशंसैः पाण्डवैः कृतम् ॥ १२ ॥
येन ते सत्सु निर्वेदं गमिष्यन्ति हि मे मतिः।

मूलम्

इदं चाकीर्तिजं कर्म नृशंसैः पाण्डवैः कृतम् ॥ १२ ॥
येन ते सत्सु निर्वेदं गमिष्यन्ति हि मे मतिः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन क्रूरकर्मा पाण्डवोंने यह भी अपनी अकीर्ति फैलानेवाला कर्म ही किया है, जिससे वे साधु पुरुषोंकी सभामें पश्चात्ताप करेंगे; ऐसा मेरा विश्वास है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

का प्रीतिः सत्त्वयुक्तस्य कृत्वोपधिकृतं जयम् ॥ १३ ॥
को वा समयभेत्तारं बुधः सम्मन्तुमर्हति।

मूलम्

का प्रीतिः सत्त्वयुक्तस्य कृत्वोपधिकृतं जयम् ॥ १३ ॥
को वा समयभेत्तारं बुधः सम्मन्तुमर्हति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘छलसे विजय पाकर किसी सत्त्वगुणी या शक्तिशाली पुरुषको क्या प्रसन्नता होगी? अथवा जो युद्धके नियमको भंग कर देता है, उसका सम्मान कौन विद्वान् कर सकता है?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मेण जयं लब्ध्वा को नु हृष्येत पण्डितः ॥ १४ ॥
यथा संहृष्यते पापः पाण्डुपुत्रो वृकोदरः।

मूलम्

अधर्मेण जयं लब्ध्वा को नु हृष्येत पण्डितः ॥ १४ ॥
यथा संहृष्यते पापः पाण्डुपुत्रो वृकोदरः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अधर्मसे विजय प्राप्त करके किस बुद्धिमान् पुरुषको हर्ष होगा? जैसा कि पापी पाण्डुपुत्र भीमसेनको हो रहा है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किन्नु चित्रमितस्त्वद्य भग्नसक्थस्य यन्मम ॥ १५ ॥
क्रुद्धेन भीमसेनेन पादेन मृदितं शिरः।

मूलम्

किन्नु चित्रमितस्त्वद्य भग्नसक्थस्य यन्मम ॥ १५ ॥
क्रुद्धेन भीमसेनेन पादेन मृदितं शिरः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज जब मेरी जाँघें टूट गयी हैं; ऐसी दशामें कुपित हुए भीमसेनने मेरे मस्तकको जो पैरसे ठुकराया है, इससे बढ़कर आश्चर्यकी बात और क्या हो सकती है?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतपन्तं श्रिया जुष्टं वर्तमानं च बन्धुषु ॥ १६ ॥
एवं कुर्यान्नरो यो हि स वै संजय पूजितः।

मूलम्

प्रतपन्तं श्रिया जुष्टं वर्तमानं च बन्धुषु ॥ १६ ॥
एवं कुर्यान्नरो यो हि स वै संजय पूजितः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘संजय! जो अपने तेजसे तप रहा हो, राजलक्ष्मीसे सेवित हो और अपने सहायक बन्धुओंके बीचमें विद्यमान हो, ऐसे शत्रुके साथ जो उक्त बर्ताव करे, वही वीर पुरुष सम्मानित होता है (मरे हुएको मारनेमें क्या बड़ाई है)॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिज्ञौ युद्धधर्मस्य मम माता पिता च मे ॥ १७ ॥
तौ हि संजय दुःखार्तौ विज्ञाप्यौ वचनाद्धि मे।
इष्टं भृत्या भृताः सम्यग् भूः प्रशास्ता ससागरा ॥ १८ ॥

मूलम्

अभिज्ञौ युद्धधर्मस्य मम माता पिता च मे ॥ १७ ॥
तौ हि संजय दुःखार्तौ विज्ञाप्यौ वचनाद्धि मे।
इष्टं भृत्या भृताः सम्यग् भूः प्रशास्ता ससागरा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे माता-पिता युद्धधर्मके ज्ञाता हैं। वे दोनों मेरी मृत्युका समाचार सुनकर दुःखसे आतुर हो जायँगे। तुम मेरे कहनेसे उन्हें यह संदेश देना कि मैंने यज्ञ किये, जो भरण-पोषण करनेयोग्य थे, उनका पालन किया और समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका अच्छी तरह शासन किया॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्ध्नि स्थितममित्राणां जीवतामेव संजय।
दत्ता दाया यथाशक्ति मित्राणां च प्रियं कृतम् ॥ १९ ॥
अमित्रा बाधिताः सर्वे को नु स्वन्ततरो मया।

मूलम्

मूर्ध्नि स्थितममित्राणां जीवतामेव संजय।
दत्ता दाया यथाशक्ति मित्राणां च प्रियं कृतम् ॥ १९ ॥
अमित्रा बाधिताः सर्वे को नु स्वन्ततरो मया।

अनुवाद (हिन्दी)

‘संजय! मैंने जीवित शत्रुओंके ही मस्तकपर पैर रखा। यथाशक्ति धनका दान और मित्रोंका प्रिय किया। साथ ही सम्पूर्ण शत्रुओंको सदा ही क्लेश पहुँचाया। संसारमें कौन ऐसा पुरुष है, जिसका अन्त मेरे समान सुन्दर हुआ हो?॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानिता बान्धवाः सर्वे वश्यः सम्पूजितो जनः ॥ २० ॥
त्रितयं सेवितं सर्वं को नु स्वन्ततरो मया।

मूलम्

मानिता बान्धवाः सर्वे वश्यः सम्पूजितो जनः ॥ २० ॥
त्रितयं सेवितं सर्वं को नु स्वन्ततरो मया।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने सभी बन्धु-बान्धवोंको सम्मान दिया। अपनी आज्ञाके अधीन रहनेवाले लोगोंका सत्कार किया और धर्म, अर्थ एवं काम सबका सेवन कर लिया। मेरे समान सुन्दर अन्त किसका हुआ होगा?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आज्ञप्तं नृपमुख्येषु मानः प्राप्तः सुदुर्लभः ॥ २१ ॥
आजानेयैस्तथा यातं को नु स्वन्ततरो मया।

मूलम्

आज्ञप्तं नृपमुख्येषु मानः प्राप्तः सुदुर्लभः ॥ २१ ॥
आजानेयैस्तथा यातं को नु स्वन्ततरो मया।

अनुवाद (हिन्दी)

‘बड़े-बड़े राजाओंपर हुक्म चलाया, अत्यन्त दुर्लभ सम्मान प्राप्त किया तथा आजानेय (अरबी) घोड़ोंपर सवारी की, मुझसे अच्छा अन्त और किसका हुआ होगा?॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यातानि परराष्ट्राणि नृपा भुक्ताश्च दासवत् ॥ २२ ॥
प्रियेभ्यः प्रकृतं साधु को नु स्वन्ततरो मया।

मूलम्

यातानि परराष्ट्राणि नृपा भुक्ताश्च दासवत् ॥ २२ ॥
प्रियेभ्यः प्रकृतं साधु को नु स्वन्ततरो मया।

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूसरे राष्ट्रोंपर आक्रमण किया और कितने ही राजाओंसे दासकी भाँति सेवाएँ लीं। जो अपने प्रिय व्यक्ति थे, उनकी सदा ही भलाई की। फिर मुझसे अच्छा अन्त किसका हुआ होगा?॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधीतं विधिवद् दत्तं प्राप्तमायुर्निरामयम् ॥ २३ ॥
स्वधर्मेण जिता लोकाः को नु स्वन्ततरो मया।
दिष्ट्‌या नाहं जितः संख्ये परान् प्रेष्यवदाश्रितः ॥ २४ ॥
दिष्ट्‌या मे विपुला लक्ष्मीर्मृते त्वन्यगता विभो।

मूलम्

अधीतं विधिवद् दत्तं प्राप्तमायुर्निरामयम् ॥ २३ ॥
स्वधर्मेण जिता लोकाः को नु स्वन्ततरो मया।
दिष्ट्‌या नाहं जितः संख्ये परान् प्रेष्यवदाश्रितः ॥ २४ ॥
दिष्ट्‌या मे विपुला लक्ष्मीर्मृते त्वन्यगता विभो।

अनुवाद (हिन्दी)

‘विधिवत् वेदोंका स्वाध्याय किया, नाना प्रकारके दान दिये और रोगरहित आयु प्राप्त की। इसके सिवा, मैंने अपने धर्मके द्वारा पुण्यलोकोंपर विजय पायी है। फिर मेरे समान अच्छा अन्त और किसका हुआ होगा? सौभाग्यकी बात है कि मैं न तो युद्धमें कभी पराजित हुआ और न दासकी भाँति कभी शत्रुओंकी शरण ली। सौभाग्यसे मेरे अधिकारमें विशाल राजलक्ष्मी रही है, जो मेरे मरनेके बाद ही दूसरेके हाथमें गयी है॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिष्टं क्षत्रबन्धूनां स्वधर्ममनुतिष्ठताम् ॥ २५ ॥
निधनं तन्मया प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया।

मूलम्

यदिष्टं क्षत्रबन्धूनां स्वधर्ममनुतिष्ठताम् ॥ २५ ॥
निधनं तन्मया प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने धर्मका पालन करनेवाले क्षत्रिय-बन्धुओंको जो अभीष्ट है, वैसी ही मृत्यु मुझे प्राप्त हुई है; अतः मुझसे अच्छा अन्त और किसका हुआ होगा?॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्‌या नाहं परावृत्तो वैरात् प्राकृतवज्जितः ॥ २६ ॥
दिष्ट्‌या न विमतिं कांचिद् भजित्वा तु पराजितः।

मूलम्

दिष्ट्‌या नाहं परावृत्तो वैरात् प्राकृतवज्जितः ॥ २६ ॥
दिष्ट्‌या न विमतिं कांचिद् भजित्वा तु पराजितः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘हर्षकी बात है कि मैं युद्धमें पीठ दिखाकर भागा नहीं। निम्नश्रेणीके मनुष्यकी भाँति हार मानकर वैरसे कभी पीछे नहीं हटा तथा कभी किसी दुर्विचारका आश्रय लेकर पराजित नहीं हुआ—यह भी मेरे लिये गौरवकी ही बात है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुप्तं वाथ प्रमत्तं वा यथा हन्याद् विषेण वा॥२७॥
एवं व्युत्क्रान्तधर्मेण व्युत्क्रम्य समयं हतः।

मूलम्

सुप्तं वाथ प्रमत्तं वा यथा हन्याद् विषेण वा॥२७॥
एवं व्युत्क्रान्तधर्मेण व्युत्क्रम्य समयं हतः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे कोई सोये अथवा पागल हुए मनुष्यको मार दे या धोखेसे जहर देकर किसीकी हत्या कर डाले, उसी प्रकार धर्मका उल्लंघन करनेवाले पापी भीमसेनने गदायुद्धकी मर्यादाका उल्लंघन करके मुझे मारा है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वत्थामा महाभागः कृतवर्मा च सात्वतः ॥ २८ ॥
कृपः शारद्वतश्चैव वक्तव्या वचनान्मम।

मूलम्

अश्वत्थामा महाभागः कृतवर्मा च सात्वतः ॥ २८ ॥
कृपः शारद्वतश्चैव वक्तव्या वचनान्मम।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाभाग अश्वत्थामा, सात्वतवंशी कृतवर्मा तथा शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्य—इन सबको मेरी यह बात सुना देना॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मेण प्रवृत्तानां पाण्डवानामनेकशः ॥ २९ ॥
विश्वासं समयघ्नानां न यूयं गन्तुमर्हथ।

मूलम्

अधर्मेण प्रवृत्तानां पाण्डवानामनेकशः ॥ २९ ॥
विश्वासं समयघ्नानां न यूयं गन्तुमर्हथ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवोंने अधर्ममें प्रवृत्त होकर अनेकों बार युद्धकी मर्यादा तोड़ी है; अतः आपलोग कभी उनका विश्वास न करें’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वार्तिकांश्चाब्रवीद् राजा पुत्रस्ते सत्यविक्रमः ॥ ३० ॥
अधर्माद् भीमसेनेन निहतोऽहं यथा रणे।
सोऽहं द्रोणं स्वर्गगतं कर्णशल्यावुभौ तथा ॥ ३१ ॥
वृषसेनं महावीर्यं शकुनिं चापि सौबलम्।
जलसन्धं महावीर्यं भगदत्तं च पार्थिवम् ॥ ३२ ॥
सोमदत्तं महेष्वासं सैन्धवं च जयद्रथम्।
दुःशासनपुरोगांश्च भ्रातॄनात्मसमांस्तथा ॥ ३३ ॥
दौःशासनिं च विक्रान्तं लक्ष्मणं चात्मजावुभौ।
एतांश्चान्यांश्च सुबहून् मदीयांश्च सहस्रशः ॥ ३४ ॥
पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि सार्थहीनो यथाध्वगः ।

मूलम्

वार्तिकांश्चाब्रवीद् राजा पुत्रस्ते सत्यविक्रमः ॥ ३० ॥
अधर्माद् भीमसेनेन निहतोऽहं यथा रणे।
सोऽहं द्रोणं स्वर्गगतं कर्णशल्यावुभौ तथा ॥ ३१ ॥
वृषसेनं महावीर्यं शकुनिं चापि सौबलम्।
जलसन्धं महावीर्यं भगदत्तं च पार्थिवम् ॥ ३२ ॥
सोमदत्तं महेष्वासं सैन्धवं च जयद्रथम्।
दुःशासनपुरोगांश्च भ्रातॄनात्मसमांस्तथा ॥ ३३ ॥
दौःशासनिं च विक्रान्तं लक्ष्मणं चात्मजावुभौ।
एतांश्चान्यांश्च सुबहून् मदीयांश्च सहस्रशः ॥ ३४ ॥
पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि सार्थहीनो यथाध्वगः ।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद आपके सत्यपराक्रमी पुत्र राजा दुर्योधनने संदेशवाहक दूतोंसे इस प्रकार कहा— ‘भीमसेनने रणभूमिमें अधर्मसे मेरा वध किया है। अब मैं स्वर्गमें गये हुए द्रोणाचार्य, कर्ण, शल्य, महापराक्रमी वृषसेन, सुबलपुत्र शकुनि, महाबली जलसन्ध, राजा भगदत्त, महाधनुर्धर सोमदत्त, सिंधुराज जयद्रथ, अपने ही समान पराक्रमी दुःशासन आदि बन्धुगण, विक्रमशाली दुःशासनकुमार और अपने पुत्र लक्ष्मण—इन सबके तथा और भी जो बहुत-से मेरे पक्षके सहस्रों योद्धा मारे गये हैं, उन सबके पीछे मैं स्वर्ग जाऊँगा। मेरी दशा उस पथिकके समान है, जो अपने साथियोंसे बिछुड़ गया हो॥३०—३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं भ्रातॄन् हतान् श्रुत्वा भर्तारं च स्वसा मम॥३५॥
रोरूयमाणा दुःखार्ता दुःशला सा भविष्यति।

मूलम्

कथं भ्रातॄन् हतान् श्रुत्वा भर्तारं च स्वसा मम॥३५॥
रोरूयमाणा दुःखार्ता दुःशला सा भविष्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! अपने भाइयों और पतिकी मृत्युका समाचार सुनकर दुःखसे आतुर हो अत्यन्त रोदन करती हुई मेरी बहिन दुःशलाकी क्या दशा होगी?॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नुषाभिः प्रस्नुषाभिश्च वृद्धो राजा पिता मम ॥ ३६ ॥
गान्धारीसहितश्चैव कां गतिं प्रतिपत्स्यति।

मूलम्

स्नुषाभिः प्रस्नुषाभिश्च वृद्धो राजा पिता मम ॥ ३६ ॥
गान्धारीसहितश्चैव कां गतिं प्रतिपत्स्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुत्रों और पौत्रोंकी बिलखती हुई बहुओंके साथ मेरे बूढ़े पिता राजा धृतराष्ट्र माता गान्धारीसहित किस अवस्थाको पहुँच जायँगे?॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं लक्ष्मणमातापि हतपुत्रा हतेश्वरा ॥ ३७ ॥
विनाशं यास्यति क्षिप्रं कल्याणी पृथुलोचना।

मूलम्

नूनं लक्ष्मणमातापि हतपुत्रा हतेश्वरा ॥ ३७ ॥
विनाशं यास्यति क्षिप्रं कल्याणी पृथुलोचना।

अनुवाद (हिन्दी)

‘निश्चय ही जिसके पति और पुत्र मारे गये हैं, वह कल्याणमयी विशाललोचना लक्ष्मणकी माता भी सारा समाचार सुनकर तुरंत ही प्राण दे देगी॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि जानाति चार्वाकः परिव्राड् वाग्विशारदः ॥ ३८ ॥
करिष्यति महाभागो ध्रुवं चापचितिं मम।

मूलम्

यदि जानाति चार्वाकः परिव्राड् वाग्विशारदः ॥ ३८ ॥
करिष्यति महाभागो ध्रुवं चापचितिं मम।

अनुवाद (हिन्दी)

‘संन्यासीके वेषमें सब ओर घूमनेवाले प्रवचनकुशल चार्वाकको1 यदि मेरी दशा ज्ञात हो जायगी तो वे महाभाग निश्चय ही मेरे वैरका बदला लेंगे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समन्तपञ्चके पुण्ये त्रिषु लोकेषु विश्रुते ॥ ३९ ॥
अहं निधनमासाद्य लोकान् प्राप्स्यामि शाश्वतान्।

मूलम्

समन्तपञ्चके पुण्ये त्रिषु लोकेषु विश्रुते ॥ ३९ ॥
अहं निधनमासाद्य लोकान् प्राप्स्यामि शाश्वतान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तीनों लोकोंमें विख्यात पुण्यमय समन्त-पंचकक्षेत्रमें मृत्युको प्राप्त होकर अब मैं सनातन लोकोंमें जाऊँगा’॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो जनसहस्राणि बाष्पपूर्णानि मारिष ॥ ४० ॥
प्रलापं नृपतेः श्रुत्वा व्यद्रवन्त दिशो दश।

मूलम्

ततो जनसहस्राणि बाष्पपूर्णानि मारिष ॥ ४० ॥
प्रलापं नृपतेः श्रुत्वा व्यद्रवन्त दिशो दश।

अनुवाद (हिन्दी)

मान्यवर! राजा दुर्योधनका यह विलाप सुनकर हजारों मनुष्योंकी आँखोंमें आँसू भर आये और वे दसों दिशाओंमें भाग चले॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससागरवना घोरा पृथिवी सचराचरा ॥ ४१ ॥
चचालाथ सनिर्ह्रादा दिशश्चैवाविलाभवन् ।

मूलम्

ससागरवना घोरा पृथिवी सचराचरा ॥ ४१ ॥
चचालाथ सनिर्ह्रादा दिशश्चैवाविलाभवन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय समुद्र, वन और चराचर प्राणियोंसहित यह पृथ्वी भयानक रूपसे हिलने लगी। सब ओर वज्रकी-सी गर्जना होने लगी और सारी दिशाएँ मलिन हो गयीं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते द्रोणपुत्रमासाद्य यथावृत्तं न्यवेदयन् ॥ ४२ ॥
व्यवहारं गदायुद्धे पार्थिवस्य च पातनम्।
तदाख्याय ततः सर्वे द्रोणपुत्रस्य भारत॥
(वार्तिका दुःखसंतप्ताः शोकोपहतचेतसः ।)
ध्यात्वा च सुचिरं कालं जग्मुरार्ता यथागतम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

ते द्रोणपुत्रमासाद्य यथावृत्तं न्यवेदयन् ॥ ४२ ॥
व्यवहारं गदायुद्धे पार्थिवस्य च पातनम्।
तदाख्याय ततः सर्वे द्रोणपुत्रस्य भारत॥
(वार्तिका दुःखसंतप्ताः शोकोपहतचेतसः ।)
ध्यात्वा च सुचिरं कालं जग्मुरार्ता यथागतम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन संदेशवाहकोंने आकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामासे यथावत् समाचार कह सुनाया। भारत! गदायुद्धमें भीमसेनका जैसा व्यवहार हुआ तथा राजाको जिस प्रकार धराशायी किया गया, वह सारा वृत्तान्त द्रोणपुत्रको बताकर दुःखसे संतप्त हो वे बहुत देरतक चिन्तामें डूबे रहे। फिर शोकसे व्याकुलचित्त एवं आर्त होकर जैसे आये थे वैसे चले गये॥४२-४३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि दुर्योधनविलापे चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें दुर्योधनका विलापविषयक चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६४॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ४३ श्लोक हैं।)


  1. आचार्य नीलकण्ठकी सम्मतिके अनुसार चार्वाक संन्यासी मुनिके वेषमें विचरनेवाला एक नास्तिक राक्षस था। ↩︎