भागसूचना
द्विषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवोंका कौरव शिबिरमें पहुँचना, अर्जुनके रथका दग्ध होना और पाण्डवोंका भगवान् श्रीकृष्णको हस्तिनापुर भेजना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते प्रययुः सर्वे निवासाय महीक्षितः।
शङ्खान् प्रध्मापयन्तो वै हृष्टाः परिघबाहवः ॥ १ ॥
मूलम्
ततस्ते प्रययुः सर्वे निवासाय महीक्षितः।
शङ्खान् प्रध्मापयन्तो वै हृष्टाः परिघबाहवः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर परिघके समान मोटी भुजाओंवाले सब नरेश अपना-अपना शंख बजाते हुए शिबिरमें विश्राम करनेके लिये प्रसन्नतापूर्वक चल दिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवान् गच्छतश्चापि शिबिरं नो विशाम्पते।
महेष्वासोऽन्वगात् पश्चाद् युयुत्सुः सात्यकिस्तथा ॥ २ ॥
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपदेयाश्च सर्वशः।
सर्वे चान्ये महेष्वासाः प्रययुः शिबिराण्युत ॥ ३ ॥
मूलम्
पाण्डवान् गच्छतश्चापि शिबिरं नो विशाम्पते।
महेष्वासोऽन्वगात् पश्चाद् युयुत्सुः सात्यकिस्तथा ॥ २ ॥
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपदेयाश्च सर्वशः।
सर्वे चान्ये महेष्वासाः प्रययुः शिबिराण्युत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! हमारे शिबिरकी ओर जाते हुए पाण्डवोंके पीछे-पीछे महाधनुर्धर युयुत्सु, सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदीके सभी पुत्र तथा अन्य सब धनुर्धर योद्धा भी उन शिबिरोंमें गये॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते प्राविशन् पार्था हतत्विट्कं हतेश्वरम्।
दुर्योधनस्य शिबिरं रङ्गवद्विसृते जने ॥ ४ ॥
गतोत्सवं पुरमिव हृतनागमिव ह्रदम्।
स्त्रीवर्षवरभूयिष्ठं वृद्धामात्यैरधिष्ठितम् ॥ ५ ॥
मूलम्
ततस्ते प्राविशन् पार्था हतत्विट्कं हतेश्वरम्।
दुर्योधनस्य शिबिरं रङ्गवद्विसृते जने ॥ ४ ॥
गतोत्सवं पुरमिव हृतनागमिव ह्रदम्।
स्त्रीवर्षवरभूयिष्ठं वृद्धामात्यैरधिष्ठितम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् कुन्तीके पुत्रोंने पहले दुर्योधनके शिबिरमें प्रवेश किया। जैसे दर्शकोंके चले जानेपर सूना रंगमण्डप शोभाहीन दिखायी देता है, उसी प्रकार जिसका स्वामी मारा गया था, वह शिबिर उत्सवशून्य नगर और नागरहित सरोवरके समान श्रीहीन जान पड़ता था। वहाँ रहनेवाले लोगोंमें अधिकांश स्त्रियाँ और नपुंसक थे तथा बूढ़े मन्त्री अधिष्ठाता बनकर उस शिबिरका संरक्षण कर रहे थे॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रैतान् पर्युपातिष्ठन् दुर्योधनपुरःसराः ।
कृताञ्जलिपुटा राजन् काषायमलिनाम्बराः ॥ ६ ॥
मूलम्
तत्रैतान् पर्युपातिष्ठन् दुर्योधनपुरःसराः ।
कृताञ्जलिपुटा राजन् काषायमलिनाम्बराः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वहाँ दुर्योधनके आगे-आगे चलनेवाले सेवकगण मलिन भगवा वस्त्र पहनकर हाथ जोड़े हुए इन पाण्डवोंके समक्ष उपस्थित हुए॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिबिरं समनुप्राप्य कुरुराजस्य पाण्डवाः।
अवतेरुर्महाराज रथेभ्यो रथसत्तमाः ॥ ७ ॥
मूलम्
शिबिरं समनुप्राप्य कुरुराजस्य पाण्डवाः।
अवतेरुर्महाराज रथेभ्यो रथसत्तमाः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कुरुराजके शिबिरमें पहुँचकर रथियोंमें श्रेष्ठ पाण्डव अपने रथोंसे नीचे उतरे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गाण्डीवधन्वानमभ्यभाषत केशवः ।
स्थितः प्रियहिते नित्यमतीव भरतर्षभ ॥ ८ ॥
अवरोपय गाण्डीवमक्षयौ च महेषुधी।
अथाहमवरोक्ष्यामि पश्चाद् भरतसत्तम ॥ ९ ॥
स्वयं चैवावरोह त्वमेतच्छ्रेयस्तवानघ ।
मूलम्
ततो गाण्डीवधन्वानमभ्यभाषत केशवः ।
स्थितः प्रियहिते नित्यमतीव भरतर्षभ ॥ ८ ॥
अवरोपय गाण्डीवमक्षयौ च महेषुधी।
अथाहमवरोक्ष्यामि पश्चाद् भरतसत्तम ॥ ९ ॥
स्वयं चैवावरोह त्वमेतच्छ्रेयस्तवानघ ।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् सदा अर्जुनके प्रिय एवं हितमें तत्पर रहनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने गाण्डीवधारी अर्जुनसे कहा—‘भरतवंशशिरोमणे! तुम गाण्डीव धनुषको और इन दोनों बाणोंसे भरे हुए अक्षय तरकसोंको उतार लो। फिर स्वयं भी उतर जाओ! इसके बाद मैं उतरूँगा! अनघ! ऐसा करनेमें ही तुम्हारी भलाई है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्चाकरोत् तथा वीरः पाण्डुपुत्रो धनंजयः ॥ १० ॥
अथ पश्चात् ततः कृष्णो रश्मीनुत्सृज्य वाजिनाम्।
अवारोहत मेधावी रथाद् गाण्डीवधन्वनः ॥ ११ ॥
मूलम्
तच्चाकरोत् तथा वीरः पाण्डुपुत्रो धनंजयः ॥ १० ॥
अथ पश्चात् ततः कृष्णो रश्मीनुत्सृज्य वाजिनाम्।
अवारोहत मेधावी रथाद् गाण्डीवधन्वनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर पाण्डुपुत्र अर्जुनने वह सब वैसे ही किया। तदनन्तर परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण घोड़ोंकी बागडोर छोड़कर गाण्डीवधारी अर्जुनके रथसे स्वयं भी उतर पड़े॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथावतीर्णे भूतानामीश्वरे सुमहात्मनि ।
कपिरन्तर्दधे दिव्यो ध्वजो गाण्डीवधन्वनः ॥ १२ ॥
मूलम्
अथावतीर्णे भूतानामीश्वरे सुमहात्मनि ।
कपिरन्तर्दधे दिव्यो ध्वजो गाण्डीवधन्वनः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंके ईश्वर परमात्मा श्रीकृष्णके उतरते ही गाण्डीवधारी अर्जुनका ध्वजस्वरूप दिव्य वानर उस रथसे अन्तर्धान हो गया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दग्धो द्रोणकर्णाभ्यां दिव्यैरस्त्रैर्महारथः।
अथादीप्तोऽग्निना ह्याशु प्रजज्वाल महीपते ॥ १३ ॥
मूलम्
स दग्धो द्रोणकर्णाभ्यां दिव्यैरस्त्रैर्महारथः।
अथादीप्तोऽग्निना ह्याशु प्रजज्वाल महीपते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! इसके बाद अर्जुनका वह विशाल रथ, जो द्रोण और कर्णके दिव्यास्त्रोंद्वारा दग्धप्राय हो गया था, तुरंत ही आगसे प्रज्वलित हो उठा॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोपासङ्गः सरश्मिश्च साश्वः सयुगबन्धुरः।
भस्मीभूतोऽपतद् भूमौ रथो गाण्डीवधन्वनः ॥ १४ ॥
मूलम्
सोपासङ्गः सरश्मिश्च साश्वः सयुगबन्धुरः।
भस्मीभूतोऽपतद् भूमौ रथो गाण्डीवधन्वनः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गाण्डीवधारीका वह रथ उपासंग, बागडोर, जूआ, बन्धुरकाष्ठ और घोड़ोंसहित भस्म होकर भूमिपर गिर पड़ा॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तथा भस्मभूतं तु दृष्ट्वा पाण्डुसुताः प्रभो।
अभवन् विस्मिता राजन्नर्जुनश्चेदमब्रवीत् ॥ १५ ॥
कृताञ्जलिः सप्रणयं प्रणिपत्याभिवाद्य ह।
गोविन्द कस्माद् भगवन् रथो दग्धोऽयमग्निना ॥ १६ ॥
किमेतन्महदाश्चर्यमभवद् यदुनन्दन ।
तन्मे ब्रूहि महाबाहो श्रोतव्यं यदि मन्यसे ॥ १७ ॥
मूलम्
तं तथा भस्मभूतं तु दृष्ट्वा पाण्डुसुताः प्रभो।
अभवन् विस्मिता राजन्नर्जुनश्चेदमब्रवीत् ॥ १५ ॥
कृताञ्जलिः सप्रणयं प्रणिपत्याभिवाद्य ह।
गोविन्द कस्माद् भगवन् रथो दग्धोऽयमग्निना ॥ १६ ॥
किमेतन्महदाश्चर्यमभवद् यदुनन्दन ।
तन्मे ब्रूहि महाबाहो श्रोतव्यं यदि मन्यसे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! नरेश्वर! उस रथको भस्मीभूत हुआ देख समस्त पाण्डव आश्चर्यचकित हो उठे और अर्जुनने भी हाथ जोड़कर भगवान्के चरणोंमें बारंबार प्रणाम करके प्रेमपूर्वक पूछा—‘गोविन्द! यह रथ अकस्मात् कैसे आगसे जल गया? भगवन्! यदुनन्दन! यह कैसी महान् आश्चर्यकी बात हो गयी? महाबाहो! यदि आप सुनने-योग्य समझें तो इसका रहस्य मुझे बतावें’॥१५—१७॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्रैर्बहुविधैर्दग्धः पूर्वमेवायमर्जुन ।
मदधिष्ठितत्वात् समरे न विशीर्णः परंतप ॥ १८ ॥
मूलम्
अस्त्रैर्बहुविधैर्दग्धः पूर्वमेवायमर्जुन ।
मदधिष्ठितत्वात् समरे न विशीर्णः परंतप ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने कहा— शत्रुओंको संताप देनेवाले अर्जुन! यह रथ नाना प्रकारके अस्त्रोंद्वारा पहले ही दग्ध हो चुका था; परंतु मेरे बैठे रहनेके कारण समरांगणमें भस्म होकर गिर न सका॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीं तु विशीर्णोऽयं दग्धो ब्रह्मास्त्रतेजसा।
मया विमुक्तः कौन्तेय त्वय्यद्य कृतकर्मणि ॥ १९ ॥
मूलम्
इदानीं तु विशीर्णोऽयं दग्धो ब्रह्मास्त्रतेजसा।
मया विमुक्तः कौन्तेय त्वय्यद्य कृतकर्मणि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! आज जब तुम अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण कर चुके हो, तब मैंने इसे छोड़ दिया है; इसलिये पहलेसे ही ब्रह्मास्त्रके तेजसे दग्ध हुआ यह रथ इस समय बिखरकर गिर पड़ा है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईषदुत्स्मयमानस्तु भगवान् केशवोऽरिहा ।
परिष्वज्य च राजानं युधिष्ठिरमभाषत ॥ २० ॥
मूलम्
ईषदुत्स्मयमानस्तु भगवान् केशवोऽरिहा ।
परिष्वज्य च राजानं युधिष्ठिरमभाषत ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद शत्रुओंका संहार करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने किंचित् मुसकराते हुए वहाँ राजा युधिष्ठिरको हृदयसे लगाकर कहा—॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या जयसि कौन्तेय दिष्ट्या ते शत्रवो जिताः।
दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च भीमसेनश्च पाण्डवः ॥ २१ ॥
त्वं चापि कुशली राजन् माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
मुक्ता वीरक्षयादस्मात् संग्रामान्निहतद्विषः ॥ २२ ॥
मूलम्
दिष्ट्या जयसि कौन्तेय दिष्ट्या ते शत्रवो जिताः।
दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च भीमसेनश्च पाण्डवः ॥ २१ ॥
त्वं चापि कुशली राजन् माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
मुक्ता वीरक्षयादस्मात् संग्रामान्निहतद्विषः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीनन्दन! सौभाग्यसे आपकी विजय हुई और सारे शत्रु परास्त हो गये। राजन्! गाण्डीवधारी अर्जुन, पाण्डुकुमार भीमसेन, आप और माद्रीपुत्र पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेव—ये सब-के-सब सकुशल हैं तथा जहाँ वीरोंका विनाश हुआ और तुम्हारे सारे शत्रु कालके गालमें चले गये, उस घोर संग्रामसे तुमलोग जीवित बच गये, यह बड़े सौभाग्यकी बात है॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्रमुत्तरकालानि कुरु कार्याणि भारत।
उपायातमुपप्लव्यं सह गाण्डीवधन्वना ॥ २३ ॥
आनीय मधुपर्कं मां यत् पुरा त्वमवोचथाः।
एष भ्राता सखा चैव तव कृष्ण धनंजयः ॥ २४ ॥
रक्षितव्यो महाबाहो सर्वास्वापत्स्विति प्रभो।
मूलम्
क्षिप्रमुत्तरकालानि कुरु कार्याणि भारत।
उपायातमुपप्लव्यं सह गाण्डीवधन्वना ॥ २३ ॥
आनीय मधुपर्कं मां यत् पुरा त्वमवोचथाः।
एष भ्राता सखा चैव तव कृष्ण धनंजयः ॥ २४ ॥
रक्षितव्यो महाबाहो सर्वास्वापत्स्विति प्रभो।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतनन्दन! अब आगे समयानुसार जो कार्य प्राप्त हो उसे शीघ्र कर डालिये। पहले गाण्डीवधारी अर्जुनके साथ जब मैं उपलव्य नगरमें आया था, उस समय मेरे लिये मधुपर्क अर्पित करके आपने मुझसे यह बात कही थी कि ‘श्रीकृष्ण! यह अर्जुन तुम्हारा भाई और सखा है। प्रभो! महाबाहो! तुम्हें इसकी सब आपत्तियोंसे रक्षा करनी चाहिये’॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव चैव ब्रुवाणस्य तथेत्येवाहमब्रुवम् ॥ २५ ॥
स सव्यसाची गुप्तस्ते विजयी च जनेश्वर।
भ्रातृभिः सह राजेन्द्र शूरः सत्यपराक्रमः ॥ २६ ॥
मुक्तो वीरक्षयादस्मात् संग्रामाल्लोमहर्षणात् ।
मूलम्
तव चैव ब्रुवाणस्य तथेत्येवाहमब्रुवम् ॥ २५ ॥
स सव्यसाची गुप्तस्ते विजयी च जनेश्वर।
भ्रातृभिः सह राजेन्द्र शूरः सत्यपराक्रमः ॥ २६ ॥
मुक्तो वीरक्षयादस्मात् संग्रामाल्लोमहर्षणात् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपने जब ऐसा कहा, तब मैंने ‘तथास्तु’ कहकर वह आज्ञा स्वीकार कर ली थी। जनेश्वर! राजेन्द्र! आपका वह शूरवीर, सत्यपराक्रमी भाई सव्यसाची अर्जुन मेरे द्वारा सुरक्षित रहकर विजयी हुआ है तथा वीरोंका विनाश करनेवाले इस रोमांचकारी संग्रामसे भाइयोंसहित जीवित बच गया है’॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु कृष्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ २७ ॥
हृष्टरोमा महाराज प्रत्युवाच जनार्दनम्।
मूलम्
एवमुक्तस्तु कृष्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ २७ ॥
हृष्टरोमा महाराज प्रत्युवाच जनार्दनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर धर्मराज युधिष्ठिरके शरीरमें रोमांच हो आया। वे उनसे इस प्रकार बोले॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमुक्तं द्रोणकर्णाभ्यां ब्रह्मास्त्रमरिमर्दन ॥ २८ ॥
कस्त्वदन्यः सहेत् साक्षादपि वज्री पुरंदरः।
मूलम्
प्रमुक्तं द्रोणकर्णाभ्यां ब्रह्मास्त्रमरिमर्दन ॥ २८ ॥
कस्त्वदन्यः सहेत् साक्षादपि वज्री पुरंदरः।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— शत्रुमर्दन श्रीकृष्ण! द्रोणाचार्य और कर्णने जिस ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया था, उसे आपके सिवा दूसरा कौन सह सकता था। साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी उसका आघात नहीं सह सकते थे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवतस्तु प्रसादेन संशप्तकगणा जिताः ॥ २९ ॥
महारणगतः पार्थो यच्च नासीत् पराङ्मुखः।
मूलम्
भवतस्तु प्रसादेन संशप्तकगणा जिताः ॥ २९ ॥
महारणगतः पार्थो यच्च नासीत् पराङ्मुखः।
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी ही कृपासे संशप्तकगण परास्त हुए हैं और कुन्तीकुमार अर्जुनने उस महासमरमें जो कभी पीठ नहीं दिखायी है, वह भी आपके ही अनुग्रहका फल है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव च महाबाहो पर्यायैर्बहुभिर्मया ॥ ३० ॥
कर्मणामनुसंतानं तेजसश्च गतीः शुभाः।
मूलम्
तथैव च महाबाहो पर्यायैर्बहुभिर्मया ॥ ३० ॥
कर्मणामनुसंतानं तेजसश्च गतीः शुभाः।
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! आपके द्वारा अनेकों बार हमारे कार्योंकी सिद्धि हुई है और हमें तेजके शुभ परिणाम प्राप्त हुए हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपप्लव्ये महर्षिर्मे कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ ३१ ॥
यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः।
मूलम्
उपप्लव्ये महर्षिर्मे कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ ३१ ॥
यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः।
अनुवाद (हिन्दी)
उपप्लव्य नगरमें महर्षि द्वैपायनने मुझसे कहा था कि ‘जहाँ धर्म है, वहाँ श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है’॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्ते ते वीराः शिबिरं तव भारत ॥ ३२ ॥
प्रविश्य प्रत्यपद्यन्त कोशरत्नर्धिसंचयान् ।
मूलम्
इत्येवमुक्ते ते वीराः शिबिरं तव भारत ॥ ३२ ॥
प्रविश्य प्रत्यपद्यन्त कोशरत्नर्धिसंचयान् ।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर पाण्डव वीरोंने आपके शिबिरमें प्रवेश करके खजाना, रत्नोंकी ढेरी तथा भण्डारघरपर अधिकार कर लिया॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजतं जातरूपं च मणीनथ च मौक्तिकान् ॥ ३३ ॥
भूषणान्यथ मुख्यानि कम्बलान्यजिनानि च।
दासीदासमसंख्येयं राज्योपकरणानि च ॥ ३४ ॥
मूलम्
रजतं जातरूपं च मणीनथ च मौक्तिकान् ॥ ३३ ॥
भूषणान्यथ मुख्यानि कम्बलान्यजिनानि च।
दासीदासमसंख्येयं राज्योपकरणानि च ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाँदी, सोना, मोती, मणि, अच्छे-अच्छे आभूषण, कम्बल (कालीन), मृगचर्म, असंख्य दास-दासी तथा राज्यके बहुत-से सामान उनके हाथ लगे॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते प्राप्य धनमक्षय्यं त्वदीयं भरतर्षभ।
उदक्रोशन्महाभागा नरेन्द्र विजितारयः ॥ ३५ ॥
मूलम्
ते प्राप्य धनमक्षय्यं त्वदीयं भरतर्षभ।
उदक्रोशन्महाभागा नरेन्द्र विजितारयः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! नरेश्वर! आपके धनका अक्षय भण्डार पाकर शत्रुविजयी महाभाग पाण्डव जोर-जोरसे हर्षध्वनि करने लगे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तु वीराः समाश्वस्य वाहनान्यवमुच्य च।
अतिष्ठन्त मुहुः सर्वे पाण्डवाः सात्यकिस्तथा ॥ ३६ ॥
मूलम्
ते तु वीराः समाश्वस्य वाहनान्यवमुच्य च।
अतिष्ठन्त मुहुः सर्वे पाण्डवाः सात्यकिस्तथा ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सारे वीर अपने वाहनोंको खोलकर वहीं विश्राम करने लगे। समस्त पाण्डव और सात्यकि वहाँ एक साथ बैठे हुए थे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाब्रवीन्महाराज वासुदेवो महायशाः ।
अस्माभिर्मङ्गलार्थाय वस्तव्यं शिबिराद् बहिः ॥ ३७ ॥
मूलम्
अथाब्रवीन्महाराज वासुदेवो महायशाः ।
अस्माभिर्मङ्गलार्थाय वस्तव्यं शिबिराद् बहिः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर महायशस्वी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण-ने कहा—‘आजकी रातमें हमलोगोंको अपने मंगलके लिये शिविरसे बाहर ही रहना चाहिये’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्त्वा हि ते सर्वे पाण्डवाः सात्यकिस्तथा।
वासुदेवेन सहिता मङ्गलार्थं बहिर्ययुः ॥ ३८ ॥
मूलम्
तथेत्युक्त्वा हि ते सर्वे पाण्डवाः सात्यकिस्तथा।
वासुदेवेन सहिता मङ्गलार्थं बहिर्ययुः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर समस्त पाण्डव और सात्यकि श्रीकृष्णके साथ अपने मंगलके लिये छावनीसे बाहर चले गये॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते समासाद्य सरितं पुण्यामोघवतीं नृप।
न्यवसन्नथ तां रात्रिं पाण्डवा हतशत्रवः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ते समासाद्य सरितं पुण्यामोघवतीं नृप।
न्यवसन्नथ तां रात्रिं पाण्डवा हतशत्रवः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जिनके शत्रु मारे गये थे, उन पाण्डवोंने उस रातमें पुण्यसलिला ओघवती नदीके तटपर जाकर निवास किया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्ततो राजा प्राप्तकालमचिन्तयत् ।
तत्र ते गमनं प्राप्तं रोचते तव माधव ॥ ४० ॥
गान्धार्याः क्रोधदीप्तायाः प्रशमार्थमरिंदम ।
मूलम्
युधिष्ठिरस्ततो राजा प्राप्तकालमचिन्तयत् ।
तत्र ते गमनं प्राप्तं रोचते तव माधव ॥ ४० ॥
गान्धार्याः क्रोधदीप्तायाः प्रशमार्थमरिंदम ।
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजा युधिष्ठिरने वहाँ समयोचित कार्यका विचार किया और कहा—‘शत्रुदमन माधव! एक बार क्रोधसे जलती हुई गान्धारी देवीको शान्त करनेके लिये आपका हस्तिनापुरमें जाना उचित जान पड़ता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हेतुकारणयुक्तैश्च वाक्यैः कालसमीरितैः ॥ ४१ ॥
क्षिप्रमेव महाभाग गान्धारीं प्रशमिष्यसि।
पितामहश्च भगवान् व्यासस्तत्र भविष्यति ॥ ४२ ॥
मूलम्
हेतुकारणयुक्तैश्च वाक्यैः कालसमीरितैः ॥ ४१ ॥
क्षिप्रमेव महाभाग गान्धारीं प्रशमिष्यसि।
पितामहश्च भगवान् व्यासस्तत्र भविष्यति ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाभाग! आप युक्ति और कारणोंसहित समयोचित बातें कहकर गान्धारी देवीको शीघ्र ही शान्त कर सकेंगे। हमारे पितामह भगवान् व्यास भी इस समय वहीं होंगे’॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सम्प्रेषयामासुर्यादवं नागसाह्वयम् ।
स च प्रायाज्जवेनाशु वासुदेवः प्रतापवान् ॥ ४३ ॥
दारुकं रथमारोप्य येन राजाम्बिकासुतः।
मूलम्
ततः सम्प्रेषयामासुर्यादवं नागसाह्वयम् ।
स च प्रायाज्जवेनाशु वासुदेवः प्रतापवान् ॥ ४३ ॥
दारुकं रथमारोप्य येन राजाम्बिकासुतः।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर पाण्डवोंने यदुकुलतिलक भगवान् श्रीकृष्णको हस्तिनापुर भेजा। प्रतापी वासुदेव दारुकको रथपर बिठाकर स्वयं भी बैठे और जहाँ अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र थे, वहाँ पहुँचनेके लिये बड़े वेगसे चले॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमूचुः सम्प्रयास्यन्तं शैब्यसुग्रीववाहनम् ॥ ४४ ॥
प्रत्याश्वासय गान्धारीं हतपुत्रां यशस्विनीम्।
मूलम्
तमूचुः सम्प्रयास्यन्तं शैब्यसुग्रीववाहनम् ॥ ४४ ॥
प्रत्याश्वासय गान्धारीं हतपुत्रां यशस्विनीम्।
अनुवाद (हिन्दी)
शैब्य और सुग्रीव नामक अश्व जिनके वाहन हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णके जाते समय पाण्डवोंने फिर उनसे कहा—‘प्रभो! यशस्विनी गान्धारी देवीके पुत्र मारे गये हैं; अतः आप उस दुःखिया माताको धीरज बँधावें’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स प्रायात् पाण्डवैरुक्तस्तत् पुरं सात्वतां वरः।
आससाद ततः क्षिप्रं गान्धारीं निहतात्मजाम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
स प्रायात् पाण्डवैरुक्तस्तत् पुरं सात्वतां वरः।
आससाद ततः क्षिप्रं गान्धारीं निहतात्मजाम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंके ऐसा कहनेपर सात्वतवंशके श्रेष्ठ पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण जिनके पुत्र मारे गये थे, उन गान्धारी देवीके पास हस्तिनापुरमें शीघ्र जा पहुँचे॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि वासुदेवप्रेषणे द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें पाण्डवोंका भगवान् श्रीकृष्णको हस्तिनापुर भेजनाविषयक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६२॥