०६१ कृष्णपाण्डवदुर्योधनसंवादे

भागसूचना

एकषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डव-सैनिकोंद्वारा भीमकी स्तुति, श्रीकृष्णका दुर्योधनपर आक्षेप, दुर्योधनका उत्तर तथा श्रीकृष्णके द्वारा पाण्डवोंका समाधान एवं शंखध्वनि

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतं दुर्योधनं दृष्ट‌्वा भीमसेनेन संयुगे।
पाण्डवाः सृञ्जयाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ १ ॥

मूलम्

हतं दुर्योधनं दृष्ट‌्वा भीमसेनेन संयुगे।
पाण्डवाः सृञ्जयाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! रणभूमिमें भीमसेनके द्वारा दुर्योधनको मारा गया देख पाण्डवों तथा सृंजयोंने क्या किया?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतं दुर्योधनं दृष्ट्वा भीमसेनेन संयुगे।
सिंहेनेव महाराज मत्तं वनगजं यथा ॥ २ ॥
प्रहृष्टमनसस्तत्र कृष्णेन सह पाण्डवाः।

मूलम्

हतं दुर्योधनं दृष्ट्वा भीमसेनेन संयुगे।
सिंहेनेव महाराज मत्तं वनगजं यथा ॥ २ ॥
प्रहृष्टमनसस्तत्र कृष्णेन सह पाण्डवाः।

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— महाराज! जैसे कोई मतवाला जंगली हाथी सिंहके द्वारा मारा गया हो, उसी प्रकार दुर्योधनको भीमसेनके हाथसे रणभूमिमें मारा गया देख श्रीकृष्णसहित पाण्डव मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चाला सृञ्जयाश्चैव निहते कुरुनन्दने ॥ ३ ॥
आविद्ध्यन्नुत्तरीयाणि सिंहनादांश्च नेदिरे ।
नैतान् हर्षसमाविष्टानियं सेहे वसुन्धरा ॥ ४ ॥

मूलम्

पञ्चाला सृञ्जयाश्चैव निहते कुरुनन्दने ॥ ३ ॥
आविद्ध्यन्नुत्तरीयाणि सिंहनादांश्च नेदिरे ।
नैतान् हर्षसमाविष्टानियं सेहे वसुन्धरा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन दुर्योधनके मारे जानेपर पांचाल और सृंजय तो अपने दुपट्टे उछालने और सिंहनाद करने लगे। हर्षमें भरे हुए इन पाण्डववीरोंका भार यह पृथ्वी सहन नहीं कर पाती थी॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनूंष्यन्ये व्याक्षिपन्त ज्याश्चाप्यन्ये तथाक्षिपन्।
दध्मुरन्ये महाशङ्खानन्ये जघ्नुश्च दुन्दुभीन् ॥ ५ ॥

मूलम्

धनूंष्यन्ये व्याक्षिपन्त ज्याश्चाप्यन्ये तथाक्षिपन्।
दध्मुरन्ये महाशङ्खानन्ये जघ्नुश्च दुन्दुभीन् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीने धनुष टंकारा, किसीने प्रत्यंचा खींची, कुछ लोग बड़े-बड़े शंख बजाने लगे और दूसरे बहुत-से सैनिक डंके पीटने लगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिक्रीडुश्च तथैवान्ये जहसुश्च तवाहिताः।
अब्रुवंश्चासकृद् वीरा भीमसेनमिदं वचः ॥ ६ ॥

मूलम्

चिक्रीडुश्च तथैवान्ये जहसुश्च तवाहिताः।
अब्रुवंश्चासकृद् वीरा भीमसेनमिदं वचः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके बहुत-से शत्रु भाँति-भाँतिके खेल खेलने और हास-परिहास करने लगे। कितने ही वीर भीमसेनके पास जाकर इस प्रकार कहने लगे—॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्करं भवता कर्म रणेऽद्य सुमहत् कृतम्।
कौरवेन्द्रं रणे हत्वा गदयातिकृतश्रमम् ॥ ७ ॥

मूलम्

दुष्करं भवता कर्म रणेऽद्य सुमहत् कृतम्।
कौरवेन्द्रं रणे हत्वा गदयातिकृतश्रमम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवराज दुर्योधनने गदायुद्धमें बड़ा भारी परिश्रम किया था। आज रणभूमिमें उसका वध करके आपने महान् एवं दुष्कर पराक्रम कर दिखाया है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रेणेव हि वृत्रस्य वधं परमसंयुगे।
त्वया कृतममन्यन्त शत्रोर्वधमिमं जनाः ॥ ८ ॥

मूलम्

इन्द्रेणेव हि वृत्रस्य वधं परमसंयुगे।
त्वया कृतममन्यन्त शत्रोर्वधमिमं जनाः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे महासमरमें इन्द्रने वृत्रासुरका वध किया था, आपके द्वारा किया हुआ यह शत्रुका संहार भी उसी कोटिका है—ऐसा सब लोग समझने लगे हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन्तं विविधान् मार्गान् मण्डलानि च सर्वशः।
दुर्योधनमिमं शूरं कोऽन्यो हन्याद् वृकोदरात् ॥ ९ ॥

मूलम्

चरन्तं विविधान् मार्गान् मण्डलानि च सर्वशः।
दुर्योधनमिमं शूरं कोऽन्यो हन्याद् वृकोदरात् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भला, नाना प्रकारके पैंतरे बदलते और सब तरहकी मण्डलाकार गतियोंसे चलते हुए इस शूरवीर दुर्योधनको भीमसेनके सिवा दूसरा कौन मार सकता था?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैरस्य च गतः पारं त्वमिहान्यैः सुदुर्गमम्।
अशक्यमेतदन्येन सम्पादयितुमीदृशम् ॥ १० ॥

मूलम्

वैरस्य च गतः पारं त्वमिहान्यैः सुदुर्गमम्।
अशक्यमेतदन्येन सम्पादयितुमीदृशम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप वैरके समुद्रसे पार हो गये, जहाँ पहुँचना दूसरे लोगोंके लिये अत्यन्त कठिन है। दूसरे किसीके लिये ऐसा पराक्रम कर दिखाना सर्वथा असम्भव है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुञ्जरेणेव मत्तेन वीर संग्राममूर्धनि।
दुर्योधनशिरो दिष्ट‌्या पादेन मृदितं त्वया ॥ ११ ॥

मूलम्

कुञ्जरेणेव मत्तेन वीर संग्राममूर्धनि।
दुर्योधनशिरो दिष्ट‌्या पादेन मृदितं त्वया ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! मतवाले गजराजकी भाँति आपने युद्धके मुहानेपर अपने पैरसे दुर्योधनके मस्तकको कुचल दिया है, यह बड़े सौभाग्यकी बात है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहेन महिषस्येव कृत्वा सङ्गरमुत्तमम्।
दुःशासनस्य रुधिरं दिष्ट्‌या पीतं त्वयानघ ॥ १२ ॥

मूलम्

सिंहेन महिषस्येव कृत्वा सङ्गरमुत्तमम्।
दुःशासनस्य रुधिरं दिष्ट्‌या पीतं त्वयानघ ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अनघ! जैसे सिंहने भैंसेका खून पी लिया हो, उसी प्रकार आपने महान् युद्ध ठानकर दुःशासनके रक्तका पान किया है, यह भी सौभाग्यकी ही बात है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये विप्रकुर्वन् राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
मूर्ध्नि तेषां कृतः पादो दिष्ट्‌या ते स्वेन कर्मणा॥१३॥

मूलम्

ये विप्रकुर्वन् राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
मूर्ध्नि तेषां कृतः पादो दिष्ट्‌या ते स्वेन कर्मणा॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिन लोगोंने धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरका अपराध किया था, उन सबके मस्तकपर आपने अपने पराक्रमद्वारा पैर रख दिया, यह कितने हर्षका विषय है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमित्राणामधिष्ठानाद् वधाद् दुर्योधनस्य च।
भीम दिष्ट्‌या पृथिव्यां ते प्रथितं सुमहद् यशः ॥ १४ ॥

मूलम्

अमित्राणामधिष्ठानाद् वधाद् दुर्योधनस्य च।
भीम दिष्ट्‌या पृथिव्यां ते प्रथितं सुमहद् यशः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीम! शत्रुओंपर अपना प्रभुत्व स्थापित करने और दुर्योधनको मार डालनेसे भाग्यवश इस भूमण्डलमें आपका महान् यश फैल गया है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं नूनं हते वृत्रे शक्रं नन्दन्ति वन्दिनः।
तथा त्वां निहतामित्रं वयं नन्दाम भारत ॥ १५ ॥

मूलम्

एवं नूनं हते वृत्रे शक्रं नन्दन्ति वन्दिनः।
तथा त्वां निहतामित्रं वयं नन्दाम भारत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! निश्चय ही वृत्रासुरके मारे जानेपर वन्दीजनोंने जिस प्रकार इन्द्रका अभिनन्दन किया था, उसी प्रकार हम शत्रुओंका वध करनेवाले आपका अभिनन्दन करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनवधे यानि रोमाणि हृषितानि नः।
अद्यापि न विकृष्यन्ते तानि तद् विद्धि भारत ॥ १६ ॥

मूलम्

दुर्योधनवधे यानि रोमाणि हृषितानि नः।
अद्यापि न विकृष्यन्ते तानि तद् विद्धि भारत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! दुर्योधनके वधके समय हमारे शरीरमें जो रोंगटे खड़े हुए थे, वे अब भी ज्यों-के-त्यों हैं, गिर नहीं रहे हैं। इन्हें आप देख लें’॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यब्रुवन् भीमसेनं वातिकास्तत्र सङ्गताः।
तान् हृष्टान् पुरुषव्याघ्रान्‌ पञ्चालान् पाण्डवैः सह ॥ १७ ॥
ब्रुवतोऽसदृशं तत्र प्रोवाच मधुसूदनः।

मूलम्

इत्यब्रुवन् भीमसेनं वातिकास्तत्र सङ्गताः।
तान् हृष्टान् पुरुषव्याघ्रान्‌ पञ्चालान् पाण्डवैः सह ॥ १७ ॥
ब्रुवतोऽसदृशं तत्र प्रोवाच मधुसूदनः।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रशंसा करनेवाले वीरगण वहाँ एकत्र होकर भीमसेनसे उपर्युक्त बातें कह रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने जब देखा कि पुरुषसिंह पांचाल और पाण्डव अयोग्य बातें कह रहे हैं, तब वे वहाँ उन सबसे बोले—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न न्याय्यं निहतं शत्रुं भूयो हन्तुं नराधिपाः ॥ १८ ॥
असकृद् वाग्भिरुग्राभिर्निहतो ह्येष मन्दधीः।

मूलम्

न न्याय्यं निहतं शत्रुं भूयो हन्तुं नराधिपाः ॥ १८ ॥
असकृद् वाग्भिरुग्राभिर्निहतो ह्येष मन्दधीः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वरो! मरे हुए शत्रुको पुनः मारना उचित नहीं है। तुमलोगोंने इस मन्दबुद्धि दुर्योधनको बारंबार कठोर वचनोंद्वारा घायल किया है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदैवैष हतः पापो यदैव निरपत्रपः ॥ १९ ॥
लुब्धः पापसहायश्च सुहृदां शासनातिगः।

मूलम्

तदैवैष हतः पापो यदैव निरपत्रपः ॥ १९ ॥
लुब्धः पापसहायश्च सुहृदां शासनातिगः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह निर्लज्ज पापी तो उसी समय मर चुका था जब लोभमें फँसा और पापियोंको अपना सहायक बनाकर सुहृदोंके शासनसे दूर रहने लगा॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुशो विदुरद्रोणकृपगाङ्गेयसृञ्जयैः ॥ २० ॥
पाण्डुभ्यः प्रार्थ्यमानोऽपि पित्र्यमंशं न दत्तवान्।

मूलम्

बहुशो विदुरद्रोणकृपगाङ्गेयसृञ्जयैः ॥ २० ॥
पाण्डुभ्यः प्रार्थ्यमानोऽपि पित्र्यमंशं न दत्तवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म तथा सृंजयोंके बारंबार प्रार्थना करनेपर भी इसने पाण्डवोंको उनका पैतृक भाग नहीं दिया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैष योग्योऽद्य मित्रं वा शत्रुर्वा पुरुषाधमः ॥ २१ ॥
किमनेनातिभुग्नेन वाग्भिः काष्ठसधर्मणा ।
रथेष्वारोहत क्षिप्रं गच्छामो वसुधाधिपाः ॥ २२ ॥
दिष्ट्‌या हतोऽयं पापात्मा सामात्यज्ञातिबान्धवः।

मूलम्

नैष योग्योऽद्य मित्रं वा शत्रुर्वा पुरुषाधमः ॥ २१ ॥
किमनेनातिभुग्नेन वाग्भिः काष्ठसधर्मणा ।
रथेष्वारोहत क्षिप्रं गच्छामो वसुधाधिपाः ॥ २२ ॥
दिष्ट्‌या हतोऽयं पापात्मा सामात्यज्ञातिबान्धवः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह नराधम अब किसी योग्य नहीं है। न यह किसीका मित्र है और न शत्रु। राजाओ! यह तो सूखे काठके समान कठोर है। इसे कटुवचनोंद्वारा अधिक झुकानेकी चेष्टा करनेसे क्या लाभ? अब शीघ्र अपने रथोंपर बैठो। हम सब लोग छावनीकी ओर चलें। सौभाग्यसे यह पापात्मा अपने मन्त्री, कुटुम्ब और भाई-बन्धुओंसहित मार डाला गया’॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति श्रुत्वा त्वधिक्षेपं कृष्णाद् दुर्योधनो नृपः ॥ २३ ॥
अमर्षवशमापन्न उदतिष्ठद् विशाम्पते ।
स्फिग्देशेनोपविष्टः स दोर्भ्यां विष्टभ्य मेदिनीम् ॥ २४ ॥

मूलम्

इति श्रुत्वा त्वधिक्षेपं कृष्णाद् दुर्योधनो नृपः ॥ २३ ॥
अमर्षवशमापन्न उदतिष्ठद् विशाम्पते ।
स्फिग्देशेनोपविष्टः स दोर्भ्यां विष्टभ्य मेदिनीम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! श्रीकृष्णके मुखसे यह आक्षेपयुक्त वचन सुन राजा दुर्योधन अमर्षके वशीभूत होकर उठा और दोनों हाथ पृथ्वीपर टेककर चूतड़के सहारे बैठ गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टिं भ्रूसङ्कटां कृत्वा वासुदेवे न्यपातयत्।
अर्धोन्नतशरीरस्य रूपमासीन्नृपस्य तु ॥ २५ ॥
क्रुद्धस्याशीविषस्येव च्छिन्नपुच्छस्य भारत ।

मूलम्

दृष्टिं भ्रूसङ्कटां कृत्वा वासुदेवे न्यपातयत्।
अर्धोन्नतशरीरस्य रूपमासीन्नृपस्य तु ॥ २५ ॥
क्रुद्धस्याशीविषस्येव च्छिन्नपुच्छस्य भारत ।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उसने श्रीकृष्णकी ओर भौंहें टेढ़ी करके देखा, उसका आधा शरीर उठा हुआ था। उस समय राजा दुर्योधनका रूप उस कुपित विषधरके समान जान पड़ता था, जो पूँछ कट जानेके कारण अपने आधे शरीरको ही उठाकर देख रहा हो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणान्तकरिणीं घोरां वेदनामप्यचिन्तयन् ॥ २६ ॥
दुर्योधनो वासुदेवं वाग्भिरुग्राभिरार्दयत् ।

मूलम्

प्राणान्तकरिणीं घोरां वेदनामप्यचिन्तयन् ॥ २६ ॥
दुर्योधनो वासुदेवं वाग्भिरुग्राभिरार्दयत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उसे प्राणोंका अन्त कर देनेवाली भयंकर वेदना हो रही थी, तो भी उसकी चिन्ता न करते हुए दुर्योधनने अपने कठोर वचनोंद्वारा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णको पीड़ा देना प्रारम्भ किया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसदासस्य दायाद न ते लज्जास्त्यनेन वै ॥ २७ ॥
अधर्मेण गदायुद्धे यदहं विनिपातितः।

मूलम्

कंसदासस्य दायाद न ते लज्जास्त्यनेन वै ॥ २७ ॥
अधर्मेण गदायुद्धे यदहं विनिपातितः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ओ कंसके दासके बेटे! मैं जो गदायुद्धमें अधर्मसे मारा गया हूँ, इस कुकृत्यके कारण क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती है?॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊरू भिन्धीति भीमस्य स्मृतिं मिथ्या प्रयच्छता ॥ २८ ॥
किं न विज्ञातमेतन्मे यदर्जुनमवोचथाः।

मूलम्

ऊरू भिन्धीति भीमस्य स्मृतिं मिथ्या प्रयच्छता ॥ २८ ॥
किं न विज्ञातमेतन्मे यदर्जुनमवोचथाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीमसेनको मेरी जाँघें तोड़ डालनेका मिथ्या स्मरण दिलाते हुए तुमने अर्जुनसे जो कुछ कहा था, क्या वह मुझे ज्ञात नहीं है?॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घातयित्वा महीपालानृजुयुद्धान् सहस्रशः ॥ २९ ॥
जिह्मैरुपायैर्बहुभिर्न ते लज्जा न ते घृणा।

मूलम्

घातयित्वा महीपालानृजुयुद्धान् सहस्रशः ॥ २९ ॥
जिह्मैरुपायैर्बहुभिर्न ते लज्जा न ते घृणा।

अनुवाद (हिन्दी)

‘सरलतासे धर्मानुकूल युद्ध करनेवाले सहस्रों भूमिपालोंको बहुत-से कुटिल उपायोंद्वारा मरवाकर न तुम्हें लज्जा आती है और न इस बुरे कर्मसे घृणा ही होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहन्यहनि शूराणां कुर्वाणः कदनं महत् ॥ ३० ॥
शिखण्डिनं पुरस्कृत्य घातितस्ते पितामहः।

मूलम्

अहन्यहनि शूराणां कुर्वाणः कदनं महत् ॥ ३० ॥
शिखण्डिनं पुरस्कृत्य घातितस्ते पितामहः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो प्रतिदिन शूरवीरोंका भारी संहार मचा रहे थे, उन पितामह भीष्मका तुमने शिखण्डीको आगे रखकर वध कराया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वत्थाम्नः सनामानं हत्वा नागं सुदुर्मते ॥ ३१ ॥
आचार्यो न्यासितः शस्त्रं किं तन्न विदितं मया।

मूलम्

अश्वत्थाम्नः सनामानं हत्वा नागं सुदुर्मते ॥ ३१ ॥
आचार्यो न्यासितः शस्त्रं किं तन्न विदितं मया।

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्मते! अश्वत्थामाके सदृश नामवाले एक हाथीको मारकर तुमलोगोंने द्रोणाचार्यके हाथसे शस्त्र नीचे डलवा दिया था, क्या वह मुझे ज्ञात नहीं है?॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चानेन नृशंसेन धृष्टद्युम्नेन वीर्यवान् ॥ ३२ ॥
पात्यमानस्त्वया दृष्टो न चैनं त्वमवारयः।

मूलम्

स चानेन नृशंसेन धृष्टद्युम्नेन वीर्यवान् ॥ ३२ ॥
पात्यमानस्त्वया दृष्टो न चैनं त्वमवारयः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस नृशंस धृष्टद्युम्नने पराक्रमी आचार्यको उस अवस्थामें मार गिराया, जिसे तुमने अपनी आँखों देखा; किंतु मना नहीं किया॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधार्थं पाण्डुपुत्रस्य याचितां शक्तिमेव च ॥ ३३ ॥
घटोत्कचे व्यंसयतः कस्त्वत्तः पापकृत्तमः।

मूलम्

वधार्थं पाण्डुपुत्रस्य याचितां शक्तिमेव च ॥ ३३ ॥
घटोत्कचे व्यंसयतः कस्त्वत्तः पापकृत्तमः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुपुत्र अर्जुनके वधके लिये माँगी हुई इन्द्रकी शक्तिको तुमने घटोत्कचपर छुड़वा दिया। तुमसे बढ़कर महापापी कौन हो सकता है?॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिन्नहस्तः प्रायगतस्तथा भूरिश्रवा बली ॥ ३४ ॥
त्वयाभिसृष्टेन हतः शैनेयेन महात्मना।

मूलम्

छिन्नहस्तः प्रायगतस्तथा भूरिश्रवा बली ॥ ३४ ॥
त्वयाभिसृष्टेन हतः शैनेयेन महात्मना।

अनुवाद (हिन्दी)

‘बलवान् भूरिश्रवाका हाथ कट गया था और वे आमरण अनशनका व्रत लेकर बैठे हुए थे। उस दशामें तुमसे ही प्रेरित होकर महामना सात्यकिने उनका वध किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्वाणश्चोत्तमं कर्म कर्णः पार्थजिगीषया ॥ ३५ ॥
व्यंसनेनाश्वसेनस्य पन्नगेन्द्रस्य वै पुनः।
पुनश्च पतिते चक्रे व्यसनार्तः पराजितः ॥ ३६ ॥
पातितः समरे कर्णश्चक्रव्यग्रोऽग्रणीर्नृणाम् ।

मूलम्

कुर्वाणश्चोत्तमं कर्म कर्णः पार्थजिगीषया ॥ ३५ ॥
व्यंसनेनाश्वसेनस्य पन्नगेन्द्रस्य वै पुनः।
पुनश्च पतिते चक्रे व्यसनार्तः पराजितः ॥ ३६ ॥
पातितः समरे कर्णश्चक्रव्यग्रोऽग्रणीर्नृणाम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्योंमें अग्रगण्य कर्ण अर्जुनको जीतनेकी इच्छासे उत्तम पराक्रम कर रहा था। उस समय नागराज अश्वसेनको जो कर्णके बाणके साथ अर्जुनके वधके लिये जा रहा था, तुमने अपने प्रयत्नसे विफल कर दिया। फिर जब कर्णके रथका पहिया गड्ढेमें गिर गया और वह उसे उठानेमें व्यग्रतापूर्वक संलग्न हुआ, उस समय उसे संकटसे पीड़ित एवं पराजित जानकर तुमलोगोंने मार गिराया॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि मां चापि कर्णं च भीष्मद्रोणौ च संयुतौ॥३७॥
ऋजुना प्रतियुध्येथा न ते स्याद् विजयो ध्रुवम्।

मूलम्

यदि मां चापि कर्णं च भीष्मद्रोणौ च संयुतौ॥३७॥
ऋजुना प्रतियुध्येथा न ते स्याद् विजयो ध्रुवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मेरे, कर्णके तथा भीष्म और द्रोणाचार्यके साथ मायारहित सरलभावसे तुम युद्ध करते तो निश्चय ही तुम्हारे पक्षकी विजय नहीं होती॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया पुनरनार्येण जिह्ममार्गेण पार्थिवाः ॥ ३८ ॥
स्वधर्ममनुतिष्ठन्तो वयं चान्ये च घातिताः।

मूलम्

त्वया पुनरनार्येण जिह्ममार्गेण पार्थिवाः ॥ ३८ ॥
स्वधर्ममनुतिष्ठन्तो वयं चान्ये च घातिताः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु तुम-जैसे अनार्यने कुटिल मार्गका आश्रय लेकर स्वधर्म-पालनमें लगे हुए हमलोगोंका तथा दूसरे राजाओंका भी वध करवाया है’॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतस्त्वमसि गान्धारे सभ्रातृसुतबान्धवः ॥ ३९ ॥
सगणः ससुहृच्चैव पापं मार्गमनुष्ठितः।
तवैव दुष्कृतैर्वीरौ भीष्मद्रोणौ निपातितौ ॥ ४० ॥
कर्णश्च निहतः संख्ये तव शीलानुवर्तकः।

मूलम्

हतस्त्वमसि गान्धारे सभ्रातृसुतबान्धवः ॥ ३९ ॥
सगणः ससुहृच्चैव पापं मार्गमनुष्ठितः।
तवैव दुष्कृतैर्वीरौ भीष्मद्रोणौ निपातितौ ॥ ४० ॥
कर्णश्च निहतः संख्ये तव शीलानुवर्तकः।

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण बोले— गान्धारीनन्दन! तुमने पापके रास्तेपर पैर रखा था; इसीलिये तुम भाई, पुत्र, बान्धव, सेवक और सुहृद्‌गणोंसहित मारे गये हो। वीर भीष्म और द्रोणाचार्य तुम्हारे दुष्कर्मोंसे ही मारे गये हैं। कर्ण भी तुम्हारे स्वभावका ही अनुसरण करनेवाला था; इसलिये युद्धमें मारा गया॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याच्यमानं मया मूढ पित्र्यमंशं न दित्ससि ॥ ४१ ॥
पाण्डवेभ्यः स्वराज्यं च लोभाच्छकुनिनिश्चयात्।

मूलम्

याच्यमानं मया मूढ पित्र्यमंशं न दित्ससि ॥ ४१ ॥
पाण्डवेभ्यः स्वराज्यं च लोभाच्छकुनिनिश्चयात्।

अनुवाद (हिन्दी)

ओ मूर्ख! तुम शकुनिकी सलाह मानकर मेरे माँगनेपर भी पाण्डवोंको उनकी पैतृक सम्पत्ति, उनका अपना राज्य लोभवश नहीं देना चाहते थे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषं ते भीमसेनाय दत्तं सर्वे च पाण्डवाः ॥ ४२ ॥
प्रदीपिता जतुगृहे मात्रा सह सुदुर्मते।
सभायां याज्ञसेनी च कृष्टा द्यूते रजस्वला ॥ ४३ ॥
तदैव तावद् दुष्टात्मन् वध्यस्त्वं निरपत्रप।

मूलम्

विषं ते भीमसेनाय दत्तं सर्वे च पाण्डवाः ॥ ४२ ॥
प्रदीपिता जतुगृहे मात्रा सह सुदुर्मते।
सभायां याज्ञसेनी च कृष्टा द्यूते रजस्वला ॥ ४३ ॥
तदैव तावद् दुष्टात्मन् वध्यस्त्वं निरपत्रप।

अनुवाद (हिन्दी)

सुदुर्मते! तुमने जब भीमसेनको विष दिया, समस्त पाण्डवोंको उनकी माताके साथ लाक्षागृहमें जला डालनेका प्रयत्न किया और निर्लज्ज! दुष्टात्मन्! द्यूतक्रीड़ाके समय भरी सभामें रजस्वला द्रौपदीको जब तुमलोग घसीट लाये, तभी तुम वधके योग्य हो गये थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनक्षज्ञं च धर्मज्ञं सौबलेनाक्षवेदिना ॥ ४४ ॥
निकृत्या यत् पराजैषीस्तस्मादसि हतो रणे।

मूलम्

अनक्षज्ञं च धर्मज्ञं सौबलेनाक्षवेदिना ॥ ४४ ॥
निकृत्या यत् पराजैषीस्तस्मादसि हतो रणे।

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने द्यूतक्रीड़ाके जानकार सुबलपुत्र शकुनिके द्वारा उस कलाको न जाननेवाले धर्मज्ञ युधिष्ठिरको, जो छलसे पराजित किया था, उसी पापसे तुम रणभूमिमें मारे गये हो॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयद्रथेन पापेन यत् कृष्णा क्लेशिता वने ॥ ४५ ॥
यातेषु मृगयां चैव तृणबिन्दोरथाश्रमम्।
अभिमन्युश्च यद् बाल एको बहुभिराहवे ॥ ४६ ॥
त्वद्दोषैर्निहतः पाप तस्मादसि हतो रणे।

मूलम्

जयद्रथेन पापेन यत् कृष्णा क्लेशिता वने ॥ ४५ ॥
यातेषु मृगयां चैव तृणबिन्दोरथाश्रमम्।
अभिमन्युश्च यद् बाल एको बहुभिराहवे ॥ ४६ ॥
त्वद्दोषैर्निहतः पाप तस्मादसि हतो रणे।

अनुवाद (हिन्दी)

जब पाण्डव शिकारके लिये तृणबिन्दुके आश्रमपर चले गये थे, उस समय पापी जयद्रथने वनके भीतर द्रौपदीको जो क्लेश पहुँचाया और पापात्मन्! तुम्हारे ही अपराधसे बहुत-से योद्धाओंने मिलकर युद्धस्थलमें जो अकेले बालक अभिमन्युका वध किया था, इन्हीं सब कारणोंसे आज तुम भी रणभूमिमें मारे गये हो॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(कुर्वाणं कर्म समरे पाण्डवानर्थकाङ्क्षिणम्।
यच्छिखण्ड्‌यवधीद् भीष्मं मित्रार्थे न व्यतिक्रमः॥

मूलम्

(कुर्वाणं कर्म समरे पाण्डवानर्थकाङ्क्षिणम्।
यच्छिखण्ड्‌यवधीद् भीष्मं मित्रार्थे न व्यतिक्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्म पाण्डवोंके अनर्थकी इच्छा रखकर समरभूमिमें पराक्रम प्रकट कर रहे थे। उस समय अपने मित्रोंके हितके लिये शिखण्डीने जो उनका वध किया है, वह कोई दोष या अपराधकी बात नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वधर्मं पृष्ठतः कृत्वा आचार्यस्त्वत्प्रियेप्सया।
पार्षतेन हतः संख्ये वर्तमानोऽसतां पथि॥

मूलम्

स्वधर्मं पृष्ठतः कृत्वा आचार्यस्त्वत्प्रियेप्सया।
पार्षतेन हतः संख्ये वर्तमानोऽसतां पथि॥

अनुवाद (हिन्दी)

आचार्य द्रोण तुम्हारा प्रिय करनेकी इच्छासे अपने धर्मको पीछे करके असाधु पुरुषोंके मार्गपर चल रहे थे; अतः युद्धस्थलमें धृष्टद्युम्नने उनका वध किया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिज्ञामात्मनः सत्यां चिकीर्षन् समरे रिपुम्।
हतवान् सात्वतो विद्वान् सौमदत्तिं महारथम्॥

मूलम्

प्रतिज्ञामात्मनः सत्यां चिकीर्षन् समरे रिपुम्।
हतवान् सात्वतो विद्वान् सौमदत्तिं महारथम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् सात्वतवंशी सात्यकिने अपनी सच्ची प्रतिज्ञाका पालन करनेकी इच्छासे समरांगणमें अपने शत्रु महारथी भूरिश्रवाका वध किया था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनः समरे राजन् युध्यमानः कदाचन।
निन्दितं पुरुषव्याघ्रः करोति न कथंचन॥

मूलम्

अर्जुनः समरे राजन् युध्यमानः कदाचन।
निन्दितं पुरुषव्याघ्रः करोति न कथंचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! समरभूमिमें युद्ध करते हुए पुरुषसिंह अर्जुन कभी किसी प्रकार भी कोई निन्दित कार्य नहीं करते हैं!

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्ध्वापि बहुशश्छिद्रं वीरवृत्तमनुस्मरन् ।
न जघान रणे कर्णं मैवं वोचः सुदुर्मते॥

मूलम्

लब्ध्वापि बहुशश्छिद्रं वीरवृत्तमनुस्मरन् ।
न जघान रणे कर्णं मैवं वोचः सुदुर्मते॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्मते! अर्जुनने वीरोचित सदाचारका विचार करके बहुत-से छिद्र (प्रहार करनेके अवसर) पाकर भी युद्धमें कर्णका वध नहीं किया है; अतः तुम उनके विषयमें ऐसी बात न कहो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवानां मतमाज्ञाय तेषां प्रियहितेप्सया।
नार्जुनस्य महानागं मया व्यंसितमस्त्रजम्॥

मूलम्

देवानां मतमाज्ञाय तेषां प्रियहितेप्सया।
नार्जुनस्य महानागं मया व्यंसितमस्त्रजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंका मत जानकर उनका प्रिय और हित करनेकी इच्छासे मैंने अर्जुनपर महानागास्त्रका प्रहार नहीं होने दिया। उसे विफल कर दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं च भीष्मश्च कर्णश्च द्रोणो द्रौणिस्तथा कृपः।
विराटनगरे तस्य आनृशंस्याच्च जीविताः॥

मूलम्

त्वं च भीष्मश्च कर्णश्च द्रोणो द्रौणिस्तथा कृपः।
विराटनगरे तस्य आनृशंस्याच्च जीविताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम, भीष्म, कर्ण, द्रोण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य विराटनगरमें अर्जुनकी दयालुतासे ही जीवित बच गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मर पार्थस्य विक्रान्तं गन्धर्वेषु कृतं तदा।
अधर्मः कोऽत्र गान्धारे पाण्डवैर्यत् कृतं त्वयि॥

मूलम्

स्मर पार्थस्य विक्रान्तं गन्धर्वेषु कृतं तदा।
अधर्मः कोऽत्र गान्धारे पाण्डवैर्यत् कृतं त्वयि॥

अनुवाद (हिन्दी)

याद करो, अर्जुनके उस पराक्रमको; जो उन्होंने तुम्हारे लिये उन दिनों गन्धर्वोंपर प्रकट किया था। गान्धारीनन्दन! पाण्डवोंने यहाँ तुम्हारे साथ जो बर्ताव किया है, उसमें कौन-सा अधर्म है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वबाहुबलमास्थाय स्वधर्मेण परंतपाः ।
जितवन्तो रणे वीरा पापोऽसि निधनं गतः॥)

मूलम्

स्वबाहुबलमास्थाय स्वधर्मेण परंतपाः ।
जितवन्तो रणे वीरा पापोऽसि निधनं गतः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले वीर पाण्डवोंने अपने बाहुबलका आश्रय लेकर क्षत्रियधर्मके अनुसार विजय पायी है। तुम पापी हो, इसीलिये मारे गये हो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यान्यकार्याणि चास्माकं कृतानीति प्रभाषसे ॥ ४७ ॥
वैगुण्येन तवात्यर्थं सर्वं हि तदनुष्ठितम्।

मूलम्

यान्यकार्याणि चास्माकं कृतानीति प्रभाषसे ॥ ४७ ॥
वैगुण्येन तवात्यर्थं सर्वं हि तदनुष्ठितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

तुम जिन्हें हमारे किये हुए अनुचित कार्य बता रहे हो, वे सब तुम्हारे महान् दोषसे ही किये गये हैं॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बृहस्पतेरुशनसो नोपदेशः श्रुतस्त्वया ॥ ४८ ॥
वृद्धा नोपासिताश्चैव हितं वाक्यं न ते श्रुतम्।

मूलम्

बृहस्पतेरुशनसो नोपदेशः श्रुतस्त्वया ॥ ४८ ॥
वृद्धा नोपासिताश्चैव हितं वाक्यं न ते श्रुतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने बृहस्पति और शुक्राचार्यके नीतिसम्बन्धी उपदेशको नहीं सुना है, बड़े-बूढ़ोंकी उपासना नहीं की है और उनके हितकर वचन भी नहीं सुने हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभेनातिबलेन त्वं तृष्णया च वशीकृतः ॥ ४९ ॥
कृतवानस्यकार्याणि विपाकस्तस्य भुज्यताम् ।

मूलम्

लोभेनातिबलेन त्वं तृष्णया च वशीकृतः ॥ ४९ ॥
कृतवानस्यकार्याणि विपाकस्तस्य भुज्यताम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने अत्यन्त प्रबल लोभ और तृष्णाके वशीभूत होकर न करनेयोग्य कार्य किये हैं; अतः उनका परिणाम अब तुम्हीं भोगो॥४९॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधीतं विधिवद् दत्तं भूः प्रशास्ता ससागरा ॥ ५० ॥
मूर्ध्नि स्थितममित्राणां को नु स्वन्ततरो मया।

मूलम्

अधीतं विधिवद् दत्तं भूः प्रशास्ता ससागरा ॥ ५० ॥
मूर्ध्नि स्थितममित्राणां को नु स्वन्ततरो मया।

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनने कहा— मैंने विधिपूर्वक अध्ययन किया, दान दिये, समुद्रोंसहित पृथ्वीका शासन किया और शत्रुओंके मस्तकपर पैर रखकर मैं खड़ा रहा। मेरे समान उत्तम अन्त (परिणाम) किसका हुआ है?॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिष्टं क्षत्रबन्धूनां स्वधर्ममनुपश्यताम् ॥ ५१ ॥
तदिदं निधनं प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया।

मूलम्

यदिष्टं क्षत्रबन्धूनां स्वधर्ममनुपश्यताम् ॥ ५१ ॥
तदिदं निधनं प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया।

अनुवाद (हिन्दी)

अपने धर्मपर दृष्टि रखनेवाले क्षत्रिय-बन्धुओंको जो अभीष्ट है, वही यह मृत्यु मुझे प्राप्त हुई है; अतः मुझसे अच्छा अन्त और किसका हुआ है?॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवार्हा मानुषा भोगाः प्राप्ता असुलभा नृपैः ॥ ५२ ॥
ऐश्वर्यं चोत्तमं प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया।

मूलम्

देवार्हा मानुषा भोगाः प्राप्ता असुलभा नृपैः ॥ ५२ ॥
ऐश्वर्यं चोत्तमं प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया।

अनुवाद (हिन्दी)

जो दूसरे राजाओंके लिये दुर्लभ हैं, वे देवताओंको ही सुलभ होनेवाले मानवभोग मुझे प्राप्त हुए हैं। मैंने उत्तम ऐश्वर्य पा लिया है; अतः मुझसे उत्कृष्ट अन्त और किसका हुआ है?॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससुहृत् सानुगश्चैव स्वर्गं गन्ताहमच्युत ॥ ५३ ॥
यूयं निहतसंकल्पाः शोचन्तो वर्तयिष्यथ।

मूलम्

ससुहृत् सानुगश्चैव स्वर्गं गन्ताहमच्युत ॥ ५३ ॥
यूयं निहतसंकल्पाः शोचन्तो वर्तयिष्यथ।

अनुवाद (हिन्दी)

अच्युत! मैं सुहृदों और सेवकोंसहित स्वर्गलोकमें जाऊँगा और तुमलोग भग्नमनोरथ होकर शोचनीय जीवन बिताते रहोगे॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(न मे विषादो भीमेन पादेन शिर आहतम्।
काका वा कङ्कगृध्रा वा निधास्यन्ति पदं क्षणात्॥)

मूलम्

(न मे विषादो भीमेन पादेन शिर आहतम्।
काका वा कङ्कगृध्रा वा निधास्यन्ति पदं क्षणात्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने अपने पैरसे जो मेरे सिरपर आघात किया है, इसके लिये मुझे कोई खेद नहीं है; क्योंकि अभी क्षणभरके बाद कौए, कंक अथवा गृध्र भी तो इस शरीरपर अपना पैर रखेंगे।

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्य वाक्यस्य निधने कुरुराजस्य धीमतः ॥ ५४ ॥
अपतत् सुमहद् वर्षं पुष्पाणां पुण्यगन्धिनाम्।

मूलम्

अस्य वाक्यस्य निधने कुरुराजस्य धीमतः ॥ ५४ ॥
अपतत् सुमहद् वर्षं पुष्पाणां पुण्यगन्धिनाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! बुद्धिमान् कुरुराज दुर्योधनकी यह बात पूरी होते ही उसके ऊपर पवित्र सुगंधवाले पुष्पोंकी बड़ी भारी वर्षा होने लगी॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवादयन्त गन्धर्वा वादित्रं सुमनोहरम् ॥ ५५ ॥
जगुश्चाप्सरसो राज्ञो यशःसम्बद्धमेव च।

मूलम्

अवादयन्त गन्धर्वा वादित्रं सुमनोहरम् ॥ ५५ ॥
जगुश्चाप्सरसो राज्ञो यशःसम्बद्धमेव च।

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्वगण अत्यन्त मनोहर बाजे बजाने लगे और अप्सराएँ राजा दुर्योधनके सुयशसम्बधी गीत गाने लगीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्धाश्च मुमुचुर्वाचः साधु साध्विति पार्थिव ॥ ५६ ॥
ववौ च सुरभिर्वायुः पुण्यगन्धो मृदुः सुखः।
व्यराजंश्च दिशः सर्वा नभो वैदूर्यसंनिभम् ॥ ५७ ॥

मूलम्

सिद्धाश्च मुमुचुर्वाचः साधु साध्विति पार्थिव ॥ ५६ ॥
ववौ च सुरभिर्वायुः पुण्यगन्धो मृदुः सुखः।
व्यराजंश्च दिशः सर्वा नभो वैदूर्यसंनिभम् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय सिद्धगण बोल उठे—‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’। फिर पवित्र गन्धवाली मनोहर, मृदुल एवं सुखदायक हवा चलने लगी। सारी दिशाओंमें प्रकाश छा गया और आकाश नीलमके समान चमक उठा॥५६-५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्यद्भुतानि ते दृष्ट्वा वासुदेवपुरोगमाः।
दुर्योधनस्य पूजां तु दृष्ट्वा व्रीडामुपागमन् ॥ ५८ ॥

मूलम्

अत्यद्भुतानि ते दृष्ट्वा वासुदेवपुरोगमाः।
दुर्योधनस्य पूजां तु दृष्ट्वा व्रीडामुपागमन् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण आदि सब लोग ये अद्भुत बातें और दुर्योधनकी यह पूजा देखकर बहुत लज्जित हुए॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतांश्चाधर्मतः श्रुत्वा शोकार्ताः शुशुचुर्हि ते।
भीष्मं द्रोणं तथा कर्णं भूरिश्रवसमेव च ॥ ५९ ॥

मूलम्

हतांश्चाधर्मतः श्रुत्वा शोकार्ताः शुशुचुर्हि ते।
भीष्मं द्रोणं तथा कर्णं भूरिश्रवसमेव च ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्म, द्रोण, कर्ण और भूरिश्रवाको अधर्मपूर्वक मारा गया सुनकर सब लोग शोकसे व्याकुल हो खेद प्रकट करने लगे॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तु चिन्तापरान्‌ दृष्ट्वा पाण्डवान् दीनचेतसः।
प्रोवाचेदं वचः कृष्णो मेघदुन्दुभिनिःस्वनः ॥ ६० ॥

मूलम्

तांस्तु चिन्तापरान्‌ दृष्ट्वा पाण्डवान् दीनचेतसः।
प्रोवाचेदं वचः कृष्णो मेघदुन्दुभिनिःस्वनः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंको दीनचित्त एवं चिन्तामग्न देख मेघ और दुन्दुभिके समान गम्भीर घोष करनेवाले श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा—॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैष शक्योऽतिशीघ्रास्त्रस्ते च सर्वे महारथाः।
ऋजुयुद्धेन विक्रान्ता हन्तुं युष्माभिराहवे ॥ ६१ ॥

मूलम्

नैष शक्योऽतिशीघ्रास्त्रस्ते च सर्वे महारथाः।
ऋजुयुद्धेन विक्रान्ता हन्तुं युष्माभिराहवे ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह दुर्योधन अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलानेवाला था, अतः इसे कोई जीत नहीं सकता था और वे भीष्म, द्रोण आदि महारथी भी बड़े पराक्रमी थे। उन्हें धर्मानुकूल सरलतापूर्वक युद्धके द्वारा आपलोग नहीं मार सकते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैष शक्यः कदाचित् तु हन्तुं धर्मेण पार्थिवः।
ते वा भीष्ममुखाः सर्वे महेष्वासा महारथाः ॥ ६२ ॥

मूलम्

नैष शक्यः कदाचित् तु हन्तुं धर्मेण पार्थिवः।
ते वा भीष्ममुखाः सर्वे महेष्वासा महारथाः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह राजा दुर्योधन अथवा वे भीष्म आदि सभी महाधनुर्धर महारथी कभी धर्मयुद्धके द्वारा नहीं मारे जा सकते थे॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयानेकैरुपायैस्तु मायायोगेन चासकृत् ।
हतास्ते सर्व एवाजौ भवतां हितमिच्छता ॥ ६३ ॥

मूलम्

मयानेकैरुपायैस्तु मायायोगेन चासकृत् ।
हतास्ते सर्व एवाजौ भवतां हितमिच्छता ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपलोगोंका हित चाहते हुए मैंने ही बारंबार मायाका प्रयोग करके अनेक उपायोंसे युद्धस्थलमें उन सबका वध किया॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि नैवंविधं जातु कुर्यां जिह्ममहं रणे।
कुतो वो विजयो भूयः कुतो राज्यं कुतो धनम्॥६४॥

मूलम्

यदि नैवंविधं जातु कुर्यां जिह्ममहं रणे।
कुतो वो विजयो भूयः कुतो राज्यं कुतो धनम्॥६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि कदाचित् युद्धमें मैं इस प्रकार कपटपूर्ण कार्य नहीं करता तो फिर तुम्हें विजय कैसे प्राप्त होती, राज्य कैसे हाथमें आता और धन कैसे मिल सकता था?॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते हि सर्वे महात्मानश्चत्वारोऽतिरथा भुवि।
न शक्या धर्मतो हन्तुं लोकपालैरपि स्वयम् ॥ ६५ ॥

मूलम्

ते हि सर्वे महात्मानश्चत्वारोऽतिरथा भुवि।
न शक्या धर्मतो हन्तुं लोकपालैरपि स्वयम् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीष्म, द्रोण, कर्ण और भूरिश्रवा—ये चारों महामना इस भूतलपर अतिरथीके रूपमें विख्यात थे। साक्षात् लोकपाल भी धर्मयुद्ध करके उन सबको नहीं मार सकते थे॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैवायं गदापाणिर्धार्तराष्ट्रो गतक्लमः ।
न शक्यो धर्मतो हन्तुं कालेनापीह दण्डिना ॥ ६६ ॥

मूलम्

तथैवायं गदापाणिर्धार्तराष्ट्रो गतक्लमः ।
न शक्यो धर्मतो हन्तुं कालेनापीह दण्डिना ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह गदाधारी धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन भी युद्धसे थकता नहीं था, इसे दण्डधारी काल भी धर्मानुकूल युद्धके द्वारा नहीं मार सकता था॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च वो हृदि कर्तव्यं यदयं घातितो रिपुः।
मिथ्यावध्यास्तथोपायैर्बहवः शत्रवोऽधिकाः ॥ ६७ ॥

मूलम्

न च वो हृदि कर्तव्यं यदयं घातितो रिपुः।
मिथ्यावध्यास्तथोपायैर्बहवः शत्रवोऽधिकाः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस प्रकार जो यह शत्रु मारा गया है इसके लिये तुम्हें अपने मनमें विचार नहीं करना चाहिये? बहुतेरे अधिक शक्तिशाली शत्रु नाना प्रकारके उपायों और कूटनीतिके प्रयोगोंद्वारा मारनेके योग्य होते हैं॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वैरनुगतो मार्गो देवैरसुरघातिभिः ।
सद्भिश्चानुगतः पन्थाः स सर्वैरनुगम्यते ॥ ६८ ॥

मूलम्

पूर्वैरनुगतो मार्गो देवैरसुरघातिभिः ।
सद्भिश्चानुगतः पन्थाः स सर्वैरनुगम्यते ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘असुरोंका विनाश करनेवाले पूर्ववर्ती देवताओंने इस मार्गका आश्रय लिया है। श्रेष्ठ पुरुष जिस मार्गसे चले हैं, उसका सभी लोग अनुसरण करते हैं॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतकृत्याश्च सायाह्ने निवासं रोचयामहे।
साश्वनागरथाः सर्वे विश्रमामो नराधिपाः ॥ ६९ ॥

मूलम्

कृतकृत्याश्च सायाह्ने निवासं रोचयामहे।
साश्वनागरथाः सर्वे विश्रमामो नराधिपाः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब हमलोगोंका कार्य पूरा हो गया, अतः सायंकालके समय विश्राम करनेकी इच्छा हो रही है। राजाओ! हम सब लोग घोड़े, हाथी एवं रथसहित विश्राम करें’॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेववचः श्रुत्वा तदानीं पाण्डवैः सह।
पञ्चाला भृशसंहृष्टा विनेदुः सिंहसंघवत् ॥ ७० ॥

मूलम्

वासुदेववचः श्रुत्वा तदानीं पाण्डवैः सह।
पञ्चाला भृशसंहृष्टा विनेदुः सिंहसंघवत् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर उस समय पाण्डवोंसहित समस्त पांचाल अत्यन्त प्रसन्न हुए और सिंहसमुदायके समान दहाड़ने लगे॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्राध्मापयन् शङ्खान् पाञ्चजन्यं च माधवः।
हृष्टा दुर्योधनं दृष्ट्वा निहतं पुरुषर्षभ ॥ ७१ ॥

मूलम्

ततः प्राध्मापयन् शङ्खान् पाञ्चजन्यं च माधवः।
हृष्टा दुर्योधनं दृष्ट्वा निहतं पुरुषर्षभ ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषप्रवर! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण तथा अन्य लोग दुर्योधनको मारा गया देख हर्षमें भरकर अपने-अपने शंख बजाने लगे। श्रीकृष्णने पांचजन्य शंख बजाया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(देवदत्तं प्रहृष्टात्मा शङ्खप्रवरमर्जुनः ।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः॥
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ंख भीमकर्मा वृकोदरः।

मूलम्

(देवदत्तं प्रहृष्टात्मा शङ्खप्रवरमर्जुनः ।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः॥
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ंख भीमकर्मा वृकोदरः।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रसन्नचित्त अर्जुनने देवदत्त नामक श्रेष्ठ शंखकी ध्वनि की। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजय तथा भयंकर कर्म करनेवाले भीमसेनने पौण्ड्र नामक महान् शंख बजाया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥
धृष्टद्युम्नस्तथा जैत्रं सात्यकिर्नन्दिवर्धनम् ।
तेषां नादेन महता शङ्खानां भरतर्षभ॥
आपुपूरे नभः सर्वं पृथिवी च चचाल ह॥

मूलम्

नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥
धृष्टद्युम्नस्तथा जैत्रं सात्यकिर्नन्दिवर्धनम् ।
तेषां नादेन महता शङ्खानां भरतर्षभ॥
आपुपूरे नभः सर्वं पृथिवी च चचाल ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

नकुल और सहदेवने क्रमशः सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। धृष्टद्युम्नने जैत्र और सात्यकिने नन्दिवर्धन नामक शंखकी ध्वनि फैलायी। भरतश्रेष्ठ! उन महान् शंखोंके शब्दसे सारा आकाश भर गया और धरती डोलने लगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
पाण्डुसैन्येष्ववाद्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥
अस्तुवन् पाण्डवानन्ये गीर्भिश्च स्तुतिमङ्गलैः।)

मूलम्

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
पाण्डुसैन्येष्ववाद्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥
अस्तुवन् पाण्डवानन्ये गीर्भिश्च स्तुतिमङ्गलैः।)

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् पाण्डवसेनाओंमें शंख, भेरी, पणव, आनक और गोमुख आदि बाजे बजाये जाने लगे। उन सबकी मिली-जुली आवाज बड़ी भयानक जान पड़ती थी। उस समय अन्य बहुत-से मनुष्य स्तुति एवं मंगलमय वचनोंद्वारा पाण्डवोंका स्तवन करने लगे।

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि कृष्णपाण्डवदुर्योधनसंवादे एकषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें श्रीकृष्ण, पाण्डव और दुर्योधनका संवादविषयक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १५ श्लोक मिलाकर कुल ८६ श्लोक हैं।)