भागसूचना
षष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
क्रोधमें भरे हुए बलरामको श्रीकृष्णका समझाना और युधिष्ठिरके साथ श्रीकृष्णकी तथा भीमसेनकी बातचीत
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मेण हतं दृष्ट्वा राजानं माधवोत्तमः।
किमब्रवीत् तदा सूत बलदेवो महाबलः ॥ १ ॥
मूलम्
अधर्मेण हतं दृष्ट्वा राजानं माधवोत्तमः।
किमब्रवीत् तदा सूत बलदेवो महाबलः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— सूत! उस समय राजा दुर्योधनको अधर्मपूर्वक मारा गया देख महाबली मधुकुलशिरोमणि बलदेवजीने क्या कहा था?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गदायुद्धविशेषज्ञो गदायुद्धविशारदः ।
कृतवान् रौहिणेयो यत् तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ २ ॥
मूलम्
गदायुद्धविशेषज्ञो गदायुद्धविशारदः ।
कृतवान् रौहिणेयो यत् तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! गदायुद्धके विशेषज्ञ तथा उसकी कलामें कुशल रोहिणीनन्दन बलरामजीने वहाँ जो कुछ किया हो, वह मुझे बताओ॥२॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरस्यभिहतं दृष्ट्वा भीमसेनेन ते सुतम्।
रामः प्रहरतां श्रेष्ठश्चुक्रोध बलवद्बली ॥ ३ ॥
मूलम्
शिरस्यभिहतं दृष्ट्वा भीमसेनेन ते सुतम्।
रामः प्रहरतां श्रेष्ठश्चुक्रोध बलवद्बली ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! भीमसेनके द्वारा आपके पुत्रके मस्तकपर पैरका प्रहार हुआ देख योद्धाओंमें श्रेष्ठ बलवान् बलरामको बड़ा क्रोध हुआ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मध्ये नरेन्द्राणामूर्ध्वबाहुर्हलायुधः ।
कुर्वन्नार्तस्वरं घोरं धिग् धिग् भीमेत्युवाच ह ॥ ४ ॥
मूलम्
ततो मध्ये नरेन्द्राणामूर्ध्वबाहुर्हलायुधः ।
कुर्वन्नार्तस्वरं घोरं धिग् धिग् भीमेत्युवाच ह ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वहाँ राजाओंकी मण्डलीमें अपनी दोनों बाँहें ऊपर उठाकर हलधर बलरामने भयंकर आर्तनाद करते हुए कहा—‘भीमसेन! तुम्हें धिक्कार है! धिक्कार है!!॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो धिग् यदधो नाभेः प्रहृतं धर्मविग्रहे।
नैतद् दृष्टं गदायुद्धे कृतवान् यद् वृकोदरः ॥ ५ ॥
मूलम्
अहो धिग् यदधो नाभेः प्रहृतं धर्मविग्रहे।
नैतद् दृष्टं गदायुद्धे कृतवान् यद् वृकोदरः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! इस धर्मयुद्धमें नाभिसे नीचे जो प्रहार किया गया है और जिसे भीमसेनने स्वयं किया है, यह गदायुद्धमें कभी नहीं देखा गया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधो नाभ्या न हन्तव्यमिति शास्त्रस्य निश्चयः।
अयं त्वशास्त्रविन्मूढः स्वच्छन्दात् सम्प्रवर्तते ॥ ६ ॥
मूलम्
अधो नाभ्या न हन्तव्यमिति शास्त्रस्य निश्चयः।
अयं त्वशास्त्रविन्मूढः स्वच्छन्दात् सम्प्रवर्तते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नाभिसे नीचे आघात नहीं करना चाहिये। यह गदा-युद्धके विषयमें शास्त्रका सिद्धान्त है। परंतु यह शास्त्रज्ञानसे शून्य मूर्ख भीमसेन यहाँ स्वेच्छाचार कर रहा है’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तत् तद् ब्रुवाणस्य रोषः समभवन्महान्।
ततो राजानमालोक्य रोषसंरक्तलोचनः ॥ ७ ॥
मूलम्
तस्य तत् तद् ब्रुवाणस्य रोषः समभवन्महान्।
ततो राजानमालोक्य रोषसंरक्तलोचनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सब बातें कहते हुए बलदेवजीका रोष बहुत बढ़ गया। फिर राजा दुर्योधनकी ओर दृष्टिपात करके उनकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलदेवो महाराज ततो वचनमब्रवीत्।
न चैष पतितः कृष्ण केवलं मत्समोऽसमः ॥ ८ ॥
आश्रितस्य तु दौर्बल्यादाश्रयः परिभर्त्स्यते।
मूलम्
बलदेवो महाराज ततो वचनमब्रवीत्।
न चैष पतितः कृष्ण केवलं मत्समोऽसमः ॥ ८ ॥
आश्रितस्य तु दौर्बल्यादाश्रयः परिभर्त्स्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! फिर बलदेवजीने कहा—‘श्रीकृष्ण! राजा दुर्योधन मेरे समान बलवान् था। गदायुद्धमें उसकी समानता करनेवाला कोई नहीं था। यहाँ अन्याय करके केवल दुर्योधन ही नहीं गिराया गया है, (मेरा भी अपमान किया गया है) शरणागतकी दुर्बलताके कारण शरण देनेवालेका तिरस्कार किया जा रहा है’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो लाङ्गलमुद्यम्य भीममभ्यद्रवद् बली ॥ ९ ॥
तस्योर्ध्वबाहोः सदृशं रूपमासीन्महात्मनः ।
बहुधातुविचित्रस्य श्वेतस्येव महागिरेः ॥ १० ॥
मूलम्
ततो लाङ्गलमुद्यम्य भीममभ्यद्रवद् बली ॥ ९ ॥
तस्योर्ध्वबाहोः सदृशं रूपमासीन्महात्मनः ।
बहुधातुविचित्रस्य श्वेतस्येव महागिरेः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर महाबली बलराम अपना हल उठाकर भीमसेनकी ओर दौड़े। उस समय अपनी भुजाएँ ऊपर उठाये हुए महात्मा बलरामजीका रूप अनेक धातुओंके कारण विचित्र शोभा पानेवाले महान् श्वेतपर्वतके समान जान पड़ता था॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(भ्रातृभिः सहितो भीमः सार्जुनैरस्त्रकोविदैः।
न विव्यथे महाराज दृष्ट्वा हलधरं बली॥)
मूलम्
(भ्रातृभिः सहितो भीमः सार्जुनैरस्त्रकोविदैः।
न विव्यथे महाराज दृष्ट्वा हलधरं बली॥)
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! हलधरको आक्रमण करते देख अर्जुनसहित अस्त्रवेत्ता भाइयोंके साथ खड़े हुए बलवान् भीमसेन तनिक भी व्यथित नहीं हुए।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्पतन्तं जग्राह केशवो विनयान्वितः।
बाहुभ्यां पीनवृत्ताभ्यां प्रयत्नाद् बलवद्बली ॥ ११ ॥
मूलम्
तमुत्पतन्तं जग्राह केशवो विनयान्वितः।
बाहुभ्यां पीनवृत्ताभ्यां प्रयत्नाद् बलवद्बली ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय विनयशील, बलवान् श्रीकृष्णने आक्रमण करते हुए बलरामजीको अपनी मोटी एवं गोल-गोल भुजाओंद्वारा बड़े प्रयत्नसे पकड़ा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सितासितौ यदुवरौ शुशुभातेऽधिकं तदा।
(संगताविव राजेन्द्र कैलासाञ्जनपर्वतौ ॥)
नभोगतौ यथा राजंश्चन्द्रसूर्यौ दिनक्षये ॥ १२ ॥
मूलम्
सितासितौ यदुवरौ शुशुभातेऽधिकं तदा।
(संगताविव राजेन्द्र कैलासाञ्जनपर्वतौ ॥)
नभोगतौ यथा राजंश्चन्द्रसूर्यौ दिनक्षये ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! वे श्याम-गौर यदुकुलतिलक दोनों भाई परस्पर मिले हुए कैलास और कज्जल पर्वतोंके समान शोभा पा रहे थे। राजन्! संध्याकालके आकाशमें जैसे चन्द्रमा और सूर्य उदित हुए हों, वैसे ही उस रणक्षेत्रमें वे दोनों भाई सुशोभित हो रहे थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच चैनं संरब्धं शमयन्निव केशवः।
आत्मवृद्धिर्मित्रवृद्धिर्मित्रमित्रोदयस्तथा ॥ १३ ॥
विपरीतं द्विषत्स्वेतत् षड्विधा वृद्धिरात्मनः।
मूलम्
उवाच चैनं संरब्धं शमयन्निव केशवः।
आत्मवृद्धिर्मित्रवृद्धिर्मित्रमित्रोदयस्तथा ॥ १३ ॥
विपरीतं द्विषत्स्वेतत् षड्विधा वृद्धिरात्मनः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय श्रीकृष्णने रोषसे भरे हुए बलरामजीको शान्त करते हुए-से कहा—‘भैया! अपनी उन्नति छः प्रकारकी होती है—अपनी वृद्धि, मित्रकी वृद्धि और मित्रके मित्रकी वृद्धि तथा शत्रुपक्षमें इसके विपरीत स्थिति अर्थात् शत्रुकी हानि, शत्रुके मित्रकी हानि तथा शत्रुके मित्रके मित्रकी हानि॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मन्यपि च मित्रे च विपरीतं यदा भवेत् ॥ १४ ॥
तदा विद्यान्मनोग्लानिमाशु शान्तिकरो भवेत्।
मूलम्
आत्मन्यपि च मित्रे च विपरीतं यदा भवेत् ॥ १४ ॥
तदा विद्यान्मनोग्लानिमाशु शान्तिकरो भवेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपनी और अपने मित्रकी यदि इसके विपरीत परिस्थिति हो तो मन-ही-मन ग्लानिका अनुभव करना चाहिये और मित्रोंकी उस हानिके निवारणके लिये शीघ्र प्रयत्नशील होना चाहिये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्माकं सहजं मित्रं पाण्डवाः शुद्धपौरुषाः ॥ १५ ॥
स्वकाः पितृष्वसुः पुत्रास्ते परैर्निकृता भृशम्।
मूलम्
अस्माकं सहजं मित्रं पाण्डवाः शुद्धपौरुषाः ॥ १५ ॥
स्वकाः पितृष्वसुः पुत्रास्ते परैर्निकृता भृशम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शुद्ध पुरुषार्थका आश्रय लेनेवाले पाण्डव हमारे सहज मित्र हैं। बुआके पुत्र होनेके कारण सर्वथा अपने हैं। शत्रुओंने इनके साथ बहुत छल-कपट किया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिज्ञापालनं धर्मः क्षत्रियस्येह वेद्म्यहम् ॥ १६ ॥
सुयोधनस्य गदया भङ्क्तास्म्यूरू महाहवे।
इति पूर्वं प्रतिज्ञातं भीमेन हि सभातले ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रतिज्ञापालनं धर्मः क्षत्रियस्येह वेद्म्यहम् ॥ १६ ॥
सुयोधनस्य गदया भङ्क्तास्म्यूरू महाहवे।
इति पूर्वं प्रतिज्ञातं भीमेन हि सभातले ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं समझता हूँ कि इस जगत्में अपनी प्रतिज्ञाका पालन करना क्षत्रियके लिये धर्म ही है। पहले सभामें भीमसेनने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं महायुद्धमें अपनी गदासे दुर्योधनकी दोनों जाँघें तोड़ डालूँगा’॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैत्रेयेणाभिशप्तश्च पूर्वमेव महर्षिणा ।
ऊरू ते भेत्स्यते भीमो गदयेति परंतप ॥ १८ ॥
मूलम्
मैत्रेयेणाभिशप्तश्च पूर्वमेव महर्षिणा ।
ऊरू ते भेत्स्यते भीमो गदयेति परंतप ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंको संताप देनेवाले बलरामजी! महर्षि मैत्रेयने भी दुर्योधनको पहलेसे ही यह शाप दे रखा था कि ‘भीमसेन अपनी गदासे तेरी दोनों जाँघें तोड़ डालेंगे’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो दोषं न पश्यामि मा क्रुद्ध्यस्व प्रलम्बहन्।
यौनः स्वैः सुखहार्दैश्च सम्बन्धः सह पाण्डवैः ॥ १९ ॥
तेषां वृद्ध्या हि वृद्धिर्नो मा क्रुधः पुरुषर्षभ।
मूलम्
अतो दोषं न पश्यामि मा क्रुद्ध्यस्व प्रलम्बहन्।
यौनः स्वैः सुखहार्दैश्च सम्बन्धः सह पाण्डवैः ॥ १९ ॥
तेषां वृद्ध्या हि वृद्धिर्नो मा क्रुधः पुरुषर्षभ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः प्रलम्बहन्ता बलभद्रजी! मैं इसमें भीमसेनका कोई दोष नहीं देखता; इसलिये आप क्रोध न कीजिये। हमारा पाण्डवोंके साथ यौन-सम्बन्ध तो है ही। परस्पर सुख देनेवाले सौहार्दसे भी हमलोग बँधे हुए हैं। पुरुषप्रवर! इन पाण्डवोंकी वृद्धिसे हमारी भी वृद्धि है, अतः आप क्रोध न करें’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेववचः श्रुत्वा सीरभृत् प्राह धर्मवित् ॥ २० ॥
धर्मः सुचरितः सद्भिः स च द्वाभ्यां नियच्छति।
मूलम्
वासुदेववचः श्रुत्वा सीरभृत् प्राह धर्मवित् ॥ २० ॥
धर्मः सुचरितः सद्भिः स च द्वाभ्यां नियच्छति।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर धर्मज्ञ हलधरने इस प्रकार कहा—‘श्रीकृष्ण! श्रेष्ठ पुरुषोंने धर्मका अच्छी तरह आचरण किया है; किंतु वह अर्थ और काम—इन दो वस्तुओंसे संकुचित हो जाता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थश्चात्यर्थलुब्धस्य कामश्चातिप्रसङ्गिणः ॥ २१ ॥
धर्मार्थौ धर्मकामौ च कामार्थौ चाप्यपीडयन्।
धर्मार्थकामान् योऽभ्येति सोऽत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ २२ ॥
मूलम्
अर्थश्चात्यर्थलुब्धस्य कामश्चातिप्रसङ्गिणः ॥ २१ ॥
धर्मार्थौ धर्मकामौ च कामार्थौ चाप्यपीडयन्।
धर्मार्थकामान् योऽभ्येति सोऽत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अत्यन्त लोभीका अर्थ और अधिक आसक्ति रखनेवालेका काम—ये दोनों ही धर्मको हानि पहुँचाते हैं! जो मनुष्य कामसे धर्म और अर्थको, अर्थसे धर्म और कामको तथा धर्मसे अर्थ और कामको हानि न पहुँचाकर धर्म, अर्थ और काम तीनोंका यथोचित रूपसे सेवन करता है, वह अत्यन्त सुखका भागी होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं व्याकुलं सर्वं कृतं धर्मस्य पीडनात्।
भीमसेनेन गोविन्द कामं त्वं तु यथाऽऽत्थ माम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तदिदं व्याकुलं सर्वं कृतं धर्मस्य पीडनात्।
भीमसेनेन गोविन्द कामं त्वं तु यथाऽऽत्थ माम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गोविन्द! भीमसेनने (अर्थके लोभसे) धर्मको हानि पहुँचाकर इन सबको विकृत कर डाला है। तुम मुझसे जिस प्रकार इस कार्यको धर्मसंगत बता रहे हो वह सब तुम्हारी मनमानी कल्पना है’॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीकृष्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरोषणो हि धर्मात्मा सततं धर्मवत्सलः।
भवान् प्रख्यायते लोके तस्मात् संशाम्य मा क्रुधः ॥ २४ ॥
मूलम्
अरोषणो हि धर्मात्मा सततं धर्मवत्सलः।
भवान् प्रख्यायते लोके तस्मात् संशाम्य मा क्रुधः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने कहा— भैया! आप संसारमें क्रोधरहित, धर्मात्मा और निरन्तर धर्मपर अनुग्रह रखनेवाले सत्पुरुषके रूपमें विख्यात हैं; अतः शान्त हो जाइये, क्रोध न कीजिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तं कलियुगं विद्धि प्रतिज्ञां पाण्डवस्य च।
आनृण्यं यातु वैरस्य प्रतिज्ञायाश्च पाण्डवः ॥ २५ ॥
मूलम्
प्राप्तं कलियुगं विद्धि प्रतिज्ञां पाण्डवस्य च।
आनृण्यं यातु वैरस्य प्रतिज्ञायाश्च पाण्डवः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समझ लीजिये कि कलियुग आ गया। पाण्डुपुत्र भीमसेनकी प्रतिज्ञापर भी ध्यान दीजिये। आज पाण्डुकुमार भीम वैर और प्रतिज्ञाके ऋणसे मुक्त हो जायँ॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(गतः पुरुषशार्दूलो हत्वा नैकृतिकं रणे।
अधर्मो विद्यते नात्र यद् भीमो हतवान् रिपुम्॥
मूलम्
(गतः पुरुषशार्दूलो हत्वा नैकृतिकं रणे।
अधर्मो विद्यते नात्र यद् भीमो हतवान् रिपुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह भीम रणभूमिमें कपटी दुर्योधनको मारकर चले गये। उन्होंने जो अपने शत्रुका वध किया है, इसमें कोई अधर्म नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्ध्यन्तं समरे वीरं कुरुवृष्णियशस्करम्।
अनेन कर्णः संदिष्टः पृष्ठतो धनुराच्छिनत्॥
मूलम्
युद्ध्यन्तं समरे वीरं कुरुवृष्णियशस्करम्।
अनेन कर्णः संदिष्टः पृष्ठतो धनुराच्छिनत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी दुर्योधनने कर्णको आज्ञा दी थी, जिससे उसने कुरु और वृष्णि दोनों कुलोंके सुयशकी वृद्धि करनेवाले, युद्धपरायण, वीर अभिमन्युके धनुषको समरांगणमें पीछेसे आकर काट दिया था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सछिन्नधन्वानं विरथं पौरुषे स्थितम्।
व्यायुधीकृत्य हतवान् सौभद्रमपलायिनम् ॥
मूलम्
ततः सछिन्नधन्वानं विरथं पौरुषे स्थितम्।
व्यायुधीकृत्य हतवान् सौभद्रमपलायिनम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार धनुष कट जाने और रथसे हीन हो जानेपर भी जो पुरुषार्थमें ही तत्पर था, रणभूमिमें पीठ न दिखानेवाले उस सुभद्राकुमार अभिमन्युको इसने निहत्था करके मार डाला था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मप्रभृतिलुब्धश्च पापश्चैव दुरात्मवान् ।
निहतो भीमसेनेन दुर्बुद्धिः कुलपांसनः॥
मूलम्
जन्मप्रभृतिलुब्धश्च पापश्चैव दुरात्मवान् ।
निहतो भीमसेनेन दुर्बुद्धिः कुलपांसनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह दुरात्मा, दुर्बुद्धि एवं पापी दुर्योधन जन्मसे ही लोभी तथा कुरुकुलका कलंक रहा है, जो भीमसेनके हाथसे मारा गया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिज्ञां भीमसेनस्य त्रयोदशसमार्जिताम् ।
किमर्थं नाभिजानाति युद्ध्यमानोऽपि विश्रुताम्॥
मूलम्
प्रतिज्ञां भीमसेनस्य त्रयोदशसमार्जिताम् ।
किमर्थं नाभिजानाति युद्ध्यमानोऽपि विश्रुताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनकी प्रतिज्ञा तेरह वर्षोंसे चल रही थी और सर्वत्र प्रसिद्ध हो चुकी थी। युद्ध करते समय दुर्योधनने उसे याद क्यों नहीं रखा?।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वमुत्क्रम्य वेगेन जिघांसन्तं वृकोदरः।
बभञ्ज गदया चोरू न स्थाने न च मण्डले॥)
मूलम्
ऊर्ध्वमुत्क्रम्य वेगेन जिघांसन्तं वृकोदरः।
बभञ्ज गदया चोरू न स्थाने न च मण्डले॥)
अनुवाद (हिन्दी)
यह वेगसे ऊपर उछलकर भीमसेनको मार डालना चाहता था। उस अवस्थामें भीमने अपनी गदासे इसकी दोनों जाँघें तोड़ डाली थीं। उस समय न तो यह किसी स्थानमें था और न मण्डलमें ही।
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मच्छलमपि श्रुत्वा केशवात् स विशाम्पते।
नैव प्रीतमना रामो वचनं प्राह संसदि ॥ २६ ॥
मूलम्
धर्मच्छलमपि श्रुत्वा केशवात् स विशाम्पते।
नैव प्रीतमना रामो वचनं प्राह संसदि ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— प्रजानाथ! भगवान् श्रीकृष्णसे यह छलरूप धर्मका विवेचन सुनकर बलदेवजीके मनको संतोष नहीं हुआ। उन्होंने भरी सभामें कहा—॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वाधर्मेण राजानं धर्मात्मानं सुयोधनम्।
जिह्मयोधीति लोकेऽस्मिन् ख्यातिं यास्यति पाण्डवः ॥ २७ ॥
मूलम्
हत्वाधर्मेण राजानं धर्मात्मानं सुयोधनम्।
जिह्मयोधीति लोकेऽस्मिन् ख्यातिं यास्यति पाण्डवः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मात्मा राजा दुर्योधनको अधर्मपूर्वक मारकर पाण्डुपुत्र भीमसेन इस संसारमें कपटपूर्ण युद्ध करनेवाले योद्धाके रूपमें विख्यात होंगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनोऽपि धर्मात्मा गतिं यास्यति शाश्वतीम्।
ऋजुयोधी हतो राजा धार्तराष्ट्रो नराधिपः ॥ २८ ॥
मूलम्
दुर्योधनोऽपि धर्मात्मा गतिं यास्यति शाश्वतीम्।
ऋजुयोधी हतो राजा धार्तराष्ट्रो नराधिपः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धृतराष्ट्रपुत्र धर्मात्मा राजा दुर्योधन सरलतासे युद्ध कर रहा था, उस अवस्थामें मारा गया है; अतः वह सनातन सद्गतिको प्रान्त होगा॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धदीक्षां प्रविश्याजौ रणयज्ञं वितत्य च।
हुत्वाऽऽत्मानममित्राग्नौ प्राप चावभृथं यशः ॥ २९ ॥
मूलम्
युद्धदीक्षां प्रविश्याजौ रणयज्ञं वितत्य च।
हुत्वाऽऽत्मानममित्राग्नौ प्राप चावभृथं यशः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धकी दीक्षा ले संग्रामभूमिमें प्रविष्ट हो रणयज्ञका विस्तार करके शत्रुरूपी प्रज्वलित अग्निमें अपने शरीरकी आहुति दे दुर्योधनने सुयशरूपी अवभृथ-स्नानका शुभ अवसर प्राप्त किया है’॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा रथमास्थाय रौहिणेयः प्रतापवान्।
श्वेताभ्रशिखराकारः प्रययौ द्वारकां प्रति ॥ ३० ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा रथमास्थाय रौहिणेयः प्रतापवान्।
श्वेताभ्रशिखराकारः प्रययौ द्वारकां प्रति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कहकर प्रतापी रोहिणीनन्दन बलरामजी, जो श्वेत बादलोंके अग्रभागकी भाँति गौर-कान्तिसे सुशोभित हो रहे थे, रथपर आरूढ़ हो द्वारकाकी ओर चल दिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चालाश्च सवार्ष्णेयाः पाण्डवाश्च विशाम्पते।
रामे द्वारावतीं याते नातिप्रमनसोऽभवन् ॥ ३१ ॥
मूलम्
पञ्चालाश्च सवार्ष्णेयाः पाण्डवाश्च विशाम्पते।
रामे द्वारावतीं याते नातिप्रमनसोऽभवन् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! बलरामजीके इस प्रकार द्वारका चले जानेपर पांचाल, वृष्णिवंशी तथा पाण्डववीर उदास हो गये। उनके मनमें अधिक उत्साह नहीं रह गया॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरं दीनं चिन्तापरमधोमुखम्।
शोकोपहतसंकल्पं वासुदेवोऽब्रवीदिदम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरं दीनं चिन्तापरमधोमुखम्।
शोकोपहतसंकल्पं वासुदेवोऽब्रवीदिदम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय युधिष्ठिर बहुत दुःखी थे। वे नीचे मुख किये चिन्तामें डूब गये थे। शोकसे उनका मनोरथ भंग हो गया था। उस अवस्थामें उनसे भगवान् श्रीकृष्ण बोले॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मराज किमर्थं त्वमधर्ममनुमन्यसे ।
हतबन्धोर्यदेतस्य पतितस्य विचेतसः ॥ ३३ ॥
दुर्योधनस्य भीमेन मृद्यमानं शिरः पदा।
उपप्रेक्षसि कस्मात् त्वं धर्मज्ञः सन्नराधिप ॥ ३४ ॥
मूलम्
धर्मराज किमर्थं त्वमधर्ममनुमन्यसे ।
हतबन्धोर्यदेतस्य पतितस्य विचेतसः ॥ ३३ ॥
दुर्योधनस्य भीमेन मृद्यमानं शिरः पदा।
उपप्रेक्षसि कस्मात् त्वं धर्मज्ञः सन्नराधिप ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने पूछा— धर्मराज! आप चुप होकर अधर्मका अनुमोदन क्यों कर रहे हैं? नरेश्वर दुर्योधनके भाई और सहायक मारे जा चुके हैं। यह पृथ्वीपर गिरकर अचेत हो रहा है। ऐसी दशामें भीमसेन इसके मस्तकको पैरसे कुचल रहे हैं। आप धर्मज्ञ होकर समीपसे ही यह सब कैसे देख रहे हैं॥३३-३४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ममैतत् प्रियं कृष्ण यद् राजानं वृकोदरः।
पदा मूर्ध्न्यस्पृशत् क्रोधान्न च हृष्ये कुलक्षये ॥ ३५ ॥
मूलम्
न ममैतत् प्रियं कृष्ण यद् राजानं वृकोदरः।
पदा मूर्ध्न्यस्पृशत् क्रोधान्न च हृष्ये कुलक्षये ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— श्रीकृष्ण! भीमसेनने क्रोधमें भरकर जो राजा दुर्योधनके मस्तकको पैरोंसे ठुकराया है, यह मुझे भी अच्छा नहीं लगा। अपने कुलका संहार हो जानेसे मैं प्रसन्न नहीं हूँ॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकृत्या निकृता नित्यं धृतराष्ट्रसुतैर्वयम्।
बहूनि परुषाण्युक्त्वा वनं प्रस्थापिताः स्म ह ॥ ३६ ॥
मूलम्
निकृत्या निकृता नित्यं धृतराष्ट्रसुतैर्वयम्।
बहूनि परुषाण्युक्त्वा वनं प्रस्थापिताः स्म ह ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु क्या करूँ, धृतराष्ट्रके पुत्रोंने सदा ही हमें अपने कपटजालका शिकार बनाया और बहुत-से कटुवचन सुनाकर वनमें भेज दिया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनस्य तद् दुःखमतीव हृदि वर्तते।
इति संचिन्त्य वार्ष्णेय मयैतत् समुपेक्षितम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
भीमसेनस्य तद् दुःखमतीव हृदि वर्तते।
इति संचिन्त्य वार्ष्णेय मयैतत् समुपेक्षितम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृष्णिनन्दन! भीमसेनके हृदयमें इन सब बातोंके लिये बड़ा दुःख था। यही सोचकर मैंने उनके इस कार्यकी उपेक्षा की है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद्धत्वाकृतप्रज्ञं लुब्धं कामवशानुगम् ।
लभतां पाण्डवः कामं धर्मेऽधर्मे च वा कृते ॥ ३८ ॥
मूलम्
तस्माद्धत्वाकृतप्रज्ञं लुब्धं कामवशानुगम् ।
लभतां पाण्डवः कामं धर्मेऽधर्मे च वा कृते ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये मैंने विचार किया कि कामके वशीभूत हुए लोभी और अजितात्मा दुर्योधनको मारकर धर्म या अधर्म करके पाण्डुपुत्र भीम अपनी इच्छा पूरी कर लें॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ते धर्मराजेन वासुदेवोऽब्रवीदिदम् ।
काममस्त्वेतदिति वै कृच्छ्राद् यदुकुलोद्वहः ॥ ३९ ॥
मूलम्
इत्युक्ते धर्मराजेन वासुदेवोऽब्रवीदिदम् ।
काममस्त्वेतदिति वै कृच्छ्राद् यदुकुलोद्वहः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! धर्मराजके ऐसा कहनेपर यदुकुलश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णने बड़े कष्टसे यह कहा कि ‘अच्छा, ऐसा ही सही’॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो वासुदेवेन भीमप्रियहितैषिणा ।
अन्वमोदत तत् सर्वं यद् भीमेन कृतं युधि ॥ ४० ॥
मूलम्
इत्युक्तो वासुदेवेन भीमप्रियहितैषिणा ।
अन्वमोदत तत् सर्वं यद् भीमेन कृतं युधि ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनका प्रिय और हित चाहनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर युधिष्ठिरने भीमसेनके द्वारा युद्धस्थलमें जो कुछ किया गया था, उस सबका अनुमोदन किया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अर्जुनोऽपि महाबाहुरप्रीतेनान्तरात्मना ।
नोवाच वचनं किंचिद् भ्रातरं, साध्वसाधु वा॥)
मूलम्
(अर्जुनोऽपि महाबाहुरप्रीतेनान्तरात्मना ।
नोवाच वचनं किंचिद् भ्रातरं, साध्वसाधु वा॥)
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु अर्जुन भी अप्रसन्नचित्तसे अपने भाईके प्रति भला-बुरा कुछ नहीं बोले।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनोऽपि हत्वाऽऽजौ तव पुत्रममर्षणः।
अभिवाद्याग्रतः स्थित्वा सम्प्रहृष्टः कृताञ्जलिः ॥ ४१ ॥
मूलम्
भीमसेनोऽपि हत्वाऽऽजौ तव पुत्रममर्षणः।
अभिवाद्याग्रतः स्थित्वा सम्प्रहृष्टः कृताञ्जलिः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमर्षशील भीमसेन युद्धस्थलमें आपके पुत्रका वध करके बड़े प्रसन्न हुए और युधिष्ठिरको प्रणाम करके उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रोवाच सुमहातेजा धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
हर्षादुत्फुल्लनयनो जितकाशी विशाम्पते ॥ ४२ ॥
मूलम्
प्रोवाच सुमहातेजा धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
हर्षादुत्फुल्लनयनो जितकाशी विशाम्पते ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! उस समय महातेजस्वी भीमसेन विजयश्रीसे प्रकाशित हो रहे थे। उनके नेत्र हर्षसे खिल उठे थे, उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिरसे कहा—॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवाद्य पृथिवी सर्वा क्षेमा निहतकण्टका।
तां प्रशाधि महाराज स्वधर्ममनुपालय ॥ ४३ ॥
मूलम्
तवाद्य पृथिवी सर्वा क्षेमा निहतकण्टका।
तां प्रशाधि महाराज स्वधर्ममनुपालय ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! आज यह सारी पृथ्वी आपकी हो गयी, इसके काँटे नष्ट कर दिये गये, अतः यह मंगलमयी हो गयी है। आप इसका शासन तथा अपने धर्मका पालन कीजिये॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु कर्तास्य वैरस्य निकृत्या निकृतिप्रियः।
सोऽयं विनिहतः शेते पृथिव्यां पृथिवीपते ॥ ४४ ॥
मूलम्
यस्तु कर्तास्य वैरस्य निकृत्या निकृतिप्रियः।
सोऽयं विनिहतः शेते पृथिव्यां पृथिवीपते ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीनाथ! जिसे छल और कपट ही प्रिय था तथा जिसने कपटसे ही इस वैरकी नींव डाली थी, वही यह दुर्योधन आज मारा जाकर पृथ्वीपर सो रहा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःशासनप्रभृतयः सर्वे ते चोग्रवादिनः।
राधेयः शकुनिश्चैव हताश्च तव शत्रवः ॥ ४५ ॥
मूलम्
दुःशासनप्रभृतयः सर्वे ते चोग्रवादिनः।
राधेयः शकुनिश्चैव हताश्च तव शत्रवः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे भयंकर कटुवचन बोलनेवाले दुःशासन आदि धृतराष्ट्रपुत्र तथा कर्ण और शकुनि आदि आपके सभी शत्रु मार डाले गये॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेयं रत्नसमाकीर्णा मही सवनपर्वता।
उपावृत्ता महाराज त्वामद्य निहतद्विषम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
सेयं रत्नसमाकीर्णा मही सवनपर्वता।
उपावृत्ता महाराज त्वामद्य निहतद्विषम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! आपके शत्रु नष्ट हो गये। आज यह रत्नोंसे भरी हुई वन और पर्वतोंसहित सारी पृथ्वी आपकी सेवामें प्रस्तुत है’॥४६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतो वैरस्य निधनं हतो राजा सुयोधनः।
कृष्णस्य मतमास्थाय विजितेयं वसुन्धरा ॥ ४७ ॥
मूलम्
गतो वैरस्य निधनं हतो राजा सुयोधनः।
कृष्णस्य मतमास्थाय विजितेयं वसुन्धरा ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— भीमसेन! सौभाग्यकी बात है कि तुमने वैरका अन्त कर दिया, राजा दुर्योधन मारा गया और श्रीकृष्णके मतका आश्रय लेकर हमने यह सारी पृथ्वी जीत ली॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या गतस्त्वमानृण्यं मातुः कोपस्य चोभयोः।
दिष्ट्या जयति दुर्धर्ष दिष्ट्या शत्रुर्निपातितः ॥ ४८ ॥
मूलम्
दिष्ट्या गतस्त्वमानृण्यं मातुः कोपस्य चोभयोः।
दिष्ट्या जयति दुर्धर्ष दिष्ट्या शत्रुर्निपातितः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौभाग्यसे तुम माता तथा क्रोध दोनोंके ऋणसे उऋण हो गये। दुर्धर्ष वीर! भाग्यवश तुम विजयी हुए और सौभाग्यसे ही तुमने अपने शत्रुको मार गिराया॥४८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि बलदेवसान्त्वने षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें श्रीकृष्णका बलदेवजीको सान्त्वना देनाविषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६०॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ८ श्लोक मिलाकर कुल ५६ श्लोक हैं।)