०५९ युधिष्ठिरविलापे

भागसूचना

एकोनषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेनके द्वारा दुर्योधनका तिरस्कार, युधिष्ठिरका भीमसेनको समझाकर अन्यायसे रोकना और दुर्योधनको सान्त्वना देते हुए खेद प्रकट करना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं पातितं ततो दृष्ट्वा महाशालमिवोद्‌गतम्।
प्रहृष्टमनसः सर्वे ददृशुस्तत्र पाण्डवाः ॥ १ ॥

मूलम्

तं पातितं ततो दृष्ट्वा महाशालमिवोद्‌गतम्।
प्रहृष्टमनसः सर्वे ददृशुस्तत्र पाण्डवाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! दुर्योधनको ऊँचे एवं विशाल शालवृक्षके समान गिराया गया देख समस्त पाण्डव मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और निकट जाकर उसे देखने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उन्मत्तमिव मातङ्गं सिंहेन विनिपातितम्।
ददृशुर्हृष्टरोमाणः सर्वे ते चापि सोमकाः ॥ २ ॥

मूलम्

उन्मत्तमिव मातङ्गं सिंहेन विनिपातितम्।
ददृशुर्हृष्टरोमाणः सर्वे ते चापि सोमकाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त सोमकोंने भी सिंहके द्वारा गिराये गये मदमत्त गजराजके समान जब दुर्योधनको धराशायी हुआ देखा तो हर्षसे उनके अंगोंमें रोमांच हो आया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनं हत्वा भीमसेनः प्रतापवान्।
पातितं कौरवेन्द्रं तमुपगम्येदमब्रवीत् ॥ ३ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनं हत्वा भीमसेनः प्रतापवान्।
पातितं कौरवेन्द्रं तमुपगम्येदमब्रवीत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार दुर्योधनका वध करके प्रतापी भीमसेन उस गिराये गये कौरवराजके पास जाकर बोले—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौर्गौरिति पुरा मन्द द्रौपदीमेकवाससम्।
यत् सभायां हसन्नस्मांस्तदा वदसि दुर्मते ॥ ४ ॥
तस्यावहासस्य फलमद्य त्वं समवाप्नुहि।

मूलम्

गौर्गौरिति पुरा मन्द द्रौपदीमेकवाससम्।
यत् सभायां हसन्नस्मांस्तदा वदसि दुर्मते ॥ ४ ॥
तस्यावहासस्य फलमद्य त्वं समवाप्नुहि।

अनुवाद (हिन्दी)

‘खोटी बुद्धिवाले मूर्ख! तूने पहले मुझे ‘बैल, बैल’ कहकर और एक वस्त्रधारिणी रजस्वला द्रौपदीको सभामें लाकर जो हमलोगोंका उपहास किया था तथा हम सबके प्रति कटुवचन सुनाये थे, उस उपहासका फल आज तू प्राप्त कर ले’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा स वामेन पदा मौलिमुपास्पृशत् ॥ ५ ॥
शिरश्च राजसिंहस्य पादेन समलोडयत्।

मूलम्

एवमुक्त्वा स वामेन पदा मौलिमुपास्पृशत् ॥ ५ ॥
शिरश्च राजसिंहस्य पादेन समलोडयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर भीमसेनने अपने बायें पैरसे उसके मुकुटको ठुकराया और उस राजसिंहके मस्तकपर भी पैरसे ठोकर मारा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव क्रोधसंरक्तो भीमः परबलार्दनः ॥ ६ ॥
पुनरेवाब्रवीद् वाक्यं यत् तच्छृणु नराधिप।

मूलम्

तथैव क्रोधसंरक्तो भीमः परबलार्दनः ॥ ६ ॥
पुनरेवाब्रवीद् वाक्यं यत् तच्छृणु नराधिप।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! इसी प्रकार शत्रुसेनाका संहार करनेवाले भीमसेनने क्रोधसे लाल आँखें करके फिर जो बात कही, उसे भी सुन लीजिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येऽस्मान् पुरोपनृत्यन्त मूढा गौरिति गौरिति ॥ ७ ॥
तान् वयं प्रतिनृत्यामः पुनर्गौरिति गौरिति।

मूलम्

येऽस्मान् पुरोपनृत्यन्त मूढा गौरिति गौरिति ॥ ७ ॥
तान् वयं प्रतिनृत्यामः पुनर्गौरिति गौरिति।

अनुवाद (हिन्दी)

जिन मूर्खोंने पहले हमें ‘बैल-बैल’ कहकर नृत्य किया था, आज उन्हें ‘बैल-बैल’ कहकर उस अपमानका बदला लेते हुए हम भी प्रसन्नतासे नाच रहे हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्माकं निकृतिर्वह्निर्नाक्षद्यूतं न वञ्चना।
स्वबाहुबलमाश्रित्य प्रबाधामो वयं रिपून् ॥ ८ ॥

मूलम्

नास्माकं निकृतिर्वह्निर्नाक्षद्यूतं न वञ्चना।
स्वबाहुबलमाश्रित्य प्रबाधामो वयं रिपून् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

छल-कपट करना, घरमें आग लगाना, जूआ खेलना अथवा ठगी करना हमारा काम नहीं है। हम तो अपने बाहुबलका भरोसा करके शत्रुओंको संताप देते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽवाप्य वैरस्य परस्य पारं
वृकोदरः प्राह शनैः प्रहस्य।
युधिष्ठिरं केशवसृञ्जयांश्च
धनंजयं माद्रवतीसुतौ च ॥ ९ ॥

मूलम्

सोऽवाप्य वैरस्य परस्य पारं
वृकोदरः प्राह शनैः प्रहस्य।
युधिष्ठिरं केशवसृञ्जयांश्च
धनंजयं माद्रवतीसुतौ च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार भारी वैरसे पार होकर भीमसेन धीरे-धीरे हँसते हुए युधिष्ठिर, श्रीकृष्ण, सृंजयगण, अर्जुन तथा माद्रीकुमार नकुल-सहदेवसे बोले—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजस्वलां द्रौपदीमानयन् ये
ये चाप्यकुर्वन्त सदस्यवस्त्राम् ।
तान् पश्यध्वं पाण्डवैर्धार्तहराष्ट्रान्
रणे हतांस्तपसा याज्ञसेन्याः ॥ १० ॥

मूलम्

रजस्वलां द्रौपदीमानयन् ये
ये चाप्यकुर्वन्त सदस्यवस्त्राम् ।
तान् पश्यध्वं पाण्डवैर्धार्तहराष्ट्रान्
रणे हतांस्तपसा याज्ञसेन्याः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिन लोगोंने रजस्वला द्रौपदीको सभामें बुलाया, जिन्होंने उसे भरी सभामें नंगी करनेका प्रयत्न किया, उन्हीं धृतराष्ट्रपुत्रोंको द्रौपदीकी तपस्यासे पाण्डवोंने रणभूमिमें मार गिराया, यह सब लोग देख लो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये नः पुरा षण्ढतिलानवोचन्
क्रूरा राज्ञो धृतराष्ट्रस्य पुत्राः।
ते नो हताः सगणाः सानुबन्धाः
कामं स्वर्गं नरकं वा पतामः ॥ ११ ॥

मूलम्

ये नः पुरा षण्ढतिलानवोचन्
क्रूरा राज्ञो धृतराष्ट्रस्य पुत्राः।
ते नो हताः सगणाः सानुबन्धाः
कामं स्वर्गं नरकं वा पतामः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा धृतराष्ट्रके जिन क्रूर पुत्रोंने पहले हमें थोथे तिलोंके समान नपुंसक कहा था, वे अपने सेवकों और सम्बन्धियोंसहित हमारे हाथसे मार डाले गये। अब हम भले ही स्वर्गमें जायँ या नरकमें गिरें, इसकी चिन्ता नहीं है’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च राज्ञः पतितस्य भूमौ
स तां गदां स्कन्धगतां प्रगृह्य।
वामेन पादेन शिरः प्रमृद्य
दुर्योधनं नैकृतिकं न्यवोचत् ॥ १२ ॥

मूलम्

पुनश्च राज्ञः पतितस्य भूमौ
स तां गदां स्कन्धगतां प्रगृह्य।
वामेन पादेन शिरः प्रमृद्य
दुर्योधनं नैकृतिकं न्यवोचत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यों कहकर भीमसेनने पृथ्वीपर पड़े हुए राजा दुर्योधनके कंधेसे लगी हुई उसकी गदा ले ली और बायें पैरसे उसका सिर कुचलकर उसे छलिया और कपटी कहा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृष्टेन राजन् कुरुसत्तमस्य
क्षुद्रात्मना भीमसेनेन पादम् ।
दृष्ट्वा कृतं मूर्धनि नाभ्यनन्दन्
धर्मात्मानः सोमकानां प्रबर्हाः ॥ १३ ॥

मूलम्

हृष्टेन राजन् कुरुसत्तमस्य
क्षुद्रात्मना भीमसेनेन पादम् ।
दृष्ट्वा कृतं मूर्धनि नाभ्यनन्दन्
धर्मात्मानः सोमकानां प्रबर्हाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! क्षुद्र बुद्धिवाले भीमसेनने हर्षमें भरकर जो कुरुश्रेष्ठ राजा दुर्योधनके मस्तकपर पैर रखा, उनके इस कार्यको देखकर सोमकोंमें जो श्रेष्ठ एवं धर्मात्मा पुरुष थे, वे प्रसन्न नहीं हुए और न उन्होंने उनके इस कुकृत्यका अभिनन्दन ही किया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव पुत्रं तथा हत्वा कत्थमानं वृकोदरम्।
नृत्यमानं च बहुशो धर्मराजोऽब्रवीदिदम् ॥ १४ ॥

मूलम्

तव पुत्रं तथा हत्वा कत्थमानं वृकोदरम्।
नृत्यमानं च बहुशो धर्मराजोऽब्रवीदिदम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके पुत्रको मारकर बहुत बढ़-बढ़कर बातें बनाते और बारंबार नाचते-कूदते हुए भीमसेनसे धर्मराज युधिष्ठिरने इस प्रकार कहा—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतोऽसि वैरस्यानृण्यं प्रतिज्ञा पूरिता त्वया।
शुभेनाथाशुभेनैव कर्मणा विरमाधुना ॥ १५ ॥

मूलम्

गतोऽसि वैरस्यानृण्यं प्रतिज्ञा पूरिता त्वया।
शुभेनाथाशुभेनैव कर्मणा विरमाधुना ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीम! तुम वैरसे उऋण हुए। तुमने शुभ या अशुभ कर्मसे अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली। अब तो इस कार्यसे विरत हो जाओ॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा शिरोऽस्य पदा मार्दीर्मा धर्मस्तेऽतिगो भवेत्।
राजा ज्ञातिर्हतश्चायं नैतन्न्याय्यं तवानघ ॥ १६ ॥

मूलम्

मा शिरोऽस्य पदा मार्दीर्मा धर्मस्तेऽतिगो भवेत्।
राजा ज्ञातिर्हतश्चायं नैतन्न्याय्यं तवानघ ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम इसके मस्तकको पैरसे न ठुकराओ। तुम्हारे द्वारा धर्मका उल्लंघन नहीं होना चाहिये। अनघ! दुर्योधन राजा और हमारा भाई-बन्धु है; यह मार डाला गया, अब तुम्हें इसके साथ ऐसा बर्ताव करना उचित नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकादशचमूनाथं कुरूणामधिपं तथा ।
मा स्प्राक्षीर्भीम पादेन राजानं ज्ञातिमेव च ॥ १७ ॥

मूलम्

एकादशचमूनाथं कुरूणामधिपं तथा ।
मा स्प्राक्षीर्भीम पादेन राजानं ज्ञातिमेव च ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीम! ग्यारह अक्षौहिणी सेनाके स्वामी तथा अपने ही बान्धव कुरुराज राजा दुर्योधनको पैरसे न ठुकराओ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतबन्धुर्हतामात्यो भ्रष्टसैन्यो हतो मृधे।
सर्वाकारेण शोच्योऽयं नावहास्योऽयमीश्वरः ॥ १८ ॥

मूलम्

हतबन्धुर्हतामात्यो भ्रष्टसैन्यो हतो मृधे।
सर्वाकारेण शोच्योऽयं नावहास्योऽयमीश्वरः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसके भाई और मन्त्री मारे गये, सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी और यह स्वयं भी युद्धमें मारा गया। ऐसी दशामें राजा दुर्योधन सर्वथा शोकके योग्य है, उपहासका पात्र नहीं है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विध्वस्तोऽयं हतामात्यो हतभ्राता हतप्रजः।
उत्सन्नपिण्डो भ्राता च नैतन्न्याय्यं कृतं त्वया ॥ १९ ॥

मूलम्

विध्वस्तोऽयं हतामात्यो हतभ्राता हतप्रजः।
उत्सन्नपिण्डो भ्राता च नैतन्न्याय्यं कृतं त्वया ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसका सर्वथा विध्वंस हो गया, इसके मन्त्री, भाई और पुत्र भी मार डाले गये। अब इसे पिण्ड देनेवाला भी कोई नहीं रह गया है। इसके सिवा यह हमारा ही भाई है। तुमने इसके साथ यह न्यायोचित बर्ताव नहीं किया है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धार्मिको भीमसेनोऽसावित्याहुस्त्वां पुरा जनाः।
स कस्माद् भीमसेन त्वं राजानमधितिष्ठसि ॥ २० ॥

मूलम्

धार्मिको भीमसेनोऽसावित्याहुस्त्वां पुरा जनाः।
स कस्माद् भीमसेन त्वं राजानमधितिष्ठसि ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे विषयमें लोग पहले कहा करते थे कि भीमसेन बड़े धर्मात्मा हैं। भीम! वही तुम आज राजा दुर्योधनको क्यों पैरसे ठुकराते हो?’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा भीमसेनं तु साश्रुकण्ठो युधिष्ठिरः।
उपसृत्याब्रवीद् दीनो दुर्योधनमरिंदमम् ॥ २१ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा भीमसेनं तु साश्रुकण्ठो युधिष्ठिरः।
उपसृत्याब्रवीद् दीनो दुर्योधनमरिंदमम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनसे ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर दीनभावसे शत्रुदमन दुर्योधनके पास गये और अश्रुगद्‌गद कण्ठसे इस प्रकार बोले—॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तात मन्युर्न ते कार्यो नात्मा शोच्यस्त्वया तथा।
नूनं पूर्वकृतं कर्म सुघोरमनुभूयते ॥ २२ ॥

मूलम्

तात मन्युर्न ते कार्यो नात्मा शोच्यस्त्वया तथा।
नूनं पूर्वकृतं कर्म सुघोरमनुभूयते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! तुम्हें खेद या क्रोध नहीं करना चाहिये। साथ ही अपने लिये शोक करना भी उचित नहीं है। निश्चय ही सब लोग अपने पहलेके किये हुए अत्यन्त भयंकर कर्मोंका ही परिणाम भोगते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धात्रोपदिष्टं विषमं नूनं फलमसंस्कृतम्।
यद् वयं त्वां जिघांसामस्त्वं चास्मान् कुरुसत्तम ॥ २३ ॥

मूलम्

धात्रोपदिष्टं विषमं नूनं फलमसंस्कृतम्।
यद् वयं त्वां जिघांसामस्त्वं चास्मान् कुरुसत्तम ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुश्रेष्ठ! इस समय जो हमलोग तुम्हें और तुम हमें मार डालना चाहते थे, यह अवश्य ही विधाताका दिया हुआ हमारे ही अशुद्ध कर्मोंका विषम फल है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मनो ह्यपराधेन महद् व्यसनमीदृशम्।
प्राप्तवानसि यल्लोभान्मदाद् बाल्याच्च भारत ॥ २४ ॥

मूलम्

आत्मनो ह्यपराधेन महद् व्यसनमीदृशम्।
प्राप्तवानसि यल्लोभान्मदाद् बाल्याच्च भारत ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! तुमने लोभ, मद और अविवेकके कारण अपने ही अपराधसे ऐसा भारी संकट प्राप्त किया है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घातयित्वा वयस्यांश्च भ्रातॄनथ पितॄंस्तथा।
पुत्रान् पौत्रांस्तथा चान्यांस्ततोऽसि निधनं गतः ॥ २५ ॥

मूलम्

घातयित्वा वयस्यांश्च भ्रातॄनथ पितॄंस्तथा।
पुत्रान् पौत्रांस्तथा चान्यांस्ततोऽसि निधनं गतः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम अपने मित्रों, भाइयों, पितृतुल्य पुरुषों, पुत्रों और पौत्रोंका वध कराकर फिर स्वयं भी मारे गये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तवापराधादस्माभिर्भ्रातरस्ते निपातिताः ।
निहता ज्ञातयश्चापि दिष्टं मन्ये दुरत्ययम् ॥ २६ ॥

मूलम्

तवापराधादस्माभिर्भ्रातरस्ते निपातिताः ।
निहता ज्ञातयश्चापि दिष्टं मन्ये दुरत्ययम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे अपराधसे ही हमलोगोंने तुम्हारे भाइयोंको मार गिराया और कुटुम्बीजनोंका वध किया है, मैं इसे दैवका दुर्लङ्घ्य विधान ही मानता हूँ॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मा न शोचनीयस्ते श्लाघ्यो मृत्युस्तवानघ।
वयमेवाधुना शोच्याः सर्वावस्थासु कौरव ॥ २७ ॥
कृपणं वर्तयिष्यामस्तैर्हीना बन्धुभिः प्रियैः।

मूलम्

आत्मा न शोचनीयस्ते श्लाघ्यो मृत्युस्तवानघ।
वयमेवाधुना शोच्याः सर्वावस्थासु कौरव ॥ २७ ॥
कृपणं वर्तयिष्यामस्तैर्हीना बन्धुभिः प्रियैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अनघ! तुम्हें अपने लिये शोक नहीं करना चाहिये, तुम्हारी प्रशंसनीय मृत्यु हो रही है। कुरुराज! अब तो सभी अवस्थाओंमें इस समय हमलोग ही शोचनीय हो गये हैं; क्योंकि उन प्रिय बन्धु-बान्धवोंसे रहित होकर हमें दीनतापूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ेगा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातॄणां चैव पुत्राणां तथा वै शोकविह्वलाः ॥ २८ ॥
कथं द्रक्ष्यामि विधवा वधूः शोकपरिप्लुताः।

मूलम्

भ्रातॄणां चैव पुत्राणां तथा वै शोकविह्वलाः ॥ २८ ॥
कथं द्रक्ष्यामि विधवा वधूः शोकपरिप्लुताः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भला, मैं भाइयों और पुत्रोंकी उन शोकविह्वला और दुःखमें डूबी हुई विधवा बहुओंको कैसे देख सकूँगा॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेकः सुस्थितो राजन् स्वर्गे ते निलयो ध्रुवः ॥ २९ ॥
वयं नरकसंज्ञं वै दुःखं प्राप्स्याम दारुणम्।

मूलम्

त्वमेकः सुस्थितो राजन् स्वर्गे ते निलयो ध्रुवः ॥ २९ ॥
वयं नरकसंज्ञं वै दुःखं प्राप्स्याम दारुणम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! तुम अकेले सुखी हो। निश्चय ही स्वर्गमें तुम्हें स्थान प्राप्त होगा और हमें यहाँ नरकतुल्य दारुण दुःख भोगना पड़ेगा॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नुषाश्च प्रस्नुषाश्चैव धृतराष्ट्रस्य विह्वलाः।
गर्हयिष्यन्ति नो नूनं विधवाः शोककर्शिताः ॥ ३० ॥

मूलम्

स्नुषाश्च प्रस्नुषाश्चैव धृतराष्ट्रस्य विह्वलाः।
गर्हयिष्यन्ति नो नूनं विधवाः शोककर्शिताः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धृतराष्ट्रकी वे शोकातुर एवं व्याकुल विधवा पुत्रवधुएँ और पौत्रवधुएँ भी निश्चय ही हमलोगोंकी निन्दा करेंगी’॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो निशश्वास स पार्थिवः।
विललाप चिरं चापि धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ३१ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो निशश्वास स पार्थिवः।
विललाप चिरं चापि धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दुःखसे आतुर हो लंबी साँस छोड़ते हुए बहुत देरतक विलाप करते रहे॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि युधिष्ठिरविलापे एकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें युधिष्ठिरका विलापविषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५९॥