भागसूचना
षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनके लिये अपशकुन, भीमसेनका उत्साह तथा भीम और दुर्योधनमें वाग्युद्धके पश्चात् गदायुद्धका आरम्भ
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वाग्युद्धमभवत् तुमुलं जनमेजय।
यत्र दुःखान्वितो राजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ॥ १ ॥
मूलम्
ततो वाग्युद्धमभवत् तुमुलं जनमेजय।
यत्र दुःखान्वितो राजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर भीमसेन और दुर्योधनमें भयंकर वाग्युद्ध होने लगा। इस प्रसंगको सुनकर राजा धृतराष्ट्र बहुत दुःखी हुए और संजयसे इस प्रकार बोले—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिगस्तु खलु मानुष्यं यस्य निष्ठेयमीदृशी।
एकादशचमूभर्ता यत्र पुत्रो ममानघ ॥ २ ॥
आज्ञाप्य सर्वान् नृपतीन् भुक्त्वा चेमां वसुंधराम्।
गदामादाय वेगेन पदातिः प्रस्थितो रणे ॥ ३ ॥
मूलम्
धिगस्तु खलु मानुष्यं यस्य निष्ठेयमीदृशी।
एकादशचमूभर्ता यत्र पुत्रो ममानघ ॥ २ ॥
आज्ञाप्य सर्वान् नृपतीन् भुक्त्वा चेमां वसुंधराम्।
गदामादाय वेगेन पदातिः प्रस्थितो रणे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निष्पाप संजय! जिसका परिणाम ऐसा दुःखद होता है, उस मानव-जन्मको धिक्कार है! मेरा पुत्र एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओंका स्वामी था। उसने सब राजाओंपर हुक्म चलाया और सारी पृथ्वीका अकेले उपभोग किया; किंतु अन्तमें उसकी यह दशा हुई कि गदा हाथमें लेकर उसे वेगपूर्वक पैदल ही युद्धमें जाना पड़ा॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूत्वा हि जगतो नाथो ह्यनाथ इव मे सुतः।
गदामुद्यम्य यो याति किमन्यद् भागधेयतः ॥ ४ ॥
मूलम्
भूत्वा हि जगतो नाथो ह्यनाथ इव मे सुतः।
गदामुद्यम्य यो याति किमन्यद् भागधेयतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मेरा पुत्र सम्पूर्ण जगत्का नाथ था, वही अनाथकी भाँति गदा हाथमें लेकर युद्धस्थलमें पैदल जा रहा था। इसे भाग्यके सिवा और क्या कहा जा सकता है?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो दुःखं महत् प्राप्तं पुत्रेण मम संजय।
एवमुक्त्वा स दुःखार्तो विरराम जनाधिपः ॥ ५ ॥
मूलम्
अहो दुःखं महत् प्राप्तं पुत्रेण मम संजय।
एवमुक्त्वा स दुःखार्तो विरराम जनाधिपः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संजय! हाय! मेरे पुत्रने बड़ा भारी दुःख उठाया।’ ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र दुःखसे पीड़ित हो चुप हो रहे॥५॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मेघनिनदो हर्षान्निनदन्निव गोवृषः।
आजुहाव तदा पार्थं युद्धाय युधि वीर्यवान् ॥ ६ ॥
मूलम्
स मेघनिनदो हर्षान्निनदन्निव गोवृषः।
आजुहाव तदा पार्थं युद्धाय युधि वीर्यवान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— महाराज! उस समय रणभूमिमें मेघके समान गम्भीर गर्जना करनेवाले पराक्रमी दुर्योधनने हर्षमें भरकर जोर-जोरसे शब्द करनेवाले साँड़की भाँति सिंहनाद करके कुन्तीपुत्र भीमसेनको युद्धके लिये ललकारा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीममाह्वयमाने तु कुरुराजे महात्मनि।
प्रादुरासन् सुघोराणि रूपाणि विविधान्युत ॥ ७ ॥
मूलम्
भीममाह्वयमाने तु कुरुराजे महात्मनि।
प्रादुरासन् सुघोराणि रूपाणि विविधान्युत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामनस्वी कुरुराज दुर्योधन जब भीमसेनका आह्वान करने लगा, उस समय नाना प्रकारके भयंकर अपशकुन प्रकट हुए॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ववुर्वाताः सनिर्घाताः पांशुवर्षं पपात च।
बभूवुश्च दिशः सर्वास्तिमिरेण समावृताः ॥ ८ ॥
महास्वनाः सनिर्घातास्तुमुला लोमहर्षणाः ।
पेतुस्तथोल्काः शतशः स्फोटयन्त्यो नभस्तलात् ॥ ९ ॥
राहुश्चाग्रसदादित्यमपर्वणि विशाम्पते ।
चकम्पे च महाकम्पं पृथिवी सवनद्रुमा ॥ १० ॥
मूलम्
ववुर्वाताः सनिर्घाताः पांशुवर्षं पपात च।
बभूवुश्च दिशः सर्वास्तिमिरेण समावृताः ॥ ८ ॥
महास्वनाः सनिर्घातास्तुमुला लोमहर्षणाः ।
पेतुस्तथोल्काः शतशः स्फोटयन्त्यो नभस्तलात् ॥ ९ ॥
राहुश्चाग्रसदादित्यमपर्वणि विशाम्पते ।
चकम्पे च महाकम्पं पृथिवी सवनद्रुमा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बिजलीकी गड़गड़ाहटके साथ प्रचण्ड वायु चलने लगी, सब ओर धूलिकी वर्षा होने लगी, सम्पूर्ण दिशाएँ अन्धकारसे आच्छन्न हो गयीं, आकाशसे महान् शब्द तथा वज्रकी-सी गड़गड़ाहटके साथ रोंगटे खड़े कर देनेवाली सैकड़ों भयंकर उल्काएँ भूतलको विदीर्ण करती हुई गिरने लगीं। प्रजानाथ! अमावास्याके बिना ही राहुने सूर्यको ग्रस लिया, वन और वृक्षोंसहित सारी पृथ्वी जोर-जोरसे काँपने लगी॥८—१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुक्षाश्च वाताः प्रववुर्नीचैः शर्करकर्षिणः।
गिरीणां शिखराण्येव न्यपतन्त महीतले ॥ ११ ॥
मूलम्
रुक्षाश्च वाताः प्रववुर्नीचैः शर्करकर्षिणः।
गिरीणां शिखराण्येव न्यपतन्त महीतले ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नीचे धूल और कंकड़की वर्षा करती हुई रूखी हवा चलने लगी। पर्वतोंके शिखर टूट-टूटकर पृथ्वीपर गिरने लगे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगा बहुविधाकाराः सम्पतन्ति दिशो दश।
दीप्ताः शिवाश्चाप्यनदन् घोररूपाः सुदारुणाः ॥ १२ ॥
मूलम्
मृगा बहुविधाकाराः सम्पतन्ति दिशो दश।
दीप्ताः शिवाश्चाप्यनदन् घोररूपाः सुदारुणाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाना प्रकारकी आकृतिवाले मृग दसों दिशाओंमें दौड़ लगाने लगे। अत्यन्त भयंकर एवं घोररूप धारण करनेवाली सियारिनें जिनका मुख अग्निसे प्रज्वलित हो रहा था, अमंगलसूचक बोली बोल रही थीं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्घाताश्च महाघोरा बभूवुर्लोमहर्षणाः ।
दीप्तायां दिशि राजेन्द्र मृगाश्चाशुभवेदिनः ॥ १३ ॥
मूलम्
निर्घाताश्च महाघोरा बभूवुर्लोमहर्षणाः ।
दीप्तायां दिशि राजेन्द्र मृगाश्चाशुभवेदिनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! अत्यन्त भयंकर और रोमांचकारी शब्द प्रकट हो रहे थे, दिशाएँ मानो जल रही थीं और मृग किसी भावी अमंगलकी सूचना दे रहे थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदपानगताश्चापो व्यवर्धन्त समन्ततः ।
अशरीरा महानादाः श्रूयन्ते स्म तदा नृप ॥ १४ ॥
मूलम्
उदपानगताश्चापो व्यवर्धन्त समन्ततः ।
अशरीरा महानादाः श्रूयन्ते स्म तदा नृप ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! कुओंके जल सब ओरसे अपने-आप बढ़ने लगे और बिना शरीरके ही जोर-जोरसे गर्जनाएँ सुनायी दे रही थीं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमादीनि दृष्ट्वाथ निमित्तानि वृकोदरः।
उवाच भ्रातरं ज्येष्ठं धर्मराजं युधिष्ठिरम् ॥ १५ ॥
मूलम्
एवमादीनि दृष्ट्वाथ निमित्तानि वृकोदरः।
उवाच भ्रातरं ज्येष्ठं धर्मराजं युधिष्ठिरम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बहुत-से अपशकुन देखकर भीमसेन अपने ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज युधिष्ठिरसे बोले—॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैष शक्तो रणे जेतुं मन्दात्मा मां सुयोधनः।
अद्य क्रोधं विमोक्ष्यामि निगूढं हृदये चिरम् ॥ १६ ॥
सुयोधने कौरवेन्द्रे खाण्डवेऽग्निमिवार्जुनः ।
शल्यमद्योद्धरिष्यामि तव पाण्डव हृच्छयम् ॥ १७ ॥
मूलम्
नैष शक्तो रणे जेतुं मन्दात्मा मां सुयोधनः।
अद्य क्रोधं विमोक्ष्यामि निगूढं हृदये चिरम् ॥ १६ ॥
सुयोधने कौरवेन्द्रे खाण्डवेऽग्निमिवार्जुनः ।
शल्यमद्योद्धरिष्यामि तव पाण्डव हृच्छयम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भैया! यह मन्दबुद्धि दुर्योधन रणभूमिमें मुझे किसी प्रकार परास्त नहीं कर सकता। आज मैं अपने हृदयमें चिरकालसे छिपाये हुए क्रोधको कौरवराज दुर्योधनपर उसी प्रकार छोड़ूँगा, जैसे अर्जुनने खाण्डववनमें अग्निको छोड़ा था। पाण्डुनन्दन! आज आपके हृदयका काँटा मैं निकाल दूँगा॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहत्य गदया पापमिमं कुरुकुलाधमम्।
अद्य कीर्तिमयीं मालां प्रतिमोक्ष्याम्यहं त्वयि ॥ १८ ॥
मूलम्
निहत्य गदया पापमिमं कुरुकुलाधमम्।
अद्य कीर्तिमयीं मालां प्रतिमोक्ष्याम्यहं त्वयि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं अपनी गदासे इस कुरुकुलाधम पापीको मारकर आज आपको कीर्तिमयी माला पहनाऊँगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वेमं पापकर्माणं गदया रणमूर्धनि।
अद्यास्य शतधा देहं भिनद्मि गदयानया ॥ १९ ॥
मूलम्
हत्वेमं पापकर्माणं गदया रणमूर्धनि।
अद्यास्य शतधा देहं भिनद्मि गदयानया ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धके मुहानेपर गदाके आघातसे इस पापीका वध करके आज इसी गदासे इसके शरीरके सौ-सौ टुकड़े कर डालूँगा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायं प्रवेष्टा नगरं पुनर्वारणसाह्वयम्।
सर्पोत्सर्गस्य शयने विषदानस्य भोजने ॥ २० ॥
प्रमाणकोट्यां पातस्य दाहस्य जतुवेश्मनि।
सभायामवहासस्य सर्वस्वहरणस्य च ॥ २१ ॥
वर्षमज्ञातवासस्य वनवासस्य चानघ ।
अद्यान्तमेषां दुःखानां गन्ताहं भरतर्षभ ॥ २२ ॥
मूलम्
नायं प्रवेष्टा नगरं पुनर्वारणसाह्वयम्।
सर्पोत्सर्गस्य शयने विषदानस्य भोजने ॥ २० ॥
प्रमाणकोट्यां पातस्य दाहस्य जतुवेश्मनि।
सभायामवहासस्य सर्वस्वहरणस्य च ॥ २१ ॥
वर्षमज्ञातवासस्य वनवासस्य चानघ ।
अद्यान्तमेषां दुःखानां गन्ताहं भरतर्षभ ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब फिर कभी यह हस्तिनापुरमें प्रवेश नहीं करेगा। भरतश्रेष्ठ! इसने जो मेरी शय्यापर साँप छोड़ा था, भोजनमें विष दिया था, प्रमाणकोटिके जलमें मुझे गिराया था, लाक्षागृहमें जलानेकी चेष्टा की थी, भरी सभामें मेरा उपहास किया था, सर्वस्व हर लिया था तथा बारह वर्षोंतक वनवास और एक वर्षतक अज्ञातवासके लिये विवश किया था; इसके द्वारा प्राप्त हुए मैं इन सभी दुःखोंका अन्त कर डालूँगा॥२०—२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकाह्ना विनिहत्येमं भविष्याम्यात्मनोऽनृणः ।
अद्यायुर्धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेरकृतात्मनः ॥ २३ ॥
समाप्तं भरतश्रेष्ठ मातापित्रोश्च दर्शनम्।
मूलम्
एकाह्ना विनिहत्येमं भविष्याम्यात्मनोऽनृणः ।
अद्यायुर्धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेरकृतात्मनः ॥ २३ ॥
समाप्तं भरतश्रेष्ठ मातापित्रोश्च दर्शनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज एक दिनमें इसका वध करके मैं अपने-आपसे उऋण हो जाऊँगा। भरतभूषण! आज दुर्बुद्धि एवं अजितात्मा धृतराष्ट्रपुत्रकी आयु समाप्त हो गयी है। इसे माता-पिताके दर्शनका अवसर भी अब नहीं मिलनेवाला है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य सौख्यं तु राजेन्द्र कुरुराजस्य दुर्मतेः ॥ २४ ॥
समाप्तं च महाराज नारीणां दर्शनं पुनः।
मूलम्
अद्य सौख्यं तु राजेन्द्र कुरुराजस्य दुर्मतेः ॥ २४ ॥
समाप्तं च महाराज नारीणां दर्शनं पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजेन्द्र! महाराज! आज खोटी बुद्धिवाले कुरुराज दुर्योधनका सारा सुख समाप्त हो गया। अब इसके लिये पुनः अपनी स्त्रियोंको देखना और उनसे मिलना असम्भव है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्यायं कुरुराजस्य शान्तनोः कुलपांसनः ॥ २५ ॥
प्राणान् श्रियं च राज्यं च त्यक्त्वा शेष्यति भूतले।
मूलम्
अद्यायं कुरुराजस्य शान्तनोः कुलपांसनः ॥ २५ ॥
प्राणान् श्रियं च राज्यं च त्यक्त्वा शेष्यति भूतले।
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुराज शान्तनुके कुलका यह जीता-जागता कलंक आज अपने प्राण, लक्ष्मी तथा राज्यको छोड़कर सदाके लिये पृथ्वीपर सो जायगा॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा च धृतराष्ट्रोऽद्य श्रुत्वा पुत्रं निपातितम् ॥ २६ ॥
स्मरिष्यत्यशुभं कर्म यत्तच्छकुनिबुद्धिजम् ।
मूलम्
राजा च धृतराष्ट्रोऽद्य श्रुत्वा पुत्रं निपातितम् ॥ २६ ॥
स्मरिष्यत्यशुभं कर्म यत्तच्छकुनिबुद्धिजम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज राजा धृतराष्ट्र अपने इस पुत्रको मारा गया सुनकर अपने उन अशुभ कर्मोंको याद करेंगे, जिन्हें उन्होंने शकुनिकी सलाहके अनुसार किया था’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा राजशार्दूल गदामादाय वीर्यवान् ॥ २७ ॥
अभ्यतिष्ठत युद्धाय शक्रो वृत्रमिवाह्वयन्।
मूलम्
इत्युक्त्वा राजशार्दूल गदामादाय वीर्यवान् ॥ २७ ॥
अभ्यतिष्ठत युद्धाय शक्रो वृत्रमिवाह्वयन्।
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! ऐसा कहकर पराक्रमी भीमसेन हाथमें गदा ले युद्धके लिये खड़े हो गये और जैसे इन्द्रने वृत्रासुरको ललकारा था, उसी प्रकार वे दुर्योधनका आह्वान करने लगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुद्यतगदं दृष्ट्वा कैलासमिव शृङ्गिणम् ॥ २८ ॥
भीमसेनः पुनः क्रुद्धो दुर्योधनमुवाच ह।
मूलम्
तमुद्यतगदं दृष्ट्वा कैलासमिव शृङ्गिणम् ॥ २८ ॥
भीमसेनः पुनः क्रुद्धो दुर्योधनमुवाच ह।
अनुवाद (हिन्दी)
शिखरयुक्त कैलास पर्वतके समान गदा उठाये दुर्योधनको खड़ा देख भीमसेन पुनः कुपित हो उससे इस प्रकार बोले—॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञश्च धृतराष्ट्रस्य तथा त्वमपि चात्मनः ॥ २९ ॥
स्मर तद् दुष्कृतं कर्म यद् वृत्तं वारणावते।
मूलम्
राज्ञश्च धृतराष्ट्रस्य तथा त्वमपि चात्मनः ॥ २९ ॥
स्मर तद् दुष्कृतं कर्म यद् वृत्तं वारणावते।
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्योधन! वारणावत नगरमें जो कुछ हुआ था, राजा धृतराष्ट्रके और अपने भी उस कुकर्मको तू याद कर ले॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदी च परिक्लिष्टा सभामध्ये रजस्वला ॥ ३० ॥
द्यूतेन वञ्चितो राजा यत् त्वया सौबलेन च।
वने दुःखं च यत् प्राप्तमस्माभिस्त्वत्कृतं महत् ॥ ३१ ॥
विराटनगरे चैव योन्यन्तरगतैरिव ।
तत् सर्वं पातयाम्यद्य दिष्ट्या दृष्टोऽसि दुर्मते ॥ ३२ ॥
मूलम्
द्रौपदी च परिक्लिष्टा सभामध्ये रजस्वला ॥ ३० ॥
द्यूतेन वञ्चितो राजा यत् त्वया सौबलेन च।
वने दुःखं च यत् प्राप्तमस्माभिस्त्वत्कृतं महत् ॥ ३१ ॥
विराटनगरे चैव योन्यन्तरगतैरिव ।
तत् सर्वं पातयाम्यद्य दिष्ट्या दृष्टोऽसि दुर्मते ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तूने भरी सभामें जो रजस्वला द्रौपदीको अपमानित करके उसे क्लेश पहुँचाया था, सुबलपुत्र शकुनिके द्वारा जूएमें जो राजा युधिष्ठिरको ठग लिया था, तुम्हारे कारण हम सब लोगोंने जो वनमें महान् दुःख उठाया था और विराटनगरमें जो हमें दूसरी योनिमें गये हुए प्राणियोंके समान रहना पड़ा था; इन सब कष्टोंके कारण मेरे मनमें जो क्रोध संचित है, वह सब-का-सब आज तुझपर डाल दूँगा। दुर्मते! सौभाग्यसे आज तू मुझे दीख गया है॥३०—३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्कृतेऽसौ हतः शेते शरतल्पे प्रतापवान्।
गाङ्गेयो रथिनां श्रेष्ठो निहतो याज्ञसेनिना ॥ ३३ ॥
मूलम्
त्वत्कृतेऽसौ हतः शेते शरतल्पे प्रतापवान्।
गाङ्गेयो रथिनां श्रेष्ठो निहतो याज्ञसेनिना ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तेरे ही कारण रथियोंमें श्रेष्ठ प्रतापी गंगानन्दन भीष्म द्रुपदकुमार शिखण्डीके हाथसे मारे जाकर बाण-शय्यापर सो रहे हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतो द्रोणश्च कर्णश्च तथा शल्यः प्रतापवान्।
वैराग्नेरादिकर्तासौ शकुनिः सौबलो हतः ॥ ३४ ॥
मूलम्
हतो द्रोणश्च कर्णश्च तथा शल्यः प्रतापवान्।
वैराग्नेरादिकर्तासौ शकुनिः सौबलो हतः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्रोणाचार्य, कर्ण और प्रतापी शल्य मारे गये तथा इस वैरकी आगको प्रज्वलित करनेमें जिसका सबसे पहला हाथ था, वह सुबलपुत्र शकुनि भी मार डाला गया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातिकामी तथा पापो द्रौपद्याः क्लेशकृद्धतः।
भ्रातरस्ते हताः सर्वे शूरा विक्रान्तयोधिनः ॥ ३५ ॥
मूलम्
प्रातिकामी तथा पापो द्रौपद्याः क्लेशकृद्धतः।
भ्रातरस्ते हताः सर्वे शूरा विक्रान्तयोधिनः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दौपदीको क्लेश देनेवाला पापात्मा प्रातिकामी भी मारा गया। साथ ही जो पराक्रमपूर्वक युद्ध करनेवाले थे, वे तेरे सभी शूरवीर भाई भी मारे जा चुके हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते चान्ये च बहवो निहतास्त्वत्कृते नृपाः।
त्वामद्य निहनिष्यामि गदया नात्र संशयः ॥ ३६ ॥
मूलम्
एते चान्ये च बहवो निहतास्त्वत्कृते नृपाः।
त्वामद्य निहनिष्यामि गदया नात्र संशयः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये तथा और भी बहुत-से नरेश तेरे लिये युद्धमें मारे गये हैं। आज तुझे भी गदासे मार गिराऊँगा, इसमें संशय नहीं है’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुच्चै राजेन्द्र भाषमाणं वृकोदरम्।
उवाच गतभी राजन् पुत्रस्ते सत्यविक्रमः ॥ ३७ ॥
मूलम्
इत्येवमुच्चै राजेन्द्र भाषमाणं वृकोदरम्।
उवाच गतभी राजन् पुत्रस्ते सत्यविक्रमः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! इस प्रकार उच्चस्वरसे बोलनेवाले भीमसेनसे आपके सत्यपराक्रमी पुत्रने निर्भय होकर कहा—॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कत्थनेन बहुना युध्यस्व त्वं वृकोदर।
अद्य तेऽहं विनेष्यामि युद्धश्रद्धां कुलाधम ॥ ३८ ॥
मूलम्
किं कत्थनेन बहुना युध्यस्व त्वं वृकोदर।
अद्य तेऽहं विनेष्यामि युद्धश्रद्धां कुलाधम ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वृकोदर! बहुत बढ़-बढ़कर बातें बनानेसे क्या लाभ? तू मेरे साथ संग्राम कर ले। कुलाधम! आज मैं तेरा युद्धका हौसला मिटा दूँगा॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि दुर्योधनः क्षुद्र केनचित् त्वद्विधेन वै।
शक्यस्त्रासयितुं वाचा यथान्यः प्राकृतो नरः ॥ ३९ ॥
मूलम्
न हि दुर्योधनः क्षुद्र केनचित् त्वद्विधेन वै।
शक्यस्त्रासयितुं वाचा यथान्यः प्राकृतो नरः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ओ नीच! तेरे-जैसा कोई भी मनुष्य अन्य प्राकृत पुरुषके समान दुर्योधनको वाणीद्वारा नहीं डरा सकता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरकालेप्सितं दिष्ट्या हृदयस्थमिदं मम।
त्वया सह गदायुद्धं त्रिदशैरुपपादितम् ॥ ४० ॥
मूलम्
चिरकालेप्सितं दिष्ट्या हृदयस्थमिदं मम।
त्वया सह गदायुद्धं त्रिदशैरुपपादितम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सौभाग्यकी बात है कि मेरे हृदयमें दीर्घकालसे जो तेरे साथ गदायुद्ध करनेकी अभिलाषा थी, उसे देवताओंने पूर्ण कर दिया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं वाचा बहुनोक्तेन कत्थितेन च दुर्मते।
वाणी सम्पद्यतामेषा कर्मणा मा चिरं कृथाः ॥ ४१ ॥
मूलम्
किं वाचा बहुनोक्तेन कत्थितेन च दुर्मते।
वाणी सम्पद्यतामेषा कर्मणा मा चिरं कृथाः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्बुद्धे! वाणीद्वारा बहुत शेखी बघारनेसे क्या होगा? तू जो कुछ कहता है, उसे शीघ्र ही कार्यरूपमें परिणत कर’॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सर्व एवाभ्यपूजयन्।
राजानः सोमकाश्चैव ये तत्रासन् समागताः ॥ ४२ ॥
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सर्व एवाभ्यपूजयन्।
राजानः सोमकाश्चैव ये तत्रासन् समागताः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनकी यह बात सुनकर वहाँ आये हुए समस्त राजाओं तथा सोमकोंने उसकी बड़ी सराहना की॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सम्पूजितः सर्वैः सम्प्रहृष्टतनूरुहः।
भूयो धीरां मतिं चक्रे युद्धाय कुरुनन्दनः ॥ ४३ ॥
मूलम्
ततः सम्पूजितः सर्वैः सम्प्रहृष्टतनूरुहः।
भूयो धीरां मतिं चक्रे युद्धाय कुरुनन्दनः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सबसे सम्मानित हो कुरुनन्दन दुर्योधनने युद्धके लिये धीर बुद्धिका आश्रय लिया। उस समय उसके शरीरमें रोमांच हो आया था॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्मत्तमिव मातङ्गं तलशब्दैर्नराधिपाः ।
भूयः संहर्षयांचक्रुर्दुर्योधनममर्षणम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
उन्मत्तमिव मातङ्गं तलशब्दैर्नराधिपाः ।
भूयः संहर्षयांचक्रुर्दुर्योधनममर्षणम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद जैसे लोग ताली बजाकर मतवाले हाथीको कुपित कर देते हैं, उसी प्रकार राजाओंने ताली पीटकर अमर्षशील दुर्योधनको पुनः हर्ष और उत्साहसे भर दिया॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं महात्मा महात्मानं गदामुद्यम्य पाण्डवः।
अभिदुद्राव वेगेन धार्तराष्ट्रं वृकोदरः ॥ ४५ ॥
मूलम्
तं महात्मा महात्मानं गदामुद्यम्य पाण्डवः।
अभिदुद्राव वेगेन धार्तराष्ट्रं वृकोदरः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामनस्वी पाण्डुपुत्र भीमसेनने गदा उठाकर आपके महामना पुत्र दुर्योधनपर बड़े वेगसे आक्रमण किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृंहन्ति कुञ्जरास्तत्र हया ह्रेषन्ति चासकृत्।
शस्त्राणि चाप्यदीप्यन्त पाण्डवानां जयैषिणाम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
बृंहन्ति कुञ्जरास्तत्र हया ह्रेषन्ति चासकृत्।
शस्त्राणि चाप्यदीप्यन्त पाण्डवानां जयैषिणाम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय हाथी बारंबार चिग्घाड़ने और घोड़े हिनहिनाने लगे। साथ ही विजयाभिलाषी पाण्डवोंके अस्त्र-शस्त्र चमक उठे॥४६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि गदायुद्धारम्भे षट्पञ्चाशत्तमोध्यायः ॥ ५६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें गदायुद्धका आरम्भविषयक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५६॥