०५५ युद्धारम्भे

भागसूचना

पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

बलरामजीकी सलाहसे सबका कुरुक्षेत्रके समन्तपंचक तीर्थमें जाना और वहाँ भीम तथा दुर्योधनमें गदायुद्धकी तैयारी

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तदभवद् युद्धं तुमुलं जनमेजय।
यत्र दुःखान्वितो राजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ॥ १ ॥

मूलम्

एवं तदभवद् युद्धं तुमुलं जनमेजय।
यत्र दुःखान्वितो राजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार वह तुमुल युद्ध हुआ, जिसके विषयमें अत्यन्त दुःखी हुए राजा धृतराष्ट्रने इस तरह प्रश्न किया॥१॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामं संनिहितं दृष्ट्वा गदायुद्ध उपस्थिते।
मम पुत्रः कथं भीमं प्रत्ययुध्यत संजय ॥ २ ॥

मूलम्

रामं संनिहितं दृष्ट्वा गदायुद्ध उपस्थिते।
मम पुत्रः कथं भीमं प्रत्ययुध्यत संजय ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— संजय! गदायुद्ध उपस्थित होनेपर बलरामजीको निकट आया देख मेरे पुत्रने भीमसेनके साथ किस प्रकार युद्ध किया?॥२॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामसांनिध्यमासाद्य पुत्रो दुर्योधनस्तव ।
युद्धकामो महाबाहुः समहृष्यत वीर्यवान् ॥ ३ ॥

मूलम्

रामसांनिध्यमासाद्य पुत्रो दुर्योधनस्तव ।
युद्धकामो महाबाहुः समहृष्यत वीर्यवान् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! बलरामजीको निकट पाकर युद्धकी इच्छा रखनेवाला आपका शक्तिशाली पुत्र महाबाहु दुर्योधन बड़ा प्रसन्न हुआ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा लाङ्गलिनं राजा प्रत्युत्थाय च भारत।
प्रीत्या परमया युक्तः समभ्यर्च्य यथाविधि ॥ ४ ॥
आसनं च ददौ तस्मै पर्यपृच्छदनामयम्।

मूलम्

दृष्ट्वा लाङ्गलिनं राजा प्रत्युत्थाय च भारत।
प्रीत्या परमया युक्तः समभ्यर्च्य यथाविधि ॥ ४ ॥
आसनं च ददौ तस्मै पर्यपृच्छदनामयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! हलधरको देखते ही राजा युधिष्ठिर उठकर खड़े हो गये और बड़े प्रेमसे विधिपूर्वक उनकी पूजा करके उन्हें बैठनेके लिये उन्होंने आसन दिया तथा उनके स्वास्थ्यका समाचार पूछा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरं रामो वाक्यमेतदुवाच ह ॥ ५ ॥
मधुरं धर्मसंयुक्तं शूराणां हितमेव च।

मूलम्

ततो युधिष्ठिरं रामो वाक्यमेतदुवाच ह ॥ ५ ॥
मधुरं धर्मसंयुक्तं शूराणां हितमेव च।

अनुवाद (हिन्दी)

तब बलरामने युधिष्ठिरसे मधुर वाणीमें शूरवीरोंके लिये हितकर धर्मयुक्त वचन कहा—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया श्रुतं कथयतामृषीणां राजसत्तम ॥ ६ ॥
कुरुक्षेत्रं परं पुण्यं पावनं स्वर्ग्यमेव च।
दैवतैर्ऋषिभिर्जुष्टं ब्राह्मणैश्च महात्मभिः ॥ ७ ॥

मूलम्

मया श्रुतं कथयतामृषीणां राजसत्तम ॥ ६ ॥
कुरुक्षेत्रं परं पुण्यं पावनं स्वर्ग्यमेव च।
दैवतैर्ऋषिभिर्जुष्टं ब्राह्मणैश्च महात्मभिः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नृपश्रेष्ठ! मैंने माहात्म्य-कथा कहनेवाले ऋषियोंके मुखसे यह सुना है कि कुरुक्षेत्र परम पावन पुण्यमय तीर्थ है। वह स्वर्ग प्रदान करनेवाला है। देवता, ऋषि तथा महात्मा ब्राह्मण सदा उसका सेवन करते हैं॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र वै योत्स्यमाना ये देहं त्यक्ष्यन्ति मानवाः।
तेषां स्वर्गे ध्रुवो वासः शक्रेण सह मारिष ॥ ८ ॥

मूलम्

तत्र वै योत्स्यमाना ये देहं त्यक्ष्यन्ति मानवाः।
तेषां स्वर्गे ध्रुवो वासः शक्रेण सह मारिष ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माननीय नरेश! जो मानव वहाँ युद्ध करते हुए अपने शरीरका त्याग करेंगे, उनका निश्चय ही स्वर्गलोकमें इन्द्रके साथ निवास होगा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् समन्तपञ्चकमितो याम द्रुतं नृप।
प्रथितोत्तरवेदी सा देवलोके प्रजापतेः ॥ ९ ॥
तस्मिन् महापुण्यतमे त्रैलोक्यस्य सनातने।
संग्रामे निधनं प्राप्य ध्रुवं स्वर्गे भविष्यति ॥ १० ॥

मूलम्

तस्मात् समन्तपञ्चकमितो याम द्रुतं नृप।
प्रथितोत्तरवेदी सा देवलोके प्रजापतेः ॥ ९ ॥
तस्मिन् महापुण्यतमे त्रैलोक्यस्य सनातने।
संग्रामे निधनं प्राप्य ध्रुवं स्वर्गे भविष्यति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः नरेश्वर! हम सब लोग यहाँसे शीघ्र ही समन्तपंचक तीर्थमें चलें। वह भूमि देवलोकमें प्रजापतिकी उत्तरवेदीके नामसे प्रसिद्ध है। त्रिलोकीके उस परम पुण्यतम सनातन तीर्थमें युद्ध करके मृत्युको प्राप्त हुआ मनुष्य निश्चय ही स्वर्गलोकमें जायगा’॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेत्युक्त्वा महाराज कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
समन्तपञ्चकं वीरः प्रायादभिमुखः प्रभुः ॥ ११ ॥
ततो दुर्योधनो राजा प्रगृह्य महतीं गदाम्।
पद्भ्याममर्षी द्युतिमानगच्छत् पाण्डवैः सह ॥ १२ ॥

मूलम्

तथेत्युक्त्वा महाराज कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
समन्तपञ्चकं वीरः प्रायादभिमुखः प्रभुः ॥ ११ ॥
ततो दुर्योधनो राजा प्रगृह्य महतीं गदाम्।
पद्भ्याममर्षी द्युतिमानगच्छत् पाण्डवैः सह ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब ‘बहुत अच्छा’, कहकर वीर राजा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर समन्तपंचक तीर्थकी ओर चल दिये। उस समय अमर्षमें भरा हुआ तेजस्वी राजा दुर्योधन हाथमें विशाल गदा लेकर पाण्डवोंके साथ पैदल ही चला॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथाऽऽयान्तं गदाहस्तं वर्मणा चापि दंशितम्।
अन्तरिक्षचरा देवाः साधु साध्वित्यपूजयन् ॥ १३ ॥

मूलम्

तथाऽऽयान्तं गदाहस्तं वर्मणा चापि दंशितम्।
अन्तरिक्षचरा देवाः साधु साध्वित्यपूजयन् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गदा हाथमें लिये कवच धारण किये दुर्योधनको इस प्रकार आते देख आकाशमें विचरनेवाले देवता साधु-साधु कहकर उसकी प्रशंसा करने लगे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वातिकाश्चारणा ये तु दृष्ट्वा ते हर्षमागताः।
स पाण्डवैः परिवृतः कुरुराजस्तवात्मजः ॥ १४ ॥
मत्तस्येव गजेन्द्रस्य गतिमास्थाय सोऽव्रजत्।

मूलम्

वातिकाश्चारणा ये तु दृष्ट्वा ते हर्षमागताः।
स पाण्डवैः परिवृतः कुरुराजस्तवात्मजः ॥ १४ ॥
मत्तस्येव गजेन्द्रस्य गतिमास्थाय सोऽव्रजत्।

अनुवाद (हिन्दी)

वातिक और चारण भी उसे देखकर हर्षसे खिल उठे। पाण्डवोंसे घिरा हुआ आपका पुत्र कुरुराज दुर्योधन मतवाले गजराजकी-सी गतिका आश्रय लेकर चल रहा था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शङ्खनिनादेन भेरीणां च महास्वनैः ॥ १५ ॥
सिंहनादैश्च शूराणां दिशः सर्वाः प्रपूरिताः।

मूलम्

ततः शङ्खनिनादेन भेरीणां च महास्वनैः ॥ १५ ॥
सिंहनादैश्च शूराणां दिशः सर्वाः प्रपूरिताः।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय शंखोंकी ध्वनि, रणभेरियोंके गम्भीर घोष और शूरवीरोंके सिंहनादोंसे सम्पूर्ण दिशाएँ गूँज उठी थीं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते तु कुरुक्षेत्रं प्राप्ता नरवरोत्तमाः ॥ १६ ॥
प्रतीच्यभिमुखं देशं यथोद्दिष्टं सुतेन ते।
दक्षिणेन सरस्वत्याः स्वयनं तीर्थमुत्तमम् ॥ १७ ॥
तस्मिन् देशे त्वनिरिणे ते तु युद्धमरोचयन्।

मूलम्

ततस्ते तु कुरुक्षेत्रं प्राप्ता नरवरोत्तमाः ॥ १६ ॥
प्रतीच्यभिमुखं देशं यथोद्दिष्टं सुतेन ते।
दक्षिणेन सरस्वत्याः स्वयनं तीर्थमुत्तमम् ॥ १७ ॥
तस्मिन् देशे त्वनिरिणे ते तु युद्धमरोचयन्।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे सभी श्रेष्ठ नरवीर आपके पुत्रके साथ पश्चिमाभिमुख चलकर पूर्वोक्त कुरुक्षेत्रमें आ पहुँचे। वह उत्तम तीर्थ सरस्वतीके दक्षिण तटपर स्थित एवं सद्‌गतिकी प्राप्ति करानेवाला था। वहाँ कहीं ऊसर भूमि नहीं थी। उसी स्थानमें आकर सबने युद्ध करना पसंद किया॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमो महाकोटिं गदां गृह्याथ वर्मभृत् ॥ १८ ॥
बिभ्रद्रूपं महाराज सदृशं हि गरुत्मतः।

मूलम्

ततो भीमो महाकोटिं गदां गृह्याथ वर्मभृत् ॥ १८ ॥
बिभ्रद्रूपं महाराज सदृशं हि गरुत्मतः।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो भीमसेन कवच पहनकर बहुत बड़ी नोकवाली गदा हाथमें ले गरुडका-सा रूप धारण करके युद्धके लिये तैयार हो गये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवबद्धशिरस्त्राणः संख्ये काञ्चनवर्मभृत् ॥ १९ ॥
रराज राजन् पुत्रस्ते काञ्चनः शैलराडिव।

मूलम्

अवबद्धशिरस्त्राणः संख्ये काञ्चनवर्मभृत् ॥ १९ ॥
रराज राजन् पुत्रस्ते काञ्चनः शैलराडिव।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् दुर्योधन भी सिरपर टोप लगाये सोनेका कवच बाँधे भीमके साथ युद्धके लिये डट गया। राजन्! उस समय आपका पुत्र सुवर्णमय गिरिराज मेरुके समान शोभा पा रहा था॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्मभ्यां संयतौ वीरौ भीमदुर्योधनावुभौ ॥ २० ॥
संयुगे च प्रकाशेते संरब्धाविव कुञ्जरौ।

मूलम्

वर्मभ्यां संयतौ वीरौ भीमदुर्योधनावुभौ ॥ २० ॥
संयुगे च प्रकाशेते संरब्धाविव कुञ्जरौ।

अनुवाद (हिन्दी)

कवच बाँधे हुए दोनों वीर भीमसेन और दुर्योधन युद्धभूमिमें कुपित हुए दो मतवाले हाथियोंके समान प्रकाशित हो रहे थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रणमण्डलमध्यस्थौ भ्रातरौ तौ नरर्षभौ ॥ २१ ॥
अशोभेतां महाराज चन्द्रसूर्याविवोदितौ ।

मूलम्

रणमण्डलमध्यस्थौ भ्रातरौ तौ नरर्षभौ ॥ २१ ॥
अशोभेतां महाराज चन्द्रसूर्याविवोदितौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! रणमण्डलके बीचमें खड़े हुए ये दोनों नरश्रेष्ठ भ्राता उदित हुए चन्द्रमा और सूर्यके समान शोभा पा रहे थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावन्योन्यं निरीक्षेतां क्रुद्धाविव महाद्विपौ ॥ २२ ॥
दहन्तौ लोचनै राजन् परस्परवधैषिणौ।

मूलम्

तावन्योन्यं निरीक्षेतां क्रुद्धाविव महाद्विपौ ॥ २२ ॥
दहन्तौ लोचनै राजन् परस्परवधैषिणौ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! क्रोधमें भरे हुए दो गजराजोंके समान एक-दूसरेके वधकी इच्छा रखनेवाले वे दोनों वीर परस्पर इस प्रकार देखने लगे, मानो नेत्रोंद्वारा एक-दूसरेको भस्म कर डालेंगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रहृष्टमना राजन् गदामादाय कौरवः ॥ २३ ॥
सृक्किणी संलिहन् राजन् क्रोधरक्तेक्षणः श्वसन्।
ततो दुर्योधनो राजन् गदामादाय वीर्यवान् ॥ २४ ॥
भीमसेनमभिप्रेक्ष्य गजो गजमिवाह्वयत् ।

मूलम्

सम्प्रहृष्टमना राजन् गदामादाय कौरवः ॥ २३ ॥
सृक्किणी संलिहन् राजन् क्रोधरक्तेक्षणः श्वसन्।
ततो दुर्योधनो राजन् गदामादाय वीर्यवान् ॥ २४ ॥
भीमसेनमभिप्रेक्ष्य गजो गजमिवाह्वयत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! तदनन्तर शक्तिशाली कुरुवंशी राजा दुर्योधन प्रसन्नचित्त हो गदा हाथमें ले क्रोधसे लाल आँखें करके गलफरोंको चाटता और लंबी साँसें खींचता हुआ भीमसेनकी ओर देखकर उसी प्रकार ललकारने लगा, जैसे एक हाथी दूसरे हाथीको पुकार रहा हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्रिसारमयीं भीमस्तथैवादाय वीर्यवान् ॥ २५ ॥
आह्वयामास नृपतिं सिंहं सिंहो यथा वने।

मूलम्

अद्रिसारमयीं भीमस्तथैवादाय वीर्यवान् ॥ २५ ॥
आह्वयामास नृपतिं सिंहं सिंहो यथा वने।

अनुवाद (हिन्दी)

उसी प्रकार पराक्रमी भीमसेनने लोहेकी गदा लेकर राजा दुर्योधनको ललकारा, मानो वनमें एक सिंह दूसरे सिंहको पुकार रहा हो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुद्यतगदापाणी दुर्योधनवृकोदरौ ॥ २६ ॥
संयुगे च प्रकाशेतां गिरी सशिखराविव।

मूलम्

तावुद्यतगदापाणी दुर्योधनवृकोदरौ ॥ २६ ॥
संयुगे च प्रकाशेतां गिरी सशिखराविव।

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन और भीमसेन दोनोंकी गदाएँ ऊपरको उठी थीं। उस समय रणभूमिमें वे दोनों शिखरयुक्त दो पर्वतोंके समान प्रकाशित हो रहे थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ समतिक्रुद्धावुभौ भीमपराक्रमौ ॥ २७ ॥
उभौ शिष्यौ गदायुद्धे रौहिणेयस्य धीमतः।

मूलम्

तावुभौ समतिक्रुद्धावुभौ भीमपराक्रमौ ॥ २७ ॥
उभौ शिष्यौ गदायुद्धे रौहिणेयस्य धीमतः।

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ही अत्यन्त क्रोधमें भरे थे। दोनों भयंकर पराक्रम प्रकट करनेवाले थे और दोनों ही गदायुद्धमें बुद्धिमान् रोहिणीनन्दन बलरामजीके शिष्य थे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ सदृशकर्माणौ यमवासवयोरिव ॥ २८ ॥
तथा सदृशकर्माणौ वरुणस्य महाबलौ।
वासुदेवस्य रामस्य तथा वैश्रवणस्य च ॥ २९ ॥
सदृशौ तौ महाराज मधुकैटभयोर्युधि।
उभौ सदृशकर्माणौ तथा सुन्दोपसुन्दयोः ॥ ३० ॥
रामरावणयोश्चैव वालिसुग्रीवयोस्तथा ।
तथैव कालस्य समौ मृत्योश्चैव परंतपौ ॥ ३१ ॥

मूलम्

उभौ सदृशकर्माणौ यमवासवयोरिव ॥ २८ ॥
तथा सदृशकर्माणौ वरुणस्य महाबलौ।
वासुदेवस्य रामस्य तथा वैश्रवणस्य च ॥ २९ ॥
सदृशौ तौ महाराज मधुकैटभयोर्युधि।
उभौ सदृशकर्माणौ तथा सुन्दोपसुन्दयोः ॥ ३० ॥
रामरावणयोश्चैव वालिसुग्रीवयोस्तथा ।
तथैव कालस्य समौ मृत्योश्चैव परंतपौ ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! शत्रुओंको संताप देनेवाले वे दोनों महाबली वीर यमराज, इन्द्र, वरुण, श्रीकृष्ण, बलराम, कुबेर, मधु, कैटभ, सुन्द, उपसुन्द, राम, रावण तथा बालि और सुग्रीवके समान पराक्रम दिखानेवाले थे तथा काल एवं मृत्युके समान जान पड़ते थे॥२८—३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यमभिधावन्तौ मत्ताविव महाद्विपौ ।
वासितासंगमे दृप्तौ शरदीव मदोत्कटौ ॥ ३२ ॥
उभौ क्रोधविषं दीप्तं वमन्तावुरगाविव।
अन्योन्यमभिसंरब्धौ प्रेक्षमाणावरिंदमौ ॥ ३३ ॥

मूलम्

अन्योन्यमभिधावन्तौ मत्ताविव महाद्विपौ ।
वासितासंगमे दृप्तौ शरदीव मदोत्कटौ ॥ ३२ ॥
उभौ क्रोधविषं दीप्तं वमन्तावुरगाविव।
अन्योन्यमभिसंरब्धौ प्रेक्षमाणावरिंदमौ ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शरद्-ऋतुमें मैथुनकी इच्छावाली हथिनीसे समागम करनेके लिये दो मतवाले हाथी मदोन्मत्त होकर एक-दूसरेपर धावा करते हों, उसी प्रकार अपने बलका गर्व रखनेवाले वे दोनों वीर एक-दूसरेसे टक्कर लेनेको उद्यत थे। शत्रुओंका दमन करनेवाले वे दोनों योद्धा दो सर्पोंके समान प्रज्वलित क्रोधरूपी विषका वमन करते हुए एक-दूसरेको रोषपूर्वक देख रहे थे॥३२-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ भरतशार्दूलौ विक्रमेण समन्वितौ।
सिंहाविव दुराधर्षौ गदायुद्धविशारदौ ॥ ३४ ॥

मूलम्

उभौ भरतशार्दूलौ विक्रमेण समन्वितौ।
सिंहाविव दुराधर्षौ गदायुद्धविशारदौ ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशके वे विक्रमशाली सिंह दो जंगली सिंहोंके समान दुर्जय थे और दोनों ही गदायुद्धके विशेषज्ञ माने जाते थे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नखदंष्ट्रायुधौ वीरौ व्याघ्राविव दुरुत्सहौ।
प्रजासंहरणे क्षुब्धौ समुद्राविव दुस्तरौ ॥ ३५ ॥
लोहिताङ्गाविव क्रुद्धौ प्रतपन्तौ महारथौ।

मूलम्

नखदंष्ट्रायुधौ वीरौ व्याघ्राविव दुरुत्सहौ।
प्रजासंहरणे क्षुब्धौ समुद्राविव दुस्तरौ ॥ ३५ ॥
लोहिताङ्गाविव क्रुद्धौ प्रतपन्तौ महारथौ।

अनुवाद (हिन्दी)

पंजों और दाढ़ोंसे प्रहार करनेवाले दो व्याघ्रोंके समान उन दोनों वीरोंका वेग शत्रुओंके लिये दुःसह था। प्रलयकालमें विक्षुब्ध हुए दो समुद्रोंके समान उन्हें पार करना कठिन था। वे दोनों महारथी क्रोधमें भरे हुए दो मंगल ग्रहोंके समान एक-दूसरेको ताप दे रहे थे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वपश्चिमजौ मेघौ प्रेक्षमाणावरिंदमौ ॥ ३६ ॥
गर्जमानौ सुविषमं क्षरन्तौ प्रावृषीव हि।

मूलम्

पूर्वपश्चिमजौ मेघौ प्रेक्षमाणावरिंदमौ ॥ ३६ ॥
गर्जमानौ सुविषमं क्षरन्तौ प्रावृषीव हि।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वर्षा-ऋतुमें पूर्व और पश्चिम दिशाओंमें स्थित दो वृष्टिकारक मेघ भयंकर गर्जना कर रहे हों, उसी प्रकार शत्रुओंका दमन करनेवाले वे दोनों वीर एक-दूसरेको देखते हुए भयानक सिंहनाद कर रहे थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रश्मियुक्तौ महात्मानौ दीप्तिमन्तौ महाबलौ ॥ ३७ ॥
ददृशाते कुरुश्रेष्ठौ कालसूर्याविवोदितौ ।

मूलम्

रश्मियुक्तौ महात्मानौ दीप्तिमन्तौ महाबलौ ॥ ३७ ॥
ददृशाते कुरुश्रेष्ठौ कालसूर्याविवोदितौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

महामनस्वी महाबली कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन और भीमसेन प्रखर किरणोंसे युक्त, प्रलयकालमें उगे हुए दो दीप्तिशाली सूर्योंके समान दृष्टिगोचर हो रहे थे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याघ्राविव सुसंरब्धौ गर्जन्ताविव तोयदौ ॥ ३८ ॥
जहृषाते महाबाहू सिंहकेसरिणाविव ।

मूलम्

व्याघ्राविव सुसंरब्धौ गर्जन्ताविव तोयदौ ॥ ३८ ॥
जहृषाते महाबाहू सिंहकेसरिणाविव ।

अनुवाद (हिन्दी)

रोषमें भरे हुए दो व्याघ्रों, गरजते हुए दो मेघों और दहाड़ते हुए दो सिंहोंके समान वे दोनों महाबाहु वीर हर्षोत्फुल्ल हो रहे थे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजाविव सुसंरब्धौ ज्वलिताविव पावकौ ॥ ३९ ॥
ददृशाते महात्मानौ सशृङ्गाविव पर्वतौ।

मूलम्

गजाविव सुसंरब्धौ ज्वलिताविव पावकौ ॥ ३९ ॥
ददृशाते महात्मानौ सशृङ्गाविव पर्वतौ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों महामनस्वी योद्धा परस्पर कुपित हुए दो हाथियों, प्रज्वलित हुई दो अग्नियों और शिखरयुक्त दो पर्वतोंके समान दिखायी देते थे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोषात् प्रस्फुरमाणोष्ठौ निरीक्षन्तौ परस्परम् ॥ ४० ॥
तौ समेतौ महात्मानौ गदाहस्तौ नरोत्तमौ।

मूलम्

रोषात् प्रस्फुरमाणोष्ठौ निरीक्षन्तौ परस्परम् ॥ ४० ॥
तौ समेतौ महात्मानौ गदाहस्तौ नरोत्तमौ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंके ओठ रोषसे फड़क रहे थे। वे दोनों नरश्रेष्ठ एक-दूसरेपर दृष्टिपात करते हुए हाथमें गदा ले परस्पर भिड़नेके लिये उद्यत थे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ परमसंहृष्टावुभौ परमसम्मतौ ॥ ४१ ॥
सदश्वाविव हेषन्तौ बृहन्ताविव कुञ्जरौ।
वृषभाविव गर्जन्तौ दुर्योधनवृकोदरौ ॥ ४२ ॥
दैत्याविव बलोन्मत्तौ रेजतुस्तौ नरोत्तमौ।

मूलम्

उभौ परमसंहृष्टावुभौ परमसम्मतौ ॥ ४१ ॥
सदश्वाविव हेषन्तौ बृहन्ताविव कुञ्जरौ।
वृषभाविव गर्जन्तौ दुर्योधनवृकोदरौ ॥ ४२ ॥
दैत्याविव बलोन्मत्तौ रेजतुस्तौ नरोत्तमौ।

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों अत्यन्त हर्ष और उत्साहमें भरे थे। दोनों ही बड़े सम्मानित वीर थे। मनुष्योंमें श्रेष्ठ वे दुर्योधन और भीमसेन हींसते हुए दो अच्छे घोड़ों, चिग्घाड़ते हुए दो गजराजों और हँकड़ते हुए दो साँड़ों तथा बलसे उन्मत्त हुए दो दैत्योंके समान शोभा पाते थे॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनो राजन्निदमाह युधिष्ठिरम् ॥ ४३ ॥
भ्रातृभिः सहितं चैव कृष्णेन च महात्मना।
रामेणामितवीर्येण वाक्यं शौटीर्यसम्मतम् ॥ ४४ ॥
केकयैः सृञ्जयैर्दृप्तं पञ्चालैश्च महात्मभिः।

मूलम्

ततो दुर्योधनो राजन्निदमाह युधिष्ठिरम् ॥ ४३ ॥
भ्रातृभिः सहितं चैव कृष्णेन च महात्मना।
रामेणामितवीर्येण वाक्यं शौटीर्यसम्मतम् ॥ ४४ ॥
केकयैः सृञ्जयैर्दृप्तं पञ्चालैश्च महात्मभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तदनन्तर दुर्योधनने अमितपराक्रमी बलराम, महात्मा श्रीकृष्ण, महामनस्वी पांचाल, सृंजय, केकयगण तथा अपने भाइयोंके साथ खड़े हुए अभिमानी युधिष्ठिरसे इस प्रकार गर्वयुक्त वचन कहा—॥४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं व्यवसितं युद्धं मम भीमस्य चोभयोः ॥ ४५ ॥
उपोपविष्टाः पश्यध्वं सहितैर्नृपपुङ्गवैः ।

मूलम्

इदं व्यवसितं युद्धं मम भीमस्य चोभयोः ॥ ४५ ॥
उपोपविष्टाः पश्यध्वं सहितैर्नृपपुङ्गवैः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीरो! मेरा और भीमसेनका जो यह युद्ध निश्चित हुआ है, इसे आप लोग सभी श्रेष्ठ नरेशोंके साथ निकट बैठकर देखिये’॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा दुर्योधनवचः प्रत्यपद्यन्त तत्तथा ॥ ४६ ॥
ततः समुपविष्टं तत् सुमहद्राजमण्डलम्।
विराजमानं ददृशे दिवीवादित्यमण्डलम् ॥ ४७ ॥
तेषां मध्ये महाबाहुः श्रीमान् केशवपूर्वजः।
उपविष्टो महाराज पूज्यमानः समन्ततः ॥ ४८ ॥
शुशुभे राजमध्यस्थो नीलवासाः सितप्रभः।
नक्षत्रैरिव सम्पूर्णो वृतो निशि निशाकरः ॥ ४९ ॥

मूलम्

श्रुत्वा दुर्योधनवचः प्रत्यपद्यन्त तत्तथा ॥ ४६ ॥
ततः समुपविष्टं तत् सुमहद्राजमण्डलम्।
विराजमानं ददृशे दिवीवादित्यमण्डलम् ॥ ४७ ॥
तेषां मध्ये महाबाहुः श्रीमान् केशवपूर्वजः।
उपविष्टो महाराज पूज्यमानः समन्ततः ॥ ४८ ॥
शुशुभे राजमध्यस्थो नीलवासाः सितप्रभः।
नक्षत्रैरिव सम्पूर्णो वृतो निशि निशाकरः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनकी यह बात सुनकर सब लोगोंने उसे स्वीकार कर लिया, फिर तो राजाओंका वह विशाल समूह वहाँ सब ओर बैठ गया। नरेशोंकी वह मण्डली आकाशमें सूर्यमण्डलके समान दिखायी दे रही थी। उन सबके बीचमें भगवान् श्रीकृष्णके बड़े भ्राता तेजस्वी महाबाहु बलरामजी विराजमान हुए। महाराज! सब ओरसे सम्मानित होते हुए नीलाम्बरधारी, गौरकान्ति बलभद्रजी राजाओंके बीचमें वैसे ही शोभा पा रहे थे, जैसे रात्रिमें नक्षत्रोंसे घिरे हुए पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होते हैं॥४६—४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ तथा तु महाराज गदाहस्तौ सुदुःसहौ।
अन्योन्यं वाग्भिरुग्राभिस्तक्षमाणौ व्यवस्थितौ ॥ ५० ॥

मूलम्

तौ तथा तु महाराज गदाहस्तौ सुदुःसहौ।
अन्योन्यं वाग्भिरुग्राभिस्तक्षमाणौ व्यवस्थितौ ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! हाथमें गदा लिये वे दोनों दुःसह वीर एक-दूसरेको अपने कठोर वचनोंद्वारा पीड़ा देते हुए खड़े थे॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रियाणि ततोऽन्योन्यमुक्त्वा तौ कुरुसत्तमौ।
उदीक्षन्तौ स्थितौ तत्र वृत्रशक्रौ यथाऽऽहवे ॥ ५१ ॥

मूलम्

अप्रियाणि ततोऽन्योन्यमुक्त्वा तौ कुरुसत्तमौ।
उदीक्षन्तौ स्थितौ तत्र वृत्रशक्रौ यथाऽऽहवे ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परस्पर कटु वचनोंका प्रयोग करके वे दोनों कुरुकुलके श्रेष्ठतम वीर वहाँ युद्धस्थलमें वृत्रासुर और इन्द्रके समान एक-दूसरेको देखते हुए युद्धके लिये डटे रहे॥५१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि युद्धारम्भे पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें युद्धका आरम्भविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५५॥