भागसूचना
पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
आदित्यतीर्थकी महिमाके प्रसंगमें असित देवल तथा जैगीषव्य मुनिका चरित्र
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नेव तु धर्मात्मा वसति स्म तपोधनः।
गार्हस्थ्यं धर्ममास्थाय ह्यसितो देवलः पुरा ॥ १ ॥
मूलम्
तस्मिन्नेव तु धर्मात्मा वसति स्म तपोधनः।
गार्हस्थ्यं धर्ममास्थाय ह्यसितो देवलः पुरा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! प्राचीन कालकी बात है, उसी तीर्थमें तपस्याके धनी धर्मात्मा असित देवल मुनि गृहस्थधर्मका आश्रय लेकर निवास करते थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मनित्यः शुचिर्दान्तो न्यस्तदण्डो महातपाः।
कर्मणा मनसा वाचा समः सर्वेषु जन्तुषु ॥ २ ॥
मूलम्
धर्मनित्यः शुचिर्दान्तो न्यस्तदण्डो महातपाः।
कर्मणा मनसा वाचा समः सर्वेषु जन्तुषु ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सदा धर्मपरायण, पवित्र, जितेन्द्रिय, किसीको भी दण्ड न देनेवाले, महातपस्वी तथा मन, वाणी और क्रियाद्वारा सभी जीवोंके प्रति समानभाव रखनेवाले थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्रोधनो महाराज तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ।
प्रियाप्रिये तुल्यवृत्तिर्यमवत्समदर्शनः ॥ ३ ॥
मूलम्
अक्रोधनो महाराज तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ।
प्रियाप्रिये तुल्यवृत्तिर्यमवत्समदर्शनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उनमें क्रोध नहीं था। वे अपनी निन्दा और स्तुतिको समान समझते थे। प्रिय और अप्रियकी प्राप्तिमें उनकी चित्तवृत्ति एक-सी रहती थी। वे यमराजकी भाँति सबके प्रति सम दृष्टि रखते थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काञ्चने लोष्ठभावे च समदर्शी महातपाः।
देवानपूजयन्नित्यमतिथींश्च द्विजैः सह ॥ ४ ॥
मूलम्
काञ्चने लोष्ठभावे च समदर्शी महातपाः।
देवानपूजयन्नित्यमतिथींश्च द्विजैः सह ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोना हो या मिट्टीका ढेला, महातपस्वी देवल दोनोंको समान दृष्टिसे देखते थे और प्रतिदिन देवताओं तथा ब्राह्मणोंसहित अतिथियोंका पूजन एवं आदर-सत्कार करते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचर्यरतो नित्यं सदा धर्मपरायणः।
ततोऽभ्येत्य महाभाग योगमास्थाय भिक्षुकः ॥ ५ ॥
जैगीषव्यो मुनिर्धीमांस्तस्मिंस्तीर्थे समाहितः ।
मूलम्
ब्रह्मचर्यरतो नित्यं सदा धर्मपरायणः।
ततोऽभ्येत्य महाभाग योगमास्थाय भिक्षुकः ॥ ५ ॥
जैगीषव्यो मुनिर्धीमांस्तस्मिंस्तीर्थे समाहितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वे मुनि सदा ब्रह्मचर्यपालनमें तत्पर रहते थे। उन्हें सब समय धर्मका ही सबसे बड़ा सहारा था। महाभाग! एक दिन बुद्धिमान् जैगीषव्य मुनि जो संन्यासी थे, योगका आश्रय लेकर उस तीर्थमें आये और एकाग्रचित्त होकर वहीं रहने लगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवलस्याश्रमे राजन्न्यवसत् स महाद्युतिः ॥ ६ ॥
योगनित्यो महाराज सिद्धिं प्राप्तो महातपाः।
मूलम्
देवलस्याश्रमे राजन्न्यवसत् स महाद्युतिः ॥ ६ ॥
योगनित्यो महाराज सिद्धिं प्राप्तो महातपाः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! महाराज! वे महातेजस्वी और महातपस्वी जैगीषव्य सदा योगपरायण रहकर सिद्धि प्राप्त कर चुके थे तथा देवलके ही आश्रममें रहते थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तत्र वसमानं तु जैगीषव्यं महामुनिम् ॥ ७ ॥
देवलो दर्शयन्नेव नैवायुञ्जत धर्मतः।
एवं तयोर्महाराज दीर्घकालो व्यतिक्रमत् ॥ ८ ॥
मूलम्
तं तत्र वसमानं तु जैगीषव्यं महामुनिम् ॥ ७ ॥
देवलो दर्शयन्नेव नैवायुञ्जत धर्मतः।
एवं तयोर्महाराज दीर्घकालो व्यतिक्रमत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि महामुनि जैगीषव्य उस आश्रममें ही रहते थे तथापि देवल मुनि उन्हें दिखाकर धर्मतः योग-साधना नहीं करते थे। इस तरह दोनोंको वहाँ रहते हुए बहुत समय बीत गया॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैगीषव्यं मुनिवरं न ददर्शाथ देवलः।
आहारकाले मतिमान् परिव्राड् जनमेजय ॥ ९ ॥
उपातिष्ठत धर्मज्ञो भैक्षकाले स देवलम्।
मूलम्
जैगीषव्यं मुनिवरं न ददर्शाथ देवलः।
आहारकाले मतिमान् परिव्राड् जनमेजय ॥ ९ ॥
उपातिष्ठत धर्मज्ञो भैक्षकाले स देवलम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! तदनन्तर कुछ कालतक ऐसा हुआ कि देवल मुनिवर जैगीषव्यको हर समय नहीं देख पाते थे। धर्मके ज्ञाता बुद्धिमान् संन्यासी जैगीषव्य केवल भोजन या भिक्षा लेनेके समय देवलके पास आते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दृष्ट्वा भिक्षुरूपेण प्राप्तं तत्र महामुनिम् ॥ १० ॥
गौरवं परमं चक्रे प्रीतिं च विपुलां तथा।
देवलस्तु यथाशक्ति पूजयामास भारत ॥ ११ ॥
ऋषिदृष्टेन विधिना समा बह्वीः समाहितः।
मूलम्
स दृष्ट्वा भिक्षुरूपेण प्राप्तं तत्र महामुनिम् ॥ १० ॥
गौरवं परमं चक्रे प्रीतिं च विपुलां तथा।
देवलस्तु यथाशक्ति पूजयामास भारत ॥ ११ ॥
ऋषिदृष्टेन विधिना समा बह्वीः समाहितः।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! संन्यासीके रूपमें वहाँ आये हुए महामुनि जैगीषव्यको देखकर देवल उनके प्रति अत्यन्त गौरव और महान् प्रेम प्रकट करते तथा यथाशक्ति शास्त्रीय विधिसे एकाग्रचित्त हो उनका पूजन (आदर-सत्कार) किया करते थे। बहुत वर्षोंतक उन्होंने ऐसा ही किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचित् तस्य नृपते देवलस्य महात्मनः ॥ १२ ॥
चिन्ता सुमहती जाता मुनिं दृष्ट्वा महाद्युतिम्।
मूलम्
कदाचित् तस्य नृपते देवलस्य महात्मनः ॥ १२ ॥
चिन्ता सुमहती जाता मुनिं दृष्ट्वा महाद्युतिम्।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! एक दिन महातेजस्वी जैगीषव्य मुनिको देखकर महात्मा देवलके मनमें बड़ी भारी चिन्ता हुई॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समास्तु समतिक्रान्ता बह्व्यः पूजयतो मम ॥ १३ ॥
न चायमलसो भिक्षुरभ्यभाषत किंचन।
मूलम्
समास्तु समतिक्रान्ता बह्व्यः पूजयतो मम ॥ १३ ॥
न चायमलसो भिक्षुरभ्यभाषत किंचन।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने सोचा, ‘इनकी पूजा करते हुए मुझे बहुत वर्ष बीत गये; परंतु वे आलसी भिक्षु आजतक एक बात भी नहीं बोले’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विगणयन्नेव स जगाम महोदधिम् ॥ १४ ॥
अन्तरिक्षचरः श्रीमान् कलशं गृह्य देवलः।
मूलम्
एवं विगणयन्नेव स जगाम महोदधिम् ॥ १४ ॥
अन्तरिक्षचरः श्रीमान् कलशं गृह्य देवलः।
अनुवाद (हिन्दी)
यही सोचते हुए श्रीमान् देवलमुनि कलश हाथमें लेकर आकाशमार्गसे समुद्रतटकी ओर चल दिये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छन्नेव स धर्मात्मा समुद्रं सरितां पतिम् ॥ १५ ॥
जैगीषव्यं ततोऽपश्यद् गतं प्रागेव भारत।
मूलम्
गच्छन्नेव स धर्मात्मा समुद्रं सरितां पतिम् ॥ १५ ॥
जैगीषव्यं ततोऽपश्यद् गतं प्रागेव भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! नदीपति समुद्रके पास पहुँचते ही धर्मात्मा देवलने देखा कि जैगीषव्य वहाँ पहलेसे ही गये हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सविस्मयश्चिन्तां जगामाथामितप्रभः ॥ १६ ॥
कथं भिक्षुरयं प्राप्तः समुद्रे स्नात एव च।
इत्येवं चिन्तयामास महर्षिरसितस्तदा ॥ १७ ॥
मूलम्
ततः सविस्मयश्चिन्तां जगामाथामितप्रभः ॥ १६ ॥
कथं भिक्षुरयं प्राप्तः समुद्रे स्नात एव च।
इत्येवं चिन्तयामास महर्षिरसितस्तदा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब तो अमित तेजस्वी महर्षि असित देवलको चिन्ताके साथ-साथ आश्चर्य भी हुआ। वे सोचने लगे, ‘ये भिक्षु यहाँ पहले ही कैसे आ पहुँचे? इन्होंने तो समुद्रमें स्नानका कार्य भी पूर्ण कर लिया’॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नात्वा समुद्रे विधिवच्छुचिर्जप्यं जजाप सः।
कृतजप्याह्निकः श्रीमानाश्रमं च जगाम ह ॥ १८ ॥
कलशं जलपूर्णं वै गृहीत्वा जनमेजय।
मूलम्
स्नात्वा समुद्रे विधिवच्छुचिर्जप्यं जजाप सः।
कृतजप्याह्निकः श्रीमानाश्रमं च जगाम ह ॥ १८ ॥
कलशं जलपूर्णं वै गृहीत्वा जनमेजय।
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! फिर उन्होंने समुद्रमें विधिपूर्वक स्नान करके पवित्र हो जपनेयोग्य मन्त्रका जप किया। जप आदि नित्यकर्म पूर्ण करके श्रीमान् देवल जलसे भरा हुआ कलश लेकर अपने आश्रमपर आये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स प्रविशन्नेव स्वमाश्रमपदं मुनिः ॥ १९ ॥
आसीनमाश्रमे तत्र जैगीषव्यमपश्यत ।
न व्याहरति चैवेनं जैगीषव्यः कथंचन ॥ २० ॥
काष्ठभूतोऽऽश्रमपदे वसति स्म महातपाः।
मूलम्
ततः स प्रविशन्नेव स्वमाश्रमपदं मुनिः ॥ १९ ॥
आसीनमाश्रमे तत्र जैगीषव्यमपश्यत ।
न व्याहरति चैवेनं जैगीषव्यः कथंचन ॥ २० ॥
काष्ठभूतोऽऽश्रमपदे वसति स्म महातपाः।
अनुवाद (हिन्दी)
आश्रममें प्रवेश करते ही देवलमुनिने वहाँ बैठे हुए जैगीषव्यको देखा, परंतु जैगीषव्यने उस समय भी किसी तरह उनसे बात नहीं की। वे महातपस्वी मुनि आश्रमपर काष्ठमौन होकर बैठे हुए थे॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा चाप्लुतं तोये सागरे सागरोपमम् ॥ २१ ॥
प्रविष्टमाश्रमं चापि पूर्वमेव ददर्श सः।
असितो देवलो राजंश्चिन्तयामास बुद्धिमान् ॥ २२ ॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा चाप्लुतं तोये सागरे सागरोपमम् ॥ २१ ॥
प्रविष्टमाश्रमं चापि पूर्वमेव ददर्श सः।
असितो देवलो राजंश्चिन्तयामास बुद्धिमान् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! समुद्रके समान अत्यन्त प्रभावशाली मुनिको समुद्रके जलमें स्नान करके अपनेसे पहले ही आश्रममें प्रविष्ट हुआ देख बुद्धिमान् असित देवलको पुनः बड़ी चिन्ता हुई॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा प्रभावं तपसो जैगीषव्यस्य योगजम्।
चिन्तयामास राजेन्द्र तदा स मुनिसत्तमः ॥ २३ ॥
मया दृष्टः समुद्रे च आश्रमे च कथं त्वयम्।
मूलम्
दृष्ट्वा प्रभावं तपसो जैगीषव्यस्य योगजम्।
चिन्तयामास राजेन्द्र तदा स मुनिसत्तमः ॥ २३ ॥
मया दृष्टः समुद्रे च आश्रमे च कथं त्वयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! जैगीषव्यकी तपस्याका वह योगजनित प्रभाव देखकर ये मुनिश्रेष्ठ देवल फिर सोचने लगे—‘मैंने इन्हें अभी-अभी समुद्रतटपर देखा है, फिर ये आश्रममें कैसे उपस्थित हैं?’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विगणयन्नेव स मुनिर्मन्त्रपारगः ॥ २४ ॥
उत्पपाताश्रमात् तस्मादन्तरिक्षं विशाम्पते ।
जिज्ञासार्थं तदा भिक्षोर्जैगीषव्यस्य देवलः ॥ २५ ॥
मूलम्
एवं विगणयन्नेव स मुनिर्मन्त्रपारगः ॥ २४ ॥
उत्पपाताश्रमात् तस्मादन्तरिक्षं विशाम्पते ।
जिज्ञासार्थं तदा भिक्षोर्जैगीषव्यस्य देवलः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! ऐसा विचार करते हुए वे मन्त्रशास्त्रके पारंगत विद्वान् मुनि उस आश्रमसे आकाशकी ओर उड़ चले। उस समय भिक्षु जैगीषव्यकी परीक्षा लेनेके लिये उन्होंने ऐसा किया॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽन्तरिक्षचरान् सिद्धान् समपश्यत् समाहितान्।
जैगीषव्यं च तैः सिद्धैः पूज्यमानमपश्यत ॥ २६ ॥
मूलम्
सोऽन्तरिक्षचरान् सिद्धान् समपश्यत् समाहितान्।
जैगीषव्यं च तैः सिद्धैः पूज्यमानमपश्यत ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऊपर जाकर उन्होंने बहुत-से अन्तरिक्षचारी एकाग्रचित्तवाले सिद्धोंको देखा। साथ ही उन सिद्धोंके द्वारा पूजे जाते हुए जैगीषव्य मुनिका भी उन्हें दर्शन हुआ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽसितः सुसंरब्धो व्यवसायी दृढव्रतः।
अपश्यद् वै दिवं यान्तं जैगीषव्यं स देवलः ॥ २७ ॥
मूलम्
ततोऽसितः सुसंरब्धो व्यवसायी दृढव्रतः।
अपश्यद् वै दिवं यान्तं जैगीषव्यं स देवलः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले दृढ़निश्चयी असित देवल मुनि रोषावेशमें भर गये। फिर उन्होंने जैगीषव्यको स्वर्गलोकमें जाते देखा॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् तु पितृलोकं तं व्रजन्तं सोऽन्वपश्यत।
पितृलोकाच्च तं यान्तं याम्यं लोकमपश्यत ॥ २८ ॥
मूलम्
तस्मात् तु पितृलोकं तं व्रजन्तं सोऽन्वपश्यत।
पितृलोकाच्च तं यान्तं याम्यं लोकमपश्यत ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वर्गलोकसे उन्हें पितृलोकमें और पितृलोकसे यमलोकमें जाते देखा॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादपि समुत्पत्य सोमलोकमभिप्लुतम् ।
व्रजन्तमन्वपश्यत् स जैगीषव्यं महामुनिम् ॥ २९ ॥
मूलम्
तस्मादपि समुत्पत्य सोमलोकमभिप्लुतम् ।
व्रजन्तमन्वपश्यत् स जैगीषव्यं महामुनिम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँसे भी ऊपर उठकर महामुनि जैगीषव्य जलमय चन्द्रलोकमें जाते दिखायी दिये॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकान् समुत्पतन्तं तु शुभानेकान्तयाजिनाम्।
ततोऽग्निहोत्रिणां लोकांस्ततश्चाप्युत्पपात ह ॥ ३० ॥
मूलम्
लोकान् समुत्पतन्तं तु शुभानेकान्तयाजिनाम्।
ततोऽग्निहोत्रिणां लोकांस्ततश्चाप्युत्पपात ह ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे एकान्ततः यज्ञ करनेवाले पुरुषोंके उत्तम लोकोंकी ओर उड़ते दिखायी दिये। वहाँसे वे अग्निहोत्रियोंके लोकोंमें गये॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शं च पौर्णमासं च ये यजन्ति तपोधनाः।
तेभ्यः स ददृशे धीमाल्ँलोकेभ्यः पशूयाजिनाम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
दर्शं च पौर्णमासं च ये यजन्ति तपोधनाः।
तेभ्यः स ददृशे धीमाल्ँलोकेभ्यः पशूयाजिनाम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन लोकोंसे ऊपर उठकर वे बुद्धिमान् मुनि उन तपोधनोंके लोकमें गये, जो दर्श और पौर्णमास यज्ञ करते हैं। वहाँसे वे पशुयाग करनेवालोंके लोकोंमें जाते दिखायी दिये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रजन्तं लोकममलमपश्यद् देवपूजितम् ।
चातुर्मास्यैर्बहुविधैर्यजन्ते ये तपोधनाः ॥ ३२ ॥
मूलम्
व्रजन्तं लोकममलमपश्यद् देवपूजितम् ।
चातुर्मास्यैर्बहुविधैर्यजन्ते ये तपोधनाः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तपस्वी नाना प्रकारके चातुर्मास यज्ञ करते हैं, उनके निर्मल लोकोंमें जाते हुए जैगीषव्यको देवल मुनिने देखा। वे वहाँ देवताओंसे पूजित हो रहे थे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां स्थानं ततो यातं तथाग्निष्टोमयाजिनाम्।
अग्निष्टुतेन च तथा ये यजन्ति तपोधनाः ॥ ३३ ॥
तत् स्थानमनुसम्प्राप्तमन्वपश्यत देवलः ।
मूलम्
तेषां स्थानं ततो यातं तथाग्निष्टोमयाजिनाम्।
अग्निष्टुतेन च तथा ये यजन्ति तपोधनाः ॥ ३३ ॥
तत् स्थानमनुसम्प्राप्तमन्वपश्यत देवलः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँसे अग्निष्टोमयाजी तथा अग्निष्टुत् यज्ञके द्वारा यज्ञ करनेवाले तपोधनोंके लोकमें पहुँचे हुए जैगीषव्यको देवल मुनिने देखा॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाजपेयं क्रतुवरं तथा बहुसुवर्णकम् ॥ ३४ ॥
आहरन्ति महाप्राज्ञास्तेषां लोकेष्वपश्यत ।
मूलम्
वाजपेयं क्रतुवरं तथा बहुसुवर्णकम् ॥ ३४ ॥
आहरन्ति महाप्राज्ञास्तेषां लोकेष्वपश्यत ।
अनुवाद (हिन्दी)
जो महाप्राज्ञ पुरुष बहुत-सी सुवर्णमयी दक्षिणाओंसे युक्त क्रतुश्रेष्ठ वाजपेय यज्ञका अनुष्ठान करते हैं, उनके लोकोंमें भी उन्होंने जैगीषव्यका दर्शन किया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजन्ते राजसूयेन पुण्डरीकेण चैव ये ॥ ३५ ॥
तेषां लोकेष्वपश्यच्च जैगीषव्यं स देवलः।
मूलम्
यजन्ते राजसूयेन पुण्डरीकेण चैव ये ॥ ३५ ॥
तेषां लोकेष्वपश्यच्च जैगीषव्यं स देवलः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजसूय और पुण्डरीक यज्ञके द्वारा यजन करते हैं, उनके लोकोंमें भी देवलने जैगीषव्यको देखा॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वमेधं क्रतुवरं नरमेधं तथैव च ॥ ३६ ॥
आहरन्ति नरश्रेष्ठास्तेषां लोकेष्वपश्यत ।
मूलम्
अश्वमेधं क्रतुवरं नरमेधं तथैव च ॥ ३६ ॥
आहरन्ति नरश्रेष्ठास्तेषां लोकेष्वपश्यत ।
अनुवाद (हिन्दी)
जो नरश्रेष्ठ क्रतुओंमें उत्तम अश्वमेध तथा नरमेधका अनुष्ठान करते हैं, उनके लोकोंमें भी उनका दर्शन किया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमेधं च दुष्प्रापं तथा सौत्रामणिं च ये ॥ ३७ ॥
तेषां लोकेष्वपश्यच्च जैगीषव्यं स देवलः।
मूलम्
सर्वमेधं च दुष्प्रापं तथा सौत्रामणिं च ये ॥ ३७ ॥
तेषां लोकेष्वपश्यच्च जैगीषव्यं स देवलः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग दुर्लभ सर्वमेध तथा सौत्रामणि यज्ञ करते हैं, उनके लोकोंमें भी देवलने जैगीषव्यको देखा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वादशाहैश्च सत्रैश्च यजन्ते विविधैर्नृप ॥ ३८ ॥
तेषां लोकेष्वपश्यच्च जैगीषव्यं स देवलः।
मूलम्
द्वादशाहैश्च सत्रैश्च यजन्ते विविधैर्नृप ॥ ३८ ॥
तेषां लोकेष्वपश्यच्च जैगीषव्यं स देवलः।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जो नाना प्रकारके द्वादशाह यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं, उनके लोकोंमें भी देवलने जैगीषव्यका दर्शन किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैत्रावरुणयोर्लोकानादित्यानां तथैव च ॥ ३९ ॥
सलोकतामनुप्राप्तमपश्यत ततोऽसितः ।
मूलम्
मैत्रावरुणयोर्लोकानादित्यानां तथैव च ॥ ३९ ॥
सलोकतामनुप्राप्तमपश्यत ततोऽसितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् असितने मित्र, वरुण और आदित्योंके लोकोंमें पहुँचे हुए जैगीषव्यको देखा॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्राणां च वसूनां च स्थानं यच्च बृहस्पतेः ॥ ४० ॥
तानि सर्वाण्यतीतानि समपश्यत् ततोऽसितः।
मूलम्
रुद्राणां च वसूनां च स्थानं यच्च बृहस्पतेः ॥ ४० ॥
तानि सर्वाण्यतीतानि समपश्यत् ततोऽसितः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रुद्र, वसु और बृहस्पतिके जो स्थान हैं, उन सबको लाँघकर ऊपर उठे हुए जैगीषव्यका असित देवलने दर्शन किया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरुह्य च गवां लोकं प्रयातो ब्रह्मसत्रिणाम् ॥ ४१ ॥
लोकानपश्यद् गच्छन्तं जैगीषव्यं ततोऽसितः।
मूलम्
आरुह्य च गवां लोकं प्रयातो ब्रह्मसत्रिणाम् ॥ ४१ ॥
लोकानपश्यद् गच्छन्तं जैगीषव्यं ततोऽसितः।
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद असितने गौओंके लोकमें जाकर जैगीषव्यको ब्रह्मसत्र करनेवालोंके लोकोंमें जाते देखा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रील्ँलोकानपरान् विप्रमुत्पतन्तं स्वतेजसा ॥ ४२ ॥
पतिव्रतानां लोकांश्च व्रजन्तं सोऽन्वपश्यत।
मूलम्
त्रील्ँलोकानपरान् विप्रमुत्पतन्तं स्वतेजसा ॥ ४२ ॥
पतिव्रतानां लोकांश्च व्रजन्तं सोऽन्वपश्यत।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् देवलने देखा कि विप्रवर जैगीषव्य मुनि अपने तेजसे ऊपर-ऊपरके तीन लोकोंको लाँघकर पतिव्रताओंके लोकमें जा रहे हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मुनिवरं भूयो जैगीषव्यमथासितः ॥ ४३ ॥
नान्वपश्यत लोकस्थमन्तर्हितमरिंदम ।
मूलम्
ततो मुनिवरं भूयो जैगीषव्यमथासितः ॥ ४३ ॥
नान्वपश्यत लोकस्थमन्तर्हितमरिंदम ।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंका दमन करनेवाले नरेश! इसके बाद असितने मुनिवर जैगीषव्यको पुनः किसी लोकमें स्थित नहीं देखा। वे अदृश्य हो गये थे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽचिन्तयन्महाभागो जैगीषव्यस्य देवलः ॥ ४४ ॥
प्रभावं सुव्रतत्वं च सिद्धिं योगस्य चातुलाम्।
मूलम्
सोऽचिन्तयन्महाभागो जैगीषव्यस्य देवलः ॥ ४४ ॥
प्रभावं सुव्रतत्वं च सिद्धिं योगस्य चातुलाम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् महाभाग देवलने जैगीषव्यके प्रभाव, उत्तम व्रत और अनुपम योगसिद्धिके विषयमें विचार किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असितोऽपृच्छत तदा सिद्धाल्ँलोकेषु सत्तमान् ॥ ४५ ॥
प्रयतः प्राञ्जलिर्भूत्वा धीरस्तान् ब्रह्मसत्रिणः।
जैगीषव्यं न पश्यामि तं शंसध्वं महौजसम् ॥ ४६ ॥
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे।
मूलम्
असितोऽपृच्छत तदा सिद्धाल्ँलोकेषु सत्तमान् ॥ ४५ ॥
प्रयतः प्राञ्जलिर्भूत्वा धीरस्तान् ब्रह्मसत्रिणः।
जैगीषव्यं न पश्यामि तं शंसध्वं महौजसम् ॥ ४६ ॥
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे।
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद धैर्यवान् असितने उन लोकोंमें रहनेवाले ब्रह्मयाजी सिद्धों और साधु पुरुषोंसे हाथ जोड़कर विनीतभावसे पूछा—‘महात्माओ! मैं महातेजस्वी जैगीषव्यको अब देख नहीं रहा हूँ। आप उनका पता बतावें। मैं उनके विषयमें सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है’॥४५-४६॥
मूलम् (वचनम्)
सिद्धा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु देवल भूतार्थं शंसतां नो दृढव्रत ॥ ४७ ॥
जैगीषव्यः स वै लोकं शाश्वतं ब्रह्मणो गतः।
मूलम्
शृणु देवल भूतार्थं शंसतां नो दृढव्रत ॥ ४७ ॥
जैगीषव्यः स वै लोकं शाश्वतं ब्रह्मणो गतः।
अनुवाद (हिन्दी)
सिद्धोंने कहा— दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले देवल! सुनो। हम तुम्हें वह बात बता रहे हैं, जो हो चुकी है। जैगीषव्य मुनि सनातन ब्रह्मलोकमें जा पहुँचे हैं॥४७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स श्रुत्वा वचनं तेषां सिद्धानां ब्रह्मसत्रिणाम् ॥ ४८ ॥
असितो देवलस्तूर्णमुत्पपात पपात च।
ततः सिद्धास्त ऊचुर्हि देवलं पुनरेव ह ॥ ४९ ॥
मूलम्
स श्रुत्वा वचनं तेषां सिद्धानां ब्रह्मसत्रिणाम् ॥ ४८ ॥
असितो देवलस्तूर्णमुत्पपात पपात च।
ततः सिद्धास्त ऊचुर्हि देवलं पुनरेव ह ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! उन ब्रह्मयाजी सिद्धोंकी बात सुनकर देवलमुनि तुरंत ऊपरकी ओर उछले, परंतु नीचे गिर पड़े। तब उन सिद्धोंने पुनः देवलसे कहा—॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न देवलगतिस्तत्र तव गन्तुं तपोधन।
ब्रह्मणः सदने विप्र जैगीषव्यो यदाप्तवान् ॥ ५० ॥
मूलम्
न देवलगतिस्तत्र तव गन्तुं तपोधन।
ब्रह्मणः सदने विप्र जैगीषव्यो यदाप्तवान् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तपोधन देवल! विप्रवर! जहाँ जैगीषव्य गये हैं, उस ब्रह्मलोकमें जानेकी शक्ति तुममें नहीं है’॥५०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा सिद्धानां देवलः पुनः।
आनुपूर्व्येण लोकांस्तान् सर्वानवततार ह ॥ ५१ ॥
मूलम्
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा सिद्धानां देवलः पुनः।
आनुपूर्व्येण लोकांस्तान् सर्वानवततार ह ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! उन सिद्धोंकी बात सुनकर देवलमुनि पुनः क्रमशः उन सभी लोकोंमें होते हुए नीचे उतर आये॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमाश्रमपदं पुण्यमाजगाम पतत्त्रिवत् ।
प्रविशन्नेव चापश्यज्जैगीषव्यं स देवलः ॥ ५२ ॥
मूलम्
स्वमाश्रमपदं पुण्यमाजगाम पतत्त्रिवत् ।
प्रविशन्नेव चापश्यज्जैगीषव्यं स देवलः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पक्षीकी तरह उड़ते हुए वे अपने पुण्यमय आश्रमपर आ पहुँचे। आश्रमके भीतर प्रवेश करते ही देवलने जैगीषव्य मुनिको वहाँ बैठा देखा॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो बुद्ध्या व्यगणयद् देवलो धर्मयुक्तया।
दृष्ट्वा प्रभावं तपसो जैगीषव्यस्य योगजम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
ततो बुद्ध्या व्यगणयद् देवलो धर्मयुक्तया।
दृष्ट्वा प्रभावं तपसो जैगीषव्यस्य योगजम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब देवलने जैगीषव्यकी तपस्याका वह योगजनित प्रभाव देखकर धर्मयुक्त बुद्धिसे उसपर विचार किया॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीन्महात्मानं जैगीषव्यं स देवलः।
विनयावनतो राजन्नुपसर्प्य महामुनिम् ॥ ५४ ॥
मूलम्
ततोऽब्रवीन्महात्मानं जैगीषव्यं स देवलः।
विनयावनतो राजन्नुपसर्प्य महामुनिम् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसके बाद महामुनि महात्मा जैगीषव्यके पास जाकर देवलने विनीतभावसे कहा—॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोक्षधर्मं समास्थातुमिच्छेयं भगवन्नहम् ।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा उपदेशं चकार सः ॥ ५५ ॥
विधिं च योगस्य परं कार्याकार्यस्य शास्त्रतः।
संन्यासकृतबुद्धिं तं ततो दृष्ट्वा महातपाः ॥ ५६ ॥
सर्वाश्चास्य क्रियाश्चक्रे विधिदृष्टेन कर्मणा।
मूलम्
मोक्षधर्मं समास्थातुमिच्छेयं भगवन्नहम् ।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा उपदेशं चकार सः ॥ ५५ ॥
विधिं च योगस्य परं कार्याकार्यस्य शास्त्रतः।
संन्यासकृतबुद्धिं तं ततो दृष्ट्वा महातपाः ॥ ५६ ॥
सर्वाश्चास्य क्रियाश्चक्रे विधिदृष्टेन कर्मणा।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! मैं मोक्षधर्मका आश्रय लेना चाहता हूँ।’ उनकी वह बात सुनकर महातपस्वी जैगीषव्यने उनका संन्यास लेनेका विचार जानकर उन्हें ज्ञानका उपदेश किया। साथ ही योगकी उत्तम विधि बताकर शास्त्रके अनुसार कर्तव्य-अकर्तव्यका भी उपदेश दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने शास्त्रीय विधिके अनुसार उनके संन्यासग्रहणसम्बन्धी समस्त कार्य (दीक्षा और संस्कार आदि) किये॥५५-५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संन्यासकृतबुद्धिं तं भूतानि पितृभिः सह ॥ ५७ ॥
ततो दृष्ट्वा प्ररुरुदुः कोऽस्मान् संविभजिष्यति।
मूलम्
संन्यासकृतबुद्धिं तं भूतानि पितृभिः सह ॥ ५७ ॥
ततो दृष्ट्वा प्ररुरुदुः कोऽस्मान् संविभजिष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
उनका संन्यास लेनेका विचार जानकर पितरोंसहित समस्त प्राणी यह कहते हुए रोने लगे ‘कि अब हमें कौन विभागपूर्वक अन्नदान करेगा’॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवलस्तु वचः श्रुत्वा भूतानां करुणं तथा ॥ ५८ ॥
दिशो दश व्याहरतां मोक्षं त्यक्तुं मनो दधे।
मूलम्
देवलस्तु वचः श्रुत्वा भूतानां करुणं तथा ॥ ५८ ॥
दिशो दश व्याहरतां मोक्षं त्यक्तुं मनो दधे।
अनुवाद (हिन्दी)
दसों दिशाओंमें विलाप करते हुए उन प्राणियोंका करुणायुक्त वचन सुनकर देवलने मोक्षधर्म (संन्यास)-को त्याग देनेका विचार किया॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु फलमूलानि पवित्राणि च भारत ॥ ५९ ॥
पुष्पाण्योषधयश्चैव रोरूयन्ति सहस्रशः ।
पुनर्नो देवलः क्षूद्रो नूनं छेत्स्यति दुर्मतिः ॥ ६० ॥
अभयं सर्वभूतेभ्यो यो दत्त्वा नावबुध्यते।
मूलम्
ततस्तु फलमूलानि पवित्राणि च भारत ॥ ५९ ॥
पुष्पाण्योषधयश्चैव रोरूयन्ति सहस्रशः ।
पुनर्नो देवलः क्षूद्रो नूनं छेत्स्यति दुर्मतिः ॥ ६० ॥
अभयं सर्वभूतेभ्यो यो दत्त्वा नावबुध्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! यह देख फल-मूल, पवित्री (कुश), पुष्प और ओषधियाँ—ये सहस्रों पदार्थ यह कहकर बारंबार रोने लगे कि ‘यह खोटी बुद्धिवाला क्षुद्र देवल निश्चय ही फिर हमारा उच्छेद करेगा। तभी तो यह सम्पूर्ण भूतोंको अभयदान देकर भी अब अपनी प्रतिज्ञाको स्मरण नहीं करता है’॥५९-६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भूयो व्यगणयत् स्वबुद्ध्या मुनिसत्तमः ॥ ६१ ॥
मोक्षे गार्हस्थ्यधर्मे वा किं नु श्रेयस्करं भवेत्।
मूलम्
ततो भूयो व्यगणयत् स्वबुद्ध्या मुनिसत्तमः ॥ ६१ ॥
मोक्षे गार्हस्थ्यधर्मे वा किं नु श्रेयस्करं भवेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
तब मुनिश्रेष्ठ देवल पुनः अपनी बुद्धिसे विचार करने लगे, मोक्ष और गार्हस्थ्यधर्म इनमेंसे कौन-सा मेरे लिये श्रेयस्कर होगा॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति निश्चित्य मनसा देवलो राजसत्तम ॥ ६२ ॥
त्यक्त्वा गार्हस्थ्यधर्मं स मोक्षधर्ममरोचयत्।
मूलम्
इति निश्चित्य मनसा देवलो राजसत्तम ॥ ६२ ॥
त्यक्त्वा गार्हस्थ्यधर्मं स मोक्षधर्ममरोचयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! देवलने मन-ही-मन इस बातपर निश्चित विचार करके गार्हस्थ्यधर्मको त्यागकर अपने लिये मोक्षधर्मको पसंद किया॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमादीनि संचिन्त्य देवलो निश्चयात् ततः ॥ ६३ ॥
प्राप्तवान् परमां सिद्धिं परं योगं च भारत।
मूलम्
एवमादीनि संचिन्त्य देवलो निश्चयात् ततः ॥ ६३ ॥
प्राप्तवान् परमां सिद्धिं परं योगं च भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इन सब बातोंको सोच-विचारकर देवलने जो संन्यास लेनेका ही निश्चय किया, उससे उन्होंने परमसिद्धि और उत्तम योगको प्राप्त कर लिया॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो देवाः समागम्य बृहस्पतिपुरोगमाः ॥ ६४ ॥
जैगीषव्ये तपश्चास्य प्रशंसन्ति तपस्विनः।
मूलम्
ततो देवाः समागम्य बृहस्पतिपुरोगमाः ॥ ६४ ॥
जैगीषव्ये तपश्चास्य प्रशंसन्ति तपस्विनः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब बृहस्पति आदि सब देवता और तपस्वी वहाँ आकर जैगीषव्य मुनिके तपकी प्रशंसा करने लगे॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाब्रवीदृषिवरो देवान् वै नारदस्तथा ॥ ६५ ॥
जैगीषव्ये तपो नास्ति विस्मापयति योऽसितम्।
मूलम्
अथाब्रवीदृषिवरो देवान् वै नारदस्तथा ॥ ६५ ॥
जैगीषव्ये तपो नास्ति विस्मापयति योऽसितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ नारदने देवताओंसे कहा—‘जैगीषव्यमें तपस्या नहीं है; क्योंकि ये असित मुनिको अपना प्रभाव दिखाकर आश्चर्यमें डाल रहे हैं’॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेवंवादिनं धीरं प्रत्यूचुस्ते दिवौकसः ॥ ६६ ॥
नैवमित्येव शंसन्तो जैगीषव्यं महामुनिम्।
नातः परतरं किंचित् तुल्यमस्ति प्रभावतः ॥ ६७ ॥
तेजसस्तपसश्चास्य योगस्य च महात्मनः।
मूलम्
तमेवंवादिनं धीरं प्रत्यूचुस्ते दिवौकसः ॥ ६६ ॥
नैवमित्येव शंसन्तो जैगीषव्यं महामुनिम्।
नातः परतरं किंचित् तुल्यमस्ति प्रभावतः ॥ ६७ ॥
तेजसस्तपसश्चास्य योगस्य च महात्मनः।
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहनेवाले ज्ञानी नारदमुनिको देवताओंने महामुनि जैगीषव्यकी प्रशंसा करते हुए इस प्रकार उत्तर दिया—‘आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये; क्योंकि प्रभाव, तेज, तपस्या और योगकी दृष्टिसे इन महात्मासे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है’॥६६-६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रभावो धर्मात्मा जैगीषव्यस्तथासितः।
तयोरिदं स्थानवरं तीर्थं चैव महात्मनोः ॥ ६८ ॥
मूलम्
एवं प्रभावो धर्मात्मा जैगीषव्यस्तथासितः।
तयोरिदं स्थानवरं तीर्थं चैव महात्मनोः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा जैगीषव्य तथा असितमुनिका ऐसा ही प्रभाव था। उन दोनों महात्माओंका यह श्रेष्ठ स्थान ही तीर्थ है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राप्युपस्पृश्य ततो महात्मा
दत्त्वा च वित्तं हलभृद् द्विजेभ्यः।
अवाप्य धर्मं परमार्थकर्मा
जगाम सोमस्य महत् सुतीर्थम् ॥ ६९ ॥
मूलम्
तत्राप्युपस्पृश्य ततो महात्मा
दत्त्वा च वित्तं हलभृद् द्विजेभ्यः।
अवाप्य धर्मं परमार्थकर्मा
जगाम सोमस्य महत् सुतीर्थम् ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पारमार्थिक कर्म करनेवाले महात्मा हलधर वहाँ भी स्नान करके ब्राह्मणोंको धन-दान दे धर्मका फल पाकर सोमके महान् एवं उत्तम तीर्थमें गये॥६९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि बलदेवतीर्थयात्रायां सारस्वतोपाख्याने पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें बलदेवजीकी तीर्थयात्राके प्रसंगमें सारस्वतोपाख्यानविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५०॥