०४१

भागसूचना

एकचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अवाकीर्ण और यायात तीर्थकी महिमाके प्रसंगमें दाल्भ्यकी कथा और ययातिके यज्ञका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मयोनेरवाकीर्णं जगाम यदुनन्दनः ।
यत्र दाल्भ्यो बको राजन्नाश्रमस्थो महातपाः ॥ १ ॥
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं वैचित्रवीर्यिणः।
तपसा घोररूपेण कर्षयन् देहमात्मनः ॥ २ ॥
क्रोधेन महताऽऽविष्टो धर्मात्मा वै प्रतापवान्।

मूलम्

ब्रह्मयोनेरवाकीर्णं जगाम यदुनन्दनः ।
यत्र दाल्भ्यो बको राजन्नाश्रमस्थो महातपाः ॥ १ ॥
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं वैचित्रवीर्यिणः।
तपसा घोररूपेण कर्षयन् देहमात्मनः ॥ २ ॥
क्रोधेन महताऽऽविष्टो धर्मात्मा वै प्रतापवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति करानेवाले उस तीर्थसे प्रस्थित होकर यदुनन्दन बलरामजी ‘अवाकीर्ण’ तीर्थमें गये, जहाँ आश्रममें रहते हुए महातपस्वी धर्मात्मा एवं प्रतापी दलभपुत्र बकने महान् क्रोधमें भरकर घोर तपस्याद्वारा अपने शरीरको सुखाते हुए विचित्रवीर्यकुमार राजा धृतराष्ट्रके राष्ट्रका होम कर दिया था॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा हि नैमिषीयाणां सत्रे द्वादशवार्षिके ॥ ३ ॥
वृत्ते विश्वजितोऽन्ते वै पञ्चालानृषयोऽगमन्।
तत्रेश्वरमयाचन्त दक्षिणार्थं मनस्विनः ॥ ४ ॥

मूलम्

पुरा हि नैमिषीयाणां सत्रे द्वादशवार्षिके ॥ ३ ॥
वृत्ते विश्वजितोऽन्ते वै पञ्चालानृषयोऽगमन्।
तत्रेश्वरमयाचन्त दक्षिणार्थं मनस्विनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें नैमिषारण्यनिवासी ऋषियोंने बारह वर्षोंतक चालू रहनेवाले एक सत्रका आरम्भ किया था। जब वह पूरा हो गया, तब वे सब ऋषि विश्वजित् नामक यज्ञके अन्तमें पांचाल देशमें गये। वहाँ जाकर उन मनस्वी मुनियोंने उस देशके राजासे दक्षिणाके लिये धनकी याचना की॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(तत्र ते लेभिरे राजन् पञ्चालेभ्यो महर्षयः)
बलान्वितान् वत्सतरान् निर्व्याधीनेकविंशतिम् ।
तानब्रवीद् बको दाल्भ्यो विभजध्वं पशूनिति ॥ ५ ॥
पशूनेतानहं त्यक्त्वा भिक्षिष्ये राजसत्तमम्।

मूलम्

(तत्र ते लेभिरे राजन् पञ्चालेभ्यो महर्षयः)
बलान्वितान् वत्सतरान् निर्व्याधीनेकविंशतिम् ।
तानब्रवीद् बको दाल्भ्यो विभजध्वं पशूनिति ॥ ५ ॥
पशूनेतानहं त्यक्त्वा भिक्षिष्ये राजसत्तमम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वहाँ महर्षियोंने पांचालोंसे इक्कीस बलवान् और नीरोग बछड़े प्राप्त किये। तब उनमेंसे दल्भपुत्र बकने अन्य सब ऋषियोंसे कहा—‘आपलोग इन पशुओंको बाँट लें। मैं इन्हें छोड़कर किसी श्रेष्ठ राजासे दूसरे पशु माँग लूँगा’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततो राजन्नृषीन् सर्वान् प्रतापवान् ॥ ६ ॥
जगाम धृतराष्ट्रस्य भवनं ब्राह्मणोत्तमः।

मूलम्

एवमुक्त्वा ततो राजन्नृषीन् सर्वान् प्रतापवान् ॥ ६ ॥
जगाम धृतराष्ट्रस्य भवनं ब्राह्मणोत्तमः।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उन सब ऋषियोंसे ऐसा कहकर वे प्रतापी उत्तम ब्राह्मण राजा धृतराष्ट्रके घरपर गये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समीपगतो भूत्वा धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् ॥ ७ ॥
अयाचत पशून् दाल्भ्यः स चैनं रुषितोऽब्रवीत्।
यदृच्छया मृता दृष्ट्वा गास्तदा नृपसत्तमः ॥ ८ ॥
एतान् पशून् नय क्षिप्रं ब्रह्मबन्धो यदीच्छसि।

मूलम्

स समीपगतो भूत्वा धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् ॥ ७ ॥
अयाचत पशून् दाल्भ्यः स चैनं रुषितोऽब्रवीत्।
यदृच्छया मृता दृष्ट्वा गास्तदा नृपसत्तमः ॥ ८ ॥
एतान् पशून् नय क्षिप्रं ब्रह्मबन्धो यदीच्छसि।

अनुवाद (हिन्दी)

निकट जाकर दल्भ्यने कौरवनरेश धृतराष्ट्रसे पशुओंकी याचना की। यह सुनकर नृपश्रेष्ठ धृतराष्ट्र कुपित हो उठे। उनके यहाँ कुछ गौएँ दैवेच्छासे मर गयी थीं। उन्हींको लक्ष्य करके राजाने क्रोधपूर्वक कहा—‘ब्रह्मबन्धो! यदि पशु चाहते हो तो इन मरे हुए पशुओंको ही शीघ्र ले जाओ’॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिस्तथा वचः श्रुत्वा चिन्तयामास धर्मवित् ॥ ९ ॥
अहो बत नृशंसं वै वाक्यमुक्तोऽस्मि संसदि।

मूलम्

ऋषिस्तथा वचः श्रुत्वा चिन्तयामास धर्मवित् ॥ ९ ॥
अहो बत नृशंसं वै वाक्यमुक्तोऽस्मि संसदि।

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी वैसी बात सुनकर धर्मज्ञ ऋषिने चिन्तामग्न होकर सोचा—‘अहो! बड़े खेदकी बात है कि इस राजाने भरी सभामें मुझसे ऐसा कठोर वचन कहा है’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्तयित्वा मुहूर्तेन रोषाविष्टो द्विजोत्तमः ॥ १० ॥
मतिं चक्रे विनाशाय धृतराष्ट्रस्य भूपतेः।

मूलम्

चिन्तयित्वा मुहूर्तेन रोषाविष्टो द्विजोत्तमः ॥ १० ॥
मतिं चक्रे विनाशाय धृतराष्ट्रस्य भूपतेः।

अनुवाद (हिन्दी)

दो घड़ीतक इस प्रकार चिन्ता करके रोषमें भरे हुए द्विजश्रेष्ठ दाल्भ्यने राजा धृतराष्ट्रके विनाशका विचार किया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तूत्कृत्य मृतानां वै मांसानि मुनिसत्तमः ॥ ११ ॥
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं नरपतेः पुरा।

मूलम्

स तूत्कृत्य मृतानां वै मांसानि मुनिसत्तमः ॥ ११ ॥
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं नरपतेः पुरा।

अनुवाद (हिन्दी)

वे मुनिश्रेष्ठ उन मृत पशुओंके ही मांस काट-काटकर उनके द्वारा राजा धृतराष्ट्रके राष्ट्रकी ही आहुति देने लगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवाकीर्णे सरस्वत्यास्तीर्थे प्रज्वाल्य पावकम् ॥ १२ ॥
बको दाल्भ्यो महाराज नियमं परमं स्थितः।
स तैरेव जुहावास्य राष्ट्रं मांसैर्महातपाः ॥ १३ ॥

मूलम्

अवाकीर्णे सरस्वत्यास्तीर्थे प्रज्वाल्य पावकम् ॥ १२ ॥
बको दाल्भ्यो महाराज नियमं परमं स्थितः।
स तैरेव जुहावास्य राष्ट्रं मांसैर्महातपाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! सरस्वतीके अवाकीर्णतीर्थमें अग्नि प्रज्वलित करके महातपस्वी दल्भपुत्र बक उत्तम नियमका आश्रय ले उन मृत पशुओंके मांसोंद्वारा ही उनके राष्ट्रका हवन करने लगे॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्तु विधिवत् सत्रे सम्प्रवृत्ते सुदारुणे।
अक्षीयत ततो राष्ट्रं धृतराष्ट्रस्य पार्थिव ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्मिंस्तु विधिवत् सत्रे सम्प्रवृत्ते सुदारुणे।
अक्षीयत ततो राष्ट्रं धृतराष्ट्रस्य पार्थिव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वह भयंकर यज्ञ जब विधिपूर्वक आरम्भ हुआ, तबसे धृतराष्ट्रका राष्ट्र क्षीण होने लगा॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रक्षीयमाणं तद् राज्यं तस्य महीपतेः।
छिद्यमानं यथानन्तं वनं परशुना विभो ॥ १५ ॥
बभूवापद्‌गतं तच्च व्यवकीर्णमचेतनम् ।

मूलम्

ततः प्रक्षीयमाणं तद् राज्यं तस्य महीपतेः।
छिद्यमानं यथानन्तं वनं परशुना विभो ॥ १५ ॥
बभूवापद्‌गतं तच्च व्यवकीर्णमचेतनम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! जैसे बड़ा भारी वन कुल्हाड़ीसे काटा जा रहा हो, उसी प्रकार उस राजाका राज्य क्षीण होता हुआ भारी आफतमें फँस गया, वह संकटग्रस्त होकर अचेत हो गया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा तथावकीर्णं तु राष्ट्रं स मनुजाधिपः ॥ १६ ॥
बभूव दुर्मना राजंश्चिन्तयामास च प्रभुः।
मोक्षार्थमकरोद् यत्नं ब्राह्मणैः सहितः पुरा ॥ १७ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा तथावकीर्णं तु राष्ट्रं स मनुजाधिपः ॥ १६ ॥
बभूव दुर्मना राजंश्चिन्तयामास च प्रभुः।
मोक्षार्थमकरोद् यत्नं ब्राह्मणैः सहितः पुरा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अपने राष्ट्रको इस प्रकार संकटमग्न हुआ देख वे नरेश मन-ही-मन बहुत दुःखी हुए और गहरी चिन्तामें डूब गये। फिर ब्राह्मणोंके साथ अपने देशको संकटसे बचानेका प्रयत्न करने लगे॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च श्रेयोऽध्यगच्छत्तु क्षीयते राष्ट्रमेव च।
यदा स पार्थिवः खिन्नस्ते च विप्रास्तदानघ ॥ १८ ॥

मूलम्

न च श्रेयोऽध्यगच्छत्तु क्षीयते राष्ट्रमेव च।
यदा स पार्थिवः खिन्नस्ते च विप्रास्तदानघ ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनघ! जब किसी प्रकार भी वे भूपाल अपने राष्ट्रका कल्याण-साधन न कर सके और वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होता ही चला गया, तब राजा और उन ब्राह्मणोंको बड़ा खेद हुआ॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा चापि न शक्नोति राष्ट्रं मोक्षयितुं नृप।
अथ वै प्राश्निकांस्तत्र पप्रच्छ जनमेजय ॥ १९ ॥

मूलम्

यदा चापि न शक्नोति राष्ट्रं मोक्षयितुं नृप।
अथ वै प्राश्निकांस्तत्र पप्रच्छ जनमेजय ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर जनमेजय! जब धृतराष्ट्र अपने राष्ट्रको उस विपत्तिसे छुटकारा दिलानेमें समर्थ न हो सके, तब उन्होंने प्राश्निकों (प्रश्न पूछनेपर भूत, वर्तमान और भविष्यकी बातें बतानेवालों)-को बुलाकर उनसे इसका कारण पूछा॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वै प्राश्निकाः प्राहुः पशोर्विप्रकृतस्त्वया।
मांसैरभिजुहोतीदं तव राष्ट्रं मुनिर्बकः ॥ २० ॥

मूलम्

ततो वै प्राश्निकाः प्राहुः पशोर्विप्रकृतस्त्वया।
मांसैरभिजुहोतीदं तव राष्ट्रं मुनिर्बकः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन प्राश्निकोंने कहा—‘आपने पशुके लिये याचना करनेवाले बक मुनिका तिरस्कार किया है; इसलिये वे मृत पशुओंके मांसोंद्वारा आपके इस राष्ट्रका विनाश करनेकी इच्छासे होम कर रहे हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन ते हूयमानस्य राष्ट्रस्यास्य क्षयो महान्।
तस्यैतत् तपसः कर्म येन तेऽद्य लयो महान् ॥ २१ ॥

मूलम्

तेन ते हूयमानस्य राष्ट्रस्यास्य क्षयो महान्।
तस्यैतत् तपसः कर्म येन तेऽद्य लयो महान् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनके द्वारा आपके राष्ट्रकी आहुति दी जा रही है; इसलिये इसका महान् विनाश हो रहा है। यह सब उनकी तपस्याका प्रभाव है, जिससे आपके इस देशका इस समय महान् विलय होने लगा है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपां कुञ्जे सरस्वत्यास्तं प्रसादय पार्थिव।
सरस्वतीं ततो गत्वा स राजा बकमब्रवीत् ॥ २२ ॥

मूलम्

अपां कुञ्जे सरस्वत्यास्तं प्रसादय पार्थिव।
सरस्वतीं ततो गत्वा स राजा बकमब्रवीत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भूपाल! सरस्वतीके कुंजमें जलके समीप वे मुनि विराजमान हैं, आप उन्हें प्रसन्न कीजिये।’ तब राजाने सरस्वतीके तटपर जाकर बक मुनिसे इस प्रकार कहा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निपत्य शिरसा भूमौ प्राञ्जलिर्भरतर्षभ।
प्रसादये त्वां भगवन्नपराधं क्षमस्व मे ॥ २३ ॥
मम दीनस्य लुब्धस्य मौर्ख्येण हतचेतसः।
त्वं गतिस्त्वं च मे नाथः प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥ २४ ॥

मूलम्

निपत्य शिरसा भूमौ प्राञ्जलिर्भरतर्षभ।
प्रसादये त्वां भगवन्नपराधं क्षमस्व मे ॥ २३ ॥
मम दीनस्य लुब्धस्य मौर्ख्येण हतचेतसः।
त्वं गतिस्त्वं च मे नाथः प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वे पृथ्वीपर माथा टेक हाथ जोड़कर बोले—‘भगवन्! मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप मुझ दीन, लोभी और मूर्खतासे हतबुद्धि हुए अपराधीके अपराधको क्षमा कर दें। आप ही मेरी गति हैं। आप ही मेरे रक्षक हैं। आप मुझपर अवश्य कृपा करें’॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तथा विलपन्तं तु शोकोपहतचेतसम्।
दृष्ट्वा तस्य कृपा जज्ञे राष्ट्रं तस्य व्यमोचयत् ॥ २५ ॥

मूलम्

तं तथा विलपन्तं तु शोकोपहतचेतसम्।
दृष्ट्वा तस्य कृपा जज्ञे राष्ट्रं तस्य व्यमोचयत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा धृतराष्ट्रको इस प्रकार शोकसे अचेत होकर विलाप करते देख उनके मनमें दया आ गयी और उन्होंने राजाके राज्यको संकटसे मुक्त कर दिया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिः प्रसन्नस्तस्याभूत् संरम्भं च विहाय सः।
मोक्षार्थं तस्य राज्यस्य जुहाव पुनराहुतिम् ॥ २६ ॥

मूलम्

ऋषिः प्रसन्नस्तस्याभूत् संरम्भं च विहाय सः।
मोक्षार्थं तस्य राज्यस्य जुहाव पुनराहुतिम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि क्रोध छोड़कर राजापर प्रसन्न हुए और पुनः उनके राज्यको संकटसे बचानेके लिये आहुति देने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोक्षयित्वा ततो राष्ट्रं प्रतिगृह्य पशून् बहून्।
हृष्टात्मा नैमिषारण्यं जगाम पुनरेव सः ॥ २७ ॥

मूलम्

मोक्षयित्वा ततो राष्ट्रं प्रतिगृह्य पशून् बहून्।
हृष्टात्मा नैमिषारण्यं जगाम पुनरेव सः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार राज्यको विपत्तिसे छुड़ाकर राजासे बहुत-से पशु ले प्रसन्नचित्त हुए महर्षि दाल्भ्य पुनः नैमिषारण्यको ही चले गये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रोऽपि धर्मात्मा स्वस्थचेता महामनाः।
स्वमेव नगरं राजन् प्रतिपेदे महर्द्धिमत् ॥ २८ ॥

मूलम्

धृतराष्ट्रोऽपि धर्मात्मा स्वस्थचेता महामनाः।
स्वमेव नगरं राजन् प्रतिपेदे महर्द्धिमत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! फिर महामनस्वी धर्मात्मा धृतराष्ट्र भी स्वस्थचित्त हो अपने समृद्धिशाली नगरको ही लौट आये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र तीर्थे महाराज बृहस्पतिरुदारधीः।
असुराणामभावाय भवाय च दिवौकसाम् ॥ २९ ॥
मांसैरभिजुहावेष्टिमक्षीयन्त ततोऽसुराः ।
दैवतैरपि सम्भग्ना जितकाशिभिराहवे ॥ ३० ॥

मूलम्

तत्र तीर्थे महाराज बृहस्पतिरुदारधीः।
असुराणामभावाय भवाय च दिवौकसाम् ॥ २९ ॥
मांसैरभिजुहावेष्टिमक्षीयन्त ततोऽसुराः ।
दैवतैरपि सम्भग्ना जितकाशिभिराहवे ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उसी तीर्थमें उदारबुद्धि बृहस्पतिजीने असुरोंके विनाश और देवताओंकी उन्नतिके लिये मांसोंद्वारा आभिचारिक यज्ञका अनुष्ठान किया था। इससे वे असुर क्षीण हो गये और युद्धमें विजयसे सुशोभित होनेवाले देवताओंने उन्हें मार भगाया॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रापि विधिवद् दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यो महायशाः।
वाजिनः कुञ्जरांश्चैव रथांश्चाश्वतरीयुतान् ॥ ३१ ॥
रत्नानि च महार्हाणि धनं धान्यं च पुष्कलम्।
ययौ तीर्थं महाबाहुर्यायातं पृथिवीपते ॥ ३२ ॥

मूलम्

तत्रापि विधिवद् दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यो महायशाः।
वाजिनः कुञ्जरांश्चैव रथांश्चाश्वतरीयुतान् ॥ ३१ ॥
रत्नानि च महार्हाणि धनं धान्यं च पुष्कलम्।
ययौ तीर्थं महाबाहुर्यायातं पृथिवीपते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! महायशस्वी महाबाहु बलरामजी उस तीर्थमें भी ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक हाथी, घोड़े, खच्चरियोंसे जुते हुए रथ, बहुमूल्य रत्न तथा प्रचुर धन-धान्यका दान करके वहाँसे यायात तीर्थमें गये॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र यज्ञे ययातेश्च महाराज सरस्वती।
सर्पिः पयश्च सुस्राव नाहुषस्य महात्मनः ॥ ३३ ॥

मूलम्

तत्र यज्ञे ययातेश्च महाराज सरस्वती।
सर्पिः पयश्च सुस्राव नाहुषस्य महात्मनः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वहाँ पूर्वकालमें नहुषनन्दन महात्मा ययातिने यज्ञ किया था, जिसमें सरस्वतीने उनके लिये दूध और घीका स्रोत बहाया था॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रेष्ट्वा पुरुषव्याघ्रो ययातिः पृथिवीपतिः।
अक्रामदूर्ध्वं मुदितो लेभे लोकांश्च पुष्कलान् ॥ ३४ ॥

मूलम्

तत्रेष्ट्वा पुरुषव्याघ्रो ययातिः पृथिवीपतिः।
अक्रामदूर्ध्वं मुदितो लेभे लोकांश्च पुष्कलान् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह भूपाल ययाति वहाँ यज्ञ करके प्रसन्नतापूर्वक ऊर्ध्वलोकमें चले गये और वहाँ उन्हें बहुत-से पुण्यलोक प्राप्त हुए॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनस्तत्र च राज्ञस्तु ययातेर्यजतः प्रभोः।
औदार्यं परमं कृत्वा भक्तिं चात्मनि शाश्वतीम् ॥ ३५ ॥
ददौ कामान् ब्राह्मणेभ्यो यान् यान् यो मनसेच्छति।

मूलम्

पुनस्तत्र च राज्ञस्तु ययातेर्यजतः प्रभोः।
औदार्यं परमं कृत्वा भक्तिं चात्मनि शाश्वतीम् ॥ ३५ ॥
ददौ कामान् ब्राह्मणेभ्यो यान् यान् यो मनसेच्छति।

अनुवाद (हिन्दी)

शक्तिशाली राजा ययाति जब वहाँ यज्ञ कर रहे थे, उस समय उनकी उत्कृष्ट उदारताको दृष्टिमें रखकर और अपने प्रति उनकी सनातन भक्ति देख सरस्वतीने उस यज्ञमें आये हुए ब्राह्मणोंको, जिसने अपने मनसे जिन-जिन भोगोंको चाहा, वे सभी मनोवांछित भोग प्रदान किये॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो यत्र स्थित एवेह आहूतो यज्ञसंस्तरे ॥ ३६ ॥
तस्य तस्य सरिच्छ्रेष्ठा गृहादिशयनादिकम्।
षड्रसं भोजनं चैव दानं नानाविधं तथा ॥ ३७ ॥

मूलम्

यो यत्र स्थित एवेह आहूतो यज्ञसंस्तरे ॥ ३६ ॥
तस्य तस्य सरिच्छ्रेष्ठा गृहादिशयनादिकम्।
षड्रसं भोजनं चैव दानं नानाविधं तथा ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके यज्ञमण्डपमें बुलाकर आया हुआ जो ब्राह्मण जहाँ कहीं ठहर गया, वहीं उसके लिये सरिताओंमें श्रेष्ठ सरस्वतीने पृथक्-पृथक् गृह, शय्या, आसन, षड्‌रस भोजन तथा नाना प्रकारके दानकी व्यवस्था की॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते मन्यमाना राज्ञस्तु सम्प्रदानमनुत्तमम्।
राजानं तुष्टुवुः प्रीता दत्त्वा चैवाशिषः शुभाः ॥ ३८ ॥

मूलम्

ते मन्यमाना राज्ञस्तु सम्प्रदानमनुत्तमम्।
राजानं तुष्टुवुः प्रीता दत्त्वा चैवाशिषः शुभाः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन ब्राह्मणोंने यह समझकर कि राजाने ही वह उत्तम दान दिया है, अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा ययातिको शुभाशीर्वाद दे उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र देवाः सगन्धर्वाः प्रीता यज्ञस्य सम्पदा।
विस्मिता मानुषाश्चासन्‌ दृष्ट्वा तां यज्ञसम्पदम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

तत्र देवाः सगन्धर्वाः प्रीता यज्ञस्य सम्पदा।
विस्मिता मानुषाश्चासन्‌ दृष्ट्वा तां यज्ञसम्पदम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस यज्ञकी सम्पत्तिसे देवता और गन्धर्व भी बड़े प्रसन्न हुए थे। मनुष्योंको तो वह यज्ञ-वैभव देखकर महान् आश्चर्य हुआ था॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तालकेतुर्महाधर्मकेतु-
र्महात्मा कृतात्मा महादाननित्यः ।
वसिष्ठापवाहं महाभीमवेगं
धृतात्मा जितात्मा समभ्याजगाम ॥ ४० ॥

मूलम्

ततस्तालकेतुर्महाधर्मकेतु-
र्महात्मा कृतात्मा महादाननित्यः ।
वसिष्ठापवाहं महाभीमवेगं
धृतात्मा जितात्मा समभ्याजगाम ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महान् धर्म ही जिनकी ध्वजा है और जिनकी पताकापर ताड़का चिह्न सुशोभित है, वे महात्मा, कृतात्मा, धृतात्मा तथा जितात्मा बलरामजी, जो प्रतिदिन बड़े-बड़े दान किया करते थे, वहाँसे वसिष्ठापवाह नामक तीर्थमें गये, जहाँ सरस्वतीका वेग बड़ा भयंकर है॥४०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि बलदेवतीर्थयात्रायां सारस्वतोपाख्याने एकचत्वारिंशोऽध्याय ॥ ४१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें बलदेवजीकी तीर्थयात्राके प्रसंगमें सारस्वतोपाख्यानविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४१॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ४० श्लोक हैं।)