भागसूचना
अष्टात्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सप्तसारस्वततीर्थकी उत्पत्ति, महिमा और मंकणक मुनिका चरित्र
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तसारस्वतं कस्मात् कश्च मङ्कणको मुनिः।
कथंसिद्धः स भगवान् कश्चास्य नियमोऽभवत् ॥ १ ॥
मूलम्
सप्तसारस्वतं कस्मात् कश्च मङ्कणको मुनिः।
कथंसिद्धः स भगवान् कश्चास्य नियमोऽभवत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— विप्रवर! सप्तसारस्वततीर्थकी उत्पत्ति किस हेतुसे हुई? पूजनीय मंकणक मुनि कौन थे? कैसे उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई और उनका नियम क्या था?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्य वंशे समुत्पन्नः किं चाधीतं द्विजोत्तम।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विधिवद् द्विजसत्तम ॥ २ ॥
मूलम्
कस्य वंशे समुत्पन्नः किं चाधीतं द्विजोत्तम।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विधिवद् द्विजसत्तम ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! वे किसके वंशमें उत्पन्न हुए थे और उन्होंने किस शास्त्रका अध्ययन किया था? यह सब मैं विधिपूर्वक सुनना चाहता हूँ॥२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन् सप्त सरस्वत्यो याभिर्व्याप्तमिदं जगत्।
आहूता बलवद्भिर्हि तत्र तत्र सरस्वती ॥ ३ ॥
मूलम्
राजन् सप्त सरस्वत्यो याभिर्व्याप्तमिदं जगत्।
आहूता बलवद्भिर्हि तत्र तत्र सरस्वती ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! सरस्वती नामकी सात नदियाँ और हैं, जो इस सारे जगत्में फैली हुई हैं। तपोबलसम्पन्न महात्माओंने जहाँ-जहाँ सरस्वतीका आवाहन किया है, वहाँ-वहाँ वे गयी हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्रभा काञ्चनाक्षी च विशाला च मनोरमा।
सरस्वती चौघवती सुरेणुर्विमलोदका ॥ ४ ॥
मूलम्
सुप्रभा काञ्चनाक्षी च विशाला च मनोरमा।
सरस्वती चौघवती सुरेणुर्विमलोदका ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबके नाम इस प्रकार हैं—सुप्रभा, कांचनाक्षी, विशाला, मनोरमा, सरस्वती, ओघवती, सुरेणु और विमलोदका॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामहस्य महतो वर्तमाने महामखे।
वितते यज्ञवाटे च संसिद्धेषु द्विजातिषु ॥ ५ ॥
पुण्याहघोषैर्विमलैर्वेदानां निनदैस्तथा ।
देवेषु चैव व्यग्रेषु तस्मिन् यज्ञविधौ तदा ॥ ६ ॥
मूलम्
पितामहस्य महतो वर्तमाने महामखे।
वितते यज्ञवाटे च संसिद्धेषु द्विजातिषु ॥ ५ ॥
पुण्याहघोषैर्विमलैर्वेदानां निनदैस्तथा ।
देवेषु चैव व्यग्रेषु तस्मिन् यज्ञविधौ तदा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, पुष्करतीर्थमें महात्मा ब्रह्माजीका एक महान् यज्ञ हो रहा था। उनकी विस्तृत यज्ञशालामें सिद्ध ब्राह्मण विराजमान थे। पुण्याहवाचनके निर्दोष घोष तथा वेदमन्त्रोंकी ध्वनिसे सारा यज्ञमण्डप गूँज रहा था और सम्पूर्ण देवता उस यज्ञ-कर्मके सम्पादनमें व्यस्त थे॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चैव महाराज दीक्षिते प्रपितामहे।
यजतस्तस्य सत्रेण सर्वकामसमृद्धिना ॥ ७ ॥
मूलम्
तत्र चैव महाराज दीक्षिते प्रपितामहे।
यजतस्तस्य सत्रेण सर्वकामसमृद्धिना ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! साक्षात् ब्रह्माजीने उस यज्ञकी दीक्षा ली थी। उनके यज्ञ करते समय सबकी समस्त इच्छाएँ उस यज्ञद्वारा परिपूर्ण होती थीं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसा चिन्तिता ह्यर्था धर्मार्थकुशलैस्तदा।
उपतिष्ठन्ति राजेन्द्र द्विजातींस्तत्र तत्र ह ॥ ८ ॥
मूलम्
मनसा चिन्तिता ह्यर्था धर्मार्थकुशलैस्तदा।
उपतिष्ठन्ति राजेन्द्र द्विजातींस्तत्र तत्र ह ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! धर्म और अर्थमें कुशल मनुष्य मनमें जिन पदार्थोंका चिन्तन करते थे, वे उनके पास वहाँ तत्काल उपस्थित हो जाते थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगुश्च तत्र गन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः।
वादित्राणि च दिव्यानि वादयामासुरञ्जसा ॥ ९ ॥
मूलम्
जगुश्च तत्र गन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः।
वादित्राणि च दिव्यानि वादयामासुरञ्जसा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस यज्ञमें गन्धर्व गीत गाते और अप्सराएँ नृत्य करती थीं। वहाँ दिव्य बाजे बजाये जा रहे थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य यज्ञस्य सम्पत्त्या तुतुषुर्देवता अपि।
विस्मयं परमं जग्मुः किमु मानुषयोनयः ॥ १० ॥
मूलम्
तस्य यज्ञस्य सम्पत्त्या तुतुषुर्देवता अपि।
विस्मयं परमं जग्मुः किमु मानुषयोनयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस यज्ञके वैभवसे देवता भी संतुष्ट थे और अत्यन्त आश्चर्यमें निमग्न हो रहे थे; फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमाने तथा यज्ञे पुष्करस्थे पितामहे।
अब्रुवन्नृषयो राजन्नायं यज्ञो महागुणः ॥ ११ ॥
न दृश्यते सरिच्छ्रेष्ठा यस्मादिह सरस्वती।
मूलम्
वर्तमाने तथा यज्ञे पुष्करस्थे पितामहे।
अब्रुवन्नृषयो राजन्नायं यज्ञो महागुणः ॥ ११ ॥
न दृश्यते सरिच्छ्रेष्ठा यस्मादिह सरस्वती।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार जब पितामह ब्रह्मा पुष्करमें रहकर यज्ञ कर रहे थे, उस समय ऋषियोंने उनसे कहा—‘भगवन्! आपका यह यज्ञ अभी महान् गुणसे सम्पन्न नहीं है; क्योंकि यहाँ सरिताओंमें श्रेष्ठ सरस्वती नहीं दिखायी देती हैं’॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा भगवान् प्रीतः सस्माराथ सरस्वतीम् ॥ १२ ॥
पितामहेन यजता आहूता पुष्करेषु वै।
मूलम्
तच्छ्रुत्वा भगवान् प्रीतः सस्माराथ सरस्वतीम् ॥ १२ ॥
पितामहेन यजता आहूता पुष्करेषु वै।
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर भगवान् ब्रह्माने प्रसन्नतापूर्वक सरस्वती देवीकी आराधना करके पुष्करमें यज्ञ करते समय उनका आवाहन किया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्रभा नाम राजेन्द्र नाम्ना तत्र सरस्वती ॥ १३ ॥
तां दृष्ट्वा मुनयस्तुष्टास्त्वरायुक्तां सरस्वतीम्।
पितामहं मानयन्तीं क्रतुं ते बहु मेनिरे ॥ १४ ॥
मूलम्
सुप्रभा नाम राजेन्द्र नाम्ना तत्र सरस्वती ॥ १३ ॥
तां दृष्ट्वा मुनयस्तुष्टास्त्वरायुक्तां सरस्वतीम्।
पितामहं मानयन्तीं क्रतुं ते बहु मेनिरे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! तब वहाँ सरस्वती सुप्रभा नामसे प्रकट हुईं। बड़ी उतावलीके साथ आकर ब्रह्माजीका सम्मान करती हुई सरस्वतीका दर्शन करके ऋषिगण बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उस यज्ञको बहुत सम्मान दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेषा सरिच्छ्रेष्ठा पुष्करेषु सरस्वती।
पितामहार्थं सम्भूता तुष्ट्यर्थं च मनीषिणाम् ॥ १५ ॥
मूलम्
एवमेषा सरिच्छ्रेष्ठा पुष्करेषु सरस्वती।
पितामहार्थं सम्भूता तुष्ट्यर्थं च मनीषिणाम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सरिताओंमें श्रेष्ठ सरस्वती पुष्करतीर्थमें ब्रह्माजी तथा मनीषी महात्माओंके संतोषके लिये प्रकट हुईं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैमिषे मुनयो राजन् समागम्य समासते।
तत्र चित्राः कथा ह्यासन् वेदं प्रति जनेश्वर ॥ १६ ॥
मूलम्
नैमिषे मुनयो राजन् समागम्य समासते।
तत्र चित्राः कथा ह्यासन् वेदं प्रति जनेश्वर ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जनेश्वर! नैमिषारण्यमें बहुत-से मुनि आकर रहते थे। वहाँ वेदके विषयमें विचित्र कथा-वार्ता होती रहती थी॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र ते मुनयो ह्यासन् नानास्वाध्यायवेदिनः।
ते समागम्य मुनयः सस्मरुर्वै सरस्वतीम् ॥ १७ ॥
मूलम्
यत्र ते मुनयो ह्यासन् नानास्वाध्यायवेदिनः।
ते समागम्य मुनयः सस्मरुर्वै सरस्वतीम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ वे नाना प्रकारके स्वाध्यायोंका ज्ञान रखनेवाले मुनि रहते थे, वहीं उन्होंने परस्पर मिलकर सरस्वती देवीका स्मरण किया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तु ध्याता महाराज ऋषिभः सत्रयाजिभिः।
समागतानां राजेन्द्र साहाय्यार्थं महात्मनाम् ॥ १८ ॥
आजगाम महाभागा तत्र पुण्या सरस्वती।
मूलम्
सा तु ध्याता महाराज ऋषिभः सत्रयाजिभिः।
समागतानां राजेन्द्र साहाय्यार्थं महात्मनाम् ॥ १८ ॥
आजगाम महाभागा तत्र पुण्या सरस्वती।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! राजाधिराज! उन सत्रयाजी (ज्ञानयज्ञ करनेवाले) ऋषियोंके ध्यान लगानेपर महाभागा पुण्यसलिला सरस्वतीदेवी उन समागत महात्माओंकी सहायताके लिये वहाँ आयीं॥१८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैमिषे काञ्चनाक्षी तु मुनीनां सत्रयाजिनाम् ॥ १९ ॥
आगता सरितां श्रेष्ठा तत्र भारत पूजिता।
मूलम्
नैमिषे काञ्चनाक्षी तु मुनीनां सत्रयाजिनाम् ॥ १९ ॥
आगता सरितां श्रेष्ठा तत्र भारत पूजिता।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! नैमिषारण्यतीर्थमें उन सत्रयाजी मुनियोंके समक्ष आयी हुई सरिताओंमें श्रेष्ठ सरस्वती कांचनाक्षी नामसे सम्मानित हुईं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गयस्य यजमानस्य गयेष्वेव महाक्रतुम् ॥ २० ॥
आहूता सरितां श्रेष्ठा गययज्ञे सरस्वती।
विशालां तु गयस्याहुर्ऋषयः संशितव्रताः ॥ २१ ॥
मूलम्
गयस्य यजमानस्य गयेष्वेव महाक्रतुम् ॥ २० ॥
आहूता सरितां श्रेष्ठा गययज्ञे सरस्वती।
विशालां तु गयस्याहुर्ऋषयः संशितव्रताः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा गय गयदेशमें ही एक महान् यज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे। उनके यज्ञमें भी सरिताओंमें श्रेष्ठ सरस्वतीका आवाहन किया गया था। कठोर व्रतका पालन करनेवाले महर्षि गयके यज्ञमें आयी हुई सरस्वतीको विशाला कहते हैं॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरित् सा हिमवत्पार्श्वात् प्रस्रुता शीघ्रगामिनी।
औद्दालकेस्तथा यज्ञे यजतस्तस्य भारत ॥ २२ ॥
मूलम्
सरित् सा हिमवत्पार्श्वात् प्रस्रुता शीघ्रगामिनी।
औद्दालकेस्तथा यज्ञे यजतस्तस्य भारत ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! यज्ञपरायण उद्दालक ऋषिके यज्ञमें भी सरस्वतीका आवाहन किया गया। वे शीघ्रगामिनी सरस्वती हिमालयसे निकलकर उस यज्ञमें आयी थीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समेते सर्वतः स्फीते मुनीनां मण्डले तदा।
उत्तरे कोसलाभागे पुण्ये राजन् महात्मना ॥ २३ ॥
उद्दालकेन यजता पूर्वं ध्याता सरस्वती।
आजगाम सरिच्छ्रेष्ठा तं देशं मुनिकारणात् ॥ २४ ॥
मूलम्
समेते सर्वतः स्फीते मुनीनां मण्डले तदा।
उत्तरे कोसलाभागे पुण्ये राजन् महात्मना ॥ २३ ॥
उद्दालकेन यजता पूर्वं ध्याता सरस्वती।
आजगाम सरिच्छ्रेष्ठा तं देशं मुनिकारणात् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन दिनों समृद्धिशाली एवं पुण्यमय उत्तर कोसल प्रान्तमें सब ओरसे मुनिमण्डली एकत्र हुई थी। उसमें यज्ञ करते हुए महात्मा उद्दालकने पूर्वकालमें सरस्वती देवीका ध्यान किया। तब मुनिका कार्य सिद्ध करनेके लिये सरिताओंमें श्रेष्ठ सरस्वती उस देशमें आयीं॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूज्यमाना मुनिगणैर्वल्कलाजिनसंवृतैः ।
मनोरमेति विख्याता सा हि तैर्मनसा कृता ॥ २५ ॥
मूलम्
पूज्यमाना मुनिगणैर्वल्कलाजिनसंवृतैः ।
मनोरमेति विख्याता सा हि तैर्मनसा कृता ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ वल्कल और मृगचर्मधारी मुनियोंसे पूजित होनेवाली सरस्वतीका नाम हुआ मनोरमा; क्योंकि उन्होंने मनके द्वारा उनका चिन्तन किया था॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरेणुर्ऋषभे द्वीपे पुण्ये राजर्षिसेविते।
कुरोश्च यजमानस्य कुरुक्षेत्रे महात्मनः ॥ २६ ॥
आजगाम महाभागा सरिच्छ्रेष्ठा सरस्वती।
मूलम्
सुरेणुर्ऋषभे द्वीपे पुण्ये राजर्षिसेविते।
कुरोश्च यजमानस्य कुरुक्षेत्रे महात्मनः ॥ २६ ॥
आजगाम महाभागा सरिच्छ्रेष्ठा सरस्वती।
अनुवाद (हिन्दी)
राजर्षियोंसे सेवित पुण्यमय ऋषभद्वीप तथा कुरुक्षेत्रमें जब महात्मा राजा कुरु यज्ञ कर रहे थे, उस समय सरिताओंमें श्रेष्ठ महाभागा सरस्वती वहाँ आयी थीं; उनका नाम हुआ सुरेणु॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओघवत्यपि राजेन्द्र वसिष्ठेन महात्मना ॥ २७ ॥
समाहूता कुरुक्षेत्रे दिव्यतोया सरस्वती।
दक्षेण यजता चापि गङ्गाद्वारे सरस्वती ॥ २८ ॥
सुरेणुरिति विख्याता प्रस्रुता शीघ्रगामिनी।
मूलम्
ओघवत्यपि राजेन्द्र वसिष्ठेन महात्मना ॥ २७ ॥
समाहूता कुरुक्षेत्रे दिव्यतोया सरस्वती।
दक्षेण यजता चापि गङ्गाद्वारे सरस्वती ॥ २८ ॥
सुरेणुरिति विख्याता प्रस्रुता शीघ्रगामिनी।
अनुवाद (हिन्दी)
गंगाद्वारमें यज्ञ करते समय दक्षप्रजापतिने जब सरस्वतीका स्मरण किया था, उस समय भी शीघ्रगामिनी सरस्वती वहाँ बहती हुई सुरेणु नामसे ही विख्यात हुईं। राजेन्द्र! इसी प्रकार महात्मा वसिष्ठने भी कुरुक्षेत्रमें दिव्यसलिला सरस्वतीका आवाहन किया था, जो ओघवतीके नामसे प्रसिद्ध हुईं॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमलोदा भगवती ब्रह्मणा यजता पुनः ॥ २९ ॥
समाहूता ययौ तत्र पुण्ये हैमवते गिरौ।
मूलम्
विमलोदा भगवती ब्रह्मणा यजता पुनः ॥ २९ ॥
समाहूता ययौ तत्र पुण्ये हैमवते गिरौ।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने एक बार फिर पुण्यमय हिमालयपर्वतपर यज्ञ किया था। उस समय उनके आवाहन करनेपर भगवती सरस्वतीने विमलोदका नामसे प्रसिद्ध होकर वहाँ पदार्पण किया था॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकीभूतास्ततस्तास्तु तस्मिंस्तीर्थे समागताः ॥ ३० ॥
सप्तसारस्वतं तीर्थं ततस्तु प्रथितं भुवि।
मूलम्
एकीभूतास्ततस्तास्तु तस्मिंस्तीर्थे समागताः ॥ ३० ॥
सप्तसारस्वतं तीर्थं ततस्तु प्रथितं भुवि।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर ये सातों सरस्वतियाँ एकत्र होकर उस तीर्थमें आयी थीं, इसीलिये इस भूतलपर ‘सप्तसारस्वततीर्थके नामसे उसकी प्रसिद्धि हुई’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सप्तसरस्वत्यो नामतः परिकीर्तिताः ॥ ३१ ॥
सप्तसारस्वतं चैव तीर्थं पुण्यं तथा स्मृतम्।
मूलम्
इति सप्तसरस्वत्यो नामतः परिकीर्तिताः ॥ ३१ ॥
सप्तसारस्वतं चैव तीर्थं पुण्यं तथा स्मृतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सात सरस्वती नदियोंका नामोल्लेखपूर्वक वर्णन किया गया है। इन्हींसे सप्तसारस्वत नामक परम पुण्यमय तीर्थका प्रादुर्भाव बताया गया है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु मङ्कणकस्यापि कौमारब्रह्मचारिणः ॥ ३२ ॥
आपगामवगाढस्य राजन् प्रक्रीडितं महत्।
मूलम्
शृणु मङ्कणकस्यापि कौमारब्रह्मचारिणः ॥ ३२ ॥
आपगामवगाढस्य राजन् प्रक्रीडितं महत्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कुमारावस्थासे ही ब्रह्मचर्यव्रतका पालन तथा प्रतिदिन सरस्वती नदीमें स्नान करनेवाले मंकणक मुनिका महान् लीलामय चरित्र सुनो॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा यदृच्छया तत्र स्त्रियमंभसि भारत ॥ ३३ ॥
जायन्तीं रुचिरापाङ्गीं दिग्वाससमनिन्दिताम् ।
सरस्वत्यां महाराज चस्कन्दे वीर्यमम्भसि ॥ ३४ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा यदृच्छया तत्र स्त्रियमंभसि भारत ॥ ३३ ॥
जायन्तीं रुचिरापाङ्गीं दिग्वाससमनिन्दिताम् ।
सरस्वत्यां महाराज चस्कन्दे वीर्यमम्भसि ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! महाराज! एक समयकी बात है, कोई सुन्दर नेत्रोंवाली अनिन्द्य सुन्दरी रमणी सरस्वतीके जलमें नहा रही थी। दैवयोगसे मंकणक मुनिकी दृष्टि उसपर पड़ गयी और उनका वीर्य स्खलित होकर जलमें गिर पड़ा॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् रेतः स तु जग्राह कलशे वै महातपाः।
सप्तधा प्रविभागं तु कलशस्थं जगाम ह ॥ ३५ ॥
मूलम्
तद् रेतः स तु जग्राह कलशे वै महातपाः।
सप्तधा प्रविभागं तु कलशस्थं जगाम ह ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातपस्वी मुनिने उस वीर्यको एक कलशमें ले लिया। कलशमें स्थित होनेपर वह वीर्य सात भागोंमें विभक्त हो गया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रर्षयः सप्त जाता जज्ञिरे मरुतां गणाः।
वायुवेगो वायुबलो वायुहा वायुमण्डलः ॥ ३६ ॥
वायुज्वालो वायुरेता वायुचक्रश्च वीर्यवान्।
एवमेते समुत्पन्ना मरुतां जनयिष्णवः ॥ ३७ ॥
मूलम्
तत्रर्षयः सप्त जाता जज्ञिरे मरुतां गणाः।
वायुवेगो वायुबलो वायुहा वायुमण्डलः ॥ ३६ ॥
वायुज्वालो वायुरेता वायुचक्रश्च वीर्यवान्।
एवमेते समुत्पन्ना मरुतां जनयिष्णवः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस कलशमें सात ऋषि उत्पन्न हुए, जो मूलभूत मरुद्गण थे। उनके नाम इस प्रकार हैं—वायुवेग, वायुबल, वायुहा, वायुमण्डल, वायुज्वाल, वायुरेता और शक्तिशाली वायुचक्र। ये उनचास मरुद्गणोंके जन्मदाता ‘मरुत्’ उत्पन्न हुए थे1॥३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमत्यद्भुतं राजन् शृण्वाश्चर्यतरं भुवि।
महर्षेश्चरितं यादृक् त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
इदमत्यद्भुतं राजन् शृण्वाश्चर्यतरं भुवि।
महर्षेश्चरितं यादृक् त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! महर्षि मंकणकका यह तीनों लोकोंमें विख्यात अद्भुत चरित्र जैसा सुना गया है, इसे तुम भी श्रवण करो। वह अत्यन्त आश्चर्यजनक है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा मङ्कणकः सिद्धः कुशाग्रेणेति नः श्रुतम्।
क्षतः किल करे राजंस्तस्य शाकरसोऽस्रवत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
पुरा मङ्कणकः सिद्धः कुशाग्रेणेति नः श्रुतम्।
क्षतः किल करे राजंस्तस्य शाकरसोऽस्रवत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! हमारे सुननेमें आया है कि पहले कभी सिद्ध मंकणक मुनिका हाथ किसी कुशके अग्रभागसे छिद गया था, उससे रक्तके स्थानपर शाकका रस चूने लगा था॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै शाकरसं दृष्ट्वा हर्षाविष्टः प्रनृत्तवान्।
ततस्तस्मिन् प्रनृत्ते वै स्थावरं जङ्गमं च यत् ॥ ४० ॥
प्रनृत्तमुभयं वीर तेजसा तस्य मोहितम्।
मूलम्
स वै शाकरसं दृष्ट्वा हर्षाविष्टः प्रनृत्तवान्।
ततस्तस्मिन् प्रनृत्ते वै स्थावरं जङ्गमं च यत् ॥ ४० ॥
प्रनृत्तमुभयं वीर तेजसा तस्य मोहितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वह शाकका रस देखकर मुनि हर्षके आवेशसे मतवाले हो नृत्य करने लगे। वीर! उनके नृत्यमें प्रवृत्त होते ही स्थावर और जंगम दोनों प्रकारके प्राणी उनके तेजसे मोहित होकर नाचने लगे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मादिभिः सुरै राजन्नृषिभिश्च तपोधनैः ॥ ४१ ॥
विज्ञप्तो वै महादेव ऋषेरर्थे नराधिप।
नायं नृत्येद् यथा देव तथा त्वं कर्तुमर्हसि ॥ ४२ ॥
मूलम्
ब्रह्मादिभिः सुरै राजन्नृषिभिश्च तपोधनैः ॥ ४१ ॥
विज्ञप्तो वै महादेव ऋषेरर्थे नराधिप।
नायं नृत्येद् यथा देव तथा त्वं कर्तुमर्हसि ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! नरेश्वर! तब ब्रह्मा आदि देवताओं तथा तपोधन महर्षियोंने ऋषिके विषयमें महादेवजीसे निवेदन किया—‘देव! आप ऐसा कोई उपाय करें, जिससे ये मुनि नृत्य न करें॥४१-४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो देवो मुनिं दृष्ट्वा हर्षाविष्टमतीव ह।
सुराणां हितकामार्थं महादेवोऽभ्यभाषत ॥ ४३ ॥
मूलम्
ततो देवो मुनिं दृष्ट्वा हर्षाविष्टमतीव ह।
सुराणां हितकामार्थं महादेवोऽभ्यभाषत ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिको हर्षके आवेशसे अत्यन्त मतवाला हुआ देख महादेवजीने (ब्राह्मणका रूप धारण करके) देवताओंके हितके लिये उनसे इस प्रकार कहा—॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भो ब्राह्मण धर्मज्ञ किमर्थं नृत्यते भवान्।
हर्षस्थानं किमर्थं च तवेदमधिकं मुने ॥ ४४ ॥
तपस्विनो धर्मपथे स्थितस्य द्विजसत्तम।
मूलम्
भो भो ब्राह्मण धर्मज्ञ किमर्थं नृत्यते भवान्।
हर्षस्थानं किमर्थं च तवेदमधिकं मुने ॥ ४४ ॥
तपस्विनो धर्मपथे स्थितस्य द्विजसत्तम।
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मज्ञ ब्राह्मण! आप किसलिये नृत्य कर रहे हैं? मुने! आपके लिये अधिक हर्षका कौन-सा कारण उपस्थित हो गया है? द्विजश्रेष्ठ! आप तो तपस्वी हैं, सदा धर्मके मार्गपर स्थित रहते हैं, फिर आप क्यों हर्षसे उन्मत्त हो रहे हैं?’॥४४॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं न पश्यसि मे ब्रह्मन् कराच्छाकरसं स्रुतम् ॥ ४५ ॥
यं दृष्ट्वा सम्प्रनृत्तो वै हर्षेण महता विभो।
मूलम्
किं न पश्यसि मे ब्रह्मन् कराच्छाकरसं स्रुतम् ॥ ४५ ॥
यं दृष्ट्वा सम्प्रनृत्तो वै हर्षेण महता विभो।
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषिने कहा— ब्रह्मन्! क्या आप नहीं देखते कि मेरे हाथसे शाकका रस चू रहा है। प्रभो! उसीको देखकर मैं महान् हर्षसे नाचने लगा हूँ॥४५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रहस्याब्रवीद् देवो मुनिं रागेण मोहितम् ॥ ४६ ॥
अहं न विस्मयं विप्र गच्छामीति प्रपश्य माम्।
मूलम्
तं प्रहस्याब्रवीद् देवो मुनिं रागेण मोहितम् ॥ ४६ ॥
अहं न विस्मयं विप्र गच्छामीति प्रपश्य माम्।
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर महादेवजी ठठाकर हँस पड़े और उन आसक्तिसे मोहित हुए मुनिसे बोले—‘विप्रवर! मुझे तो यह देखकर विस्मय नहीं हो रहा है। मेरी ओर देखो’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठं महादेवेन धीमता ॥ ४७ ॥
अङ्गुल्यग्रेण राजेन्द्र स्वङ्गुष्ठस्ताडितोऽभवत् ।
ततो भस्म क्षताद् राजन् निर्गतं हिमसंनिभम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठं महादेवेन धीमता ॥ ४७ ॥
अङ्गुल्यग्रेण राजेन्द्र स्वङ्गुष्ठस्ताडितोऽभवत् ।
ततो भस्म क्षताद् राजन् निर्गतं हिमसंनिभम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! मुनिश्रेष्ठ मंकणकसे ऐसा कहकर बुद्धिमान् महादेवजीने अपनी अंगुलिके अग्रभागसे अँगूठेमें घाव कर दिया। उस घावसे बर्फके समान सफेद भस्म झड़ने लगा॥४७-४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् दृष्ट्वा व्रीडितो राजन् स मुनिः पादयोर्गतः।
मेने देवं महादेवमिदं चोवाच विस्मितः ॥ ४९ ॥
मूलम्
तद् दृष्ट्वा व्रीडितो राजन् स मुनिः पादयोर्गतः।
मेने देवं महादेवमिदं चोवाच विस्मितः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह देखकर मुनि लजा गये और महादेवजीके चरणोंमें गिर पड़े। उन्होंने महादेवजीको पहचान लिया और विस्मित होकर कहा—॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्यं देवादहं मन्ये रुद्रात् परतरं महत्।
सुरासुरस्य जगतो गतिस्त्वमसि शूलधृत् ॥ ५० ॥
मूलम्
नान्यं देवादहं मन्ये रुद्रात् परतरं महत्।
सुरासुरस्य जगतो गतिस्त्वमसि शूलधृत् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! मैं रुद्रदेवके सिवा दूसरे किसी देवताको परम महान् नहीं मानता। आप ही देवताओं तथा असुरोंसहित सम्पूर्ण जगत्के आश्रयभूत त्रिशूलधारी महादेव हैं॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया सृष्टमिदं विश्वं वदन्तीह मनीषिणः।
त्वामेव सर्वं व्रजति पुनरेव युगक्षये ॥ ५१ ॥
मूलम्
त्वया सृष्टमिदं विश्वं वदन्तीह मनीषिणः।
त्वामेव सर्वं व्रजति पुनरेव युगक्षये ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनीषी पुरुष कहते हैं कि आपने ही इस सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि की है। प्रलयके समय यह सारा जगत् आपमें ही विलीन हो जाता है॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवैरपि न शक्यस्त्वं परिज्ञातुं कुतो मया।
त्वयि सर्वे स्म दृश्यन्ते भावा ये जगति स्थिताः॥५२॥
मूलम्
देवैरपि न शक्यस्त्वं परिज्ञातुं कुतो मया।
त्वयि सर्वे स्म दृश्यन्ते भावा ये जगति स्थिताः॥५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सम्पूर्ण देवता भी आपको यथार्थरूपसे नहीं जान सकते, फिर मैं कैसे जान सकूँगा? संसारमें जो-जो पदार्थ स्थित हैं, वे सब आपमें देखे जाते हैं॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वामुपासन्त वरदं देवा ब्रह्मादयोऽनघ।
सर्वस्त्वमसि देवानां कर्ता कारयिता च ह ॥ ५३ ॥
त्वत्प्रसादात् सुराः सर्वे मोदन्तीहाकुतोभयाः।
मूलम्
त्वामुपासन्त वरदं देवा ब्रह्मादयोऽनघ।
सर्वस्त्वमसि देवानां कर्ता कारयिता च ह ॥ ५३ ॥
त्वत्प्रसादात् सुराः सर्वे मोदन्तीहाकुतोभयाः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनघ! ब्रह्मा आदि देवता आप वरदायक प्रभुकी ही उपासना करते हैं। आप सर्वस्वरूप हैं। देवताओंके कर्ता और कारयिता भी आप ही हैं। आपके प्रसादसे ही सम्पूर्ण देवता यहाँ निर्भय हो आनन्दका अनुभव करते हैं॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(त्वं प्रभुः परमैश्वर्यादधिकं भासि शङ्कर।
त्वयि ब्रह्मा च शक्रश्च लोकान् संधार्य तिष्ठतः॥
मूलम्
(त्वं प्रभुः परमैश्वर्यादधिकं भासि शङ्कर।
त्वयि ब्रह्मा च शक्रश्च लोकान् संधार्य तिष्ठतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शंकर! आप सबके प्रभु हैं। अपने उत्कृष्ट ऐश्वर्यसे आपकी अधिक शोभा हो रही है। ब्रह्मा और इन्द्र सम्पूर्ण लोकोंको धारण करके आपमें ही स्थित हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्मूलं च जगत् सर्वं त्वदन्तं हि महेश्वर।
त्वया हि वितता लोकाः सप्तेमे सर्वसम्भव॥
मूलम्
त्वन्मूलं च जगत् सर्वं त्वदन्तं हि महेश्वर।
त्वया हि वितता लोकाः सप्तेमे सर्वसम्भव॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महेश्वर! सम्पूर्ण जगत्के मूलकारण आप ही हैं। इसका अन्त भी आपमें ही होता है। सबकी उत्पत्तिके हेतुभूत परमेश्वर! ये सातों लोक आपसे ही उत्पन्न होकर ब्रह्माण्डमें फैले हुए हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा सर्वभूतेश त्वामेवार्चन्ति देवताः।
त्वन्मयं हि जगत् सर्वं भूतं स्थावरजङ्गमम्॥
मूलम्
सर्वथा सर्वभूतेश त्वामेवार्चन्ति देवताः।
त्वन्मयं हि जगत् सर्वं भूतं स्थावरजङ्गमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सर्वभूतेश्वर! देवता सब प्रकारसे आपकी ही पूजा-अर्चा करते हैं। सम्पूर्ण विश्व तथा चराचर भूतोंके उपादान कारण भी आप ही हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गं च परमं स्थानं नृणामभ्युदयार्थिनाम्।
ददासि कर्मिणां कर्म भावयन् ध्यानयोगतः॥
मूलम्
स्वर्गं च परमं स्थानं नृणामभ्युदयार्थिनाम्।
ददासि कर्मिणां कर्म भावयन् ध्यानयोगतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप ही अभ्युदयकी इच्छा रखनेवाले सत्कर्मपरायण मनुष्योंको ध्यानयोगसे उनके कर्मोंका विचार करके उत्तम पद—स्वर्गलोक प्रदान करते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वृथास्ति महादेव प्रसादस्ते महेश्वर।
यस्मात् त्वयोपकरणात् करोमि कमलेक्षण॥
प्रपद्ये शरणं शम्भुं सर्वदा सर्वतः स्थितम्।)
मूलम्
न वृथास्ति महादेव प्रसादस्ते महेश्वर।
यस्मात् त्वयोपकरणात् करोमि कमलेक्षण॥
प्रपद्ये शरणं शम्भुं सर्वदा सर्वतः स्थितम्।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘महादेव! महेश्वर! कमलनयन! आपका कृपाप्रसाद कभी व्यर्थ नहीं होता! आपकी दी हुई सामग्रीसे ही मैं कार्य कर पाता हूँ, अतः सर्वदा सब ओर स्थित हुए सर्वव्यापी आप भगवान् शंकरकी मैं शरणमें आता हूँ।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्तुत्वा महादेवं स ऋषिः प्रणतोऽभवत् ॥ ५४ ॥
यदिदं चापलं देव कृतमेतत् स्मयादिकम्।
ततः प्रसादयामि त्वां तपो मे न क्षरेदिति ॥ ५५ ॥
मूलम्
एवं स्तुत्वा महादेवं स ऋषिः प्रणतोऽभवत् ॥ ५४ ॥
यदिदं चापलं देव कृतमेतत् स्मयादिकम्।
ततः प्रसादयामि त्वां तपो मे न क्षरेदिति ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार महादेवजीकी स्तुति करके वे महर्षि नतमस्तक हो गये और इस प्रकार बोले—‘देव! मैंने जो यह अहंकार आदि प्रकट करनेकी चपलता की है, उसके लिये क्षमा माँगते हुए आपसे प्रसन्न होनेकी मैं प्रार्थना करता हूँ। मेरी तपस्या नष्ट न हो’॥५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो देवः प्रीतमनास्तमृषिं पुनरब्रवीत्।
तपस्ते वर्धतां विप्र मत्प्रसादात् सहस्रधा ॥ ५६ ॥
आश्रमे चेह वत्स्यामि त्वया सार्धमहं सदा।
सप्तसारस्वते चास्मिन् यो मामर्चिष्यते नरः ॥ ५७ ॥
न तस्य दुर्लभं किञ्चिद् भवितेह परत्र वा।
सारस्वतं च ते लोकं गमिष्यन्ति न संशयः ॥ ५८ ॥
मूलम्
ततो देवः प्रीतमनास्तमृषिं पुनरब्रवीत्।
तपस्ते वर्धतां विप्र मत्प्रसादात् सहस्रधा ॥ ५६ ॥
आश्रमे चेह वत्स्यामि त्वया सार्धमहं सदा।
सप्तसारस्वते चास्मिन् यो मामर्चिष्यते नरः ॥ ५७ ॥
न तस्य दुर्लभं किञ्चिद् भवितेह परत्र वा।
सारस्वतं च ते लोकं गमिष्यन्ति न संशयः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर महादेवजीका मन प्रसन्न हो गया। वे उन महर्षिसे पुनः बोले—‘विप्रवर! मेरे प्रसादसे तुम्हारी तपस्या सहस्रगुनी बढ़ जाय। मैं इस आश्रममें सदा तुम्हारे साथ निवास करूँगा। जो इस सप्तसारस्वततीर्थमें मेरी पूजा करेगा, उसके लिये इहलोक या परलोकमें कुछ भी दुर्लभ न होगा। वे सारस्वत लोकमें जायँगे—इसमें संशय नहीं है’॥५६—५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्मङ्कणकस्यापि चरितं भूरितेजसः ।
स हि पुत्रः सुकन्यायामुत्पन्नो मातरिश्वना ॥ ५९ ॥
मूलम्
एतन्मङ्कणकस्यापि चरितं भूरितेजसः ।
स हि पुत्रः सुकन्यायामुत्पन्नो मातरिश्वना ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह महातेजस्वी मंकणक मुनिका चरित्र बताया गया है। वे वायुके औरस पुत्र थे। वायुदेवताने सुकन्याके गर्भसे उन्हें उत्पन्न किया था॥५९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि बलदेवतीर्थयात्रायां सारस्वतोपाख्यानेऽष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें बलदेवजीकी तीर्थयात्राके प्रसंगमें सारस्वतोपाख्यानविषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ६४ श्लोक हैं।)
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इन्हीं ऋषियोंकी तपस्यासे कल्पान्तरमें दितिके गर्भसे उनचास मरुद्गणोंका आविर्भाव हुआ। ये ही दितिके उदरमें एक गर्भके रूपमें प्रकट हुए, फिर इन्द्रके वज्रसे कटकर उनचास अमर शरीरोंके रूपमें उत्पन्न हुए—ऐसा समझना चाहिये। ↩︎