भागसूचना
षट्त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
उदपानतीर्थकी उत्पत्तिकी तथा त्रित मुनिके कूपमें गिरने, वहाँ यज्ञ करने और अपने भाइयोंको शाप देनेकी कथा
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्नदीगतं चापि ह्युदपानं यशस्विनः।
त्रितस्य च महाराज जगामाथ हलायुधः ॥ १ ॥
मूलम्
तस्मान्नदीगतं चापि ह्युदपानं यशस्विनः।
त्रितस्य च महाराज जगामाथ हलायुधः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज! उस चमसोद्भेद-तीर्थसे चलकर बलरामजी यशस्वी त्रितमुनिके उदपान तीर्थमें गये, जो सरस्वती नदीके जलमें स्थित है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र दत्त्वा बहु द्रव्यं पूजयित्वा तथा द्विजान्।
उपस्पृश्य च तत्रैव प्रहृष्टो मुसलायुधः ॥ २ ॥
मूलम्
तत्र दत्त्वा बहु द्रव्यं पूजयित्वा तथा द्विजान्।
उपस्पृश्य च तत्रैव प्रहृष्टो मुसलायुधः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुसलधारी बलरामजीने वहाँ जलका स्पर्श, आचमन एवं स्नान करके बहुत-सा द्रव्य दान करनेके पश्चात् ब्राह्मणोंका पूजन किया। फिर वे बहुत प्रसन्न हुए॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र धर्मपरो भूत्वा त्रितः स सुमहातपाः।
कूपे च वसता तेन सोमः पीतो महात्मना ॥ ३ ॥
मूलम्
तत्र धर्मपरो भूत्वा त्रितः स सुमहातपाः।
कूपे च वसता तेन सोमः पीतो महात्मना ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ महातपस्वी त्रितमुनि धर्मपरायण होकर रहते थे। उन महात्माने कुएँमें रहकर ही सोमपान किया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चैनं समुत्सृज्य भ्रातरौ जग्मतुर्गृहान्।
ततस्तौ वै शशापाथ त्रितो ब्राह्मणसत्तमः ॥ ४ ॥
मूलम्
तत्र चैनं समुत्सृज्य भ्रातरौ जग्मतुर्गृहान्।
ततस्तौ वै शशापाथ त्रितो ब्राह्मणसत्तमः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके दो भाई उस कुएँमें ही उन्हें छोड़कर घरको चले गये थे। इससे ब्राह्मणश्रेष्ठ त्रितने दोनोंको शाप दे दिया था॥४॥
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदपानं कथं ब्रह्मन् कथं च सुमहातपाः।
पतितः किं च संत्यक्तो भ्रातृभ्यां द्विजसत्तम ॥ ५ ॥
कूपे कथं च हित्वैनं भ्रातरौ जग्मतुर्गृहान्।
कथं च याजयामास पपौ सोमं च वै कथम्॥६॥
एतदाचक्ष्व मे ब्रह्मन् श्रोतव्यं यदि मन्यसे।
मूलम्
उदपानं कथं ब्रह्मन् कथं च सुमहातपाः।
पतितः किं च संत्यक्तो भ्रातृभ्यां द्विजसत्तम ॥ ५ ॥
कूपे कथं च हित्वैनं भ्रातरौ जग्मतुर्गृहान्।
कथं च याजयामास पपौ सोमं च वै कथम्॥६॥
एतदाचक्ष्व मे ब्रह्मन् श्रोतव्यं यदि मन्यसे।
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! उदपान तीर्थ कैसे हुआ? वे महातपस्वी त्रितमुनि उसमें कैसे गिर पड़े और द्विजश्रेष्ठ! उनके दोनों भाइयोंने उन्हें क्यों वहीं छोड़ दिया था? क्या कारण था, जिससे वे दोनों भाई उन्हें कुएँमें ही त्यागकर घर चले गये थे? वहाँ रहकर उन्होंने यज्ञ और सोमपान कैसे किया? ब्रह्मन्! यदि यह प्रसंग मेरे सुननेयोग्य समझें तो अवश्य मुझे बतावें॥५-६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसन् पूर्वयुगे राजन् मुनयो भ्रातरस्त्रयः ॥ ७ ॥
एकतश्च द्वितश्चैव त्रितश्चादित्यसंनिभाः ।
सर्वे प्रजापतिसमाः प्रजावन्तस्तथैव च ॥ ८ ॥
ब्रह्मलोकजितः सर्वे तपसा ब्रह्मवादिनः।
मूलम्
आसन् पूर्वयुगे राजन् मुनयो भ्रातरस्त्रयः ॥ ७ ॥
एकतश्च द्वितश्चैव त्रितश्चादित्यसंनिभाः ।
सर्वे प्रजापतिसमाः प्रजावन्तस्तथैव च ॥ ८ ॥
ब्रह्मलोकजितः सर्वे तपसा ब्रह्मवादिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! पहले युगमें तीन सहोदर भाई रहते थे। वे तीनों ही मुनि थे। उनके नाम थे एकत, द्वित और त्रित। वे सभी महर्षि सूर्यके समान तेजस्वी, प्रजापतिके समान संतानवान् और ब्रह्मवादी थे। उन्होंने तपस्याद्वारा ब्रह्मलोकपर विजय प्राप्त की भी॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तु तपसा प्रीतो नियमेन दमेन च ॥ ९ ॥
अभवद् गौतमो नित्यं पिता धर्मरतः सदा।
मूलम्
तेषां तु तपसा प्रीतो नियमेन दमेन च ॥ ९ ॥
अभवद् गौतमो नित्यं पिता धर्मरतः सदा।
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी तपस्या, नियम और इन्द्रियनिग्रहसे उनके धर्म-परायण पिता गौतम सदा ही प्रसन्न रहा करते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु दीर्घेण कालेन तेषां प्रीतिमवाप्य च ॥ १० ॥
जगाम भगवान् स्थानमनुरूपमिवात्मनः ।
मूलम्
स तु दीर्घेण कालेन तेषां प्रीतिमवाप्य च ॥ १० ॥
जगाम भगवान् स्थानमनुरूपमिवात्मनः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उन पुत्रोंकी त्याग-तपस्यासे संतुष्ट रहते हुए वे पूजनीय महात्मा गौतम दीर्घकालके पश्चात् अपने अनुरूप स्थान (स्वर्गलोक)-में चले गये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानस्तस्य ये ह्यासन् याज्या राजन् महात्मनः ॥ ११ ॥
ते सर्वे स्वर्गते तस्मिंस्तस्य पुत्रानपूजयन्।
मूलम्
राजानस्तस्य ये ह्यासन् याज्या राजन् महात्मनः ॥ ११ ॥
ते सर्वे स्वर्गते तस्मिंस्तस्य पुत्रानपूजयन्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन महात्मा गौतमके यजमान जो राजा लोग थे, वे सब उनके स्वर्गवासी हो जानेपर उनके पुत्रोंका ही आदर-सत्कार करने लगे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तु कर्मणा राजंस्तथा चाध्ययनेन च ॥ १२ ॥
त्रितः स श्रेष्ठतां प्राप यथैवास्य पिता तथा।
मूलम्
तेषां तु कर्मणा राजंस्तथा चाध्ययनेन च ॥ १२ ॥
त्रितः स श्रेष्ठतां प्राप यथैवास्य पिता तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उन तीनोंमें भी अपने शुभ कर्म और स्वाध्यायके द्वारा महर्षि त्रितने सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया! जैसे उनके पिता सम्मानित थे, वैसे ही वे भी हो गये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा सर्वे महाभागा मुनयः पुण्यलक्षणाः ॥ १३ ॥
अपूजयन् महाभागं यथास्य पितरं तथा।
मूलम्
तथा सर्वे महाभागा मुनयः पुण्यलक्षणाः ॥ १३ ॥
अपूजयन् महाभागं यथास्य पितरं तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
महान् सौभाग्यशाली और पुण्यात्मा सभी महर्षि भी महाभाग त्रितका उनके पिताके तुल्य ही सम्मान करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचिद्धि ततो राजन् भ्रातरावेकतद्वितौ ॥ १४ ॥
यज्ञार्थं चक्रतुश्चिन्तां तथा वित्तार्थमेव च।
तयोर्बुद्धिः समभवत् त्रितं गृह्य परंतप ॥ १५ ॥
याज्यान् सर्वानुपादाय प्रतिगृह्य पशूंस्ततः।
सोमं पास्यामहे हृष्टाः प्राप्य यज्ञं महाफलम् ॥ १६ ॥
मूलम्
कदाचिद्धि ततो राजन् भ्रातरावेकतद्वितौ ॥ १४ ॥
यज्ञार्थं चक्रतुश्चिन्तां तथा वित्तार्थमेव च।
तयोर्बुद्धिः समभवत् त्रितं गृह्य परंतप ॥ १५ ॥
याज्यान् सर्वानुपादाय प्रतिगृह्य पशूंस्ततः।
सोमं पास्यामहे हृष्टाः प्राप्य यज्ञं महाफलम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! एक दिनकी बात है, उनके दोनों भाई एकत और द्वित यज्ञ और धनके लिये चिन्ता करने लगे। शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! उनके मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि हमलोग त्रितको साथ लेकर यजमानोंका यज्ञ करावें और दक्षिणाके रूपमें बहुत-से पशु प्राप्त करके महान् फलदायक यज्ञका अनुष्ठान करें और उसीमें प्रसन्नतापूर्वक सोमरसका पान करें॥१४—१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्रुश्चैवं तथा राजन् भ्रातरस्त्रय एव च।
तथा ते तु परिक्रम्य याज्यान् सर्वान् पशून् प्रति॥१७॥
याजयित्वा ततो याज्याल्ँलब्ध्वा तु सुबहून् पशून्।
याज्येन कर्मणा तेन प्रतिगृह्य विधानतः ॥ १८ ॥
प्राचीं दिशं महात्मान आजग्मुस्ते महर्षयः।
मूलम्
चक्रुश्चैवं तथा राजन् भ्रातरस्त्रय एव च।
तथा ते तु परिक्रम्य याज्यान् सर्वान् पशून् प्रति॥१७॥
याजयित्वा ततो याज्याल्ँलब्ध्वा तु सुबहून् पशून्।
याज्येन कर्मणा तेन प्रतिगृह्य विधानतः ॥ १८ ॥
प्राचीं दिशं महात्मान आजग्मुस्ते महर्षयः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! ऐसा विचार करके उन तीनों भाइयोंने वही किया। वे सभी यजमानोंके यहाँ पशुओंकी प्राप्तिके उद्देश्यसे गये और उनसे विधिपूर्वक यज्ञ करवाकर उस याज्यकर्मके द्वारा उन्होंने बहुतेरे पशु प्राप्त कर लिये। तत्पश्चात् वे महात्मा महर्षि पूर्वदिशाकी ओर चल दिये॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रितस्तेषां महाराज पुरस्ताद् याति हृष्टवत् ॥ १९ ॥
एकतश्च द्वितश्चैव पृष्ठतः कालयन् पशून्।
मूलम्
त्रितस्तेषां महाराज पुरस्ताद् याति हृष्टवत् ॥ १९ ॥
एकतश्च द्वितश्चैव पृष्ठतः कालयन् पशून्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उनमें त्रित मुनि तो प्रसन्नतापूर्वक आगे-आगे चलते थे और एकत तथा द्वित पीछे रहकर पशुओंको हाँकते जाते थे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोश्चिन्ता समभवद् दृष्ट्वा पशुगणं महत् ॥ २० ॥
कथं च स्युरिमा गाव आवाभ्यां हि विना त्रितम्।
मूलम्
तयोश्चिन्ता समभवद् दृष्ट्वा पशुगणं महत् ॥ २० ॥
कथं च स्युरिमा गाव आवाभ्यां हि विना त्रितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
पशुओंके उस महान् समुदायको देखकर एकत और द्वितके मनमें यह चिन्ता समायी कि किस उपायसे ये गौएँ त्रितको न मिलकर हम दोनोंके ही पास रह जायँ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावन्योन्यं समाभाष्य एकतश्च द्वितश्च ह ॥ २१ ॥
यदूचतुर्मिथः पापौ तन्निबोध जनेश्वर।
मूलम्
तावन्योन्यं समाभाष्य एकतश्च द्वितश्च ह ॥ २१ ॥
यदूचतुर्मिथः पापौ तन्निबोध जनेश्वर।
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! उन एकत और द्वित—दोनों पापियोंने एक-दूसरेसे सलाह करके परस्पर जो कुछ कहा, वह बताता हूँ, सुनो॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रितो यज्ञेषु कुशलस्त्रितो वेदेषु निष्ठितः ॥ २२ ॥
अन्यास्तु बहुला गावस्त्रितः समुपलप्स्यते।
तदावां सहितौ भूत्वा गाः प्रकाल्य व्रजावहे ॥ २३ ॥
त्रितोऽपि गच्छतां काममावाभ्यां वै विना कृतः।
मूलम्
त्रितो यज्ञेषु कुशलस्त्रितो वेदेषु निष्ठितः ॥ २२ ॥
अन्यास्तु बहुला गावस्त्रितः समुपलप्स्यते।
तदावां सहितौ भूत्वा गाः प्रकाल्य व्रजावहे ॥ २३ ॥
त्रितोऽपि गच्छतां काममावाभ्यां वै विना कृतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘त्रित यज्ञ करानेमें कुशल हैं, त्रित वेदोंके परिनिष्ठित विद्वान् हैं, अतः वे और बहुत-सी गौएँ प्राप्त कर लेंगे। इस समय हम दोनों एक साथ होकर इन गौओंको हाँक ले चलें और त्रित हमसे अलग होकर जहाँ इच्छा हो वहाँ चले जायँ’॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामागच्छतां रात्रौ पथिस्थानां वृकोऽभवत् ॥ २४ ॥
तत्र कूपोऽविदूरेऽभूत् सरस्वत्यास्तटे महान्।
मूलम्
तेषामागच्छतां रात्रौ पथिस्थानां वृकोऽभवत् ॥ २४ ॥
तत्र कूपोऽविदूरेऽभूत् सरस्वत्यास्तटे महान्।
अनुवाद (हिन्दी)
रात्रिका समय था और वे तीनों भाई रास्ता पकड़े चले आ रहे थे। उनके मार्गमें एक भेड़िया खड़ा था। वहाँ पास ही सरस्वतीके तटपर एक बहुत बड़ा कुआँ था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ त्रितो वृकं दृष्ट्वा पथि तिष्ठन्तमग्रतः ॥ २५ ॥
तद्भयादपसर्पन् वै तस्मिन् कूपे पपात ह।
अगाधे सुमहाघोरे सर्वभूतभयंकरे ॥ २६ ॥
मूलम्
अथ त्रितो वृकं दृष्ट्वा पथि तिष्ठन्तमग्रतः ॥ २५ ॥
तद्भयादपसर्पन् वै तस्मिन् कूपे पपात ह।
अगाधे सुमहाघोरे सर्वभूतभयंकरे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रित अपने आगे रास्तेमें खड़े हुए भेड़ियेको देखकर उसके भयसे भागने लगे। भागते-भागते वे समस्त प्राणियोंके लिये भयंकर उस महाघोर अगाध कूपमें गिर पड़े॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रितस्ततो महाराज कूपस्थो मुनिसत्तमः।
आर्तनादं ततश्चक्रे तौ तु शुश्रुवतुर्मुनी ॥ २७ ॥
मूलम्
त्रितस्ततो महाराज कूपस्थो मुनिसत्तमः।
आर्तनादं ततश्चक्रे तौ तु शुश्रुवतुर्मुनी ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कुएँमें पहुँचनेपर मुनिश्रेष्ठ त्रितने बड़े जोरसे आर्तनाद किया, जिसे उन दोनों मुनियोंने सुना॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं ज्ञात्वा पतितं कूपे भ्रातरावेकतद्वितौ।
वृकत्रासाच्च लोभाच्च समुत्सृज्य प्रजग्मतुः ॥ २८ ॥
मूलम्
तं ज्ञात्वा पतितं कूपे भ्रातरावेकतद्वितौ।
वृकत्रासाच्च लोभाच्च समुत्सृज्य प्रजग्मतुः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने भाईको कुएँमें गिरा हुआ जानकर भी दोनों भाई एकत और द्वित भेड़ियेके भय और लोभसे उन्हें वहीं छोड़कर चल दिये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातृभ्यां पशुलुब्धाभ्यामुत्सृष्टः स महातपाः।
उदपाने तदा राजन् निर्जले पांसुसंवृते ॥ २९ ॥
मूलम्
भ्रातृभ्यां पशुलुब्धाभ्यामुत्सृष्टः स महातपाः।
उदपाने तदा राजन् निर्जले पांसुसंवृते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पशुओंके लोभमें आकर उन दोनों भाइयोंने उस समय उन महातपस्वी त्रितको धूलिसे भरे हुए उस निर्जल कूपमें ही छोड़ दिया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रित आत्मानमालक्ष्य कूपे वीरुत्तृणावृते।
निमग्नं भरतश्रेष्ठ नरके दुष्कृती यथा ॥ ३० ॥
स बुद्ध्यागणयत् प्राज्ञो मृत्योर्भीतो ह्यसोमपः।
सोमः कथं तु पातव्य इहस्थेन मया भवेत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
त्रित आत्मानमालक्ष्य कूपे वीरुत्तृणावृते।
निमग्नं भरतश्रेष्ठ नरके दुष्कृती यथा ॥ ३० ॥
स बुद्ध्यागणयत् प्राज्ञो मृत्योर्भीतो ह्यसोमपः।
सोमः कथं तु पातव्य इहस्थेन मया भवेत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जैसे पापी मनुष्य अपने-आपको नरकमें डूबा हुआ देखता है, उसी प्रकार तृण, वीरुध और लताओंसे व्याप्त हुए उस कुएँमें अपने-आपको गिरा देख मृत्युसे डरे और सोमपानसे वंचित हुए विद्वान् त्रित अपनी बुद्धिसे सोचने लगे कि ‘मैं इस कुएँमें रहकर कैसे सोमरसका पान कर सकता हूँ?’॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमभिनिश्चित्य तस्मिन् कूपे महातपाः।
ददर्श वीरुधं तत्र लम्बमानां यदृच्छया ॥ ३२ ॥
मूलम्
स एवमभिनिश्चित्य तस्मिन् कूपे महातपाः।
ददर्श वीरुधं तत्र लम्बमानां यदृच्छया ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विचार करते-करते महातपस्वी त्रितने उस कुएँमें एक लता देखी, जो दैवयोगसे वहाँ फैली हुई थी॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पांसुग्रस्ते ततः कूपे विचिन्त्य सलिलं मुनिः।
अग्नीन् संकल्पयामास होतॄनात्मानमेव च ॥ ३३ ॥
मूलम्
पांसुग्रस्ते ततः कूपे विचिन्त्य सलिलं मुनिः।
अग्नीन् संकल्पयामास होतॄनात्मानमेव च ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिने उस बालूभरे कूपमें जलकी भावना करके उसीमें संकल्पद्वारा अग्निकी स्थापना की और होता आदिके स्थानपर अपने-आपको ही प्रतिष्ठित किया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तां वीरुधं सोमं संकल्प्य सुमहातपाः।
ऋचो यजूंषि सामानि मनसा चिन्तयन् मुनिः ॥ ३४ ॥
ग्रावाणः शर्कराः कृत्वा प्रचक्रेऽभिषवं नृप।
आज्यं च सलिलं चक्रे भागांश्च त्रिदिवौकसाम् ॥ ३५ ॥
सोमस्याभिषवं कृत्वा चकार विपुलं ध्वनिम्।
मूलम्
ततस्तां वीरुधं सोमं संकल्प्य सुमहातपाः।
ऋचो यजूंषि सामानि मनसा चिन्तयन् मुनिः ॥ ३४ ॥
ग्रावाणः शर्कराः कृत्वा प्रचक्रेऽभिषवं नृप।
आज्यं च सलिलं चक्रे भागांश्च त्रिदिवौकसाम् ॥ ३५ ॥
सोमस्याभिषवं कृत्वा चकार विपुलं ध्वनिम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उन महातपस्वी त्रितने उस फैली हुई लतामें सोमकी भावना करके मन-ही-मन ऋग्, यजु और सामका चिन्तन किया। नरेश्वर! इसके बाद कंकड़ या बालू-कणोंमें सिल और लोढ़ेकी भावना करके उसपर पीसकर लतासे सोमरस निकाला। फिर जलमें घीका संकल्प करके उन्होंने देवताओंके भाग नियत किये और सोमरस तैयार करके उसकी आहुति देते हुए वेद-मन्त्रोंकी गम्भीर ध्वनि की॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चाविशद् दिवं राजन् पुनः शब्दस्त्रितस्य वै ॥ ३६ ॥
समवाप्य च तं यज्ञं यथोक्तं ब्रह्मवादिभिः।
मूलम्
स चाविशद् दिवं राजन् पुनः शब्दस्त्रितस्य वै ॥ ३६ ॥
समवाप्य च तं यज्ञं यथोक्तं ब्रह्मवादिभिः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! ब्रह्मवादियोंने जैसा बताया है, उसके अनुसार ही उस यज्ञका सम्पादन करके की हुई त्रितकी वह वेदध्वनि स्वर्गलोकतक गूँज उठी॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमाने महायज्ञे त्रितस्य सुमहात्मनः ॥ ३७ ॥
आविग्नं त्रिदिवं सर्वं कारणं च न बुद्ध्यते।
मूलम्
वर्तमाने महायज्ञे त्रितस्य सुमहात्मनः ॥ ३७ ॥
आविग्नं त्रिदिवं सर्वं कारणं च न बुद्ध्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा त्रितका वह महान् यज्ञ जब चालू हुआ, उस समय सारा स्वर्गलोक उद्विग्न हो उठा, परंतु किसीको इसका कोई कारण नहीं जान पड़ा॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुतुमुलं शब्दं शुश्रावाथ बृहस्पतिः ॥ ३८ ॥
श्रुत्वा चैवाब्रवीत् सर्वान् देवान् देवपुरोहितः।
त्रितस्य वर्तते यज्ञस्तत्र गच्छामहे सुराः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततः सुतुमुलं शब्दं शुश्रावाथ बृहस्पतिः ॥ ३८ ॥
श्रुत्वा चैवाब्रवीत् सर्वान् देवान् देवपुरोहितः।
त्रितस्य वर्तते यज्ञस्तत्र गच्छामहे सुराः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब देवपुरोहित बृहस्पतिजीने वेदमन्त्रोंके उस तुमुलनादको सुनकर देवताओंसे कहा—‘देवगण! त्रित मुनिका यज्ञ हो रहा है, वहाँ हमलोगोंको चलना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि क्रुद्धः सृजेदन्यान् देवानपि महातपाः।
मूलम्
स हि क्रुद्धः सृजेदन्यान् देवानपि महातपाः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे महान् तपस्वी हैं। यदि हम नहीं चलेंगे तो वे कुपित होकर दूसरे देवताओंकी सृष्टि कर लेंगे’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सहिताः सर्वदेवताः ॥ ४० ॥
प्रययुस्तत्र यत्रासौ त्रितयज्ञः प्रवर्तते।
मूलम्
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सहिताः सर्वदेवताः ॥ ४० ॥
प्रययुस्तत्र यत्रासौ त्रितयज्ञः प्रवर्तते।
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीका यह वचन सुनकर सब देवता एक साथ हो उस स्थानपर गये, जहाँ त्रितमुनिका यज्ञ हो रहा था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तत्र गत्वा विबुधास्तं कूपं यत्र स त्रितः॥४१॥
ददृशुस्तं महात्मानं दीक्षितं यज्ञकर्मसु।
दृष्ट्वा चैनं महात्मानं श्रिया परमया युतम् ॥ ४२ ॥
ऊचुश्चैनं महाभागं प्राप्ता भागार्थिनो वयम्।
मूलम्
ते तत्र गत्वा विबुधास्तं कूपं यत्र स त्रितः॥४१॥
ददृशुस्तं महात्मानं दीक्षितं यज्ञकर्मसु।
दृष्ट्वा चैनं महात्मानं श्रिया परमया युतम् ॥ ४२ ॥
ऊचुश्चैनं महाभागं प्राप्ता भागार्थिनो वयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पहुँचकर देवताओंने उस कूपको देखा, जिसमें त्रित मौजूद थे। साथ ही उन्होंने यज्ञमें दीक्षित हुए महात्मा त्रितमुनिका भी दर्शन किया। वे बड़े तेजस्वी दिखायी दे रहे थे। उन महाभाग मुनिका दर्शन करके देवताओंने उनसे कहा—‘हमलोग यज्ञमें अपना भाग लेनेके लिये आये हैं’॥४१-४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाब्रवीदृषिर्देवान् पश्यध्वं मा दिवौकसः ॥ ४३ ॥
अस्मिन् प्रतिभये कूपे निमग्नं नष्टचेतसम्।
मूलम्
अथाब्रवीदृषिर्देवान् पश्यध्वं मा दिवौकसः ॥ ४३ ॥
अस्मिन् प्रतिभये कूपे निमग्नं नष्टचेतसम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय महर्षिने उनसे कहा—‘देवताओ! देखो, मैं किस दशामें पड़ा हूँ। इस भयानक कूपमें गिरकर अपनी सुध-बुध खो बैठा हूँ’॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त्रितो महाराज भागांस्तेषां यथाविधि ॥ ४४ ॥
मन्त्रयुक्तान् समददत् ते च प्रीतास्तदाभवन्।
मूलम्
ततस्त्रितो महाराज भागांस्तेषां यथाविधि ॥ ४४ ॥
मन्त्रयुक्तान् समददत् ते च प्रीतास्तदाभवन्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर त्रितने देवताओंको विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए उनके भाग समर्पित किये। इससे वे उस समय बड़े प्रसन्न हुए॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो यथाविधि प्राप्तान् भागान् प्राप्य दिवौकसः ॥ ४५ ॥
प्रीतात्मानो ददुस्तस्मै वरान् यान् मनसेच्छति।
मूलम्
ततो यथाविधि प्राप्तान् भागान् प्राप्य दिवौकसः ॥ ४५ ॥
प्रीतात्मानो ददुस्तस्मै वरान् यान् मनसेच्छति।
अनुवाद (हिन्दी)
विधिपूर्वक प्राप्त हुए उन भागोंको ग्रहण करके प्रसन्नचित्त हुए देवताओंने उन्हें मनोवांछित वर प्रदान किया॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु वव्रे वरं देवांस्त्रातुमर्हथ मामितः ॥ ४६ ॥
यश्चेहोपस्पृशेत् कूपे स सोमपगतिं लभेत्।
मूलम्
स तु वव्रे वरं देवांस्त्रातुमर्हथ मामितः ॥ ४६ ॥
यश्चेहोपस्पृशेत् कूपे स सोमपगतिं लभेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिने देवताओंसे वर माँगते हुए कहा—‘मुझे इस कूपसे आपलोग बचावें तथा जो मनुष्य इसमें आचमन करे, उसे यज्ञमें सोमपान करनेवालोंकी गति प्राप्त हो’॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चोर्मिमती राजन्नुत्पपात सरस्वती ॥ ४७ ॥
तयोत्क्षिप्तः समुत्तस्थौ पूजयंस्त्रिदिवौकसः ।
मूलम्
तत्र चोर्मिमती राजन्नुत्पपात सरस्वती ॥ ४७ ॥
तयोत्क्षिप्तः समुत्तस्थौ पूजयंस्त्रिदिवौकसः ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मुनिके इतना कहते ही कुएँमें तरंगमालाओंसे सुशोभित सरस्वती लहरा उठी। उसने अपने जलके वेगसे मुनिको ऊपर उठा दिया और वे बाहर निकल आये। फिर उन्होंने देवताओंका पूजन किया॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति चोक्त्वा विबुधा जग्मू राजन् यथागताः ॥ ४८ ॥
त्रितश्चाभ्यागमत् प्रीतः स्वमेव निलयं तदा।
मूलम्
तथेति चोक्त्वा विबुधा जग्मू राजन् यथागताः ॥ ४८ ॥
त्रितश्चाभ्यागमत् प्रीतः स्वमेव निलयं तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! मुनिके माँगे हुए वरके विषयमें ‘तथास्तु’ कहकर सब देवता जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। फिर त्रित भी प्रसन्नतापूर्वक अपने घरको ही लौट गये॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धस्तु स समासाद्य तावृषी भ्रातरौ तदा ॥ ४९ ॥
उवाच परुषं वाक्यं शशाप च महातपाः।
पशुलुब्धौ युवां यस्मान्मामुत्सृज्य प्रधावितौ ॥ ५० ॥
तस्माद् वृकाकृती रौद्रौ दंष्ट्रिणावभितश्चरौ।
भवितारौ मया शप्तौ पापेनानेन कर्मणा ॥ ५१ ॥
प्रसवश्चैव युवयोर्गोलाङ्गूलर्क्षवानराः ।
मूलम्
क्रुद्धस्तु स समासाद्य तावृषी भ्रातरौ तदा ॥ ४९ ॥
उवाच परुषं वाक्यं शशाप च महातपाः।
पशुलुब्धौ युवां यस्मान्मामुत्सृज्य प्रधावितौ ॥ ५० ॥
तस्माद् वृकाकृती रौद्रौ दंष्ट्रिणावभितश्चरौ।
भवितारौ मया शप्तौ पापेनानेन कर्मणा ॥ ५१ ॥
प्रसवश्चैव युवयोर्गोलाङ्गूलर्क्षवानराः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उन महातपस्वीने कुपित हो अपने उन दोनों ऋषि भाइयोंके पास पहुँचकर कठोर वाणीमें शाप देते हुए कहा—‘तुम दोनों पशुओंके लोभमें फँसकर मुझे छोड़कर भाग आये। इसलिये इसी पापकर्मके कारण मेरे शापसे तुम दोनों भाई महाभयंकर भेड़ियेका शरीर धारण करके दाँढ़ोंसे युक्त हो इधर-उधर भटकते फिरोगे। तुम दोनोंकी संतानके रूपमें गोलांगूल, रीछ और वानर आदि पशुओंकी उत्पत्ति होगी’॥४९—५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तेन तदा तेन क्षणादेव विशाम्पते ॥ ५२ ॥
तथाभूतावदृश्येतां वचनात् सत्यवादिनः ।
मूलम्
इत्युक्तेन तदा तेन क्षणादेव विशाम्पते ॥ ५२ ॥
तथाभूतावदृश्येतां वचनात् सत्यवादिनः ।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! उनके इतना कहते ही वे दोनों भाई उस सत्यवादीके वचनसे उसी क्षण भेड़ियेकी शकलमें दिखायी देने लगे॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राप्यमितविक्रान्तः स्पृष्ट्वा तोयं हलायुधः ॥ ५३ ॥
दत्त्वा च विविधान् दायान् पूजयित्वा च वै द्विजान्।
मूलम्
तत्राप्यमितविक्रान्तः स्पृष्ट्वा तोयं हलायुधः ॥ ५३ ॥
दत्त्वा च विविधान् दायान् पूजयित्वा च वै द्विजान्।
अनुवाद (हिन्दी)
अमित पराक्रमी बलरामजीने उस तीर्थमें भी जलका स्पर्श किया और ब्राह्मणोंकी पूजा करके उन्हें नाना प्रकारके धन प्रदान किये॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदपानं च तं वीक्ष्य प्रशस्य च पुनः पुनः॥५४॥
नदीगतमदीनात्मा प्राप्तो विनशनं तदा ॥ ५५ ॥
मूलम्
उदपानं च तं वीक्ष्य प्रशस्य च पुनः पुनः॥५४॥
नदीगतमदीनात्मा प्राप्तो विनशनं तदा ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदार चित्तवाले बलरामजी सरस्वती नदीके अन्तर्गत उदपानतीर्थका दर्शन करके उसकी बारंबार स्तुति-प्रशंसा करते हुए वहाँसे विनशनतीर्थमें चले गये॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गदापर्वणि बलदेवतीर्थयात्रायां त्रिताख्याने षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें बलदेवजीकी तीर्थयात्राके प्रसंगमें त्रितका उपाख्यानविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३६॥