भागसूचना
एकत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवोंका द्वैपायनसरोवरपर जाना, वहाँ युधिष्ठिर और श्रीकृष्णकी बातचीत तथा तालाबमें छिपे हुए दुर्योधनके साथ युधिष्ठिरका संवाद
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तेष्वपयातेषु रथेषु त्रिषु पाण्डवाः।
ते ह्रदं प्रत्यपद्यन्त यत्र दुर्योधनोऽभवत् ॥ १ ॥
मूलम्
ततस्तेष्वपयातेषु रथेषु त्रिषु पाण्डवाः।
ते ह्रदं प्रत्यपद्यन्त यत्र दुर्योधनोऽभवत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! उन तीनों रथियोंके हट जानेपर पाण्डव उस सरोवरके तटपर आये, जिसमें दुर्योधन छिपा हुआ था॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसाद्य च कुरुश्रेष्ठ तदा द्वैपायनं ह्रदम्।
स्तम्भितं धार्तराष्ट्रेण दृष्ट्वा तं सलिलाशयम् ॥ २ ॥
वासुदेवमिदं वाक्यमब्रवीत् कुरुनन्दनः ।
पश्येमां धार्तराष्ट्रेण मायामप्सु प्रयोजिताम् ॥ ३ ॥
मूलम्
आसाद्य च कुरुश्रेष्ठ तदा द्वैपायनं ह्रदम्।
स्तम्भितं धार्तराष्ट्रेण दृष्ट्वा तं सलिलाशयम् ॥ २ ॥
वासुदेवमिदं वाक्यमब्रवीत् कुरुनन्दनः ।
पश्येमां धार्तराष्ट्रेण मायामप्सु प्रयोजिताम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! द्वैपायन-कुण्डपर पहुँचकर युधिष्ठिरने देखा कि दुर्योधनने इस जलाशयके जलको स्तम्भित कर दिया है। यह देखकर कुरुनन्दन युधिष्ठिरने भगवान् वासुदेवसे इस प्रकार कहा—‘प्रभो! देखिये तो सही, दुर्योधनने जलके भीतर इस मायाका कैसा प्रयोग किया है?॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्टभ्य सलिलं शेते नास्य मानुषतो भयम्।
दैवीं मायामिमां कृत्वा सलिलान्तर्गतो ह्ययम् ॥ ४ ॥
मूलम्
विष्टभ्य सलिलं शेते नास्य मानुषतो भयम्।
दैवीं मायामिमां कृत्वा सलिलान्तर्गतो ह्ययम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह पानीको रोककर सो रहा है। इसे यहाँ मनुष्यसे किसी प्रकारका भय नहीं है; क्योंकि यह इस दैवी मायाका प्रयोग करके जलके भीतर निवास करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकृत्या निकृतिप्रज्ञो न मे जीवन् विमोक्ष्यते।
यद्यस्य समरे साह्यं कुरुते वज्रभृत् स्वयम् ॥ ५ ॥
तथाप्येनं ह्रतं युद्धे लोका द्रक्ष्यन्ति माधव।
मूलम्
निकृत्या निकृतिप्रज्ञो न मे जीवन् विमोक्ष्यते।
यद्यस्य समरे साह्यं कुरुते वज्रभृत् स्वयम् ॥ ५ ॥
तथाप्येनं ह्रतं युद्धे लोका द्रक्ष्यन्ति माधव।
अनुवाद (हिन्दी)
‘माधव! यद्यपि यह छल-कपटकी विद्यामें बड़ा चतुर है, तथापि कपट करके मेरे हाथसे जीवित नहीं छूट सकता। यदि समरांगणमें साक्षात् वज्रधारी इन्द्र इसकी सहायता करें तो भी युद्धमें इसे सब लोग मरा हुआ ही देखेंगे’॥५॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायाविन इमां मायां मायया जहि भारत ॥ ६ ॥
मायावी मायया वध्यः सत्यमेतद् युधिष्ठिर।
मूलम्
मायाविन इमां मायां मायया जहि भारत ॥ ६ ॥
मायावी मायया वध्यः सत्यमेतद् युधिष्ठिर।
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— भारत! मायावी दुर्योधनकी इस मायाको आप मायाद्वारा ही नष्ट कर डालिये! युधिष्ठिर! मायावीका वध मायासे ही करना चाहिये, यह सच्ची नीति है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियाभ्युपायैर्बहुभिर्मायामप्सु प्रयोज्य च ॥ ७ ॥
जहि त्वं भरतश्रेष्ठ मायात्मानं सुयोधनम्।
मूलम्
क्रियाभ्युपायैर्बहुभिर्मायामप्सु प्रयोज्य च ॥ ७ ॥
जहि त्वं भरतश्रेष्ठ मायात्मानं सुयोधनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! आप बहुत-से रचनात्मक उपायोंद्वारा जलमें मायाका प्रयोग करके मायामय दुर्योधनका वध कीजिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियाभ्युपायैरिन्द्रेण निहता दैत्यदानवाः ॥ ८ ॥
क्रियाभ्युपायैर्बहुभिर्बलिर्बद्धो महात्मना ।
क्रियाभ्युपायैर्बहुभिर्हिरण्याक्षो महासुरः ॥ ९ ॥
मूलम्
क्रियाभ्युपायैरिन्द्रेण निहता दैत्यदानवाः ॥ ८ ॥
क्रियाभ्युपायैर्बहुभिर्बलिर्बद्धो महात्मना ।
क्रियाभ्युपायैर्बहुभिर्हिरण्याक्षो महासुरः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रचनात्मक उपायोंसे ही इन्द्रने बहुत-से दैत्य और दानवोंका संहार किया, नाना प्रकारके रचनात्मक उपायोंसे ही महात्मा श्रीहरिने बलिको बाँधा और बहुसंख्यक रचनात्मक उपायोंसे ही उन्होंने महान् असुर हिरण्याक्षका वध किया था॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यकशिपुश्चैव क्रिययैव निषूदितौ ।
वृत्रश्च निहतो राजन् क्रिययैव न संशयः ॥ १० ॥
मूलम्
हिरण्यकशिपुश्चैव क्रिययैव निषूदितौ ।
वृत्रश्च निहतो राजन् क्रिययैव न संशयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रियात्मक प्रयत्नके द्वारा ही भगवान्ने हिरण्यकशिपु-को भी मारा था। राजन्! वृत्रासुरका वध भी क्रियात्मक उपायसे ही हुआ था, इसमें संशय नहीं है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा पौलस्त्यतनयो रावणो नाम राक्षसः।
रामेण निहतो राजन् सानुबन्धः सहानुगः ॥ ११ ॥
क्रियया योगमास्थाय तथा त्वमपि विक्रम।
मूलम्
तथा पौलस्त्यतनयो रावणो नाम राक्षसः।
रामेण निहतो राजन् सानुबन्धः सहानुगः ॥ ११ ॥
क्रियया योगमास्थाय तथा त्वमपि विक्रम।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पुलस्त्यकुमार विश्रवाका पुत्र रावण नामक राक्षस श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा क्रियात्मक उपाय और युक्तिकौशलके सहारे ही सम्बन्धियों और सेवकोंसहित मारा गया, उसी प्रकार आप भी पराक्रम प्रकट करें॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियाभ्युपायैर्निहतौ मया राजन् पुरातनौ ॥ १२ ॥
तारकश्च महादैत्यो विप्रचित्तिश्च वीर्यवान्।
मूलम्
क्रियाभ्युपायैर्निहतौ मया राजन् पुरातनौ ॥ १२ ॥
तारकश्च महादैत्यो विप्रचित्तिश्च वीर्यवान्।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! पूर्वकालके महादैत्य तारक और पराक्रमी विप्रचित्तिको मैंने क्रियात्मक उपायोंसे ही मारा था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वातापिरिल्वलश्चैव त्रिशिराश्च तथा विभो ॥ १३ ॥
सुन्दोपसुन्दावसुरौ क्रिययैव निषूदितौ ।
क्रियाभ्युपायैरिन्द्रेण त्रिदिवं भुज्यते विभो ॥ १४ ॥
मूलम्
वातापिरिल्वलश्चैव त्रिशिराश्च तथा विभो ॥ १३ ॥
सुन्दोपसुन्दावसुरौ क्रिययैव निषूदितौ ।
क्रियाभ्युपायैरिन्द्रेण त्रिदिवं भुज्यते विभो ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! वातापि, इल्वल, त्रिशिरा तथा सुन्द-उपसुन्द नामक असुर भी कार्यकौशलसे ही मारे गये हैं। क्रियात्मक उपायोंसे ही इन्द्र स्वर्गका राज्य भोगते हैं॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रिया बलवती राजन् नान्यत् किंचिद् युधिष्ठिर।
दैत्याश्च दानवाश्चैव राक्षसाः पार्थिवास्तथा ॥ १५ ॥
क्रियाभ्युपायैर्निहताः क्रियां तस्मात् समाचर।
मूलम्
क्रिया बलवती राजन् नान्यत् किंचिद् युधिष्ठिर।
दैत्याश्च दानवाश्चैव राक्षसाः पार्थिवास्तथा ॥ १५ ॥
क्रियाभ्युपायैर्निहताः क्रियां तस्मात् समाचर।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कार्यकौशल ही बलवान् है, दूसरी कोई वस्तु नहीं। युधिष्ठिर! दैत्य, दानव, राक्षस तथा बहुत-से भूपाल क्रियात्मक उपायोंसे ही मारे गये हैं; अतः आप भी क्रियात्मक उपायका ही आश्रय लें॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो वासुदेवेन पाण्डवः संशितव्रतः ॥ १६ ॥
जलस्थं तं महाराज तव पुत्रं महाबलम्।
अभ्यभाषत कौन्तेयः प्रहसन्निव भारत ॥ १७ ॥
मूलम्
इत्युक्तो वासुदेवेन पाण्डवः संशितव्रतः ॥ १६ ॥
जलस्थं तं महाराज तव पुत्रं महाबलम्।
अभ्यभाषत कौन्तेयः प्रहसन्निव भारत ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! भरतनन्दन! भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर उत्तम एवं कठोर व्रतका पालन करनेवाले पाण्डुकुमार कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने जलमें स्थित हुए आपके महाबली पुत्रसे हँसते हुए-से कहा—॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुयोधन किमर्थोऽयमारम्भोऽप्सु कृतस्त्वया ।
सर्वं क्षत्रं घातयित्वा स्वकुलं च विशाम्पते ॥ १८ ॥
जलाशयं प्रविष्टोऽद्य वाञ्छञ्जीवितमात्मनः ।
उत्तिष्ठ राजन् युध्यस्व सहास्माभिः सुयोधन ॥ १९ ॥
मूलम्
सुयोधन किमर्थोऽयमारम्भोऽप्सु कृतस्त्वया ।
सर्वं क्षत्रं घातयित्वा स्वकुलं च विशाम्पते ॥ १८ ॥
जलाशयं प्रविष्टोऽद्य वाञ्छञ्जीवितमात्मनः ।
उत्तिष्ठ राजन् युध्यस्व सहास्माभिः सुयोधन ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रजानाथ सुयोधन! तुमने किसलिये पानीमें यह अनुष्ठान आरम्भ किया है। सम्पूर्ण क्षत्रियों तथा अपने कुलका संहार कराकर आज अपनी जान बचानेकी इच्छासे तुम जलाशयमें घुसे बैठे हो। राजा सुयोधन! उठो और हम लोगोंके साथ युद्ध करो॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ते दर्पो नरश्रेष्ठ स च मानः क्व ते गतः।
यस्त्वं संस्तभ्य सलिलं भीतो राजन् व्यवस्थितः ॥ २० ॥
मूलम्
स ते दर्पो नरश्रेष्ठ स च मानः क्व ते गतः।
यस्त्वं संस्तभ्य सलिलं भीतो राजन् व्यवस्थितः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! नरश्रेष्ठ! तुम्हारा वह पहलेका दर्प और अभिमान कहाँ चला गया, जो डरके मारे जलका स्तम्भन करके यहाँ छिपे हुए हो?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे त्वां शूर इत्येवं जना जल्पन्ति संसदि।
व्यर्थं तद् भवतो मन्ये शौर्यं सलिलशायिनः ॥ २१ ॥
मूलम्
सर्वे त्वां शूर इत्येवं जना जल्पन्ति संसदि।
व्यर्थं तद् भवतो मन्ये शौर्यं सलिलशायिनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सभामें सब लोग तुम्हें शूरवीर कहा करते हैं। जब तुम भयभीत होकर पानीमें सो रहे हो, तब तुम्हारे उस तथाकथित शौर्यको मैं व्यर्थ समझता हूँ॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तिष्ठ राजन् युध्यस्व क्षत्रियोऽसि कुलोद्भवः।
कौरवेयो विशेषेण कुलं जन्म च संस्मर ॥ २२ ॥
मूलम्
उत्तिष्ठ राजन् युध्यस्व क्षत्रियोऽसि कुलोद्भवः।
कौरवेयो विशेषेण कुलं जन्म च संस्मर ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! उठो, युद्ध करो; क्योंकि तुम कुलीन क्षत्रिय हो, विशेषतः कुरुकुलकी संतान हो। अपने कुल और जन्मका स्मरण तो करो॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कथं कौरवे वंशे प्रशंसन् जन्म चात्मनः।
युद्धाद् भीतस्ततस्तोयं प्रविश्य प्रतितिष्ठसि ॥ २३ ॥
मूलम्
स कथं कौरवे वंशे प्रशंसन् जन्म चात्मनः।
युद्धाद् भीतस्ततस्तोयं प्रविश्य प्रतितिष्ठसि ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम तो कौरववंशमें उत्पन्न होनेके कारण अपने जन्मकी प्रशंसा करते थे। फिर आज युद्धसे डरकर पानीके भीतर कैसे घुसे बैठे हो?॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयुद्धमव्यवस्थानं नैष धर्मः सनातनः।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यं रणे राजन् पलायनम् ॥ २४ ॥
मूलम्
अयुद्धमव्यवस्थानं नैष धर्मः सनातनः।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यं रणे राजन् पलायनम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! युद्ध न करना अथवा युद्धमें स्थिर न रहकर वहाँसे पीठ दिखाकर भागना यह सनातन धर्म नहीं है। नीच पुरुष ही ऐसे कुमार्गका आश्रय लेते हैं। इससे स्वर्गकी प्राप्ति नहीं होती॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं पारमगत्वा हि युद्धे त्वं वै जिजीविषुः।
इमान् निपतितान् दृष्ट्वा पुत्रान् भ्रातॄन् पितॄंस्तथा ॥ २५ ॥
सम्बन्धिनो वयस्यांश्च मातुलान् बान्धवांस्तथा।
घातयित्वा कथं तात ह्रदे तिष्ठसि साम्प्रतम् ॥ २६ ॥
मूलम्
कथं पारमगत्वा हि युद्धे त्वं वै जिजीविषुः।
इमान् निपतितान् दृष्ट्वा पुत्रान् भ्रातॄन् पितॄंस्तथा ॥ २५ ॥
सम्बन्धिनो वयस्यांश्च मातुलान् बान्धवांस्तथा।
घातयित्वा कथं तात ह्रदे तिष्ठसि साम्प्रतम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धसे पार पाये बिना ही तुम्हें जीवित रहनेकी इच्छा कैसे हो गयी? तात! रणभूमिमें गिरे हुए इन पुत्रों, भाइयों और चाचे-ताउओंको देखकर सम्बन्धियों, मित्रों, मामाओं और बन्धु-बान्धवोंका वध कराकर इस समय तालाबमें क्यों छिपे बैठे हो?॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूरमानी न शूरस्त्वं मृषा वदसि भारत।
शूरोऽहमिति दुर्बुद्धे सर्वलोकस्य शृण्वतः ॥ २७ ॥
मूलम्
शूरमानी न शूरस्त्वं मृषा वदसि भारत।
शूरोऽहमिति दुर्बुद्धे सर्वलोकस्य शृण्वतः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम अपनेको शूर तो मानते हो, परंतु शूर हो नहीं। भरतवंशके खोटी बुद्धिवाले नरेश! तुम सब लोगोंके सुनते हुए व्यर्थ ही कहा करते हो कि ‘मैं शूरवीर हूँ’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि शूराः पलायन्ते शत्रून् दृष्ट्वा कथञ्चन।
ब्रूहि वा त्वं यया वृत्त्या शूर त्यजसि संगरम्॥२८॥
मूलम्
न हि शूराः पलायन्ते शत्रून् दृष्ट्वा कथञ्चन।
ब्रूहि वा त्वं यया वृत्त्या शूर त्यजसि संगरम्॥२८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो वास्तवमें शूरवीर हैं, वे शत्रुओंको देखकर किसी तरह भागते नहीं हैं। अपनेको शूर कहनेवाले सुयोधन! बताओ तो सही, तुम किस वृत्तिका आश्रय लेकर युद्ध छोड़ रहे हो॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वमुत्तिष्ठ युध्यस्व विनीय भयमात्मनः।
घातयित्वा सर्वसैन्यं भ्रातॄंश्चैव सुयोधन ॥ २९ ॥
नेदानीं जीविते बुद्धिः कार्या धर्मचिकीर्षया।
क्षत्रधर्ममुपाश्रित्य त्वद्विधेन सुयोधन ॥ ३० ॥
मूलम्
स त्वमुत्तिष्ठ युध्यस्व विनीय भयमात्मनः।
घातयित्वा सर्वसैन्यं भ्रातॄंश्चैव सुयोधन ॥ २९ ॥
नेदानीं जीविते बुद्धिः कार्या धर्मचिकीर्षया।
क्षत्रधर्ममुपाश्रित्य त्वद्विधेन सुयोधन ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः तुम अपना भय दूर करके उठो और युद्ध करो। सुयोधन! भाइयों तथा सम्पूर्ण सेनाको मरवाकर क्षत्रियधर्मका आश्रय लिये हुए तुम्हारे-जैसे पुरुषको धर्मसम्पादनकी इच्छासे इस समय केवल अपनी जान बचानेका विचार नहीं करना चाहिये॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तु कर्णमुपाश्रित्य शकुनिं चापि सौबलम्।
अमर्त्य इव सम्मोहात् त्वमात्मानं न बुद्धवान् ॥ ३१ ॥
तत् पापं सुमहत् कृत्वा प्रतियुद्ध्यस्व भारत।
कथं हि त्वद्विधो मोहाद् रोचयेत पलायनम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
यत् तु कर्णमुपाश्रित्य शकुनिं चापि सौबलम्।
अमर्त्य इव सम्मोहात् त्वमात्मानं न बुद्धवान् ॥ ३१ ॥
तत् पापं सुमहत् कृत्वा प्रतियुद्ध्यस्व भारत।
कथं हि त्वद्विधो मोहाद् रोचयेत पलायनम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम जो कर्ण और सुबलपुत्र शकुनिका सहारा लेकर मोहवश अपने-आपको अजर-अमर-सा मान बैठे थे, अपनेको मनुष्य समझते ही नहीं थे, वह महान् पाप करके अब युद्ध क्यों नहीं करते? भारत! उठो, हमारे साथ युद्ध करो। तुम्हारे-जैसा वीर पुरुष मोहवश पीठ दिखाकर भागना कैसे पसंद करेगा?॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व ते तत् पौरुषं यातं क्व च मानः सुयोधन।
क्व च विक्रान्तता याता क्व च विस्फूर्जितं महत्॥३३॥
क्व ते कृतास्त्रता याता किञ्च शेषे जलाशये।
स त्वमुत्तिष्ठ युध्यस्व क्षत्रधर्मेण भारत ॥ ३४ ॥
मूलम्
क्व ते तत् पौरुषं यातं क्व च मानः सुयोधन।
क्व च विक्रान्तता याता क्व च विस्फूर्जितं महत्॥३३॥
क्व ते कृतास्त्रता याता किञ्च शेषे जलाशये।
स त्वमुत्तिष्ठ युध्यस्व क्षत्रधर्मेण भारत ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुयोधन! तुम्हारा वह पौरुष कहाँ चला गया? कहाँ है वह तुम्हारा अभिमान? कहाँ गया पराक्रम? कहाँ है वह महान् गर्जन-तर्जन? और कहाँ गया वह अस्त्रविद्याका ज्ञान? इस समय इस तालाबमें तुम्हें कैसे नींद आ रही है? भारत! उठो और क्षत्रियधर्मके अनुसार युद्ध करो॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मांस्तु वा पराजित्य प्रशाधि पृथिवीमिमाम्।
अथवा निहतोऽस्माभिर्भूमौ स्वप्स्यसि भारत ॥ ३५ ॥
मूलम्
अस्मांस्तु वा पराजित्य प्रशाधि पृथिवीमिमाम्।
अथवा निहतोऽस्माभिर्भूमौ स्वप्स्यसि भारत ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतनन्दन! हम सब लोगोंको परास्त करके इस पृथ्वीका शासन करो अथवा हमारे हाथों मारे जाकर सदाके लिये रणभूमिमें सो जाओ॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष ते परमो धर्मः सृष्टो धात्रा महात्मना।
तं कुरुष्व यथातथ्यं राजा भव महारथ ॥ ३६ ॥
मूलम्
एष ते परमो धर्मः सृष्टो धात्रा महात्मना।
तं कुरुष्व यथातथ्यं राजा भव महारथ ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवान् ब्रह्माने तुम्हारे लिये यही उत्तम धर्म बनाया है। उस धर्मका यथार्थरूपसे पालन करो। महारथी वीर! वास्तवमें राजा बनो (राजोचित पराक्रम प्रकट करो)’॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो महाराज धर्मपुत्रेण धीमता।
सलिलस्थस्तव सुत इदं वचनमब्रवीत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
एवमुक्तो महाराज धर्मपुत्रेण धीमता।
सलिलस्थस्तव सुत इदं वचनमब्रवीत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! बुद्धिमान् धर्मपुत्र युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर जलके भीतर स्थित हुए तुम्हारे पुत्रने यह बात कही॥३७॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतच्चित्रं महाराज यद्भीः प्राणिनमाविशेत्।
न च प्राणभयाद् भीतो व्यपयातोऽस्मि भारत ॥ ३८ ॥
मूलम्
नैतच्चित्रं महाराज यद्भीः प्राणिनमाविशेत्।
न च प्राणभयाद् भीतो व्यपयातोऽस्मि भारत ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— महाराज! किसी भी प्राणीके मनमें भय समा जाय, यह आश्चर्यकी बात नहीं है; परंतु भरत-नन्दन! मैं प्राणोंके भयसे भागकर यहाँ नहीं आया हूँ॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरथश्चानिषङ्गी च निहतः पार्ष्णिसारथिः।
एकश्चाप्यगणः संख्ये प्रत्याश्वासमरोचयम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
अरथश्चानिषङ्गी च निहतः पार्ष्णिसारथिः।
एकश्चाप्यगणः संख्ये प्रत्याश्वासमरोचयम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पास न तो रथ है और न तरकस। मेरे पार्श्वरक्षक भी मारे जा चुके हैं। मेरी सेना नष्ट हो गयी और मैं युद्धस्थलमें अकेला रह गया था; इस दशामें मुझे कुछ देरतक विश्राम करनेकी इच्छा हुई॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न प्राणहेतोर्न भयान्न विषादाद् विशाम्पते।
इदमम्भः प्रविष्टोऽस्मि श्रमात् त्विदमनुष्ठितम् ॥ ४० ॥
मूलम्
न प्राणहेतोर्न भयान्न विषादाद् विशाम्पते।
इदमम्भः प्रविष्टोऽस्मि श्रमात् त्विदमनुष्ठितम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! मैं न तो प्राणोंकी रक्षाके लिये, न किसी भयसे और न विषादके ही कारण इस जलमें आ घुसा हूँ। केवल थक जानेके कारण मैंने ऐसा किया है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं चाश्वसिहि कौन्तेय ये चाप्यनुगतास्तव।
अहमुत्थाय वः सर्वान् प्रतियोत्स्यामि संयुगे ॥ ४१ ॥
मूलम्
त्वं चाश्वसिहि कौन्तेय ये चाप्यनुगतास्तव।
अहमुत्थाय वः सर्वान् प्रतियोत्स्यामि संयुगे ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार! तुम भी कुछ देरतक विश्राम कर लो। तुम्हारे अनुगामी सेवक भी सुस्ता लें। फिर मैं उठकर समरांगणमें तुम सब लोगोंके साथ युद्ध करूँगा॥४१॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्वस्ता एव सर्वे स्म चिरं त्वां मृगयामहे।
तदिदानीं समुत्तिष्ठ युध्यस्वेह सुयोधन ॥ ४२ ॥
मूलम्
आश्वस्ता एव सर्वे स्म चिरं त्वां मृगयामहे।
तदिदानीं समुत्तिष्ठ युध्यस्वेह सुयोधन ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— सुयोधन! हम सब लोग तो सुस्ता ही चुके हैं और बहुत देरसे तुम्हें खोज रहे हैं; इसलिये अब तुम उठो और यहीं युद्ध करो॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा वा समरे पार्थान् स्फीतं राज्यमवाप्नुहि।
निहतो वा रणेऽस्माभिर्वीरलोकमवाप्स्यसि ॥ ४३ ॥
मूलम्
हत्वा वा समरे पार्थान् स्फीतं राज्यमवाप्नुहि।
निहतो वा रणेऽस्माभिर्वीरलोकमवाप्स्यसि ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संग्राममें समस्त पाण्डवोंको मारकर समृद्धिशाली राज्य प्राप्त करो अथवा रणभूमिमें हमारे हाथों मारे जाकर वीरोंको मिलनेयोग्य पुण्यलोकोंमें चले जाओ॥४३॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थं राज्यमिच्छामि कुरूणां कुरुनन्दन।
त इमे निहताः सर्वे भ्रातरो मे जनेश्वर ॥ ४४ ॥
क्षीणरत्नां च पृथिवीं हतक्षत्रियपुङ्गवाम्।
न ह्युत्सहाम्यहं भोक्तुं विधवामिव योषितम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
यदर्थं राज्यमिच्छामि कुरूणां कुरुनन्दन।
त इमे निहताः सर्वे भ्रातरो मे जनेश्वर ॥ ४४ ॥
क्षीणरत्नां च पृथिवीं हतक्षत्रियपुङ्गवाम्।
न ह्युत्सहाम्यहं भोक्तुं विधवामिव योषितम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— कुरुनन्दन नरेश्वर! मैं जिनके लिये कौरवोंका राज्य चाहता था, वे मेरे सभी भाई मारे जा चुके हैं। भूमण्डलके सभी क्षत्रियशिरोमणियोंका संहार हो गया है। यहाँके सभी रत्न नष्ट हो गये हैं; अतः विधवा स्त्रीके समान श्रीहीन हुई इस पृथ्वीका उपभोग करनेके लिये मेरे मनमें तनिक भी उत्साह नहीं है॥४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्यापि त्वहमाशंसे त्वां विजेतुं युधिष्ठिर।
भङ्क्त्वा पाञ्चालपाण्डूनामुत्साहं भरतर्षभ ॥ ४६ ॥
मूलम्
अद्यापि त्वहमाशंसे त्वां विजेतुं युधिष्ठिर।
भङ्क्त्वा पाञ्चालपाण्डूनामुत्साहं भरतर्षभ ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! मैं आज भी पांचालों और पाण्डवोंका उत्साह भंग करके तुम्हें जीतनेका हौसला रखता हूँ॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्विदानीमहं मन्ये कार्यं युद्धेन कर्हिचित्।
द्रोणे कर्णे च संशान्ते निहते च पितामहे ॥ ४७ ॥
मूलम्
न त्विदानीमहं मन्ये कार्यं युद्धेन कर्हिचित्।
द्रोणे कर्णे च संशान्ते निहते च पितामहे ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु जब द्रोण और कर्ण शान्त हो गये तथा पितामह भीष्म मार डाले गये तो अब मेरी रायमें कभी भी इस युद्धकी कोई आवश्यकता नहीं रही॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्विदानीमियं राजन् केवला पृथिवी तव।
असहायो हि को राजा राज्यमिच्छेत् प्रशासितुम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
अस्त्विदानीमियं राजन् केवला पृथिवी तव।
असहायो हि को राजा राज्यमिच्छेत् प्रशासितुम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अब यह सूनी पृथ्वी तुम्हारी ही रहे। कौन राजा सहायकोंसे रहित होकर राज्य-शासनकी इच्छा करेगा?॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृदस्तादृशान् हित्वा पुत्रान् भ्रातॄन् पितॄनपि।
भवद्भिश्च हृते राज्ये को नु जीवेत मादृशः ॥ ४९ ॥
मूलम्
सुहृदस्तादृशान् हित्वा पुत्रान् भ्रातॄन् पितॄनपि।
भवद्भिश्च हृते राज्ये को नु जीवेत मादृशः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैसे हितैषी सुहृदों, पुत्रों, भाइयों और पिताओंको छोड़कर तुमलोगोंके द्वारा राज्यका अपहरण हो जानेपर कौन मेरे-जैसा पुरुष जीवित रहेगा?॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं वनं गमिष्यामि ह्यजिनैः प्रतिवासितः।
रतिर्हि नास्ति मे राज्ये हतपक्षस्य भारत ॥ ५० ॥
मूलम्
अहं वनं गमिष्यामि ह्यजिनैः प्रतिवासितः।
रतिर्हि नास्ति मे राज्ये हतपक्षस्य भारत ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! मैं मृगचर्म धारण करके वनमें चला जाऊँगा। अपने पक्षके लोगोंके मारे जानेसे अब इस राज्यमें मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतबान्धवभूयिष्ठा हताश्वा हतकुञ्जरा ।
एषा ते पृथिवी राजन् भुङ्क्ष्वैनां विगतज्वरः ॥ ५१ ॥
मूलम्
हतबान्धवभूयिष्ठा हताश्वा हतकुञ्जरा ।
एषा ते पृथिवी राजन् भुङ्क्ष्वैनां विगतज्वरः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह पृथ्वी, जहाँ मेरे अधिक-से-अधिक भाई-बन्धु, घोड़े और हाथी मारे गये हैं, अब तुम्हारे ही अधिकारमें रहे। तुम निश्चिन्त होकर इसका उपभोग करो॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनमेव गमिष्यामि वसानो मृगचर्मणी।
न हि मे निर्जनस्यास्ति जीवितेऽद्य स्पृहा विभो ॥ ५२ ॥
मूलम्
वनमेव गमिष्यामि वसानो मृगचर्मणी।
न हि मे निर्जनस्यास्ति जीवितेऽद्य स्पृहा विभो ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! मैं तो दो मृगछाला धारण करके वनमें ही चला जाऊँगा, जब मेरे स्वजन ही नहीं रहे, तब मुझे भी इस जीवनको सुरक्षित रखनेकी इच्छा नहीं है॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ त्वं भुङ्क्ष्व राजेन्द्र पृथिवीं निहतेश्वराम्।
हतयोधां नष्टरत्नां क्षीणवृत्तिर्यथासुखम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
गच्छ त्वं भुङ्क्ष्व राजेन्द्र पृथिवीं निहतेश्वराम्।
हतयोधां नष्टरत्नां क्षीणवृत्तिर्यथासुखम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! जाओ, जिसके स्वामीका नाश हो गया है, योद्धा मारे गये हैं और सारे रत्न नष्ट हो गये हैं, उस पृथ्वीका आनन्दपूर्वक उपभोग करो; क्योंकि तुम्हारी जीविका क्षीण हो गयी थी॥५३॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनं तव सुतं सलिलस्थं महायशाः।
श्रुत्वा तु करुणं वाक्यमभाषत युधिष्ठिरः ॥ ५४ ॥
मूलम्
दुर्योधनं तव सुतं सलिलस्थं महायशाः।
श्रुत्वा तु करुणं वाक्यमभाषत युधिष्ठिरः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! महायशस्वी युधिष्ठिरने वह करुणायुक्त वचन सुनकर पानीमें स्थित हुए आपके पुत्र दुर्योधनसे इस प्रकार कहा॥५४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्तप्रलापान्मा तात सलिलस्थः प्रभाषिथाः।
नैतन्मनसि मे राजन् वाशितं शकुनेरिव ॥ ५५ ॥
मूलम्
आर्तप्रलापान्मा तात सलिलस्थः प्रभाषिथाः।
नैतन्मनसि मे राजन् वाशितं शकुनेरिव ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— नरेश्वर! तुम जलमें स्थित होकर आर्त पुरुषोंके समान प्रलाप न करो। तात! चिड़ियोंके चहचहानेके समान तुम्हारी यह बात मेरे मनमें कोई अर्थ नहीं रखती है॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि वापि समर्थः स्यास्त्वं दानाय सुयोधन।
नाहमिच्छेयमवनिं त्वया दत्तां प्रशासितुम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
यदि वापि समर्थः स्यास्त्वं दानाय सुयोधन।
नाहमिच्छेयमवनिं त्वया दत्तां प्रशासितुम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुयोधन! यदि तुम इसे देनेमें समर्थ होते तो भी मैं तुम्हारी दी हुई इस पृथ्वीपर शासन करनेकी इच्छा नहीं रखता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मेण न गृह्णीयां त्वया दत्तां महीमिमाम्।
न हि धर्मः स्मृतो राजन् क्षत्रियस्य प्रतिग्रहः ॥ ५७ ॥
मूलम्
अधर्मेण न गृह्णीयां त्वया दत्तां महीमिमाम्।
न हि धर्मः स्मृतो राजन् क्षत्रियस्य प्रतिग्रहः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम्हारी दी हुई इस भूमिको मैं अधर्मपूर्वक नहीं ले सकता; क्षत्रियके लिये दान लेना धर्म नहीं बताया गया है॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया दत्तां न चेच्छेयं पृथिवीमखिलामहम्।
त्वां तु युद्धे विनिर्जित्य भोक्तास्मि वसुधामिमाम् ॥ ५८ ॥
मूलम्
त्वया दत्तां न चेच्छेयं पृथिवीमखिलामहम्।
त्वां तु युद्धे विनिर्जित्य भोक्तास्मि वसुधामिमाम् ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे देनेपर इस सम्पूर्ण पृथ्वीको भी मैं नहीं लेना चाहता। तुम्हें युद्धमें परास्त करके ही इस वसुधाका उपभोग करूँगा॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनीश्वरश्च पृथिवीं कथं त्वं दातुमिच्छसि।
त्वयेयं पृथिवी राजन् किन्न दत्ता तदैव हि ॥ ५९ ॥
धर्मतो याचमानानां प्रशमार्थं कुलस्य नः।
मूलम्
अनीश्वरश्च पृथिवीं कथं त्वं दातुमिच्छसि।
त्वयेयं पृथिवी राजन् किन्न दत्ता तदैव हि ॥ ५९ ॥
धर्मतो याचमानानां प्रशमार्थं कुलस्य नः।
अनुवाद (हिन्दी)
अब तो तुम स्वयं ही इस पृथ्वीके स्वामी नहीं रहे; फिर इसका दान कैसे करना चाहते हो? राजन्! जब हम लोग कुलमें शान्ति बनाये रखनेके लिये पहले धर्मके अनुसार अपना ही राज्य माँग रहे थे, उसी समय तुमने हमें यह पृथ्वी क्यों नहीं दे दी॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्ष्णेयं प्रथमं राजन् प्रत्याख्याय महाबलम् ॥ ६० ॥
किमिदानीं ददासि त्वं को हि ते चित्तविभ्रमः।
मूलम्
वार्ष्णेयं प्रथमं राजन् प्रत्याख्याय महाबलम् ॥ ६० ॥
किमिदानीं ददासि त्वं को हि ते चित्तविभ्रमः।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! पहले महाबली भगवान् श्रीकृष्णको हमारे लिये राज्य देनेसे इनकार करके इस समय क्यों दे रहे हो? तुम्हारे चित्तमें यह कैसा भ्रम छा रहा है?॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभियुक्तस्तु को राजा दातुमिच्छेद्धि मेदिनीम् ॥ ६१ ॥
न त्वमद्य महीं दातुमीशः कौरवनन्दन।
आच्छेत्तुं वा बलाद् राजन् स कथं दातुमिच्छसि ॥ ६२ ॥
मूलम्
अभियुक्तस्तु को राजा दातुमिच्छेद्धि मेदिनीम् ॥ ६१ ॥
न त्वमद्य महीं दातुमीशः कौरवनन्दन।
आच्छेत्तुं वा बलाद् राजन् स कथं दातुमिच्छसि ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शत्रुओंसे आक्रान्त हो, ऐसा कौन राजा किसीको भूमि देनेकी इच्छा करेगा? कौरवनन्दन नरेश! अब न तो तुम किसीको पृथ्वी दे सकते हो और न बलपूर्वक उसे छीन ही सकते हो। ऐसी दशामें तुम्हें भूमि देनेकी इच्छा कैसे हो गयी?॥६१-६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां तु निर्जित्य संग्रामे पालयेमां वसुन्धराम्।
सूच्यग्रेणापि यद् भूमेरपि भिद्येत भारत ॥ ६३ ॥
तन्मात्रमपि तन्मह्यं न ददाति पुरा भवान्।
स कथं पृथिवीमेतां प्रददासि विशाम्पते ॥ ६४ ॥
मूलम्
मां तु निर्जित्य संग्रामे पालयेमां वसुन्धराम्।
सूच्यग्रेणापि यद् भूमेरपि भिद्येत भारत ॥ ६३ ॥
तन्मात्रमपि तन्मह्यं न ददाति पुरा भवान्।
स कथं पृथिवीमेतां प्रददासि विशाम्पते ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे संग्राममें जीतकर इस पृथ्वीका पालन करो। भारत! पहले तो तुम सूईकी नोकसे जितना छिद सके, भूमिका उतना-सा भाग भी मुझे नहीं दे रहे थे। प्रजानाथ! फिर आज यह सारी पृथ्वी कैसे दे रहे हो?॥६३-६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूच्यग्रं नात्यजः पूर्वं स कथं त्यजसि क्षितिम्।
एवमैश्वर्यमासाद्य प्रशास्य पृथिवीमिमाम् ॥ ६५ ॥
को हि मूढो व्यवस्येत शत्रोर्दातुं वसुन्धराम्।
मूलम्
सूच्यग्रं नात्यजः पूर्वं स कथं त्यजसि क्षितिम्।
एवमैश्वर्यमासाद्य प्रशास्य पृथिवीमिमाम् ॥ ६५ ॥
को हि मूढो व्यवस्येत शत्रोर्दातुं वसुन्धराम्।
अनुवाद (हिन्दी)
पहले तो तुम सूईकी नोक बराबर भी भूमि नहीं छोड़ रहे थे, अब सारी पृथ्वी कैसे त्याग रहे हो? इस प्रकार ऐश्वर्य पाकर इस वसुधाका शासन करके कौन मूर्ख शत्रुके हाथमें अपनी भूमि देना चाहेगा?॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु केवलमौर्ख्येण विमूढो नावबुद्ध्यसे ॥ ६६ ॥
पृथिवीं दातुकामोऽपि जीवितेन विमोक्ष्यसे।
मूलम्
त्वं तु केवलमौर्ख्येण विमूढो नावबुद्ध्यसे ॥ ६६ ॥
पृथिवीं दातुकामोऽपि जीवितेन विमोक्ष्यसे।
अनुवाद (हिन्दी)
तुम तो केवल मूर्खतावश विवेक खो बैठे हो; इसीलिये यह नहीं समझते कि आज भूमि देनेकी इच्छा करनेपर भी तुम्हें अपने जीवनसे हाथ धोना पड़ेगा॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मान् वा त्वं पराजित्य प्रशाधि पृथिवीमिमाम् ॥ ६७ ॥
अथवा निहतोऽस्माभिर्व्रज लोकाननुत्तमान् ।
मूलम्
अस्मान् वा त्वं पराजित्य प्रशाधि पृथिवीमिमाम् ॥ ६७ ॥
अथवा निहतोऽस्माभिर्व्रज लोकाननुत्तमान् ।
अनुवाद (हिन्दी)
या तो हमलोगोंको परास्त करके तुम्हीं इस पृथ्वीका शासन करो या हमारे हाथों मारे जाकर परम उत्तम लोकोंमें चले जाओ॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवयोर्जीवतो राजन् मयि च त्वयि च ध्रुवम् ॥ ६८ ॥
संशयः सर्वभूतानां विजये नौ भविष्यति।
मूलम्
आवयोर्जीवतो राजन् मयि च त्वयि च ध्रुवम् ॥ ६८ ॥
संशयः सर्वभूतानां विजये नौ भविष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मेरे और तुम्हारे दोनोंके जीते-जी हमारी विजयके विषयमें समस्त प्राणियोंको संदेह बना रहेगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवितं तव दुष्प्रज्ञ मयि सम्प्रति वर्तते ॥ ६९ ॥
जीवयेयमहं कामं न तु त्वं जीवितुं क्षमः।
मूलम्
जीवितं तव दुष्प्रज्ञ मयि सम्प्रति वर्तते ॥ ६९ ॥
जीवयेयमहं कामं न तु त्वं जीवितुं क्षमः।
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्मते! इस समय तुम्हारा जीवन मेरे हाथमें है। मैं इच्छानुसार तुम्हें जीवनदान दे सकता हूँ; परंतु तुम स्वेच्छापूर्वक जीवित रहनेमें समर्थ नहीं हो॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दहने हि कृतो यत्नस्त्वयास्मासु विशेषतः ॥ ७० ॥
आशीविषैर्विषैश्चापि जले चापि प्रवेशनैः।
त्वया विनिकृता राजन् राज्यस्य हरणेन च ॥ ७१ ॥
अप्रियाणां च वचनैर्द्रौपद्याः कर्षणेन च।
एतस्मात् कारणात् पाप जीवितं ते न विद्यते ॥ ७२ ॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ युध्यस्व युद्धे श्रेयो भविष्यति।
मूलम्
दहने हि कृतो यत्नस्त्वयास्मासु विशेषतः ॥ ७० ॥
आशीविषैर्विषैश्चापि जले चापि प्रवेशनैः।
त्वया विनिकृता राजन् राज्यस्य हरणेन च ॥ ७१ ॥
अप्रियाणां च वचनैर्द्रौपद्याः कर्षणेन च।
एतस्मात् कारणात् पाप जीवितं ते न विद्यते ॥ ७२ ॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ युध्यस्व युद्धे श्रेयो भविष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
याद है न, तुमने हमलोगोंको जला डालनेके लिये विशेष प्रयत्न किया था। भीमको विषधर सर्पोंसे डसवाया, विष खिलाकर उन्हें पानीमें डुबाया, हमलोगोंका राज्य छीनकर हमें अपने कपटजालका शिकार बनाया, द्रौपदीको कटु वचन सुनाये और उसके केश खींचे। पापी! इन सब कारणोंसे तुम्हारा जीवन नष्ट-सा हो चुका है। उठो-उठो, युद्ध करो; इसीसे तुम्हारा कल्याण होगा॥७०—७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तु विविधा वाचो जययुक्ताः पुनः पुनः।
कीर्तयन्ति स्म ते वीरास्तत्र तत्र जनाधिप ॥ ७३ ॥
मूलम्
एवं तु विविधा वाचो जययुक्ताः पुनः पुनः।
कीर्तयन्ति स्म ते वीरास्तत्र तत्र जनाधिप ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! वे विजयी वीर पाण्डव इस प्रकार वहाँ बारंबार नाना प्रकारकी बातें कहने लगे॥७३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वान्तर्गतगदापर्वणि सुयोधनयुधिष्ठिरसंवादे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत गदापर्वमें दुर्योधन-युधिष्ठिरसंवादविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१॥