भागसूचना
(ह्रदप्रवेशपर्व)
एकोनत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
बची हुई समस्त कौरव-सेनाका वध, संजयका कैदसे छूटना, दुर्योधनका सरोवरमें प्रवेश तथा युयुत्सुका राजमहिलाओंके साथ हस्तिनापुरमें जाना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धा महाराज सौबलस्य पदानुगाः।
त्यक्त्वा जीवितमाक्रन्दे पाण्डवान् पर्यवारयन् ॥ १ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धा महाराज सौबलस्य पदानुगाः।
त्यक्त्वा जीवितमाक्रन्दे पाण्डवान् पर्यवारयन् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! तदनन्तर शकुनिके अनुचर क्रोधमें भर गये और प्राणोंका मोह छोड़कर उन्होंने उस महासमरमें पाण्डवोंको चारों ओरसे घेर लिया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानर्जुनः प्रत्यगृह्णात् सहदेवजये धृतः।
भीमसेनश्च तेजस्वी क्रुद्धाशीविषदर्शनः ॥ २ ॥
मूलम्
तानर्जुनः प्रत्यगृह्णात् सहदेवजये धृतः।
भीमसेनश्च तेजस्वी क्रुद्धाशीविषदर्शनः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सहदेवकी विजयको सुरक्षित रखनेका दृढ़ निश्चय लेकर अर्जुनने उन समस्त सैनिकोंको आगे बढ़नेसे रोका। उनके साथ तेजस्वी भीमसेन भी थे, जो कुपित हुए विषधर सर्पके समान दिखायी देते थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्त्यृष्टिप्रासहस्तानां सहदेवं जिघांसताम् ।
संकल्पमकरोन्मोघं गाण्डीवेन धनंजयः ॥ ३ ॥
मूलम्
शक्त्यृष्टिप्रासहस्तानां सहदेवं जिघांसताम् ।
संकल्पमकरोन्मोघं गाण्डीवेन धनंजयः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेवको मारनेकी इच्छासे शक्ति, ऋष्टि और प्रास हाथमें लेकर आक्रमण करनेवाले उन समस्त योद्धाओंका संकल्प अर्जुनने गाण्डीव धनुषके द्वारा व्यर्थ कर दिया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगृहीतायुधान् बाहून् योधानामधिधावताम् ।
भल्लैश्चिच्छेद बीभत्सुः शिरांस्यपि हयानपि ॥ ४ ॥
मूलम्
संगृहीतायुधान् बाहून् योधानामधिधावताम् ।
भल्लैश्चिच्छेद बीभत्सुः शिरांस्यपि हयानपि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेवपर धावा करनेवाले उन योद्धाओंकी अस्त्र-शस्त्रयुक्त भुजाओं, मस्तकों और उनके घोड़ोंको भी अर्जुनने भल्लोंसे काट गिराया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते हयाः प्रत्यपद्यन्त वसुधां विगतासवः।
चरता लोकवीरेण प्रहताः सव्यसाचिना ॥ ५ ॥
मूलम्
ते हयाः प्रत्यपद्यन्त वसुधां विगतासवः।
चरता लोकवीरेण प्रहताः सव्यसाचिना ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें विचरते हुए विश्वविख्यात वीर सव्यसाची अर्जुनके द्वारा मारे गये वे घोड़े और घुड़सवार प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़े॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा दृष्ट्वा स्वबलसंक्षयम्।
हतशेषान् समानीय क्रुद्धो रथगणान् बहून् ॥ ६ ॥
कुञ्जरांश्च हयांश्चैव पादातांश्च समन्ततः।
उवाच सहितान् सर्वान् धार्तराष्ट्र इदं वचः ॥ ७ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा दृष्ट्वा स्वबलसंक्षयम्।
हतशेषान् समानीय क्रुद्धो रथगणान् बहून् ॥ ६ ॥
कुञ्जरांश्च हयांश्चैव पादातांश्च समन्ततः।
उवाच सहितान् सर्वान् धार्तराष्ट्र इदं वचः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी सेनाका इस प्रकार संहार होता देख राजा दुर्योधनको बड़ा क्रोध हुआ। उसने मरनेसे बचे हुए बहुत-से रथियों, हाथीसवारों, घुड़सवारों और पैदलोंको सब ओरसे एकत्र करके उन सबसे इस प्रकार कहा—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समासाद्य रणे सर्वान् पाण्डवान् ससुहृद्गणान्।
पाञ्चाल्यं चापि सबलं हत्वा शीघ्रं न्यवर्तत ॥ ८ ॥
मूलम्
समासाद्य रणे सर्वान् पाण्डवान् ससुहृद्गणान्।
पाञ्चाल्यं चापि सबलं हत्वा शीघ्रं न्यवर्तत ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीरो! तुम सब लोग रणभूमिमें समस्त पाण्डवों तथा उनके मित्रोंसे भिड़कर उन्हें मार डालो और पांचालराज धृष्टद्युम्नका भी सेनासहित संहार करके शीघ्र लौट आओ’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य ते शिरसा गृह्य वचनं युद्धदुर्मदाः।
अभ्युद्ययू रणे पार्थांस्तव पुत्रस्य शासनात् ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्य ते शिरसा गृह्य वचनं युद्धदुर्मदाः।
अभ्युद्ययू रणे पार्थांस्तव पुत्रस्य शासनात् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आपके पुत्रकी आज्ञासे उसके उस वचनको शिरोधार्य करके वे रणदुर्मद योद्धा युद्धके लिये आगे बढ़े॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानभ्यापततः शीघ्रं हतशेषान् महारणे।
शरैराशीविषाकारैः पाण्डवाः समवाकिरन् ॥ १० ॥
मूलम्
तानभ्यापततः शीघ्रं हतशेषान् महारणे।
शरैराशीविषाकारैः पाण्डवाः समवाकिरन् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महासमरमें शीघ्रतापूर्वक आक्रमण करनेवाले मरनेसे बचे हुए उन सैनिकोंपर समस्त पाण्डवोंने विषधर सर्पके समान आकारवाले बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् सैन्यं भरतश्रेष्ठ मुहूर्तेन महात्मभिः।
अवध्यत रणं प्राप्य त्रातारं नाभ्यविन्दत ॥ ११ ॥
प्रतिष्ठमानं तु भयान्नावतिष्ठति दंशितम्।
मूलम्
तत् सैन्यं भरतश्रेष्ठ मुहूर्तेन महात्मभिः।
अवध्यत रणं प्राप्य त्रातारं नाभ्यविन्दत ॥ ११ ॥
प्रतिष्ठमानं तु भयान्नावतिष्ठति दंशितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! वह सेना युद्धस्थलमें आकर महात्मा पाण्डवोंद्वारा दो ही घड़ीमें मार डाली गयी। उस समय उसे कोई भी अपना रक्षक नहीं मिला। वह युद्धके लिये कवच बाँधकर प्रस्थित तो हुई, किंतु भयके मारे वहाँ टिक न सकी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वैर्विपरिधावद्भिः सैन्येन रजसा वृते ॥ १२ ॥
न प्राज्ञायन्त समरे दिशः सप्रदिशस्तथा।
मूलम्
अश्वैर्विपरिधावद्भिः सैन्येन रजसा वृते ॥ १२ ॥
न प्राज्ञायन्त समरे दिशः सप्रदिशस्तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
चारों ओर दौड़ते हुए घोड़ों तथा सेनाके द्वारा उड़ायी हुई धूलसे वहाँका सारा प्रदेश छा गया था। अतः समरभूमिमें दिशाओं तथा विदिशाओंका कुछ पता नहीं चलता था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु पाण्डवानीकान्निःसृत्य बहवो जनाः ॥ १३ ॥
अभ्यघ्नंस्तावकान् युद्धे मुहूर्तादिव भारत।
ततो निःशेषमभवत् तत् सैन्यं तव भारत ॥ १४ ॥
मूलम्
ततस्तु पाण्डवानीकान्निःसृत्य बहवो जनाः ॥ १३ ॥
अभ्यघ्नंस्तावकान् युद्धे मुहूर्तादिव भारत।
ततो निःशेषमभवत् तत् सैन्यं तव भारत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! पाण्डव-सेनासे बहुत-से सैनिकोंने निकलकर युद्धमें एक ही मुहूर्तके भीतर आपके सम्पूर्ण योद्धाओंका संहार कर डाला। भरतनन्दन! उस समय आपकी वह सेना सर्वथा नष्ट हो गयी। उसमेंसे एक भी योद्धा बच न सका॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षौहिण्यः समेतास्तु तव पुत्रस्य भारत।
एकादश हता युद्धे ताः प्रभो पाण्डुसृञ्जयैः ॥ १५ ॥
मूलम्
अक्षौहिण्यः समेतास्तु तव पुत्रस्य भारत।
एकादश हता युद्धे ताः प्रभो पाण्डुसृञ्जयैः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! भरतवंशी नरेश! आपके पुत्रके पास ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ थीं; परन्तु युद्धमें पाण्डवों और सृंजयोंने उन सबका विनाश कर डाला॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु राजसहस्रेषु तावकेषु महात्मसु।
एको दुर्योधनो राजन्नदृश्यत भृशं क्षतः ॥ १६ ॥
मूलम्
तेषु राजसहस्रेषु तावकेषु महात्मसु।
एको दुर्योधनो राजन्नदृश्यत भृशं क्षतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आपके दलके उन सहस्रों महामनस्वी राजाओंमें एकमात्र दुर्योधन ही उस समय दिखायी देता था; परंतु वह भी बहुत घायल हो चुका था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वीक्ष्य दिशः सर्वा दृष्ट्वा शून्यां च मेदिनीम्।
विहीनः सर्वयोधैश्च पाण्डवान् वीक्ष्य संयुगे ॥ १७ ॥
मुदितान् सर्वतः सिद्धान् नर्दमानान् समन्ततः।
बाणशब्दरवांश्चैव श्रुत्वा तेषां महात्मनाम् ॥ १८ ॥
दुर्योधनो महाराज कश्मलेनाभिसंवृतः ।
अपयाने मनश्चक्रे विहीनबलवाहनः ॥ १९ ॥
मूलम्
ततो वीक्ष्य दिशः सर्वा दृष्ट्वा शून्यां च मेदिनीम्।
विहीनः सर्वयोधैश्च पाण्डवान् वीक्ष्य संयुगे ॥ १७ ॥
मुदितान् सर्वतः सिद्धान् नर्दमानान् समन्ततः।
बाणशब्दरवांश्चैव श्रुत्वा तेषां महात्मनाम् ॥ १८ ॥
दुर्योधनो महाराज कश्मलेनाभिसंवृतः ।
अपयाने मनश्चक्रे विहीनबलवाहनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उसे सम्पूर्ण दिशाएँ और सारी पृथ्वी सूनी दिखायी दी। वह अपने समस्त योद्धाओंसे हीन हो चुका था। महाराज! दुर्योधनने युद्धस्थलमें पाण्डवोंको सर्वथा प्रसन्न, सफलमनोरथ और सब ओरसे सिंहनाद करते देख तथा उन महामनस्वी वीरोंके बाणोंकी सनसनाहट सुनकर शोकसे संतप्त हो वहाँसे भाग जानेका विचार किया। उसके पास न तो सेना थी और न कोई सवारी ही॥१७—१९॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहते मामके सैन्ये निःशेषे शिबिरे कृते।
पाण्डवानां बले सूत किं नु शेषमभूत् तदा ॥ २० ॥
मूलम्
निहते मामके सैन्ये निःशेषे शिबिरे कृते।
पाण्डवानां बले सूत किं नु शेषमभूत् तदा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— सूत! जब मेरी सेना मार डाली गयी और सारी छावनी सूनी कर दी गयी, उस समय पाण्डवोंकी सेनामें कितने सैनिक शेष रह गये थे?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्मे पृच्छतो ब्रूहि कुशलो ह्यसि संजय।
यच्च दुर्योधनो मन्दः कृतवांस्तनयो मम ॥ २१ ॥
बलक्षयं तथा दृष्ट्वा स एकः पृथिवीपतिः।
मूलम्
एतन्मे पृच्छतो ब्रूहि कुशलो ह्यसि संजय।
यच्च दुर्योधनो मन्दः कृतवांस्तनयो मम ॥ २१ ॥
बलक्षयं तथा दृष्ट्वा स एकः पृथिवीपतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! मैं यह बात पूछ रहा हूँ, तुम मुझे बताओ; क्योंकि यह सब बतानेमें तुम कुशल हो। अपनी सेनाका संहार हुआ देखकर अकेले बचे हुए मेरे मूर्ख पुत्र राजा दुर्योधनने क्या किया?॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथानां द्वे सहस्रे तु सप्त नागशतानि च ॥ २२ ॥
पञ्च चाश्वसहस्राणि पत्तीनां च शतं शताः।
एतच्छेषमभूद् राजन् पाण्डवानां महद् बलम् ॥ २३ ॥
मूलम्
रथानां द्वे सहस्रे तु सप्त नागशतानि च ॥ २२ ॥
पञ्च चाश्वसहस्राणि पत्तीनां च शतं शताः।
एतच्छेषमभूद् राजन् पाण्डवानां महद् बलम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! पाण्डवोंकी विशाल सेनामें-से केवल दो हजार रथ, सात सौ हाथी, पाँच हजार घोड़े और दस हजार पैदल बच गये थे॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिगृह्य हि यद् युद्धे धृष्टद्युम्नो व्यवस्थितः।
एकाकी भरतश्रेष्ठ ततो दुर्योधनो नृपः ॥ २४ ॥
मूलम्
परिगृह्य हि यद् युद्धे धृष्टद्युम्नो व्यवस्थितः।
एकाकी भरतश्रेष्ठ ततो दुर्योधनो नृपः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सबको साथ लेकर सेनापति धृष्टद्युम्न युद्धभूमिमें खड़े थे। उधर राजा दुर्योधन अकेला हो गया था॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नापश्यत् समरे कंचित् सहायं रथिनां वरः।
नर्दमानान् परान् दृष्ट्वा स्वबलस्य च संक्षयम् ॥ २५ ॥
तथा दृष्ट्वा महाराज एकः स पृथिवीपतिः।
हतं स्वहयमुत्सृज्य प्राङ्मुखः प्राद्रवद् भयात् ॥ २६ ॥
मूलम्
नापश्यत् समरे कंचित् सहायं रथिनां वरः।
नर्दमानान् परान् दृष्ट्वा स्वबलस्य च संक्षयम् ॥ २५ ॥
तथा दृष्ट्वा महाराज एकः स पृथिवीपतिः।
हतं स्वहयमुत्सृज्य प्राङ्मुखः प्राद्रवद् भयात् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! रथियोंमें श्रेष्ठ दुर्योधनने जब समरभूमिमें अपने किसी सहायकको न देखकर शत्रुओंको गर्जते देखा और अपनी सेनाके विनाशपर दृष्टिपात किया, तब वह अकेला भूपाल अपने मरे हुए घोड़ेको वहीं छोड़कर भयके मारे पूर्व दिशाकी ओर भाग चला॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकादशचमूभर्ता पुत्रो दुर्योधनस्तव ।
गदामादाय तेजस्वी पदातिः प्रस्थितो ह्रदम् ॥ २७ ॥
मूलम्
एकादशचमूभर्ता पुत्रो दुर्योधनस्तव ।
गदामादाय तेजस्वी पदातिः प्रस्थितो ह्रदम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो किसी समय ग्यारह अक्षौहिणी सेनाका सेनापति था, वही आपका तेजस्वी पुत्र दुर्योधन अब गदा लेकर पैदल ही सरोवरकी ओर भागा जा रहा था॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातिदूरं ततो गत्वा पद्भ्यामेव नराधिपः।
सस्मार वचनं क्षत्तुर्धर्मशीलस्य धीमतः ॥ २८ ॥
मूलम्
नातिदूरं ततो गत्वा पद्भ्यामेव नराधिपः।
सस्मार वचनं क्षत्तुर्धर्मशीलस्य धीमतः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने पैरोंसे ही थोड़ी ही दूर जानेके पश्चात् राजा दुर्योधनको धर्मशील बुद्धिमान् विदुरजीकी कही हुई बातें याद आने लगीं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं नूनं महाप्राज्ञो विदुरो दृष्टवान् पुरा।
महद् वैशसमस्माकं क्षत्रियाणां च संयुगे ॥ २९ ॥
मूलम्
इदं नूनं महाप्राज्ञो विदुरो दृष्टवान् पुरा।
महद् वैशसमस्माकं क्षत्रियाणां च संयुगे ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मन-ही-मन सोचने लगा कि हमारा और इन क्षत्रियोंका जो महान् संहार हुआ है, इसे महाज्ञानी विदुरजीने अवश्य पहले ही देख और समझ लिया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विचिन्तयानस्तु प्रविविक्षुर्ह्रदं नृपः।
दुःखसंतप्तहृदयो दृष्ट्वा राजन् बलक्षयम् ॥ ३० ॥
मूलम्
एवं विचिन्तयानस्तु प्रविविक्षुर्ह्रदं नृपः।
दुःखसंतप्तहृदयो दृष्ट्वा राजन् बलक्षयम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अपनी सेनाका संहार देखकर इस प्रकार चिन्ता करते हुए राजा दुर्योधनका हृदय दुःख और शोकसे संतप्त हो उठा था। उसने सरोवरमें प्रवेश करनेका विचार किया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवास्तु महाराज धृष्टद्युम्नपुरोगमाः ।
अभ्यद्रवन्त संक्रुद्धास्तव राजन् बलं प्रति ॥ ३१ ॥
शक्त्यृष्टिप्रासहस्तानां बलानामभिगर्जताम् ।
संकल्पमकरोन्मोघं गाण्डीवेन धनंजयः ॥ ३२ ॥
मूलम्
पाण्डवास्तु महाराज धृष्टद्युम्नपुरोगमाः ।
अभ्यद्रवन्त संक्रुद्धास्तव राजन् बलं प्रति ॥ ३१ ॥
शक्त्यृष्टिप्रासहस्तानां बलानामभिगर्जताम् ।
संकल्पमकरोन्मोघं गाण्डीवेन धनंजयः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! धृष्टद्युम्न आदि पाण्डवोंने अत्यन्त कुपित होकर आपकी सेनापर धावा किया था तथा शक्ति, ऋष्टि और प्रास हाथमें लेकर गर्जना करनेवाले आपके योद्धाओंका सारा संकल्प अर्जुनने अपने गाण्डीव धनुषसे व्यर्थ कर दिया था॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् हत्वा निशितैर्बाणैः सामात्यान् सह बन्धुभिः।
रथे श्वेतहये तिष्ठन्नर्जुनो बह्वशोभत ॥ ३३ ॥
मूलम्
तान् हत्वा निशितैर्बाणैः सामात्यान् सह बन्धुभिः।
रथे श्वेतहये तिष्ठन्नर्जुनो बह्वशोभत ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने पैने बाणोंसे बन्धुओं और मन्त्रियोंसहित उन योद्धाओंका संहार करके श्वेत घोड़ोंवाले रथपर स्थित हुए अर्जुनकी बड़ी शोभा हो रही थी॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुबलस्य हते पुत्रे सवाजिरथकुञ्जरे।
महावनमिव च्छिन्नमभवत् तावकं बलम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
सुबलस्य हते पुत्रे सवाजिरथकुञ्जरे।
महावनमिव च्छिन्नमभवत् तावकं बलम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोड़े, रथ और हाथियोंसहित सुबलपुत्रके मारे जानेपर आपकी सेना कटे हुए विशाल वनके समान प्रतीत होती थी॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेकशतसाहस्रे बले दुर्योधनस्य ह।
नान्यो महारथो राजन् जीवमानो व्यदृश्यत ॥ ३५ ॥
द्रोणपुत्रादृते वीरात् तथैव कृतवर्मणः।
कृपाच्च गौतमाद् राजन् पार्थिवाच्च तवात्मजात् ॥ ३६ ॥
मूलम्
अनेकशतसाहस्रे बले दुर्योधनस्य ह।
नान्यो महारथो राजन् जीवमानो व्यदृश्यत ॥ ३५ ॥
द्रोणपुत्रादृते वीरात् तथैव कृतवर्मणः।
कृपाच्च गौतमाद् राजन् पार्थिवाच्च तवात्मजात् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दुर्योधनकी कई लाख सेनामेंसे द्रोणपुत्र वीर अश्वत्थामा, कृतवर्मा, गौतमवंशी कृपाचार्य तथा आपके पुत्र राजा दुर्योधनके अतिरिक्त दूसरा कोई महारथी जीवित नहीं दिखायी देता था॥३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नस्तु मां दृष्ट्वा हसन् सात्यकिमब्रवीत्।
किमनेन गृहीतेन नानेनार्थोऽस्ति जीवता ॥ ३७ ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नस्तु मां दृष्ट्वा हसन् सात्यकिमब्रवीत्।
किमनेन गृहीतेन नानेनार्थोऽस्ति जीवता ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मुझे कैदमें पड़ा हुआ देखकर हँसते हुए धृष्टद्युम्नने सात्यकिसे कहा—‘इसको कैद करके क्या करना है? इसके जीवित रहनेसे अपना कोई लाभ नहीं है’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नवचः श्रुत्वा शिनेर्नप्ता महारथः।
उद्यम्य निशितं खड्गं हन्तुं मामुद्यतस्तदा ॥ ३८ ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नवचः श्रुत्वा शिनेर्नप्ता महारथः।
उद्यम्य निशितं खड्गं हन्तुं मामुद्यतस्तदा ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृष्टद्युम्नकी बात सुनकर शिनिपौत्र महारथी सात्यकि तीखी तलवार उठाकर उसी क्षण मुझे मार डालनेके लिये उद्यत हो गये॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमागम्य महाप्राज्ञः कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ।
मुच्यतां संजयो जीवन्न हन्तव्यः कथंचन ॥ ३९ ॥
मूलम्
तमागम्य महाप्राज्ञः कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ।
मुच्यतां संजयो जीवन्न हन्तव्यः कथंचन ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय महाज्ञानी श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी सहसा आकर बोले—‘संजयको जीवित छोड़ दो। यह किसी प्रकार वधके योग्य नहीं है’॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वैपायनवचः श्रुत्वा शिनेर्नप्ता कृताञ्जलिः।
ततो मामब्रवीन्मुक्त्वा स्वस्ति संजय साधय ॥ ४० ॥
मूलम्
द्वैपायनवचः श्रुत्वा शिनेर्नप्ता कृताञ्जलिः।
ततो मामब्रवीन्मुक्त्वा स्वस्ति संजय साधय ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथ जोड़े हुए शिनिपौत्र सात्यकिने व्यासजीकी वह बात सुनकर मुझे कैदसे मुक्त करके कहा—‘संजय! तुम्हारा कल्याण हो। जाओ, अपना अभीष्ट साधन करो’॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञातस्त्वहं तेन न्यस्तवर्मा निरायुधः।
प्रातिष्ठं येन नगरं सायाह्ने रुधिरोक्षितः ॥ ४१ ॥
मूलम्
अनुज्ञातस्त्वहं तेन न्यस्तवर्मा निरायुधः।
प्रातिष्ठं येन नगरं सायाह्ने रुधिरोक्षितः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके इस प्रकार आज्ञा देनेपर मैंने कवच उतार दिया और अस्त्र-शस्त्रोंसे रहित हो सायंकालके समय नगरकी ओर प्रस्थित हुआ। उस समय मेरा सारा शरीर रक्तसे भीगा हुआ था॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोशमात्रमपक्रान्तं गदापाणिमवस्थितम् ।
एकं दुर्योधनं राजन्नपश्यं भृशविक्षतम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
क्रोशमात्रमपक्रान्तं गदापाणिमवस्थितम् ।
एकं दुर्योधनं राजन्नपश्यं भृशविक्षतम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! एक कोस आनेपर मैंने भागे हुए दुर्योधनको गदा हाथमें लिये अकेला खड़ा देखा। उसके शरीरपर बहुत-से घाव हो गये थे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु मामश्रुपूर्णाक्षो नाशक्नोदभिवीक्षितुम्।
उपप्रैक्षत मां दृष्ट्वा तथा दीनमवस्थितम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
स तु मामश्रुपूर्णाक्षो नाशक्नोदभिवीक्षितुम्।
उपप्रैक्षत मां दृष्ट्वा तथा दीनमवस्थितम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझपर दृष्टि पड़ते ही उसके नेत्रोंमें आँसू भर आये। वह अच्छी तरह मेरी ओर देख न सका। मैं उस समय दीनभावसे खड़ा था। वह मेरी उस अवस्थापर दृष्टिपात करता रहा॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं चाहमपि शोचन्तं दृष्ट्वैकाकिनमाहवे।
मुहूर्तं नाशकं वक्तुमतिदुःखपरिप्लुतः ॥ ४४ ॥
मूलम्
तं चाहमपि शोचन्तं दृष्ट्वैकाकिनमाहवे।
मुहूर्तं नाशकं वक्तुमतिदुःखपरिप्लुतः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं भी युद्धक्षेत्रमें अकेले शोकमग्न हुए दुर्योधनको देखकर अत्यन्त दुःखशोकमें डूब गया और दो घड़ीतक कोई बात मुँहसे न निकाल सका॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(यस्य मूर्धाभिषिक्तानां सहस्रं मणिमौलिनाम्।
आहृत्य च करं सर्वं स्वस्य वै वशमागतम्॥
चतुःसागरपर्यन्ता पृथिवी रत्नभूषिता ।
कर्णेनैकेन यस्यार्थे करमाहारिता पुरा॥
यस्याज्ञा परराष्ट्रेषु कर्णेनैव प्रसारिता।
नाभवद् यस्य शस्त्रेषु खेदो राज्ञः प्रशासतः॥
आसीनो हास्तिनपुरे क्षेमं राज्यमकण्टकम्।
अन्वपालयदैश्वर्यात् कुबेरमपि नास्मरत् ॥
भवनाद् भवनं राजन् प्रयातुः पृथिवीपते।
देवालयप्रवेशे च पन्था यस्य हिरण्मयः॥
आरुह्यैरावतप्रख्यं नागमिन्द्रसमो बली ।
विभूत्या सुमहत्या यः प्रयाति पृथिवीपतिः॥
तं भृशक्षतमिन्द्राभं पद्भ्यामेव धरातले।
तिष्ठन्तमेकं दृष्ट्वा तु ममाभूत् क्लेश उत्तमः॥
तस्य चैवंविधस्यास्य जगन्नाथस्य भूपतेः।
विपदप्रतिमाभूद् या बलीयान् विधिरेव हि॥)
मूलम्
(यस्य मूर्धाभिषिक्तानां सहस्रं मणिमौलिनाम्।
आहृत्य च करं सर्वं स्वस्य वै वशमागतम्॥
चतुःसागरपर्यन्ता पृथिवी रत्नभूषिता ।
कर्णेनैकेन यस्यार्थे करमाहारिता पुरा॥
यस्याज्ञा परराष्ट्रेषु कर्णेनैव प्रसारिता।
नाभवद् यस्य शस्त्रेषु खेदो राज्ञः प्रशासतः॥
आसीनो हास्तिनपुरे क्षेमं राज्यमकण्टकम्।
अन्वपालयदैश्वर्यात् कुबेरमपि नास्मरत् ॥
भवनाद् भवनं राजन् प्रयातुः पृथिवीपते।
देवालयप्रवेशे च पन्था यस्य हिरण्मयः॥
आरुह्यैरावतप्रख्यं नागमिन्द्रसमो बली ।
विभूत्या सुमहत्या यः प्रयाति पृथिवीपतिः॥
तं भृशक्षतमिन्द्राभं पद्भ्यामेव धरातले।
तिष्ठन्तमेकं दृष्ट्वा तु ममाभूत् क्लेश उत्तमः॥
तस्य चैवंविधस्यास्य जगन्नाथस्य भूपतेः।
विपदप्रतिमाभूद् या बलीयान् विधिरेव हि॥)
अनुवाद (हिन्दी)
मस्तकपर मुकुट धारण करनेवाले सहस्रों मूर्धाभिषिक्त नरेश जिसके लिये भेंट लाकर देते थे और वे सब-के-सब जिसकी अधीनता स्वीकार कर चुके थे, पूर्वकालमें एकमात्र वीर कर्णने जिसके लिये चारों समुद्रोंतक फैली हुई इस रत्नभूषित पृथ्वीसे कर वसूल किया था, कर्णने ही दूसरे राष्ट्रोंमें जिसकी आज्ञाका प्रसार किया था, जिस राजाको राज्य-शासन करते समय कभी हथियार उठानेका कष्ट नहीं सहन करना पड़ा था, जो हस्तिनापुरमें ही रहकर अपने कल्याणमय निष्कण्टक राज्यका निरन्तर पालन करता था, जिसने अपने ऐश्वर्यसे कुबेरको भी भुला दिया था, राजन्! पृथ्वीनाथ! एक घरसे दूसरे घरमें जाने अथवा देवालयमें प्रवेश करनेके हेतु जिसके लिये सुवर्णमय मार्ग बनाया गया था, जो इन्द्रके समान बलवान् भूपाल ऐरावतके समान कान्तिमान् गजराजपर आरूढ़ हो महान् ऐश्वर्यके साथ यात्रा करता था, उसी इन्द्र-तुल्य तेजस्वी राजा दुर्योधनको अत्यन्त घायल हो पाँव-पयादे ही पृथ्वीपर अकेला खड़ा देख मुझे महान् क्लेश हुआ। ऐसे प्रतापी और सम्पूर्ण जगत्के स्वामी इस भूपालको जो अनुपम विपत्ति प्राप्त हुई, उसे देखकर कहना पड़ता है कि ‘विधाता ही सबसे बड़ा बलवान् है’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्मै तदहं सर्वमुक्तवान् ग्रहणं तदा।
द्वैपायनप्रसादाच्च जीवतो मोक्षमाहवे ॥ ४५ ॥
मूलम्
ततोऽस्मै तदहं सर्वमुक्तवान् ग्रहणं तदा।
द्वैपायनप्रसादाच्च जीवतो मोक्षमाहवे ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् मैंने युद्धमें अपने पकड़े जाने और व्यासजीकी कृपासे जीवित छूटनेका सारा समाचार उससे कह सुनाया॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मुहूर्तमिव ध्यात्वा प्रतिलभ्य च चेतनाम्।
भ्रातॄंश्च सर्वसैन्यानि पर्यपृच्छत मां ततः ॥ ४६ ॥
मूलम्
स मुहूर्तमिव ध्यात्वा प्रतिलभ्य च चेतनाम्।
भ्रातॄंश्च सर्वसैन्यानि पर्यपृच्छत मां ततः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने दो घड़ीतक कुछ सोच-विचारकर सचेत होनेपर मुझसे अपने भाइयों तथा सम्पूर्ण सेनाओंका समाचार पूछा॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै तदहमाचक्षे सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्।
भ्रातॄंश्च निहतान् सर्वान् सैन्यं च विनिपातितम् ॥ ४७ ॥
त्रयः किल रथाः शिष्टास्तावकानां नराधिप।
इति प्रस्थानकाले मां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ ४८ ॥
मूलम्
तस्मै तदहमाचक्षे सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्।
भ्रातॄंश्च निहतान् सर्वान् सैन्यं च विनिपातितम् ॥ ४७ ॥
त्रयः किल रथाः शिष्टास्तावकानां नराधिप।
इति प्रस्थानकाले मां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने भी जो कुछ आँखों देखा था, वह सब कुछ उसे इस प्रकार बताया—‘नरेश्वर! तुम्हारे सारे भाई मार डाले गये और समस्त सेनाका भी संहार हो गया। रणभूमिसे प्रस्थान करते समय व्यासजीने मुझसे कहा था कि ‘तुम्हारे पक्षमें तीन ही महारथी बच गये हैं’॥४७-४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दीर्घमिव निःश्वस्य प्रत्यवेक्ष्य पुनः पुनः।
असौ मां पाणिना स्पृष्ट्वा पुत्रस्ते पर्यभाषत ॥ ४९ ॥
त्वदन्यो नेह संग्रामे कश्चिज्जीवति संजय।
द्वितीयं नेह पश्यामि ससहायाश्च पाण्डवाः ॥ ५० ॥
मूलम्
स दीर्घमिव निःश्वस्य प्रत्यवेक्ष्य पुनः पुनः।
असौ मां पाणिना स्पृष्ट्वा पुत्रस्ते पर्यभाषत ॥ ४९ ॥
त्वदन्यो नेह संग्रामे कश्चिज्जीवति संजय।
द्वितीयं नेह पश्यामि ससहायाश्च पाण्डवाः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर आपके पुत्रने लंबी साँस खींचकर बारंबार मेरी ओर देखा और हाथसे मेरा स्पर्श करके इस प्रकार कहा—‘संजय! इस संग्राममें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मेरा आत्मीय जन सम्भवतः जीवित नहीं है; क्योंकि मैं यहाँ दूसरे किसी स्वजनको देख नहीं रहा हूँ। उधर पाण्डव अपने सहायकोंसे सम्पन्न हैं॥४९-५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रूयाः संजय राजानं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम्।
दुर्योधनस्तव सुतः प्रविष्टो ह्रदमित्युत ॥ ५१ ॥
सुहृद्भिस्तादृशैर्हीनः पुत्रैर्भ्रातृभिरेव च ।
पाण्डवैश्च हृते राज्ये को नु जीवेत मादृशः ॥ ५२ ॥
आचक्षीथाः सर्वमिदं मां च मुक्तं महाहवात्।
अस्मिंस्तोयह्रदे गुप्तं जीवन्तं भृशविक्षतम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
ब्रूयाः संजय राजानं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम्।
दुर्योधनस्तव सुतः प्रविष्टो ह्रदमित्युत ॥ ५१ ॥
सुहृद्भिस्तादृशैर्हीनः पुत्रैर्भ्रातृभिरेव च ।
पाण्डवैश्च हृते राज्ये को नु जीवेत मादृशः ॥ ५२ ॥
आचक्षीथाः सर्वमिदं मां च मुक्तं महाहवात्।
अस्मिंस्तोयह्रदे गुप्तं जीवन्तं भृशविक्षतम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संजय! तुम प्रज्ञाचक्षु ऐश्वर्यशाली महाराजसे कहना कि ‘आपका पुत्र दुर्योधन वैसे पराक्रमी सुहृदों, पुत्रों और भ्राताओंसे हीन होकर सरोवरमें प्रवेश कर गया है। जब पाण्डवोंने मेरा राज्य हर लिया, तब इस दयनीय दशामें मेरे-जैसा कौन पुरुष जीवन धारण कर सकता है?’ संजय! तुम ये सारी बातें कहना और यह भी बताना कि ‘दुर्योधन उस महासंग्रामसे जीवित बचकर पानीसे भरे हुए इस सरोवरमें छिपा है और उसका सारा शरीर अत्यन्त घायल हो गया है’॥५१—५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा महाराज प्राविशत् तं महाह्रदम्।
अस्तम्भयत तोयं च मायया मनुजाधिपः ॥ ५४ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा महाराज प्राविशत् तं महाह्रदम्।
अस्तम्भयत तोयं च मायया मनुजाधिपः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! ऐसा कहकर राजा दुर्योधनने उस महान् सरोवरमें प्रवेश किया और मायासे उसका पानी बाँध दिया॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् ह्रदं प्रविष्टे तु त्रीन् रथान् श्रान्तवाहनान्।
अपश्यं सहितानेकस्तं देशं समुपेयुषः ॥ ५५ ॥
मूलम्
तस्मिन् ह्रदं प्रविष्टे तु त्रीन् रथान् श्रान्तवाहनान्।
अपश्यं सहितानेकस्तं देशं समुपेयुषः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब दुर्योधन सरोवरमें समा गया, उसके बाद अकेले खड़े हुए मैंने अपने पक्षके तीन महारथियोंको वहाँ उपस्थित देखा, जो एक साथ उस स्थानपर आ पहुँचे थे। उन तीनोंके घोड़े थक गये थे॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपं शारद्वतं वीरं द्रौणिं च रथिनां वरम्।
भोजं च कृतवर्माणं सहितान् शरविक्षतान् ॥ ५६ ॥
मूलम्
कृपं शारद्वतं वीरं द्रौणिं च रथिनां वरम्।
भोजं च कृतवर्माणं सहितान् शरविक्षतान् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके नाम इस प्रकार हैं—शरद्वान्के पुत्र वीर कृपाचार्य, रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोणकुमार अश्वत्थामा तथा भोजवंशी कृतवर्मा। ये सब लोग एक साथ थे और बाणोंसे क्षत-विक्षत हो रहे थे॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सर्वे मामभिप्रेक्ष्य तूर्णमश्वाननोदयन्।
उपायाय तु मामूचुर्दिष्ट्या जीवसि संजय ॥ ५७ ॥
मूलम्
ते सर्वे मामभिप्रेक्ष्य तूर्णमश्वाननोदयन्।
उपायाय तु मामूचुर्दिष्ट्या जीवसि संजय ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे देखते ही उन तीनोंने शीघ्रतापूर्वक अपने घोड़े बढ़ाये और निकट आकर मुझसे कहा—‘संजय! सौभाग्यकी बात है कि तुम जीवित हो’॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपृच्छंश्चैव मां सर्वे पुत्रं तव जनाधिपम्।
कच्चिद् दुर्योधनो राजा स नो जीवति संजय ॥ ५८ ॥
मूलम्
अपृच्छंश्चैव मां सर्वे पुत्रं तव जनाधिपम्।
कच्चिद् दुर्योधनो राजा स नो जीवति संजय ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन सबने आपके पुत्र राजा दुर्योधनका समाचार पूछा—‘संजय! क्या हमारे राजा दुर्योधन जीवित हैं?’॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आख्यातवानहं तेभ्यस्तदा कुशलिनं नृपम्।
तच्चैव सर्वमाचक्षं यन्मां दुर्योधनोऽब्रवीत् ॥ ५९ ॥
ह्रदं चैवाहमाचक्षं यं प्रविष्टो नराधिपः।
मूलम्
आख्यातवानहं तेभ्यस्तदा कुशलिनं नृपम्।
तच्चैव सर्वमाचक्षं यन्मां दुर्योधनोऽब्रवीत् ॥ ५९ ॥
ह्रदं चैवाहमाचक्षं यं प्रविष्टो नराधिपः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने उन लोगोंसे दुर्योधनका कुशल-समाचार बताया तथा दुर्योधनने मुझे जो संदेश दिया था, वह भी सब उनसे कह सुनाया और जिस सरोवरमें वह घुसा था, उसका भी पता बता दिया॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थामा तु तद् राजन् निशम्य वचनं मम ॥ ६० ॥
तं ह्रदं विपुलं प्रेक्ष्य करुणं पर्यदेवयत्।
अहोधिक् स न जानाति जीवतोऽस्मान् नराधिपः ॥ ६१ ॥
पर्याप्ता हि वयं तेन सह योधयितुं परान्।
मूलम्
अश्वत्थामा तु तद् राजन् निशम्य वचनं मम ॥ ६० ॥
तं ह्रदं विपुलं प्रेक्ष्य करुणं पर्यदेवयत्।
अहोधिक् स न जानाति जीवतोऽस्मान् नराधिपः ॥ ६१ ॥
पर्याप्ता हि वयं तेन सह योधयितुं परान्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मेरी बात सुनकर अश्वत्थामाने उस विशाल सरोवरकी ओर देखा और करुण विलाप करते हुए कहा—‘अहो! धिक्कार है, राजा दुर्योधन नहीं जानते हैं कि हम सब जीवित हैं। उनके साथ रहकर हमलोग शत्रुओंसे जूझनेके लिये पर्याप्त हैं’॥६०-६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तु तत्र चिरं कालं विलप्य च महारथाः॥६२॥
प्राद्रवन् रथिनां श्रेष्ठा दृष्ट्वा पाण्डुसुतान् रणे।
मूलम्
ते तु तत्र चिरं कालं विलप्य च महारथाः॥६२॥
प्राद्रवन् रथिनां श्रेष्ठा दृष्ट्वा पाण्डुसुतान् रणे।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वे महारथी दीर्घकालतक वहाँ विलाप करते रहे। फिर रणभूमिमें पाण्डवोंको आते देख वे रथियोंमें श्रेष्ठ तीनों वीर वहाँसे भाग निकले॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तु मां रथमारोप्य कृपस्य सुपरिष्कृतम् ॥ ६३ ॥
सेनानिवेशमाजग्मुर्हतशेषास्त्रयो रथाः ।
तत्र गुल्माः परित्रस्ताः सूर्ये चास्तमिते सति ॥ ६४ ॥
सर्वे विचुक्रुशुः श्रुत्वा पुत्राणां तव संक्षयम्।
मूलम्
ते तु मां रथमारोप्य कृपस्य सुपरिष्कृतम् ॥ ६३ ॥
सेनानिवेशमाजग्मुर्हतशेषास्त्रयो रथाः ।
तत्र गुल्माः परित्रस्ताः सूर्ये चास्तमिते सति ॥ ६४ ॥
सर्वे विचुक्रुशुः श्रुत्वा पुत्राणां तव संक्षयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मरनेसे बचे हुए वे तीनों रथी मुझे भी कृपाचार्यके सुसज्जित रथपर बिठाकर छावनीतक ले आये। सूर्य अस्ताचलपर जा चुके थे। वहाँ छावनीके पहरेदार भयसे घबराये हुए थे। आपके पुत्रोंके विनाशका समाचार सुनकर वे सभी फूट-फूटकर रोने लगे॥६३-६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वृद्धा महाराज योषितां रक्षिणो नराः ॥ ६५ ॥
राजदारानुपादाय प्रययुर्नगरं प्रति ।
मूलम्
ततो वृद्धा महाराज योषितां रक्षिणो नराः ॥ ६५ ॥
राजदारानुपादाय प्रययुर्नगरं प्रति ।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर स्त्रियोंकी रक्षामें नियुक्त हुए वृद्ध पुरुषोंने राजकुलकी महिलाओंको साथ लेकर नगरकी ओर प्रस्थान करनेकी तैयारी की॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र विक्रोशमानानां रुदतीनां च सर्वशः ॥ ६६ ॥
प्रादुरासीन्महान् शब्दः श्रुत्वा तद् बलसंक्षयम्।
ततस्ता योषितो राजन् क्रन्दन्त्यो वै मुहुर्मुहुः ॥ ६७ ॥
कुरर्य इव शब्देन नादयन्त्यो महीतलम्।
मूलम्
तत्र विक्रोशमानानां रुदतीनां च सर्वशः ॥ ६६ ॥
प्रादुरासीन्महान् शब्दः श्रुत्वा तद् बलसंक्षयम्।
ततस्ता योषितो राजन् क्रन्दन्त्यो वै मुहुर्मुहुः ॥ ६७ ॥
कुरर्य इव शब्देन नादयन्त्यो महीतलम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वहाँ अपने पतियोंको पुकारती और रोती-बिलखती हुई राजमहिलाओंका महान् आर्तनाद सब ओर गूँज उठा। राजन्! अपनी सेना और पतियोंके संहारका समाचार सुनकर वे राजकुलकी युवतियाँ अपने आर्तनादसे भूतलको प्रतिध्वनित करती हुई बारंबार कुररीकी भाँति विलाप करने लगीं॥६६-६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आजघ्नुः करजैश्चापि पाणिभिश्च शिरांस्युत ॥ ६८ ॥
लुलुचुश्च तदा केशान् क्रोशन्त्यस्तत्र तत्र ह।
हाहाकारविनादिन्यो विनिघ्नन्त्य उरांसि च ॥ ६९ ॥
शोचन्त्यस्तत्र रुरुदुः क्रन्दमाना विशाम्पते।
मूलम्
आजघ्नुः करजैश्चापि पाणिभिश्च शिरांस्युत ॥ ६८ ॥
लुलुचुश्च तदा केशान् क्रोशन्त्यस्तत्र तत्र ह।
हाहाकारविनादिन्यो विनिघ्नन्त्य उरांसि च ॥ ६९ ॥
शोचन्त्यस्तत्र रुरुदुः क्रन्दमाना विशाम्पते।
अनुवाद (हिन्दी)
वे जहाँ-तहाँ हाहाकार करती हुई अपने ऊपर नखोंसे आघात करने, हाथोंसे सिर और छाती पीटने तथा केश नोचने लगीं। प्रजानाथ! शोकमें डूबकर पतिको पुकारती हुई वे रानियाँ करुण स्वरसे क्रन्दन करने लगीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनामात्याः साश्रुकण्ठा भृशातुराः ॥ ७० ॥
राजदारानुपादाय प्रययुर्नगरं प्रति ।
मूलम्
ततो दुर्योधनामात्याः साश्रुकण्ठा भृशातुराः ॥ ७० ॥
राजदारानुपादाय प्रययुर्नगरं प्रति ।
अनुवाद (हिन्दी)
इससे दुर्योधनके मन्त्रियोंका गला भर आया और वे अत्यन्त व्याकुल हो राजमहिलाओंको साथ ले नगरकी और चल दिये॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेत्रव्यासक्तहस्ताश्च द्वाराध्यक्षा विशाम्पते ॥ ७१ ॥
शयनीयानि शुभ्राणि स्पर्ध्यास्तरणवन्ति च।
समादाय ययुस्तूर्णं नगरं दाररक्षिणः ॥ ७२ ॥
मूलम्
वेत्रव्यासक्तहस्ताश्च द्वाराध्यक्षा विशाम्पते ॥ ७१ ॥
शयनीयानि शुभ्राणि स्पर्ध्यास्तरणवन्ति च।
समादाय ययुस्तूर्णं नगरं दाररक्षिणः ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! उनके साथ हाथोंमें बेंतकी छड़ी लिये द्वारपाल भी चल रहे थे। रानियोंकी रक्षामें नियुक्त हुए सेवक शुभ्र एवं बहुमूल्य बिछौने लेकर शीघ्रतापूर्वक नगरकी ओर चलने लगे॥७१-७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्थायाश्वतरीयुक्तान् स्यन्दनानपरे पुनः ।
स्वान् स्वान् दारानुपादाय प्रययुर्नगरं प्रति ॥ ७३ ॥
मूलम्
आस्थायाश्वतरीयुक्तान् स्यन्दनानपरे पुनः ।
स्वान् स्वान् दारानुपादाय प्रययुर्नगरं प्रति ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्य बहुत-से राजकीय पुरुष खच्चरियोंसे जुते हुए रथोंपर आरूढ़ हो अपनी-अपनी रक्षामें स्थित स्त्रियोंको लेकर नगरकी ओर यात्रा करने लगे॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदृष्टपूर्वा या नार्यो भास्करेणापि वेश्मसु।
ददृशुस्ता महाराज जना याताः पुरं प्रति ॥ ७४ ॥
मूलम्
अदृष्टपूर्वा या नार्यो भास्करेणापि वेश्मसु।
ददृशुस्ता महाराज जना याताः पुरं प्रति ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जिन राजमहिलाओंको महलोंमें रहते समय पहले सूर्यदेवने भी नहीं देखा होगा, उन्हें ही नगरकी ओर जाते हुए साधारण लोग भी देख रहे थे॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताः स्त्रियो भरतश्रेष्ठ सौकुमार्यसमन्विताः।
प्रययुर्नगरं तूर्णं हतस्वजनबान्धवाः ॥ ७५ ॥
मूलम्
ताः स्त्रियो भरतश्रेष्ठ सौकुमार्यसमन्विताः।
प्रययुर्नगरं तूर्णं हतस्वजनबान्धवाः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जिनके स्वजन और बान्धव मारे गये थे, वे सुकुमारी स्त्रियाँ तीव्र गतिसे नगरकी ओर जा रही थीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगोपालाविपालेभ्यो द्रवन्तो नगरं प्रति।
ययुर्मनुष्याः सम्भ्रान्ता भीमसेनभयार्दिताः ॥ ७६ ॥
मूलम्
आगोपालाविपालेभ्यो द्रवन्तो नगरं प्रति।
ययुर्मनुष्याः सम्भ्रान्ता भीमसेनभयार्दिताः ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भीमसेनके भयसे पीड़ित हो सभी मनुष्य गायों और भेड़ोंके चरवाहेतक घबराकर नगरकी ओर भाग रहे थे॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि चैषां भयं तीव्रं पार्थेभ्योऽभूत् सुदारुणम्।
प्रेक्षमाणास्तदान्योन्यमाधावन्नगरं प्रति ॥ ७७ ॥
मूलम्
अपि चैषां भयं तीव्रं पार्थेभ्योऽभूत् सुदारुणम्।
प्रेक्षमाणास्तदान्योन्यमाधावन्नगरं प्रति ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें कुन्तीके पुत्रोंसे दारुण एवं तीव्र भय प्राप्त हुआ था। वे एक-दूसरेकी ओर देखते हुए नगरकी ओर भागने लगे॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तथा वर्तमाने विद्रवे भृशदारुणे।
युयुत्सुः शोकसम्मूढः प्राप्तकालमचिन्तयत् ॥ ७८ ॥
मूलम्
तस्मिंस्तथा वर्तमाने विद्रवे भृशदारुणे।
युयुत्सुः शोकसम्मूढः प्राप्तकालमचिन्तयत् ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब इस प्रकार अति भयंकर भगदड़ मची हुई थी, उस समय युयुत्सु शोकसे मूर्च्छित हो मन-ही-मन समयोचित कर्तव्यका विचार करने लगा—॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितो दुर्योधनः संख्ये पाण्डवैर्भीमविक्रमैः।
एकादशचमूभर्ता भ्रातरश्चास्य सूदिताः ॥ ७९ ॥
मूलम्
जितो दुर्योधनः संख्ये पाण्डवैर्भीमविक्रमैः।
एकादशचमूभर्ता भ्रातरश्चास्य सूदिताः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भयंकर पराक्रमी पाण्डवोंने ग्यारह अक्षौहिणी सेनाके स्वामी राजा दुर्योधनको युद्धमें परास्त कर दिया और उसके भाइयोंको भी मार डाला॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हताश्च कुरवः सर्वे भीष्मद्रोणपुरःसराः।
अहमेको विमुक्तस्तु भाग्ययोगाद् यदृच्छया ॥ ८० ॥
मूलम्
हताश्च कुरवः सर्वे भीष्मद्रोणपुरःसराः।
अहमेको विमुक्तस्तु भाग्ययोगाद् यदृच्छया ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीष्म और द्रोणाचार्य जिनके अगुआ थे, वे समस्त कौरव मारे गये। अकस्मात् भाग्य-योगसे अकेला मैं ही बच गया हूँ॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्रुतानि च सर्वाणि शिबिराणि समन्ततः।
इतस्ततः पलायन्ते हतनाथा हतौजसः ॥ ८१ ॥
मूलम्
विद्रुतानि च सर्वाणि शिबिराणि समन्ततः।
इतस्ततः पलायन्ते हतनाथा हतौजसः ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सारे शिविरके लोग सब ओर भाग गये। स्वामीके मारे जानेसे हतोत्साह होकर सभी सेवक इधर-उधर पलायन कर रहे हैं॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदृष्टपूर्वा दुःखार्ता भयव्याकुललोचनाः ।
हरिणा इव वित्रस्ता वीक्षमाणा दिशो दश ॥ ८२ ॥
दुर्योधनस्य सचिवा ये केचिदवशेषिताः।
राजदारानुपादाय प्रययुर्नगरं प्रति ॥ ८३ ॥
मूलम्
अदृष्टपूर्वा दुःखार्ता भयव्याकुललोचनाः ।
हरिणा इव वित्रस्ता वीक्षमाणा दिशो दश ॥ ८२ ॥
दुर्योधनस्य सचिवा ये केचिदवशेषिताः।
राजदारानुपादाय प्रययुर्नगरं प्रति ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन सबकी ऐसी अवस्था हो गयी है, जैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। सभी दुःखसे आतुर हैं और सबके नेत्र भयसे व्याकुल हो उठे हैं। सभी लोग भयभीत मृगोंके समान दसों दिशाओंकी ओर देख रहे हैं। दुर्योधनके मन्त्रियोंमेंसे जो कोई बच गये हैं, वे राजमहिलाओंको साथ लेकर नगरकी ओर जा रहे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तकालमहं मन्ये प्रवेशं तैः सह प्रभुम्।
युधिष्ठिरमनुज्ञाय वासुदेवं तथैव च ॥ ८४ ॥
मूलम्
प्राप्तकालमहं मन्ये प्रवेशं तैः सह प्रभुम्।
युधिष्ठिरमनुज्ञाय वासुदेवं तथैव च ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं राजा युधिष्ठिर और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णकी आज्ञा लेकर उन मन्त्रियोंके साथ ही नगरमें प्रवेश करूँ, यही मुझे समयोचित कर्तव्य जान पड़ता है’॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतमर्थं महाबाहुरुभयोः स न्यवेदयत्।
तस्य प्रीतोऽभवद् राजा नित्यं करुणवेदिता ॥ ८५ ॥
परिष्वज्य महाबाहुर्वैश्यापुत्रं व्यसर्जयत् ।
मूलम्
एतमर्थं महाबाहुरुभयोः स न्यवेदयत्।
तस्य प्रीतोऽभवद् राजा नित्यं करुणवेदिता ॥ ८५ ॥
परिष्वज्य महाबाहुर्वैश्यापुत्रं व्यसर्जयत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा सोचकर महाबाहु युयुत्सुने उन दोनोंके सामने अपना विचार प्रकट किया। उसकी बात सुनकर निरन्तर करुणाका अनुभव करनेवाले महाबाहु राजा युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने वैश्यकुमारीके पुत्र युयुत्सुको छातीसे लगाकर बिदा कर दिया॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स रथमास्थाय द्रुतमश्वानचोदयत् ॥ ८६ ॥
संवाहयितवांश्चापि राजदारान् पुरं प्रति।
मूलम्
ततः स रथमास्थाय द्रुतमश्वानचोदयत् ॥ ८६ ॥
संवाहयितवांश्चापि राजदारान् पुरं प्रति।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उसने रथपर बैठाकर तुरंत ही अपने घोड़े बढ़ाये और राजकुलकी स्त्रियोंको राजधानीमें पहुँचा दिया॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैश्चैव सहितः क्षिप्रमस्तं गच्छति भास्करे ॥ ८७ ॥
प्रविष्टो हास्तिनपुरं बाष्पकण्ठोऽश्रुलोचनः ।
मूलम्
तैश्चैव सहितः क्षिप्रमस्तं गच्छति भास्करे ॥ ८७ ॥
प्रविष्टो हास्तिनपुरं बाष्पकण्ठोऽश्रुलोचनः ।
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यके अस्त होते-होते नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए उसने उन सबके साथ हस्तिनापुरमें प्रवेश किया। उस समय उसका गला भर आया था॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपश्यत महाप्राज्ञं विदुरं साश्रुलोचनम् ॥ ८८ ॥
राज्ञः समीपान्निष्क्रान्तं शोकोपहतचेतसम् ।
मूलम्
अपश्यत महाप्राज्ञं विदुरं साश्रुलोचनम् ॥ ८८ ॥
राज्ञः समीपान्निष्क्रान्तं शोकोपहतचेतसम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वहाँ उसने आपके पाससे निकले हुए महाज्ञानी विदुरजीका दर्शन किया, जिनके नेत्रोंमें आँसू भरे हुए थे और मन शोकमें डूबा हुआ था॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीत् सत्यधृतिः प्रणतं त्वग्रतः स्थितम् ॥ ८९ ॥
दिष्ट्या कुरुक्षये वृत्ते अस्मिंस्त्वं पुत्र जीवसि।
विना राज्ञः प्रवेशाद् वै किमसि त्वमिहागतः ॥ ९० ॥
एतद् वै कारणं सर्वं विस्तरेण निवेदय।
मूलम्
तमब्रवीत् सत्यधृतिः प्रणतं त्वग्रतः स्थितम् ॥ ८९ ॥
दिष्ट्या कुरुक्षये वृत्ते अस्मिंस्त्वं पुत्र जीवसि।
विना राज्ञः प्रवेशाद् वै किमसि त्वमिहागतः ॥ ९० ॥
एतद् वै कारणं सर्वं विस्तरेण निवेदय।
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यपरायण विदुरने प्रणाम करके सामने खड़े हुए युयुत्सुसे कहा—‘बेटा! बड़े सौभाग्यकी बात है कि कौरवोंके इस विकट संहारमें भी तुम जीवित बच गये हो; परंतु राजा युधिष्ठिरके हस्तिनापुरमें प्रवेश करनेसे पहले ही तुम यहाँ कैसे चले आये? यह सारा कारण मुझे विस्तारपूर्वक बताओ’॥८९-९०॥
मूलम् (वचनम्)
युयुत्सुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहते शकुनौ तत्र सज्ञातिसुतबान्धवे ॥ ९१ ॥
हतशेषपरीवारो राजा दुर्योधनस्ततः ।
स्वकं स हयमुत्सृज्य प्राङ्मुखः प्राद्रवद् भयात् ॥ ९२ ॥
मूलम्
निहते शकुनौ तत्र सज्ञातिसुतबान्धवे ॥ ९१ ॥
हतशेषपरीवारो राजा दुर्योधनस्ततः ।
स्वकं स हयमुत्सृज्य प्राङ्मुखः प्राद्रवद् भयात् ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युयुत्सुने कहा— चाचाजी! जाति, भाई और पुत्रसहित शकुनिके मारे जानेपर जिसके शेष परिवार नष्ट हो गये थे, वह राजा दुर्योधन अपने घोड़ेको युद्धभूमिमें ही छोड़कर भयके मारे पूर्व दिशाकी ओर भाग गया॥९१-९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपक्रान्ते तु नृपतौ स्कन्धावारनिवेशनात्।
भयव्याकुलितं सर्वं प्राद्रवन्नगरं प्रति ॥ ९३ ॥
मूलम्
अपक्रान्ते तु नृपतौ स्कन्धावारनिवेशनात्।
भयव्याकुलितं सर्वं प्राद्रवन्नगरं प्रति ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाके छावनीसे दूर भाग जानेपर सब लोग भयसे व्याकुल हो राजधानीकी ओर भाग चले॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राज्ञः कलत्राणि भ्रातॄणां चास्य सर्वतः।
वाहनेषु समारोप्य अध्यक्षाः प्राद्रवन् भयात् ॥ ९४ ॥
मूलम्
ततो राज्ञः कलत्राणि भ्रातॄणां चास्य सर्वतः।
वाहनेषु समारोप्य अध्यक्षाः प्राद्रवन् भयात् ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजा तथा उनके भाइयोंकी पत्नियोंको सब ओरसे सवारियोंपर बिठाकर अन्तःपुरके अध्यक्ष भी भयके मारे भाग खड़े हुए॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं समनुज्ञाप्य राजानं सहकेशवम्।
प्रविष्टो हास्तिनपुरं रक्षल्लोँकान् प्रधावितान् ॥ ९५ ॥
मूलम्
ततोऽहं समनुज्ञाप्य राजानं सहकेशवम्।
प्रविष्टो हास्तिनपुरं रक्षल्लोँकान् प्रधावितान् ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मैं भगवान् श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिरकी आज्ञा लेकर भागे हुए लोगोंकी रक्षाके लिये हस्तिनापुरमें चला आया हूँ॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं वैश्यापुत्रेण भाषितम्।
प्राप्तकालमिति ज्ञात्वा विदुरः सर्वधर्मवित् ॥ ९६ ॥
अपूजयदमेयात्मा युयुत्सुं वाक्यमब्रवीत् ।
प्राप्तकालमिदं सर्वं ब्रुवता भरतक्षये ॥ ९७ ॥
रक्षितः कुलधर्मश्च सानुक्रोशतया त्वया।
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं वैश्यापुत्रेण भाषितम्।
प्राप्तकालमिति ज्ञात्वा विदुरः सर्वधर्मवित् ॥ ९६ ॥
अपूजयदमेयात्मा युयुत्सुं वाक्यमब्रवीत् ।
प्राप्तकालमिदं सर्वं ब्रुवता भरतक्षये ॥ ९७ ॥
रक्षितः कुलधर्मश्च सानुक्रोशतया त्वया।
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्यापुत्र युयुत्सुकी कही हुई यह बात सुनकर और इसे समयोचित जानकर सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता तथा अमेय आत्मबलसे सम्पन्न विदुरजीने युयुत्सुकी भूरि-भूरि प्रशंसा की एवं इस प्रकार कहा—‘भरतवंशियोंके इस विनाशके समय जो यह समयोचित कर्तव्य प्राप्त था, वह सब बताकर अपनी दयालुताके कारण तुमने कुल-धर्मकी रक्षा की है॥९६-९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या त्वामिह संग्रामादस्माद् वीरक्षयात् पुरम् ॥ ९८ ॥
समागतमपश्याम ह्यंशुमन्तमिव प्रजाः ।
मूलम्
दिष्ट्या त्वामिह संग्रामादस्माद् वीरक्षयात् पुरम् ॥ ९८ ॥
समागतमपश्याम ह्यंशुमन्तमिव प्रजाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीरोंका विनाश करनेवाले इस संग्रामसे बचकर तुम कुशलपूर्वक नगरमें लौट आये—इस अवस्थामें हमने तुम्हें उसी प्रकार देखा है, जैसे रात्रिके अन्तमें प्रजा भगवान् भास्करका दर्शन करती है॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्धस्य नृपतेर्यष्टिर्लुब्धस्यादीर्घदर्शिनः ॥ ९९ ॥
बहुशो याच्यमानस्य दैवोपहतचेतसः ।
त्वमेको व्यसनार्तस्य ध्रियसे पुत्र सर्वथा ॥ १०० ॥
मूलम्
अन्धस्य नृपतेर्यष्टिर्लुब्धस्यादीर्घदर्शिनः ॥ ९९ ॥
बहुशो याच्यमानस्य दैवोपहतचेतसः ।
त्वमेको व्यसनार्तस्य ध्रियसे पुत्र सर्वथा ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लोभी, अदूरदर्शी और अन्धे राजाके लिये तुम लाठीके सहारे हो। मैंने उनसे युद्ध रोकनेके लिये बारंबार याचना की थी, परंतु दैवसे उनकी बुद्धि मारी गयी थी; इसलिये उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी। आज वे संकटसे पीड़ित हैं, बेटा! इस अवस्थामें एकमात्र तुम्हीं उन्हें सहारा देनेके लिये जीवित हो॥९९-१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य त्वमिह विश्रान्तः श्वोऽभिगन्ता युधिष्ठिरम्।
एतावदुक्त्वा वचनं विदुरः साश्रुलोचनः ॥ १०१ ॥
युयुत्सुं समनुप्राप्य प्रविवेश नृपक्षयम्।
पौरजानपदैर्दुःखाद्धाहेति भृशनादितम् ॥ १०२ ॥
मूलम्
अद्य त्वमिह विश्रान्तः श्वोऽभिगन्ता युधिष्ठिरम्।
एतावदुक्त्वा वचनं विदुरः साश्रुलोचनः ॥ १०१ ॥
युयुत्सुं समनुप्राप्य प्रविवेश नृपक्षयम्।
पौरजानपदैर्दुःखाद्धाहेति भृशनादितम् ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज यहीं विश्राम करो। कल सबेरे युधिष्ठिरके पास चले जाना’ ऐसा कहकर नेत्रोंमें आँसू भरे विदुरजीने युयुत्सुको साथ लेकर राजमहलमें प्रवेश किया। वह भवन नगर और जनपदके लोगोंद्वारा दुःखपूर्वक किये जानेवाले हाहाकार एवं भयंकर आर्तनादसे गूँज उठा था॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरानन्दं गतश्रीकं हृताराममिवाशयम् ।
शून्यरूपमपध्वस्तं दुःखाद् दुःखतरोऽभवत् ॥ १०३ ॥
मूलम्
निरानन्दं गतश्रीकं हृताराममिवाशयम् ।
शून्यरूपमपध्वस्तं दुःखाद् दुःखतरोऽभवत् ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ न तो आनन्द था और न वैभवजनित शोभा ही दृष्टिगोचर होती थी। वह राजभवन उस जलाशयके समान जनशून्य और विध्वस्त-सा जान पड़ता था, जिसके तटका उद्यान नष्ट हो गया हो। वहाँ पहुँचकर विदुरजी दुःखसे अत्यन्त खिन्न हो गये॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदुरः सर्वधर्मज्ञो विक्लवेनान्तरात्मना ।
विवेश नगरे राजन् निःशश्वास शनैः शनैः ॥ १०४ ॥
मूलम्
विदुरः सर्वधर्मज्ञो विक्लवेनान्तरात्मना ।
विवेश नगरे राजन् निःशश्वास शनैः शनैः ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता विदुरजीने व्याकुल अन्तःकरणसे नगरमें प्रवेश किया और धीरे-धीरे वे लंबी साँस खींचने लगे॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युयुत्सुरपि तां रात्रिं स्वगृहे न्यवसत् तदा।
वन्द्यमानः स्वकैश्चापि नाभ्यनन्दत् सुदुःखितः।
चिन्तयानः क्षयं तीव्रं भरतानां परस्परम् ॥ १०५ ॥
मूलम्
युयुत्सुरपि तां रात्रिं स्वगृहे न्यवसत् तदा।
वन्द्यमानः स्वकैश्चापि नाभ्यनन्दत् सुदुःखितः।
चिन्तयानः क्षयं तीव्रं भरतानां परस्परम् ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युयुत्सु भी उस रातमें अपने घरपर ही रहे। उनके मनमें अत्यन्त दुःख था, इसलिये वे स्वजनोंद्वारा वन्दित होनेपर भी प्रसन्न नहीं हुए। इस पारस्परिक युद्धसे भरतवंशियोंका जो घोर संहार हुआ था, उसीकी चिन्तामें वे निमग्न हो गये थे॥१०५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि ह्रदप्रवेशपर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वके अन्तर्गत ह्रदप्रवेशपर्वमें उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ८ श्लोक मिलाकर कुल ११३ श्लोक हैं।)