भागसूचना
दशमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नकुलद्वारा कर्णके तीन पुत्रोंका वध तथा उभयपक्षकी सेनाओंका भयानक युद्ध
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा मद्रराजः प्रतापवान्।
उवाच सारथिं तूर्णं चोदयाश्वान् महाजवान् ॥ १ ॥
मूलम्
तत् प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा मद्रराजः प्रतापवान्।
उवाच सारथिं तूर्णं चोदयाश्वान् महाजवान् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! उस सेनाको इस तरह भागती देख प्रतापी मद्रराज शल्यने अपने सारथिसे कहा—‘सूत! मेरे महावेगशाली घोड़ोंको शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ाओ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष तिष्ठति वै राजा पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः।
छत्रेण ध्रियमाणेन पाण्डुरेण विराजता ॥ २ ॥
मूलम्
एष तिष्ठति वै राजा पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः।
छत्रेण ध्रियमाणेन पाण्डुरेण विराजता ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो, ये सामने मस्तकपर शोभाशाली श्वेत छत्र लगाये हुए पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर खड़े हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र मां प्रापय क्षिप्रं पश्य मे सारथे बलम्।
न समर्थो हि मे पार्थः स्थातुमद्य पुरो युधि॥३॥
मूलम्
अत्र मां प्रापय क्षिप्रं पश्य मे सारथे बलम्।
न समर्थो हि मे पार्थः स्थातुमद्य पुरो युधि॥३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सारथे! मुझे शीघ्र उनके पास पहुँचा दो। फिर मेरा बल देखो। आज युद्धमें कुन्तीकुमार युधिष्ठिर मेरे सामने कदापि नहीं ठहर सकते’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्ततः प्रायान्मद्रराजस्य सारथिः ।
यत्र राजा सत्यसंधो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ४ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्ततः प्रायान्मद्रराजस्य सारथिः ।
यत्र राजा सत्यसंधो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर मद्रराजका सारथि वहीं जा पहुँचा, जहाँ सत्यप्रतिज्ञ धर्मपुत्र युधिष्ठिर खड़े थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रापतत् तच्च सहसा पाण्डवानां महद् बलम्।
दधारैको रणे शल्यो वेलोद्वृत्तमिवार्णवम् ॥ ५ ॥
मूलम्
प्रापतत् तच्च सहसा पाण्डवानां महद् बलम्।
दधारैको रणे शल्यो वेलोद्वृत्तमिवार्णवम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही पाण्डवोंकी वह विशाल सेना भी सहसा वहाँ आ पहुँची। परंतु जैसे तट उमड़ते हुए समुद्रको रोक देता है, उसी प्रकार अकेले राजा शल्यने रणभूमिमें उस सेनाको आगे बढ़नेसे रोक दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवानां बलौघस्तु शल्यमासाद्य मारिष।
व्यतिष्ठत तदा युद्धे सिन्धोर्वेग इवाचलम् ॥ ६ ॥
मूलम्
पाण्डवानां बलौघस्तु शल्यमासाद्य मारिष।
व्यतिष्ठत तदा युद्धे सिन्धोर्वेग इवाचलम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! जैसे किसी नदीका वेग किसी पर्वतके पास पहुँचकर अवरुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार पाण्डवोंकी सेनाका वह समुदाय युद्धमें राजा शल्यके पास पहुँचकर खड़ा हो गया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्रराजं तु समरे दृष्ट्वा युद्धाय धिष्ठितम्।
कुरवः संन्यवर्तन्त मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् ॥ ७ ॥
मूलम्
मद्रराजं तु समरे दृष्ट्वा युद्धाय धिष्ठितम्।
कुरवः संन्यवर्तन्त मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें मद्रराज शल्यको युद्धके लिये डटा हुआ देख कौरव-सैनिक मृत्युको ही युद्धसे निवृत्तिकी सीमा नियत करके पुनः रणभूमिमें लौट आये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु राजन् निवृत्तेषु व्यूढानीकेषु भागशः।
प्रावर्तत महारौद्रः संग्रामः शोणितोदकः ॥ ८ ॥
मूलम्
तेषु राजन् निवृत्तेषु व्यूढानीकेषु भागशः।
प्रावर्तत महारौद्रः संग्रामः शोणितोदकः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पृथक्-पृथक् सेनाओंकी व्यूह-रचना करके जब वे सभी सैनिक लौट आये, तब दोनों दलोंमें महाभयंकर संग्राम छिड़ गया, जहाँ पानीकी तरह खून बहाया जा रहा था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समार्च्छच्चित्रसेनं तु नकुलो युद्धदुर्मदः।
तौ परस्परमासाद्य चित्रकार्मुकधारिणौ ॥ ९ ॥
मेघाविव यथोद्वृत्तौ दक्षिणोत्तरवर्षिणौ ।
शरतोयैः सिषिचतुस्तौ परस्परमाहवे ॥ १० ॥
मूलम्
समार्च्छच्चित्रसेनं तु नकुलो युद्धदुर्मदः।
तौ परस्परमासाद्य चित्रकार्मुकधारिणौ ॥ ९ ॥
मेघाविव यथोद्वृत्तौ दक्षिणोत्तरवर्षिणौ ।
शरतोयैः सिषिचतुस्तौ परस्परमाहवे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय रणदुर्मद नकुलने कर्णपुत्र चित्रसेनपर आक्रमण किया। विचित्र धनुष धारण करनेवाले वे दोनों वीर एक-दूसरेसे भिड़कर दक्षिण तथा उत्तरकी ओरसे आये हुए दो बड़े जलवर्षक मेघोंके समान परस्पर बाणरूपी जलकी बौछार करने लगे॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्तरं तत्र पश्यामि पाण्डवस्येतरस्य च।
उभौ कृतास्त्रौ बलिनौ रथचर्याविशारदौ ॥ ११ ॥
परस्परवधे यत्तौ छिद्रान्वेषणतत्परौ ।
मूलम्
नान्तरं तत्र पश्यामि पाण्डवस्येतरस्य च।
उभौ कृतास्त्रौ बलिनौ रथचर्याविशारदौ ॥ ११ ॥
परस्परवधे यत्तौ छिद्रान्वेषणतत्परौ ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वहाँ पाण्डुपुत्र नकुल और कर्णकुमार चित्रसेनमें मुझे कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था। दोनों ही अस्त्र-शस्त्रोंके विद्वान्, बलवान् तथा रथयुद्धमें कुशल थे। परस्पर घातमें लगे हुए वे दोनों वीर एक-दूसरेके छिद्र (प्रहारके योग्य अवसर) ढूँढ़ रहे थे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रसेनस्तु भल्लेन पीतेन निशितेन च ॥ १२ ॥
नकुलस्य महाराज मुष्टिदेशेऽच्छिनद् धनुः।
मूलम्
चित्रसेनस्तु भल्लेन पीतेन निशितेन च ॥ १२ ॥
नकुलस्य महाराज मुष्टिदेशेऽच्छिनद् धनुः।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इतनेहीमें चित्रसेनने एक पानीदार पैने भल्लके द्वारा नकुलके धनुषको मुट्ठी पकड़नेकी जगहसे काट दिया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनं छिन्नधन्वानं रुक्मपुङ्खैः शिलाशितैः ॥ १३ ॥
त्रिभिः शरैरसम्भ्रान्तो ललाटे वै समार्पयत्।
मूलम्
अथैनं छिन्नधन्वानं रुक्मपुङ्खैः शिलाशितैः ॥ १३ ॥
त्रिभिः शरैरसम्भ्रान्तो ललाटे वै समार्पयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
धनुष कट जानेपर उनके ललाटमें शिलापर तेज किये हुए सुनहरे पंखवाले तीन बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी। उस समय चित्रसेनके चित्तमें तनिक भी घबराहट नहीं हुई॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयांश्चास्य शरैस्तीक्ष्णैः प्रेषयामास मृत्यवे ॥ १४ ॥
तथा ध्वजं सारथिं च त्रिभिस्त्रिभिरपातयत्।
मूलम्
हयांश्चास्य शरैस्तीक्ष्णैः प्रेषयामास मृत्यवे ॥ १४ ॥
तथा ध्वजं सारथिं च त्रिभिस्त्रिभिरपातयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अपने तीखे बाणोंद्वारा नकुलके घोड़ोंको भी मृत्युके हवाले कर दिया तथा तीन-तीन बाणोंसे उनके ध्वज और सारथिको भी काट गिराया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शत्रुभुजनिर्मुक्तैर्ललाटस्थैस्त्रिभिः शरैः ॥ १५ ॥
नकुलः शुशुभे राजंस्त्रिशृङ्ग इव पर्वतः।
मूलम्
स शत्रुभुजनिर्मुक्तैर्ललाटस्थैस्त्रिभिः शरैः ॥ १५ ॥
नकुलः शुशुभे राजंस्त्रिशृङ्ग इव पर्वतः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! शत्रुकी भुजाओंसे छूटकर ललाटमें धँसे हुए उन तीन बाणोंके द्वारा नकुल तीन शिखरोंवाले पर्वतके समान शोभा पाने लगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च्छिन्नधन्वा विरथः खड्गमादाय चर्म च ॥ १६ ॥
रथादवातरद् वीरः शैलाग्रादिव केसरी।
मूलम्
स च्छिन्नधन्वा विरथः खड्गमादाय चर्म च ॥ १६ ॥
रथादवातरद् वीरः शैलाग्रादिव केसरी।
अनुवाद (हिन्दी)
धनुष कट जानेपर रथहीन हुए वीर नकुल हाथमें ढाल-तलवार लेकर पर्वतके शिखरसे उतरनेवाले सिंहके समान रथसे नीचे आ गये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्भ्यामापततस्तस्य शरवृष्टिं समासृजत् ॥ १७ ॥
नकुलोऽप्यग्रसत् तां वै चर्मणा लघुविक्रमः।
मूलम्
पद्भ्यामापततस्तस्य शरवृष्टिं समासृजत् ॥ १७ ॥
नकुलोऽप्यग्रसत् तां वै चर्मणा लघुविक्रमः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय चित्रसेन पैदल आक्रमण करनेवाले नकुलके ऊपर बाणोंकी वृष्टि करने लगा। परंतु शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करनेवाले नकुलने ढालके द्वारा ही रोककर उस बाण-वर्षाको नष्ट कर दिया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रसेनरथं प्राप्य चित्रयोधी जितश्रमः ॥ १८ ॥
आरुरोह महाबाहुः सर्वसैन्यस्य पश्यतः।
मूलम्
चित्रसेनरथं प्राप्य चित्रयोधी जितश्रमः ॥ १८ ॥
आरुरोह महाबाहुः सर्वसैन्यस्य पश्यतः।
अनुवाद (हिन्दी)
विचित्र रीतिसे युद्ध करनेवाले महाबाहु नकुल परिश्रमको जीत चुके थे। वे सारी सेनाके देखते-देखते चित्रसेनके रथके समीप जा उसपर चढ़ गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकुण्डलं समुकुटं सुनसं स्वायतेक्षणम् ॥ १९ ॥
चित्रसेनशिरः कायादपाहरत पाण्डवः ।
मूलम्
सकुण्डलं समुकुटं सुनसं स्वायतेक्षणम् ॥ १९ ॥
चित्रसेनशिरः कायादपाहरत पाण्डवः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् पाण्डुकुमारने सुन्दर नासिका और विशाल नेत्रोंसे युक्त कुण्डल और मुकुटसहित चित्रसेनके मस्तकको धड़से काट लिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पपात रथोपस्थे दिवाकरसमद्युतिः ॥ २० ॥
चित्रसेनं विशस्तं तु दृष्ट्वा तत्र महारथाः।
साधुवादस्वनांश्चक्रुः सिंहनादांश्च पुष्कलान् ॥ २१ ॥
मूलम्
स पपात रथोपस्थे दिवाकरसमद्युतिः ॥ २० ॥
चित्रसेनं विशस्तं तु दृष्ट्वा तत्र महारथाः।
साधुवादस्वनांश्चक्रुः सिंहनादांश्च पुष्कलान् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यके समान तेजस्वी चित्रसेन रथके पिछले भागमें गिर पड़ा। चित्रसेनको मारा गया देख वहाँ खड़े हुए पाण्डव महारथी नकुलको साधुवाद देने और प्रचुरमात्रामें सिंहनाद करने लगे॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशस्तं भ्रातरं दृष्ट्वा कर्णपुत्रौ महारथौ।
सुषेणः सत्यसेनश्च मुञ्चन्तौ विविधान् शरान् ॥ २२ ॥
ततोऽभ्यधावतां तूर्णं पाण्डवं रथिनां वरम्।
मूलम्
विशस्तं भ्रातरं दृष्ट्वा कर्णपुत्रौ महारथौ।
सुषेणः सत्यसेनश्च मुञ्चन्तौ विविधान् शरान् ॥ २२ ॥
ततोऽभ्यधावतां तूर्णं पाण्डवं रथिनां वरम्।
अनुवाद (हिन्दी)
अपने भाईको मारा गया देख कर्णके दो महारथी पुत्र सुषेण और सत्यसेन नाना प्रकारके बाणोंकी वर्षा करते हुए रथियोंमें श्रेष्ठ पाण्डुपुत्र नकुलपर तुरंत ही चढ़ आये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिघांसन्तौ यथा नागं व्याघ्रौ राजन् महावने ॥ २३ ॥
तावभ्यधावतां तीक्ष्णौ द्वावप्येनं महारथम्।
शरौघान् सम्यगस्यन्तौ जीमूतौ सलिलं यथा ॥ २४ ॥
मूलम्
जिघांसन्तौ यथा नागं व्याघ्रौ राजन् महावने ॥ २३ ॥
तावभ्यधावतां तीक्ष्णौ द्वावप्येनं महारथम्।
शरौघान् सम्यगस्यन्तौ जीमूतौ सलिलं यथा ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसे विशाल वनमें दो व्याघ्र किसी एक हाथीको मार डालनेकी इच्छासे उसकी ओर दौड़ें, उसी प्रकार तीखे स्वभाववाले वे दोनों भाई इन महारथी नकुलपर अपने बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगे, मानो दो मेघ पानीकी धारावाहिक वृष्टि करते हों॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शरैः सर्वतो विद्धः प्रहृष्ट इव पाण्डवः।
अन्यत् कार्मुकमादाय रथमारुह्य वेगवान् ॥ २५ ॥
अतिष्ठत रणे वीरः क्रुद्धरूप इवान्तकः।
मूलम्
स शरैः सर्वतो विद्धः प्रहृष्ट इव पाण्डवः।
अन्यत् कार्मुकमादाय रथमारुह्य वेगवान् ॥ २५ ॥
अतिष्ठत रणे वीरः क्रुद्धरूप इवान्तकः।
अनुवाद (हिन्दी)
सब ओरसे बाणोंद्वारा विद्ध होनेपर भी पाण्डुकुमार नकुल हर्ष और उत्साहमें भरे हुए वीर योद्धाकी भाँति दूसरा धनुष हाथमें लेकर बड़े वेगसे दूसरे रथपर जा चढ़े और कुपित हुए कालके समान रणभूमिमें खड़े हो गये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तौ भ्रातरौ राजन् शरैः संनतपर्वभिः ॥ २६ ॥
रथं विशकलीकर्तुं समारब्धौ विशाम्पते।
मूलम्
तस्य तौ भ्रातरौ राजन् शरैः संनतपर्वभिः ॥ २६ ॥
रथं विशकलीकर्तुं समारब्धौ विशाम्पते।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! प्रजानाथ! उन दोनों भाइयोंने झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा नकुलके रथके टुकड़े-टुकड़े करनेकी चेष्टा आरम्भ की॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रहस्य नकुलश्चतुर्भिश्चतुरो रणे ॥ २७ ॥
जघान निशितैर्बाणैः सत्यसेनस्य वाजिनः।
मूलम्
ततः प्रहस्य नकुलश्चतुर्भिश्चतुरो रणे ॥ २७ ॥
जघान निशितैर्बाणैः सत्यसेनस्य वाजिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब नकुलने हँसकर रणभूमिमें चार पैने बाणोंद्वारा सत्यसेनके चारों घोड़ोंको मार डाला॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः संधाय नाराचं रुक्मपुङ्खं शिलाशितम् ॥ २८ ॥
धनुश्चिच्छेद राजेन्द्र सत्यसेनस्य पाण्डवः।
मूलम्
ततः संधाय नाराचं रुक्मपुङ्खं शिलाशितम् ॥ २८ ॥
धनुश्चिच्छेद राजेन्द्र सत्यसेनस्य पाण्डवः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! तत्पश्चात् सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले एक नाराचका संधान करके पाण्डुपुत्र नकुलने सत्यसेनका धनुष काट दिया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यं रथमास्थाय धनुरादाय चापरम् ॥ २९ ॥
सत्यसेनः सुषेणश्च पाण्डवं पर्यधावताम्।
मूलम्
अथान्यं रथमास्थाय धनुरादाय चापरम् ॥ २९ ॥
सत्यसेनः सुषेणश्च पाण्डवं पर्यधावताम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद दूसरे रथपर सवार हो दूसरा धनुष हाथमें लेकर सत्यसेन और सुषेण दोनोंने पाण्डुकुमार नकुलपर धावा किया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविध्यत् तावसम्भ्रान्तो माद्रीपुत्रः प्रतापवान् ॥ ३० ॥
द्वाभ्यां द्वाभ्यां महाराज शराभ्यां रणमूर्धनि।
मूलम्
अविध्यत् तावसम्भ्रान्तो माद्रीपुत्रः प्रतापवान् ॥ ३० ॥
द्वाभ्यां द्वाभ्यां महाराज शराभ्यां रणमूर्धनि।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! माद्रीके प्रतापी पुत्र नकुलने बिना किसी घबराहटके युद्धके मुहानेपर दो-दो बाणोंसे उन दोनों भाइयोंको घायल कर दिया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुषेणस्तु ततः क्रुद्धः पाण्डवस्य महद् धनुः ॥ ३१ ॥
चिच्छेद प्रहसन् युद्धे क्षुरप्रेण महारथः।
मूलम्
सुषेणस्तु ततः क्रुद्धः पाण्डवस्य महद् धनुः ॥ ३१ ॥
चिच्छेद प्रहसन् युद्धे क्षुरप्रेण महारथः।
अनुवाद (हिन्दी)
इससे सुषेणको बड़ा क्रोध हुआ। उस महारथीने हँसते-हँसते युद्धस्थलमें एक क्षुरप्रके द्वारा पाण्डुकुमार नकुलके विशाल धनुषको काट डाला॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यद् धनुरादाय नकुलः क्रोधमूर्च्छितः ॥ ३२ ॥
सुषेणं पञ्चभिर्विद्ध्वा ध्वजमेकेन चिच्छिदे।
मूलम्
अथान्यद् धनुरादाय नकुलः क्रोधमूर्च्छितः ॥ ३२ ॥
सुषेणं पञ्चभिर्विद्ध्वा ध्वजमेकेन चिच्छिदे।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो नकुल क्रोधसे तमतमा उठे और दूसरा धनुष लेकर उन्होंने पाँच बाणोंसे सुषेणको घायल करके एकसे उसकी ध्वजाको भी काट डाला॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यसेनस्य च धनुर्हस्तावापं च मारिष ॥ ३३ ॥
चिच्छेद तरसा युद्धे तत उच्चुक्रुशुर्जनाः।
मूलम्
सत्यसेनस्य च धनुर्हस्तावापं च मारिष ॥ ३३ ॥
चिच्छेद तरसा युद्धे तत उच्चुक्रुशुर्जनाः।
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! इसके बाद रणभूमिमें सत्यसेनके धनुष और दस्तानेके भी नकुलने वेगपूर्वक टुकड़े-टुकड़े कर डाले। इससे सब लोग जोर-जोरसे कोलाहल करने लगे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यद् धनुरादाय वेगघ्नं भारसाधनम् ॥ ३४ ॥
शरैः संछादयामास समन्तात् पाण्डुनन्दनम्।
मूलम्
अथान्यद् धनुरादाय वेगघ्नं भारसाधनम् ॥ ३४ ॥
शरैः संछादयामास समन्तात् पाण्डुनन्दनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तब सत्यसेनने शत्रुका वेग नष्ट करनेवाले दूसरे भारसाधक धनुषको हाथमें लेकर अपने बाणोंद्वारा पाण्डुनन्दन नकुलको ढक दिया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संनिवार्य तु तान् बाणान् नकुलः परवीरहा ॥ ३५ ॥
सत्यसेनं सुषेणं च द्वाभ्यां द्वाभ्यामविध्यत।
मूलम्
संनिवार्य तु तान् बाणान् नकुलः परवीरहा ॥ ३५ ॥
सत्यसेनं सुषेणं च द्वाभ्यां द्वाभ्यामविध्यत।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले नकुलने उन बाणोंका निवारण करके सत्यसेन और सुषेणको भी दो-दो बाणोंद्वारा घायल कर दिया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावेनं प्रत्यविध्येतां पृथक् पृथगजिह्मगैः ॥ ३६ ॥
सारथिं चास्य राजेन्द्र शितैर्विव्यधतुः शरैः।
मूलम्
तावेनं प्रत्यविध्येतां पृथक् पृथगजिह्मगैः ॥ ३६ ॥
सारथिं चास्य राजेन्द्र शितैर्विव्यधतुः शरैः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! फिर उन दोनों भाइयोंने भी पृथक्-पृथक् अनेक बाणोंसे नकुलको बींध डाला और पैने बाणोंद्वारा उनके सारथिको भी घायल कर दिया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यसेनो रथेषां तु नकुलस्य धनुस्तथा ॥ ३७ ॥
पृथक् शराभ्यां चिच्छेद कृतहस्तः प्रतापवान्।
मूलम्
सत्यसेनो रथेषां तु नकुलस्य धनुस्तथा ॥ ३७ ॥
पृथक् शराभ्यां चिच्छेद कृतहस्तः प्रतापवान्।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् सिद्धहस्त और प्रतापी वीर सत्यसेनने पृथक्-पृथक् दो-दो बाणोंसे नकुलका धनुष और उनके रथके ईषादण्ड भी काट डाले॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रथेऽतिरथस्तिष्ठन् रथशक्तिं परामृशत् ॥ ३८ ॥
स्वर्णदण्डामकुण्ठाग्रां तैलधौतां सुनिर्मलाम् ।
लेलिहानामिव विभो नागकन्यां महाविषाम् ॥ ३९ ॥
समुद्यम्य च चिक्षेप सत्यसेनस्य संयुगे।
मूलम्
स रथेऽतिरथस्तिष्ठन् रथशक्तिं परामृशत् ॥ ३८ ॥
स्वर्णदण्डामकुण्ठाग्रां तैलधौतां सुनिर्मलाम् ।
लेलिहानामिव विभो नागकन्यां महाविषाम् ॥ ३९ ॥
समुद्यम्य च चिक्षेप सत्यसेनस्य संयुगे।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रथपर खड़े हुए अतिरथी वीर नकुलने एक रथशक्ति हाथमें ली, जिसमें सोनेका डंडा लगा हुआ था। उसका अग्रभाग कहीं भी कुण्ठित होनेवाला नहीं था। प्रभो! तेलमें धोकर साफ की हुई वह निर्मल शक्ति जीभ लपलपाती हुई महाविषैली नागिनके समान प्रतीत होती थी। नकुलने युद्धस्थलमें सत्यसेनको लक्ष्य करके ऊपर उठाकर वह रथशक्ति चला दी॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तस्य हृदयं संख्ये बिभेद च तथा नृप॥४०॥
स पपात रथाद् भूमिं गतसत्त्वोऽल्पचेतनः।
मूलम्
सा तस्य हृदयं संख्ये बिभेद च तथा नृप॥४०॥
स पपात रथाद् भूमिं गतसत्त्वोऽल्पचेतनः।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उस शक्ति ने रणभूमिमें उसके वक्षःस्थलको विदीर्ण कर दिया। सत्यसेनकी चेतना जाती रही और वह प्राणशून्य होकर रथसे पृथ्वीपर गिर पड़ा॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा सुषेणः क्रोधमूर्च्छितः ॥ ४१ ॥
अभ्यवर्षच्छरैस्तूर्णं पादातं पाण्डुनन्दनम् ।
मूलम्
भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा सुषेणः क्रोधमूर्च्छितः ॥ ४१ ॥
अभ्यवर्षच्छरैस्तूर्णं पादातं पाण्डुनन्दनम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
भाईको मारा गया देख सुषेण क्रोधसे व्याकुल हो उठा और तुरंत ही हरसा कट जानेसे पैदल हुए-से पाण्डुनन्दन नकुलपर बाणोंकी वर्षा करने लगा॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्भिश्चतुरो वाहान् ध्वजं छित्त्वा च पञ्चभिः ॥ ४२ ॥
त्रिभिर्वै सारथिं हत्वा कर्णपुत्रो ननाद ह।
मूलम्
चतुर्भिश्चतुरो वाहान् ध्वजं छित्त्वा च पञ्चभिः ॥ ४२ ॥
त्रिभिर्वै सारथिं हत्वा कर्णपुत्रो ननाद ह।
अनुवाद (हिन्दी)
उसने चार बाणोंसे उनके चारों घोड़ोंको मार डाला और पाँचसे उनकी ध्वजा काटकर तीनसे सारथिके भी प्राण ले लिये। इसके बाद कर्णपुत्र जोर-जोरसे सिंहनाद करने लगा॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलं विरथं दृष्ट्वा द्रौपदेयो महारथम् ॥ ४३ ॥
सुतसोमोऽभिदुद्राव परीप्सन् पितरं रणे।
मूलम्
नकुलं विरथं दृष्ट्वा द्रौपदेयो महारथम् ॥ ४३ ॥
सुतसोमोऽभिदुद्राव परीप्सन् पितरं रणे।
अनुवाद (हिन्दी)
महारथी नकुलको रथहीन हुआ देख द्रौपदीका पुत्र सुतसोम अपने चाचाकी रक्षाके लिये वहाँ दौड़ा आया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽधिरुह्य नकुलः सुतसोमस्य तं रथम् ॥ ४४ ॥
शुशुभे भरतश्रेष्ठो गिरिस्थ इव केसरी।
मूलम्
ततोऽधिरुह्य नकुलः सुतसोमस्य तं रथम् ॥ ४४ ॥
शुशुभे भरतश्रेष्ठो गिरिस्थ इव केसरी।
अनुवाद (हिन्दी)
तब सुतसोमके उस रथपर आरूढ़ हो भरतश्रेष्ठ नकुल पर्वतपर बैठे हुए सिंहके समान सुशोभित होने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यत् कार्मुकमादाय सुषेणं समयोधयत् ॥ ४५ ॥
तावुभौ शरवर्षाभ्यां समासाद्य परस्परम्।
परस्परवधे यत्नं चक्रतुः सुमहारथौ ॥ ४६ ॥
मूलम्
अन्यत् कार्मुकमादाय सुषेणं समयोधयत् ॥ ४५ ॥
तावुभौ शरवर्षाभ्यां समासाद्य परस्परम्।
परस्परवधे यत्नं चक्रतुः सुमहारथौ ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने दूसरा धनुष हाथमें लेकर सुषेणके साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। वे दोनों महारथी वीर बाणोंकी वर्षाद्वारा एक-दूसरेसे टक्कर लेकर परस्पर वधके लिये प्रयत्न करने लगे॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुषेणस्तु ततः क्रुद्धः पाण्डवं विशिखैस्त्रिभिः।
सुतसोमं तु विंशत्या बाह्वोरुरसि चार्पयत् ॥ ४७ ॥
मूलम्
सुषेणस्तु ततः क्रुद्धः पाण्डवं विशिखैस्त्रिभिः।
सुतसोमं तु विंशत्या बाह्वोरुरसि चार्पयत् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सुषेणने कुपित होकर तीन बाणोंसे पाण्डुपुत्र नकुलको बींध डाला और सुतसोमकी दोनों भुजाओं एवं छातीमें बीस बाण मारे॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो महाराज नकुलः परवीरहा।
शरैस्तस्य दिशः सर्वाश्छादयामास वीर्यवान् ॥ ४८ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धो महाराज नकुलः परवीरहा।
शरैस्तस्य दिशः सर्वाश्छादयामास वीर्यवान् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तत्पश्चात् शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पराक्रमी नकुलने कुपित हो बाणोंकी वर्षासे सुषेणकी सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित कर दिया॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गृहीत्वा तीक्ष्णाग्रमर्धचन्द्रं सुतेजनम्।
सुवेगवन्तं चिक्षेप कर्णपुत्राय संयुगे ॥ ४९ ॥
मूलम्
ततो गृहीत्वा तीक्ष्णाग्रमर्धचन्द्रं सुतेजनम्।
सुवेगवन्तं चिक्षेप कर्णपुत्राय संयुगे ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद तीखी धारवाले एक अत्यन्त तेज और वेगशाली अर्धचन्द्राकार बाण लेकर उसे समरांगणमें कर्णपुत्रपर चला दिया॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तेन शिरः कायाज्जहार नृपसत्तम।
पश्यतां सर्वसैन्यानां तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ५० ॥
मूलम्
तस्य तेन शिरः कायाज्जहार नृपसत्तम।
पश्यतां सर्वसैन्यानां तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! उस बाणसे नकुलने सम्पूर्ण सेनाओंके देखते-देखते सुषेणका मस्तक धड़से काट गिराया। वह अद्भुत-सी घटना हुई॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हतः प्रापतद् राजन् नकुलेन महात्मना।
नदीवेगादिवारुग्णस्तीरजः पादपो महान् ॥ ५१ ॥
मूलम्
स हतः प्रापतद् राजन् नकुलेन महात्मना।
नदीवेगादिवारुग्णस्तीरजः पादपो महान् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामनस्वी नकुलके हाथसे मारा जाकर सुषेण पृथ्वीपर गिर पड़ा, मानो नदीके वेगसे कटकर महान् तटवर्ती वृक्ष धराशायी हो गया हो॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णपुत्रवधं दृष्ट्वा नकुलस्य च विक्रमम्।
प्रदुद्राव भयात् सेना तावकी भरतर्षभ ॥ ५२ ॥
मूलम्
कर्णपुत्रवधं दृष्ट्वा नकुलस्य च विक्रमम्।
प्रदुद्राव भयात् सेना तावकी भरतर्षभ ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! कर्णपुत्रोंका वध और नकुलका पराक्रम देखकर आपकी सेना भयसे भाग चली॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तु सेनां महाराज मद्रराजः प्रतापवान्।
अपालयद् रणे शूरः सेनापतिररिंदमः ॥ ५३ ॥
मूलम्
तां तु सेनां महाराज मद्रराजः प्रतापवान्।
अपालयद् रणे शूरः सेनापतिररिंदमः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय रणभूमिमें शत्रुओंका दमन करनेवाले वीर सेनापति प्रतापी मद्रराज शल्यने आपकी उस सेनाका संरक्षण किया॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीस्तस्थौ महाराज व्यवस्थाप्य च वाहिनीम्।
सिंहनादं भृशं कृत्वा धनुःशब्दं च दारुणम् ॥ ५४ ॥
मूलम्
विभीस्तस्थौ महाराज व्यवस्थाप्य च वाहिनीम्।
सिंहनादं भृशं कृत्वा धनुःशब्दं च दारुणम् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाधिराज! वे जोर-जोरसे सिंहनाद और धनुषकी भयंकर टंकार करके कौरव-सेनाको स्थिर रखते हुए रणभूमिमें निर्भय खड़े थे॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावकाः समरे राजन् रक्षिता दृढधन्वना।
प्रत्युद्ययुररातींस्तु समन्ताद् विगतव्यथाः ॥ ५५ ॥
मूलम्
तावकाः समरे राजन् रक्षिता दृढधन्वना।
प्रत्युद्ययुररातींस्तु समन्ताद् विगतव्यथाः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले राजा शल्यसे सुरक्षित हो व्यथाशून्य हुए आपके सैनिक समरमें सब ओरसे शत्रुओंकी ओर बढ़ने लगे॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्रराजं महेष्वासं परिवार्य समन्ततः।
स्थिता राजन् महासेना योद्धुकामा समन्ततः ॥ ५६ ॥
मूलम्
मद्रराजं महेष्वासं परिवार्य समन्ततः।
स्थिता राजन् महासेना योद्धुकामा समन्ततः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! आपकी विशाल सेना महाधनुर्धर मद्रराज शल्यको चारों ओरसे घेरकर शत्रुओंके साथ युद्धके लिये खड़ी हो गयी॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिर्भीमसेनश्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
युधिष्ठिरं पुरस्कृत्य ह्रीनिषेवमरिंदमम् ॥ ५७ ॥
मूलम्
सात्यकिर्भीमसेनश्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
युधिष्ठिरं पुरस्कृत्य ह्रीनिषेवमरिंदमम् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधरसे सात्यकि, भीमसेन तथा माद्रीकुमार पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेव शत्रुदमन एवं लज्जाशील युधिष्ठिरको आगे करके चढ़ आये॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिवार्य रणे वीराः सिंहनादं प्रचक्रिरे।
बाणशङ्खरवांस्तीव्रान् क्ष्वेडाश्च विविधा दधुः ॥ ५८ ॥
मूलम्
परिवार्य रणे वीराः सिंहनादं प्रचक्रिरे।
बाणशङ्खरवांस्तीव्रान् क्ष्वेडाश्च विविधा दधुः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें वे सभी वीर युधिष्ठिरको बीचमें करके सिंहनाद करने, बाणों और शंखोंकी तीव्र ध्वनि फैलाने तथा भाँति-भाँतिसे गर्जना करने लगे॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव तावकाः सर्वे मद्राधिपतिमञ्जसा।
परिवार्य सुसंरब्धाः पुनर्युद्धमरोचयन् ॥ ५९ ॥
मूलम्
तथैव तावकाः सर्वे मद्राधिपतिमञ्जसा।
परिवार्य सुसंरब्धाः पुनर्युद्धमरोचयन् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार आपके समस्त सैनिक मद्रराजको चारों ओरसे घेरकर रोष और आवेशसे युक्त हो पुनः युद्धमें ही रुचि दिखाने लगे॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रववृते युद्धं भीरूणां भयवर्धनम्।
तावकानां परेषां च मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् ॥ ६० ॥
मूलम्
ततः प्रववृते युद्धं भीरूणां भयवर्धनम्।
तावकानां परेषां च मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मृत्युको ही युद्धसे निवृत्तिका निमित्त बनाकर आपके और शत्रुपक्षके योद्धाओंमें घोर युद्ध आरम्भ हो गया, जो कायरोंका भय बढ़ानेवाला था॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा देवासुरं युद्धं पूर्वमासीद् विशाम्पते।
अभीतानां तथा राजन् यमराष्ट्रविवर्धनम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
यथा देवासुरं युद्धं पूर्वमासीद् विशाम्पते।
अभीतानां तथा राजन् यमराष्ट्रविवर्धनम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! प्रजानाथ! जैसे पूर्वकालमें देवताओं और असुरोंका युद्ध हुआ था, उसी प्रकार भयशून्य कौरवों और पाण्डवोंमें यमराजके राज्यकी वृद्धि करनेवाला भयंकर संग्राम होने लगा॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कपिध्वजो राजन् हत्वा संशप्तकान् रणे।
अभ्यद्रवत तां सेनां कौरवीं पाण्डुनन्दनः ॥ ६२ ॥
मूलम्
ततः कपिध्वजो राजन् हत्वा संशप्तकान् रणे।
अभ्यद्रवत तां सेनां कौरवीं पाण्डुनन्दनः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तदनन्तर पाण्डुनन्दन कपिध्वज अर्जुनने भी संशप्तकोंका संहार करके रणभूमिमें उस कौरवसेनापर आक्रमण किया॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव पाण्डवाः सर्वे धृष्टद्युम्नपुरोगमाः।
अभ्यधावन्त तां सेनां विसृजन्तः शितान् शरान् ॥ ६३ ॥
मूलम्
तथैव पाण्डवाः सर्वे धृष्टद्युम्नपुरोगमाः।
अभ्यधावन्त तां सेनां विसृजन्तः शितान् शरान् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार धृष्टद्युम्न आदि समस्त पाण्डववीर पैने बाणोंकी वर्षा करते हुए आपकी उस सेनापर चढ़ आये॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवैरवकीर्णानां सम्मोहः समजायत ।
न च जज्ञुस्त्वनीकानि दिशो वा विदिशस्तथा ॥ ६४ ॥
मूलम्
पाण्डवैरवकीर्णानां सम्मोहः समजायत ।
न च जज्ञुस्त्वनीकानि दिशो वा विदिशस्तथा ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंके बाणोंसे आच्छादित हुए कौरव-योद्धाओंपर मोह छा गया। उन्हें दिशाओं अथवा विदिशाओंका भी ज्ञान न रहा॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपूर्यमाणा निशितैः शरैः पाण्डवचोदितैः।
हतप्रवीरा विध्वस्ता वार्यमाणा समन्ततः ॥ ६५ ॥
मूलम्
आपूर्यमाणा निशितैः शरैः पाण्डवचोदितैः।
हतप्रवीरा विध्वस्ता वार्यमाणा समन्ततः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंके चलाये हुए पैने बाणोंसे व्याप्त हो कौरवसेनाके मुख्य-मुख्य वीर मारे गये। वह सेना नष्ट होने लगी और चारों ओरसे उसकी गति अवरुद्ध हो गयी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौरव्यवध्यत चमूः पाण्डुपुत्रैर्महारथैः ।
तथैव पाण्डवं सैन्यं शरै राजन् समन्ततः ॥ ६६ ॥
रणेऽहन्यत पुत्रैस्ते शतशोऽथ सहस्रशः।
मूलम्
कौरव्यवध्यत चमूः पाण्डुपुत्रैर्महारथैः ।
तथैव पाण्डवं सैन्यं शरै राजन् समन्ततः ॥ ६६ ॥
रणेऽहन्यत पुत्रैस्ते शतशोऽथ सहस्रशः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! महारथी पाण्डुपुत्र कौरव-सेनाका वध करने लगे। इसी प्रकार आपके पुत्र भी पाण्डव-सेनाके सैकड़ों, हजारों वीरोंका समरांगणमें सब ओरसे अपने बाणोंद्वारा संहार करने लगे॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सेने भृशसंतप्ते वध्यमाने परस्परम् ॥ ६७ ॥
व्याकुले समपद्येतां वर्षासु सरिताविव।
मूलम्
ते सेने भृशसंतप्ते वध्यमाने परस्परम् ॥ ६७ ॥
व्याकुले समपद्येतां वर्षासु सरिताविव।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वर्षाकालमें दो नदियाँ एक-दूसरीके जलसे भरकर व्याकुल-सी हो उठती हैं, उसी प्रकार आपसकी मार खाती हुई वे दोनों सेनाएँ अत्यन्त संतप्त हो उठीं॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आविवेश ततस्तीव्रं तावकानां महद् भयम्।
पाण्डवानां च राजेन्द्र तथाभूते महाहवे ॥ ६८ ॥
मूलम्
आविवेश ततस्तीव्रं तावकानां महद् भयम्।
पाण्डवानां च राजेन्द्र तथाभूते महाहवे ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उस अवस्थामें उस महासमरमें खड़े हुए आपके और पाण्डवयोद्धाओंके मनमें भी दुःसह एवं भारी भय समा गया॥६८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि संकुलयुद्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वमें संकुलयुद्धविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०॥