भागसूचना
नवमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
उभय पक्षकी सेनाओंका घमासान युद्ध और कौरव-सेनाका पलायन
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रववृते युद्धं कुरूणां भयवर्धनम्।
सृञ्जयैः सह राजेन्द्र घोरं देवासुरोपमम् ॥ १ ॥
मूलम्
ततः प्रववृते युद्धं कुरूणां भयवर्धनम्।
सृञ्जयैः सह राजेन्द्र घोरं देवासुरोपमम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजेन्द्र! तदनन्तर कौरवोंका सृंजयोंके साथ घोर युद्ध आरम्भ हो गया, जो देवासुर-संग्रामके समान भय बढ़ानेवाला था॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरा रथा गजौघाश्च सादिनश्च सहस्रशः।
वाजिनश्च पराक्रान्ताः समाजग्मुः परस्परम् ॥ २ ॥
मूलम्
नरा रथा गजौघाश्च सादिनश्च सहस्रशः।
वाजिनश्च पराक्रान्ताः समाजग्मुः परस्परम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पैदल, रथी, हाथीसवार तथा सहस्रों घुड़सवार पराक्रम दिखाते हुए एक-दूसरेसे भिड़ गये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजानां भीमरूपाणां द्रवतां निःस्वनो महान्।
अश्रूयत यथा काले जलदानां नभस्तले ॥ ३ ॥
मूलम्
गजानां भीमरूपाणां द्रवतां निःस्वनो महान्।
अश्रूयत यथा काले जलदानां नभस्तले ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वर्षाकालके आकाशमें मेघोंकी गम्भीर गर्जना होती रहती है, उसी प्रकार रणभूमिमें दौड़ लगाते हुए भीमकाय गजराजोंका महान् कोलाहल सुनायी देने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नागैरभ्याहताः केचित् सरथा रथिनोऽपतन्।
व्यद्रवन्त रणे वीरा द्राव्यमाणा मदोत्कटैः ॥ ४ ॥
मूलम्
नागैरभ्याहताः केचित् सरथा रथिनोऽपतन्।
व्यद्रवन्त रणे वीरा द्राव्यमाणा मदोत्कटैः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मदोन्मत्त हाथियोंके आघातसे कितने ही रथी रथसहित धरतीपर लोट गये। बहुत-से वीर उनसे खदेड़े जाकर इधर-उधर भागने लगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयौघान् पादरक्षांश्च रथिनस्तत्र शिक्षिताः।
शरैः सम्प्रेषयामासुः परलोकाय भारत ॥ ५ ॥
मूलम्
हयौघान् पादरक्षांश्च रथिनस्तत्र शिक्षिताः।
शरैः सम्प्रेषयामासुः परलोकाय भारत ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उस युद्धस्थलमें शिक्षाप्राप्त रथियोंने घुड़सवारों तथा पादरक्षकोंको अपने बाणोंसे मारकर यमलोक भेज दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सादिनः शिक्षिता राजन् परिवार्य महारथान्।
विचरन्तो रणेऽभ्यघ्नन् प्रासशक्त्यृष्टिभिस्तथा ॥ ६ ॥
मूलम्
सादिनः शिक्षिता राजन् परिवार्य महारथान्।
विचरन्तो रणेऽभ्यघ्नन् प्रासशक्त्यृष्टिभिस्तथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! रणभूमिमें विचरते हुए बहुत-से सुशिक्षित घुड़सवार बड़े-बड़े रथोंको घेरकर उनपर प्रास, शक्ति तथा ऋष्टियोंका प्रहार करने लगे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्विनः पुरुषाः केचित् परिवार्य महारथान्।
एकं बहव आसाद्य प्रययुर्यमसादनम् ॥ ७ ॥
मूलम्
धन्विनः पुरुषाः केचित् परिवार्य महारथान्।
एकं बहव आसाद्य प्रययुर्यमसादनम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही धनुर्धर पुरुष महारथियोंको घेर लेते और एक-एकपर बहुत-से योद्धा आक्रमण करके उसे यमलोक पहुँचा देते थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नागान् रथवरांश्चान्ये परिवार्य महारथाः।
सान्तरायोधिनं जघ्नुर्द्रवमाणं महारथम् ॥ ८ ॥
मूलम्
नागान् रथवरांश्चान्ये परिवार्य महारथाः।
सान्तरायोधिनं जघ्नुर्द्रवमाणं महारथम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्य महारथी कितने ही हाथियों और श्रेष्ठ रथियोंको घेर लेते और किसीकी ओटमें युद्ध करनेवाले भागते हुए महारथीको मार डालते थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च रथिनं क्रुद्धं विकिरन्तं शरान् बहून्।
नागा जघ्नुर्महाराज परिवार्य समन्ततः ॥ ९ ॥
मूलम्
तथा च रथिनं क्रुद्धं विकिरन्तं शरान् बहून्।
नागा जघ्नुर्महाराज परिवार्य समन्ततः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कई हाथियोंने क्रोधपूर्वक बहुत-से बाणोंकी वर्षा करनेवाले किसी रथीको सब ओरसे घेरकर मार डाला॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नागो नागमभिद्रुत्य रथी च रथिनं रणे।
शक्तितोमरनाराचैर्निजघ्ने तत्र भारत ॥ १० ॥
मूलम्
नागो नागमभिद्रुत्य रथी च रथिनं रणे।
शक्तितोमरनाराचैर्निजघ्ने तत्र भारत ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! वहाँ रणभूमिमें एक हाथीसवार दूसरे हाथीसवारपर और एक रथी दूसरे रथीपर आक्रमण करके शक्ति, तोमर और नाराचोंकी मारसे उसे यमलोक पहुँचा देता था॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादातानवमृद्नन्तो रथवारणवाजिनः ।
रणमध्ये व्यदृश्यन्त कुर्वन्तो महदाकुलम् ॥ ११ ॥
मूलम्
पादातानवमृद्नन्तो रथवारणवाजिनः ।
रणमध्ये व्यदृश्यन्त कुर्वन्तो महदाकुलम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणके बीच बहुत-से रथ, हाथी और घोड़े पैदल योद्धाओंको कुचलते तथा सबको अत्यन्त व्याकुल करते हुए दृष्टिगोचर होते थे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयाश्च पर्यधावन्त चामरैरुपशोभिताः ।
हंसा हिमवतः प्रस्थे पिबन्त इव मेदिनीम् ॥ १२ ॥
मूलम्
हयाश्च पर्यधावन्त चामरैरुपशोभिताः ।
हंसा हिमवतः प्रस्थे पिबन्त इव मेदिनीम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे हिमालयके शिखरकी चौरस भूमिपर रहनेवाले हंस नीचे पृथ्वीपर जल पीनेके लिये तीव्र गतिसे उड़ते हुए जाते हैं, उसी प्रकार चामरशोभित अश्व वहाँ सब ओर बड़े वेगसे दौड़ लगा रहे थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तु वाजिनां भूमिः खुरैश्चित्रा विशाम्पते।
अशोभत यथा नारी करजैः क्षतविक्षता ॥ १३ ॥
मूलम्
तेषां तु वाजिनां भूमिः खुरैश्चित्रा विशाम्पते।
अशोभत यथा नारी करजैः क्षतविक्षता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! उन घोड़ोंकी टापोंसे खुदी हुई भूमि प्रियतमके नखोंसे क्षत-विक्षत हुई नारीके समान विचित्र शोभा धारण करती थी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाजिनां खुरशब्देन रथनेमिस्वनेन च।
पत्तीनां चापि शब्देन नागानां बृंहितेन च ॥ १४ ॥
वादित्राणां च घोषेण शङ्खानां निनदेन च।
अभवन्नादिता भूमिर्निर्घातैरिव भारत ॥ १५ ॥
मूलम्
वाजिनां खुरशब्देन रथनेमिस्वनेन च।
पत्तीनां चापि शब्देन नागानां बृंहितेन च ॥ १४ ॥
वादित्राणां च घोषेण शङ्खानां निनदेन च।
अभवन्नादिता भूमिर्निर्घातैरिव भारत ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! घोड़ोंकी टापोंके शब्द, रथके पहियोंकी घर्घराहट, पैदल योद्धाओंके कोलाहल, हाथियोंकी गर्जना तथा वाद्योंके गम्भीर घोष और शंखोंकी ध्वनिसे प्रतिध्वनित हुई यह पृथ्वी वज्रपातकी आवाजसे गूँजती हुई-सी प्रतीत होती थी॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुषां कूजमानानां शस्त्रौघानां च दीप्यताम्।
कवचानां प्रभाभिश्च न प्राज्ञायत किञ्चन ॥ १६ ॥
मूलम्
धनुषां कूजमानानां शस्त्रौघानां च दीप्यताम्।
कवचानां प्रभाभिश्च न प्राज्ञायत किञ्चन ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
टंकारते हुए धनुष, दमकते हुए अस्त्र-शस्त्रोंके समुदाय तथा कवचोंकी प्रभासे चकाचौंधके कारण कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहवो बाहवश्छिन्ना नागराजकरोपमाः ।
उद्वेष्टन्ते विचेष्टन्ते वेगं कुर्वन्ति दारुणम् ॥ १७ ॥
मूलम्
बहवो बाहवश्छिन्ना नागराजकरोपमाः ।
उद्वेष्टन्ते विचेष्टन्ते वेगं कुर्वन्ति दारुणम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथीकी सूँड़के समान बहुत-सी भुजाएँ कटकर धरती-पर उछलती, लोटती और भयंकर वेग प्रकट करती थीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरसां च महाराज पततां धरणीतले।
च्युतानामिव तालेभ्यस्तालानां श्रूयते स्वनः ॥ १८ ॥
मूलम्
शिरसां च महाराज पततां धरणीतले।
च्युतानामिव तालेभ्यस्तालानां श्रूयते स्वनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! पृथ्वीपर गिरते हुए मस्तकोंका शब्द, ताड़के वृक्षोंसे चूकर गिरे हुए फलोंके धमाकेकी आवाजके समान सुनायी देता था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरोभिः पतितैर्भाति रुधिरार्द्रैर्वसुन्धरा ।
तपनीयनिभैः काले नलिनैरिव भारत ॥ १९ ॥
मूलम्
शिरोभिः पतितैर्भाति रुधिरार्द्रैर्वसुन्धरा ।
तपनीयनिभैः काले नलिनैरिव भारत ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! गिरे हुए रक्तरंजित मस्तकोंसे इस पृथ्वीकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो वहाँ सुवर्णमय कमल बिछाये गये हों॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्वृत्तनयनैस्तैस्तु गतसत्त्वैः सुविक्षतैः ।
व्यभ्राजत मही राजन् पुण्डरीकैरिवावृता ॥ २० ॥
मूलम्
उद्वृत्तनयनैस्तैस्तु गतसत्त्वैः सुविक्षतैः ।
व्यभ्राजत मही राजन् पुण्डरीकैरिवावृता ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! खुले नेत्रोंवाले प्राणशून्य घायल मस्तकोंसे ढकी हुई पृथ्वी लाल कमलोंसे आच्छादित हुई-सी शोभा पाती थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहुभिश्चन्दनादिग्धैः सकेयूरैर्महाधनैः ।
पतितैर्भाति राजेन्द्र महाशक्रध्वजैरिव ॥ २१ ॥
मूलम्
बाहुभिश्चन्दनादिग्धैः सकेयूरैर्महाधनैः ।
पतितैर्भाति राजेन्द्र महाशक्रध्वजैरिव ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! बाजूबंद तथा दूसरे बहुमूल्य आभूषणोंसे विभूषित, चन्दनचर्चित भुजाएँ कटकर पृथ्वीपर गिरी थीं, जो महान् इन्द्रध्वजके समान जान पड़ती थीं। उनके द्वारा रणभूमिकी अपूर्व शोभा हो रही थी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊरुभिश्च नरेन्द्राणां विनिकृत्तैर्महाहवे ।
हस्तिहस्तोपमैरन्यैः संवृतं तद् रणाङ्गणम् ॥ २२ ॥
मूलम्
ऊरुभिश्च नरेन्द्राणां विनिकृत्तैर्महाहवे ।
हस्तिहस्तोपमैरन्यैः संवृतं तद् रणाङ्गणम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महासमरमें कटी हुई नरेशोंकी जाँघें हाथीकी सूँड़ोंके समान प्रतीत होती थीं। उनके द्वारा वह सारा समरांगण पट गया था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबन्धशतसंकीर्णं छत्रचामरसंकुलम् ।
सेनावनं तच्छुशुभे वनं पुष्पाचितं यथा ॥ २३ ॥
मूलम्
कबन्धशतसंकीर्णं छत्रचामरसंकुलम् ।
सेनावनं तच्छुशुभे वनं पुष्पाचितं यथा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सैकड़ों कबन्ध सब ओर बिखरे पड़े थे। छत्र और चँवर भरे हुए थे। उन सबसे वह सेनारूपी वन फूलोंसे व्याप्त हुए विशाल विपिनके समान सुशोभित होता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र योधा महाराज विचरन्तो ह्यभीतवत्।
दृश्यन्ते रुधिराक्ताङ्गाः पुष्पिता इव किंशुकाः ॥ २४ ॥
मूलम्
तत्र योधा महाराज विचरन्तो ह्यभीतवत्।
दृश्यन्ते रुधिराक्ताङ्गाः पुष्पिता इव किंशुकाः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वहाँ खूनसे लथपथ शरीर लेकर निर्भय-से विचरनेवाले योद्धा फूले हुए पलाशवृक्षोंके समान दिखायी देते थे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातङ्गाश्चाप्यदृश्यन्त शरतोमरपीडिताः ।
पतन्तस्तत्र तत्रैव छिन्नाभ्रसदृशा रणे ॥ २५ ॥
मूलम्
मातङ्गाश्चाप्यदृश्यन्त शरतोमरपीडिताः ।
पतन्तस्तत्र तत्रैव छिन्नाभ्रसदृशा रणे ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें बाणों और तोमरोंकी मारसे पीड़ित हो जहाँ-तहाँ गिरते हुए मतवाले हाथी भी कटे हुए बादलोंके समान दिखायी देते थे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजानीकं महाराज वध्यमानं महात्मभिः।
व्यदीर्यत दिशः सर्वा वातनुन्ना घना इव ॥ २६ ॥
मूलम्
गजानीकं महाराज वध्यमानं महात्मभिः।
व्यदीर्यत दिशः सर्वा वातनुन्ना घना इव ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वायुके वेगसे छिन्न-भिन्न हुए बादलोंके समान महामनस्वी वीरोंके बाणोंसे घायल हुई गजसेना सम्पूर्ण दिशाओंमें विदीर्ण हो रही थी॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते गजा घनसंकाशाः पेतुरुर्व्यां समन्ततः।
वज्रनुन्ना इव बभुः पर्वता युगसंक्षये ॥ २७ ॥
मूलम्
ते गजा घनसंकाशाः पेतुरुर्व्यां समन्ततः।
वज्रनुन्ना इव बभुः पर्वता युगसंक्षये ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेघोंकी घटाके समान प्रतीत होनेवाले हाथी चारों ओरसे पृथ्वीपर पड़े थे, जो प्रलयकालमें वज्रके आघातसे विदीर्ण होकर गिरे हुए पर्वतोंके समान प्रतीत होते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयानां सादिभिः सार्धं पतितानां महीतले।
राशयः स्म प्रदृश्यन्ते गिरिमात्रास्ततस्ततः ॥ २८ ॥
मूलम्
हयानां सादिभिः सार्धं पतितानां महीतले।
राशयः स्म प्रदृश्यन्ते गिरिमात्रास्ततस्ततः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सवारोंसहित धरतीपर गिरे हुए घोड़ोंके पहाड़ों-जैसे ढेर यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते थे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संजज्ञे रणभूमौ तु परलोकवहा नदी।
शोणितोदा रथावर्ता ध्वजवृक्षास्थिशर्करा ॥ २९ ॥
भुजनक्रा धनुःस्रोता हस्तिशैला हयोपला।
मेदोमज्जाकर्दमिनी छत्रहंसा गदोडुपा ॥ ३० ॥
कवचोष्णीषसंछन्ना पताकारुचिरद्रुमा ।
चक्रचक्रावलीजुष्टा त्रिवेणूरगसंवृता ॥ ३१ ॥
मूलम्
संजज्ञे रणभूमौ तु परलोकवहा नदी।
शोणितोदा रथावर्ता ध्वजवृक्षास्थिशर्करा ॥ २९ ॥
भुजनक्रा धनुःस्रोता हस्तिशैला हयोपला।
मेदोमज्जाकर्दमिनी छत्रहंसा गदोडुपा ॥ ३० ॥
कवचोष्णीषसंछन्ना पताकारुचिरद्रुमा ।
चक्रचक्रावलीजुष्टा त्रिवेणूरगसंवृता ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय रणभूमिमें एक रक्तकी नदी बह चली, जो परलोककी ओर प्रवाहित होनेवाली थी। रक्त ही उसका जल था, रथ भँवरके समान प्रतीत होते थे, ध्वज तटवर्ती वृक्षके समान जान पड़ते थे, हड्डियाँ कंकड़-पत्थरोंका भ्रम उत्पन्न करती थीं, कटी हुई भुजाएँ नाकोंके समान दिखायी देती थीं, धनुष उसके स्रोत थे, हाथी पार्श्ववर्ती पर्वत और घोड़े प्रस्तर-खण्डके तुल्य थे, मेदा और मज्जा ये ही उसके पंक थे, छत्र हंस थे, गदाएँ नौका जान पड़ती थीं, कवच और पगड़ी आदि वस्तुएँ सेवारके समान उस नदीके जलको आच्छादित किये हुए थीं, पताकाएँ सुन्दर वृक्ष-सी दिखायी देती थीं, चक्र (पहिये) चक्रवाकोंके समूहकी भाँति उस नदीका सेवन करते थे और त्रिवेणुरूपी सर्प उसमें भरे हुए थे॥२९—३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूराणां हर्षजननी भीरूणां भयवर्धनी।
प्रावर्तत नदी रौद्रा कुरुसृञ्जयसंकुला ॥ ३२ ॥
मूलम्
शूराणां हर्षजननी भीरूणां भयवर्धनी।
प्रावर्तत नदी रौद्रा कुरुसृञ्जयसंकुला ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह भयंकर नदी शूरवीरोंके लिये हर्षजनक तथा कायरोंके लिये भय बढ़ानेवाली थी। कौरवों और सृंजयोंके समुदायसे वह व्याप्त हो रही थी॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां नदीं परलोकाय वहन्तीमतिभैरवाम्।
तेरुर्वाहननौभिस्तैः शूराः परिघबाहवः ॥ ३३ ॥
मूलम्
तां नदीं परलोकाय वहन्तीमतिभैरवाम्।
तेरुर्वाहननौभिस्तैः शूराः परिघबाहवः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परलोककी ओर ले जानेवाली उस अत्यन्त भयंकर नदीको परिघ-जैसी मोटी भुजाओंवाले शूरवीर योद्धा अपने-अपने वाहनरूपी नौकाओंद्वारा पार करते थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमाने तदा युद्धे निर्मर्यादे विशाम्पते।
चतुरङ्गक्षये घोरे पूर्वदेवासुरोपमे ॥ ३४ ॥
व्याक्रोशन् बान्धवानन्ये तत्र तत्र परंतप।
कोशद्भिर्दयितैरन्ये भयार्ता न निवर्तिरे ॥ ३५ ॥
मूलम्
वर्तमाने तदा युद्धे निर्मर्यादे विशाम्पते।
चतुरङ्गक्षये घोरे पूर्वदेवासुरोपमे ॥ ३४ ॥
व्याक्रोशन् बान्धवानन्ये तत्र तत्र परंतप।
कोशद्भिर्दयितैरन्ये भयार्ता न निवर्तिरे ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! परंतप! प्राचीन देवासुर-संग्रामके समान चतुरंगिणी सेनाका विनाश करनेवाला वह मर्यादाशून्य घोर युद्ध जब चलने लगा; तब भयसे पीड़ित हुए कितने ही सैनिक अपने बन्धु-बान्धवोंको पुकारने लगे और बहुत-से योद्धा प्रियजनोंके पुकारनेपर भी पीछे नहीं लौटते थे॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्मर्यादे तथा युद्धे वर्तमाने भयानके।
अर्जुनो भीमसेनश्च मोहयांचक्रतुः परान् ॥ ३६ ॥
मूलम्
निर्मर्यादे तथा युद्धे वर्तमाने भयानके।
अर्जुनो भीमसेनश्च मोहयांचक्रतुः परान् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वह भयानक युद्ध सारी मर्यादाको तोड़कर चल रहा था। उस समय अर्जुन और भीमसेनने शत्रुओंको मूर्च्छित कर दिया था॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा वध्यमाना महती सेना तव नराधिप।
अमुह्यत् तत्र तत्रैव योषिन्मदवशादिव ॥ ३७ ॥
मूलम्
सा वध्यमाना महती सेना तव नराधिप।
अमुह्यत् तत्र तत्रैव योषिन्मदवशादिव ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उनकी मार पड़नेसे आपकी विशाल सेना मदमत्त युवतीकी भाँति जहाँ-की-तहाँ बेहोश हो गयी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहयित्वा च तां सेनां भीमसेनधनंजयौ।
दध्मतुर्वारिजौ तत्र सिंहनादांश्च चक्रतुः ॥ ३८ ॥
मूलम्
मोहयित्वा च तां सेनां भीमसेनधनंजयौ।
दध्मतुर्वारिजौ तत्र सिंहनादांश्च चक्रतुः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस कौरव-सेनाको मूर्च्छित करके भीमसेन और अर्जुन शंख बजाने तथा सिंहनाद करने लगे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैव तु महाशब्दं धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ।
धर्मराजं पुरस्कृत्य मद्रराजमभिद्रुतौ ॥ ३९ ॥
मूलम्
श्रुत्वैव तु महाशब्दं धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ।
धर्मराजं पुरस्कृत्य मद्रराजमभिद्रुतौ ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महान् शब्दको सुनते ही धृष्टद्युम्न और शिखण्डीने धर्मराज युधिष्ठिरको आगे करके मद्रराज शल्यपर धावा कर दिया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राश्चर्यमपश्याम घोररूपं विशाम्पते ।
शल्येन सङ्गताः शूरा यदयुध्यन्त भागशः ॥ ४० ॥
मूलम्
तत्राश्चर्यमपश्याम घोररूपं विशाम्पते ।
शल्येन सङ्गताः शूरा यदयुध्यन्त भागशः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! वहाँ हमने यह भयंकर आश्चर्यकी बात देखी कि पृथक्-पृथक् दल बनाकर आये हुए सभी शूरवीर अकेले शल्यके साथ ही जूझते रहे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माद्रीपुत्रौ तु रभसौ कृतास्त्रौ युद्धदुर्मदौ।
अभ्ययातां त्वरायुक्तौ जिगीषन्तौ परंतप ॥ ४१ ॥
मूलम्
माद्रीपुत्रौ तु रभसौ कृतास्त्रौ युद्धदुर्मदौ।
अभ्ययातां त्वरायुक्तौ जिगीषन्तौ परंतप ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! अस्त्रोंके ज्ञाता, रणदुर्मद और वेगशाली वीर माद्रीकुमार नकुल-सहदेव विजयकी अभिलाषा लेकर बड़ी उतावलीके साथ राजा शल्यपर चढ़ आये॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो न्यवर्तत बलं तावकं भरतर्षभ।
शरैः प्रणुन्नं बहुधा पाण्डवैर्जितकाशिभिः ॥ ४२ ॥
मूलम्
ततो न्यवर्तत बलं तावकं भरतर्षभ।
शरैः प्रणुन्नं बहुधा पाण्डवैर्जितकाशिभिः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! विजयसे उल्लसित होनेवाले पाण्डवोंने अपने बाणोंकी मारसे आपकी सेनाको बारंबार घायल किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वध्यमाना चमूः सा तु पुत्राणां प्रेक्षतां तव।
भेजे दिशो महाराज प्रणुन्ना शरवृष्टिभिः ॥ ४३ ॥
मूलम्
वध्यमाना चमूः सा तु पुत्राणां प्रेक्षतां तव।
भेजे दिशो महाराज प्रणुन्ना शरवृष्टिभिः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इस प्रकार चोट सहती हुई वह सेना बाणोंकी वर्षासे क्षत-विक्षत हो आपके पुत्रोंके देखते-देखते सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग चली॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहाकारो महाञ्जज्ञे योधानां तव भारत।
तिष्ठ तिष्ठेति चाप्यासीद् द्रावितानां महात्मनाम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
हाहाकारो महाञ्जज्ञे योधानां तव भारत।
तिष्ठ तिष्ठेति चाप्यासीद् द्रावितानां महात्मनाम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! वहाँ आपके योद्धाओंमें महान् हाहाकार मच गया। भागे हुए योद्धाओंके पीछे महामनस्वी पाण्डव वीरोंकी ‘ठहरो, ठहरो’ की आवाज सुनायी देने लगी॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियाणां तदान्योन्यं संयुगे जयमिच्छताम्।
प्राद्रवन्नेव सम्भग्नाः पाण्डवैस्तव सैनिकाः ॥ ४५ ॥
त्यक्त्वा युद्धे प्रियान् पुत्रान् भ्रातॄनथ पितामहान्।
मातुलान् भागिनेयांश्च वयस्यानपि भारत ॥ ४६ ॥
मूलम्
क्षत्रियाणां तदान्योन्यं संयुगे जयमिच्छताम्।
प्राद्रवन्नेव सम्भग्नाः पाण्डवैस्तव सैनिकाः ॥ ४५ ॥
त्यक्त्वा युद्धे प्रियान् पुत्रान् भ्रातॄनथ पितामहान्।
मातुलान् भागिनेयांश्च वयस्यानपि भारत ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! युद्धमें परस्पर विजयकी अभिलाषा रखनेवाले क्षत्रियोंमेंसे पाण्डवोंद्वारा पराजित होकर आपके सैनिक युद्धमें अपने प्यारे पुत्रों, भाइयों, पितामहों, मामाओं, भानजों और मित्रोंको भी छोड़कर भाग गये॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयान् द्विपांस्त्वरयन्तो योधा जग्मुः समन्ततः।
आत्मत्राणकृतोत्साहास्तावका भरतर्षभ ॥ ४७ ॥
मूलम्
हयान् द्विपांस्त्वरयन्तो योधा जग्मुः समन्ततः।
आत्मत्राणकृतोत्साहास्तावका भरतर्षभ ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! अपनी रक्षामात्रके लिये उत्साह रखनेवाले आपके सैनिक घोड़ों और हाथियोंको तीव्र गतिसे हाँकते हुए सब ओर भाग चले॥४७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि संकुलयुद्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वमें संकुलयुद्धविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९॥