भागसूचना
षष्ठोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनके पूछनेपर अश्वत्थामाका शल्यको सेनापति बनानेके लिये प्रस्ताव, दुर्योधनका शल्यसे अनुरोध और शल्यद्वारा उसकी स्वीकृति
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ हैमवते प्रस्थे स्थित्वा युद्धाभिनन्दिनः।
सर्व एव महायोधास्तत्र तत्र समागताः ॥ १ ॥
मूलम्
अथ हैमवते प्रस्थे स्थित्वा युद्धाभिनन्दिनः।
सर्व एव महायोधास्तत्र तत्र समागताः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! तदनन्तर हिमालयके ऊपरकी चौरस भूमिमें डेरा डालकर युद्धका अभिनन्दन करनेवाले सभी महान् योद्धा वहाँ एकत्र हुए॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शल्यश्च चित्रसेनश्च शकुनिश्च महारथः।
अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः ॥ २ ॥
सुषेणोऽरिष्टसेनश्च धृतसेनश्च वीर्यवान् ।
जयत्सेनश्च राजानस्ते रात्रिमुषितास्ततः ॥ ३ ॥
मूलम्
शल्यश्च चित्रसेनश्च शकुनिश्च महारथः।
अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः ॥ २ ॥
सुषेणोऽरिष्टसेनश्च धृतसेनश्च वीर्यवान् ।
जयत्सेनश्च राजानस्ते रात्रिमुषितास्ततः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य, चित्रसेन, महारथी शकुनि, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, सात्वतवंशी कृतवर्मा, सुषेण, अरिष्टसेन, पराक्रमी धृतसेन और जयत्सेन आदि राजाओंने वहीं रात बितायी॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रणे कर्णे हते वीरे त्रासिता जितकाशिभिः।
नालभन् शर्म ते पुत्रा हिमवन्तमृते गिरिम् ॥ ४ ॥
मूलम्
रणे कर्णे हते वीरे त्रासिता जितकाशिभिः।
नालभन् शर्म ते पुत्रा हिमवन्तमृते गिरिम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें वीर कर्णके मारे जानेपर विजयसे उल्लसित होनेवाले पाण्डवोंद्वारा डराये हुए आपके पुत्र हिमालय पर्वतके सिवा और कहीं शान्ति न पा सके॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽब्रुवन् सहितास्तत्र राजानं शल्यसंनिधौ।
कृतयत्ना रणे राजन् सम्पूज्य विधिवत्तदा ॥ ५ ॥
मूलम्
तेऽब्रुवन् सहितास्तत्र राजानं शल्यसंनिधौ।
कृतयत्ना रणे राजन् सम्पूज्य विधिवत्तदा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! संग्रामभूमिमें विजयके लिये प्रयत्न करनेवाले उन सब योद्धाओंने वहाँ एक साथ होकर शल्यके समीप राजा दुर्योधनका विधिपूर्वक सम्मान करके उससे इस प्रकार कहा—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वा सेनाप्रणेतारं परांस्त्वं योद्धुमर्हसि।
येनाभिगुप्ताः संग्रामे जयेमासुहृदो वयम् ॥ ६ ॥
मूलम्
कृत्वा सेनाप्रणेतारं परांस्त्वं योद्धुमर्हसि।
येनाभिगुप्ताः संग्रामे जयेमासुहृदो वयम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! तुम किसीको सेनापति बनाकर शत्रुओंके साथ युद्ध करो, जिससे सुरक्षित होकर हमलोग विपक्षियोंपर विजय प्राप्त करें’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनः स्थित्वा रथे रथवरोत्तमम्।
सर्वयुद्धविभावज्ञमन्तकप्रतिमं युधि ॥ ७ ॥
स्वङ्गं प्रच्छन्नशिरसं कम्बुग्रीवं प्रियंवदम्।
व्याकोशपद्मपत्राक्षं व्याघ्रास्यं मेरुगौरवम् ॥ ८ ॥
स्थाणोर्वृषस्य सदृशं स्कन्धनेत्रगतिस्वरैः ।
पुष्टश्लिष्टायतभुजं सुविस्तीर्णवरोरसम् ॥ ९ ॥
बले जवे च सदृशमरुणानुजवातयोः।
आदित्यस्यार्चिषा तुल्यं बुद्ध्या चोशनसा समम् ॥ १० ॥
कान्तिरूपमुखैश्वर्यैस्त्रिभिश्चन्द्रमसा समम् ।
काञ्चनोपलसंघातैः सदृशं श्लिष्टसंधिकम् ॥ ११ ॥
सुवृत्तोरुकटीजङ्घं सुपादं स्वङ्गुलीनखम् ।
स्मृत्वा स्मृत्वैव तु गुणान् धात्रा यत्नाद् विनिर्मितम् ॥ १२ ॥
सर्वलक्षणसम्पन्नं निपुणं श्रुतिसागरम् ।
जेतारं तरसारीणामजेयमरिभिर्बलात् ॥ १३ ॥
दशाङ्गं यश्चतुष्पादमिष्वस्त्रं वेद तत्त्वतः।
साङ्गांस्तु चतुरो वेदान् सम्यगाख्यानपञ्चमान् ॥ १४ ॥
आराध्य त्र्यम्बकं यत्नाद् व्रतैरुग्रैर्महातपाः।
अयोनिजायामुत्पन्नो द्रोणेनायोनिजेन यः ॥ १५ ॥
तमप्रतिमकर्माणं रूपेणाप्रतिमं भुवि ।
पारगं सर्वविद्यानां गुणार्णवमनिन्दितम् ॥ १६ ॥
तमभ्येत्यात्मजस्तुभ्यमश्वत्थामानमब्रवीत् ।
मूलम्
ततो दुर्योधनः स्थित्वा रथे रथवरोत्तमम्।
सर्वयुद्धविभावज्ञमन्तकप्रतिमं युधि ॥ ७ ॥
स्वङ्गं प्रच्छन्नशिरसं कम्बुग्रीवं प्रियंवदम्।
व्याकोशपद्मपत्राक्षं व्याघ्रास्यं मेरुगौरवम् ॥ ८ ॥
स्थाणोर्वृषस्य सदृशं स्कन्धनेत्रगतिस्वरैः ।
पुष्टश्लिष्टायतभुजं सुविस्तीर्णवरोरसम् ॥ ९ ॥
बले जवे च सदृशमरुणानुजवातयोः।
आदित्यस्यार्चिषा तुल्यं बुद्ध्या चोशनसा समम् ॥ १० ॥
कान्तिरूपमुखैश्वर्यैस्त्रिभिश्चन्द्रमसा समम् ।
काञ्चनोपलसंघातैः सदृशं श्लिष्टसंधिकम् ॥ ११ ॥
सुवृत्तोरुकटीजङ्घं सुपादं स्वङ्गुलीनखम् ।
स्मृत्वा स्मृत्वैव तु गुणान् धात्रा यत्नाद् विनिर्मितम् ॥ १२ ॥
सर्वलक्षणसम्पन्नं निपुणं श्रुतिसागरम् ।
जेतारं तरसारीणामजेयमरिभिर्बलात् ॥ १३ ॥
दशाङ्गं यश्चतुष्पादमिष्वस्त्रं वेद तत्त्वतः।
साङ्गांस्तु चतुरो वेदान् सम्यगाख्यानपञ्चमान् ॥ १४ ॥
आराध्य त्र्यम्बकं यत्नाद् व्रतैरुग्रैर्महातपाः।
अयोनिजायामुत्पन्नो द्रोणेनायोनिजेन यः ॥ १५ ॥
तमप्रतिमकर्माणं रूपेणाप्रतिमं भुवि ।
पारगं सर्वविद्यानां गुणार्णवमनिन्दितम् ॥ १६ ॥
तमभ्येत्यात्मजस्तुभ्यमश्वत्थामानमब्रवीत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब आपका पुत्र दुर्योधन रथपर बैठकर अश्वत्थामाके निकट गया। अश्वत्थामा महारथियोंमें श्रेष्ठ, युद्धविषयक सभी विभिन्न भावोंका ज्ञाता और युद्धमें यमराजके समान भयंकर है। उसके अंग सुन्दर हैं, मस्तक केशोंसे आच्छादित है और कण्ठ शंखके समान सुशोभित होता है। वह प्रिय वचन बोलनेवाला है। उसके नेत्र विकसित कमलदलके समान सुन्दर और मुख व्याघ्रके समान भयंकर है। उसमें मेरुपर्वतकी-सी गुरुता है। स्कन्ध, नेत्र, गति और स्वरमें वह भगवान् शंकरके वाहन वृषभके समान है। उसकी भुजाएँ पुष्ट, सुगठित एवं विशाल हैं। वक्षःस्थलका उत्तमभाग भी सुविस्तृत है। वह बल और वेगमें गरुड़ एवं वायुकी बराबरी करनेवाला है। तेजमें सूर्य और बुद्धिमें शुक्राचार्यके समान है। कान्ति, रूप तथा मुखकी शोभा—इन तीन गुणोंमें वह चन्द्रमाके तुल्य है। उसका शरीर सुवर्णमय प्रस्तरसमूहके समान सुशोभित होता है। अंगोंका जोड़ या संधिस्थान भी सुगठित है। ऊरु, कटिप्रदेश और पिण्डलियाँ—ये सुन्दर और गोल हैं। उसके दोनों चरण मनोहर हैं। अंगुलियाँ और नख भी सुन्दर हैं, मानो विधाताने उत्तम गुणोंका बारंबार स्मरण करके बड़े यत्नसे उसके अंगोंका निर्माण किया हो। वह समस्त शुभलक्षणोंसे सम्पन्न, समस्त कार्योंमें कुशल और वेदविद्याका समुद्र है। अश्वत्थामा शत्रुओंपर वेगपूर्वक विजय पानेमें समर्थ है। परंतु शत्रुओंके लिये बलपूर्वक उसके ऊपर विजय पाना असम्भव है। वह दसों1 अंगोंसे युक्त चारों2 चरणोंवाले धनुर्वेदको ठीक-ठीक जानता है। छहों अंगोंसहित चार वेदों और इतिहास-पुराण-स्वरूप पंचम वेदका भी अच्छा ज्ञाता है। महातपस्वी अश्वत्थामाको उसके पिता अयोनिज द्रोणाचार्यने बड़े यत्नसे कठोर व्रतोंद्वारा तीन नेत्रोंवाले भगवान् शंकरकी आराधना करके अयोनिजा कृपीके गर्भसे उत्पन्न किया था। उसके कर्मोंकी कहीं तुलना नहीं है। इस भूतलपर वह अनुपम रूप-सौन्दर्यसे युक्त है। सम्पूर्ण विद्याओंका पारंगत विद्वान् और गुणोंका महासागर है। उस अनिन्दित अश्वत्थामाके निकट जाकर आपके पुत्र दुर्योधनने इस प्रकार कहा—॥७—१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं पुरस्कृत्य सहिता युधि जेष्याम पाण्डवान् ॥ १७ ॥
गुरुपुत्रोऽद्य सर्वेषामस्माकं परमा गतिः।
भवांस्तस्मान्नियोगात्ते कोऽस्तु सेनापतिर्मम ॥ १८ ॥
मूलम्
यं पुरस्कृत्य सहिता युधि जेष्याम पाण्डवान् ॥ १७ ॥
गुरुपुत्रोऽद्य सर्वेषामस्माकं परमा गतिः।
भवांस्तस्मान्नियोगात्ते कोऽस्तु सेनापतिर्मम ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! तुम हमारे गुरुपुत्र हो और इस समय तुम्हीं हमारे सबसे बड़े सहारे हो। अतः मैं तुम्हारी आज्ञासे सेनापतिका निर्वाचन करना चाहता हूँ। बताओ, अब कौन मेरा सेनापति हो, जिसे आगे रखकर हम सब लोग एक साथ हो युद्धमें पाण्डवोंपर विजय प्राप्त करें?’॥१७-१८॥
मूलम् (वचनम्)
द्रौणिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं कुलेन रूपेण तेजसा यशसा श्रिया।
सर्वैर्गुणैः समुदितः शल्यो नोऽस्तु चमूपतिः ॥ १९ ॥
मूलम्
अयं कुलेन रूपेण तेजसा यशसा श्रिया।
सर्वैर्गुणैः समुदितः शल्यो नोऽस्तु चमूपतिः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामाने कहा— ये राजा शल्य उत्तम कुल, सुन्दर रूप, तेज, यश, श्री एवं समस्त सद्गुणोंसे सम्पन्न हैं, अतः ये ही हमारे सेनापति हों॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भागिनेयान् निजांस्त्यक्त्वा कृतज्ञोऽस्मानुपागतः ।
महासेनो महाबाहुर्महासेन इवापरः ॥ २० ॥
मूलम्
भागिनेयान् निजांस्त्यक्त्वा कृतज्ञोऽस्मानुपागतः ।
महासेनो महाबाहुर्महासेन इवापरः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये ऐसे कृतज्ञ हैं कि अपने सगे भानजोंको भी छोड़कर हमारे पक्षमें आ गये हैं। ये महाबाहु शल्य दूसरे महासेन (कार्तिकेय)-के समान महती सेनासे सम्पन्न हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एनं सेनापतिं कृत्वा नृपतिं नृपसत्तम।
शक्यः प्राप्तुं जयोऽस्माभिर्देवैः स्कन्दमिवाजितम् ॥ २१ ॥
मूलम्
एनं सेनापतिं कृत्वा नृपतिं नृपसत्तम।
शक्यः प्राप्तुं जयोऽस्माभिर्देवैः स्कन्दमिवाजितम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! जैसे देवताओंने किसीसे पराजित न होनेवाले स्कन्दको सेनापति बनाकर असुरोंपर विजय प्राप्त की थी, उसी प्रकार हमलोग भी इन राजा शल्यको सेनापति बनाकर शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर सकते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथोक्ते द्रोणपुत्रेण सर्व एव नराधिपाः।
परिवार्य स्थिताः शल्यं जयशब्दांश्च चक्रिरे ॥ २२ ॥
युद्धाय च मतिं चक्रुरावेशं च परं ययुः।
मूलम्
तथोक्ते द्रोणपुत्रेण सर्व एव नराधिपाः।
परिवार्य स्थिताः शल्यं जयशब्दांश्च चक्रिरे ॥ २२ ॥
युद्धाय च मतिं चक्रुरावेशं च परं ययुः।
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणपुत्रके ऐसा कहनेपर सभी नरेश राजा शल्यको घेरकर खड़े हो गये और उनकी जय-जयकार करने लगे। उन्होंने युद्धके लिये पूर्ण निश्चय कर लिया और वे अत्यन्त आवेशमें भर गये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो भूमौ स्थित्वा रथवरे स्थितम् ॥ २३ ॥
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा द्रोणभीष्मसमं रणे।
अयं स कालः सम्प्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल ॥ २४ ॥
यत्र मित्रममित्रं वा परीक्षन्ते बुधा जनाः।
मूलम्
ततो दुर्योधनो भूमौ स्थित्वा रथवरे स्थितम् ॥ २३ ॥
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा द्रोणभीष्मसमं रणे।
अयं स कालः सम्प्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल ॥ २४ ॥
यत्र मित्रममित्रं वा परीक्षन्ते बुधा जनाः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजा दुर्योधनने भूमिपर खड़ा हो रथपर बैठे हुए रणभूमिमें द्रोण और भीष्मके समान पराक्रमी राजा शल्यसे हाथ जोड़कर कहा—‘मित्रवत्सल! आज आपके मित्रोंके सामने वह समय आ गया है जब कि विद्वान् पुरुष शत्रु या मित्रकी परीक्षा करते हैं॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भवानस्तु नः शूरः प्रणेता वाहिनीमुखे ॥ २५ ॥
रणं याते च भवति पाण्डवा मन्दचेतसः।
भविष्यन्ति सहामात्याः पञ्चालाश्च निरुद्यमाः ॥ २६ ॥
मूलम्
स भवानस्तु नः शूरः प्रणेता वाहिनीमुखे ॥ २५ ॥
रणं याते च भवति पाण्डवा मन्दचेतसः।
भविष्यन्ति सहामात्याः पञ्चालाश्च निरुद्यमाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप हमारे शूरवीर सेनापति होकर सेनाके मुहानेपर खड़े हों। रणभूमिमें आपके जाते ही मन्दबुद्धि पाण्डव और पांचाल अपने मन्त्रियोंसहित उद्योगशून्य हो जायँगे’॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनवचः श्रुत्वा शल्यो मद्राधिपस्तदा।
उवाच वाक्यं वाक्यज्ञो राजानं राजसंनिधौ ॥ २७ ॥
मूलम्
दुर्योधनवचः श्रुत्वा शल्यो मद्राधिपस्तदा।
उवाच वाक्यं वाक्यज्ञो राजानं राजसंनिधौ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वचनके रहस्यको जाननेवाले मद्रदेशके स्वामी राजा शल्य दुर्योधनके वचन सुनकर समस्त राजाओंके सम्मुख राजा दुर्योधनसे यह वचन बोले॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्तु मां मन्यसे राजन् कुरुराज करोमि तत्।
त्वत्प्रियार्थं हि मे सर्वं प्राणा राज्यं धनानि च॥२८॥
मूलम्
यत्तु मां मन्यसे राजन् कुरुराज करोमि तत्।
त्वत्प्रियार्थं हि मे सर्वं प्राणा राज्यं धनानि च॥२८॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य बोले— राजन्! कुरुराज! तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, मैं उसे पूर्ण करूँगा; क्योंकि मेरे प्राण, राज्य और धन सब तुम्हारा प्रिय करनेके लिये ही हैं॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैनापत्येन वरये त्वामहं मातुलातुलम्।
सोऽस्मान् पाहि युधां श्रेष्ठ स्कन्दो देवानिवाहवे ॥ २९ ॥
मूलम्
सैनापत्येन वरये त्वामहं मातुलातुलम्।
सोऽस्मान् पाहि युधां श्रेष्ठ स्कन्दो देवानिवाहवे ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनने कहा— योद्धाओंमें श्रेष्ठ मामाजी! आप अनुपम वीर हैं। अतः मैं सेनापति-पद ग्रहण करनेके लिये आपका वरण करता हूँ। जैसे स्कन्दने युद्धस्थलमें देवताओंकी रक्षा की थी, उसी प्रकार आप हमलोगोंका पालन कीजिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिषिच्यस्व राजेन्द्र देवानामिव पावकिः।
जहि शत्रून् रणे वीर महेन्द्रो दानवानिव ॥ ३० ॥
मूलम्
अभिषिच्यस्व राजेन्द्र देवानामिव पावकिः।
जहि शत्रून् रणे वीर महेन्द्रो दानवानिव ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाधिराज! वीर! जैसे स्कन्दने देवताओंका सेनापतित्व स्वीकार किया था, उसी प्रकार आप भी हमारे सेनापतिके पदपर अपना अभिषेक कराइये तथा दानवोंका वध करनेवाले देवराज इन्द्रके समान रणभूमिमें हमारे शत्रुओंका संहार कीजिये॥३०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि शल्यदुर्योधनसंवादे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वमें शल्य और दुर्योधनका संवादविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ॥६॥