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भागसूचना

पञ्चमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनका कृपाचार्यको उत्तर देते हुए सन्धि स्वीकार न करके युद्धका ही निश्चय करना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्ततो राजा गौतमेन तपस्विना।
निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च तूष्णीमासीद् विशाम्पते ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्ततो राजा गौतमेन तपस्विना।
निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च तूष्णीमासीद् विशाम्पते ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— प्रजानाथ! तपस्वी कृपाचार्यके ऐसा कहनेपर दुर्योधन जोर-जोरसे गरम साँस खींचता हुआ कुछ देरतक चुपचाप बैठा रहा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मुहूर्तं स ध्यात्वा धार्तराष्ट्रो महामनाः।
कृपं शारद्वतं वाक्यमित्युवाच परंतपः ॥ २ ॥

मूलम्

ततो मुहूर्तं स ध्यात्वा धार्तराष्ट्रो महामनाः।
कृपं शारद्वतं वाक्यमित्युवाच परंतपः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दो घड़ीतक सोच-विचार करनेके पश्चात् शत्रुओंको संताप देनेवाले आपके उस महामनस्वी पुत्रने शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्यको इस प्रकार उत्तर दिया—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्‌ किंचित्‌ सुहृदा वाच्यं तत् सर्वं श्रावितो ह्यहम्।
कृतं च भवता सर्वं प्राणान् संत्यज्य युध्यता ॥ ३ ॥

मूलम्

यत्‌ किंचित्‌ सुहृदा वाच्यं तत् सर्वं श्रावितो ह्यहम्।
कृतं च भवता सर्वं प्राणान् संत्यज्य युध्यता ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विप्रवर! एक हितैषी सुहृद्‌को जो कुछ कहना चाहिये, वह सब आपने कह सुनाया। इतना ही नहीं, आपने प्राणोंका मोह छोड़कर युद्ध करते हुए मेरी भलाईके लिये सब कुछ किया है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाहमानमनीकानि युध्यमानं महारथैः ।
पाण्डवैरतितेजोभिर्लोकस्त्वामनुदृष्टवान् ॥ ४ ॥

मूलम्

गाहमानमनीकानि युध्यमानं महारथैः ।
पाण्डवैरतितेजोभिर्लोकस्त्वामनुदृष्टवान् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सब लोगोंने आपको शत्रुओंकी सेनाओंमें घुसते और अत्यन्त तेजस्वी महारथी पाण्डवोंके साथ युद्ध करते हुए बारंबार देखा है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुहृदा यदिदं वाक्यं भवता श्रावितो ह्यहम्।
न मां प्रीणाति तत् सर्वं मुमूर्षोरिव भेषजम् ॥ ५ ॥

मूलम्

सुहृदा यदिदं वाक्यं भवता श्रावितो ह्यहम्।
न मां प्रीणाति तत् सर्वं मुमूर्षोरिव भेषजम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप मेरे हितचिन्तक सुहृद् हैं तो भी आपने मुझे जो बात सुनायी है, वह सब मेरे मनको उसी तरह पसंद नहीं आती, जैसे मरणासन्न रोगीको दवा अच्छी नहीं लगती है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेतुकारणसंयुक्तं हितं वचनमुत्तमम् ।
उच्यमानं महाबाहो न मे विप्राग्र्य रोचते ॥ ६ ॥

मूलम्

हेतुकारणसंयुक्तं हितं वचनमुत्तमम् ।
उच्यमानं महाबाहो न मे विप्राग्र्य रोचते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! विप्रवर! आपने युक्ति और कारणोंसे सुसंगत, हितकारक एवं उत्तम बात कही है तो भी वह मुझे अच्छी नहीं लग रही है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्याद् विनिकृतोऽस्माभिः कथं सोऽस्मासु विश्वसेत्।
अक्षद्यूते च नृपतिर्जितोऽस्माभिर्महाधनः ॥ ७ ॥
स कथं मम वाक्यानि श्रद्दध्याद् भूय एव तु।

मूलम्

राज्याद् विनिकृतोऽस्माभिः कथं सोऽस्मासु विश्वसेत्।
अक्षद्यूते च नृपतिर्जितोऽस्माभिर्महाधनः ॥ ७ ॥
स कथं मम वाक्यानि श्रद्दध्याद् भूय एव तु।

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमलोगोंने राजा युधिष्ठिरके साथ छल किया है। वे महाधनी थे, हमने उन्हें जूएमें जीतकर निर्धन बना दिया। ऐसी दशामें वे हमलोगोंपर विश्वास कैसे कर सकते हैं? हमारी बातोंपर उन्हें फिर श्रद्धा कैसे हो सकती है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा दौत्येन सम्प्राप्तः कृष्णः पार्थहिते रतः ॥ ८ ॥
प्रलब्धश्च हृषीकेशस्तच्च कर्माविचारितम् ।
स च मे वचनं ब्रह्मन् कथमेवाभिमन्यते ॥ ९ ॥

मूलम्

तथा दौत्येन सम्प्राप्तः कृष्णः पार्थहिते रतः ॥ ८ ॥
प्रलब्धश्च हृषीकेशस्तच्च कर्माविचारितम् ।
स च मे वचनं ब्रह्मन् कथमेवाभिमन्यते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! पाण्डवोंके हितमें तत्पर रहनेवाले श्रीकृष्ण मेरे यहाँ दूत बनकर आये थे, किंतु मैंने उन हृषीकेशके साथ धोखा किया। मेरा वह कर्म अविचारपूर्ण था। भला, अब वे मेरी बात कैसे मानेंगे?॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विललाप च यत् कृष्णा सभामध्ये समेयुषी।
न तन्मर्षयते कृष्णो न राज्यहरणं तथा ॥ १० ॥

मूलम्

विललाप च यत् कृष्णा सभामध्ये समेयुषी।
न तन्मर्षयते कृष्णो न राज्यहरणं तथा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सभामें बलात् लायी हुई द्रौपदीने जो विलाप किया था तथा पाण्डवोंका जो राज्य छीन लिया गया था, वह बर्ताव श्रीकृष्ण सहन नहीं कर सकते॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकप्राणावुभौ कृष्णावन्योन्यमभिसंश्रितौ ।
पुरा यच्छ्रुतमेवासीदद्य पश्यामि तत् प्रभो ॥ ११ ॥

मूलम्

एकप्राणावुभौ कृष्णावन्योन्यमभिसंश्रितौ ।
पुरा यच्छ्रुतमेवासीदद्य पश्यामि तत् प्रभो ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों दो शरीर और एक प्राण हैं। वे दोनों एक-दूसरेके आश्रित हैं। पहले जो बात मैंने केवल सुन रखी थी, उसे अब प्रत्यक्ष देख रहा हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वस्रीयं निहतं श्रुत्वा दुःखं स्वपिति केशवः।
कृतागसो वयं तस्य स मदर्थं कथं क्षमेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

स्वस्रीयं निहतं श्रुत्वा दुःखं स्वपिति केशवः।
कृतागसो वयं तस्य स मदर्थं कथं क्षमेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने भानजे अभिमन्युके मारे जानेका समाचार सुनकर श्रीकृष्ण सुखकी नींद नहीं सोते हैं। हम सब लोग उनके अपराधी हैं, फिर वे हमें कैसे क्षमा कर सकते हैं?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्योर्विनाशेन न शर्म लभतेऽर्जुनः।
स कथं मद्धिते यत्नं प्रकरिष्यति याचितः ॥ १३ ॥

मूलम्

अभिमन्योर्विनाशेन न शर्म लभतेऽर्जुनः।
स कथं मद्धिते यत्नं प्रकरिष्यति याचितः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अभिमन्युके मारे जानेसे अर्जुनको भी चैन नहीं है, फिर वे प्रार्थना करनेपर भी मेरे हितके लिये कैसे यत्न करेंगे?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्यमः पाण्डवस्तीक्ष्णो भीमसेनो महाबलः।
प्रतिज्ञातं च तेनोग्रं भज्येतापि न संनमेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

मध्यमः पाण्डवस्तीक्ष्णो भीमसेनो महाबलः।
प्रतिज्ञातं च तेनोग्रं भज्येतापि न संनमेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मझले पाण्डव महाबली भीमसेनका स्वभाव बड़ा ही कठोर है। उन्होंने बड़ी भयंकर प्रतिज्ञा की है। सूखे काठकी तरह वे टूट भले ही जायँ, झुक नहीं सकते॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ तौ बद्धनिस्त्रिंशावुभौ चाबद्धकङ्कटौ।
कृतवैरावुभौ वीरौ यमावपि यमोपमौ ॥ १५ ॥

मूलम्

उभौ तौ बद्धनिस्त्रिंशावुभौ चाबद्धकङ्कटौ।
कृतवैरावुभौ वीरौ यमावपि यमोपमौ ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दोनों भाई नकुल और सहदेव तलवार बाँधे और कवच धारण किये हुए यमराजके समान भयंकर जान पड़ते हैं। वे दोनों वीर मुझसे वैर मानते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च कृतवैरौ मया सह।
तौ कथं मद्धिते यत्नं कुर्यातां द्विजसत्तम ॥ १६ ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च कृतवैरौ मया सह।
तौ कथं मद्धिते यत्नं कुर्यातां द्विजसत्तम ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्विजश्रेष्ठ! धृष्टद्युम्न और शिखण्डीने भी मेरे साथ वैर बाँध रखा है, फिर वे दोनों मेरे हितके लिये कैसे यत्न कर सकते हैं?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासनेन यत् कृष्णा एकवस्त्रा रजस्वला।
परिक्लिष्टा सभामध्ये सर्वलोकस्य पश्यतः ॥ १७ ॥
तथा विवसनां दीनां स्मरन्त्यद्यापि पाण्डवाः।

मूलम्

दुःशासनेन यत् कृष्णा एकवस्त्रा रजस्वला।
परिक्लिष्टा सभामध्ये सर्वलोकस्य पश्यतः ॥ १७ ॥
तथा विवसनां दीनां स्मरन्त्यद्यापि पाण्डवाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्रौपदी एक वस्त्र पहने हुए थी, रजस्वला थी। उस अवस्थामें जो वह भरी सभामें लायी गयी और दुःशासनने सब लोगोंके सामने जो उसे महान् क्लेश पहुँचाया, उसका जो वस्त्र उतारा गया और उसे जो दयनीय दशाको पहुँचा दिया गया, उन सब बातोंको पाण्डव आज भी याद रखते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न निवारयितुं शक्याः संग्रामात्ते परंतपाः ॥ १८ ॥
यदा च द्रौपदी क्लिष्टा मद्विनाशाय दुःखिता।
स्थण्डिले नित्यदा शेते यावद् वैरस्य यातनम् ॥ १९ ॥

मूलम्

न निवारयितुं शक्याः संग्रामात्ते परंतपाः ॥ १८ ॥
यदा च द्रौपदी क्लिष्टा मद्विनाशाय दुःखिता।
स्थण्डिले नित्यदा शेते यावद् वैरस्य यातनम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये अब उन शत्रुसंतापी वीरोंको युद्धसे रोका नहीं जा सकता। जबसे द्रौपदीको क्लेश दिया गया, तबसे वह दुःखी हो मेरे विनाशका संकल्प लेकर प्रतिदिन मिट्टीकी वेदीपर सोया करती है। जबतक वैरका पूरा बदला न चुका लिया जाय, तबतकके लिये उसने यह व्रत ले रखा है॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उग्रं तेपे तपः कृष्णा भर्तॄणामर्थसिद्धये।
निक्षिप्य मानं दर्पं च वासुदेवसहोदरा ॥ २० ॥
कृष्णायाः प्रेष्यवद् भूत्वा शुश्रूषां कुरुते सदा।
इति सर्वं समुन्नद्धं न निर्वाति कथञ्चन ॥ २१ ॥

मूलम्

उग्रं तेपे तपः कृष्णा भर्तॄणामर्थसिद्धये।
निक्षिप्य मानं दर्पं च वासुदेवसहोदरा ॥ २० ॥
कृष्णायाः प्रेष्यवद् भूत्वा शुश्रूषां कुरुते सदा।
इति सर्वं समुन्नद्धं न निर्वाति कथञ्चन ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्रौपदी अपने पतियोंके अभीष्ट मनोरथकी सिद्धिके लिये बड़ी कठोर तपस्या करती है और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णकी सगी बहन सुभद्रा मान और अभिमानको दूर फेंककर सदा दासीकी भाँति द्रौपदीकी सेवा करती है। इस प्रकार इन सारे कार्योंके रूपमें वैरकी आग प्रज्वलित हो उठी है, जो किसी प्रकार बुझ नहीं सकती॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्योर्विनाशेन स संधेयः कथं मया।
कथं च राजा भुक्त्वेमां पृथिवीं सागराम्बराम् ॥ २२ ॥
पाण्डवानां प्रसादेन भोक्ष्ये राज्यमहं कथम्।

मूलम्

अभिमन्योर्विनाशेन स संधेयः कथं मया।
कथं च राजा भुक्त्वेमां पृथिवीं सागराम्बराम् ॥ २२ ॥
पाण्डवानां प्रसादेन भोक्ष्ये राज्यमहं कथम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अभिमन्युके विनाशसे जिनके हृदयमें गहरी चोट पहुँची है, उस अर्जुनके साथ मेरी सन्धि कैसे हो सकती है? जब मैं समुद्रसे घिरी हुई सारी पृथ्वीका एकच्छत्र राजाकी हैसियतसे उपभोग कर चुका हूँ, तब इस समय पाण्डवोंकी कृपाका पात्र बनकर कैसे राज्य भोगूँगा?॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपर्युपरि राज्ञां वै ज्वलित्वा भास्करो यथा ॥ २३ ॥
युधिष्ठिरं कथं पश्चादनुयास्यामि दासवत्।

मूलम्

उपर्युपरि राज्ञां वै ज्वलित्वा भास्करो यथा ॥ २३ ॥
युधिष्ठिरं कथं पश्चादनुयास्यामि दासवत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘समस्त राजाओंके ऊपर सूर्यके समान प्रकाशित होकर अब दासकी भाँति युधिष्ठिरके पीछे-पीछे कैसे चलूँगा?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं भुक्त्वा स्वयं भोगान् दत्त्वा दायांश्च पुष्कलान् ॥ २४ ॥
कृपणं वर्तयिष्यामि कृपणैः सह जीविकाम्।

मूलम्

कथं भुक्त्वा स्वयं भोगान् दत्त्वा दायांश्च पुष्कलान् ॥ २४ ॥
कृपणं वर्तयिष्यामि कृपणैः सह जीविकाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘स्वयं बहुत-से भोग भोगकर और प्रचुर धन दान करके अब दीन पुरुषोंके साथ दीनतापूर्ण जीविकाका आश्रय ले किस प्रकार निर्वाह कर सकूँगा?॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाभ्यसूयामि ते वाक्यमुक्तं स्निग्धं हितं त्वया ॥ २५ ॥
न तु सन्धिमहं मन्ये प्राप्तकालं कथञ्चन।

मूलम्

नाभ्यसूयामि ते वाक्यमुक्तं स्निग्धं हितं त्वया ॥ २५ ॥
न तु सन्धिमहं मन्ये प्राप्तकालं कथञ्चन।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपने स्नेहवश हितकी ही बात कही है। आपकी इस बातमें मैं दोष नहीं निकालता और न इसकी निन्दा ही करता हूँ। मेरा कथन तो इतना ही है कि अब किसी प्रकार सन्धिका अवसर नहीं रह गया है। मेरी ऐसी ही मान्यता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनीतमनुपश्यामि सुयुद्धेन परंतप ॥ २६ ॥
नायं क्लीबयितुं कालः संयोद्धुं काल एव नः।

मूलम्

सुनीतमनुपश्यामि सुयुद्धेन परंतप ॥ २६ ॥
नायं क्लीबयितुं कालः संयोद्धुं काल एव नः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंको तपानेवाले वीर! अब मैं अच्छी तरह युद्ध करनेमें ही उत्तम नीतिका पालन समझ रहा हूँ। हमारा यह समय कायरता दिखानेका नहीं, उत्साहपूर्वक युद्ध करनेका ही है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टं मे बहुभिर्यज्ञैर्दत्ता विप्रेषु दक्षिणाः ॥ २७ ॥
प्राप्ताः कामाः श्रुता वेदाः शत्रूणां मूर्ध्नि च स्थितम्।
भृत्या मे सुभृतास्तात दीनश्चाभ्युद्‌धृतो जनः ॥ २८ ॥
नोत्सहेऽद्य द्विजश्रेष्ठ पाण्डवान्‌ वक्तुमीदृशम्।

मूलम्

इष्टं मे बहुभिर्यज्ञैर्दत्ता विप्रेषु दक्षिणाः ॥ २७ ॥
प्राप्ताः कामाः श्रुता वेदाः शत्रूणां मूर्ध्नि च स्थितम्।
भृत्या मे सुभृतास्तात दीनश्चाभ्युद्‌धृतो जनः ॥ २८ ॥
नोत्सहेऽद्य द्विजश्रेष्ठ पाण्डवान्‌ वक्तुमीदृशम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! मैंने बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान कर लिया। ब्राह्मणोंको पर्याप्त दक्षिणाएँ दे दीं। सारी कामनाएँ पूर्ण कर लीं। वेदोंका श्रवण कर लिया। शत्रुओंके माथेपर पैर रखा और भरण-पोषणके योग्य व्यक्तियोंके पालन-पोषणकी अच्छी व्यवस्था कर दी। इतना ही नहीं, मैंने दीनोंका उद्धारकार्य भी सम्पन्न कर दिया है। अतः द्विजश्रेष्ठ! अब मैं पाण्डवोंसे इस प्रकार सन्धिके लिये याचना नहीं कर सकता॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितानि परराष्ट्राणि स्वराष्ट्रमनुपालितम् ॥ २९ ॥
भुक्ताश्च विविधा भोगास्त्रिवर्गः सेवितो मया।
पितॄणां गतमानृण्यं क्षत्रधर्मस्य चोभयोः ॥ ३० ॥

मूलम्

जितानि परराष्ट्राणि स्वराष्ट्रमनुपालितम् ॥ २९ ॥
भुक्ताश्च विविधा भोगास्त्रिवर्गः सेवितो मया।
पितॄणां गतमानृण्यं क्षत्रधर्मस्य चोभयोः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने दूसरोंके राज्य जीते, अपने राष्ट्रका निरन्तर पालन किया, नाना प्रकारके भोग भोगे; धर्म, अर्थ और कामका सेवन किया और पितरों तथा क्षत्रियधर्म—दोनोंके ऋणसे उऋण हो गया॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ध्रुवं सुखमस्तीति कुतो राष्ट्रं कुतो यशः।
इह कीर्तिर्विधातव्या सा च युद्धेन नान्यथा ॥ ३१ ॥

मूलम्

न ध्रुवं सुखमस्तीति कुतो राष्ट्रं कुतो यशः।
इह कीर्तिर्विधातव्या सा च युद्धेन नान्यथा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संसारमें कोई भी सुख सदा रहनेवाला नहीं है। फिर राष्ट्र और यश भी कैसे स्थिर रह सकते हैं? यहाँ तो कीर्तिका ही उपार्जन करना चाहिये और कीर्ति युद्धके सिवा किसी दूसरे उपायसे नहीं मिल सकती॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहे यत् क्षत्रियस्यापि निधनं तद् विगर्हितम्।
अधर्मः सुमहानेष यच्छय्यामरणं गृहे ॥ ३२ ॥

मूलम्

गृहे यत् क्षत्रियस्यापि निधनं तद् विगर्हितम्।
अधर्मः सुमहानेष यच्छय्यामरणं गृहे ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्षत्रियकी भी यदि घरमें मृत्यु हो जाय तो उसे निन्दित माना गया है। घरमें खाटपर सोकर मरना यह क्षत्रियके लिये महान् पाप है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरण्ये यो विमुच्येत संग्रामे वा तनुं नरः।
क्रतूनाहृत्य महतो महिमानं स गच्छति ॥ ३३ ॥

मूलम्

अरण्ये यो विमुच्येत संग्रामे वा तनुं नरः।
क्रतूनाहृत्य महतो महिमानं स गच्छति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान करके वनमें या संग्राममें शरीरका त्याग करता है, वही क्षत्रिय महत्त्वको प्राप्त होता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपणं विलपन्नार्तो जरयाभिपरिप्लुतः ।
म्रियते रुदतां मध्ये ज्ञातीनां न स पूरुषः ॥ ३४ ॥

मूलम्

कृपणं विलपन्नार्तो जरयाभिपरिप्लुतः ।
म्रियते रुदतां मध्ये ज्ञातीनां न स पूरुषः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसका शरीर बुढ़ापेसे जर्जर हो गया हो, जो रोगसे पीड़ित हो, परिवारके लोग जिसके आस-पास बैठकर रो रहे हों और उन रोते हुए स्वजनोंके बीचमें जो करुण विलाप करते-करते अपने प्राणोंका परित्याग करता है, वह पुरुष कहलानेयोग्य नहीं है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्त्वा तु विविधान् भोगान् प्राप्तानां परमां गतिम्।
अपीदानीं सुयुद्धेन गच्छेयं यत्सलोकताम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

त्यक्त्वा तु विविधान् भोगान् प्राप्तानां परमां गतिम्।
अपीदानीं सुयुद्धेन गच्छेयं यत्सलोकताम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः जिन्होंने नाना प्रकारके भोगोंका परित्याग करके उत्तम गति प्राप्त कर ली है, इस समय युद्धके द्वारा मैं उन्हींके लोकोंमें जाऊँगा॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूराणामार्यवृत्तानां संग्रामेष्वनिवर्तिनाम् ।
धीमतां सत्यसंधानां सर्वेषां क्रतुयाजिनाम् ॥ ३६ ॥
शस्त्रावभृथपूतानां ध्रुवं वासस्त्रिविष्टपे ।

मूलम्

शूराणामार्यवृत्तानां संग्रामेष्वनिवर्तिनाम् ।
धीमतां सत्यसंधानां सर्वेषां क्रतुयाजिनाम् ॥ ३६ ॥
शस्त्रावभृथपूतानां ध्रुवं वासस्त्रिविष्टपे ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके आचरण श्रेष्ठ हैं, जो युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते, अपनी प्रतिज्ञाको सत्य कर दिखाते और यज्ञोंद्वारा यजन करनेवाले हैं तथा जिन्होंने शस्त्रकी धारामें अवभृथस्नान किया है, उन समस्त बुद्धिमान् पुरुषोंका निश्चय ही स्वर्गमें निवास होता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुदा नूनं प्रपश्यन्ति युद्धे ह्यप्सरसां गणाः ॥ ३७ ॥
पश्यन्ति नूनं पितरः पूजितान् सुरसंसदि।
अप्सरोभिः परिवृतान् मोदमानांस्त्रिविष्टपे ॥ ३८ ॥

मूलम्

मुदा नूनं प्रपश्यन्ति युद्धे ह्यप्सरसां गणाः ॥ ३७ ॥
पश्यन्ति नूनं पितरः पूजितान् सुरसंसदि।
अप्सरोभिः परिवृतान् मोदमानांस्त्रिविष्टपे ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निश्चय ही युद्धमें प्राण देनेवालोंकी ओर अप्सराएँ बड़ी प्रसन्नतासे निहारा करती हैं। पितृगण उन्हें अवश्य ही देवताओं-की सभामें सम्मानित होते देखते हैं। वे स्वर्गमें अप्सराओंसे घिरकर आनन्दित होते देखे जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पन्थानममरैर्यान्तं शूरैश्चैवानिवर्तिभिः ।
अपि तत्संगतं मार्गं वयमध्यारुहेमहि ॥ ३९ ॥
पितामहेन वृद्धेन तथाऽऽचार्येण धीमता।
जयद्रथेन कर्णेन तथा दुःशासनेन च ॥ ४० ॥

मूलम्

पन्थानममरैर्यान्तं शूरैश्चैवानिवर्तिभिः ।
अपि तत्संगतं मार्गं वयमध्यारुहेमहि ॥ ३९ ॥
पितामहेन वृद्धेन तथाऽऽचार्येण धीमता।
जयद्रथेन कर्णेन तथा दुःशासनेन च ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवता तथा युद्धमें पीठ न दिखानेवाले शूरवीर जिस मार्गसे जाते हैं, क्या उसी मार्गपर अब हमलोग भी वृद्ध पितामह, बुद्धिमान् आचार्य द्रोण, जयद्रथ, कर्ण तथा दुःशासनके साथ आरूढ़ होंगे?॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटमाना मदर्थेऽस्मिन् हताः शूरा जनाधिपाः।
शेरते लोहिताक्ताङ्गाः संग्रामे शरविक्षताः ॥ ४१ ॥

मूलम्

घटमाना मदर्थेऽस्मिन् हताः शूरा जनाधिपाः।
शेरते लोहिताक्ताङ्गाः संग्रामे शरविक्षताः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कितने ही वीर नरेश मेरी विजयके लिये यथाशक्ति चेष्टा करते हुए बाणोंसे क्षत-विक्षत हो मारे जाकर रक्तरंजित शरीरसे संग्रामभूमिमें सो रहे हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तमास्त्रविदः शूरा यथोक्तक्रतुयाजिनः ।
त्यक्त्वा प्राणान्‌ यथान्यायमिन्द्रसद्मस्वधिष्ठिताः ॥ ४२ ॥

मूलम्

उत्तमास्त्रविदः शूरा यथोक्तक्रतुयाजिनः ।
त्यक्त्वा प्राणान्‌ यथान्यायमिन्द्रसद्मस्वधिष्ठिताः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उत्तम अस्त्रोंके ज्ञाता और शास्त्रोक्त विधिसे यज्ञ करनेवाले अन्य शूरवीर यथोचित रीतिसे युद्धमें प्राणोंका परित्याग करके इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित हो रहे हैं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैः स्वयं रचितो मार्गो दुर्गमो हि पुनर्भवेत्।
सम्पतद्भिर्महावेगैर्यास्यद्भिरिह सद्‌गतिम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

तैः स्वयं रचितो मार्गो दुर्गमो हि पुनर्भवेत्।
सम्पतद्भिर्महावेगैर्यास्यद्भिरिह सद्‌गतिम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन वीरोंने स्वयं ही जिस मार्गका निर्माण किया है, वह पुनः बड़े वेगसे सद्‌गतिको जानेवाले बहुसंख्यक वीरोंद्वारा दुर्गम हो जाय (अर्थात् इतने अधिक वीर उस मार्गसे यात्रा करें कि भीड़के मारे उसपर चलना कठिन हो जाय)॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये मदर्थे हताः शूरास्तेषां कृतमनुस्मरन्।
ऋणं तत् प्रतियुञ्जानो न राज्ये मन आदधे ॥ ४४ ॥

मूलम्

ये मदर्थे हताः शूरास्तेषां कृतमनुस्मरन्।
ऋणं तत् प्रतियुञ्जानो न राज्ये मन आदधे ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो शूरवीर मेरे लिये मारे गये हैं, उनके उस उपकारका निरन्तर स्मरण करता हुआ उस ऋणको उतारनेकी चेष्टामें संलग्न होकर मैं राज्यमें मन नहीं लगा सकता॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घातयित्वा वयस्यांश्च भ्रातॄनथ पितामहान्।
जीवितं यदि रक्षेयं लोको मां गर्हयेद् ध्रुवम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

घातयित्वा वयस्यांश्च भ्रातॄनथ पितामहान्।
जीवितं यदि रक्षेयं लोको मां गर्हयेद् ध्रुवम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मित्रों, भाइयों और पितामहोंको मरवाकर यदि मैं अपने प्राणोंकी रक्षा करूँ तो सारा संसार निश्चय ही मेरी निन्दा करेगा॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीदृशं च भवेद् राज्यं मम हीनस्य बन्धुभिः।
सखिभिश्च विशेषेण प्रणिपत्य च पाण्डवम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

कीदृशं च भवेद् राज्यं मम हीनस्य बन्धुभिः।
सखिभिश्च विशेषेण प्रणिपत्य च पाण्डवम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बन्धु-बान्धवों और मित्रोंसे हीन हो युधिष्ठिरके पैरोंमें पड़नेपर मुझे जो राज्य मिलेगा, वह कैसा होगा?॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमेतादृशं कृत्वा जगतोऽस्य पराभवम्।
सुयुद्धेन ततः स्वर्गं प्राप्स्यामि न तदन्यथा ॥ ४७ ॥

मूलम्

सोऽहमेतादृशं कृत्वा जगतोऽस्य पराभवम्।
सुयुद्धेन ततः स्वर्गं प्राप्स्यामि न तदन्यथा ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये मैं जगत्‌का ऐसा विनाश करके अब उत्तम युद्धके द्वारा ही स्वर्गलोक प्राप्त करूँगा। मेरी सद्‌गतिके लिये दूसरा कोई उपाय नहीं है’॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं दुर्योधनेनोक्तं सर्वे सम्पूज्य तद्वचः।
साधु साध्विति राजानं क्षत्रियाः सम्बभाषिरे ॥ ४८ ॥

मूलम्

एवं दुर्योधनेनोक्तं सर्वे सम्पूज्य तद्वचः।
साधु साध्विति राजानं क्षत्रियाः सम्बभाषिरे ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार राजा दुर्योधनकी कही हुई यह बात सुनकर सब क्षत्रियोंने ‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’ कहकर उसका आदर किया और उसे भी धन्यवाद दिया॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पराजयमशोचन्तः कृतचित्ताश्च विक्रमे ।
सर्वे सुनिश्चिता योद्‌धुमुदग्रमनसोऽभवन् ॥ ४९ ॥

मूलम्

पराजयमशोचन्तः कृतचित्ताश्च विक्रमे ।
सर्वे सुनिश्चिता योद्‌धुमुदग्रमनसोऽभवन् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबने अपनी पराजयका शोक छोड़कर मन-ही-मन पराक्रम करनेका निश्चय किया। युद्ध करनेके विषयमें सबका पक्का विचार हो गया और सबके हृदयमें उत्साह भर गया॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वाहान् समाश्वस्य सर्वे युद्धाभिनन्दिनः।
ऊने द्वियोजने गत्वा प्रत्यतिष्ठन्त कौरवाः ॥ ५० ॥

मूलम्

ततो वाहान् समाश्वस्य सर्वे युद्धाभिनन्दिनः।
ऊने द्वियोजने गत्वा प्रत्यतिष्ठन्त कौरवाः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् सब योद्धाओंने अपने-अपने वाहनोंको विश्राम दे युद्धका अभिनन्दन किया और आठ कोससे कुछ कम दूरीपर जाकर डेरा डाला॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकाशे विद्रुमे पुण्ये प्रस्थे हिमवतः शुभे।
अरुणां सरस्वतीं प्राप्य पपुः सस्नुश्च ते जलम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

आकाशे विद्रुमे पुण्ये प्रस्थे हिमवतः शुभे।
अरुणां सरस्वतीं प्राप्य पपुः सस्नुश्च ते जलम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशके नीचे हिमालयके शिखरकी सुन्दर, पवित्र एवं वृक्षरहित चौरस भूमिपर अरुणसलिला सरस्वतीके निकट जाकर उन सबने स्नान और जलपान किया॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव पुत्रकृतोत्साहाः पर्यवर्तन्त ते ततः।
पर्यवस्थाप्य चात्मानमन्योन्येन पुनस्तदा ।
सर्वे राजन् न्यवर्तन्त क्षत्रियाः कालचोदिताः ॥ ५२ ॥

मूलम्

तव पुत्रकृतोत्साहाः पर्यवर्तन्त ते ततः।
पर्यवस्थाप्य चात्मानमन्योन्येन पुनस्तदा ।
सर्वे राजन् न्यवर्तन्त क्षत्रियाः कालचोदिताः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वे कालप्रेरित समस्त क्षत्रिय आपके पुत्रद्वारा उत्साह देनेपर एक-दूसरेके द्वारा मनको स्थिर करके पुनः रणभूमिकी ओर लौटे॥५२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि दुर्योधनवाक्ये पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वमें दुर्योधनका वाक्यविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५॥