भागसूचना
चतुर्थोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कृपाचार्यका दुर्योधनको संधिके लिये समझाना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतितान् रथनीडांश्च रथांश्चापि महात्मनाम्।
रणे च निहतान् नागान् दृष्ट्वा पत्तींश्च मारिष ॥ १ ॥
आयोधनं चातिघोरं रुद्रस्याक्रीड संनिभम्।
अप्रख्यातिं गतानां तु राज्ञां शतसहस्रशः ॥ २ ॥
विमुखे तव पुत्रे तु शोकोपहतचेतसि।
भृशोद्विग्नेषु सैन्येषु दृष्ट्वा पार्थस्य विक्रमम् ॥ ३ ॥
ध्यायमानेषु सैन्येषु दुःखं प्राप्तेषु भारत।
बलानां मथ्यमानानां श्रुत्वा निनदमुत्तमम् ॥ ४ ॥
अभिज्ञानं नरेन्द्राणां विक्षतं प्रेक्ष्य संयुगे।
कृपाविष्टः कृपो राजन् वयःशीलसमन्वितः ॥ ५ ॥
अब्रवीत् तत्र तेजस्वी सोऽभिसृत्य जनाधिपम्।
दुर्योधनं मन्युवशाद् वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ ६ ॥
मूलम्
पतितान् रथनीडांश्च रथांश्चापि महात्मनाम्।
रणे च निहतान् नागान् दृष्ट्वा पत्तींश्च मारिष ॥ १ ॥
आयोधनं चातिघोरं रुद्रस्याक्रीड संनिभम्।
अप्रख्यातिं गतानां तु राज्ञां शतसहस्रशः ॥ २ ॥
विमुखे तव पुत्रे तु शोकोपहतचेतसि।
भृशोद्विग्नेषु सैन्येषु दृष्ट्वा पार्थस्य विक्रमम् ॥ ३ ॥
ध्यायमानेषु सैन्येषु दुःखं प्राप्तेषु भारत।
बलानां मथ्यमानानां श्रुत्वा निनदमुत्तमम् ॥ ४ ॥
अभिज्ञानं नरेन्द्राणां विक्षतं प्रेक्ष्य संयुगे।
कृपाविष्टः कृपो राजन् वयःशीलसमन्वितः ॥ ५ ॥
अब्रवीत् तत्र तेजस्वी सोऽभिसृत्य जनाधिपम्।
दुर्योधनं मन्युवशाद् वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— माननीय नरेश! उस समय रणभूमिमें महामनस्वी वीरोंके रथ और उनकी बैठकें टूटी पड़ी थीं। सवारोंसहित हाथी और पैदल सैनिक मार डाले गये थे। वह युद्धस्थल रुद्रदेवकी क्रीडाभूमि श्मशानके समान अत्यन्त भयानक जान पड़ता था और वहाँ लाखों नरेशोंका नामोनिशान मिट गया था। यह सब देखकर जब आपके पुत्र दुर्योधनका मन शोकमें डूब गया और उसने युद्धसे मुँह मोड़ लिया, कुन्तीपुत्र अर्जुनका पराक्रम देखकर समस्त सेनाएँ जब भयसे अत्यन्त व्याकुल हो उठीं और भारी दुःखमें पड़कर चिन्तामग्न हो गयीं, उस समय मथे जाते हुए सैनिकोंका जोर-जोरसे आर्तनाद सुनकर तथा राजाओंके चिह्नस्वरूप ध्वज आदिको युद्धस्थलमें क्षत-विक्षत हुआ देखकर प्रौढ़ अवस्था और उत्तम स्वभावसे युक्त तेजस्वी कृपाचार्यके मनमें बड़ी दया आयी। भरतवंशी नरेश! वे बातचीत करनेमें अत्यन्त कुशल थे। उन्होंने राजा दुर्योधनके निकट जाकर उसकी दीनता देखकर इस प्रकार कहा—॥१—६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधन निबोधेदं यत् त्वां वक्ष्यामि कौरव।
श्रुत्वा कुरु महाराज यदि ते रोचतेऽनघ ॥ ७ ॥
मूलम्
दुर्योधन निबोधेदं यत् त्वां वक्ष्यामि कौरव।
श्रुत्वा कुरु महाराज यदि ते रोचतेऽनघ ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुवंशी महाराज दुर्योधन! मैं इस समय तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो। अनघ! मेरी बात सुनकर यदि तुम्हें रुचे तो उसके अनुसार कार्य करो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न युद्धधर्माच्छ्रेयान् वै पन्था राजेन्द्र विद्यते।
यं समाश्रित्य युद्ध्यन्ते क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ ॥ ८ ॥
मूलम्
न युद्धधर्माच्छ्रेयान् वै पन्था राजेन्द्र विद्यते।
यं समाश्रित्य युद्ध्यन्ते क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजेन्द्र! क्षत्रियशिरोमणे! युद्धधर्मसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी मार्ग नहीं है, जिसका आश्रय लेकर क्षत्रिय लोग युद्धमें तत्पर रहते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रो भ्राता पिता चैव स्वस्रीयो मातुलस्तथा।
सम्बन्धिबान्धवाश्चैव योद्ध्या वै क्षत्रजीविना ॥ ९ ॥
मूलम्
पुत्रो भ्राता पिता चैव स्वस्रीयो मातुलस्तथा।
सम्बन्धिबान्धवाश्चैव योद्ध्या वै क्षत्रजीविना ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्षत्रियधर्मसे जीवन-निर्वाह करनेवाले पुरुषके लिये पुत्र, भ्राता, पिता, भानजा, मामा, सम्बन्धी तथा बन्धु-बान्धव—इन सबके साथ युद्ध करना कर्तव्य है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधे चैव परो धर्मस्तथाधर्मः पलायने।
ते स्म घोरां समापन्ना जीविकां जीवितार्थिनः ॥ १० ॥
मूलम्
वधे चैव परो धर्मस्तथाधर्मः पलायने।
ते स्म घोरां समापन्ना जीविकां जीवितार्थिनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धमें शत्रुको मारना या उसके हाथसे मारा जाना दोनों ही उत्तम धर्म है और युद्धसे भागनेपर महान् पाप होता है। सभी क्षत्रिय जीवन-निर्वाहकी इच्छा रखते हुए उसी घोर जीविकाका आश्रय लेते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदत्र प्रतिवक्ष्यामि किंचिदेव हितं वचः।
हते भीष्मे च द्रोणे च कर्णे चैव महारथे॥११॥
जयद्रथे च निहते तव भ्रातृषु चानघ।
लक्ष्मणे तव पुत्रे च किं शेषं पर्युपास्महे ॥ १२ ॥
मूलम्
तदत्र प्रतिवक्ष्यामि किंचिदेव हितं वचः।
हते भीष्मे च द्रोणे च कर्णे चैव महारथे॥११॥
जयद्रथे च निहते तव भ्रातृषु चानघ।
लक्ष्मणे तव पुत्रे च किं शेषं पर्युपास्महे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऐसी दशामें मैं यहाँ तुम्हारे लिये कुछ हितकी बात बताऊँगा। अनघ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, महारथी कर्ण, जयद्रथ तथा तुम्हारे सभी भाई मारे जा चुके हैं। तुम्हारा पुत्र लक्ष्मण भी जीवित नहीं है। अब दूसरा कौन बच गया है, जिसका हमलोग आश्रय ग्रहण करें॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषु भारं समासाद्य राज्ये मतिमकुर्महि।
ते संत्यज्य तनूर्याताः शूरा ब्रह्मविदां गतिम् ॥ १३ ॥
मूलम्
येषु भारं समासाद्य राज्ये मतिमकुर्महि।
ते संत्यज्य तनूर्याताः शूरा ब्रह्मविदां गतिम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनपर युद्धका भार रखकर हम राज्य पानेकी आशा करते थे, वे शूरवीर तो शरीर छोड़कर ब्रह्मवेत्ताओंकी गतिको प्राप्त हो गये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं त्विह विना भूता गुणवद्भिर्महारथैः।
कृपणं वर्तयिष्याम पातयित्वा नृपान् बहून् ॥ १४ ॥
मूलम्
वयं त्विह विना भूता गुणवद्भिर्महारथैः।
कृपणं वर्तयिष्याम पातयित्वा नृपान् बहून् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय हमलोग यहाँ भीष्म आदि गुणवान् महारथियोंके सहयोगसे वंचित हो गये हैं और बहुत-से नरेशोंको मरवाकर दयनीय स्थितिमें आ गये हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वैरथ च जीवद्भिर्बीभत्सुरपराजितः ।
कृष्णनेत्रो महाबाहुर्देवैरपि दुरासदः ॥ १५ ॥
मूलम्
सर्वैरथ च जीवद्भिर्बीभत्सुरपराजितः ।
कृष्णनेत्रो महाबाहुर्देवैरपि दुरासदः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब सब लोग जीवित थे, तब भी अर्जुन किसीके द्वारा पराजित नहीं हुए। श्रीकृष्ण-जैसे नेताके रहते हुए महाबाहु अर्जुन देवताओंके लिये भी दुर्जय हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रकार्मुकतुल्याभमिन्द्रकेतुमिवोच्छ्रितम् ।
वानरं केतुमासाद्य संचचाल महाचमूः ॥ १६ ॥
मूलम्
इन्द्रकार्मुकतुल्याभमिन्द्रकेतुमिवोच्छ्रितम् ।
वानरं केतुमासाद्य संचचाल महाचमूः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनका वानरध्वज इन्द्रधनुषके तुल्य बहुरंगा और इन्द्रध्वजके समान अत्यन्त ऊँचा है। उसके पास पहुँचकर हमारी विशाल सेना भयसे विचलित हो उठती है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहनादाच्च भीमस्य पाञ्चजन्यस्वनेन च।
गाण्डीवस्य च निर्घोषात् सम्मुह्यन्ते मनांसि नः ॥ १७ ॥
मूलम्
सिंहनादाच्च भीमस्य पाञ्चजन्यस्वनेन च।
गाण्डीवस्य च निर्घोषात् सम्मुह्यन्ते मनांसि नः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीमसेनके सिंहनाद, पांचजन्य शंखकी ध्वनि और गाण्डीव धनुषकी टंकारसे हमारा दिल दहल उठता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन्तीव महाविद्युन्मुष्णन्ती नयनप्रभाम् ।
अलातमिव चाविद्धं गाण्डीवं समदृश्यत ॥ १८ ॥
मूलम्
चरन्तीव महाविद्युन्मुष्णन्ती नयनप्रभाम् ।
अलातमिव चाविद्धं गाण्डीवं समदृश्यत ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे चमकती हुई महाविद्युत् नेत्रोंकी प्रभाको छीनती-सी दिखायी देती है तथा जैसे अलातचक्र घूमता देखा जाता है, उसी प्रकार अर्जुनके हाथमें गाण्डीव धनुष भी दृष्टिगोचर होता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाम्बूनदविचित्रं च धूयमानं महद् धनुः।
दृश्यते दिक्षु सर्वासु विद्युदभ्रघनेष्विव ॥ १९ ॥
मूलम्
जाम्बूनदविचित्रं च धूयमानं महद् धनुः।
दृश्यते दिक्षु सर्वासु विद्युदभ्रघनेष्विव ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अर्जुनके हाथमें डोलता हुआ उनका सुवर्णजटित महान् धनुष सम्पूर्ण दिशाओंमें वैसा ही दिखायी देता है, जैसे मेघोंकी घटामें बिजली॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वेताश्च वेगसम्पन्नाः शशिकाशसमप्रभाः ।
पिबन्त इव चाकाशं रथे युक्तास्तु वाजिनः ॥ २० ॥
मूलम्
श्वेताश्च वेगसम्पन्नाः शशिकाशसमप्रभाः ।
पिबन्त इव चाकाशं रथे युक्तास्तु वाजिनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनके रथमें जुते हुए घोड़े श्वेत वर्णवाले, वेगशाली तथा चन्द्रमा और कासके समान उज्ज्वल कान्तिसे सुशोभित हैं। वे ऐसी तीव्र गतिसे चलते हैं, मानो आकाशको पी जायँगे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उह्यमानांश्च कृष्णेन वायुनेव बलाहकाः।
जाम्बूनदविचित्राङ्गा वहन्ते चार्जुनं रणे ॥ २१ ॥
मूलम्
उह्यमानांश्च कृष्णेन वायुनेव बलाहकाः।
जाम्बूनदविचित्राङ्गा वहन्ते चार्जुनं रणे ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे वायुकी प्रेरणासे बादल उड़ते फिरते हैं, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्णद्वारा हाँके जाते हुए घोड़े, जो सुनहरे साजोंसे सजे होनेके कारण अंगोंमें विचित्र शोभा धारण करते हैं, रणभूमिमें अर्जुनकी सवारी ढोते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावकं तद् बलं राजन्नर्जुनोऽस्त्रविशारदः।
गहनं शिशिरापाये ददाहाग्निरिवोल्बणः ॥ २२ ॥
मूलम्
तावकं तद् बलं राजन्नर्जुनोऽस्त्रविशारदः।
गहनं शिशिरापाये ददाहाग्निरिवोल्बणः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! अर्जुन अस्त्रविद्यामें कुशल हैं, उन्होंने तुम्हारी सेनाको उसी प्रकार भस्म किया है, जैसे भयंकर आग ग्रीष्म-ऋतुमें बहुत बड़े जंगलको जला डालती है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाहमानमनीकानि महेन्द्रसदृशप्रभम् ।
धनंजयमपश्याम चतुर्दंष्ट्रमिव द्विपम् ॥ २३ ॥
मूलम्
गाहमानमनीकानि महेन्द्रसदृशप्रभम् ।
धनंजयमपश्याम चतुर्दंष्ट्रमिव द्विपम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी अर्जुनको हम चार दाँतवाले गजराजके समान अपनी सेनामें प्रवेश करते देखते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्षोभयन्तं सेनां ते त्रासयन्तं च पार्थिवान्।
धनंजयमपश्याम नलिनीमिव कुञ्जरम् ॥ २४ ॥
मूलम्
विक्षोभयन्तं सेनां ते त्रासयन्तं च पार्थिवान्।
धनंजयमपश्याम नलिनीमिव कुञ्जरम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे मतवाला हाथी तालाबमें घुसकर उसे मथ डालता है, उसी प्रकार हमने अर्जुनको तुम्हारी सेनाको मथते और राजाओंको भयभीत करते देखा है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रासयन्तं तथा योधान् धनुर्घोषेण पाण्डवम्।
भूय एनमपश्याम सिंहं मृगगणानिव ॥ २५ ॥
मूलम्
त्रासयन्तं तथा योधान् धनुर्घोषेण पाण्डवम्।
भूय एनमपश्याम सिंहं मृगगणानिव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे सिंह मृगोंके झुंडको भयभीत कर देता है, उसी प्रकार पाण्डुकुमार अर्जुन अपने धनुषकी टंकारसे तुम्हारे समस्त योद्धाओंको बारंबार भयभीत करते दिखायी दिये हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वलोकमहेष्वासौ वृषभौ सर्वधन्विनाम् ।
आमुक्तकवचौ कृष्णौ लोकमध्ये विचेरतुः ॥ २६ ॥
मूलम्
सर्वलोकमहेष्वासौ वृषभौ सर्वधन्विनाम् ।
आमुक्तकवचौ कृष्णौ लोकमध्ये विचेरतुः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने अंगोंमें कवच धारण किये श्रीकृष्ण और अर्जुन, जो सम्पूर्ण विश्वके महाधनुर्धर और सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ हैं, योद्धाओंके समूहमें निर्भय विचरते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य सप्तदशाहानि वर्तमानस्य भारत।
संग्रामस्यातिघोरस्य वध्यतां चाभितो युधि ॥ २७ ॥
मूलम्
अद्य सप्तदशाहानि वर्तमानस्य भारत।
संग्रामस्यातिघोरस्य वध्यतां चाभितो युधि ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भारत! परस्पर मार-काट मचाते हुए दोनों ओरसे योद्धाओंके इस अत्यन्त भयंकर संग्रामको आरम्भ हुए आज सत्रह दिन हो गये॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायुनेव विधूतानि तव सैन्यानि सर्वतः।
शरदम्भोदजालानि व्यशीर्यन्त समन्ततः ॥ २८ ॥
मूलम्
वायुनेव विधूतानि तव सैन्यानि सर्वतः।
शरदम्भोदजालानि व्यशीर्यन्त समन्ततः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे हवा शरद्-ऋतुके बादलोंको छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अर्जुनकी मारसे तुम्हारी सेनाएँ सब ओर तितर-बितर हो गयी हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां नावमिव पर्यस्तां वातधूतां महार्णवे।
तव सेनां महाराज सव्यसाची व्यकम्पयत् ॥ २९ ॥
मूलम्
तां नावमिव पर्यस्तां वातधूतां महार्णवे।
तव सेनां महाराज सव्यसाची व्यकम्पयत् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! जैसे महासागरमें हवाके थपेड़े खाकर नाव डगमगाने लगती है, उसी प्रकार सव्यसाची अर्जुनने तुम्हारी सेनाको कँपा डाला है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व नु ते सूतपुत्रोऽभूत् क्व नु द्रोणः सहानुगः।
अहं क्व च क्व चात्मा ते हार्दिक्यश्च तथा क्व नु॥३०॥
दुःशासनश्च ते भ्राता भ्रातृभिः सहितः क्व नु।
बाणगोचरसम्प्राप्तं प्रेक्ष्य चैव जयद्रथम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
क्व नु ते सूतपुत्रोऽभूत् क्व नु द्रोणः सहानुगः।
अहं क्व च क्व चात्मा ते हार्दिक्यश्च तथा क्व नु॥३०॥
दुःशासनश्च ते भ्राता भ्रातृभिः सहितः क्व नु।
बाणगोचरसम्प्राप्तं प्रेक्ष्य चैव जयद्रथम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस दिन जयद्रथको अर्जुनके बाणोंका निशाना बनते देखकर भी तुम्हारा कर्ण कहाँ चला गया था? अपने अनुयायियोंके साथ आचार्य द्रोण कहाँ थे? मैं कहाँ था? तुम कहाँ थे? कृतवर्मा कहाँ चले गये थे और भाइयोंसहित तुम्हारा भ्राता दुःशासन भी कहाँ था?॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्बन्धिनस्ते भ्रातॄंश्च सहायान् मातुलांस्तथा।
सर्वान् विक्रम्य मिषतो लोकमाक्रम्य मूर्धनि ॥ ३२ ॥
जयद्रथो हतो राजन् किं नु शेषमुपास्महे।
को हीह स पुमानस्ति यो विजेष्यति पाण्डवम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
सम्बन्धिनस्ते भ्रातॄंश्च सहायान् मातुलांस्तथा।
सर्वान् विक्रम्य मिषतो लोकमाक्रम्य मूर्धनि ॥ ३२ ॥
जयद्रथो हतो राजन् किं नु शेषमुपास्महे।
को हीह स पुमानस्ति यो विजेष्यति पाण्डवम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तुम्हारे सम्बन्धी, भाई, सहायक और मामा सब-के-सब देख रहे थे तो भी अर्जुनने उन सबको अपने पराक्रमद्वारा परास्त करके सब लोगोंके मस्तकपर पैर रखकर जयद्रथको मार डाला। अब और कौन बचा है जिसका हम भरोसा करें? यहाँ कौन ऐसा पुरुष है जो पाण्डुपुत्र अर्जुनपर विजय पायेगा?॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य चास्त्राणि दिव्यानि विविधानि महात्मनः।
गाण्डीवस्य च निर्घोषो धैर्याणि हरते हि नः ॥ ३४ ॥
मूलम्
तस्य चास्त्राणि दिव्यानि विविधानि महात्मनः।
गाण्डीवस्य च निर्घोषो धैर्याणि हरते हि नः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महात्मा अर्जुनके पास नाना प्रकारके दिव्यास्त्र हैं। उनके गाण्डीव धनुषका गम्भीर घोष हमारा धैर्य छीन लेता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नष्टचन्द्रा यथा रात्रिः सेनेयं हतनायका।
नागभग्नद्रुमा शुष्का नदीवाकुलतां गता ॥ ३५ ॥
मूलम्
नष्टचन्द्रा यथा रात्रिः सेनेयं हतनायका।
नागभग्नद्रुमा शुष्का नदीवाकुलतां गता ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे चन्द्रमाके उदित न होनेपर रात्रि अन्धकारमयी दिखायी देती है, उसी प्रकार हमारी यह सेना सेनापतिके मारे जानेसे श्रीहीन हो रही है। हाथीने जिसके किनारेके वृक्षोंको तोड़ डाला हो, उस सूखी नदीके समान यह व्याकुल हो उठी है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्वजिन्यां हतनेत्रायां यथेष्टं श्वेतवाहनः।
चरिष्यति महाबाहुः कक्षेष्वग्निरिव ज्वलन् ॥ ३६ ॥
मूलम्
ध्वजिन्यां हतनेत्रायां यथेष्टं श्वेतवाहनः।
चरिष्यति महाबाहुः कक्षेष्वग्निरिव ज्वलन् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमारी इस विशाल वाहिनीका नेता नष्ट हो गया है। ऐसी दशामें घास-फूसके ढेरमें प्रज्वलित होनेवाली आगके समान श्वेत घोड़ोंवाले महाबाहु अर्जुन इस सेनाके भीतर इच्छानुसार विचरेंगे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकेश्चैव यो वेगो भीमसेनस्य चोभयोः।
दारयेच्च गिरीन् सर्वान् शोषयेच्चैव सागरान् ॥ ३७ ॥
मूलम्
सात्यकेश्चैव यो वेगो भीमसेनस्य चोभयोः।
दारयेच्च गिरीन् सर्वान् शोषयेच्चैव सागरान् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उधर सात्यकि और भीमसेन दोनों वीरोंका जो वेग है, वह सारे पर्वतोंको विदीर्ण कर सकता है। समुद्रोंको भी सुखा सकता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच वाक्यं यद् भीमः सभामध्ये विशाम्पते।
कृतं तत् सफलं तेन भूयश्चैव करिष्यति ॥ ३८ ॥
मूलम्
उवाच वाक्यं यद् भीमः सभामध्ये विशाम्पते।
कृतं तत् सफलं तेन भूयश्चैव करिष्यति ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रजानाथ! द्यूतसभामें भीमसेनने जो बात कही थी, उसे उन्होंने सत्य कर दिखाया और जो शेष है, उसे भी वे अवश्य ही पूर्ण करेंगे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमुखस्थे तदा कर्णे बलं पाण्डवरक्षितम्।
दुरासदं तदा गुप्तं व्यूढं गाण्डीवधन्वना ॥ ३९ ॥
मूलम्
प्रमुखस्थे तदा कर्णे बलं पाण्डवरक्षितम्।
दुरासदं तदा गुप्तं व्यूढं गाण्डीवधन्वना ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब कर्णके साथ युद्ध चल रहा था, उस समय कर्ण सामने ही था तो भी पाण्डवोंद्वारा रक्षित सेना उसके लिये दुर्जय हो गयी; क्योंकि गाण्डीवधारी अर्जुन व्यूहरचनापूर्वक उसकी रक्षा कर रहे थे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युष्माभिस्तानि चीर्णानि यान्यसाधूनि साधुषु।
अकारणकृतान्येव तेषां वः फलमागतम् ॥ ४० ॥
मूलम्
युष्माभिस्तानि चीर्णानि यान्यसाधूनि साधुषु।
अकारणकृतान्येव तेषां वः फलमागतम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डव साधुपुरुष हैं तो भी तुमलोगोंने अकारण ही उनके साथ जो बहुत-से अनुचित बर्ताव किये हैं, उन्हींका यह फल तुम्हें मिला है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनोऽर्थे त्वया लोको यत्नतः सर्व आहृतः।
स ते संशायितस्तात आत्मा वै भरतर्षभ ॥ ४१ ॥
मूलम्
आत्मनोऽर्थे त्वया लोको यत्नतः सर्व आहृतः।
स ते संशायितस्तात आत्मा वै भरतर्षभ ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतश्रेष्ठ! तुमने अपनी रक्षाके लिये ही प्रयत्नपूर्वक सारे जगत्के लोगोंको एकत्र किया था, किंतु तुम्हारा ही जीवन संशयमें पड़ गया है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्ष दुर्योधनात्मानमात्मा सर्वस्य भाजनम्।
भिन्ने हि भाजने तात दिशो गच्छति तद्गतम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
रक्ष दुर्योधनात्मानमात्मा सर्वस्य भाजनम्।
भिन्ने हि भाजने तात दिशो गच्छति तद्गतम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्योधन! अब तुम अपने शरीरकी रक्षा करो; क्योंकि आत्मा (शरीर) ही समस्त सुखोंका भाजन है। जैसे पात्रके फूट जानेपर उसमें रखा हुआ जल चारों ओर बह जाता है, उसी प्रकार शरीरके नष्ट होनेसे उसपर अवलम्बित सुखोंका भी अन्त हो जाता है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हीयमानेन वै सन्धिः पर्येष्टव्यः समेन वा।
विग्रहो वर्धमानेन मतिरेषा बृहस्पतेः ॥ ४३ ॥
मूलम्
हीयमानेन वै सन्धिः पर्येष्टव्यः समेन वा।
विग्रहो वर्धमानेन मतिरेषा बृहस्पतेः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बृहस्पतिकी यह नीति है कि जब अपना बल कम या बराबर जान पड़े तो शत्रुके साथ संधि कर लेनी चाहिये। लड़ाई तो उसी वक्त छेड़नी चाहिये, जब अपनी शक्ति शत्रुसे बढ़ी-चढ़ी हो॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वयं पाण्डुपुत्रेभ्यो हीना स्म बलशक्तितः।
तदत्र पाण्डवैः सार्धं सन्धिं मन्ये क्षमं प्रभो ॥ ४४ ॥
मूलम्
ते वयं पाण्डुपुत्रेभ्यो हीना स्म बलशक्तितः।
तदत्र पाण्डवैः सार्धं सन्धिं मन्ये क्षमं प्रभो ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमलोग बल और शक्तिमें पाण्डवोंसे हीन हो गये हैं। अतः प्रभो! इस अवस्थामें पाण्डवोंके साथ संधि कर लेना ही उचित समझता हूँ॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जानीते हि यः श्रेयः श्रेयसश्चावमन्यते।
स क्षिप्रं भ्रश्यते राज्यान्न च श्रेयोऽनुविन्दते ॥ ४५ ॥
मूलम्
न जानीते हि यः श्रेयः श्रेयसश्चावमन्यते।
स क्षिप्रं भ्रश्यते राज्यान्न च श्रेयोऽनुविन्दते ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो राजा अपनी भलाईकी बात नहीं समझता और श्रेष्ठ पुरुषोंका अपमान करता है, वह शीघ्र ही राज्यसे भ्रष्ट हो जाता है। उसे कभी कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणिपत्य हि राजानं राज्यं यदि लभेमहि।
श्रेयः स्यान्न तु मौढ्येन राजन् गन्तुः पराभवम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
प्रणिपत्य हि राजानं राज्यं यदि लभेमहि।
श्रेयः स्यान्न तु मौढ्येन राजन् गन्तुः पराभवम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! यदि राजा युधिष्ठिरके सामने नतमस्तक होकर हम अपना राज्य प्राप्त कर लें तो यही श्रेयस्कर होगा। मूर्खतावश पराजय स्वीकार करनेवालेका कभी भला नहीं हो सकता॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैचित्रवीर्यवचनात् कृपाशीलो युधिष्ठिरः ।
विनियुञ्जीत राज्ये त्वां गोविन्दवचनेन च ॥ ४७ ॥
मूलम्
वैचित्रवीर्यवचनात् कृपाशीलो युधिष्ठिरः ।
विनियुञ्जीत राज्ये त्वां गोविन्दवचनेन च ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युधिष्ठिर दयालु हैं। वे राजा धृतराष्ट्र और भगवान् श्रीकृष्णके कहनेसे तुम्हें राज्यपर प्रतिष्ठित कर सकते हैं॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् ब्रूयाद्धि हृषीकेशो राजानमपराजितम्।
अर्जुनं भीमसेनं च सर्वे कुर्युरसंशयम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
यद् ब्रूयाद्धि हृषीकेशो राजानमपराजितम्।
अर्जुनं भीमसेनं च सर्वे कुर्युरसंशयम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवान् श्रीकृष्ण किसीसे पराजित न होनेवाले राजा युधिष्ठिर, अर्जुन और भीमसेनसे जो कुछ भी कहेंगे, वे सब लोग उसे निःसंदेह स्वीकार कर लेंगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातिक्रमिष्यते कृष्णो वचनं कौरवस्य तु।
धृतराष्ट्रस्य मन्येऽहं नापि कृष्णस्य पाण्डवः ॥ ४९ ॥
मूलम्
नातिक्रमिष्यते कृष्णो वचनं कौरवस्य तु।
धृतराष्ट्रस्य मन्येऽहं नापि कृष्णस्य पाण्डवः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुराज धृतराष्ट्रकी बात श्रीकृष्ण नहीं टालेंगे और श्रीकृष्णकी आज्ञाका उल्लंघन युधिष्ठिर नहीं कर सकेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् क्षेममहं मन्ये न च पार्थैश्च विग्रहम्।
न त्वां ब्रवीमि कार्पण्यान्न प्राणपरिरक्षणात् ॥ ५० ॥
पथ्यं राजन् ब्रवीमि त्वां तत्परासुः स्मरिष्यसि।
मूलम्
एतत् क्षेममहं मन्ये न च पार्थैश्च विग्रहम्।
न त्वां ब्रवीमि कार्पण्यान्न प्राणपरिरक्षणात् ॥ ५० ॥
पथ्यं राजन् ब्रवीमि त्वां तत्परासुः स्मरिष्यसि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मैं इस संधिको ही तुम्हारे लिये कल्याणकारी मानता हूँ। पाण्डवोंके साथ किये जानेवाले युद्धको नहीं। मैं कायरता या प्राण-रक्षाकी भावनासे यह सब नहीं कहता हूँ। तुम्हारे हितकी बात बता रहा हूँ। तुम मरणासन्न अवस्थामें मेरी यह बात याद करोगे॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति वृद्धो विलप्यैतत् कृपः शारद्वतो वचः।
दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य शुशोच च मुमोह च ॥ ५१ ॥
मूलम्
इति वृद्धो विलप्यैतत् कृपः शारद्वतो वचः।
दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य शुशोच च मुमोह च ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरद्वान्के पुत्र वृद्ध कृपाचार्य इस प्रकार विलाप करके गरम-गरम लंबी साँस खींचते हुए शोक और मोहके वशीभूत हो गये॥५१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि कृपवाक्ये चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्यपर्वमें कृपाचार्यका वचनविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ॥४॥