भागसूचना
षण्णवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरका रणभूमिमें कर्णको मारा गया देखकर प्रसन्न हो श्रीकृष्ण और अर्जुनकी प्रशंसा करना, धृतराष्ट्रका शोकमग्न होना तथा कर्णपर्वके श्रवणकी महिमा
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा निपतिते कर्णे परसैन्ये च विद्रुते।
आश्लिष्य पार्थं दाशार्हो हर्षाद् वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
तथा निपतिते कर्णे परसैन्ये च विद्रुते।
आश्लिष्य पार्थं दाशार्हो हर्षाद् वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! जब कर्ण मारा गया और शत्रुसेना भाग चली, तब दशार्हनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनको हृदयसे लगाकर बड़े हर्षके साथ इस प्रकार बोले—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतो वज्रभृता वृत्रस्त्वया कर्णो धनंजय।
वृत्रकर्णवधं घोरं कथयिष्यन्ति मानवाः ॥ २ ॥
मूलम्
हतो वज्रभृता वृत्रस्त्वया कर्णो धनंजय।
वृत्रकर्णवधं घोरं कथयिष्यन्ति मानवाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धनंजय! पूर्वकालमें वज्रधारी इन्द्रने वृत्रासुरका वध किया था और आज तुमने कर्णको मारा है। वृत्रासुर और कर्ण दोनोंके वधका वृत्तान्त बड़ा भयंकर है। मनुष्य सदा इसकी चर्चा करते रहेंगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वज्रेण निहतो वृत्रः संयुगे भूरितेजसा।
त्वया तु निहतः कर्णो धनुषा निशितैः शरैः ॥ ३ ॥
मूलम्
वज्रेण निहतो वृत्रः संयुगे भूरितेजसा।
त्वया तु निहतः कर्णो धनुषा निशितैः शरैः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वृत्रासुर युद्धमें महातेजस्वी वज्रके द्वारा मारा गया था; परंतु तुमने कर्णको धनुष एवं पैने बाणोंसे ही मार डाला है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमिमं विक्रमं लोके प्रथितं ते यशस्करम्।
निवेदयावः कौन्तेय कुरुराजस्य धीमतः ॥ ४ ॥
मूलम्
तमिमं विक्रमं लोके प्रथितं ते यशस्करम्।
निवेदयावः कौन्तेय कुरुराजस्य धीमतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीनन्दन! चलो, हम दोनों तुम्हारे इस विश्व-विख्यात और यशोवर्धक पराक्रमका वृत्तान्त बुद्धिमान् कुरुराज युधिष्ठिरको बतावें॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधं कर्णस्य संग्रामे दीर्घकालचिकीर्षितम्।
निवेद्य धर्मराजाय त्वमानृण्यं गमिष्यसि ॥ ५ ॥
मूलम्
वधं कर्णस्य संग्रामे दीर्घकालचिकीर्षितम्।
निवेद्य धर्मराजाय त्वमानृण्यं गमिष्यसि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन्हें दीर्घकालसे युद्धमें कर्णके वधकी अभिलाषा थी। आज धर्मराजको यह समाचार बताकर तुम उऋण हो जाओगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमाने महायुद्धे तव कर्णस्य चोभयोः।
द्रष्टुमायोधनं पूर्वमागतो धर्मनन्दनः ॥ ६ ॥
मूलम्
वर्तमाने महायुद्धे तव कर्णस्य चोभयोः।
द्रष्टुमायोधनं पूर्वमागतो धर्मनन्दनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब यह महायुद्ध चल रहा था, उस समय तुम्हारा और कर्णका युद्ध देखनेके लिये धर्मनन्दन युधिष्ठिर पहले आये थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भृशं तु गाढविद्धत्वान्नाशकत् स्थातुमाहवे।
ततः स शिबिरं गत्वा स्थितवान् पुरुषर्षभः ॥ ७ ॥
मूलम्
भृशं तु गाढविद्धत्वान्नाशकत् स्थातुमाहवे।
ततः स शिबिरं गत्वा स्थितवान् पुरुषर्षभः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु गहरी चोट खानेके कारण वे देरतक युद्धस्थलमें ठहर न सके। यहाँसे शिबिरमें जाकर वे पुरुषप्रवर युधिष्ठिर विश्राम कर रहे हैं’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्तः केशवस्तु पार्थेन यदुपुङ्गवः।
पर्यावर्तयदव्यग्रो रथं रथवरस्य तम् ॥ ८ ॥
मूलम्
तथेत्युक्तः केशवस्तु पार्थेन यदुपुङ्गवः।
पर्यावर्तयदव्यग्रो रथं रथवरस्य तम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अर्जुनने केशवसे ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की। तत्पश्चात् यदुकुलतिलक श्रीकृष्णने शान्तभावसे रथिश्रेष्ठ अर्जुनके उस रथको युधिष्ठिरके शिबिरकी ओर लौटाया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वार्जुनं कृष्णः सैनिकानिदमब्रवीत् ।
परानभिमुखा यत्तास्तिष्ठध्वं भद्रमस्तु वः ॥ ९ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वार्जुनं कृष्णः सैनिकानिदमब्रवीत् ।
परानभिमुखा यत्तास्तिष्ठध्वं भद्रमस्तु वः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनसे पूर्वोक्त बात कहकर भगवान् श्रीकृष्ण सैनिकोंसे इस प्रकार बोले—‘वीरो! तुम्हारा कल्याण हो! तुम शत्रुओंका सामना करनेके लिये सदा प्रयत्नपूर्वक डटे रहना’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नं युधामन्युं माद्रीपुत्रौ वृकोदरम्।
युयुधानं च गोविन्द इदं वचनमब्रवीत् ॥ १० ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नं युधामन्युं माद्रीपुत्रौ वृकोदरम्।
युयुधानं च गोविन्द इदं वचनमब्रवीत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद गोविन्द धृष्टद्युम्न, युधामान्यु, नकुल, सहदेव, भीमसेन और सात्यकिसे इस प्रकार बोले—॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावदावेद्यते राज्ञे हतः कर्णोऽर्जुनेन वै।
तावद्भवद्भिर्यत्तैस्तु भवितव्यं नराधिपैः ॥ ११ ॥
मूलम्
यावदावेद्यते राज्ञे हतः कर्णोऽर्जुनेन वै।
तावद्भवद्भिर्यत्तैस्तु भवितव्यं नराधिपैः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अर्जुनने कर्णको मार डाला’ यह समाचार जबतक हमलोग राजा युधिष्ठिरसे निवेदन करते हैं, तबतक तुम सभी नरेशोंको यहाँ शत्रुओंकी ओरसे सावधान रहना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैः शूरैरनुज्ञातो ययौ राजनिवेशनम्।
पार्थमादाय गोविन्दो ददर्श च युधिष्ठिरम् ॥ १२ ॥
मूलम्
स तैः शूरैरनुज्ञातो ययौ राजनिवेशनम्।
पार्थमादाय गोविन्दो ददर्श च युधिष्ठिरम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन शूरवीरोंने उनकी आज्ञा स्वीकार करके जब जानेकी अनुमति दे दी, तब भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको साथ लेकर राजा युधिष्ठिरका दर्शन किया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शयानं राजशार्दूलं काञ्चने शयनोत्तमे।
अगृह्णीतां च मुदितौ चरणौ पार्थिवस्य तौ ॥ १३ ॥
मूलम्
शयानं राजशार्दूलं काञ्चने शयनोत्तमे।
अगृह्णीतां च मुदितौ चरणौ पार्थिवस्य तौ ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर सोनेके उत्तम पलंगपर सो रहे थे। उन दोनोंने वहाँ पहुँचकर बड़ी प्रसन्नताके साथ राजाके चरण पकड़ लिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः प्रहर्षमालक्ष्य हर्षादश्रूण्यवर्तयत् ।
राधेयं निहतं मत्वा समुत्तस्थौ युधिष्ठिरः ॥ १४ ॥
मूलम्
तयोः प्रहर्षमालक्ष्य हर्षादश्रूण्यवर्तयत् ।
राधेयं निहतं मत्वा समुत्तस्थौ युधिष्ठिरः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंके हर्षोल्लासको देखकर राजा युधिष्ठिर यह समझ गये कि राधापुत्र कर्ण मारा गया; अतः वे शय्यासे उठ खड़े हुए और नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच च महाबाहुः पुनः पुनररिंदमः।
वासुदेवार्जुनौ प्रेम्णा तावुभौ परिषस्वजे ॥ १५ ॥
मूलम्
उवाच च महाबाहुः पुनः पुनररिंदमः।
वासुदेवार्जुनौ प्रेम्णा तावुभौ परिषस्वजे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन महाबाहु युधिष्ठिर, श्रीकृष्ण और अर्जुनसे बारंबार प्रेमपूर्वक बोलने और उन दोनोंको हृदयसे लगाने लगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् तस्मै तद् यथावृत्तं वासुदेवः सहार्जुनः।
कथयामास कर्णस्य निधनं यदुपुङ्गवः ॥ १६ ॥
मूलम्
तत् तस्मै तद् यथावृत्तं वासुदेवः सहार्जुनः।
कथयामास कर्णस्य निधनं यदुपुङ्गवः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अर्जुनसहित यदुकुलतिलक वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने कर्णके मारे जानेका सारा समाचार उन्हें यथावत्रूपसे कह सुनाया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईषदुत्स्मयमानस्तु कृष्णो राजानमब्रवीत् ।
युधिष्ठिरं हतामित्रं कृताञ्जलिरथाच्युतः ॥ १७ ॥
मूलम्
ईषदुत्स्मयमानस्तु कृष्णो राजानमब्रवीत् ।
युधिष्ठिरं हतामित्रं कृताञ्जलिरथाच्युतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण हाथ जोड़कर किंचित् मुस्कराते हुए, जिनका शत्रु मारा गया था, उस राजा युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले—॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च पाण्डवश्च वृकोदरः।
त्वं चापि कुशली राजन् माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ १८ ॥
मूलम्
दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च पाण्डवश्च वृकोदरः।
त्वं चापि कुशली राजन् माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! बड़े सौभाग्यकी बात है कि गाण्डीवधारी अर्जुन, पाण्डव भीमसेन, पाण्डुकुमार माद्रीनन्दन नकुल-सहदेव और आप भी सकुशल हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुक्ता वीरक्षयादस्मात् संग्रामाल्लोमहर्षणात् ।
क्षिप्रमुत्तरकालानि कुरु कार्याणि पाण्डव ॥ १९ ॥
मूलम्
मुक्ता वीरक्षयादस्मात् संग्रामाल्लोमहर्षणात् ।
क्षिप्रमुत्तरकालानि कुरु कार्याणि पाण्डव ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप सब लोग वीरोंका विनाश करनेवाले इस रोमांचकारी संग्रामसे मुक्त हो गये। पाण्डुनन्दन! अब आगे जो कार्य करने हैं, उन्हें शीघ्र पूर्ण कीजिये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतो वैकर्तनो राजन् सूतपुत्रो महारथः।
दिष्ट्या जयसि राजेन्द्र दिष्ट्या वर्धसि भारत ॥ २० ॥
मूलम्
हतो वैकर्तनो राजन् सूतपुत्रो महारथः।
दिष्ट्या जयसि राजेन्द्र दिष्ट्या वर्धसि भारत ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! महारथी सूतपुत्र वैकर्तन कर्ण मारा गया, राजेन्द्र! सौभाग्यसे आप विजयी हो रहे हैं। भारत! आपकी वृद्धि हो रही है, यह परम सौभाग्यकी बात है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु द्यूतजितां कृष्णां प्राहसत् पुरुषाधमः।
तस्याद्य सूतपुत्रस्य भूमिः पिबति शोणितम् ॥ २१ ॥
मूलम्
यस्तु द्यूतजितां कृष्णां प्राहसत् पुरुषाधमः।
तस्याद्य सूतपुत्रस्य भूमिः पिबति शोणितम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिस नराधमने जूएमें जीती हुई द्रौपदीका उपहास किया था, आज पृथ्वी उस सूतपुत्र कर्णका रक्त पी रही है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शेतेऽसौ शरपूर्णाङ्गः शत्रुस्ते कुरुपुङ्गव।
तं पश्य पुरुषव्याघ्र विभिन्नं बहुभिः शरैः ॥ २२ ॥
मूलम्
शेतेऽसौ शरपूर्णाङ्गः शत्रुस्ते कुरुपुङ्गव।
तं पश्य पुरुषव्याघ्र विभिन्नं बहुभिः शरैः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुपुंगव! आपका वह शत्रु रणभूमिमें सो रहा है और उसके सारे शरीरमें बाण भरे हुए हैं। नरव्याघ्र! अनेक बाणोंसे क्षत-विक्षत हुए उस कर्णको आप देखिये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतामित्रामिमामुर्वीमनुशाधि महाभुज ।
यत्तो भूत्वा सहास्माभिर्भुङ्क्ष्व भोगांश्च पुष्कलान् ॥ २३ ॥
मूलम्
हतामित्रामिमामुर्वीमनुशाधि महाभुज ।
यत्तो भूत्वा सहास्माभिर्भुङ्क्ष्व भोगांश्च पुष्कलान् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! आप सावधान होकर हम सब लोगोंके साथ इस निष्कंटक हुई पृथ्वीका शासन और प्रचुर भोगोंका उपभोग कीजिये’॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
संयज उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति श्रुत्वा वचस्तस्य केशवस्य महात्मनः।
धर्मपुत्रः प्रहृष्टात्मा दाशार्हं वाक्यमब्रवीत् ॥ २४ ॥
मूलम्
इति श्रुत्वा वचस्तस्य केशवस्य महात्मनः।
धर्मपुत्रः प्रहृष्टात्मा दाशार्हं वाक्यमब्रवीत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! महात्मा श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिरका चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णसे वार्तालाप आरम्भ किया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या दिष्ट्येति राजेन्द्र वाक्यं चेदमुवाच ह।
नैतच्चित्रं महाबाहो त्वयि देवकिनन्दन ॥ २५ ॥
त्वया सारथिना पार्थो यत्नवानहनश्च तम्।
न तच्चित्रं महाबाहो युष्मद्बुद्धिप्रसादजम् ॥ २६ ॥
मूलम्
दिष्ट्या दिष्ट्येति राजेन्द्र वाक्यं चेदमुवाच ह।
नैतच्चित्रं महाबाहो त्वयि देवकिनन्दन ॥ २५ ॥
त्वया सारथिना पार्थो यत्नवानहनश्च तम्।
न तच्चित्रं महाबाहो युष्मद्बुद्धिप्रसादजम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! ‘अहो भाग्य! अहो भाग्य!’ ऐसा कहकर युधिष्ठिर इस प्रकार बोले—‘महाबाहु देवकीनन्दन! आपके रहते यह महान् कार्य सम्पन्न होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। आप-जैसे सारथिके होते ही पार्थने प्रयत्नपूर्वक उसका वध किया है। महाबाहो! आपकी बुद्धिके प्रसादसे ऐसा होना आश्चर्य नहीं है’॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगृह्य च कुरुश्रेष्ठ साङ्गदं दक्षिणं भुजम्।
उवाच धर्मभृत् पार्थ उभौ तौ केशवार्जुनौ ॥ २७ ॥
मूलम्
प्रगृह्य च कुरुश्रेष्ठ साङ्गदं दक्षिणं भुजम्।
उवाच धर्मभृत् पार्थ उभौ तौ केशवार्जुनौ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! इसके बाद धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरने बाजूबंदविभूषित श्रीकृष्णका दाहिना हाथ अपने हाथमें लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनोंसे कहा—॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरनारायणौ देवौ कथितौ नारदेन मे।
धर्मात्मानौ महात्मानौ पुराणावृषिसत्तमौ ॥ २८ ॥
मूलम्
नरनारायणौ देवौ कथितौ नारदेन मे।
धर्मात्मानौ महात्मानौ पुराणावृषिसत्तमौ ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! देवर्षि नारदने मुझसे कहा था कि आप दोनों धर्मात्मा, महात्मा, पुराणपुरुष तथा ऋषिप्रवर साक्षात् भगवान् नर और नारायण हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असकृच्चापि मेधावी कृष्णद्वैपायनो मम।
कथामेतां महाभाग कथयामास तत्त्ववित् ॥ २९ ॥
मूलम्
असकृच्चापि मेधावी कृष्णद्वैपायनो मम।
कथामेतां महाभाग कथयामास तत्त्ववित् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाभाग! परम बुद्धिमान् तत्त्ववेत्ता महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायनने भी बारंबार मुझसे यही बात कही है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव कृष्ण प्रसादेन पाण्डवोऽयं धनंजयः।
जिगायाभिमुखः शत्रून् न चासीद् विमुखः क्वचित् ॥ ३० ॥
मूलम्
तव कृष्ण प्रसादेन पाण्डवोऽयं धनंजयः।
जिगायाभिमुखः शत्रून् न चासीद् विमुखः क्वचित् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण! आपके प्रसादसे ही ये पाण्डुपुत्र धनंजय सदा सामने रहकर युद्धमें शत्रुओंपर विजयी हुए हैं और कभी युद्धसे मुँह नहीं मोड़ सके हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयश्चैव ध्रुवोऽस्माकं न त्वस्माकं पराजयः।
यदा त्वं युधि पार्थस्य सारथ्यमुपजग्मिवान् ॥ ३१ ॥
मूलम्
जयश्चैव ध्रुवोऽस्माकं न त्वस्माकं पराजयः।
यदा त्वं युधि पार्थस्य सारथ्यमुपजग्मिवान् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! जब आप युद्धमें अर्जुनके सारथि बने थे, तभी हमें यह विश्वास हो गया था कि हमलोगोंकी विजय निश्चित है, अटल है। हमारी पराजय नहीं हो सकती॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मो द्रोणश्च कर्णश्च महात्मा गौतमः कृपः।
अन्ये च बहवः शूरा ये च तेषां पदानुगाः॥३२॥
त्वद्बुद्ध्या निहते कर्णे हता गोविन्द सर्वथा।
मूलम्
भीष्मो द्रोणश्च कर्णश्च महात्मा गौतमः कृपः।
अन्ये च बहवः शूरा ये च तेषां पदानुगाः॥३२॥
त्वद्बुद्ध्या निहते कर्णे हता गोविन्द सर्वथा।
अनुवाद (हिन्दी)
‘गोविन्द! भीष्म, द्रोण, कर्ण, महात्मा गौतमवंशी कृपाचार्य तथा इनके पीछे चलनेवाले जो और भी बहुत-से शूरवीर हैं और रहे हैं, आपकी बुद्धिसे आज कर्णके मारे जानेपर उन सबका वध हो गया, ऐसा मैं मानता हूँ’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा धर्मराजस्तु रथं हेमविभूषितम् ॥ ३३ ॥
श्वेतवर्णैर्हयैर्युक्तं कालवालैर्मनोजवैः ।
आस्थाय पुरुषव्याघ्रः स्वबलेनाभिसंवृतः ॥ ३४ ॥
प्रययौ स महाबाहुर्द्रष्टुमायोधनं तदा।
कृष्णार्जुनाभ्यां वीराभ्यामनुमन्त्र्य ततः प्रियम् ॥ ३५ ॥
आभाषमाणस्तौ वीरावुभौ माधवफाल्गुनौ ।
स ददर्श रणे कर्णं शयानं पुरुषर्षभम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा धर्मराजस्तु रथं हेमविभूषितम् ॥ ३३ ॥
श्वेतवर्णैर्हयैर्युक्तं कालवालैर्मनोजवैः ।
आस्थाय पुरुषव्याघ्रः स्वबलेनाभिसंवृतः ॥ ३४ ॥
प्रययौ स महाबाहुर्द्रष्टुमायोधनं तदा।
कृष्णार्जुनाभ्यां वीराभ्यामनुमन्त्र्य ततः प्रियम् ॥ ३५ ॥
आभाषमाणस्तौ वीरावुभौ माधवफाल्गुनौ ।
स ददर्श रणे कर्णं शयानं पुरुषर्षभम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर पुरुषसिंह महाबाहु धर्मराज युधिष्ठिर श्वेतवर्ण और काली पूँछवाले, मनके समान वेगशाली घोड़ोंसे जुते हुए सुवर्णभूषित रथपर आरूढ़ हो अपनी सेनाके साथ युद्ध देखनेके लिये चले। श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों वीरोंके साथ प्रिय विषयपर परामर्श और उनसे वार्तालाप करते हुए युधिष्ठिरने रणभूमिमें सोये हुए पुरुषप्रवर कर्णको देखा॥३३—३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा कदम्बकुसुमं केसरैः सर्वतो वृतम्।
चितं शरशतैः कर्णं धर्मराजो ददर्श सः ॥ ३७ ॥
मूलम्
यथा कदम्बकुसुमं केसरैः सर्वतो वृतम्।
चितं शरशतैः कर्णं धर्मराजो ददर्श सः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कदम्बका फूल सब ओरसे केसरोंसे भरा होता है, उसी प्रकार कर्णका शरीर सैकड़ों बाणोंसे व्याप्त था। धर्मराज युधिष्ठिरने इसी अवस्थामें उसे देखा॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धतैलावसिक्ताभिः काञ्चनीभिः सहस्रशः ।
दीपिकाभिः कृतोद्योतं पश्यते वै वृषं तदा ॥ ३८ ॥
मूलम्
गन्धतैलावसिक्ताभिः काञ्चनीभिः सहस्रशः ।
दीपिकाभिः कृतोद्योतं पश्यते वै वृषं तदा ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सुगन्धित तेलसे भरे हुए सहस्रों सोनेके दीपक जलाकर प्रकाश किया गया था। उसी उजालेमें वे धर्मात्मा कर्णको देख रहे थे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संछिन्नभिन्नकवचं बाणैश्च विदलीकृतम् ।
सपुत्रं निहतं दृष्ट्वा कर्णं राजा युधिष्ठिरः ॥ ३९ ॥
संजातप्रत्ययोऽतीव वीक्ष्य चैवं पुनः पुनः।
प्रशशंस नरव्याघ्रावुभौ माधवपाण्डवौ ॥ ४० ॥
मूलम्
संछिन्नभिन्नकवचं बाणैश्च विदलीकृतम् ।
सपुत्रं निहतं दृष्ट्वा कर्णं राजा युधिष्ठिरः ॥ ३९ ॥
संजातप्रत्ययोऽतीव वीक्ष्य चैवं पुनः पुनः।
प्रशशंस नरव्याघ्रावुभौ माधवपाण्डवौ ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका कवच छिन्न-भिन्न हो गया था और सारा शरीर बाणोंसे विदीर्ण हो चुका था। उस अवस्थामें पुत्रसहित मरे हुए कर्णको देखकर बारंबार उसका निरीक्षण करके राजा युधिष्ठिरको इस बातपर पूरा-पूरा विश्वास हुआ। फिर वे पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनोंकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य राजास्मि गोविन्द पृथिव्यां भ्रातृभिः सह।
त्वया नाथेन वीरेण विदुषा परिपालितः ॥ ४१ ॥
मूलम्
अद्य राजास्मि गोविन्द पृथिव्यां भ्रातृभिः सह।
त्वया नाथेन वीरेण विदुषा परिपालितः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कहा—‘गोविन्द! आप-जैसे विद्वान् और वीर स्वामी एवं संरक्षकके द्वारा सुरक्षित होकर आज मैं भाइयोंसहित इस भूमण्डलका राजा हो गया॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतं श्रुत्वा नरव्याघ्रं राधेयमतिमानिनम्।
निराशोऽद्य दुरात्मासौ धार्तराष्ट्रो भविष्यति ॥ ४२ ॥
जीविते चैव राज्ये च हते राधात्मजे रणे।
त्वत्प्रसादाद् वयं चैव कृतार्थाः पुरुषर्षभ ॥ ४३ ॥
मूलम्
हतं श्रुत्वा नरव्याघ्रं राधेयमतिमानिनम्।
निराशोऽद्य दुरात्मासौ धार्तराष्ट्रो भविष्यति ॥ ४२ ॥
जीविते चैव राज्ये च हते राधात्मजे रणे।
त्वत्प्रसादाद् वयं चैव कृतार्थाः पुरुषर्षभ ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन अत्यन्त अभिमानी नरव्याघ्र राधापुत्र कर्णके मारे जानेका वृत्तान्त सुनकर राज्य और जीवनसे भी निराश हो जायगा। पुरुषोत्तम! आपकी कृपासे रणभूमिमें राधापुत्र कर्णके मारे जानेपर हम सब लोग कृतार्थ हो गये॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या जयसि गोविन्द दिष्ट्या शत्रुर्निपातितः।
दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च विजयी पाण्डुनन्दनः ॥ ४४ ॥
मूलम्
दिष्ट्या जयसि गोविन्द दिष्ट्या शत्रुर्निपातितः।
दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च विजयी पाण्डुनन्दनः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गोविन्द! बड़े भाग्यसे आपकी विजय हुई है। भाग्यसे ही हमारा शत्रु कर्ण आज मार गिराया गया है और सौभाग्यसे ही गाण्डीवधारी पाण्डुनन्दन अर्जुन विजयी हुए हैं’॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयोदश समास्तीर्णा जागरेण सुदुःखिताः।
स्वप्स्यामोऽद्य सुखं रात्रौ त्वत्प्रसादान्महाभुज ॥ ४५ ॥
मूलम्
त्रयोदश समास्तीर्णा जागरेण सुदुःखिताः।
स्वप्स्यामोऽद्य सुखं रात्रौ त्वत्प्रसादान्महाभुज ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! अत्यन्त दुःखी होकर हमलोगोंने जागते हुए तेरह वर्ष व्यतीत किये हैं। आजकी रातमें आपकी कृपासे हमलोग सुखपूर्वक सो सकेंगे’॥४५॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स बहुशो राजा प्रशशंस जनार्दनम्।
अर्जुनं च कुरुश्रेष्ठं धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ४६ ॥
मूलम्
एवं स बहुशो राजा प्रशशंस जनार्दनम्।
अर्जुनं च कुरुश्रेष्ठं धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! इस प्रकार धर्मराज राजा युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्ण तथा कुरुश्रेष्ठ अर्जुनकी बारंबार प्रशंसा की॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा च निहतं कर्णं सपुत्रं पार्थसायकैः।
पुनर्जातमिवात्मानं मेने च स महीपतिः ॥ ४७ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा च निहतं कर्णं सपुत्रं पार्थसायकैः।
पुनर्जातमिवात्मानं मेने च स महीपतिः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रसहित कर्णको अर्जुनके बाणोंसे मारा गया देख राजा युधिष्ठिरने अपना नया जन्म हुआ-सा माना॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समेत्य च महाराज कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
हर्षयन्ति स्म राजानं हर्षयुक्ता महारथाः ॥ ४८ ॥
मूलम्
समेत्य च महाराज कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
हर्षयन्ति स्म राजानं हर्षयुक्ता महारथाः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय हर्षमें भरे हुए पाण्डवपक्षके महारथी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरसे मिलकर उनका हर्ष बढ़ाने लगे॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलः सहदेवश्च पाण्डवश्च वृकोदरः।
सात्यकिश्च महाराज वृष्णीनां प्रवरो रथः ॥ ४९ ॥
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च पाण्डुपाञ्चालसृञ्जयाः।
पूजयन्ति स्म कौन्तेयं निहते सूतनन्दने ॥ ५० ॥
मूलम्
नकुलः सहदेवश्च पाण्डवश्च वृकोदरः।
सात्यकिश्च महाराज वृष्णीनां प्रवरो रथः ॥ ४९ ॥
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च पाण्डुपाञ्चालसृञ्जयाः।
पूजयन्ति स्म कौन्तेयं निहते सूतनन्दने ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! नकुल-सहदेव, पाण्डुपुत्र भीमसेन, वृष्णिवंशके श्रेष्ठ महारथी सात्यकि, धृष्टद्युम्न और शिखण्डी आदि पाण्डव, पांचाल तथा सृंजय योद्धा सूतपुत्र कर्णके मारे जानेपर कुन्तीकुमार अर्जुनकी प्रशंसा करने लगे॥४९-५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वर्धयित्वा नृपतिं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
जितकाशिनो लब्धलक्ष्या युद्धशौण्डाः प्रहारिणः ॥ ५१ ॥
स्तुवन्तः स्तवयुक्ताभिर्वाग्भिः कृष्णौ परंतपौ।
जग्मुः स्वशिबिरायैव मुदा युक्ता महारथाः ॥ ५२ ॥
मूलम्
ते वर्धयित्वा नृपतिं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
जितकाशिनो लब्धलक्ष्या युद्धशौण्डाः प्रहारिणः ॥ ५१ ॥
स्तुवन्तः स्तवयुक्ताभिर्वाग्भिः कृष्णौ परंतपौ।
जग्मुः स्वशिबिरायैव मुदा युक्ता महारथाः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे विजयसे उल्लसित हो रहे थे। उनका लक्ष्य सिद्ध हो गया था। वे युद्धकुशल महारथी योद्धा धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरको बधाई देकर स्तुतियुक्त वचनोंद्वारा शत्रुसंतापी श्रीकृष्ण और अर्जुनकी प्रशंसा करते हुए बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने शिबिरको गये॥५१-५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेष क्षयो वृत्तः सुमहाल्ँलोमहर्षणः।
तव दुर्मन्त्रिते राजन् किमर्थमनुशोचसि ॥ ५३ ॥
मूलम्
एवमेष क्षयो वृत्तः सुमहाल्ँलोमहर्षणः।
तव दुर्मन्त्रिते राजन् किमर्थमनुशोचसि ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार आपकी ही कुमन्त्रणाके फलस्वरूप यह रोमांचकारी महान् जनसंहार हुआ है। अब आप किसलिये बारंबार शोक करते हैं?॥५३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैतदप्रियं राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ।
पपात भूमौ निश्चेष्टश्छिन्नमूल इव द्रुमः ॥ ५४ ॥
मूलम्
श्रुत्वैतदप्रियं राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ।
पपात भूमौ निश्चेष्टश्छिन्नमूल इव द्रुमः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह अप्रिय समाचार सुनकर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र निश्चेष्ट हो जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़े॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा सा पतिता देवी गान्धारी दीर्घदर्शिनी।
शुशोच बहुलालापैः कर्णस्य निधनं युधि ॥ ५५ ॥
मूलम्
तथा सा पतिता देवी गान्धारी दीर्घदर्शिनी।
शुशोच बहुलालापैः कर्णस्य निधनं युधि ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह दूरतक सोचनेवाली गान्धारी देवी भी पछाड़ खाकर गिरीं और बहुत विलाप करती हुई युद्धमें कर्णकी मृत्युके लिये शोक करने लगीं॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां पर्यगृह्णाद् विदुरो नृपतिं संजयस्तथा।
पर्याश्वासयतां चैव तावुभावेव भूमिपम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
तां पर्यगृह्णाद् विदुरो नृपतिं संजयस्तथा।
पर्याश्वासयतां चैव तावुभावेव भूमिपम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय विदुरजीने गान्धारी देवीको और संजयने राजा धृतराष्ट्रको सँभाला। फिर दोनों ही मिलकर राजाको समझाने-बुझाने लगे॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवोत्थापयामासुर्गान्धारीं कुरुयोषितः ।
स दैवं परमं मत्वा भवितव्यं च पार्थिवः ॥ ५७ ॥
परां पीडां समाश्रित्य नष्टचित्तो महातपाः।
चिन्ताशोकपरीतात्मा न जज्ञे मोहपीडितः।
स समाश्वासितो राजा तूष्णीमासीद् विचेतनः ॥ ५८ ॥
मूलम्
तथैवोत्थापयामासुर्गान्धारीं कुरुयोषितः ।
स दैवं परमं मत्वा भवितव्यं च पार्थिवः ॥ ५७ ॥
परां पीडां समाश्रित्य नष्टचित्तो महातपाः।
चिन्ताशोकपरीतात्मा न जज्ञे मोहपीडितः।
स समाश्वासितो राजा तूष्णीमासीद् विचेतनः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार कुरुकुलकी स्त्रियोंने आकर गान्धारी देवीको उठाया। भाग्य और भवितव्यताको ही प्रबल मानकर राजा धृतराष्ट्र भारी व्यथाका अनुभव करने लगे। उनकी विवेकशक्ति नष्ट हो गयी। वे महातपस्वी नरेश चिन्ता और शोकमें डूब गये और मोहसे पीड़ित होनेके कारण उन्हें किसी भी बातकी सुध न रही। विदुर और संजयके समझानेपर राजा धृतराष्ट्र अचेत-से होकर चुपचाप बैठे रह गये॥५७-५८॥
सूचना (हिन्दी)
श्रवणमहिमा
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमं महायुद्धमखं महात्मनो-
र्धनंजयस्याधिरथेश्च यः पठेत् ।
स सम्यगिष्टस्य मखस्य यत् फलं
तदाप्नुयात् संश्रवणाच्च भारत ॥ ५९ ॥
मूलम्
इमं महायुद्धमखं महात्मनो-
र्धनंजयस्याधिरथेश्च यः पठेत् ।
स सम्यगिष्टस्य मखस्य यत् फलं
तदाप्नुयात् संश्रवणाच्च भारत ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! जो मनुष्य महात्मा अर्जुन और कर्णके इस महायुद्धरूपी यज्ञका पाठ अथवा श्रवण करेगा, वह विधिपूर्वक किये हुए यज्ञानुष्ठानका फल प्राप्त कर लेगा॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मखो हि विष्णुर्भगवान् सनातनो
वदन्ति तच्चाग्न्यनिलेन्दुभानवः ।
अतोऽनसूयुः शृणुयात् पठेच्च यः
स सर्वलोकानुचरः सुखी भवेत् ॥ ६० ॥
मूलम्
मखो हि विष्णुर्भगवान् सनातनो
वदन्ति तच्चाग्न्यनिलेन्दुभानवः ।
अतोऽनसूयुः शृणुयात् पठेच्च यः
स सर्वलोकानुचरः सुखी भवेत् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनातन भगवान् विष्णु यज्ञस्वरूप हैं, इस बातको अग्नि, वायु, चन्द्रमा और सूर्य भी कहते हैं। अतः जो मनुष्य दोषदृष्टिका परित्याग करके इस युद्धयज्ञका वर्णन पढ़ता या सुनता है, वह सम्पूर्ण लोकोंमें1 विचरनेवाला और सुखी होता है॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां सर्वदा भक्तिमुपागता नराः
पठन्ति पुण्यां वरसंहितामिमाम् ।
धनेन धान्येन यशसा च मानुषा
नन्दन्ति ते नात्र विचारणास्ति ॥ ६१ ॥
मूलम्
तां सर्वदा भक्तिमुपागता नराः
पठन्ति पुण्यां वरसंहितामिमाम् ।
धनेन धान्येन यशसा च मानुषा
नन्दन्ति ते नात्र विचारणास्ति ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सदा भक्तिभावसे इस उत्तम एवं पुण्यमयी संहिताका पाठ करते हैं, वे धन-धान्य एवं यशसे सम्पन्न हो आनन्दके भागी होते हैं। इस बातमें कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतोऽनसूयुः शृणुयात् सदा तु वै
नरः स सर्वाणि सुखानि चाप्नुयात्।
विष्णुः स्वयंभूर्भगवान् भवश्च
तुष्यन्ति ते तस्य नरोत्तमस्य ॥ ६२ ॥
मूलम्
अतोऽनसूयुः शृणुयात् सदा तु वै
नरः स सर्वाणि सुखानि चाप्नुयात्।
विष्णुः स्वयंभूर्भगवान् भवश्च
तुष्यन्ति ते तस्य नरोत्तमस्य ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जो मनुष्य दोषदृष्टिसे रहित होकर सदा इस संहिताको सुनता है, वह सम्पूर्ण सुखोंको प्राप्त कर लेता है, उस श्रेष्ठ मनुष्यपर भगवान् विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजी भी प्रसन्न होते हैं॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदावाप्तिर्ब्राह्मणस्येह दृष्टा
रणे बलं क्षत्रियाणां जयो युधि।
धनज्येष्ठाश्चापि भवन्ति वैश्याः
शूद्राऽऽरोग्यं प्राप्नुवन्तीह सर्वे ॥ ६३ ॥
मूलम्
वेदावाप्तिर्ब्राह्मणस्येह दृष्टा
रणे बलं क्षत्रियाणां जयो युधि।
धनज्येष्ठाश्चापि भवन्ति वैश्याः
शूद्राऽऽरोग्यं प्राप्नुवन्तीह सर्वे ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके पढ़ने और सुननेसे ब्राह्मणोंको वेदोंका ज्ञान प्राप्त होता है, क्षत्रियोंको बल और युद्धमें विजय प्राप्त होती है, वैश्य धनमें बढ़े-चढ़े हो जाते हैं और समस्त शूद्र आरोग्य लाभ करते हैं॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव विष्णुर्भगवान् सनातनः
स चात्र देवः परिकीर्त्यते यतः।
ततः स कामाल्लँभते सुखी नरो
महामुनेस्तस्य वचोऽर्चितं यथा ॥ ६४ ॥
मूलम्
तथैव विष्णुर्भगवान् सनातनः
स चात्र देवः परिकीर्त्यते यतः।
ततः स कामाल्लँभते सुखी नरो
महामुनेस्तस्य वचोऽर्चितं यथा ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सनातन भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण)-की महिमाका वर्णन किया गया है; अतः मनुष्य इसके स्वाध्यायसे सुखी होकर सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। महामुनि व्यासदेवकी इस परम पूजित वाणीका ऐसा ही प्रभाव है॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपिलानां सवत्सानां वर्षमेकं निरन्तरम्।
यो दद्यात् सुकृतं तद्धि श्रवणात् कर्णपर्वणः ॥ ६५ ॥
मूलम्
कपिलानां सवत्सानां वर्षमेकं निरन्तरम्।
यो दद्यात् सुकृतं तद्धि श्रवणात् कर्णपर्वणः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लगातार एक वर्षतक प्रतिदिन जो बछड़ोंसहित कपिला गौओंका दान करता है, उसे जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, वही कर्णपर्वके श्रवणमात्रसे मिल जाता है॥६५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि युधिष्ठिरहर्षे षण्णवतितमोऽध्यायः ॥ ९६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें युधिष्ठिरका हर्षविषयक छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९६॥
सूचना (हिन्दी)
॥ कर्णपर्व सम्पूर्णम् ॥
-
‘सर्वलोकानुचरः’ का यह अर्थ भी हो सकता है कि सब लोग उसके अनुचर हो जाते हैं। ↩︎