भागसूचना
पञ्चनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कौरव-सेनाका शिबिरकी ओर पलायन और शिबिरोंमें प्रवेश
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हते वैकर्तने राजन् कुरवो भयपीडिताः।
वीक्षमाणा दिशः सर्वाः पर्यापेतुः सहस्रशः ॥ १ ॥
मूलम्
हते वैकर्तने राजन् कुरवो भयपीडिताः।
वीक्षमाणा दिशः सर्वाः पर्यापेतुः सहस्रशः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! वैकर्तन कर्णके मारे जानेपर भयसे पीड़ित हुए सहस्रों कौरव योद्धा सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर देखते हुए भाग निकले॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णं तु निहतं दृष्ट्वा शत्रुभिः परमाहवे।
भीता दिशो व्यकीर्यन्त तावकाः क्षतविक्षताः ॥ २ ॥
मूलम्
कर्णं तु निहतं दृष्ट्वा शत्रुभिः परमाहवे।
भीता दिशो व्यकीर्यन्त तावकाः क्षतविक्षताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंने उस महायुद्धमें वैकर्तन कर्णको मार डाला है, यह देखकर आपके सैनिक भयभीत हो उठे थे। उनका सारा शरीर घावोंसे भर गया था। इसलिये वे भागकर सम्पूर्ण दिशाओंमें बिखर गये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽवहारं चक्रुस्ते योधाः सर्वे समन्ततः।
निवार्यमाणाश्चोद्विग्नास्तावका भृशदुःखिताः ॥ ३ ॥
मूलम्
ततोऽवहारं चक्रुस्ते योधाः सर्वे समन्ततः।
निवार्यमाणाश्चोद्विग्नास्तावका भृशदुःखिताः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब आपके समस्त योद्धा जो अत्यन्त दुःखी और उद्विग्न हो रहे थे, मना करनेपर सब ओरसे युद्ध बंद करके लौटने लगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तन्मतमाज्ञाय पुत्रो दुर्योधनस्तव।
अवहारं ततश्चक्रे शल्यस्यानुमते नृप ॥ ४ ॥
मूलम्
तेषां तन्मतमाज्ञाय पुत्रो दुर्योधनस्तव।
अवहारं ततश्चक्रे शल्यस्यानुमते नृप ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उन सबका अभिप्राय जानकर राजा शल्यकी अनुमति ले आपके पुत्र दुर्योधनने सेनाको लौटनेकी आज्ञा दी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतवर्मा रथैस्तूर्णं वृतो भारत तावकैः।
नारायणावशेषैश्च शिबिरायैव दुद्रुवे ॥ ५ ॥
मूलम्
कृतवर्मा रथैस्तूर्णं वृतो भारत तावकैः।
नारायणावशेषैश्च शिबिरायैव दुद्रुवे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! नारायणी-सेनाके जो वीर शेष रह गये थे, उनसे तथा आपके अन्य रथी योद्धाओंसे घिरा हुआ कृतवर्मा भी तुरंत शिबिरकी ओर ही भाग चला॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गान्धाराणां सहस्रेण शकुनिः परिवारितः।
हतमाधिरथिं दृष्ट्वा शिबिरायैव दुद्रुवे ॥ ६ ॥
मूलम्
गान्धाराणां सहस्रेण शकुनिः परिवारितः।
हतमाधिरथिं दृष्ट्वा शिबिरायैव दुद्रुवे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्रों गान्धार योद्धाओंसे घिरा हुआ शकुनि भी अधिरथपुत्र कर्णको मारा गया देख छावनीकी ओर ही भागा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपः शारद्वतो राजन् नागानीकेन भारत।
महामेघनिभेनाशु शिबिरायैव दुद्रुवे ॥ ७ ॥
मूलम्
कृपः शारद्वतो राजन् नागानीकेन भारत।
महामेघनिभेनाशु शिबिरायैव दुद्रुवे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशी नरेश! शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्य मेघोंकी घटाके समान अपनी गजसेनाके साथ शीघ्रतापूर्वक शिबिरकी ओर ही भाग चले॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थामा ततः शूरो विनिःश्वस्य पुनः पुनः।
पाण्डवानां जयं दृष्ट्वा शिबिरायैव दुद्रुवे ॥ ८ ॥
मूलम्
अश्वत्थामा ततः शूरो विनिःश्वस्य पुनः पुनः।
पाण्डवानां जयं दृष्ट्वा शिबिरायैव दुद्रुवे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर शूरवीर अश्वत्थामा पाण्डवोंकी विजय देख बारंबार उच्छ्वास लेता हुआ छावनीकी ओर ही भागने लगा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संशप्तकावशिष्टेन बलेन महता वृतः।
सुशर्मापि ययौ राजन् वीक्षमाणो भयार्दितः ॥ ९ ॥
मूलम्
संशप्तकावशिष्टेन बलेन महता वृतः।
सुशर्मापि ययौ राजन् वीक्षमाणो भयार्दितः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! संशप्तकोंकी बची हुई विशाल सेनासे घिरा हुआ सुशर्मा भी भयसे पीड़ित हो इधर-उधर देखता हुआ छावनीकी ओर चल दिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनोऽपि नृपतिर्हतसर्वस्वबान्धवः ।
ययौ शोकसमाविष्टश्चिन्तयन् विमना बहु ॥ १० ॥
मूलम्
दुर्योधनोऽपि नृपतिर्हतसर्वस्वबान्धवः ।
ययौ शोकसमाविष्टश्चिन्तयन् विमना बहु ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके भाई नष्ट हो गये थे और सर्वस्व लुट गया था, वह राजा दुर्योधन भी शोकमग्न, उदास और विशेष चिन्तित होकर शिबिरकी ओर चल पड़ा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिन्नध्वजेन शल्यस्तु रथेन रथिनां वरः।
प्रययौ शिबिरायैव वीक्षमाणो दिशो दश ॥ ११ ॥
मूलम्
छिन्नध्वजेन शल्यस्तु रथेन रथिनां वरः।
प्रययौ शिबिरायैव वीक्षमाणो दिशो दश ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंमें श्रेष्ठ राजा शल्यने भी जिसकी ध्वजा कट गयी थी, उस रथके द्वारा दसों दिशाओंकी ओर देखते हुए छावनीकी ओर ही प्रस्थान किया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽपरे सुबहवो भरतानां महारथाः।
प्राद्रवन्त भयत्रस्ता ह्रियाविष्टा विचेतसः ॥ १२ ॥
मूलम्
ततोऽपरे सुबहवो भरतानां महारथाः।
प्राद्रवन्त भयत्रस्ता ह्रियाविष्टा विचेतसः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशियोंके दूसरे-दूसरे बहुसंख्यक महारथी भी भयभीत, लज्जित और अचेत होकर शिबिरकी ओर दौड़े॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असृक् क्षरन्तः सोद्विग्ना वेपमानास्तथातुराः।
कुरवो दुद्रुवुः सर्वे दृष्ट्वा कर्णं निपातितम् ॥ १३ ॥
मूलम्
असृक् क्षरन्तः सोद्विग्ना वेपमानास्तथातुराः।
कुरवो दुद्रुवुः सर्वे दृष्ट्वा कर्णं निपातितम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णको मारा गया देख सभी कौरव-सैनिक खून बहाते और काँपते हुए उद्विग्न तथा आतुर होकर छावनीकी ओर भागने लगे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रशंसन्तोऽर्जुनं केचित् केचित् कर्णं महारथाः।
व्यद्रवन्त दिशो भीताः कुरवः कुरुसत्तम ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रशंसन्तोऽर्जुनं केचित् केचित् कर्णं महारथाः।
व्यद्रवन्त दिशो भीताः कुरवः कुरुसत्तम ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! कौरव-महारथियोंमेंसे कुछ लोग अर्जुनकी प्रशंसा करते थे और कुछ कर्णकी। वे सब-के-सब भयभीत होकर चारों दिशाओंमें भाग खड़े हुए॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां योधसहस्राणां तावकानां महामृधे।
नासीत्तत्र पुमान् कश्चिद् यो युद्धाय मनो दधे ॥ १५ ॥
मूलम्
तेषां योधसहस्राणां तावकानां महामृधे।
नासीत्तत्र पुमान् कश्चिद् यो युद्धाय मनो दधे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके उन हजारों योद्धाओंमें वहाँ कोई भी ऐसा पुरुष नहीं था, जो अपने मनमें उस महासमरमें युद्धके लिये उत्साह रखता हो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हते कर्णे महाराज निराशाः कुरवोऽभवन्।
जीवितेष्वपि राज्येषु दारेषु च धनेषु च ॥ १६ ॥
मूलम्
हते कर्णे महाराज निराशाः कुरवोऽभवन्।
जीवितेष्वपि राज्येषु दारेषु च धनेषु च ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कर्णके मारे जानेपर कौरव अपने राज्यसे, धनसे, स्त्रियोंसे और जीवनसे भी निराश हो गये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् समानीय पुत्रस्ते यत्नेन महता विभुः।
निवेशाय मनो दध्रे दुःखशोकसमन्वितः ॥ १७ ॥
मूलम्
तान् समानीय पुत्रस्ते यत्नेन महता विभुः।
निवेशाय मनो दध्रे दुःखशोकसमन्वितः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुःख और शोकमें डूबे हुए आपके पुत्र राजा दुर्योधनने बड़े यत्नसे उन सबको साथ ले आकर छावनीमें विश्राम करनेका विचार किया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याज्ञां शिरसा योधाः परिगृह्य विशाम्पते।
विवर्णवदना राजन् न्यविशन्त महारथाः ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्याज्ञां शिरसा योधाः परिगृह्य विशाम्पते।
विवर्णवदना राजन् न्यविशन्त महारथाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! वे सब महारथी योद्धा दुर्योधनकी आज्ञा शिरोधार्य करके शिबिरमें प्रविष्ट हुए। उन सबके मुखोंकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी॥१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि शिबिरप्रयाणे पञ्चनवतितमोऽध्यायः ॥ ९५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें कौरव-सेनाका शिबिरकी ओर प्रस्थानविषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९५॥