०९४ रणभूमिवर्णनम्

भागसूचना

चतुर्नवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शल्यके द्वारा रणभूमिका दिग्दर्शन, कौरव-सेनाका पलायन और श्रीकृष्ण तथा अर्जुनका शिविरकी ओर गमन

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा तु सैन्यं परिवर्त्यमानं
पुत्रेण ते मद्रपतिस्तदानीम् ।
संत्रस्तरूपः परिमूढचेता
दुर्योधनं वाक्यमिदं बभाषे ॥ १ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा तु सैन्यं परिवर्त्यमानं
पुत्रेण ते मद्रपतिस्तदानीम् ।
संत्रस्तरूपः परिमूढचेता
दुर्योधनं वाक्यमिदं बभाषे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! आपके पुत्रद्वारा सेनाको पुनः लौटानेका प्रयत्न होता देख उस समय भयभीत और मूढ़चित्त हुए मद्रराज शल्यने दुर्योधनसे इस प्रकार कहा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

शल्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्येदमुग्रं नरवाजिनागै-
रायोधनं वीरहतैः सुपूर्णम् ।
महीधराभैः पतितैश्च नागैः
सकृत्प्रभिन्नैः शरभिन्नदेहैः ॥ २ ॥
सुविह्वलद्भिश्च गतासुभिश्च
प्रध्वस्तवर्मायुधचर्मखड्गैः ।
वज्रापविद्धैरिव चाचलोत्तमै-
र्विभिन्नपाषाणमहाद्रुमौषधैः ॥ ३ ॥
प्रविद्धघण्टाङ्कुशतोमरध्वजैः
सहेमजालै रुधिरौघसम्प्लुतैः ।
शरावभिन्नैः पतितैस्तुरङ्गमैः
श्वसद्भिरार्तैः क्षतजं वमद्भिः ॥ ४ ॥
दीनं स्तनद्भिः परिवृत्तनेत्रै-
र्महीं दशद्भिः कृपणं नदद्भिः।
तथापविद्धैर्गजवाजियोधैः
शरापविद्धैरथ वीरसंघैः ॥ ५ ॥
मन्दासुभिश्चैव गतासुभिश्च
नराश्वनागैश्च रथैश्च मर्दितैः ।
मन्दांशुभिश्चैव मही महाहवे
नूनं यथा वैतरणीव भाति ॥ ६ ॥

मूलम्

पश्येदमुग्रं नरवाजिनागै-
रायोधनं वीरहतैः सुपूर्णम् ।
महीधराभैः पतितैश्च नागैः
सकृत्प्रभिन्नैः शरभिन्नदेहैः ॥ २ ॥
सुविह्वलद्भिश्च गतासुभिश्च
प्रध्वस्तवर्मायुधचर्मखड्गैः ।
वज्रापविद्धैरिव चाचलोत्तमै-
र्विभिन्नपाषाणमहाद्रुमौषधैः ॥ ३ ॥
प्रविद्धघण्टाङ्कुशतोमरध्वजैः
सहेमजालै रुधिरौघसम्प्लुतैः ।
शरावभिन्नैः पतितैस्तुरङ्गमैः
श्वसद्भिरार्तैः क्षतजं वमद्भिः ॥ ४ ॥
दीनं स्तनद्भिः परिवृत्तनेत्रै-
र्महीं दशद्भिः कृपणं नदद्भिः।
तथापविद्धैर्गजवाजियोधैः
शरापविद्धैरथ वीरसंघैः ॥ ५ ॥
मन्दासुभिश्चैव गतासुभिश्च
नराश्वनागैश्च रथैश्च मर्दितैः ।
मन्दांशुभिश्चैव मही महाहवे
नूनं यथा वैतरणीव भाति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य बोले— वीर नरेश! देखो, मारे गये मनुष्यों, घोड़ों और हाथियोंकी लाशोंसे भरा हुआ यही युद्धस्थल कैसा भयंकर जान पड़ता है? पर्वताकार गजराज, जिनके मस्तकोंसे मदकी धारा फूटकर बहती थी, एक ही साथ बाणोंकी मारसे शरीर विदीर्ण हो जानेके कारण धराशायी हो गये हैं। उनमेंसे कितने ही वेदनासे छटपटा रहे हैं, कितनोंके प्राण निकल गये हैं। उनपर बैठे हुए सवारोंके कवच, अस्त्र-शस्त्र, ढाल और तलवार आदि नष्ट हो गये हैं। इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो वज्रके आघातसे बड़े-बड़े पर्वत ढह गये हों और उनके प्रस्तरखण्ड, विशाल वृक्ष तथा औषधसमूह छिन्न-भिन्न हो गये हों। उन गजराजोंके घंटा, अंकुश, तोमर और ध्वज आदि सभी वस्तुएँ बाणोंके आघातसे टूट-फूटकर बिखर गयी हैं। उन हाथियोंके ऊपर सोनेकी जालीसे युक्त आवरण पड़ा है। उनकी लाशें रक्तके प्रवाहसे नहा गयी हैं। घोड़े बाणोंसे विदीर्ण होकर गिरे हैं, वेदनासे व्यथित हो उच्छ्‌वास लेते और मुखसे रक्त वमन करते हैं। वे दीनतापूर्ण आर्तनाद कर रहे हैं। उनकी आँखें घूम रही हैं। वे धरतीमें दाँत गड़ाते और करुण चीत्कार करते हैं। हाथी, घोड़े, पैदल सैनिक तथा वीरसमुदाय बाणोंसे क्षत-विक्षत हो मरे पड़े हैं। किन्हींकी साँसें कुछ-कुछ चल रही हैं और कुछ लोगोंके प्राण सर्वथा निकल गये हैं। हाथी, घोड़े, मनुष्य और रथ कुचल दिये गये हैं। इन सबकी कान्ति मन्द पड़ गयी है। इनके कारण उस महासमरकी भूमि निश्चय ही वैतरणीके समान प्रतीत होती है॥२—६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजैर्निकृत्तैर्वरहस्तगात्रै-
रुद्वेपमानैः पतितैः पृथिव्याम् ।
विशीर्णदन्तैः क्षतजं वमद्भिः
स्फुरद्भिरार्तैः करुणं नदद्भिः ॥ ७ ॥

मूलम्

गजैर्निकृत्तैर्वरहस्तगात्रै-
रुद्वेपमानैः पतितैः पृथिव्याम् ।
विशीर्णदन्तैः क्षतजं वमद्भिः
स्फुरद्भिरार्तैः करुणं नदद्भिः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथियोंके शुण्डदण्ड और शरीर छिन्न-भिन्न हो गये हैं। कितने ही हाथी पृथ्वीपर गिरकर काँप रहे हैं, कितनोंके दाँत टूट गये हैं और वे खून उगलते तथा छटपटाते हुए वेदनाग्रस्त हो करुण स्वरमें कराह रहे हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निकृत्तचक्रेषुयुगैः सयोक्तृभिः
प्रविद्धतूणीरपताककेतुभिः ।
सुवर्णजालावततैर्भृशाहतै-
र्महारथौघैर्जलदैरिवावृता ॥ ८ ॥

मूलम्

निकृत्तचक्रेषुयुगैः सयोक्तृभिः
प्रविद्धतूणीरपताककेतुभिः ।
सुवर्णजालावततैर्भृशाहतै-
र्महारथौघैर्जलदैरिवावृता ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े रथोंके समूह इस रणभूमिमें बादलोंके समान छा गये हैं। उनके पहिये, बाण, जूए और बन्धन कट गये हैं। तरकस, ध्वज और पताकाएँ फेंकी पड़ी हैं; सोनेके जालसे आवृत हुए वे रथ बहुत ही क्षतिग्रस्त हो गये हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशस्विभिर्नागरथाश्वयोधिभिः
पदातिभिश्चाभिमुखैर्हतैः परैः ।
विशीर्णवर्माभरणाम्बरायुधै-
र्वृता प्रशान्तैरिव तावकैर्मही ॥ ९ ॥

मूलम्

यशस्विभिर्नागरथाश्वयोधिभिः
पदातिभिश्चाभिमुखैर्हतैः परैः ।
विशीर्णवर्माभरणाम्बरायुधै-
र्वृता प्रशान्तैरिव तावकैर्मही ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथी, रथ और घोड़ोंपर सवार होकर युद्ध करनेवाले यशस्वी योद्धा और पैदल वीर सामने लड़ते हुए शत्रुओंके हाथसे मारे गये हैं। उनके कवच, आभूषण, वस्त्र और आयुध सभी छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये हैं। इस प्रकार शान्त पड़े हुए आपके प्राणहीन योद्धाओंसे यह पृथ्वी पट गयी है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरप्रहाराभिहतैर्महाबलै-
रवेक्ष्यमाणैः पतितैः सहस्रशः ।
दिवश्च्युतैर्भूरतिदीप्तिमद्भि-
र्नक्तं ग्रहैर्द्यौरमलप्रदीप्तैः ॥ १० ॥

मूलम्

शरप्रहाराभिहतैर्महाबलै-
रवेक्ष्यमाणैः पतितैः सहस्रशः ।
दिवश्च्युतैर्भूरतिदीप्तिमद्भि-
र्नक्तं ग्रहैर्द्यौरमलप्रदीप्तैः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाणोंके प्रहारसे घायल होकर गिरे हुए सहस्रों महाबली योद्धा आकाशसे नीचे गिरे हुए अत्यन्त दीप्तिमान् एवं निर्मल प्रभासे प्रकाशित ग्रहोंके समान दिखायी देते हैं और उनसे ढकी हुई यह भूमि रातके समय उन ग्रहोंसे व्याप्त हुए आकाशके सदृश सुशोभित होती है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणष्टसंज्ञैः पुनरुच्छ्‌वसद्भि-
र्मही बभूवानुगतैरिवाग्निभिः ।
कर्णार्जुनाभ्यां शरभिन्नगात्रै-
र्हतैः प्रवीरैः कुरुसृञ्जयानाम् ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रणष्टसंज्ञैः पुनरुच्छ्‌वसद्भि-
र्मही बभूवानुगतैरिवाग्निभिः ।
कर्णार्जुनाभ्यां शरभिन्नगात्रै-
र्हतैः प्रवीरैः कुरुसृञ्जयानाम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण और अर्जुनके बाणोंसे जिनके अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो गये हैं, उन मारे गये कौरव-सृंजय वीरोंकी लाशोंसे भरी हुई भूमि यज्ञमें स्थापित हुई अग्नियोंके द्वारा यज्ञभूमिके समान सुशोभित होती है। उनमेंसे कितने ही वीरोंकी चेतना लुप्त हो गयी है और कितने ही पुनः साँस ले रहे हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरास्तु कर्णार्जुनबाहुमुक्ता
विदार्य नागाश्वमनुष्यदेहान् ।
प्राणान् निरस्याशु महीं प्रतीयु-
र्महोरगा वासमिवातिताम्राः ॥ १२ ॥

मूलम्

शरास्तु कर्णार्जुनबाहुमुक्ता
विदार्य नागाश्वमनुष्यदेहान् ।
प्राणान् निरस्याशु महीं प्रतीयु-
र्महोरगा वासमिवातिताम्राः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण और अर्जुनके हाथोंसे छूटे हुए बाण हाथी, घोड़े और मनुष्योंके शरीरोंको विदीर्ण करके उनके प्राण निकालकर तुरंत पृथ्वीमें घुस गये थे, मानो अत्यन्त लाल रंगके विशाल सर्प अपनी बिलमें जा घुसे हों॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतैर्मनुष्याश्वगजैश्च संख्ये
शरापविद्धैश्च रथैर्नरेन्द्र ।
धनंजयस्याधिरथेश्च मार्गणै-
रगम्यरूपा वसुधा बभूव ॥ १३ ॥

मूलम्

हतैर्मनुष्याश्वगजैश्च संख्ये
शरापविद्धैश्च रथैर्नरेन्द्र ।
धनंजयस्याधिरथेश्च मार्गणै-
रगम्यरूपा वसुधा बभूव ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेन्द्र! अर्जुन और कर्णके बाणोंद्वारा मारे गये हाथी, घोड़े एवं मनुष्योंसे तथा बाणोंसे नष्ट-भ्रष्ट होकर गिरे पड़े रथोंसे इस पृथ्वीपर चलना-फिरना असम्भव हो गया है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथैर्वरेषून्मथितैः सुकल्पैः
सयोधशस्त्रैश्च वरायुधैर्ध्वजैः ।
विशीर्णयोक्त्रैर्विनिकृत्तबन्धनै-
र्निकृत्तचक्राक्षयुगत्रिवेणुभिः ॥ १४ ॥

मूलम्

रथैर्वरेषून्मथितैः सुकल्पैः
सयोधशस्त्रैश्च वरायुधैर्ध्वजैः ।
विशीर्णयोक्त्रैर्विनिकृत्तबन्धनै-
र्निकृत्तचक्राक्षयुगत्रिवेणुभिः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सजे-सजाये रथ बाणोंके आघातसे मथ डाले गये हैं। उनके साथ जो योद्धा, शस्त्र, श्रेष्ठ आयुध और ध्वज आदि थे, उनकी भी यही दशा हुई है। उनके पहिये, बन्धनरज्जु, धुरे, जूए और त्रिवेणु काष्ठके भी टुकड़े-टुकड़े हो गये हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुक्तशस्त्रैश्च तथा व्युपस्करै-
र्हतानुकर्षैर्विनिषङ्गबन्धनैः ।
प्रभग्ननीडैर्मणिहेमभूषितैः
स्तृता मही द्यौरिव शारदैर्घनैः ॥ १५ ॥

मूलम्

विमुक्तशस्त्रैश्च तथा व्युपस्करै-
र्हतानुकर्षैर्विनिषङ्गबन्धनैः ।
प्रभग्ननीडैर्मणिहेमभूषितैः
स्तृता मही द्यौरिव शारदैर्घनैः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनपर जो अस्त्र-शस्त्र रखे गये थे, वे सब दूर जा पड़े हैं। सारी सामग्री नष्ट हो गयी है। अनुकर्ष, तूणीर और बन्धनरज्जु—ये सब-के-सब नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं। उन रथोंकी बैठकें टूट-फूट गयी हैं। सुवर्ण और मणियोंसे विभूषित उन रथोंद्वारा आच्छादित हुई पृथ्वी शरद्-ऋतुके बादलोंसे ढके हुए आकाशके समान जान पड़ती है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकृष्यमाणैर्जवनैस्तुरङ्गमै-
र्हतेश्वरै राजरथैः सुकल्पितैः ।
मनुष्यमातङ्गरथाश्वराशिभि-
र्द्रुतं व्रजन्तो बहुधा विचूर्णिताः ॥ १६ ॥

मूलम्

विकृष्यमाणैर्जवनैस्तुरङ्गमै-
र्हतेश्वरै राजरथैः सुकल्पितैः ।
मनुष्यमातङ्गरथाश्वराशिभि-
र्द्रुतं व्रजन्तो बहुधा विचूर्णिताः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके स्वामी (रथी) मारे गये हैं, राजाओंके उन सुसज्जित रथोंको, जब वेगशाली घोड़े खींचे लिये जाते थे और झुंड-के-झुंड मनुष्य, हाथी, साधारण रथ और अश्व भी भागे जा रहे थे, उस समय उनके द्वारा शीघ्रतापूर्वक भागनेवाले बहुत-से मनुष्य कुचलकर चूर-चूर हो गये हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहेमपट्टाः परिघाः परश्वधाः
शिताश्च शूला मुसलानि मुद्‌गराः।
पेतुश्च खड्गा विमला विकोशा
गदाश्च जाम्बूनदपट्टनद्धाः ॥ १७ ॥

मूलम्

सहेमपट्टाः परिघाः परश्वधाः
शिताश्च शूला मुसलानि मुद्‌गराः।
पेतुश्च खड्गा विमला विकोशा
गदाश्च जाम्बूनदपट्टनद्धाः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्ण-पत्रसे जड़े गये परिघ, फरसे, तीखे शूल, मूसल, मुद्‌गर, म्यानसे बाहर निकाली हुई चमचमाती तलवारें और स्वर्णजटित गदाएँ जहाँ-तहाँ बिखरी पड़ी हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चापानि रुक्माङ्गदभूषणानि
शराश्च कार्तस्वरचित्रपुङ्खाः ।
ऋष्ट्‌यश्च पीता विमला विकोशाः
प्रासाश्च दण्डैः कनकावभासैः ॥ १८ ॥
छत्राणि वालव्यजनानि शङ्खा-
श्छिन्नापविद्धाश्च स्रजो विचित्राः ।

मूलम्

चापानि रुक्माङ्गदभूषणानि
शराश्च कार्तस्वरचित्रपुङ्खाः ।
ऋष्ट्‌यश्च पीता विमला विकोशाः
प्रासाश्च दण्डैः कनकावभासैः ॥ १८ ॥
छत्राणि वालव्यजनानि शङ्खा-
श्छिन्नापविद्धाश्च स्रजो विचित्राः ।

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णमय अंगदोंसे विभूषित धनुष, सोनेके विचित्र पंखवाले बाण, ऋष्टि, पानीदार एवं कोशरहित निर्मल खड्ग तथा सुनहरे डंडोंसे युक्त प्रास, छत्र, चँवर, शंख और विचित्र मालाएँ छिन्न-भिन्न होकर फेंकी पड़ी हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुथाः पताकाम्बरभूषणानि
किरीटमाला मुकुटाश्च शुभ्राः ॥ १९ ॥
प्रकीर्णका विप्रकीर्णाश्च राजन्
प्रवालमुक्तातरलाश्च हाराः ।

मूलम्

कुथाः पताकाम्बरभूषणानि
किरीटमाला मुकुटाश्च शुभ्राः ॥ १९ ॥
प्रकीर्णका विप्रकीर्णाश्च राजन्
प्रवालमुक्तातरलाश्च हाराः ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! हाथीकी पीठपर बिछाये जानेवाले कम्बल या झूल, पताका, वस्त्र, आभूषण, किरीटमाला, उज्ज्वल मुकुट, श्वेत चामर, मूँगे और मोतियोंके हार—से सब-के-सब इधर-उधर बिखरे पड़े हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपीडकेयूरवराङ्गदानि
ग्रैवैयनिष्काः ससुवर्णसूत्राः ॥ २० ॥
मण्युत्तमा वज्रसुवर्णमुक्ता
रत्नानि चोच्चावचमङ्गलानि ।
गात्राणि चात्यन्तसुखोचितानि
शिरांसि चेन्दुप्रतिमाननानि ॥ २१ ॥
देहांश्च भोगांश्च परिच्छदांश्च
त्यक्त्वा मनोज्ञानि सुखानि चैव।
स्वधर्मनिष्ठां महतीमवाप्य
व्याप्याशु लोकान् यशसा गतास्ते ॥ २२ ॥

मूलम्

आपीडकेयूरवराङ्गदानि
ग्रैवैयनिष्काः ससुवर्णसूत्राः ॥ २० ॥
मण्युत्तमा वज्रसुवर्णमुक्ता
रत्नानि चोच्चावचमङ्गलानि ।
गात्राणि चात्यन्तसुखोचितानि
शिरांसि चेन्दुप्रतिमाननानि ॥ २१ ॥
देहांश्च भोगांश्च परिच्छदांश्च
त्यक्त्वा मनोज्ञानि सुखानि चैव।
स्वधर्मनिष्ठां महतीमवाप्य
व्याप्याशु लोकान् यशसा गतास्ते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिरोभूषण, केयूर, सुन्दर अंगद, गलेके हार, पदक, सोनेकी जंजीर, उत्तम मणि, हीरे, सुवर्ण तथा मुक्ता आदि छोटे-बड़े मांगलिक रत्न, अत्यन्त सुख भोगनेके योग्य शरीर, चन्द्रमाको भी लज्जित करनेवाले मुखसे युक्त मस्तक, देह, भोग, आच्छादन-वस्त्र तथा मनोरम सुख—इन सबको त्यागकर स्वधर्मकी पराकाष्ठाका पालन करते हुए सम्पूर्ण लोकोंमें अपने यशका विस्तार करके वे वीर सैनिक दिव्य लोकोंमें पहुँच गये हैं॥२०—२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवर्त दुर्योधन यान्तु सैनिका
व्रजस्व राजन् शिबिराय मानद।
दिवाकरोऽप्येष विलम्बते प्रभो
पुनस्त्वमेवात्र नरेन्द्र कारणम् ॥ २३ ॥

मूलम्

निवर्त दुर्योधन यान्तु सैनिका
व्रजस्व राजन् शिबिराय मानद।
दिवाकरोऽप्येष विलम्बते प्रभो
पुनस्त्वमेवात्र नरेन्द्र कारणम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंको सम्मान देनेवाले राजा दुर्योधन! अब लौटो। इन सैनिकोंको भी जाने दो। शिबिरमें चलो। प्रभो! ये भगवान् सूर्य भी अस्ताचलपर लटक रहे हैं। नरेन्द्र! तुम्हीं इस नर-संहारके प्रधान कारण हो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्त्वा विरराम शल्यो
दुर्योधनं शोकपरीतचेताः ।
हा कर्ण हा कर्ण इति ब्रुवाण-
मार्तं विसंज्ञं भृशमश्रुनेत्रम् ॥ २४ ॥

मूलम्

इत्येवमुक्त्वा विरराम शल्यो
दुर्योधनं शोकपरीतचेताः ।
हा कर्ण हा कर्ण इति ब्रुवाण-
मार्तं विसंज्ञं भृशमश्रुनेत्रम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनसे ऐसा कहकर राजा शल्य चुप हो गये। उनका चित्त शोकसे व्याकुल हो रहा था। दुर्योधन भी आर्त होकर ‘हा कर्ण! हा कर्ण!’ पुकारने लगा। वह सुध-बुध खो बैठा था। उसके नेत्रोंसे वेगपूर्वक आँसुओंकी अविरल धारा बह रही थी॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं द्रोणपुत्रप्रमुखा नरेन्द्राः
सर्वे समाश्वास्य मुहुः प्रयान्ति।
निरीक्षमाणा मुहुरर्जुनस्य
ध्वजं महान्तं यशसा ज्वलन्तम् ॥ २५ ॥

मूलम्

तं द्रोणपुत्रप्रमुखा नरेन्द्राः
सर्वे समाश्वास्य मुहुः प्रयान्ति।
निरीक्षमाणा मुहुरर्जुनस्य
ध्वजं महान्तं यशसा ज्वलन्तम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तथा अन्य सभी नरेश बारंबार आकर दुर्योधनको सान्त्वना देते और अर्जुनके महान् ध्वजको, जो उनके उज्ज्वल यशसे प्रकाशित हो रहा था, देखते हुए फिर लौट जाते थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नराश्वमातङ्गशरीरजेन
रक्तेन सिक्तां च तथैव भूमिम्।
रक्ताम्बरस्रक् तपनीययोगा-
न्नारीं प्रकाशामिव सर्वगम्याम् ॥ २६ ॥

मूलम्

नराश्वमातङ्गशरीरजेन
रक्तेन सिक्तां च तथैव भूमिम्।
रक्ताम्बरस्रक् तपनीययोगा-
न्नारीं प्रकाशामिव सर्वगम्याम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यों, घोड़ों और हाथियोंके शरीरसे बहते हुए रक्तकी धारासे वहाँकी भूमि ऐसी सिंच गयी थी कि लाल वस्त्र, लाल फूलोंकी माला तथा तपाये हुए सुवर्णके आभूषण धारण करके सबके सामने आयी हुई सर्वगम्या नारी (वेश्या)-के समान प्रतीत होती थी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रच्छन्नरूपां रुधिरेण राजन्
रौद्रे मुहूर्तेऽतिविराजमाने ।
नैवावतस्थुः कुरवः समीक्ष्य
प्रव्राजिता देवलोकाय सर्वे ॥ २७ ॥

मूलम्

प्रच्छन्नरूपां रुधिरेण राजन्
रौद्रे मुहूर्तेऽतिविराजमाने ।
नैवावतस्थुः कुरवः समीक्ष्य
प्रव्राजिता देवलोकाय सर्वे ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अत्यन्त शोभा पानेवाले उस रौद्रमुहूर्त (सायंकाल)-में, रुधिरसे जिसका स्वरूप छिप गया था, उस भूमिको देखते हुए कौरव-सैनिक वहाँ ठहर न सके। वे सब-के-सब देवलोककी यात्राके लिये उद्यत थे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधेन कर्णस्य तु दुःखितास्ते
हा कर्ण हा कर्ण इति ब्रुवाणाः।
द्रुतं प्रयाताः शिबिराणि राजन्
दिवाकरं रक्तमवेक्षमाणाः ॥ २८ ॥

मूलम्

वधेन कर्णस्य तु दुःखितास्ते
हा कर्ण हा कर्ण इति ब्रुवाणाः।
द्रुतं प्रयाताः शिबिराणि राजन्
दिवाकरं रक्तमवेक्षमाणाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! समस्त कौरव कर्णके वधसे अत्यन्त दुःखी हो ‘हा कर्ण! हा कर्ण!’ की रट लगाते और लाल सूर्यकी ओर देखते हुए बड़े वेगसे शिबिरकी ओर चले॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाण्डीवमुक्तैस्तु सुवर्णपुङ्खैः
शिलाशितैः शोणितदिग्धवाजैः ।
शरैश्चिताङ्गो युधि भाति कर्णो
हतोऽपि सन् सूर्य इवांशुमाली ॥ २९ ॥

मूलम्

गाण्डीवमुक्तैस्तु सुवर्णपुङ्खैः
शिलाशितैः शोणितदिग्धवाजैः ।
शरैश्चिताङ्गो युधि भाति कर्णो
हतोऽपि सन् सूर्य इवांशुमाली ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए सुवर्णमय पंखवाले और शिलापर तेज किये हुए बाणोंसे कर्णका अंग-अंग बिंध गया था। उन बाणोंकी पाँखें रक्तमें डूबी हुई थीं। उनके द्वारा युद्धस्थलमें पड़ा हुआ कर्ण मर जानेपर भी अंशुमाली सूर्यके समान सुशोभित हो रहा था॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्य देहं रुधिरावसिक्तं
भक्तानुकम्पी भगवान् विवस्वान् ।
स्पृष्ट्वांशुभिर्लोहितरक्तरूपः
सिष्णासुरभ्येति परं समुद्रम् ॥ ३० ॥

मूलम्

कर्णस्य देहं रुधिरावसिक्तं
भक्तानुकम्पी भगवान् विवस्वान् ।
स्पृष्ट्वांशुभिर्लोहितरक्तरूपः
सिष्णासुरभ्येति परं समुद्रम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तोंपर कृपा करनेवाले भगवान् सूर्य खूनसे भीगे हुए कर्णके शरीरका किरणोंद्वारा स्पर्श करके रक्तके समान ही लालरूप धारणकर मानो स्नान करनेकी इच्छासे पश्चिम समुद्रकी ओर जा रहे थे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीव संचिन्त्य सुरर्षिसंघाः
सम्प्रस्थिता यान्ति यथा निकेतनम्।
संचिन्तयित्वा जनता विसस्रु-
र्यथासुखं खं च महीतलं च ॥ ३१ ॥

मूलम्

इतीव संचिन्त्य सुरर्षिसंघाः
सम्प्रस्थिता यान्ति यथा निकेतनम्।
संचिन्तयित्वा जनता विसस्रु-
र्यथासुखं खं च महीतलं च ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस युद्धके ही विषयमें सोच-विचार करते हुए देवताओं तथा ऋषियोंके समुदाय वहाँसे प्रस्थित हो अपने-अपने स्थानको चल दिये और इसी विषयका चिन्तन करते हुए अन्य लोग भी सुखपूर्वक अन्तरिक्ष अथवा भूतलपर अपने-अपने निवासस्थानको चले गये॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदद्भुतं प्राणभृतां भयंकरं
निशाम्य युद्धं कुरुवीरमुख्ययोः ।
धनंजयस्याधिरथेश्च विस्मिताः
प्रशंसमानाः प्रययुस्तदा जनाः ॥ ३२ ॥

मूलम्

तदद्भुतं प्राणभृतां भयंकरं
निशाम्य युद्धं कुरुवीरमुख्ययोः ।
धनंजयस्याधिरथेश्च विस्मिताः
प्रशंसमानाः प्रययुस्तदा जनाः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरव तथा पाण्डवपक्षके उन प्रमुख वीर अर्जुन और कर्णका वह अद्भुत तथा प्राणियोंके लिये भयंकर युद्ध देखकर सब लोग आश्चर्यचकित हो उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँसे चले गये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरसंकृत्तवर्माणं रुधिरोक्षितवाससम् ।
गतासुमपि राधेयं नैव लक्ष्मीर्विमुञ्चति ॥ ३३ ॥

मूलम्

शरसंकृत्तवर्माणं रुधिरोक्षितवाससम् ।
गतासुमपि राधेयं नैव लक्ष्मीर्विमुञ्चति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राधापुत्र कर्णका कवच बाणोंसे कट गया था। उसके सारे वस्त्र खूनसे भीग गये थे और प्राण भी निकल गये थे तो भी उसे शोभा छोड़ नहीं रही थी॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तप्तजाम्बूनदनिभं ज्वलनार्कसमप्रभम् ।
जीवन्तमिव तं शूरं सर्वभूतानि मेनिरे ॥ ३४ ॥

मूलम्

तप्तजाम्बूनदनिभं ज्वलनार्कसमप्रभम् ।
जीवन्तमिव तं शूरं सर्वभूतानि मेनिरे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह तपाये हुए सुवर्ण तथा अग्नि और सूर्यके समान कान्तिमान् था। उस शूरवीरको देखकर सब प्राणी जीवित-सा समझते थे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतस्यापि महाराज सूतपुत्रस्य संयुगे।
वित्रेसुः सर्वतो योधाः सिंहस्येवेतरे मृगाः ॥ ३५ ॥

मूलम्

हतस्यापि महाराज सूतपुत्रस्य संयुगे।
वित्रेसुः सर्वतो योधाः सिंहस्येवेतरे मृगाः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जैसे सिंहसे दूसरे जंगली पशु सदा डरते रहते हैं, उसी प्रकार युद्धस्थलमें मारे गये सूतपुत्रसे भी समस्त योद्धा भय मानते थे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतोऽपि पुरुषव्याघ्र जीववानिव लक्ष्यते।
नाभवद् विकृतिः काचिद्धतस्यापि महात्मनः ॥ ३६ ॥

मूलम्

हतोऽपि पुरुषव्याघ्र जीववानिव लक्ष्यते।
नाभवद् विकृतिः काचिद्धतस्यापि महात्मनः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह नरेश! वह मारा जानेपर भी जीवित-सा दीखता था, महामना कर्णके शरीरमें मरनेपर भी कोई विकार नहीं हुआ था॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारुवेषधरं वीरं चारुमौलिशिरोधरम् ।
तन्मुखं सूतपुत्रस्य पूर्णचन्द्रसमद्युति ॥ ३७ ॥

मूलम्

चारुवेषधरं वीरं चारुमौलिशिरोधरम् ।
तन्मुखं सूतपुत्रस्य पूर्णचन्द्रसमद्युति ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्र कर्णका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान कान्तिमान् था। उसने मनोहर वेष धारण किया था। वह वीरोचित शोभासे सम्पन्न था। उसके मस्तक और कण्ठ भी मनोहर थे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानाभरणवान् राजंस्तप्तजाम्बूनदाङ्गदः ।
हतो वैकर्तनः शेते पादपोऽङ्कुरवानिव ॥ ३८ ॥

मूलम्

नानाभरणवान् राजंस्तप्तजाम्बूनदाङ्गदः ।
हतो वैकर्तनः शेते पादपोऽङ्कुरवानिव ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित तथा तपाये हुए सुवर्णका अंगद (बाजूबंद) धारण किये वैकर्तन कर्ण मारा जाकर अंकुरयुक्त वृक्षके समान पड़ा था॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कनकोत्तमसंकाशो ज्वलन्निव विभावसुः ।
स शान्तः पुरुषव्याघ्र पार्थसायकवारिणा ॥ ३९ ॥

मूलम्

कनकोत्तमसंकाशो ज्वलन्निव विभावसुः ।
स शान्तः पुरुषव्याघ्र पार्थसायकवारिणा ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरव्याघ्र नरेश! उत्तम सुवर्णके समान कान्तिमान् कर्ण प्रज्वलित अग्निके तुल्य प्रकाशित होता था; परंतु पार्थके बाणरूपी जलसे वह बुझ गया॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हि ज्वलनो दीप्तो जलमासाद्य शाम्यति।
कर्णाग्निः समरे तद्वत् पार्थमेघेन शामितः ॥ ४० ॥

मूलम्

यथा हि ज्वलनो दीप्तो जलमासाद्य शाम्यति।
कर्णाग्निः समरे तद्वत् पार्थमेघेन शामितः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे प्रज्वलित आग जलको पाकर बुझ जाती है, उसी प्रकार समरांगणमें कर्णरूपी अग्निको अर्जुनरूपी मेघने बुझा दिया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहृत्य च यशो दीप्तं सुयुद्धेनात्मनो भुवि।
विसृज्य शरवर्षाणि प्रताप्य च दिशो दश ॥ ४१ ॥
सपुत्रः समरे कर्णः स शान्तः पार्थतेजसा।

मूलम्

आहृत्य च यशो दीप्तं सुयुद्धेनात्मनो भुवि।
विसृज्य शरवर्षाणि प्रताप्य च दिशो दश ॥ ४१ ॥
सपुत्रः समरे कर्णः स शान्तः पार्थतेजसा।

अनुवाद (हिन्दी)

इस पृथ्वीपर उत्तम युद्धके द्वारा अपने लिये उत्तम यशका उपार्जन करके, बाणोंकी झड़ी लगाकर, दसों दिशाओंको संतप्त करके, पुत्रसहित कर्ण अर्जुनके तेजसे शान्त हो गया॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रताप्य पाण्डवान् सर्वान् पञ्चालांश्चास्त्रतेजसा ॥ ४२ ॥
वर्षित्वा शरवर्षेण प्रताप्य रिपुवाहिनीम्।
श्रीमानिव सहस्रांशुर्जगत् सर्वं प्रताप्य च ॥ ४३ ॥
हतो वैकर्तनः कर्णः सपुत्रः सहवाहनः।
अर्थिनां पक्षिसंघस्य कल्पवृक्षो निपातितः ॥ ४४ ॥

मूलम्

प्रताप्य पाण्डवान् सर्वान् पञ्चालांश्चास्त्रतेजसा ॥ ४२ ॥
वर्षित्वा शरवर्षेण प्रताप्य रिपुवाहिनीम्।
श्रीमानिव सहस्रांशुर्जगत् सर्वं प्रताप्य च ॥ ४३ ॥
हतो वैकर्तनः कर्णः सपुत्रः सहवाहनः।
अर्थिनां पक्षिसंघस्य कल्पवृक्षो निपातितः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अस्त्रके तेजसे सम्पूर्ण पाण्डव और पांचालोंको संताप देकर, बाणोंकी वर्षाके द्वारा शत्रुसेनाको तपाकर तथा सहस्र किरणोंवाले तेजस्वी सूर्यके समान सम्पूर्ण संसारमें अपना प्रताप बिखेरकर वैकर्तन कर्ण पुत्र और वाहनोंसहित मारा गया। याचकरूपी पक्षियोंके समुदायके लिये जो कल्पवृक्षके समान था, वह कर्ण मार गिराया गया॥४२—४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददानीत्येव योऽवोचन्न नास्तीत्यर्थितोऽर्थिभिः ।
सद्भिः सदा सत्पुरुषः स हतो द्वैरथे वृषः ॥ ४५ ॥

मूलम्

ददानीत्येव योऽवोचन्न नास्तीत्यर्थितोऽर्थिभिः ।
सद्भिः सदा सत्पुरुषः स हतो द्वैरथे वृषः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो माँगनेपर सदा यही कहता था कि ‘मैं दूँगा।’ श्रेष्ठ याचकोंके माँगनेपर जिसके मुँहसे कभी ‘नाहीं’ नहीं निकला, वह धर्मात्मा कर्ण द्वैरथ युद्धमें मारा गया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य ब्राह्मणसात् सर्वं वित्तमासीन्महात्मनः।
नादेयं ब्राह्मणेष्वासीद् यस्य स्वमपि जीवितम् ॥ ४६ ॥
सदा स्त्रीणां प्रियो नित्यं दाता चैव महारथः।
स वै पार्थास्त्रनिर्दग्धो गतः परमिकां गतिम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

यस्य ब्राह्मणसात् सर्वं वित्तमासीन्महात्मनः।
नादेयं ब्राह्मणेष्वासीद् यस्य स्वमपि जीवितम् ॥ ४६ ॥
सदा स्त्रीणां प्रियो नित्यं दाता चैव महारथः।
स वै पार्थास्त्रनिर्दग्धो गतः परमिकां गतिम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस महामनस्वी कर्णका सारा धन ब्राह्मणोंके अधीन था, ब्राह्मणोंके लिये जिसका कुछ भी, अपना जीवन भी अदेय नहीं था, जो स्त्रियोंको सदा प्रिय लगता था और प्रतिदिन दान किया करता था, वह महारथी कर्ण पार्थके बाणोंसे दग्ध हो परम गतिको प्राप्त हो गया॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमाश्रित्याकरोद् वैरं पुत्रस्ते स गतो दिवम्।
आदाय तव पुत्राणां जयाशां शर्म वर्म च ॥ ४८ ॥

मूलम्

यमाश्रित्याकरोद् वैरं पुत्रस्ते स गतो दिवम्।
आदाय तव पुत्राणां जयाशां शर्म वर्म च ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जिसका सहारा लेकर आपके पुत्रने पाण्डवोंके साथ वैर किया था, वह कर्ण आपके पुत्रोंकी विजयकी आशा, सुख तथा कवच (रक्षा) लेकर स्वर्गलोकको चला गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हते कर्णे सरितो न प्रसस्रु-
र्जगाम चास्तं सविता दिवाकरः।
ग्रहश्च तिर्यग् ज्वलनार्कवर्णः
सोमस्य पुत्रोऽभ्युदियाय तिर्यक् ॥ ४९ ॥

मूलम्

हते कर्णे सरितो न प्रसस्रु-
र्जगाम चास्तं सविता दिवाकरः।
ग्रहश्च तिर्यग् ज्वलनार्कवर्णः
सोमस्य पुत्रोऽभ्युदियाय तिर्यक् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके मारे जानेपर नदियोंका प्रवाह रुक गया, सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये और अग्नि तथा सूर्यके समान कान्तिमान् मंगल एवं सोमपुत्र बुध तिरछे होकर उदित हुए॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नभः पफालेव ननाद चोर्वी
ववुश्च वाताः परुषाः सुघोराः।
दिशो बभूवुर्ज्वलिताः सधूमा
महार्णवाः सस्वनुश्चुक्षुभुश्च ॥ ५० ॥

मूलम्

नभः पफालेव ननाद चोर्वी
ववुश्च वाताः परुषाः सुघोराः।
दिशो बभूवुर्ज्वलिताः सधूमा
महार्णवाः सस्वनुश्चुक्षुभुश्च ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाश फटने-सा लगा, पृथ्वी चीत्कार कर उठी, भयानक और रूखी हवा चलने लगी, सम्पूर्ण दिशाएँ धूमसहित अग्निसे प्रज्वलित-सी होने लगीं और महासागर भयंकर स्वरमें गर्जने तथा विक्षुब्ध होने लगे॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकाननाश्चाद्रिचयाश्चकम्पिरे
प्रविव्यथुर्भूतगणाश्च सर्वे ।
बृहस्पतिः सम्परिवार्य रोहिणीं
बभूव चन्द्रार्कसमो विशाम्पते ॥ ५१ ॥

मूलम्

सकाननाश्चाद्रिचयाश्चकम्पिरे
प्रविव्यथुर्भूतगणाश्च सर्वे ।
बृहस्पतिः सम्परिवार्य रोहिणीं
बभूव चन्द्रार्कसमो विशाम्पते ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनोंसहित पर्वतसमूह काँपने लगे, सम्पूर्ण भूतसमुदाय व्यथित हो उठे। प्रजानाथ! बृहस्पति नामक ग्रह रोहिणी नक्षत्रको सब ओरसे घेरकर चन्द्रमा और सूर्यके समान प्रकाशित होने लगा॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हते तु कर्णे विदिशोऽपि जज्वलु-
स्तमोवृता द्यौर्विचचाल भूमिः ।
पपात चोल्का ज्वलनप्रकाशा
निशाचराश्चाप्यभवन् प्रहृष्टाः ॥ ५२ ॥

मूलम्

हते तु कर्णे विदिशोऽपि जज्वलु-
स्तमोवृता द्यौर्विचचाल भूमिः ।
पपात चोल्का ज्वलनप्रकाशा
निशाचराश्चाप्यभवन् प्रहृष्टाः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके मारे जानेपर दिशाओंके कोने-कोनेमें आग-सी लग गयी, आकाशमें अँधेरा छा गया, धरती डोलने लगी, अग्निके समान प्रकाशमान उल्का गिरने लगी और निशाचर प्रसन्न हो गये॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशिप्रकाशाननमर्जुनो यदा
क्षुरेण कर्णस्य शिरो न्यपातयत्।
तदान्तरिक्षे सहसैव शब्दो
बभूव हाहेति सुरैर्विमुक्तः ॥ ५३ ॥

मूलम्

शशिप्रकाशाननमर्जुनो यदा
क्षुरेण कर्णस्य शिरो न्यपातयत्।
तदान्तरिक्षे सहसैव शब्दो
बभूव हाहेति सुरैर्विमुक्तः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय अर्जुनने क्षुरके द्वारा कर्णके चन्द्रमाके समान कान्तिमान् मुखवाले मस्तकको काट गिराया, उस समय आकाशमें देवताओंके मुखसे निकला हुआ हाहाकारका शब्द गूँज उठा॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदेवगन्धर्वमनुष्यपूजितं
निहत्य कर्णं रिपुमाहवेऽर्जुनः ।
रराज राजन् परमेण वर्चसा
यथा पुरा वृत्रवधे शतक्रतुः ॥ ५४ ॥

मूलम्

सदेवगन्धर्वमनुष्यपूजितं
निहत्य कर्णं रिपुमाहवेऽर्जुनः ।
रराज राजन् परमेण वर्चसा
यथा पुरा वृत्रवधे शतक्रतुः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! देवता, गन्धर्व और मनुष्योंद्वारा पूजित अपने शत्रु कर्णको युद्धमें मारकर अर्जुन अपने उत्तम तेजसे उसी प्रकार प्रकाशित होने लगे, जैसे पूर्वकालमें वृत्रासुरका वध करके इन्द्र सुशोभित हुए थे॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रथेनाम्बुदवृन्दनादिना
शरन्नभोमध्यदिवाकरार्चिषा ।
पताकिना भीमनिनादकेतुना
हिमेन्दुशङ्खस्फटिकावभासिना ॥ ५५ ॥
महेन्द्रवाहप्रतिमेन तायुभौ
महेन्द्रवीर्यप्रतिमानपौरुषौ ।
सुवर्णमुक्तामणिवज्रविद्रुमै-
रलंकृतावप्रतिमेन रंहसा ॥ ५६ ॥
नरोत्तमौ केशवपाण्डुनन्दनौ
तदाहितावग्निदिवाकराविव ।
रणाजिरे वीतभयौ विरेजतुः
समानयानाविव विष्णुवासवौ ॥ ५७ ॥

मूलम्

ततो रथेनाम्बुदवृन्दनादिना
शरन्नभोमध्यदिवाकरार्चिषा ।
पताकिना भीमनिनादकेतुना
हिमेन्दुशङ्खस्फटिकावभासिना ॥ ५५ ॥
महेन्द्रवाहप्रतिमेन तायुभौ
महेन्द्रवीर्यप्रतिमानपौरुषौ ।
सुवर्णमुक्तामणिवज्रविद्रुमै-
रलंकृतावप्रतिमेन रंहसा ॥ ५६ ॥
नरोत्तमौ केशवपाण्डुनन्दनौ
तदाहितावग्निदिवाकराविव ।
रणाजिरे वीतभयौ विरेजतुः
समानयानाविव विष्णुवासवौ ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन समरांगणमें रथपर आरूढ़ हो अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी एक ही वाहनपर बैठे हुए भगवान् विष्णु और इन्द्रके सदृश भयरहित हो विशेष शोभा पाने लगे। वे जिस रथसे यात्रा करते थे, उससे मेघसमूहोंकी गर्जनाके समान गम्भीर ध्वनि होती थी, वह रथ शरत्-कालके मध्याह्नकालीन सूर्यके समान तेजसे उद्दीप्त हो रहा था, उसपर पताका फहराती थी और उसकी ध्वजापर भयानक शब्द करनेवाला वानर बैठा था। उसकी कान्ति हिम, चन्द्रमा, शंख और स्फटिकमणिके समान सुन्दर थी। वह रथ वेगमें अपना सानी नहीं रखता था और देवराज इन्द्रके रथके समान तीव्रगामी था। उसपर बैठे हुए दोनों नरश्रेष्ठ देवराज इन्द्रके समान शक्तिशाली और पुरुषार्थी थे तथा सुवर्ण, मुक्ता, मणि, हीरे और मूँगेके बने हुए आभूषण उनके श्रीअंगोंकी शोभा बढ़ाते थे॥५५—५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो धनुर्ज्यातलबाणनिःस्वनैः
प्रसह्य कृत्वा च रिपून् हतप्रभान्।
संछादयित्वा तु कुरून् शरोत्तमैः
कपिध्वजः पक्षिवरध्वजश्च ॥ ५८ ॥
हृष्टौ ततस्तावमितप्रभावौ
मनांस्यरीणामवदारयन्तौ ।
सुवर्णजालावततौ महास्वनौ
हिमावदातौ परिगृह्य पाणिभिः ।
चुचुम्बतुः शङ्खवरौ नृणां वरौ
वराननाभ्यां युगपच्च दध्मतुः ॥ ५९ ॥

मूलम्

ततो धनुर्ज्यातलबाणनिःस्वनैः
प्रसह्य कृत्वा च रिपून् हतप्रभान्।
संछादयित्वा तु कुरून् शरोत्तमैः
कपिध्वजः पक्षिवरध्वजश्च ॥ ५८ ॥
हृष्टौ ततस्तावमितप्रभावौ
मनांस्यरीणामवदारयन्तौ ।
सुवर्णजालावततौ महास्वनौ
हिमावदातौ परिगृह्य पाणिभिः ।
चुचुम्बतुः शङ्खवरौ नृणां वरौ
वराननाभ्यां युगपच्च दध्मतुः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् धनुषकी प्रत्यंचा, हथेली और बाणके शब्दोंसे शत्रुओंको बलपूर्वक श्रीहीन करके, उत्तम बाणोंद्वारा कौरव-सैनिकोंको ढककर अमित प्रभावशाली नरश्रेष्ठ गरुडध्वज श्रीकृष्ण और कपिध्वज अर्जुन हर्षमें भरकर विपक्षियोंका हृदय विदीर्ण करते हुए हाथोंमें दो श्रेष्ठ शंख ले उन्हें अपने सुन्दर मुखोंसे एक ही साथ चूमने और बजाने लगे। उनके वे दोनों शंख सोनेकी जालीसे आवृत, बर्फके समान सफेद और महान् शब्द करनेवाले थे॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाञ्चजन्यस्य निर्घोषो देवदत्तस्य चोभयोः।
पृथिवीं चान्तरिक्षं च दिशश्चैवान्वनादयत् ॥ ६० ॥

मूलम्

पाञ्चजन्यस्य निर्घोषो देवदत्तस्य चोभयोः।
पृथिवीं चान्तरिक्षं च दिशश्चैवान्वनादयत् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पांचजन्य तथा देवदत्त दोनों शंखोंकी गम्भीर ध्वनिने पृथ्वी, आकाश तथा सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित कर दिया॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वित्रस्ताश्चाभवन् सर्वे कौरवा राजसत्तम।
शङ्खशब्देन तेनाथ माधवस्यार्जुनस्य च ॥ ६१ ॥

मूलम्

वित्रस्ताश्चाभवन् सर्वे कौरवा राजसत्तम।
शङ्खशब्देन तेनाथ माधवस्यार्जुनस्य च ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! श्रीकृष्ण और अर्जुनकी उस शंखध्वनिसे समस्त कौरव संत्रस्त हो उठे॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ शङ्खशब्देन निनादयन्तौ
वनानि शैलान् सरितो गुहाश्च।
वित्रासयन्तौ तव पुत्रसेनां
युधिष्ठिरं नन्दयतां वरिष्ठौ ॥ ६२ ॥

मूलम्

तौ शङ्खशब्देन निनादयन्तौ
वनानि शैलान् सरितो गुहाश्च।
वित्रासयन्तौ तव पुत्रसेनां
युधिष्ठिरं नन्दयतां वरिष्ठौ ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने शंखनादसे नदियों, पर्वतों, कन्दराओं तथा काननोंको प्रतिध्वनित करके आपके पुत्रकी सेनाको भयभीत करते हुए वे दोनों श्रेष्ठतम वीर युधिष्ठिरका आनन्द बढ़ाने लगे॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रयाताः कुरवो जवेन
श्रुत्वैव शङ्खस्वनमीर्यमाणम् ।
विहाय मद्राधिपतिं पतिं च
दुर्योधनं भारत भारतानाम् ॥ ६३ ॥

मूलम्

ततः प्रयाताः कुरवो जवेन
श्रुत्वैव शङ्खस्वनमीर्यमाणम् ।
विहाय मद्राधिपतिं पतिं च
दुर्योधनं भारत भारतानाम् ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस शंखध्वनिको सुनते ही समस्त कौरवयोद्धा मद्रराज शल्य तथा भरतवंशियोंके अधिपति दुर्योधनको वहीं छोड़कर वेगपूर्वक भागने लगे॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाहवे तं बहु रोचमानं
धनंजयं भूतगणाः समेताः ।
तदान्वमोदन्त जनार्दनं च
दिवाकरावभ्युदितौ यथैव ॥ ६४ ॥

मूलम्

महाहवे तं बहु रोचमानं
धनंजयं भूतगणाः समेताः ।
तदान्वमोदन्त जनार्दनं च
दिवाकरावभ्युदितौ यथैव ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उदित हुए दो सूर्योंके समान उस महासमरमें प्रकाशित होनेवाले अत्यन्त कान्तिमान् अर्जुन तथा भगवान् श्रीकृष्णके पास आकर समस्त प्राणी उनके कार्यका अनुमोदन करने लगे॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाचितौ कर्णशरैः परंतपा-
वुभौ व्यभातां समरेऽच्युतार्जुनौ ।
तमो निहत्याभ्युदितौ यथामलौ
शशाङ्कसूर्यौ दिवि रश्मिमालिनौ ॥ ६५ ॥

मूलम्

समाचितौ कर्णशरैः परंतपा-
वुभौ व्यभातां समरेऽच्युतार्जुनौ ।
तमो निहत्याभ्युदितौ यथामलौ
शशाङ्कसूर्यौ दिवि रश्मिमालिनौ ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समरभूमिमें कर्णके बाणोंसे व्याप्त हुए वे दोनों शत्रुसंतापी वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन अन्धकारका नाश करके आकाशमें उदित हुए निर्मल अंशुमाली सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रकाशित हो रहे थे॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहाय तान् बाणगणानथागतौ
सुहृद्‌वृतावप्रतिमानविक्रमौ ।
सुखं प्रविष्टौ शिबिरं स्वमीश्वरौ
सदस्यनिन्द्याविव विष्णुवासवौ ॥ ६६ ॥

मूलम्

विहाय तान् बाणगणानथागतौ
सुहृद्‌वृतावप्रतिमानविक्रमौ ।
सुखं प्रविष्टौ शिबिरं स्वमीश्वरौ
सदस्यनिन्द्याविव विष्णुवासवौ ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन बाणोंको निकालकर वे अनुपम पराक्रमी सर्वसमर्थ श्रीकृष्ण और अर्जुन सुहृदोंसे घिरे हुए छावनीपर आये और यज्ञमें पदार्पण करनेवाले भगवान् विष्णु तथा इन्द्रके समान वे दोनों ही सुखपूर्वक शिबिरके भीतर प्रविष्ट हुए॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ देवगन्धर्वमनुष्यचारणै-
र्महर्षिभिर्यक्षमहोरगैरपि ।
जयाभिवृद्‌ध्या परयाभिपूजितौ
हते तु कर्णे परमाहवे तदा ॥ ६७ ॥

मूलम्

तौ देवगन्धर्वमनुष्यचारणै-
र्महर्षिभिर्यक्षमहोरगैरपि ।
जयाभिवृद्‌ध्या परयाभिपूजितौ
हते तु कर्णे परमाहवे तदा ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महासमरमें कर्णके मारे जानेपर देवता, गन्धर्व, मनुष्य, चारण, महर्षि, यक्ष तथा बड़े-बड़े नागोंने भी ‘आपकी जय हो, वृद्धि हो’ ऐसा कहते हुए बड़ी श्रद्धासे उन दोनोंका समादर किया॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथानुरूपं प्रतिपूजितावुभौ
प्रशस्यमानौ स्वकृतैर्गुणौघैः ।
ननन्दतुस्तौ ससुहृद्‌गणौ तदा
बलं नियम्येव सुरेशकेशवौ ॥ ६८ ॥

मूलम्

यथानुरूपं प्रतिपूजितावुभौ
प्रशस्यमानौ स्वकृतैर्गुणौघैः ।
ननन्दतुस्तौ ससुहृद्‌गणौ तदा
बलं नियम्येव सुरेशकेशवौ ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बलासुरका दमन करके देवराज इन्द्र और भगवान् विष्णु अपने सुहृदोंके साथ आनन्दित हुए थे, उसी प्रकार श्रीकृष्ण और अर्जुन कर्णका वध करके यथायोग्य पूजित तथा अपने उपार्जित गुणसमूहोंद्वारा भूरि-भूरि प्रशंसित हो हितैषी-सम्बन्धियोंसहित बड़े हर्षका अनुभव करने लगे॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि रणभूमिवर्णनं नाम चतुर्नवतितमोऽध्यायः ॥ ९४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें रणभूमिका वर्णनविषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९४॥