भागसूचना
एकनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णका कर्णको चेतावनी देना और कर्णका वध
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीद् वासुदेवो रथस्थो
राधेय दिष्ट्या स्मरसीह धर्मम्।
प्रायेण नीचा व्यसनेषु मग्ना
निन्दन्ति दैवं कुकृतं न तु स्वम् ॥ १ ॥
मूलम्
तमब्रवीद् वासुदेवो रथस्थो
राधेय दिष्ट्या स्मरसीह धर्मम्।
प्रायेण नीचा व्यसनेषु मग्ना
निन्दन्ति दैवं कुकृतं न तु स्वम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! उस समय रथपर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णने कर्णसे कहा—‘राधानन्दन! सौभाग्यकी बात है कि अब यहाँ तुम्हें धर्मकी याद आ रही है! प्रायः यह देखनेमें आता है कि नीच मनुष्य विपत्तिमें पड़नेपर दैवकी ही निन्दा करते हैं। अपने किये हुए कुकर्मोंकी नहीं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् द्रौपदीमेकवस्त्रां सभाया-
मानाययेस्त्वं च सुयोधनश्च ।
दुःशासनः शकुनिः सौबलश्च
न ते कर्ण प्रत्यभात्तत्र धर्मः ॥ २ ॥
मूलम्
यद् द्रौपदीमेकवस्त्रां सभाया-
मानाययेस्त्वं च सुयोधनश्च ।
दुःशासनः शकुनिः सौबलश्च
न ते कर्ण प्रत्यभात्तत्र धर्मः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! जब तुमने तथा दुर्योधन, दुःशासन और सुबलपुत्र शकुनिने एक वस्त्र धारण करनेवाली रजस्वला द्रौपदीको सभामें बुलवाया था, उस समय तुम्हारे मनमें धर्मका विचार नहीं उठा था?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा सभायां राजानमनक्षज्ञं युधिष्ठिरम्।
अजैषीच्छकुनिर्ज्ञानात् क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ३ ॥
मूलम्
यदा सभायां राजानमनक्षज्ञं युधिष्ठिरम्।
अजैषीच्छकुनिर्ज्ञानात् क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब कौरवसभामें जूएके खेलका ज्ञान न रखनेवाले राजा युधिष्ठिरको शकुनिने जान-बूझकर छलपूर्वक हराया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनवासे व्यतीते च कर्ण वर्षे त्रयोदशे।
न प्रयच्छसि यद् राज्यं क्व ते धर्मस्तदा गतः॥४॥
मूलम्
वनवासे व्यतीते च कर्ण वर्षे त्रयोदशे।
न प्रयच्छसि यद् राज्यं क्व ते धर्मस्तदा गतः॥४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! वनवासका तेरहवाँ वर्ष बीत जानेपर भी जब तुमने पाण्डवोंका राज्य उन्हें वापस नहीं दिया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् भीमसेनं सर्पैश्च विषयुक्तैश्च भोजनैः।
आचरत् त्वन्मते राजा क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ५ ॥
मूलम्
यद् भीमसेनं सर्पैश्च विषयुक्तैश्च भोजनैः।
आचरत् त्वन्मते राजा क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब राजा दुर्योधनने तुम्हारी ही सलाह लेकर भीमसेनको जहर मिलाया हुआ अन्न खिलाया और उन्हें सर्पोंसे डँसवाया, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् वारणावते पार्थान् सुप्ताञ्जतुगृहे तदा।
आदीपयस्त्वं राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ६ ॥
मूलम्
यद् वारणावते पार्थान् सुप्ताञ्जतुगृहे तदा।
आदीपयस्त्वं राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राधानन्दन! उन दिनों वारणावतनगरमें लाक्षाभवनके भीतर सोये हुए कुन्तीकुमारोंको जब तुमने जलानेका प्रयत्न कराया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम्।
सभायां प्राहसः कर्ण क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ७ ॥
मूलम्
यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम्।
सभायां प्राहसः कर्ण क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! भरी सभामें दुःशासनके वशमें पड़ी हुई रजस्वला द्रौपदीको लक्ष्य करके जब तुमने उपहास किया था, तब तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदनार्यैः पुरा कृष्णां क्लिश्यमानामनागसम्।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ८ ॥
मूलम्
यदनार्यैः पुरा कृष्णां क्लिश्यमानामनागसम्।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राधानन्दन! पहले नीच कौरवोंद्वारा क्लेश पाती हुई निरपराध द्रौपदीको जब तुम निकटसे देख रहे थे, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णे शाश्वतं नरकं गताः।
पतिमन्यं वृणीष्वेति वदंस्त्वं गजगामिनीम् ॥ ९ ॥
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।
मूलम्
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णे शाश्वतं नरकं गताः।
पतिमन्यं वृणीष्वेति वदंस्त्वं गजगामिनीम् ॥ ९ ॥
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘(याद है न, तुमने द्रौपदीसे कहा था) ‘कृष्णे! पाण्डव नष्ट हो गये, सदाके लिये नरकमें पड़ गये। अब तू किसी दूसरे पतिका वरण कर ले। जब तुम ऐसी बात कहते हुए गजगामिनी द्रौपदीको निकटसे आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्यलुब्धः पुनः कर्ण समाव्यथसि पाण्डवान्।
यदा शकुनिमाश्रित्य क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ १० ॥
मूलम्
राज्यलुब्धः पुनः कर्ण समाव्यथसि पाण्डवान्।
यदा शकुनिमाश्रित्य क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! फिर राज्यके लोभमें पड़कर तुमने शकुनिकी सलाहके अनुसार जब पाण्डवोंको दुबारा जूएके लिये बुलवाया, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदाभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथाः।
परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ११ ॥
मूलम्
यदाभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथाः।
परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब युद्धमें तुम बहुत-से महारथियोंने मिलकर बालक अभिमन्युको चारों ओरसे घेरकर मार डाला था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येष धर्मस्तत्र न विद्यते हि
किं सर्वथा तालुविशोषणेन ।
अद्येह धर्म्याणि विधत्स्व सूत
तथापि जीवन्न विमोक्ष्यसे हि ॥ १२ ॥
मूलम्
यद्येष धर्मस्तत्र न विद्यते हि
किं सर्वथा तालुविशोषणेन ।
अद्येह धर्म्याणि विधत्स्व सूत
तथापि जीवन्न विमोक्ष्यसे हि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि उन अवसरोंपर यह धर्म नहीं था तो आज भी यहाँ सर्वथा धर्मकी दुहाई देकर तालु सुखानेसे क्या लाभ? सूत! अब यहाँ धर्मके कितने ही कार्य क्यों न कर डालो, तथापि जीते-जी तुम्हारा छुटकारा नहीं हो सकता॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नलो ह्यक्षैर्निर्जितः पुष्करेण
पुनर्यशो राज्यमवाप वीर्यात् ।
प्राप्तास्तथा पाण्डवा बाहुवीर्यात्
सर्वैः समेताः परिवृत्तलोभाः ॥ १३ ॥
निहत्य शत्रून् समरे प्रवृद्धान्
ससोमका राज्यमवाप्नुयुस्ते ।
तथा गता धार्तराष्ट्रा विनाशं
धर्माभिगुप्तैः सततं नृसिंहैः ॥ १४ ॥
मूलम्
नलो ह्यक्षैर्निर्जितः पुष्करेण
पुनर्यशो राज्यमवाप वीर्यात् ।
प्राप्तास्तथा पाण्डवा बाहुवीर्यात्
सर्वैः समेताः परिवृत्तलोभाः ॥ १३ ॥
निहत्य शत्रून् समरे प्रवृद्धान्
ससोमका राज्यमवाप्नुयुस्ते ।
तथा गता धार्तराष्ट्रा विनाशं
धर्माभिगुप्तैः सततं नृसिंहैः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुष्करने राजा नलको जूएमें जीत लिया था; किंतु उन्होंने अपने ही पराक्रमसे पुनः अपने राज्य और यश दोनोंको प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार लोभशून्य पाण्डव भी अपनी भुजाओंके बलसे सम्पूर्ण सगे-सम्बन्धियोंके साथ रहकर समरांगणमें बढ़े-चढ़े शत्रुओंका संहार करके फिर अपना राज्य प्राप्त करेंगे। निश्चय ही ये सोमकोंके साथ अपने राज्यपर अधिकार कर लेंगे। पुरुषसिंह पाण्डव सदैव अपने धर्मसे सुरक्षित हैं; अतः इनके द्वारा अवश्य धृतराष्ट्रके पुत्रोंका नाश हो जायगा’॥१३-१४॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तदा कर्णो वासुदेवेन भारत।
लज्जयावनतो भूत्वा नोत्तरं किञ्चिदुक्तवान् ॥ १५ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तदा कर्णो वासुदेवेन भारत।
लज्जयावनतो भूत्वा नोत्तरं किञ्चिदुक्तवान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— भारत! उस समय भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर कर्णने लज्जासे अपना सिर झुका लिया, उससे कुछ भी उत्तर देते नहीं बना॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधात् प्रस्फुरमाणौष्ठो धनुरुद्यम्य भारत।
योधयामास वै पार्थं महावेगपराक्रमः ॥ १६ ॥
मूलम्
क्रोधात् प्रस्फुरमाणौष्ठो धनुरुद्यम्य भारत।
योधयामास वै पार्थं महावेगपराक्रमः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! वह महान् वेग और पराक्रमसे सम्पन्न हो क्रोधसे ओंठ फड़फड़ाता हुआ धनुष उठाकर अर्जुनके साथ युद्ध करने लगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीद् वासुदेवः फाल्गुनं पुरुषर्षभम्।
दिव्यास्त्रेणैव निर्भिद्य पातयस्व महाबल ॥ १७ ॥
मूलम्
ततोऽब्रवीद् वासुदेवः फाल्गुनं पुरुषर्षभम्।
दिव्यास्त्रेणैव निर्भिद्य पातयस्व महाबल ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णने पुरुषप्रवर अर्जुनसे इस प्रकार कहा—‘महाबली वीर! तुम कर्णको दिव्यास्त्रसे ही घायल करके मार गिराओ’॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु देवेन क्रोधमागात्तदार्जुनः ।
मन्युमभ्याविशद् घोरं स्मृत्वा तत्तु धनंजयः ॥ १८ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु देवेन क्रोधमागात्तदार्जुनः ।
मन्युमभ्याविशद् घोरं स्मृत्वा तत्तु धनंजयः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के ऐसा कहनेपर अर्जुन उस समय कर्णके प्रति अत्यन्त कुपित हो उठे। उसकी पिछली करतूतोंको याद करके उनके मनमें भयानक रोष जाग उठा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य क्रुद्धस्य सर्वेभ्यः स्रोतोभ्यस्तेजसोऽर्चिषः।
प्रादुरासंस्तदा राजंस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ १९ ॥
मूलम्
तस्य क्रुद्धस्य सर्वेभ्यः स्रोतोभ्यस्तेजसोऽर्चिषः।
प्रादुरासंस्तदा राजंस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुपित होनेपर उनके सभी छिद्रोंसे—रोम-रोमसे आगकी चिनगारियाँ छूटने लगीं। राजन्! उस समय वह एक अद्भुत-सी बात हुई॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् समीक्ष्य ततः कर्णो ब्रह्मास्त्रेण धनंजयम्।
अभ्यवर्षत् पुनर्यत्नमकरोद् रथसर्जने ॥ २० ॥
मूलम्
तत् समीक्ष्य ततः कर्णो ब्रह्मास्त्रेण धनंजयम्।
अभ्यवर्षत् पुनर्यत्नमकरोद् रथसर्जने ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख कर्णने अर्जुनपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग करके बाणोंकी झड़ी लगा दी और पुनः रथको उठानेका प्रयत्न किया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मास्त्रेणैव तं पार्थो ववर्ष शरवृष्टिभिः।
तदस्त्रमस्त्रेणावार्य प्रजहार च पाण्डवः ॥ २१ ॥
मूलम्
ब्रह्मास्त्रेणैव तं पार्थो ववर्ष शरवृष्टिभिः।
तदस्त्रमस्त्रेणावार्य प्रजहार च पाण्डवः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पाण्डुपुत्र अर्जुनने भी ब्रह्मास्त्रसे ही उसके अस्त्रको दबाकर उसके ऊपर बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी और उसे अच्छी तरह घायल किया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽन्यदस्त्रं कौन्तेयो दयितं जातवेदसः।
मुमोच कर्णमुद्दिश्य तत् प्रजज्वाल तेजसा ॥ २२ ॥
मूलम्
ततोऽन्यदस्त्रं कौन्तेयो दयितं जातवेदसः।
मुमोच कर्णमुद्दिश्य तत् प्रजज्वाल तेजसा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कुन्तीकुमारने कर्णको लक्ष्य करके दूसरे दिव्यास्त्रका प्रयोग किया जो जातवेदा अग्निका प्रिय अस्त्र था। वह आग्नेयास्त्र अपने तेजसे प्रज्वलित हो उठा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वारुणेन ततः कर्णः शमयामास पावकम्।
जीमूतैश्च दिशः सर्वाश्चक्रे तिमिरदुर्दिनाः ॥ २३ ॥
मूलम्
वारुणेन ततः कर्णः शमयामास पावकम्।
जीमूतैश्च दिशः सर्वाश्चक्रे तिमिरदुर्दिनाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु कर्णने वारुणास्त्रका प्रयोग करके उस अग्निको बुझा दिया। साथ ही सम्पूर्ण दिशाओंमें मेघोंकी घटा घिर आयी और सब ओर अन्धकार छा गया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवेयस्त्वसम्भ्रान्तो वायव्यास्त्रेण वीर्यवान् ।
अपोवाह तदाभ्राणि राधेयस्य प्रपश्यतः ॥ २४ ॥
मूलम्
पाण्डवेयस्त्वसम्भ्रान्तो वायव्यास्त्रेण वीर्यवान् ।
अपोवाह तदाभ्राणि राधेयस्य प्रपश्यतः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पराक्रमी अर्जुन इससे विचलित नहीं हुए। उन्होंने राधापुत्र कर्णके देखते-देखते वायव्यास्त्रसे उन बादलोंको उड़ा दिया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शरं महाघोरं ज्वलन्तमिव पावकम्।
आददे पाण्डुपुत्रस्य सूतपुत्रो जिघांसया ॥ २५ ॥
मूलम्
ततः शरं महाघोरं ज्वलन्तमिव पावकम्।
आददे पाण्डुपुत्रस्य सूतपुत्रो जिघांसया ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सूतपुत्रने पाण्डुकुमार अर्जुनका वध करनेके लिये जलती हुई आगके समान एक महाभयंकर बाण हाथमें लिया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योज्यमाने ततस्तस्मिन् बाणे धनुषि पूजिते।
चचाल पृथिवी राजन् सशैलवनकानना ॥ २६ ॥
मूलम्
योज्यमाने ततस्तस्मिन् बाणे धनुषि पूजिते।
चचाल पृथिवी राजन् सशैलवनकानना ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस उत्तम बाणको धनुषपर चढ़ाते ही पर्वत, वन और काननोंसहित सारी पृथ्वी डगमगाने लगी॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ववौ सशर्करो वायुर्दिशश्च रजसा वृताः।
हाहाकारश्च संजज्ञे सुराणां दिवि भारत ॥ २७ ॥
मूलम्
ववौ सशर्करो वायुर्दिशश्च रजसा वृताः।
हाहाकारश्च संजज्ञे सुराणां दिवि भारत ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! कंकड़ोंकी वर्षा करती हुई प्रचण्ड वायु चलने लगी। सम्पूर्ण दिशाओंमें धूल छा गयी और स्वर्गके देवताओंमें भी हाहाकार मच गया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमिषुं संधितं दृष्ट्वा सूतपुत्रेण मारिष।
विषादं परमं जग्मुः पाण्डवा दीनचेतसः ॥ २८ ॥
मूलम्
तमिषुं संधितं दृष्ट्वा सूतपुत्रेण मारिष।
विषादं परमं जग्मुः पाण्डवा दीनचेतसः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! जब सूतपुत्रने उस बाणका संधान किया, उस समय उसे देखकर समस्त पाण्डव दीनचित्त हो बड़े भारी विषादमें डूब गये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सायकः कर्णभुजप्रमुक्तः
शक्राशनिप्रख्यरुचिः शिताग्रः ॥ २९ ॥
भुजान्तरं प्राप्य धनंजयस्य
विवेश वल्मीकमिवोरगोत्तमः ।
मूलम्
स सायकः कर्णभुजप्रमुक्तः
शक्राशनिप्रख्यरुचिः शिताग्रः ॥ २९ ॥
भुजान्तरं प्राप्य धनंजयस्य
विवेश वल्मीकमिवोरगोत्तमः ।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके हाथसे छूटा हुआ वह बाण इन्द्रके वज्रके समान प्रकाशित हो रहा था। उसका अग्रभाग बहुत तेज था। वह अर्जुनकी छातीमें जा लगा और जैसे उत्तम सर्प बाँबीमें घुस जाता है, उसी प्रकार वह उनके वक्षःस्थलमें समा गया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गाढविद्धः समरे महात्मा
विघूर्णमानः श्लथहस्तगाण्डिवः ॥ ३० ॥
चचाल बीभत्सुरमित्रमर्दनः
क्षितेः प्रकम्पे च यथाचलोत्तमः।
मूलम्
स गाढविद्धः समरे महात्मा
विघूर्णमानः श्लथहस्तगाण्डिवः ॥ ३० ॥
चचाल बीभत्सुरमित्रमर्दनः
क्षितेः प्रकम्पे च यथाचलोत्तमः।
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें उस बाणकी गहरी चोट खाकर महात्मा अर्जुनको चक्कर आ गया। गाण्डीव धनुषपर रखा हुआ उनका हाथ ढीला पड़ गया और वे शत्रुमर्दन अर्जुन भूकम्पके समय हिलते हुए श्रेष्ठ पर्वतके समान काँपने लगे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदन्तरं प्राप्य वृषो महारथो
रथाङ्गमुर्वीगतमुज्जिहीर्षुः ॥ ३१ ॥
रथादवप्लुत्य निगृह्य दोर्भ्यां
शशाक दैवान्न महाबलोऽपि ।
मूलम्
तदन्तरं प्राप्य वृषो महारथो
रथाङ्गमुर्वीगतमुज्जिहीर्षुः ॥ ३१ ॥
रथादवप्लुत्य निगृह्य दोर्भ्यां
शशाक दैवान्न महाबलोऽपि ।
अनुवाद (हिन्दी)
इसी बीचमें मौका पाकर महारथी कर्णने धरतीमें धँसे हुए पहियेको निकालनेका विचार किया। वह रथसे कूद पड़ा और दोनों हाथोंसे पकड़कर उसे ऊपर उठानेकी कोशिश करने लगा; परंतु महाबलवान् होनेपर भी वह दैववश अपने प्रयासमें सफल न हो सका॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः किरीटी प्रतिलभ्य संज्ञां
जग्राह बाणं यमदण्डकल्पम् ॥ ३२ ॥
ततोऽर्जुनः प्राञ्जलिकं महात्मा
ततोऽब्रवीद् वासुदेवोऽपि पार्थम् ।
छिन्ध्यस्य मूर्धानमरेः शरेण
न यावदारोहति वै रथं वृषः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततः किरीटी प्रतिलभ्य संज्ञां
जग्राह बाणं यमदण्डकल्पम् ॥ ३२ ॥
ततोऽर्जुनः प्राञ्जलिकं महात्मा
ततोऽब्रवीद् वासुदेवोऽपि पार्थम् ।
छिन्ध्यस्य मूर्धानमरेः शरेण
न यावदारोहति वै रथं वृषः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय होशमें आकर किरीटधारी महात्मा अर्जुनने यमदण्डके समान भयंकर आंजलिक नामक बाण हाथमें लिया। यह देख भगवान् श्रीकृष्णने भी अर्जुनसे कहा—‘पार्थ! कर्ण जबतक रथपर नहीं चढ़ जाता तबतक ही अपने बाणके द्वारा इस शत्रुका मस्तक काट डालो’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव सम्पूज्य स तद् वचः प्रभो-
स्ततः शरं प्रज्वलितं प्रगृह्य।
जघान कक्षाममलार्कवर्णां
महारथे रथचक्रे विमग्ने ॥ ३४ ॥
मूलम्
तथैव सम्पूज्य स तद् वचः प्रभो-
स्ततः शरं प्रज्वलितं प्रगृह्य।
जघान कक्षाममलार्कवर्णां
महारथे रथचक्रे विमग्ने ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर अर्जुनने भगवान्की उस आज्ञाको सादर शिरोधार्य किया और उस प्रज्वलित बाणको हाथमें लेकर जिसका पहिया फँसा हुआ था, कर्णके उस विशाल रथपर फहराती हुई सूर्यके समान प्रकाशमान ध्वजापर प्रहार किया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं हस्तिकक्षाप्रवरं च केतुं
सुवर्णमुक्तामणिवज्रपृष्ठम् ।
ज्ञानप्रकर्षोत्तमशिल्पियुक्तैः
कृतं सुरूपं तपनीयचित्रम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
तं हस्तिकक्षाप्रवरं च केतुं
सुवर्णमुक्तामणिवज्रपृष्ठम् ।
ज्ञानप्रकर्षोत्तमशिल्पियुक्तैः
कृतं सुरूपं तपनीयचित्रम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथीकी साँकलके चिह्नसे युक्त उस श्रेष्ठ ध्वजाके पृष्ठभागमें सुवर्ण, मुक्ता, मणि और हीरे जड़े हुए थे। अत्यन्त ज्ञानवान् एवं उत्तम शिल्पियोंने मिलकर उस सुवर्णजटित सुन्दर ध्वजाका निर्माण किया था॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयास्पदं तव सैन्यस्य नित्य-
ममित्रवित्रासनमीड्यरूपम् ।
विख्यातमादित्यसमं स्म लोके
त्विषा समं पावकभानुचन्द्रैः ॥ ३६ ॥
मूलम्
जयास्पदं तव सैन्यस्य नित्य-
ममित्रवित्रासनमीड्यरूपम् ।
विख्यातमादित्यसमं स्म लोके
त्विषा समं पावकभानुचन्द्रैः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह विश्वविख्यात ध्वजा आपकी सेनाकी विजयका आधार स्तम्भ होकर सदा शत्रुओंको भयभीत करती रहती थी। उसका स्वरूप प्रशंसाके ही योग्य था। वह अपनी प्रभासे सूर्य, चन्द्रमा और अग्निकी समानता करती थी॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्षुरप्रेण सुसंशितेन
सुवर्णपुङ्खेन हुताग्निवर्चसा ।
श्रिया ज्वलन्तं ध्वजमुन्ममाथ
महारथस्याधिरथेः किरीटी ॥ ३७ ॥
मूलम्
ततः क्षुरप्रेण सुसंशितेन
सुवर्णपुङ्खेन हुताग्निवर्चसा ।
श्रिया ज्वलन्तं ध्वजमुन्ममाथ
महारथस्याधिरथेः किरीटी ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किरीटधारी अर्जुनने सोनेके पंखवाले और आहुतिसे प्रज्वलित हुई अग्निके समान तेजस्वी उस तीखे क्षुरप्रसे महारथी कर्णके उस ध्वजको नष्ट कर दिया, जो अपनी प्रभासे निरन्तर देदीप्यमान होता रहता था॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यशश्च दर्पश्च तथा प्रियाणि
सर्वाणि कार्याणि च तेन केतुना।
साकं कुरूणां हृदयानि चापतन्
बभूव हाहेति च निःस्वनो महान् ॥ ३८ ॥
मूलम्
यशश्च दर्पश्च तथा प्रियाणि
सर्वाणि कार्याणि च तेन केतुना।
साकं कुरूणां हृदयानि चापतन्
बभूव हाहेति च निःस्वनो महान् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कटकर गिरते हुए उस ध्वजके साथ ही कौरवोंके यश, अभिमान, समस्त प्रिय कार्य तथा हृदयका भी पतन हो गया और चारों ओर महान् हाहाकार मच गया॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा ध्वजं पातितमाशुकारिणा
कुरुप्रवीरेण निकृत्तमाहवे ।
नाशंसिरे सूतपुत्रस्य सर्वे
जयं तदा भारत ये त्वदीयाः ॥ ३९ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा ध्वजं पातितमाशुकारिणा
कुरुप्रवीरेण निकृत्तमाहवे ।
नाशंसिरे सूतपुत्रस्य सर्वे
जयं तदा भारत ये त्वदीयाः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! शीघ्रकारी कौरव वीर अर्जुनके द्वारा युद्धस्थलमें उस ध्वजको काटकर गिराया हुआ देख उस समय आपके सभी सैनिकोंने सूतपुत्रकी विजयकी आशा त्याग दी॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ त्वरन् कर्णवधाय पार्थो
महेन्द्रवज्रानलदण्डसंनिभम् ।
आदत्त चाथाञ्जलिकं निषङ्गात्
सहस्ररश्मेरिव रश्मिमुत्तमम् ॥ ४० ॥
मूलम्
अथ त्वरन् कर्णवधाय पार्थो
महेन्द्रवज्रानलदण्डसंनिभम् ।
आदत्त चाथाञ्जलिकं निषङ्गात्
सहस्ररश्मेरिव रश्मिमुत्तमम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कर्णके वधके लिये शीघ्रता करते हुए अर्जुनने अपने तरकससे एक अंजलिक नामक बाण निकाला, जो इन्द्रके वज्र और अग्निके दण्डके समान भयंकर तथा सूर्यकी एक उत्तम किरणके समान कान्तिमान् था॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मर्मच्छिदं शोणितमांसदिग्धं
वैश्वानरार्कप्रतिमं महार्हम् ।
नराश्वनागासुहरं त्र्यरत्निं
षड्वाजमञ्जोगतिमुग्रवेगम् ॥ ४१ ॥
सहस्रनेत्राशनितुल्यवीर्यं
कालानलं व्यात्तमिवातिघोरम् ।
पिनाकनारायणचक्रसंनिभं
भयङ्करं प्राणभृतां विनाशनम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
मर्मच्छिदं शोणितमांसदिग्धं
वैश्वानरार्कप्रतिमं महार्हम् ।
नराश्वनागासुहरं त्र्यरत्निं
षड्वाजमञ्जोगतिमुग्रवेगम् ॥ ४१ ॥
सहस्रनेत्राशनितुल्यवीर्यं
कालानलं व्यात्तमिवातिघोरम् ।
पिनाकनारायणचक्रसंनिभं
भयङ्करं प्राणभृतां विनाशनम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह शत्रुके मर्मस्थलको छेदनेमें समर्थ, रक्त और मांससे लिप्त होनेवाला, अग्नि तथा सूर्यके तुल्य तेजस्वी, बहुमूल्य, मनुष्यों, घोड़ों और हाथियोंके प्राण लेनेवाला, मूठी बँधे हुए हाथसे तीन हाथ बड़ा, छः पंखोंसे युक्त, शीघ्रगामी, भयंकर वेगशाली, इन्द्रके वज्रके तुल्य पराक्रम प्रकट करनेवाला, मुँह बाये हुए कालाग्निके समान अत्यन्त भयानक, भगवान् शिवके पिनाक और नारायणके चक्र-सदृश भयदायक तथा प्राणियोंका विनाश करनेवाला था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग्राह पार्थः स शरं प्रहृष्टो
यो देवसङ्घैरपि दुर्निवार्यः ।
सम्पूजितो यः सततं महात्मा
देवासुरान् यो विजयेन्महेषुः ॥ ४३ ॥
मूलम्
जग्राह पार्थः स शरं प्रहृष्टो
यो देवसङ्घैरपि दुर्निवार्यः ।
सम्पूजितो यः सततं महात्मा
देवासुरान् यो विजयेन्महेषुः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके समुदाय भी जिनकी गतिको अनायास नहीं रोक सकते, जो सदा सबके द्वारा सम्मानित, महामनस्वी, विशाल बाण धारण करनेवाले और देवताओं तथा असुरोंपर भी विजय पानेमें समर्थ हैं उन कुन्तीकुमार अर्जुनने अत्यन्त प्रसन्न होकर उस बाणको हाथमें लिया॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं वै प्रमृष्टं प्रसमीक्ष्य युद्धे
चचाल सर्वं सचराचरं जगत्।
स्वस्ति जगत् स्यादृषयः प्रचुक्रुशु-
स्तमुद्यतं प्रेक्ष्य महाहवेषुम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
तं वै प्रमृष्टं प्रसमीक्ष्य युद्धे
चचाल सर्वं सचराचरं जगत्।
स्वस्ति जगत् स्यादृषयः प्रचुक्रुशु-
स्तमुद्यतं प्रेक्ष्य महाहवेषुम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महायुद्धमें उस बाणको हाथमें लिया और ऊपर उठाया गया देख समस्त चराचर जगत् काँप उठा। ऋषिलोग चोर-जोरसे पुकार उठे कि ‘जगत्का कल्याण हो!’॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु तं वै शरमप्रमेयं
गाण्डीवधन्वा धनुषि व्ययोजयत् ।
युक्त्वा महास्त्रेण परेण चापं
विकृष्य गाण्डीवमुवाच सत्वरम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
ततस्तु तं वै शरमप्रमेयं
गाण्डीवधन्वा धनुषि व्ययोजयत् ।
युक्त्वा महास्त्रेण परेण चापं
विकृष्य गाण्डीवमुवाच सत्वरम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् गाण्डीवधारी अर्जुनने उस अप्रमेय शक्तिशाली बाणको धनुषपर रखा और उसे उत्तम एवं महान् दिव्यास्त्रसे अभिमन्त्रित करके तुरंत ही गाण्डीवको खींचते हुए कहा—॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं महास्त्रप्रहितो महाशरः
शरीरहृच्चासुहरश्च दुर्हृदः ।
तपोऽस्ति तप्तं गुरवश्च तोषिता
मया यदीष्टं सुहृदां श्रुतं तथा ॥ ४६ ॥
अनेन सत्येन निहन्त्वयं शरः
सुसंहितः कर्णमरिं ममोर्जितम् ।
इत्यूचिवांस्तं प्रमुमोच बाणं
धनंजयः कर्णवधाय घोरम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
अयं महास्त्रप्रहितो महाशरः
शरीरहृच्चासुहरश्च दुर्हृदः ।
तपोऽस्ति तप्तं गुरवश्च तोषिता
मया यदीष्टं सुहृदां श्रुतं तथा ॥ ४६ ॥
अनेन सत्येन निहन्त्वयं शरः
सुसंहितः कर्णमरिं ममोर्जितम् ।
इत्यूचिवांस्तं प्रमुमोच बाणं
धनंजयः कर्णवधाय घोरम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह महान् दिव्यास्त्रसे प्रेरित महाबाण शत्रुके शरीर, हृदय और प्राणोंका विनाश करनेवाला है। यदि मैंने तप किया हो, गुरुजनोंको सेवाद्वारा संतुष्ट रखा हो, यज्ञ किया हो और हितैषी मित्रोंकी बातें ध्यान देकर सुनी हो तो इस सत्यके प्रभावसे यह अच्छी तरह संधान किया हुआ बाण मेरे शक्तिशाली शत्रु कर्णका नाश कर डाले, ऐसा कहकर धनंजयने उस घोर बाणको कर्णके वधके लिये छोड़ दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्यामथर्वाङ्गिरसीमिवोग्रां
दीप्तामसह्यां युधि मृत्युनापि ।
ब्रुवन् किरीटी तमतिप्रहृष्टो
ह्ययं शरो मे विजयावहोऽस्तु ॥ ४८ ॥
जिघांसुरर्केन्दुसमप्रभावः
कर्णं मयास्तो नयतां यमाय।
मूलम्
कृत्यामथर्वाङ्गिरसीमिवोग्रां
दीप्तामसह्यां युधि मृत्युनापि ।
ब्रुवन् किरीटी तमतिप्रहृष्टो
ह्ययं शरो मे विजयावहोऽस्तु ॥ ४८ ॥
जिघांसुरर्केन्दुसमप्रभावः
कर्णं मयास्तो नयतां यमाय।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अथर्वांगिरस मन्त्रोंद्वारा आभिचारिक प्रयोग करके उत्पन्न की हुई कृत्या उग्र, प्रज्वलित और युद्धमें मृत्युके लिये भी असह्य होती है, उसी प्रकार वह बाण भी था। किरीटधारी अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न होकर उस बाणको लक्ष्य करके बोले—‘मेरा यह बाण मुझे विजय दिलानेवाला हो। इसका प्रभाव चन्द्रमा और सूर्यके समान है। मेरा छोड़ा हुआ यह घातक अस्त्र कर्णको यमलोक पहुँचा दे’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनेषुवर्येण किरीटमाली
प्रहृष्टरूपो विजयावहेन ॥ ४९ ॥
जिघांसुरर्केन्दुसमप्रभेण
चक्रे विषक्तं रिपुमाततायी ।
मूलम्
तेनेषुवर्येण किरीटमाली
प्रहृष्टरूपो विजयावहेन ॥ ४९ ॥
जिघांसुरर्केन्दुसमप्रभेण
चक्रे विषक्तं रिपुमाततायी ।
अनुवाद (हिन्दी)
किरीटधारी अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न हो अपने शत्रुको मारनेकी इच्छासे आततायी बन गये थे। उन्होंने चन्द्रमा और सूर्यके समान प्रकाशित होनेवाले उस विजयदायक श्रेष्ठ बाणसे अपने शत्रुको बींध डाला॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा विमुक्तो बलिनार्कतेजाः
प्रज्वालयामास दिशो नभश्च ।
ततोऽर्जुनस्तस्य शिरो जहार
वृत्रस्य वज्रेण यथा महेन्द्रः ॥ ५० ॥
मूलम्
तथा विमुक्तो बलिनार्कतेजाः
प्रज्वालयामास दिशो नभश्च ।
ततोऽर्जुनस्तस्य शिरो जहार
वृत्रस्य वज्रेण यथा महेन्द्रः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलवान् अर्जुनके द्वारा इस प्रकार छोड़ा हुआ वह सूर्यके तुल्य तेजस्वी बाण आकाश एवं दिशाओंको प्रकाशित करने लगा। जैसे इन्द्रने अपने वज्रसे वृत्रासुरका मस्तक काट लिया था, उसी प्रकार अर्जुनने उस बाणद्वारा कर्णका सिर धड़से अलग कर दिया॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरोत्तमेनाञ्जलिकेन राजं-
स्तदा महास्त्रप्रतिमन्त्रितेन ।
पार्थोऽपराह्णे शिर उच्चकर्त
वैकर्तनस्याथ महेन्द्रसूनुः ॥ ५१ ॥
मूलम्
शरोत्तमेनाञ्जलिकेन राजं-
स्तदा महास्त्रप्रतिमन्त्रितेन ।
पार्थोऽपराह्णे शिर उच्चकर्त
वैकर्तनस्याथ महेन्द्रसूनुः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! महान् दिव्यास्त्रसे अभिमन्त्रित अंजलिक नामक उत्तम बाणके द्वारा इन्द्रपुत्र कुन्तीकुमार अर्जुनने अपराह्णकालमें वैकर्तन कर्णका सिर काट लिया॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् प्रापतच्चाञ्जलिकेन छिन्न-
मथास्य कायो निपपात पश्चात्।
तदुद्यतादित्यसमानतेजसं
शरन्नभोमध्यगभास्करोपमम् ॥ ५२ ॥
वराङ्गमुर्व्यामपतच्चमूमुखे
दिवाकरोऽस्तादिव रक्तमण्डलः ।
मूलम्
तत् प्रापतच्चाञ्जलिकेन छिन्न-
मथास्य कायो निपपात पश्चात्।
तदुद्यतादित्यसमानतेजसं
शरन्नभोमध्यगभास्करोपमम् ॥ ५२ ॥
वराङ्गमुर्व्यामपतच्चमूमुखे
दिवाकरोऽस्तादिव रक्तमण्डलः ।
अनुवाद (हिन्दी)
अंजलिकसे कटा हुआ कर्णका वह मस्तक पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसके बाद उसका शरीर भी धराशायी हो गया। जैसे लाल मण्डलवाला सूर्य अस्ताचलसे नीचे गिरता है, उसी प्रकार उदित सूर्यके समान तेजस्वी तथा शरत्कालीन आकाशके मध्यभागमें तपनेवाले भास्करके समान दुःसह वह मस्तक सेनाके अग्रभागमें पृथ्वीपर जा गिरा॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्य देहं सततं सुखोचितं
सुरूपमत्यर्थमुदारकर्मणः ॥ ५३ ॥
परेण कृच्छ्रेण शिरः समत्यजद्
गृहं महर्धीव सुसङ्गमीश्वरः ।
मूलम्
ततोऽस्य देहं सततं सुखोचितं
सुरूपमत्यर्थमुदारकर्मणः ॥ ५३ ॥
परेण कृच्छ्रेण शिरः समत्यजद्
गृहं महर्धीव सुसङ्गमीश्वरः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सदा सुख भोगनेके योग्य, उदारकर्मा कर्णके उस अत्यन्त सुन्दर शरीरको उसके मस्तकने बड़ी कठिनाईसे छोड़ा। ठीक उसी तरह, जैसे धनवान् पुरुष अपने समृद्धिशाली घरको और मन एवं इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला पुरुष सत्संगको बड़े कष्टसे छोड़ पाता है॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरैर्विभिन्नं व्यसु तत् सुवर्चसः
पपात कर्णस्य शरीरमुच्छ्रितम् ॥ ५४ ॥
स्रवद्व्रणं गैरिकतोयविस्रवं
गिरेर्यथा वज्रहतं महाशिरः ।
देहाच्च कर्णस्य निपातितस्य
तेजः सूर्यं खं वितत्याविवेश ॥ ५५ ॥
मूलम्
शरैर्विभिन्नं व्यसु तत् सुवर्चसः
पपात कर्णस्य शरीरमुच्छ्रितम् ॥ ५४ ॥
स्रवद्व्रणं गैरिकतोयविस्रवं
गिरेर्यथा वज्रहतं महाशिरः ।
देहाच्च कर्णस्य निपातितस्य
तेजः सूर्यं खं वितत्याविवेश ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तेजस्वी कर्णका वह ऊँचा शरीर बाणोंसे क्षत-विक्षत हो घावोंसे खूनकी धारा बहाता हुआ प्राणशून्य होकर गिर पड़ा, मानो वज्रके आघातसे भग्न हुआ किसी पर्वतका विशाल शिखर गेरुमिश्रित जलकी धारा बहा रहा हो। धरतीपर गिराये गये कर्णके शरीरसे एक तेज निकलकर आकाशमें फैल गया और ऊपर जाकर सूर्यमण्डलमें विलीन हो गया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदद्भुतं सर्वमनुष्ययोधाः
संदृष्टवन्तो निहते स्म कर्णे।
ततः शङ्खान् पाण्डवा दध्मुरुच्चै-
र्दृष्ट्वा कर्णं पातितं फाल्गुनेन ॥ ५६ ॥
मूलम्
तदद्भुतं सर्वमनुष्ययोधाः
संदृष्टवन्तो निहते स्म कर्णे।
ततः शङ्खान् पाण्डवा दध्मुरुच्चै-
र्दृष्ट्वा कर्णं पातितं फाल्गुनेन ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस अद्भुत दृश्यको वहाँ खड़े हुए सब लोगोंने अपनी आँखों देखा था। कर्णके मारे जानेपर उसे अर्जुनद्वारा गिराया हुआ देख पाण्डवोंने उच्च स्वरसे शंख बजाया॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव कृष्णश्च धनंजयश्च
हृष्टौ यमौ दध्मतुर्वारिजातौ ।
तं सोमकाः प्रेक्ष्य हतं शयानं
सैन्यैः सार्धं सिंहनादान् प्रचक्रुः ॥ ५७ ॥
मूलम्
तथैव कृष्णश्च धनंजयश्च
हृष्टौ यमौ दध्मतुर्वारिजातौ ।
तं सोमकाः प्रेक्ष्य हतं शयानं
सैन्यैः सार्धं सिंहनादान् प्रचक्रुः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा हर्षमें भरे हुए नकुल-सहदेवने भी शंख बजाये। सोमकगण कर्णको मरकर गिरा हुआ देख अपनी सेनाओंके साथ सिंहनाद करने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूर्याणि संजघ्नुरतीव हृष्टा
वासांसि चैवादुधुवुर्भुजांश्च ।
संवर्धयन्तश्च नरेन्द्र योधाः
पार्थं समाजग्मुरतीव हृष्टाः ॥ ५८ ॥
मूलम्
तूर्याणि संजघ्नुरतीव हृष्टा
वासांसि चैवादुधुवुर्भुजांश्च ।
संवर्धयन्तश्च नरेन्द्र योधाः
पार्थं समाजग्मुरतीव हृष्टाः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बड़े हर्षमें भरकर बाजे-बजाने और कपड़े तथा हाथ हिलाने लगे। नरेन्द्र! अत्यन्त हर्षमें भरे हुए पाण्डव योद्धा अर्जुनको बधाई देते हुए उनके पास आकर मिले॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलान्विताश्चापरे ह्यप्यनृत्य-
न्नन्योन्यमाश्लिष्य नदन्त ऊचुः ।
दृष्ट्वा तु कर्णं भुवि वा विपन्नं
कृत्तं रथात् सायकैरर्जुनस्य ॥ ५९ ॥
मूलम्
बलान्विताश्चापरे ह्यप्यनृत्य-
न्नन्योन्यमाश्लिष्य नदन्त ऊचुः ।
दृष्ट्वा तु कर्णं भुवि वा विपन्नं
कृत्तं रथात् सायकैरर्जुनस्य ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके बाणोंसे छिन्न-भिन्न एवं प्राणशून्य हुए कर्णको रथसे नीचे पृथ्वीपर गिरा देख दूसरे बलवान् सैनिक एक-दूसरेको गलेसे लगाकर नाचते और गर्जते हुए बातें करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महानिलेनाद्रिमिवापविद्धं
यज्ञावसानेऽग्निमिव प्रशान्तम् ।
रराज कर्णस्य शिरो निकृत्त-
मस्तं गतं भास्करस्येव बिम्बम् ॥ ६० ॥
मूलम्
महानिलेनाद्रिमिवापविद्धं
यज्ञावसानेऽग्निमिव प्रशान्तम् ।
रराज कर्णस्य शिरो निकृत्त-
मस्तं गतं भास्करस्येव बिम्बम् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णका वह कटा हुआ मस्तक वायुके वेगसे टूटकर गिरे हुए पर्वतखण्डके समान, यज्ञके अन्तमें बुझी हुई अग्निके सदृश तथा अस्ताचलपर पहुँचे हुए सूर्यके बिम्बकी भाँति सुशोभित हो रहा था॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरैराचितसर्वाङ्गः शोणितौघपरिप्लुतः ।
विभाति देहः कर्णस्य स्वरश्मिभिरिवांशुमान् ॥ ६१ ॥
मूलम्
शरैराचितसर्वाङ्गः शोणितौघपरिप्लुतः ।
विभाति देहः कर्णस्य स्वरश्मिभिरिवांशुमान् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी अंगोंमें बाणोंसे व्याप्त और खूनसे लथपथ हुआ कर्णका शरीर अपनी किरणोंसे प्रकाशित होनेवाले अंशुमाली सूर्यके समान शोभा पा रहा था॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रताप्य सेनामामित्रीं दीप्तैः शरगभस्तिभिः।
बलिनार्जुनकालेन नीतोऽस्तं कर्णभास्करः ॥ ६२ ॥
अस्तं गच्छन् यथादित्यः प्रभामादाय गच्छति।
तथा जीवितमादाय कर्णस्येषुर्जगाम सः ॥ ६३ ॥
मूलम्
प्रताप्य सेनामामित्रीं दीप्तैः शरगभस्तिभिः।
बलिनार्जुनकालेन नीतोऽस्तं कर्णभास्करः ॥ ६२ ॥
अस्तं गच्छन् यथादित्यः प्रभामादाय गच्छति।
तथा जीवितमादाय कर्णस्येषुर्जगाम सः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाणमयी उद्दीप्त किरणोंसे शत्रुकी सेनाको तपाकर कर्णरूपी सूर्य बलवान् अर्जुनरूपी कालसे प्रेरित हो अस्ताचलको जा पहुँचा। जैसे अस्ताचलको जाता हुआ सूर्य अपनी प्रभाको लेकर चला जाता है, उसी प्रकार वह बाण कर्णके प्राण लेकर चला गया॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपराह्णेऽपराह्णोऽस्य सूतपुत्रस्य मारिष ।
छिन्नमञ्जलिकेनाजौ सोत्सेधमपतच्छिरः ॥ ६४ ॥
मूलम्
अपराह्णेऽपराह्णोऽस्य सूतपुत्रस्य मारिष ।
छिन्नमञ्जलिकेनाजौ सोत्सेधमपतच्छिरः ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! दान देते समय जो दूसरे दिनके लिये वादा नहीं करता था, उस सूतपुत्र कर्णका अंजलिक नामक बाणसे कटा हुआ देहसहित मस्तक अपराह्णकालमें धराशायी हो गया॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपर्युपरि सैन्यानामस्य शत्रोस्तदञ्जसा ।
शिरः कर्णस्य सोत्सेधमिषुः सोऽप्यहरद् द्रुतम् ॥ ६५ ॥
मूलम्
उपर्युपरि सैन्यानामस्य शत्रोस्तदञ्जसा ।
शिरः कर्णस्य सोत्सेधमिषुः सोऽप्यहरद् द्रुतम् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बाणने सारी सेनाके ऊपर-ऊपर जाकर अर्जुनके शत्रुभूत कर्णके शरीरसहित मस्तकको वेगपूर्वक अनायास ही काट डाला था॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णं तु शूरं पतितं पृथिव्यां
शराचितं शोणितदिग्धगात्रम् ।
दृष्ट्वा शयानं भुवि मद्रराज-
श्छिन्नध्वजेनाथ ययौ रथेन ॥ ६६ ॥
मूलम्
कर्णं तु शूरं पतितं पृथिव्यां
शराचितं शोणितदिग्धगात्रम् ।
दृष्ट्वा शयानं भुवि मद्रराज-
श्छिन्नध्वजेनाथ ययौ रथेन ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूरवीर कर्णको बाणसे व्याप्त और खूनसे लथपथ होकर पृथ्वीपर पड़ा हुआ देख मद्रराज शल्य उस कटी हुई ध्वजावाले रथके द्वारा ही वहाँसे भाग खड़े हुए॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हते कर्णे कुरवः प्राद्रवन्त
भयार्दिता गाढविद्धाश्च संख्ये ।
अवेक्षमाणा मुहुरर्जुनस्य
ध्वजं महान्तं वपुषा ज्वलन्तम् ॥ ६७ ॥
मूलम्
हते कर्णे कुरवः प्राद्रवन्त
भयार्दिता गाढविद्धाश्च संख्ये ।
अवेक्षमाणा मुहुरर्जुनस्य
ध्वजं महान्तं वपुषा ज्वलन्तम् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके मारे जानेपर युद्धमें अत्यन्त घायल हुए कौरवसैनिक अर्जुनके प्रज्वलित होते हुए महान् ध्वजको बारंबार देखते हुए भयसे पीड़ित हो भागने लगे॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रनेत्रप्रतिमानकर्मणः
सहस्रपत्रप्रतिमाननं शुभम् ।
सहस्ररश्मिर्दिनसंक्षये यथा
तथापतत् कर्णशिरो वसुंधराम् ॥ ६८ ॥
मूलम्
सहस्रनेत्रप्रतिमानकर्मणः
सहस्रपत्रप्रतिमाननं शुभम् ।
सहस्ररश्मिर्दिनसंक्षये यथा
तथापतत् कर्णशिरो वसुंधराम् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्रनेत्रधारी इन्द्रके समान पराक्रमी कर्णका सहस्रदल कमलके समान वह सुन्दर मस्तक उसी प्रकार पृथ्वीपर गिर पड़ा, जैसे सायंकालमें सहस्र किरणोंवाले सूर्यका मण्डल अस्त हो जाता है॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(व्यूढोरस्कं कमलनयनं तप्तहेमावभासं
कर्णं दृष्ट्वा भुवि निपतितं पार्थबाणाभितप्तम्।
पांशुग्रस्तं मलिनमसकृत् पुत्रमन्वीक्षमाणो
मन्दं मन्दं व्रजति सविता मन्दिरं मन्दरश्मिः॥)
मूलम्
(व्यूढोरस्कं कमलनयनं तप्तहेमावभासं
कर्णं दृष्ट्वा भुवि निपतितं पार्थबाणाभितप्तम्।
पांशुग्रस्तं मलिनमसकृत् पुत्रमन्वीक्षमाणो
मन्दं मन्दं व्रजति सविता मन्दिरं मन्दरश्मिः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी छाती चौड़ी और नेत्र कमलके समान सुन्दर थे तथा कान्ति तपाये हुए सुवर्णके समान जान पड़ती थी, वह कर्ण अर्जुनके बाणोंसे संतप्त हो धरतीपर पड़ा, धूलमें सना मलिन हो गया था। अपने उस पुत्रकी ओर बारंबार देखते हुए मन्द किरणोंवाले सूर्यदेव धीरे-धीरे अपने मन्दिर (अस्ताचल)-की ओर जा रहे थे।
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कर्णवधे एकनवतितमोऽध्यायः ॥ ९१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें कर्णवधविषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९१॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६९ श्लोक हैं।)