०८९

भागसूचना

एकोननवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कर्ण और अर्जुनका भयंकर युद्ध और कौरववीरोंका पलायन

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ शङ्खभेरीनिनदे समृद्धे
समीयतुः श्वेतहयौ नराग्र्यौ ।
वैकर्तनः सूतपुत्रोऽर्जुनश्च
दुर्मन्त्रिते तव पुत्रस्य राजन् ॥ १ ॥

मूलम्

तौ शङ्खभेरीनिनदे समृद्धे
समीयतुः श्वेतहयौ नराग्र्यौ ।
वैकर्तनः सूतपुत्रोऽर्जुनश्च
दुर्मन्त्रिते तव पुत्रस्य राजन् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर आपकी कुमन्त्रणाके फलस्वरूप जब वहाँ शंख और भेरियोंकी गम्भीर ध्वनि होने लगी, उस समय वहाँ श्वेत घोड़ोंवाले दोनों नरश्रेष्ठ वैकर्तन कर्ण और अर्जुन युद्धके लिये एक-दूसरेकी ओर बढ़े॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(आशीविषावग्निमिवापधूमं
वैरं मुखाभ्यामभिनिःश्वसन्तौ ।
यशस्विनौ जज्वलतुर्मृधे तदा
घृतावसिक्ताविव हव्यवाहौ ॥)

मूलम्

(आशीविषावग्निमिवापधूमं
वैरं मुखाभ्यामभिनिःश्वसन्तौ ।
यशस्विनौ जज्वलतुर्मृधे तदा
घृतावसिक्ताविव हव्यवाहौ ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों यशस्वी वीर उस समय दो विषधर सर्पोंके समान लंबी साँस खींचकर मानो अपने मुखोंसे धूमरहित अग्निके सदृश वैरभाव प्रकट कर रहे थे। वे घीकी आहुतिसे प्रज्वलित हुई दो अग्नियोंकी भाँति युद्धभूमिमें देदीप्यमान होने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा गजौ हैमवतौ प्रभिन्नौ
प्रवृद्धदन्ताविव वासितार्थे ।
तथा समाजग्मतुरुग्रवीर्यौ
धनंजयश्चाधिरथिश्च वीरौ ॥ २ ॥

मूलम्

यथा गजौ हैमवतौ प्रभिन्नौ
प्रवृद्धदन्ताविव वासितार्थे ।
तथा समाजग्मतुरुग्रवीर्यौ
धनंजयश्चाधिरथिश्च वीरौ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मदकी धारा बहानेवाले हिमाचलप्रदेशके बड़े-बड़े दाँतोंवाले दो हाथी किसी हथिनीके लिये लड़ रहे हों, उसी प्रकार भयंकर पराक्रमी वीर अर्जुन और कर्ण युद्धके लिये एक-दूसरेके सामने आये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलाहकेनेव महाबलाहको
यदृच्छया वा गिरिणा यथा गिरिः।
तथा धनुर्ज्यातलनेमिनिस्वनैः
समीयतुस्ताविषुवर्षवर्षिणौ ॥ ३ ॥

मूलम्

बलाहकेनेव महाबलाहको
यदृच्छया वा गिरिणा यथा गिरिः।
तथा धनुर्ज्यातलनेमिनिस्वनैः
समीयतुस्ताविषुवर्षवर्षिणौ ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे महान् मेघ किसी दूसरे मेघके साथ अथवा दैवेच्छासे एक पर्वत दूसरे पर्वतके साथ टक्कर लेनेके लिये उद्यत हो, उसी प्रकार धनुषकी प्रत्यंचा, हथेली तथा रथके पहियोंकी गम्भीर ध्वनिके साथ बाणोंकी वर्षा करते हुए वे दोनों वीर एक-दूसरेके सामने आये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवृद्धशृङ्गद्रुमवीरुदोषधी
प्रवृद्धनानाविधनिर्झरौकसौ ।
यथाचलौ वा चलितौ महाबलौ
तथा महास्त्रैरितरेतरं हतः ॥ ४ ॥

मूलम्

प्रवृद्धशृङ्गद्रुमवीरुदोषधी
प्रवृद्धनानाविधनिर्झरौकसौ ।
यथाचलौ वा चलितौ महाबलौ
तथा महास्त्रैरितरेतरं हतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके शिखर, वृक्ष, लता-गुल्म और ओषधि सभी विशाल एवं बढ़े हुए हों तथा जो नाना प्रकारके बड़े-बड़े झरनोंके उद्‌गमस्थान हों, ऐसे दो पर्वतके समान वे महाबली कर्ण और अर्जुन आगे बढ़कर अपने महान् अस्त्रोंद्वारा एक-दूसरेपर आघात करने लगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स संनिपातस्तु तयोर्महानभूत्
सुरेशवैरोचनयोर्यथा पुरा ।
शरैर्विनुन्नाङ्गनियन्तृवाहयोः
सुदुःसहोऽन्यैः कटुशोणितोदकः ॥ ५ ॥

मूलम्

स संनिपातस्तु तयोर्महानभूत्
सुरेशवैरोचनयोर्यथा पुरा ।
शरैर्विनुन्नाङ्गनियन्तृवाहयोः
सुदुःसहोऽन्यैः कटुशोणितोदकः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंका वह संग्राम वैसा ही महान् था, जैसा कि पूर्वकालमें इन्द्र और बलिका युद्ध हुआ था। बाणोंके आघातसे उन दोनोंके शरीर, सारथि और घोड़े क्षत-विक्षत हो गये थे और वहाँ कटु रक्तरूपी जलका प्रवाह बह रहा था। वह युद्ध दूसरोंके लिये अत्यन्त दुःसह था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभूतपद्मोत्पलमत्स्यकच्छपौ
महाह्रदौ पक्षिगणैरिवावृतौ ।
सुसंनिकृष्टावनिलोद्धतौ यथा
तथा रथौ तौ ध्वजिनौ समीयतुः ॥ ६ ॥

मूलम्

प्रभूतपद्मोत्पलमत्स्यकच्छपौ
महाह्रदौ पक्षिगणैरिवावृतौ ।
सुसंनिकृष्टावनिलोद्धतौ यथा
तथा रथौ तौ ध्वजिनौ समीयतुः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे प्रचुर पद्म, उत्पल, मत्स्य और कच्छपोंसे युक्त तथा पक्षिसमूहोंसे आवृत दो अत्यन्त निकटवर्ती विशाल सरोवर वायुसे संचालित हो परस्पर मिल जायँ, उसी प्रकार ध्वजोंसे सुशोभित उनके वे दोनों रथ एक-दूसरेसे भिड़ गये थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ महेन्द्रस्य समानविक्रमा-
वुभौ महेन्द्रप्रतिमौ महारथौ ।
महेन्द्रवज्रप्रतिमैश्च सायकै-
र्महेन्द्रवृत्राविव सम्प्रजघ्नतुः ॥ ७ ॥

मूलम्

उभौ महेन्द्रस्य समानविक्रमा-
वुभौ महेन्द्रप्रतिमौ महारथौ ।
महेन्द्रवज्रप्रतिमैश्च सायकै-
र्महेन्द्रवृत्राविव सम्प्रजघ्नतुः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों वीर इन्द्रके समान पराक्रमी और उन्हींके सदृश महारथी थे। इन्द्रके वज्रतुल्य बाणोंसे इन्द्र और वृत्रासुरके समान वे एक-दूसरेको चोट पहुँचाने लगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनागपत्त्यश्वरथे उभे बले
विचित्रवर्माभरणाम्बरायुधे ।
चकम्पतुर्विस्मयनीयरूपे
वियद्‌गताश्चार्जुनकर्णसंयुगे ॥ ८ ॥

मूलम्

सनागपत्त्यश्वरथे उभे बले
विचित्रवर्माभरणाम्बरायुधे ।
चकम्पतुर्विस्मयनीयरूपे
वियद्‌गताश्चार्जुनकर्णसंयुगे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विचित्र कवच, आभूषण, वस्त्र और आयुध धारण करनेवाली, हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंसहित उभय पक्षकी चतुरंगिणी सेनाएँ अर्जुन और कर्णके उस युद्धमें भयके कारण आश्चर्यजनकरूपसे काँपने लगीं तथा आकाशवर्ती प्राणी भी भयसे थर्रा उठे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुजाः सवस्त्राङ्‌गुलयः समुच्छ्रिताः
ससिंहनादैर्हृषितैर्दिदृक्षुभिः ।
यदर्जुनो मत्त इव द्विपो द्विपं
समभ्ययादाधिरथिं जिघांसया ॥ ९ ॥

मूलम्

भुजाः सवस्त्राङ्‌गुलयः समुच्छ्रिताः
ससिंहनादैर्हृषितैर्दिदृक्षुभिः ।
यदर्जुनो मत्त इव द्विपो द्विपं
समभ्ययादाधिरथिं जिघांसया ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मतवाला हाथी किसी हाथीपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार अर्जुन जब कर्णके वधकी इच्छासे उसपर धावा करने लगे, उस समय दर्शकोंने आनन्दित हो सिंहनाद करते हुए अपने हाथ ऊपर उठा दिये और अंगुलियोंमें वस्त्र लेकर उन्हें हिलाना आरम्भ किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ततः कुरूणामथ सोमकानां
शब्दो महान् प्रादुरभूत् समन्तात्।
यदार्जुनं सूतपुत्रोऽपराह्णे
महाहवे शैलमिवाम्बुदोऽर्छत् ॥
तदैव चासीद् रथयोः समागमो
महारणे शोणितमांसकर्दमे ॥)

मूलम्

(ततः कुरूणामथ सोमकानां
शब्दो महान् प्रादुरभूत् समन्तात्।
यदार्जुनं सूतपुत्रोऽपराह्णे
महाहवे शैलमिवाम्बुदोऽर्छत् ॥
तदैव चासीद् रथयोः समागमो
महारणे शोणितमांसकर्दमे ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जब महासमरमें अपराह्णके समय पर्वतपर जानेवाले मेघके समान सूतपुत्र कर्णने अर्जुनपर आक्रमण किया, उस समय कौरवों और सोमकोंका महान् कोलाहल सब ओर प्रकट होने लगा। उसी समय उन दोनों रथोंका संघर्ष आरम्भ हुआ। उस महायुद्धमें रक्त और मांसकी कीच जम गयी थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदक्रोशन् सोमकास्तत्र पार्थं
पुरःसराश्चार्जुन भिन्धि कर्णम् ।
छिन्ध्यस्य मूर्धानमलं चिरेण
श्रद्धां च राज्याद् धृतराष्ट्रसूनोः ॥ १० ॥

मूलम्

उदक्रोशन् सोमकास्तत्र पार्थं
पुरःसराश्चार्जुन भिन्धि कर्णम् ।
छिन्ध्यस्य मूर्धानमलं चिरेण
श्रद्धां च राज्याद् धृतराष्ट्रसूनोः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सोमकोंने आगे बढ़कर वहाँ कुन्तीकुमारसे पुकार-पुकारकर कहा—‘अर्जुन! तुम कर्णको मार डालो। अब देर करनेकी आवश्यकता नहीं है। कर्णके मस्तक और दुर्योधनकी राज्य-प्राप्तिकी आशा दोनोंको एक साथ ही काट डालो’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथास्माकं बहवस्तत्र योधाः
कर्णं तथा याहि याहीत्यवोचन्।
जह्यर्जुनं कर्ण शरैः सुतीक्ष्णैः
पुनर्वनं यान्तु चिराय पार्थाः ॥ ११ ॥

मूलम्

तथास्माकं बहवस्तत्र योधाः
कर्णं तथा याहि याहीत्यवोचन्।
जह्यर्जुनं कर्ण शरैः सुतीक्ष्णैः
पुनर्वनं यान्तु चिराय पार्थाः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार हमारे पक्षके बहुत-से योद्धा कर्णको प्रेरित करते हुए बोले—‘कर्ण! आगे बढ़ो, आगे बढ़ो। अपने पैने बाणोंसे अर्जुनको मार डालो, जिससे कुन्तीके सभी पुत्र पुनः दीर्घकालके लिये वनमें चले जायँ’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कर्णः प्रथमं तत्र पार्थं
महेषुभिर्दशभिः प्रत्यविध्यत् ।
तं चार्जुनः प्रत्यविद्ध्यच्छिताग्रैः
कक्षान्तरे दशभिः सम्प्रहस्य ॥ १२ ॥

मूलम्

ततः कर्णः प्रथमं तत्र पार्थं
महेषुभिर्दशभिः प्रत्यविध्यत् ।
तं चार्जुनः प्रत्यविद्ध्यच्छिताग्रैः
कक्षान्तरे दशभिः सम्प्रहस्य ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वहाँ कर्णने पहले दस विशाल बाणोंद्वारा अर्जुनको बींध डाला, तब अर्जुनने भी हँसकर तीखी धारवाले दस बाणोंसे कर्णकी काँखमें प्रहार किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्परं तौ विशिखैः सुपुङ्खै-
स्ततक्षतुः सूतपुत्रोऽर्जुनश्च ।
परस्परं तौ बिभिदुर्विमर्दे
सुभीममभ्यापततुश्च हृष्टौ ॥ १३ ॥

मूलम्

परस्परं तौ विशिखैः सुपुङ्खै-
स्ततक्षतुः सूतपुत्रोऽर्जुनश्च ।
परस्परं तौ बिभिदुर्विमर्दे
सुभीममभ्यापततुश्च हृष्टौ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्र कर्ण और अर्जुन दोनों उस युद्धमें अत्यन्त हर्षमें भरकर सुन्दर पंखवाले बाणोंद्वारा एक-दूसरेको क्षत-विक्षत करने लगे। वे परस्पर क्षति पहुँचाते और भयानक आक्रमण करते थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्जुनः प्रासृजदुग्रधन्वा
भुजावुभौ गाण्डिवं चानुमृज्य ।
नाराचनालीकवराहकर्णान्
क्षुरांस्तथा साञ्जलिकार्धचन्द्रान् ॥ १४ ॥

मूलम्

ततोऽर्जुनः प्रासृजदुग्रधन्वा
भुजावुभौ गाण्डिवं चानुमृज्य ।
नाराचनालीकवराहकर्णान्
क्षुरांस्तथा साञ्जलिकार्धचन्द्रान् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् भयंकर धनुषवाले अर्जुनने अपनी दोनों भुजाओं तथा गाण्डीव धनुषको पोंछकर नाराच, नालीक, वराहकर्ण, क्षुर, अंजलिक तथा अर्धचन्द्र आदि बाणोंका प्रहार आरम्भ किया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते सर्वतः समकीर्यन्त राजन्
पार्थेषवः कर्णरथं विशन्तः ।
अवाङ्‌मुखाः पक्षिगणा दिनान्ते
विशन्ति केतार्थमिवाशु वृक्षम् ॥ १५ ॥

मूलम्

ते सर्वतः समकीर्यन्त राजन्
पार्थेषवः कर्णरथं विशन्तः ।
अवाङ्‌मुखाः पक्षिगणा दिनान्ते
विशन्ति केतार्थमिवाशु वृक्षम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वे अर्जुनके बाण कर्णके रथमें घुसकर सब ओर बिखर जाते थे। ठीक उसी तरह, जैसे संध्याके समय पक्षियोंके झुंड बसेरा लेनेके लिये नीचे मुख किये शीघ्र ही किसी वृक्षपर जा बैठते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानर्जुनः सभ्रुकुटीकटाक्षं
कर्णाय राजन्नसृजज्जितारिः ।
तान् सायकैर्ग्रसते सूतपुत्रः
क्षिप्तान् क्षिप्तान् पाण्डवस्याशु संघान् ॥ १६ ॥

मूलम्

यानर्जुनः सभ्रुकुटीकटाक्षं
कर्णाय राजन्नसृजज्जितारिः ।
तान् सायकैर्ग्रसते सूतपुत्रः
क्षिप्तान् क्षिप्तान् पाण्डवस्याशु संघान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! शत्रुविजयी अर्जुन भौंहें टेढ़ी करके कटाक्षपूर्वक देखते हुए कर्णपर जिन-जिन बाणोंका प्रहार करते थे, पाण्डुपुत्र अर्जुनके चलाये हुए उन सभी बाणसमूहोंको सूतपुत्र कर्ण शीघ्र ही नष्ट कर देता था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्त्रमाग्नेयममित्रसाधनं
मुमोच कर्णाय महेन्द्रसूनुः ।
भूम्यन्तरिक्षे च दिशोऽर्कमार्गं
प्रावृत्य देहोऽस्य बभूव दीप्तः ॥ १७ ॥

मूलम्

ततोऽस्त्रमाग्नेयममित्रसाधनं
मुमोच कर्णाय महेन्द्रसूनुः ।
भूम्यन्तरिक्षे च दिशोऽर्कमार्गं
प्रावृत्य देहोऽस्य बभूव दीप्तः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब इन्द्रकुमार अर्जुनने कर्णपर शत्रुनाशक आग्नेयास्त्रका प्रयोग किया। उस आग्नेयास्त्रका स्वरूप पृथ्वी, आकाश, दिशा तथा सूर्यके मार्गको व्याप्त करके वहाँ प्रज्वलित हो उठा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योधाश्च सर्वे ज्वलिताम्बरा भृशं
प्रदुद्रुवुस्तत्र विदग्धवस्त्राः ।
शब्दश्च घोरोऽतिबभूव तत्र
यथा वने वेणुवनस्य दह्यतः ॥ १८ ॥

मूलम्

योधाश्च सर्वे ज्वलिताम्बरा भृशं
प्रदुद्रुवुस्तत्र विदग्धवस्त्राः ।
शब्दश्च घोरोऽतिबभूव तत्र
यथा वने वेणुवनस्य दह्यतः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे वहाँ समस्त योद्धाओंके वस्त्र जलने लगे। कपड़े जल जानेसे वे सब-के-सब वहाँसे भाग चले। जैसे जंगलके बीच बाँसके वनमें आग लगनेपर जोर-जोरसे चटकनेकी आवाज होती है, उसी प्रकार आगकी लपटमें झुलसते हुए सैनिकोंका अत्यन्त भयंकर आर्तनाद होने लगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वीक्ष्य कर्णो ज्वलनास्त्रमुद्यतं
स वारुणं तत्प्रशमार्थमाहवे ।
समुत्सृजन् सूतसुतः प्रतापवान्
स तेन वह्निं शमयाम्बभूव ॥ १९ ॥

मूलम्

तद् वीक्ष्य कर्णो ज्वलनास्त्रमुद्यतं
स वारुणं तत्प्रशमार्थमाहवे ।
समुत्सृजन् सूतसुतः प्रतापवान्
स तेन वह्निं शमयाम्बभूव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतापी सूतपुत्र कर्णने उस आग्नेयास्त्रको उद्दीप्त हुआ देखकर रणक्षेत्रमें उसकी शान्तिके लिये वारुणास्त्रका प्रयोग किया और उसके द्वारा उस आगको बुझा दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलाहकौघश्च दिशस्तरस्वी
चकार सर्वास्तिमिरेण संवृताः ।
ततो धरित्रीधरतुल्यरोधसः
समन्ततो वै परिवार्य वारिणा ॥ २० ॥

मूलम्

बलाहकौघश्च दिशस्तरस्वी
चकार सर्वास्तिमिरेण संवृताः ।
ततो धरित्रीधरतुल्यरोधसः
समन्ततो वै परिवार्य वारिणा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो बड़े वेगसे मेघोंकी घटा घिर आयी और उसने सम्पूर्ण दिशाओंको अन्धकारसे आच्छादित कर दिया। दिशाओंका अन्तिम भाग काले पर्वतके समान दिखायी देने लगा। मेघोंकी घटाओंने वहाँका सारा प्रदेश जलसे आप्लावित कर दिया था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैश्चातिवेगात् स तथाविधोऽपि
नीतः शमं वह्निरतिप्रचण्डः ।
बलाहकैरेव दिगन्तराणि
व्याप्तानि सर्वाणि यथा नभश्च ॥ २१ ॥

मूलम्

तैश्चातिवेगात् स तथाविधोऽपि
नीतः शमं वह्निरतिप्रचण्डः ।
बलाहकैरेव दिगन्तराणि
व्याप्तानि सर्वाणि यथा नभश्च ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन मेघोंने वहाँ पूर्वोक्तरूपसे बढ़ी हुई अति प्रचण्ड आगको बड़े वेगसे बुझा दिया। फिर समस्त दिशाओं और आकाशमें वे ही छा गये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा च सर्वास्तिमिरेण वै दिशो
मेघैर्वृता न प्रदृश्येत किंचित्।
अथापोवाह्याभ्रसंघान् समस्तान्
वायव्यास्त्रेणापततः स कर्णात् ॥ २२ ॥
ततोऽप्यस्त्रं दयितं देवराज्ञः
प्रादुश्चक्रे वज्रमतिप्रभावम् ।
गाण्डीवं ज्यां विशिखांश्चानुमन्त्र्य
धनंजयः शत्रुभिरप्रधृष्यः ॥ २३ ॥

मूलम्

तथा च सर्वास्तिमिरेण वै दिशो
मेघैर्वृता न प्रदृश्येत किंचित्।
अथापोवाह्याभ्रसंघान् समस्तान्
वायव्यास्त्रेणापततः स कर्णात् ॥ २२ ॥
ततोऽप्यस्त्रं दयितं देवराज्ञः
प्रादुश्चक्रे वज्रमतिप्रभावम् ।
गाण्डीवं ज्यां विशिखांश्चानुमन्त्र्य
धनंजयः शत्रुभिरप्रधृष्यः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघोंसे घिरकर सारी दिशाएँ अन्धकाराच्छन्न हो गयीं; अतः कोई भी वस्तु दिखायी नहीं देती थी। तदनन्तर कर्णकी ओरसे आये हुए सम्पूर्ण मेघ-समूहोंको वायव्यास्त्रसे छिन्न-भिन्न करके शत्रुओंके लिये अजेय अर्जुनने गाण्डीव धनुष, उसकी प्रत्यंचा तथा बाणोंको अभिमन्त्रित करके अत्यन्त प्रभावशाली वज्रास्त्रको प्रकट किया, जो देवराज इन्द्रका प्रिय अस्त्र है॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्षुरप्राञ्जलिकार्धचन्द्रा
नालीकनाराचवराहकर्णाः ।
गाण्डीवतः प्रादुरासन् सुतीक्ष्णाः
सहस्रशो वज्रसमानवेगाः ॥ २४ ॥

मूलम्

ततः क्षुरप्राञ्जलिकार्धचन्द्रा
नालीकनाराचवराहकर्णाः ।
गाण्डीवतः प्रादुरासन् सुतीक्ष्णाः
सहस्रशो वज्रसमानवेगाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस गाण्डीव धनुषसे क्षुरप्र, अंजलिक, अर्धचन्द्र, नालीक, नाराच और वराहकर्ण आदि तीखे अस्त्र हजारोंकी संख्यामें छूटने लगे। वे सभी अस्त्र वज्रके समान वेगशाली थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते कर्णमासाद्य महाप्रभावाः
सुतेजना गार्ध्रपत्राः सुवेगाः ।
गात्रेषु सर्वेषु हयेषु चापि
शरासने युगचक्रे ध्वजे च ॥ २५ ॥

मूलम्

ते कर्णमासाद्य महाप्रभावाः
सुतेजना गार्ध्रपत्राः सुवेगाः ।
गात्रेषु सर्वेषु हयेषु चापि
शरासने युगचक्रे ध्वजे च ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे महाप्रभावशाली गीधके पंखोंसे युक्त, तेज धारवाले और अतिशय वेगवान् अस्त्र कर्णके पास पहुँचकर उसके समस्त अंगोंमें, घोड़ोंपर, धनुषमें तथा रथके जूओं, पहियों और ध्वजोंमें जा लगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्भिद्य तूर्णं विविशुः सुतीक्ष्णा-
स्तार्क्ष्यत्रस्ता भूमिमिवोरगास्ते ।
शराचिताङ्गो रुधिरार्द्रगात्रः
कर्णस्तदा रोषविवृत्तनेत्रः ॥ २६ ॥

मूलम्

निर्भिद्य तूर्णं विविशुः सुतीक्ष्णा-
स्तार्क्ष्यत्रस्ता भूमिमिवोरगास्ते ।
शराचिताङ्गो रुधिरार्द्रगात्रः
कर्णस्तदा रोषविवृत्तनेत्रः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे गरुडसे डरे हुए सर्प धरती छेदकर उसके भीतर घुस जाते हैं, उसी प्रकार वे तीखे अस्त्र उपर्युक्त वस्तुओंको विदीर्ण कर शीघ्र ही उनके भीतर धँस गये। कर्णके सारे अंग बाणोंसे भर गये। सम्पूर्ण शरीर रक्तसे नहा उठा। इससे उसके नेत्र उस समय क्रोधसे घूमने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृढज्यमानाम्य समुद्रघोषं
प्रादुश्चक्रे भार्गवास्त्रं महात्मा ।
महेन्द्रशस्त्राभिमुखान् विमुक्तां-
श्छित्त्वा कर्णः पाण्डवस्येषुसंघान् ॥ २७ ॥
तस्यास्त्रमस्त्रेण निहत्य सोऽथ
जघान संख्ये रथनागपत्तीन् ।
अमृष्यमाणश्च महेन्द्रकर्मा
महारणे भार्गवास्त्रप्रतापात् ॥ २८ ॥

मूलम्

दृढज्यमानाम्य समुद्रघोषं
प्रादुश्चक्रे भार्गवास्त्रं महात्मा ।
महेन्द्रशस्त्राभिमुखान् विमुक्तां-
श्छित्त्वा कर्णः पाण्डवस्येषुसंघान् ॥ २७ ॥
तस्यास्त्रमस्त्रेण निहत्य सोऽथ
जघान संख्ये रथनागपत्तीन् ।
अमृष्यमाणश्च महेन्द्रकर्मा
महारणे भार्गवास्त्रप्रतापात् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महामनस्वी वीरने अपने धनुषको जिसकी प्रत्यंचा सुदृढ़ थी, झुकाकर समुद्रके समान गम्भीर गर्जना करनेवाले भार्गवास्त्रको प्रकट किया और अर्जुनके महेन्द्रास्त्रसे प्रकट हुए बाणसमूहोंके टुकड़े-टुकड़े करके अपने अस्त्रसे उनके अस्त्रको दबाकर युद्धस्थलमें रथों, हाथियों और पैदलसैनिकोंका संहार कर डाला। अमर्षशील कर्ण उस महासमरमें भार्गवास्त्रके प्रतापसे देवराज इन्द्रके समान पराक्रम प्रकट कर रहा था॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चालानां प्रवरांश्चापि योधान्
क्रोधाविष्टः सूतपुत्रस्तरस्वी ।
बाणैर्विव्याधाहवे सुप्रमुक्तैः
शिलाशितै रुक्मपुङ्खैः प्रसह्य ॥ २९ ॥

मूलम्

पञ्चालानां प्रवरांश्चापि योधान्
क्रोधाविष्टः सूतपुत्रस्तरस्वी ।
बाणैर्विव्याधाहवे सुप्रमुक्तैः
शिलाशितै रुक्मपुङ्खैः प्रसह्य ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें भरे हुए वेगशाली सूतपुत्र कर्णने अच्छी तरह छोड़े गये और शिलापर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले बाणोंद्वारा युद्धस्थलमें हठपूर्वक मुख्य-मुख्य पांचालयोद्धाओंको घायल कर दिया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्पञ्चालाः सोमकाश्चापि राजन्
कर्णेनाजौ पीड्यमानाः शरौघैः ।
क्रोधाविष्टा विव्यधुस्तं समन्तात्
तीक्ष्णैर्बाणैः सूतपुत्रं समेताः ॥ ३० ॥

मूलम्

तत्पञ्चालाः सोमकाश्चापि राजन्
कर्णेनाजौ पीड्यमानाः शरौघैः ।
क्रोधाविष्टा विव्यधुस्तं समन्तात्
तीक्ष्णैर्बाणैः सूतपुत्रं समेताः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! समरांगणमें कर्णके बाणसमूहोंसे पीड़ित होते हुए पांचाल और सोमक योद्धा भी क्रोधपूर्वक एकत्र हो अपने पैने बाणोंसे सूतपुत्र कर्णको बींधने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् सूतपुत्रो निजघान बाणैः
पञ्चालानां रथनागाश्वसंघान् ।
अभ्यर्दयद् बाणगणैः प्रसह्य
विद्ध्वा हर्षात् सङ्गरे सूतपुत्रः ॥ ३१ ॥

मूलम्

तान् सूतपुत्रो निजघान बाणैः
पञ्चालानां रथनागाश्वसंघान् ।
अभ्यर्दयद् बाणगणैः प्रसह्य
विद्ध्वा हर्षात् सङ्गरे सूतपुत्रः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु उस रणक्षेत्रमें सूतपुत्र कर्णने बाणसमूहोंद्वारा हर्ष और उत्साहके साथ पांचालोंके रथियों, हाथीसवारों और घुड़सवारोंको घायल करके बड़ी पीड़ा दी और उन्हें बाणोंसे मार डाला॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते भिन्नदेहा व्यसवो निपेतुः
कर्णेषुभिर्भूमितले स्वनन्तः ।
क्रुद्धेन सिंहेन यथेभयूथा
महावने भीमबलेन तद्वत् ॥ ३२ ॥

मूलम्

ते भिन्नदेहा व्यसवो निपेतुः
कर्णेषुभिर्भूमितले स्वनन्तः ।
क्रुद्धेन सिंहेन यथेभयूथा
महावने भीमबलेन तद्वत् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके बाणोंसे उनके शरीरोंके टुकड़े-टुकड़े हो गये और वे प्राणशून्य होकर कराहते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े। जैसे विशाल वनमें भयानक बलशाली और क्रोधमें भरे हुए सिंहसे विदीर्ण किये गये हाथियोंके झुंड धराशायी हो जाते हैं, वैसी ही दशा उन पांचालयोद्धाओंकी भी हुई॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चालानां प्रवरान् संनिहत्य
प्रसह्य योधानखिलानदीनः ।
ततः स राजन् विरराज कर्णो
यथाम्बरे भास्कर उग्ररश्मिः ॥ ३३ ॥

मूलम्

पञ्चालानां प्रवरान् संनिहत्य
प्रसह्य योधानखिलानदीनः ।
ततः स राजन् विरराज कर्णो
यथाम्बरे भास्कर उग्ररश्मिः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पांचालोंके समस्त श्रेष्ठ योद्धाओंका बलपूर्वक वध करके उदार वीर कर्ण आकाशमें प्रचण्ड किरणोंवाले सूर्यके समान प्रकाशित होने लगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्य मत्वा तु जयं त्वदीयाः
परां मुदं सिंहनादांश्च चक्रुः।
सर्वे ह्यमन्यन्त भृशाहतौ च
कर्णेन कृष्णाविति कौरवेन्द्र ॥ ३४ ॥

मूलम्

कर्णस्य मत्वा तु जयं त्वदीयाः
परां मुदं सिंहनादांश्च चक्रुः।
सर्वे ह्यमन्यन्त भृशाहतौ च
कर्णेन कृष्णाविति कौरवेन्द्र ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय आपके सैनिक कर्णकी विजय समझकर बड़े प्रसन्न हुए और सिंहनाद करने लगे। कौरवेन्द्र! उन सबने यही समझा कि कर्णने श्रीकृष्ण और अर्जुनको बहुत घायल कर दिया है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् तादृशं प्रेक्ष्य महारथस्य
कर्णस्य वीर्यं च परैरसह्यम्।
दृष्ट्वा च कर्णेन धनंजयस्य
तथाऽऽजिमध्ये निहतं तदस्त्रम् ॥ ३५ ॥
ततस्त्वमर्षी क्रोधसंदीप्तनेत्रो
वातात्मजः पाणिना पाणिमार्च्छत् ।
भीमोऽब्रवीदर्जुनं सत्यसंध-
ममर्षितो निःश्वसज्जातमन्युः ॥ ३६ ॥

मूलम्

तत् तादृशं प्रेक्ष्य महारथस्य
कर्णस्य वीर्यं च परैरसह्यम्।
दृष्ट्वा च कर्णेन धनंजयस्य
तथाऽऽजिमध्ये निहतं तदस्त्रम् ॥ ३५ ॥
ततस्त्वमर्षी क्रोधसंदीप्तनेत्रो
वातात्मजः पाणिना पाणिमार्च्छत् ।
भीमोऽब्रवीदर्जुनं सत्यसंध-
ममर्षितो निःश्वसज्जातमन्युः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महारथी कर्णका वह शत्रुओंके लिये असह्य वैसा पराक्रम दृष्टिपथमें लाकर तथा रणभूमिमें कर्णद्वारा अर्जुनके उस अस्त्रको नष्ट हुआ देखकर अमर्षशील वायुपुत्र भीमसेन हाथ-से-हाथ मलने लगे। उनके नेत्र क्रोधसे प्रज्वलित हो उठे। हृदयमें अमर्ष और क्रोधका प्रादुर्भाव हो गया; अतः वे सत्यप्रतिज्ञ अर्जुनसे इस प्रकार बोले—॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं नु पापोऽयमपेतधर्मः
सूतात्मजः समरेऽद्य प्रसह्य ।
पञ्चालानां योधमुख्याननेकान्
निजघ्निवांस्तव जिष्णो समक्षम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

कथं नु पापोऽयमपेतधर्मः
सूतात्मजः समरेऽद्य प्रसह्य ।
पञ्चालानां योधमुख्याननेकान्
निजघ्निवांस्तव जिष्णो समक्षम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विजयी अर्जुन! आज समरांगणमें धर्मसे दूर रहनेवाले इस पापी सूतपुत्र कर्णने तुम्हारी आँखोंके सामने अनेक प्रमुख पांचालयोद्धाओंका वध कैसे कर डाला?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वं देवैरजितं कालकेयैः
साक्षात् स्थाणोर्बाहुसंस्पर्शमेत्य ।
कथं नु त्वां सूतपुत्रः किरीटि-
न्नथेषुभिर्दशभिः प्रागविद्ध्यत् ॥ ३८ ॥

मूलम्

पूर्वं देवैरजितं कालकेयैः
साक्षात् स्थाणोर्बाहुसंस्पर्शमेत्य ।
कथं नु त्वां सूतपुत्रः किरीटि-
न्नथेषुभिर्दशभिः प्रागविद्ध्यत् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किरीटधारी अर्जुन! तुम्हें तो पूर्वकालमें देवता भी नहीं जीत सके थे। कालकेय दानव भी नहीं परास्त कर सके थे। तुम साक्षात् भगवान् शंकरकी भुजाओंसे टक्कर ले चुके हो तो भी इस सूतपुत्रने तुम्हें पहले ही दस बाण मारकर कैसे बींध डाला?॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया क्षिप्तांश्चाग्रसद् बाणसंघा-
नाश्चर्यमेतत् प्रतिभाति मेऽद्य ।
कृष्णापरिक्लेशमनुस्मर त्वं
यथाब्रवीत् षण्ढतिलान् स्म वाचः ॥ ३९ ॥
रूक्षाः सुतीक्ष्णाश्च हि पापबुद्धिः
सूतात्मजोऽयं गतभीर्दुरात्मा ।
संस्मृत्य सर्वं तदिहाद्य पापं
जह्याशु कर्णं युधि सव्यसाचिन् ॥ ४० ॥

मूलम्

त्वया क्षिप्तांश्चाग्रसद् बाणसंघा-
नाश्चर्यमेतत् प्रतिभाति मेऽद्य ।
कृष्णापरिक्लेशमनुस्मर त्वं
यथाब्रवीत् षण्ढतिलान् स्म वाचः ॥ ३९ ॥
रूक्षाः सुतीक्ष्णाश्च हि पापबुद्धिः
सूतात्मजोऽयं गतभीर्दुरात्मा ।
संस्मृत्य सर्वं तदिहाद्य पापं
जह्याशु कर्णं युधि सव्यसाचिन् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे चलाये हुए बाणसमूहोंको इसने नष्ट कर दिया, यह तो आज मुझे बड़े आश्चर्यकी बात जान पड़ती है। सव्यसाची अर्जुन! कौरव-सभामें द्रौपदीको दिये गये उन क्लेशोंको तो याद करो। इस पापबुद्धि दुरात्मा सूतपुत्रने जो निर्भय होकर हमलोगोंको थोथे तिलोंके समान नपुंसक बताया था और बहुत-सी अत्यन्त तीखी एवं रूखी बातें सुनायी थीं, उन सबको यहाँ याद करके तुम पापी कर्णको शीघ्र ही युद्धमें मार डालो॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्मादुपेक्षां कुरुषे किरीटि-
न्नुपेक्षितुं नायमिहाद्य कालः ।
यया धृत्या सर्वभूतान्यजैषी-
र्ग्रासं ददत् खाण्डवे पावकाय ॥ ४१ ॥
तया धृत्या सूतपुत्रं जहि त्व-
महं चैनं गदया पोथयिष्ये।

मूलम्

कस्मादुपेक्षां कुरुषे किरीटि-
न्नुपेक्षितुं नायमिहाद्य कालः ।
यया धृत्या सर्वभूतान्यजैषी-
र्ग्रासं ददत् खाण्डवे पावकाय ॥ ४१ ॥
तया धृत्या सूतपुत्रं जहि त्व-
महं चैनं गदया पोथयिष्ये।

अनुवाद (हिन्दी)

‘किरीटधारी पार्थ! तुम क्यों इसकी उपेक्षा करते हो? आज यहाँ यह उपेक्षा करनेका समय नहीं है। तुमने जिस धैर्यसे खाण्डववनमें अग्निदेवको ग्रास समर्पित करते हुए समस्त प्राणियोंपर विजय पायी थी, उसी धैर्यके द्वारा सूतपुत्रको मार डालो। फिर मैं भी इसे अपनी गदासे कुचल डालूँगा’॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीद् वासुदेवोऽपि पार्थं
दृष्ट्वा रथेषून् प्रतिहन्यमानान् ॥ ४२ ॥
अमीमृदत् सर्वपातेऽद्य कर्णो
ह्यस्त्रैरस्त्रं किमिदं भो किरीटिन्।
स वीर किं मुह्यसि नावधत्से
नदन्त्येते कुरवः सम्प्रहृष्टाः ॥ ४३ ॥

मूलम्

अथाब्रवीद् वासुदेवोऽपि पार्थं
दृष्ट्वा रथेषून् प्रतिहन्यमानान् ॥ ४२ ॥
अमीमृदत् सर्वपातेऽद्य कर्णो
ह्यस्त्रैरस्त्रं किमिदं भो किरीटिन्।
स वीर किं मुह्यसि नावधत्से
नदन्त्येते कुरवः सम्प्रहृष्टाः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने भी अर्जुनके रथसम्बन्धी बाणोंको कर्णके द्वारा नष्ट होते देख उनसे इस प्रकार कहा ‘किरीटधारी अर्जुन! यह क्या बात है? तुमने अबतक जितने बार प्रहार किये हैं, उन सबमें कर्णने तुम्हारे अस्त्रको अपने अस्त्रोंद्वारा नष्ट कर दिया है। वीर! आज तुमपर कैसा मोह छा रहा है? तुम सावधान क्यों नहीं होते? देखो, ये तुम्हारे शत्रु कौरव अत्यन्त हर्षमें भरकर सिंहनाद कर रहे हैं!॥४२-४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णं पुरस्कृत्य विदुर्हि सर्वे
तवास्त्रमस्त्रैर्विनिपात्यमानम् ।
यया धृत्या निहतं तामसास्त्रं
युगे युगे राक्षसाश्चापि घोराः ॥ ४४ ॥
दम्भोद्भवाश्चासुराश्चाहवेषु
तया धृत्या जहि कर्णं त्वमद्य।

मूलम्

कर्णं पुरस्कृत्य विदुर्हि सर्वे
तवास्त्रमस्त्रैर्विनिपात्यमानम् ।
यया धृत्या निहतं तामसास्त्रं
युगे युगे राक्षसाश्चापि घोराः ॥ ४४ ॥
दम्भोद्भवाश्चासुराश्चाहवेषु
तया धृत्या जहि कर्णं त्वमद्य।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्णको आगे करके सब लोग यही समझ रहे हैं कि तुम्हारा अस्त्र उसके अस्त्रोंद्वारा नष्ट होता जा रहा है। तुमने जिस धैर्यसे प्रत्येक युगमें घोर राक्षसोंका, उनके मायामय तामस अस्त्रका तथा दम्भोद्भव नामवाले असुरोंका युद्धस्थलोंमें विनाश किया है, उसी धैर्यसे आज तुम कर्णको भी मार डालो॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन चास्य क्षुरनेमिनाद्य
संछिन्धि मूर्धानमरेः प्रसह्य ॥ ४५ ॥
मया विसृष्टेन सुदर्शनेन
वज्रेण शक्रो नमुचेरिवारेः ।

मूलम्

अनेन चास्य क्षुरनेमिनाद्य
संछिन्धि मूर्धानमरेः प्रसह्य ॥ ४५ ॥
मया विसृष्टेन सुदर्शनेन
वज्रेण शक्रो नमुचेरिवारेः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम मेरे दिये हुए इस सुदर्शनचक्रके द्वारा जिसके नेमिभागमें (किनारे) क्षुर लगे हुए हैं, आज बलपूर्वक शत्रुका मस्तक काट डालो। जैसे इन्द्रने वज्रके द्वारा अपने शत्रु नमुचिका सिर काट दिया था॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरातरूपी भगवान् सुधृत्या
त्वया महात्मा परितोषितोऽभूत् ॥ ४६ ॥
तां त्वं पुनर्वीर धृतिं गृहीत्वा
सहानुबन्धं जहि सूतपुत्रम् ।

मूलम्

किरातरूपी भगवान् सुधृत्या
त्वया महात्मा परितोषितोऽभूत् ॥ ४६ ॥
तां त्वं पुनर्वीर धृतिं गृहीत्वा
सहानुबन्धं जहि सूतपुत्रम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! तुमने अपने जिस उत्तम धैर्यके द्वारा किरातरूपधारी महात्मा भगवान् शंकरको संतुष्ट किया था, उसी धैर्यको पुनः अपनाकर सगे-सम्बन्धियोंसहित सूतपुत्रका वध कर डालो॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो महीं सागरमेखलां त्वं
सपत्तनां ग्रामवतीं समृद्धाम् ॥ ४७ ॥
प्रयच्छ राज्ञे निहतारिसंघां
यशश्च पार्थातुलमाप्नुहि त्वम् ।

मूलम्

ततो महीं सागरमेखलां त्वं
सपत्तनां ग्रामवतीं समृद्धाम् ॥ ४७ ॥
प्रयच्छ राज्ञे निहतारिसंघां
यशश्च पार्थातुलमाप्नुहि त्वम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! तत्पश्चात् समुद्रसे घिरी हुई नगरों और गाँवोंसे युक्त तथा शत्रुसमुदायसे शून्य यह समृद्धिशालिनी पृथ्वी राजा युधिष्ठिरको दे दो और अनुपम यश प्राप्त करो’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवमुक्तोऽतिबलो महात्मा
चकार बुद्धिं हि वधाय सौतेः ॥ ४८ ॥
स चोदितो भीमजनार्दनाभ्यां
स्मृत्वा तथाऽऽत्मानमवेक्ष्य सर्वम् ।
इहात्मनश्चागमने विदित्वा
प्रयोजनं केशवमित्युवाच ॥ ४९ ॥

मूलम्

स एवमुक्तोऽतिबलो महात्मा
चकार बुद्धिं हि वधाय सौतेः ॥ ४८ ॥
स चोदितो भीमजनार्दनाभ्यां
स्मृत्वा तथाऽऽत्मानमवेक्ष्य सर्वम् ।
इहात्मनश्चागमने विदित्वा
प्रयोजनं केशवमित्युवाच ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन और श्रीकृष्णके इस प्रकार प्रेरणा देने और कहनेपर अत्यन्त बलशाली महात्मा अर्जुनने सूतपुत्रके वधका विचार किया। उन्होंने अपने स्वरूपका स्मरण करके सब बातोंपर दृष्टिपात किया और इस युद्धभूमिमें अपने आगमनके प्रयोजनको समझकर श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा—॥४८-४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रादुष्करोम्येष महास्त्रमुग्रं
शिवाय लोकस्य वधाय सौतेः।
तन्मेऽनुजानातु भवान् सुराश्च
ब्रह्मा भवो वेदविदश्च सर्वे ॥ ५० ॥

मूलम्

प्रादुष्करोम्येष महास्त्रमुग्रं
शिवाय लोकस्य वधाय सौतेः।
तन्मेऽनुजानातु भवान् सुराश्च
ब्रह्मा भवो वेदविदश्च सर्वे ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! मैं जगत्‌के कल्याण और सूतपुत्रके वधके लिये अब एक महान् एवं भयंकर अस्त्र प्रकट कर रहा हूँ। इसके लिये आप, ब्रह्माजी, शंकरजी, समस्त देवता तथा सम्पूर्ण ब्रह्मवेत्ता मुझे आज्ञा दें’॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युच्य देवं स तु सव्यसाची
नमस्कृत्वा ब्रह्मणे सोऽमितात्मा ।
तदुत्तमं ब्राह्ममसह्यमस्त्रं
प्रादुश्चक्रे मनसा यद् विधेयम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

इत्युच्य देवं स तु सव्यसाची
नमस्कृत्वा ब्रह्मणे सोऽमितात्मा ।
तदुत्तमं ब्राह्ममसह्यमस्त्रं
प्रादुश्चक्रे मनसा यद् विधेयम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर अमितात्मा सव्यसाची अर्जुनने ब्रह्माजीको नमस्कार करके जिसका मनसे ही प्रयोग किया जाता है, उस असह्य एवं उत्तम ब्रह्मास्त्रको प्रकट किया॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्य हत्वा विरराज कर्णो
मुक्त्वा शरान् मेघ इवाम्बुधाराः।
समीक्ष्य कर्णेन किरीटिनस्तु
तथाऽऽजिमध्ये निहतं तदस्त्रम् ॥ ५२ ॥
ततोऽमर्षी बलवान् क्रोधदीप्तो
भीमोऽब्रवीदर्जुनं सत्यसंधम् ।

मूलम्

तदस्य हत्वा विरराज कर्णो
मुक्त्वा शरान् मेघ इवाम्बुधाराः।
समीक्ष्य कर्णेन किरीटिनस्तु
तथाऽऽजिमध्ये निहतं तदस्त्रम् ॥ ५२ ॥
ततोऽमर्षी बलवान् क्रोधदीप्तो
भीमोऽब्रवीदर्जुनं सत्यसंधम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जैसे मेघ जलकी धारा गिराता है, उसी प्रकार बाणोंकी बौछारसे कर्ण उस अस्त्रको नष्ट करके बड़ी शोभा पाने लगा। रणभूमिमें किरीटधारी अर्जुनके उस अस्त्रको कर्णद्वारा नष्ट हुआ देख अमर्षशील बलवान् भीमसेन पुनः क्रोधसे जल उठे और सत्यप्रतिज्ञ अर्जुनसे इस प्रकार बोले—॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु त्वाहुर्वेदितारं महास्त्रं
ब्राह्मं विधेयं परमं जनास्तत् ॥ ५३ ॥
तस्मादन्यद् योजय सव्यसाचि-
न्निति स्मोक्तोऽयोजयत् सव्यसाची ।
ततो दिशः प्रदिशश्चापि सर्वाः
समावृणोत् सायकैर्भूरितेजाः ॥ ५४ ॥
गाण्डीवमुक्तैर्भुजगैरिवोग्रै-
र्दिवाकरांशुप्रतिमैर्ज्वलद्भिः ।

मूलम्

ननु त्वाहुर्वेदितारं महास्त्रं
ब्राह्मं विधेयं परमं जनास्तत् ॥ ५३ ॥
तस्मादन्यद् योजय सव्यसाचि-
न्निति स्मोक्तोऽयोजयत् सव्यसाची ।
ततो दिशः प्रदिशश्चापि सर्वाः
समावृणोत् सायकैर्भूरितेजाः ॥ ५४ ॥
गाण्डीवमुक्तैर्भुजगैरिवोग्रै-
र्दिवाकरांशुप्रतिमैर्ज्वलद्भिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘सव्यसाचिन्! सब लोग कहते हैं कि तुम परम उत्तम एवं मनके द्वारा प्रयोग करनेयोग्य महान् ब्रह्मास्त्रके ज्ञाता हो; इसलिये तुम दूसरे किसी श्रेष्ठ अस्त्रका प्रयोग करो।’ उनके ऐसा कहनेपर सव्यसाची अर्जुनने दूसरे दिव्यास्त्रका प्रयोग किया। इससे महातेजस्वी अर्जुनने अपने गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए सर्पोंके समान भयंकर और सूर्य-किरणोंके तुल्य तेजस्वी बाणोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित कर दिया, कोना-कोना ढक दिया॥५३-५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृष्टास्तु बाणा भरतर्षभेण
शतं शतानीव सुवर्णपुङ्खाः ॥ ५५ ॥
प्राच्छादयन् कर्णरथं क्षणेन
युगान्तवह्न्यर्ककरप्रकाशाः ।

मूलम्

सृष्टास्तु बाणा भरतर्षभेण
शतं शतानीव सुवर्णपुङ्खाः ॥ ५५ ॥
प्राच्छादयन् कर्णरथं क्षणेन
युगान्तवह्न्यर्ककरप्रकाशाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ अर्जुनके छोड़े हुए प्रलयकालीन सूर्य और अग्निकी किरणोंके समान प्रकाशित होनेवाले दस हजार बाणोंने क्षणभरमें कर्णके रथको आच्छादित कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्च शूलानि परश्वधानि
चक्राणि नाराचशतानि चैव ॥ ५६ ॥
निश्चक्रमुर्घोरतराणि योधा-
स्ततो ह्यहन्यन्त समन्ततोऽपि ।

मूलम्

ततश्च शूलानि परश्वधानि
चक्राणि नाराचशतानि चैव ॥ ५६ ॥
निश्चक्रमुर्घोरतराणि योधा-
स्ततो ह्यहन्यन्त समन्ततोऽपि ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस दिव्यास्त्रसे शूल, फरसे, चक्र और सैकड़ों नाराच आदि घोरतर अस्त्र-शस्त्र प्रकट होने लगे, जिनसे सब ओरके योद्धाओंका विनाश होने लगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिन्नं शिरः कस्यचिदाजिमध्ये
पपात योधस्य परस्य कायात् ॥ ५७ ॥
भयेन सोऽप्याशु पपात भूमा-
वन्यः प्रणष्टः पतितं विलोक्य।
अन्यस्य सासिर्निपपात कृत्तो
योधस्य बाहुः करिहस्ततुल्यः ॥ ५८ ॥

मूलम्

छिन्नं शिरः कस्यचिदाजिमध्ये
पपात योधस्य परस्य कायात् ॥ ५७ ॥
भयेन सोऽप्याशु पपात भूमा-
वन्यः प्रणष्टः पतितं विलोक्य।
अन्यस्य सासिर्निपपात कृत्तो
योधस्य बाहुः करिहस्ततुल्यः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस युद्धस्थलमें किसी शत्रुपक्षीय योद्धाका सिर धड़से कटकर धरतीपर गिर पड़ा। उसे देखकर दूसरा भी भयके मारे धराशायी हो गया। उसको गिरा हुआ देख तीसरा योद्धा वहाँसे भाग खड़ा हुआ। किसी दूसरे योद्धाकी हाथीकी सुँड़के समान मोटी दाहिनी बाँह तलवारसहित कटकर गिर पड़ी॥५७-५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यस्य सव्यः सह वर्मणा च
क्षुरप्रकृत्तः पतितो धरण्याम् ।
एवं समस्तानपि योधमुख्यान्
विध्वंसयामास किरीटमाली ॥ ५९ ॥

मूलम्

अन्यस्य सव्यः सह वर्मणा च
क्षुरप्रकृत्तः पतितो धरण्याम् ।
एवं समस्तानपि योधमुख्यान्
विध्वंसयामास किरीटमाली ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरेकी बायीं भुजा क्षुरोंद्वारा कवचके साथ कटकर भूमिपर गिर गयी। इस प्रकार किरीटधारी अर्जुनने शत्रुपक्षके सभी मुख्य-मुख्य योद्धाओंका संहार कर डाला॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरैः शरीरान्तकरैः सुघोरै-
र्दौर्योधनं सैन्यमशेषमेव ।
वैकर्तनेनापि तथाऽऽजिमध्ये
सहस्रशो बाणगणा विसृष्टाः ॥ ६० ॥

मूलम्

शरैः शरीरान्तकरैः सुघोरै-
र्दौर्योधनं सैन्यमशेषमेव ।
वैकर्तनेनापि तथाऽऽजिमध्ये
सहस्रशो बाणगणा विसृष्टाः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने शरीरका अन्त कर देनेवाले घोर बाणोंद्वारा दुर्योधनकी सारी सेनाका विध्वंस कर दिया। इसी प्रकार वैकर्तन कर्णने भी समरांगणमें सहस्रों बाणसमूहोंकी वर्षा की॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते घोषिणः पाण्डवमभ्युपेयुः
पर्जन्यमुक्ता इव वारिधाराः ।
ततः स कृष्णं च किरीटिनं च
वृकोदरं चाप्रतिमप्रभावः ॥ ६१ ॥
त्रिभिस्त्रिभिर्भीमबलो निहत्य
ननाद घोरं महता स्वरेण।

मूलम्

ते घोषिणः पाण्डवमभ्युपेयुः
पर्जन्यमुक्ता इव वारिधाराः ।
ततः स कृष्णं च किरीटिनं च
वृकोदरं चाप्रतिमप्रभावः ॥ ६१ ॥
त्रिभिस्त्रिभिर्भीमबलो निहत्य
ननाद घोरं महता स्वरेण।

अनुवाद (हिन्दी)

वे बाण मेघोंकी बरसायी हुई जलधाराओंके समान शब्द करते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुनको जा लगे। तत्पश्चात् अप्रतिम प्रभावशाली और भयंकर बलवान् कर्णने तीन-तीन बाणोंसे श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनको घायल करके बड़े जोरसे भयानक गर्जना की॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कर्णबाणाभिहतः किरीटी
भीमं तथा प्रेक्ष्य जनार्दनं च ॥ ६२ ॥
अमृष्यमाणः पुनरेव पार्थः
शरान् दशाष्टौ च समुद्बबर्ह।

मूलम्

स कर्णबाणाभिहतः किरीटी
भीमं तथा प्रेक्ष्य जनार्दनं च ॥ ६२ ॥
अमृष्यमाणः पुनरेव पार्थः
शरान् दशाष्टौ च समुद्बबर्ह।

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके बाणोंसे घायल हुए किरीटधारी कुन्तीकुमार अर्जुन भीमसेन तथा भगवान् श्रीकृष्णको भी उसी प्रकार क्षत-विक्षत देखकर सहन न कर सके; अतः उन्होंने अपने तरकससे पुनः अठारह बाण निकाले॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स केतुमेकेन शरेण विद्ध्वा
शल्यं चतुर्भिस्त्रिभिरेव कर्णम् ॥ ६३ ॥
ततः स मुक्तैर्दशभिर्जघान
सभापतिं काञ्चनवर्मनद्धम् ।

मूलम्

स केतुमेकेन शरेण विद्ध्वा
शल्यं चतुर्भिस्त्रिभिरेव कर्णम् ॥ ६३ ॥
ततः स मुक्तैर्दशभिर्जघान
सभापतिं काञ्चनवर्मनद्धम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

एक बाणसे कर्णकी ध्वजाको बींधकर अर्जुनने चार बाणोंसे शल्यको और तीनसे कर्णको घायल कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने दस बाण छोड़कर सुवर्णमय कवच धारण करनेवाले सभापति नामक राजकुमारको मार डाला॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजपुत्रो विशिरा विबाहु-
र्विवाजिसूतो विधनुर्विकेतुः ॥ ६४ ॥
हतो रथाग्रादपतत् स रुग्णः
परश्वधैः शाल इवावकृत्तः ।

मूलम्

स राजपुत्रो विशिरा विबाहु-
र्विवाजिसूतो विधनुर्विकेतुः ॥ ६४ ॥
हतो रथाग्रादपतत् स रुग्णः
परश्वधैः शाल इवावकृत्तः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वह राजकुमार मस्तक, भुजा, घोड़े, सारथि, धनुष और ध्वजसे रहित हो मरकर रथके अग्रभागसे नीचे गिर पड़ा, मानो फरसोंसे काटा गया शालवृक्ष टूटकर धराशायी हो गया हो॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च कर्णं त्रिभिरष्टभिश्च
द्वाभ्यां चतुर्भिर्दशभिश्च विद्ध्वा ॥ ६५ ॥
चतुःशतान् द्विरदान् सायुधान् वै
हत्वा रथानष्टशताञ्जघान ।

मूलम्

पुनश्च कर्णं त्रिभिरष्टभिश्च
द्वाभ्यां चतुर्भिर्दशभिश्च विद्ध्वा ॥ ६५ ॥
चतुःशतान् द्विरदान् सायुधान् वै
हत्वा रथानष्टशताञ्जघान ।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद अर्जुनने पुनः तीन, आठ, दो, चार और दस बाणोंद्वारा कर्णको बारंबार घायल करके अस्त्र-शस्त्रधारी सवारोंसहित चार सौ हाथियोंको मारकर आठ सौ रथोंको नष्ट कर दिया॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्रशोऽश्वांश्च पुनः स सादी-
नष्टौ सहस्राणि च पत्तिवीरान् ॥ ६६ ॥
कर्णं ससूतं सरथं सकेतु-
मदृश्यमञ्जोगतिभिः प्रचक्रे ।

मूलम्

सहस्रशोऽश्वांश्च पुनः स सादी-
नष्टौ सहस्राणि च पत्तिवीरान् ॥ ६६ ॥
कर्णं ससूतं सरथं सकेतु-
मदृश्यमञ्जोगतिभिः प्रचक्रे ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सवारोंसहित हजारों घोड़ों और सहस्रों पैदल वीरोंको मारकर रथ, सारथि और ध्वजसहित कर्णको भी शीघ्रगामी बाणोंद्वारा ढककर अदृश्य कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाक्रोशन् कुरवो वध्यमाना
धनंजयेनाधिरथिं समन्तात् ॥ ६७ ॥
मुञ्चाभिविद्ध्यर्जुनमाशु कर्ण
बाणैः पुरा हन्ति कुरून् समग्रान्।

मूलम्

अथाक्रोशन् कुरवो वध्यमाना
धनंजयेनाधिरथिं समन्तात् ॥ ६७ ॥
मुञ्चाभिविद्ध्यर्जुनमाशु कर्ण
बाणैः पुरा हन्ति कुरून् समग्रान्।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनकी मार खाते हुए कौरव-सैनिक चारों ओरसे कर्णको पुकारने लगे—‘कर्ण! शीघ्र बाण छोड़ो और अर्जुनको घायल कर डालो। कहीं ऐसा न हो कि ये पहले ही समस्त कौरवोंका वध कर डालें’॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चोदितः सर्वयत्नेन कर्णो
मुमोच बाणान् सुबहूनभीक्ष्णम् ॥ ६८ ॥
ते पाण्डुपञ्चालगणान् निजघ्नु-
र्मर्मच्छिदः शोणितपांसुदिग्धाः ।

मूलम्

स चोदितः सर्वयत्नेन कर्णो
मुमोच बाणान् सुबहूनभीक्ष्णम् ॥ ६८ ॥
ते पाण्डुपञ्चालगणान् निजघ्नु-
र्मर्मच्छिदः शोणितपांसुदिग्धाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रेरणा मिलनेपर कर्णने सारी शक्ति लगाकर बारंबार बहुत-से बाण छोड़े। रक्त और धूलमें सने हुए वे मर्मभेदी बाण पाण्डव और पांचालोंका विनाश करने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुत्तमौ सर्वधनुर्धराणां
महाबलौ सर्वसपत्नसाहौ ॥ ६९ ॥
निजघ्नतुश्चाहितसैन्यमुग्र-
मन्योन्यमप्यस्त्रविदौ महास्त्रैः ।

मूलम्

तावुत्तमौ सर्वधनुर्धराणां
महाबलौ सर्वसपत्नसाहौ ॥ ६९ ॥
निजघ्नतुश्चाहितसैन्यमुग्र-
मन्योन्यमप्यस्त्रविदौ महास्त्रैः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ, महाबली, सारे शत्रुओंका सामना करनेमें समर्थ और अस्त्रविद्याके विद्वान् थे; अतः भयंकर शत्रुसेनाको तथा आपसमें भी एक-दूसरेको महान् अस्त्रोंद्वारा घायल करने लगे॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोपयातस्त्वरितो दिदृक्षु-
र्मन्त्रौषधीभिर्निरुजो विशल्यः ॥ ७० ॥
कृतः सुहृद्भिर्भिषजां वरिष्ठै-
र्युधिष्ठिरस्तत्र सुवर्णवर्मा ।

मूलम्

अथोपयातस्त्वरितो दिदृक्षु-
र्मन्त्रौषधीभिर्निरुजो विशल्यः ॥ ७० ॥
कृतः सुहृद्भिर्भिषजां वरिष्ठै-
र्युधिष्ठिरस्तत्र सुवर्णवर्मा ।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् शिविरमें हितैषी वैद्यशिरोमणियोंने मन्त्र और ओषधियोंद्वारा राजा युधिष्ठिरके शरीरसे बाण निकालकर उन्हें रोगरहित (स्वस्थ) कर दिया; इसलिये वे बड़ी उतावलीके साथ सुवर्णमय कवच धारण करके वहाँ युद्ध देखनेके लिये आये॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथोपयातं युधि धर्मराजं
दृष्ट्वा मुदा सर्वभूतान्यनन्दन् ॥ ७१ ॥
राहोर्विमुक्तं विमलं समग्रं
चन्द्रं यथैवाभ्युदितं तथैव ।

मूलम्

तथोपयातं युधि धर्मराजं
दृष्ट्वा मुदा सर्वभूतान्यनन्दन् ॥ ७१ ॥
राहोर्विमुक्तं विमलं समग्रं
चन्द्रं यथैवाभ्युदितं तथैव ।

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराजको युद्धस्थलमें आया हुआ देख समस्त प्राणी बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका अभिनन्दन करने लगे। ठीक उसी तरह, जैसे राहुके ग्रहणसे छूटे हुए निर्मल एवं सम्पूर्ण चन्द्रमाको उदित देख सब लोग बड़े प्रसन्न होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा तु मुख्यावथ युध्यमानौ
दिदृक्षवः शूरवरावरिघ्नौ ॥ ७२ ॥
कर्णं च पार्थं च विलोकयन्तः
खस्था महीस्थाश्च जनावतस्थुः ।

मूलम्

दृष्ट्वा तु मुख्यावथ युध्यमानौ
दिदृक्षवः शूरवरावरिघ्नौ ॥ ७२ ॥
कर्णं च पार्थं च विलोकयन्तः
खस्था महीस्थाश्च जनावतस्थुः ।

अनुवाद (हिन्दी)

परस्पर जूझते हुए उन दोनों शत्रुनाशक एवं प्रधान शूरवीर कर्ण और अर्जुनको देखकर उन्हींकी ओर दृष्टि लगाये आकाश और भूतलमें ठहरे हुए सभी दर्शक अपनी-अपनी जगह स्थिरभावसे खड़े रहे॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कार्मुकज्यातलसंनिपातः
सुमुक्तबाणस्तुमुलो बभूव ॥ ७३ ॥
घ्नतोस्तथान्योन्यमिषुप्रवेकै-
र्धनंजयस्याधिरथेश्च तत्र ।

मूलम्

स कार्मुकज्यातलसंनिपातः
सुमुक्तबाणस्तुमुलो बभूव ॥ ७३ ॥
घ्नतोस्तथान्योन्यमिषुप्रवेकै-
र्धनंजयस्याधिरथेश्च तत्र ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वहाँ अर्जुन और कर्ण उत्तम बाणोंद्वारा एक-दूसरेको चोट पहुँचा रहे थे। उनके धनुष, प्रत्यंचा और हथेलीका संघर्ष बड़ा भयंकर होता जा रहा था और उससे उत्तमोत्तम बाण छूट रहे थे॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो धनुर्ज्या सहसातिकृष्टा
सुघोषमच्छिद्यत पाण्डवस्य ॥ ७४ ॥
तस्मिन् क्षणे पाण्डवं सूतपुत्रः
समाचिनोत् क्षुद्रकाणां शतेन ।

मूलम्

ततो धनुर्ज्या सहसातिकृष्टा
सुघोषमच्छिद्यत पाण्डवस्य ॥ ७४ ॥
तस्मिन् क्षणे पाण्डवं सूतपुत्रः
समाचिनोत् क्षुद्रकाणां शतेन ।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय पाण्डुपुत्र अर्जुनके धनुषकी डोरी अधिक खींची जानेके कारण सहसा भारी आवाजके साथ टूट गयी। उस अवसरपर सूतपुत्र कर्णने पाण्डुकुमार अर्जुनको सौ बाण मोर॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्मुक्तसर्पप्रतिमैरभीक्ष्णं
तैलप्रधौतैः खगपत्रवाजैः ॥ ७५ ॥
षष्ट्या बिभेदाशु च वासुदेव-
मनन्तरं फाल्गुमष्टभिश्च ।

मूलम्

निर्मुक्तसर्पप्रतिमैरभीक्ष्णं
तैलप्रधौतैः खगपत्रवाजैः ॥ ७५ ॥
षष्ट्या बिभेदाशु च वासुदेव-
मनन्तरं फाल्गुमष्टभिश्च ।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तेलके धोये और पक्षियोंके पंख लगाये गये, केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पोंके समान भयंकर साठ बाणोंद्वारा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णको भी तुरंत ही क्षत-विक्षत कर दिया। इसके बाद पुनः अर्जुनको आठ बाण मारे॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूषात्मजो मर्मसु निर्बिभेद
मरुत्सुतं चायुतशः शराग्र्यैः ॥ ७६ ॥
कृष्णं च पार्थं च तथा ध्वजं च
पार्थानुजान् सोमकान् पातयंश्च ।

मूलम्

पूषात्मजो मर्मसु निर्बिभेद
मरुत्सुतं चायुतशः शराग्र्यैः ॥ ७६ ॥
कृष्णं च पार्थं च तथा ध्वजं च
पार्थानुजान् सोमकान् पातयंश्च ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सूर्यकुमार कर्णने दस हजार उत्तम बाणोंद्वारा वायुपुत्र भीमसेनके मर्मस्थानोंपर गहरा आघात किया। साथ ही, श्रीकृष्ण, अर्जुन और उनके रथकी ध्वजाको, उनके छोटे भाइयोंको तथा सोमकोंको भी उसने मार गिरानेका प्रयत्न किया॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राच्छादयंस्ते विशिखैः पृषत्कै-
र्जीमूतसंघा नभसीव सूर्यम् ॥ ७७ ॥
आगच्छतस्तान् विशिखैरनेकै-
र्व्यष्टम्भयत् सूतपुत्रः कृतास्त्रः ।

मूलम्

प्राच्छादयंस्ते विशिखैः पृषत्कै-
र्जीमूतसंघा नभसीव सूर्यम् ॥ ७७ ॥
आगच्छतस्तान् विशिखैरनेकै-
र्व्यष्टम्भयत् सूतपुत्रः कृतास्त्रः ।

अनुवाद (हिन्दी)

तब जैसे मेघोंके समूह आकाशमें सूर्यको ढक लेते हैं, उसी प्रकार सोमकोंने अपने बाणोंद्वारा कर्णको आच्छादित कर दिया; परंतु सूतपुत्र अस्त्रविद्याका महान् पण्डित था, उसने अनेक बाणोंद्वारा अपने ऊपर आक्रमण करते हुए सोमकोंको जहाँ-के-तहाँ रोक दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैरस्तमस्त्रं विनिहत्य सर्वं
जघान तेषां रथवाजिनागान् ॥ ७८ ॥
तथा तु सैन्यप्रवरांश्च राज-
न्नभ्यर्दयन्मार्गणैः सूतपुत्रः ।

मूलम्

तैरस्तमस्त्रं विनिहत्य सर्वं
जघान तेषां रथवाजिनागान् ॥ ७८ ॥
तथा तु सैन्यप्रवरांश्च राज-
न्नभ्यर्दयन्मार्गणैः सूतपुत्रः ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उनके चलाये हुए सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंका नाश करके सूतपुत्रने उनके बहुत-से रथों, घोड़ों और हाथियोंका भी संहार कर डाला और अपने बाणोंद्वारा शत्रुपक्षके प्रधान-प्रधान योद्धाओंको पीड़ा देना प्रारम्भ किया॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते भिन्नदेहा व्यसवो निपेतुः
कर्णेषुभिर्भूमितले स्वनन्तः ॥ ७९ ॥
सिंहेन क्रुद्धेन यथा श्वयूथ्या
महाबला भीमबलेन तद्वत् ।

मूलम्

ते भिन्नदेहा व्यसवो निपेतुः
कर्णेषुभिर्भूमितले स्वनन्तः ॥ ७९ ॥
सिंहेन क्रुद्धेन यथा श्वयूथ्या
महाबला भीमबलेन तद्वत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबके शरीर कर्णके बाणोंसे विदीर्ण हो गये और वे आर्तनाद करते हुए प्राणशून्य हो पृथ्वीपर गिर पड़े। जैसे क्रोधमें भरे हुए भयंकर बलशाली सिंहने कुत्तोंके महाबली समुदायको मार गिराया हो, वही दशा सोमकोंकी हुई॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च पाञ्चालवरास्तथान्ये
तदन्तरे कर्णधनंजयाभ्याम् ॥ ८० ॥
प्रस्कन्दन्तो बलिना साधुमुक्तैः
कर्णेन बाणैर्निहताः प्रसह्य ।

मूलम्

पुनश्च पाञ्चालवरास्तथान्ये
तदन्तरे कर्णधनंजयाभ्याम् ॥ ८० ॥
प्रस्कन्दन्तो बलिना साधुमुक्तैः
कर्णेन बाणैर्निहताः प्रसह्य ।

अनुवाद (हिन्दी)

पांचालोंके प्रधान-प्रधान सैनिक तथा दूसरे योद्धा पुनः कर्ण और अर्जुनके बीचमें आ पहुँचे; परंतु बलवान् कर्णने अच्छी तरह छोड़े हुए बाणोंद्वारा उन सबको हठपूर्वक मार गिराया॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयं मत्वा विपुलं वै त्वदीया-
स्तलान्‌ निजघ्नुः सिंहनादांश्च नेदुः ॥ ८१ ॥
सर्वे ह्यमन्यन्त वशे कृतौ तौ
कर्णेन कृष्णाविति ते विमर्दे।

मूलम्

जयं मत्वा विपुलं वै त्वदीया-
स्तलान्‌ निजघ्नुः सिंहनादांश्च नेदुः ॥ ८१ ॥
सर्वे ह्यमन्यन्त वशे कृतौ तौ
कर्णेन कृष्णाविति ते विमर्दे।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो आपके सैनिक कर्णकी बड़ी भारी विजय मानकर ताली पीटने और सिंहनाद करने लगे। उन सबने यह समझ लिया कि ‘इस युद्धमें श्रीकृष्ण और अर्जुन कर्णके वशमें हो गये’॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो धनुर्ज्यामवनाम्य शीघ्रं
शरानस्तानाधिरथेर्विधम्य ॥ ८२ ॥
सुसंरब्धः कर्णशरक्षताङ्गो
रणे पार्थः कौरवान् प्रत्यगृह्णात्।

मूलम्

ततो धनुर्ज्यामवनाम्य शीघ्रं
शरानस्तानाधिरथेर्विधम्य ॥ ८२ ॥
सुसंरब्धः कर्णशरक्षताङ्गो
रणे पार्थः कौरवान् प्रत्यगृह्णात्।

अनुवाद (हिन्दी)

तब कर्णके बाणोंसे जिनका अंग-अंग क्षत-विक्षत हो गया था, उन कुन्तीकुमार अर्जुनने रणभूमिमें अत्यन्त कुपित हो शीघ्र ही धनुषकी प्रत्यंचाको झुकाकर चढ़ा दिया और कर्णके चलाये हुए बाणोंको छिन्न-भिन्न करके कौरवोंको आगे बढ़नेसे रोक दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्यां चानुमृज्याभ्यहनत् तलत्रे
बाणान्धकारं सहसा च चक्रे ॥ ८३ ॥
कर्णं च शल्यं च कुरूंश्च सर्वान्
बाणैरविध्यत् प्रसभं किरीटी ।

मूलम्

ज्यां चानुमृज्याभ्यहनत् तलत्रे
बाणान्धकारं सहसा च चक्रे ॥ ८३ ॥
कर्णं च शल्यं च कुरूंश्च सर्वान्
बाणैरविध्यत् प्रसभं किरीटी ।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् किरीटधारी अर्जुनने धनुषकी प्रत्यंचाको हाथसे रगड़कर कर्णके दस्तानेपर आघात किया और सहसा बाणोंका जाल फैलाकर वहाँ अन्धकार कर दिया। फिर कर्ण, शल्य और समस्त कौरवोंको अपने बाणोंद्वारा बलपूर्वक घायल किया॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पक्षिणो बभ्रमुरन्तरिक्षे
तदा महास्त्रेण कृतेऽन्धकारे ॥ ८४ ॥
वायुर्वियत्स्थैरीरितो भूतसंघै-
रुवाह दिव्यः सुरभिस्तदानीम् ।

मूलम्

न पक्षिणो बभ्रमुरन्तरिक्षे
तदा महास्त्रेण कृतेऽन्धकारे ॥ ८४ ॥
वायुर्वियत्स्थैरीरितो भूतसंघै-
रुवाह दिव्यः सुरभिस्तदानीम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके महान् अस्त्रोंद्वारा आकाशमें घोर अन्धकार फैल जानेसे उस समय वहाँ पक्षी भी नहीं उड़ पाते थे। तब अन्तरिक्षमें खड़े हुए प्राणिसमूहोंसे प्रेरित होकर तत्काल वहाँ दिव्य सुगन्धित वायु चलने लगी॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शल्यं च पार्थो दशभिः पृषत्कै-
र्भृशं तनुत्रे प्रहसन्नविध्यत् ॥ ८५ ॥
ततः कर्णं द्वादशभिः सुमुक्तै-
र्विद्ध्वा पुनः सप्तभिरभ्यविद्ध्यत् ।

मूलम्

शल्यं च पार्थो दशभिः पृषत्कै-
र्भृशं तनुत्रे प्रहसन्नविध्यत् ॥ ८५ ॥
ततः कर्णं द्वादशभिः सुमुक्तै-
र्विद्ध्वा पुनः सप्तभिरभ्यविद्ध्यत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय कुन्तीकुमार अर्जुनने हँसते-हँसते दस बाणोंसे शल्यको गहरी चोट पहुँचायी और उनके कवचको छिन्न-भिन्न कर डाला। फिर अच्छी तरह छोड़े हुए बारह बाणोंसे कर्णको घायल करके पुनः उसे सात बाणोंसे बींध डाला॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पार्थबाणासनवेगमुक्तै-
र्दृढाहतः पत्रिभिरुग्रवेगैः ॥ ८६ ॥
विभिन्नगात्रः क्षतजोक्षिताङ्गः
कर्णो बभौ रुद्र इवाततेषुः।
प्रक्रीडमानोऽथ श्मशानमध्ये
रौद्रे मुहुर्ते रुधिरार्द्रगात्रः ॥ ८७ ॥

मूलम्

स पार्थबाणासनवेगमुक्तै-
र्दृढाहतः पत्रिभिरुग्रवेगैः ॥ ८६ ॥
विभिन्नगात्रः क्षतजोक्षिताङ्गः
कर्णो बभौ रुद्र इवाततेषुः।
प्रक्रीडमानोऽथ श्मशानमध्ये
रौद्रे मुहुर्ते रुधिरार्द्रगात्रः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके धनुषसे वेगपूर्वक छूटे हुए भयंकर वेगशाली बाणोंद्वारा गहरी चोट खाकर कर्णके सारे अंग विदीर्ण हो गये। वह खूनसे नहा उठा और रौद्र मुहूर्तमें श्मशानके भीतर क्रीड़ा करते हुए, बाणोंसे व्याप्त एवं रक्तसे भीगे शरीरवाले रुद्रदेवके समान प्रतीत होने लगा॥८६-८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्रिभिस्तं त्रिदशाधिपोपमं
शरैर्बिभेदाधिरथिर्धनंजयम् ।
शरांश्च पञ्च ज्वलितानिवोरगान्
प्रवेशयामास जिघांसयाच्युतम् ॥ ८८ ॥

मूलम्

ततस्त्रिभिस्तं त्रिदशाधिपोपमं
शरैर्बिभेदाधिरथिर्धनंजयम् ।
शरांश्च पञ्च ज्वलितानिवोरगान्
प्रवेशयामास जिघांसयाच्युतम् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अधिरथपुत्र कर्णने देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी अर्जुनको तीन बाणोंसे बींध डाला और श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे उनके शरीरमें प्रज्वलित सर्पोंके समान पाँच बाण घुसा दिये॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वर्म भित्त्वा पुरुषोत्तमस्य
सुवर्णचित्रा न्यपतन् सुमुक्ताः ।
वेगेन गामाविविशुः सुवेगाः
स्नात्वा च कर्णाभिमुखाः प्रतीयुः ॥ ८९ ॥

मूलम्

ते वर्म भित्त्वा पुरुषोत्तमस्य
सुवर्णचित्रा न्यपतन् सुमुक्ताः ।
वेगेन गामाविविशुः सुवेगाः
स्नात्वा च कर्णाभिमुखाः प्रतीयुः ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्छी तरह छोड़े हुए वे सुवर्णजटित वेगशाली बाण पुरुषोत्तम श्रीकृष्णके कवचको विदीर्ण करके बड़े वेगसे धरतीमें समा गये और पातालगंगामें नहाकर पुनः कर्णकी ओर जाने लगे॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् पञ्च भल्लैर्दशभिः सुमुक्तै-
स्त्रिधा त्रिधैकैकमथोच्चकर्त ।
धनंजयास्त्रैर्न्यपतन् पृथिव्यां
महाहयस्तक्षकपुत्रपक्षाः ॥ ९० ॥

मूलम्

तान् पञ्च भल्लैर्दशभिः सुमुक्तै-
स्त्रिधा त्रिधैकैकमथोच्चकर्त ।
धनंजयास्त्रैर्न्यपतन् पृथिव्यां
महाहयस्तक्षकपुत्रपक्षाः ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बाण नहीं, तक्षकपुत्र अश्वसेनके पक्षपाती पाँच विशाल सर्प थे। अर्जुनने सावधानीसे छोड़े गये दस भल्लोंद्वारा उनमेंसे प्रत्येकके तीन-तीन टुकड़े कर डाले। अर्जुनके बाणोंसे मारे जाकर वे पृथ्वीपर गिर पड़े॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रजज्वाल किरीटमाली
क्रोधेन कक्षं प्रदहन्निवाग्निः ।
तथा विनुन्नाङ्गमवेक्ष्य कृष्णं
सर्वेषुभिः कर्णभुजप्रसृष्टैः ॥ ९१ ॥

मूलम्

ततः प्रजज्वाल किरीटमाली
क्रोधेन कक्षं प्रदहन्निवाग्निः ।
तथा विनुन्नाङ्गमवेक्ष्य कृष्णं
सर्वेषुभिः कर्णभुजप्रसृष्टैः ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके हाथोंसे छूटे हुए उन सभी बाणोंद्वारा श्रीकृष्णके श्रीअंगोंको घायल हुआ देख किरीटधारी अर्जुन सूखे काठ या घास-फूसके ढेरको जलानेवाली आगके समान क्रोधसे प्रज्वलित हो उठे॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कर्णमाकर्णविकृष्टसृष्टैः
शरैः शरीरान्तकरैर्ज्वलद्भिः ।
मर्मस्वविध्यत् स चचाल दुःखाद्
दैवादवातिष्ठत धैर्यबुद्धिः ॥ ९२ ॥

मूलम्

स कर्णमाकर्णविकृष्टसृष्टैः
शरैः शरीरान्तकरैर्ज्वलद्भिः ।
मर्मस्वविध्यत् स चचाल दुःखाद्
दैवादवातिष्ठत धैर्यबुद्धिः ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने कानतक खींचकर छोड़े गये शरीरनाशक प्रज्वलित बाणोंद्वारा कर्णके मर्मस्थानोंमें गहरी चोट पहुँचायी। कर्ण दुःखसे विचलित हो उठा; परन्तु किसी तरह मनमें धैर्य धारण करके दैवयोगसे रणभूमिमें डटा रहा॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरौघैः प्रदिशो दिशश्च
रवेः प्रभा कर्णरथश्च राजन्।
अदृश्यमासीत् कुपिते धनंजये
तुषारनीहारवृतं यथा नभः ॥ ९३ ॥

मूलम्

ततः शरौघैः प्रदिशो दिशश्च
रवेः प्रभा कर्णरथश्च राजन्।
अदृश्यमासीत् कुपिते धनंजये
तुषारनीहारवृतं यथा नभः ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तत्पश्चात् क्रोधमें भरे हुए अर्जुनने बाणसमूहोंका ऐसा जाल फैलाया कि दिशाएँ, विदिशाएँ, सूर्यकी प्रभा और कर्णका रथ सब कुछ कुहासेसे ढके हुए आकाशकी भाँति अदृश्य हो गया॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चक्ररक्षानथ पादरक्षान्
पुरःसरान् पृष्ठगोपांश्च सर्वान् ।
दुर्योधनेनानुमतानरिघ्नः
समुद्यतान् स रथान् सारभूतान् ॥ ९४ ॥
द्विसाहस्रान् समरे सव्यसाची
कुरुप्रवीरानृषभः कुरूणाम् ।
क्षणेन सर्वान् सरथाश्वसूतान्
निनाय राजन् क्षयमेकवीरः ॥ ९५ ॥

मूलम्

स चक्ररक्षानथ पादरक्षान्
पुरःसरान् पृष्ठगोपांश्च सर्वान् ।
दुर्योधनेनानुमतानरिघ्नः
समुद्यतान् स रथान् सारभूतान् ॥ ९४ ॥
द्विसाहस्रान् समरे सव्यसाची
कुरुप्रवीरानृषभः कुरूणाम् ।
क्षणेन सर्वान् सरथाश्वसूतान्
निनाय राजन् क्षयमेकवीरः ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! कुरुकुलके श्रेष्ठ पुरुष अद्वितीय वीर शत्रुनाशक सव्यसाची अर्जुनने कर्णके चक्ररक्षक, पादरक्षक, अग्रगामी और पृष्ठरक्षक सभी कौरवदलके सारभूत प्रमुख वीरोंको, जो दुर्योधनकी आज्ञाके अनुसार चलनेवाले युद्धके लिये सदा उद्यत रहनेवाले थे तथा जिनकी संख्या दो हजार थी, एक ही क्षणमें रथ, घोड़ों और सारथियोंसहित कालके गालमें भेज दिया॥९४-९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपलायन्त विहाय कर्णं
तवात्मजाः कुरवो येऽवशिष्टाः ।
हतानपाकीर्य शरक्षतांश्च
लालप्यमानांस्तनयान् पितॄंश्च ॥ ९६ ॥

मूलम्

ततोऽपलायन्त विहाय कर्णं
तवात्मजाः कुरवो येऽवशिष्टाः ।
हतानपाकीर्य शरक्षतांश्च
लालप्यमानांस्तनयान् पितॄंश्च ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जो मरनेसे बच गये थे, वे आपके पुत्र और कौरव-सैनिक कर्णको छोड़कर तथा मारे गये और बाणोंसे घायल हो सगे-सम्बन्धियोंको पुकारनेवाले अपने पुत्रों एवं पिताओंकी भी उपेक्षा करके वहाँसे भाग गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(सर्वे प्रणेशुः कुरवो विभिन्नाः
पार्थेषुभिः सम्परिकम्पमानाः ।
सुयोधनेनाथ पुनर्वरिष्ठाः
प्रचोदिताः कर्णरथानुयाने ॥

मूलम्

(सर्वे प्रणेशुः कुरवो विभिन्नाः
पार्थेषुभिः सम्परिकम्पमानाः ।
सुयोधनेनाथ पुनर्वरिष्ठाः
प्रचोदिताः कर्णरथानुयाने ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके बाणोंसे संतप्त और क्षत-विक्षत हो समस्त कौरवयोद्धा जब वहाँसे भाग खड़े हुए, तब दुर्योधनने उनमेंसे श्रेष्ठ वीरोंको पुनः कर्णके रथके पीछे जानेके लिये आज्ञा दी।

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भो क्षत्रियाः शूरतमास्तु सर्वे
क्षात्रे च धर्मे निरताः स्थ यूयम्।
न युक्तरूपं भवतां समीपात्
पलायनं कर्णमिह प्रहाय ॥

मूलम्

भो क्षत्रियाः शूरतमास्तु सर्वे
क्षात्रे च धर्मे निरताः स्थ यूयम्।
न युक्तरूपं भवतां समीपात्
पलायनं कर्णमिह प्रहाय ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— क्षत्रियो! तुम सब लोग शूरवीर हो, क्षत्रियधर्ममें तत्पर रहते हो। यहाँ कर्णको छोड़कर उसके निकटसे भाग जाना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है।

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तवात्मजेनापि तथोच्यमानाः
पार्थेषुभिः सम्परितप्यमानाः ।
नैवावतिष्ठन्त भयाद् विवर्णाः
क्षणेन नष्टाः प्रदिशो दिशश्च॥)

मूलम्

तवात्मजेनापि तथोच्यमानाः
पार्थेषुभिः सम्परितप्यमानाः ।
नैवावतिष्ठन्त भयाद् विवर्णाः
क्षणेन नष्टाः प्रदिशो दिशश्च॥)

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! आपके पुत्रके इस प्रकार कहनेपर भी वे योद्धा वहाँ खड़े न हो सके। अर्जुनके बाणोंसे उन्हें बड़ी पीड़ा हो रही थी। भयसे उनकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी; इसलिये वे क्षणभरमें दिशाओं और उनके कोनोंमें जाकर छिप गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सर्वतः प्रेक्ष्य दिशो विशून्या
भयावदीर्णैः कुरुभिर्विहीनः ।
न विव्यथे भारत तत्र कर्णः
प्रहृष्ट एवार्जुनमभ्यधावत् ॥ ९७ ॥

मूलम्

स सर्वतः प्रेक्ष्य दिशो विशून्या
भयावदीर्णैः कुरुभिर्विहीनः ।
न विव्यथे भारत तत्र कर्णः
प्रहृष्ट एवार्जुनमभ्यधावत् ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! भयसे भागे हुए कौरवयोद्धाओंसे परित्यक्त हो सम्पूर्ण दिशाओंको सूनी देखकर भी वहाँ कर्ण अपने मनमें तनिक भी व्यथित नहीं हुआ। उसने पूरे हर्ष और उत्साहके साथ ही अर्जुनपर धावा किया॥९७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कर्णार्जुनद्वैरथे एकोननवतितमोऽध्यायः ॥ ८९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें कर्ण और अर्जुनका द्वैरथयुद्धविषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल १०२ श्लोक हैं।)