०८८

भागसूचना

अष्टाशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनद्वारा कौरव-सेनाका संहार, अश्वत्थामाका दुर्योधनसे संधिके लिये प्रस्ताव और दुर्योधनद्वारा उसकी अस्वीकृति

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् देवनागासुरसिद्धयक्षै-
र्गन्धर्वरक्षोऽप्सरसां च संघैः ।
ब्रह्मर्षिराजर्षिसुपर्णजुष्टं
बभौ वियद् विस्मयनीयरूपम् ॥ १ ॥

मूलम्

तद् देवनागासुरसिद्धयक्षै-
र्गन्धर्वरक्षोऽप्सरसां च संघैः ।
ब्रह्मर्षिराजर्षिसुपर्णजुष्टं
बभौ वियद् विस्मयनीयरूपम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! उस समय आकाशमें देवता, नाग, असुर, सिद्ध, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, अप्सराओंके समुदाय, ब्रह्मर्षि, राजर्षि और गरुड़—ये सब जुटे हुए थे। इनके कारण आकाशका स्वरूप अत्यन्त आश्चर्यमय प्रतीत होता था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानद्यमानं निनदैर्मनोज्ञै-
र्वादित्रगीतस्तुतिनृत्यहासैः ।
सर्वेऽन्तरिक्षं ददृशुर्मनुष्याः
खस्थाश्च तद् विस्मयनीयरूपम् ॥ २ ॥

मूलम्

नानद्यमानं निनदैर्मनोज्ञै-
र्वादित्रगीतस्तुतिनृत्यहासैः ।
सर्वेऽन्तरिक्षं ददृशुर्मनुष्याः
खस्थाश्च तद् विस्मयनीयरूपम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके मनोरम शब्दों, वाद्यों, गीतों, स्तोत्रों, नृत्यों और हास्य आदिसे आकाश मुखरित हो उठा। उस समय भूतलके मनुष्य और आकाशचारी प्राणी सभी उस आश्चर्यमय अन्तरिक्षकी ओर देख रहे थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहृष्टाः कुरुपाण्डुयोधा
वादित्रशङ्खस्वनसिंहनादैः ।
विनादयन्तो वसुधां दिशश्च
स्वनेन सर्वान् द्विषतो निजघ्नुः ॥ ३ ॥

मूलम्

ततः प्रहृष्टाः कुरुपाण्डुयोधा
वादित्रशङ्खस्वनसिंहनादैः ।
विनादयन्तो वसुधां दिशश्च
स्वनेन सर्वान् द्विषतो निजघ्नुः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कौरव और पाण्डवपक्षके समस्त योद्धा बड़े हर्षमें भरकर वाद्य, शंखध्वनि, सिंहनाद और कोलाहलसे रणभूमि एवं सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए समस्त शत्रुओंका संहार करने लगे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नराश्वमातङ्गरथैः समाकुलं
शरासिशक्त्यृष्टिनिपातदुःसहम् ।
अभीरुजुष्टं हतदेहसंकुलं
रणाजिरं लोहितमाबभौ तदा ॥ ४ ॥

मूलम्

नराश्वमातङ्गरथैः समाकुलं
शरासिशक्त्यृष्टिनिपातदुःसहम् ।
अभीरुजुष्टं हतदेहसंकुलं
रणाजिरं लोहितमाबभौ तदा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय हाथी, अश्व, रथ और पैदल सैनिकोंसे भरा हुआ बाण, खड्ग, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रोंके प्रहारसे दुःसह प्रतीत होनेवाला एवं मृतकोंके शरीरोंसे व्याप्त हुआ वह वीरसेवित समरांगण खूनसे लाल दिखायी देने लगा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभूव युद्धं कुरुपाण्डवानां
यथा सुराणामसुरैः सहाभवत् ।
तथा प्रवृत्ते तुमुले सुदारुणे
धनंजयस्याधिरथेश्च सायकैः ॥ ५ ॥
दिशश्च सैन्यं च शितैरजिह्मगैः
परस्परं प्रावृणुतां सुदंशितौ ।

मूलम्

बभूव युद्धं कुरुपाण्डवानां
यथा सुराणामसुरैः सहाभवत् ।
तथा प्रवृत्ते तुमुले सुदारुणे
धनंजयस्याधिरथेश्च सायकैः ॥ ५ ॥
दिशश्च सैन्यं च शितैरजिह्मगैः
परस्परं प्रावृणुतां सुदंशितौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पूर्वकालमें देवताओंका असुरोंके साथ संग्राम हुआ था, उसी प्रकार पाण्डवोंका कौरवोंके साथ युद्ध होने लगा। अर्जुन और कर्णके बाणोंसे वह अत्यन्त दारुण तुमुल युद्ध आरम्भ होनेपर वे दोनों कवचधारी वीर अपने पैने बाणोंसे परस्पर सम्पूर्ण दिशाओं तथा सेनाको आच्छादित करने लगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्वदीयाश्च परे च सायकैः
कृतेऽन्धकारे ददृशुर्न किंचन ॥ ६ ॥
भयातुरा एकरथौ समाश्रयं-
स्ततोऽभवत् त्वद्भुतमेव सर्वतः ।

मूलम्

ततस्त्वदीयाश्च परे च सायकैः
कृतेऽन्धकारे ददृशुर्न किंचन ॥ ६ ॥
भयातुरा एकरथौ समाश्रयं-
स्ततोऽभवत् त्वद्भुतमेव सर्वतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् आपके और शत्रुपक्षके सैनिक जब बाणोंसे फैले हुए अन्धकारमें कुछ भी देख न सके, तब भयसे आतुर हो उन दोनों प्रधान रथियोंकी शरणमें आ गये। फिर तो चारों ओर अद्भुत युद्ध होने लगा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्त्रमस्त्रेण परस्परं तौ
विधूय वाताविव पूर्वपश्चिमौ ॥ ७ ॥
घनान्धकारे वितते तमोनुदौ
यथोदितौ तद्वदतीव रेजतुः ।

मूलम्

ततोऽस्त्रमस्त्रेण परस्परं तौ
विधूय वाताविव पूर्वपश्चिमौ ॥ ७ ॥
घनान्धकारे वितते तमोनुदौ
यथोदितौ तद्वदतीव रेजतुः ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जैसे पूर्व और पश्चिमकी हवाएँ एक-दूसरीको दबाती हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर एक-दूसरेके अस्त्रोंको अपने अस्त्रोंद्वारा नष्ट करके फैले हुए प्रगाढ़ अन्धकारमें उदित हुए सूर्य और चन्द्रमाके समान अत्यन्त प्रकाशित होने लगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चाभिसर्तव्यमिति प्रचोदिताः
परे त्वदीयाश्च तथावतस्थिरे ॥ ८ ॥
महारथौ तौ परिवार्य सर्वतः
सुरासुराः शम्बरवासवाविव ।

मूलम्

न चाभिसर्तव्यमिति प्रचोदिताः
परे त्वदीयाश्च तथावतस्थिरे ॥ ८ ॥
महारथौ तौ परिवार्य सर्वतः
सुरासुराः शम्बरवासवाविव ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘किसीको युद्धसे मुँह मोड़कर भागना नहीं चाहिये’ इस नियमसे प्रेरित होकर आपके और शत्रुपक्षके सैनिक उन दोनों महारथियोंको चारों ओरसे घेरकर उसी प्रकार युद्धमें डटे रहे, जैसे पूर्वकालमें देवता और असुर, इन्द्र और शम्बरासुरको घेरकर खड़े हुए थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृदङ्गभेरीपणवानकस्वनैः
ससिंहनादैर्नदतुर्नरोत्तमौ ॥ ९ ॥
शशाङ्कसूर्याविव मेघनिःस्वनै-
र्विरेजतुस्तौ पुरषर्षभौ तदा ।

मूलम्

मृदङ्गभेरीपणवानकस्वनैः
ससिंहनादैर्नदतुर्नरोत्तमौ ॥ ९ ॥
शशाङ्कसूर्याविव मेघनिःस्वनै-
र्विरेजतुस्तौ पुरषर्षभौ तदा ।

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों दलोंमें होती हुई मृदंग, भेरी, पणव और आनक आदि वाद्योंकी ध्वनिके साथ वे दोनों नरश्रेष्ठ जोर-जोरसे सिंहनाद कर रहे थे, उस समय वे दोनों पुरुषरत्न मेघोंकी गम्भीर गर्जनाके साथ उदित हुए चन्द्रमा और सूर्यके समान प्रकाशित हो रहे थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाधनुर्मण्डलमध्यगावुभौ
सुवर्चसौ बाणसहस्रदीधिती ॥ १० ॥
दिधक्षमाणौ सचराचरं जगद्
युगान्तसूर्याविव दुःसहौ रणे ।

मूलम्

महाधनुर्मण्डलमध्यगावुभौ
सुवर्चसौ बाणसहस्रदीधिती ॥ १० ॥
दिधक्षमाणौ सचराचरं जगद्
युगान्तसूर्याविव दुःसहौ रणे ।

अनुवाद (हिन्दी)

रणभूमिमें वे दोनों वीर चराचर जगत्‌को दग्ध करनेकी इच्छासे प्रकट हुए प्रलयकालके दो सूर्योंके समान शत्रुओंके लिये दुःसह हो रहे थे। कर्ण और अर्जुनरूप वे दोनों सूर्य अपने विशाल धनुषरूपी मण्डलके मध्यमें प्रकाशित होते थे। सहस्रों बाण ही उनकी किरण थे और वे दोनों ही महान् तेजसे सम्पन्न दिखायी देते थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभावजेयावहितान्तकावुभा-
वुभौ जिघांसू कृतिनौ परस्परम् ॥ ११ ॥
महाहवे वीतभयौ समीयतु-
र्महेन्द्रजम्भाविव कर्णपाण्डवौ ।

मूलम्

उभावजेयावहितान्तकावुभा-
वुभौ जिघांसू कृतिनौ परस्परम् ॥ ११ ॥
महाहवे वीतभयौ समीयतु-
र्महेन्द्रजम्भाविव कर्णपाण्डवौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ही अजेय और शत्रुओंका विनाश करनेवाले थे। दोनों ही अस्त्र-शस्त्रोंके विद्वान् और एक-दूसरेके वधकी इच्छा रखनेवाले थे। कर्ण और अर्जुन दोनों वीर इन्द्र और जम्भासुरके समान उस महासमरमें निर्भय विचरते थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो महास्त्राणि महाधनुर्धरौ
विमुञ्चमानाविषुभिर्भयानकैः ॥ १२ ॥
नराश्वनागानमितान् निजघ्नतुः
परस्परं चापि महारथौ नृप।

मूलम्

ततो महास्त्राणि महाधनुर्धरौ
विमुञ्चमानाविषुभिर्भयानकैः ॥ १२ ॥
नराश्वनागानमितान् निजघ्नतुः
परस्परं चापि महारथौ नृप।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! वे महाधनुर्धर और महारथी वीर महान् अस्त्रोंका प्रयोग करते हुए अपने भयानक बाणोंद्वारा असंख्य मनुष्यों, घोड़ों और हाथियोंका संहार करते और आपसमें भी एक-दूसरेको चोट पहुँचाते थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विसस्रुः पुनरर्दिता नरा
नरोत्तमाभ्यां कुरुपाण्डवाश्रयाः ॥ १३ ॥
सनागपत्त्यश्वरथा दिशो दश
तथा यथा सिंहहता वनौकसः।

मूलम्

ततो विसस्रुः पुनरर्दिता नरा
नरोत्तमाभ्यां कुरुपाण्डवाश्रयाः ॥ १३ ॥
सनागपत्त्यश्वरथा दिशो दश
तथा यथा सिंहहता वनौकसः।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सिंहके द्वारा घायल किये हुए जंगली पशु सब ओर भागने लगते हैं, उसी प्रकार उन नरश्रेष्ठ वीरोंके द्वारा बाणोंसे पीड़ित किये हुए कौरव तथा पाण्डव-सैनिक हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंसहित दसों दिशाओंमें भाग खड़े हुए॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु दुर्योधनभोजसौबलाः
कृपेण शारद्वतसूनुना सह ॥ १४ ॥
महारथाः पञ्च धनंजयाच्युतौ
शरैः शरीरार्तिकरैरताडयन् ।

मूलम्

ततस्तु दुर्योधनभोजसौबलाः
कृपेण शारद्वतसूनुना सह ॥ १४ ॥
महारथाः पञ्च धनंजयाच्युतौ
शरैः शरीरार्तिकरैरताडयन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तदनन्तर दुर्योधन, कृतवर्मा, शकुनि, शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्य और कर्ण—ये पाँच महारथी शरीरको पीड़ा देनेवाले बाणोंद्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनको घायल करने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनूंषि तेषामिषुधीन् ध्वजान् हयान्
रथांश्च सूतांश्च धनंजयः शरैः ॥ १५ ॥
समं प्रमथ्याशु परान् समन्ततः
शरोत्तमैर्द्वादशभिश्च सूतजम् ।

मूलम्

धनूंषि तेषामिषुधीन् ध्वजान् हयान्
रथांश्च सूतांश्च धनंजयः शरैः ॥ १५ ॥
समं प्रमथ्याशु परान् समन्ततः
शरोत्तमैर्द्वादशभिश्च सूतजम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

यह देख अर्जुनने उनके धनुष, तरकस, ध्वज, घोड़े, रथ और सारथि—इन सबको अपने बाणोंद्वारा एक साथ ही प्रमथित करके चारों ओर खड़े हुए शत्रुओंको शीघ्र ही बींध डाला और सूतपुत्र कर्णपर भी बारह बाणोंका प्रहार किया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाभ्यधावंस्त्वरिताः शतं रथाः
शतं गजाश्चार्जुनमाततायिनः ॥ १६ ॥
शकास्तुषारा यवनाश्च सादिनः
सहैव काम्बोजवरैर्जिघांसवः ।

मूलम्

अथाभ्यधावंस्त्वरिताः शतं रथाः
शतं गजाश्चार्जुनमाततायिनः ॥ १६ ॥
शकास्तुषारा यवनाश्च सादिनः
सहैव काम्बोजवरैर्जिघांसवः ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वहाँ सैकड़ों रथी और सैकड़ों हाथीसवार आततायी बनकर अर्जुनको मार डालनेकी इच्छासे दौड़े आये, उनके साथ शक, तुषार, यवन तथा काम्बोजदेशोंके अच्छे घुड़सवार भी थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरायुधान् पाणिगतैः शरैः सह
क्षुरैर्न्यकृन्तत् प्रपतन् शिरांसि च ॥ १७ ॥
हयांश्च नागांश्च रथांश्च युध्यतो
धनंजयः शत्रुगणान् क्षितौ क्षिणोत्।

मूलम्

वरायुधान् पाणिगतैः शरैः सह
क्षुरैर्न्यकृन्तत् प्रपतन् शिरांसि च ॥ १७ ॥
हयांश्च नागांश्च रथांश्च युध्यतो
धनंजयः शत्रुगणान् क्षितौ क्षिणोत्।

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु अर्जुनने अपने हाथके बाणों और क्षुरोंद्वारा उन सबके उत्तम-उत्तम अस्त्रोंको काट डाला। शत्रुओंके मस्तक कट-कटकर गिरने लगे। अर्जुनने विपक्षियोंके घोड़ों, हाथियों और रथोंको तथा युद्धमें तत्पर हुए उन शत्रुओंको भी पृथ्वीपर काट गिराया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्तरिक्षे सुरतूर्यनिःस्वनाः
ससाधुवादा हृषितैः समीरिताः ॥ १८ ॥
निपेतुरप्युत्तमपुष्पवृष्टयः
सुगन्धिगन्धाः पवनेरिताः शुभाः ।

मूलम्

ततोऽन्तरिक्षे सुरतूर्यनिःस्वनाः
ससाधुवादा हृषितैः समीरिताः ॥ १८ ॥
निपेतुरप्युत्तमपुष्पवृष्टयः
सुगन्धिगन्धाः पवनेरिताः शुभाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् आकाशमें हर्षसे उल्लासित हुए दर्शकोंद्वारा साधुवाद देनेके साथ-साथ दिव्य बाजे भी बजाये जाने लगे। वायुकी प्रेरणासे वहाँ सुन्दर सुगन्धित और उत्तम फूलोंकी वर्षा होने लगी॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदद्भुतं देवमनुष्यसाक्षिकं
समीक्ष्य भूतानि विसिस्मियुस्तदा ॥ १९ ॥
तवात्मजः सूतसुतश्च न व्यथां
न विस्मयं जग्मतुरेकनिश्चयौ ।

मूलम्

तदद्भुतं देवमनुष्यसाक्षिकं
समीक्ष्य भूतानि विसिस्मियुस्तदा ॥ १९ ॥
तवात्मजः सूतसुतश्च न व्यथां
न विस्मयं जग्मतुरेकनिश्चयौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओं और मनुष्योंके साक्षित्वमें होनेवाले उस अद्भुत युद्धको देखकर समस्त प्राणी उस समय आश्चर्यसे चकित हो उठे; परंतु आपका पुत्र दुर्योधन और सूतपुत्र कर्ण—ये दोनों एक निश्चयपर पहुँच चुके थे; अतः इनके मनमें न तो व्यथा हुई और न ये विस्मयको ही प्राप्त हुए॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीद् द्रोणसुतस्तवात्मजं
करं करेण प्रतिपीड्य सान्त्वयन् ॥ २० ॥
प्रसीद दुर्योधन शाम्य पाण्डवै-
रलं विरोधेन धिगस्तु विग्रहम्।
हतो गुरुर्ब्रह्मसमो महास्त्रवित्
तथैव भीष्मप्रमुखा महारथाः ॥ २१ ॥

मूलम्

अथाब्रवीद् द्रोणसुतस्तवात्मजं
करं करेण प्रतिपीड्य सान्त्वयन् ॥ २० ॥
प्रसीद दुर्योधन शाम्य पाण्डवै-
रलं विरोधेन धिगस्तु विग्रहम्।
हतो गुरुर्ब्रह्मसमो महास्त्रवित्
तथैव भीष्मप्रमुखा महारथाः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर द्रोणकुमार अश्वत्थामाने दुर्योधनका हाथ अपने हाथसे दबाकर उसे सान्त्वना देते हुए कहा—‘दुर्योधन! अब प्रसन्न हो जाओ। पाण्डवोंसे संधि कर लो। विरोधसे कोई लाभ नहीं है। आपसके इस झगड़ेको धिक्कार है! तुम्हारे गुरुदेव अस्त्रविद्याके महान् पण्डित थे। साक्षात् ब्रह्माजीके समान थे तो भी इस युद्धमें मारे गये। यही दशा भीष्म आदि महारथियोंकी भी हुई है॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं त्ववध्यो मम चापि मातुलः
प्रशाधि राज्यं सह पाण्डवैश्चिरम्।
धनंजयः शाम्यति वारितो मया
जनार्दनो नैव विरोधमिच्छति ॥ २२ ॥

मूलम्

अहं त्ववध्यो मम चापि मातुलः
प्रशाधि राज्यं सह पाण्डवैश्चिरम्।
धनंजयः शाम्यति वारितो मया
जनार्दनो नैव विरोधमिच्छति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं और मेरे मामा कृपाचार्य तो अवध्य हैं (इसीलिये अबतक बचे हुए हैं)। अतः अब तुम पाण्डवोंके साथ मिलकर चिरकालतक राज्यशासन करो। अर्जुन मेरे मना करनेपर शान्त हो जायँगे। श्रीकृष्ण भी तुमलोगोंमें विरोध नहीं चाहते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरो भूतहिते रतः सदा
वृकोदरस्तद्वशगस्तथा यमौ ।
त्वया तु पार्थैश्च कृते च संविदे
प्रजाः शिवं प्राप्नुयुरिच्छया तव ॥ २३ ॥
व्रजन्तु शेषाः स्वपुराणि बान्धवा
निवृत्तयुद्धाश्च भवन्तु सैनिकाः ।
न चेद् वचः श्रोष्यसि मे नराधिप
ध्रुवं प्रतप्तासि हतोऽरिभिर्युधि ॥ २४ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरो भूतहिते रतः सदा
वृकोदरस्तद्वशगस्तथा यमौ ।
त्वया तु पार्थैश्च कृते च संविदे
प्रजाः शिवं प्राप्नुयुरिच्छया तव ॥ २३ ॥
व्रजन्तु शेषाः स्वपुराणि बान्धवा
निवृत्तयुद्धाश्च भवन्तु सैनिकाः ।
न चेद् वचः श्रोष्यसि मे नराधिप
ध्रुवं प्रतप्तासि हतोऽरिभिर्युधि ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युधिष्ठिर तो सभी प्राणियोंके हितमें ही लगे रहते हैं। अतः वे भी मेरी बात मान लेंगे। बाकी रहे भीमसेन और नकुल-सहदेव, सो ये भी धर्मराजके अधीन हैं; (अतः उनकी इच्छाके विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे) इस प्रकार पाण्डवोंके साथ तुम्हारी संधि हो जानेपर सारी प्रजाका कल्याण होगा। फिर तुम्हारी इच्छासे सगे-सम्बन्धी भाई-बन्धु अपने-अपने नगरको लौट जायँ और समस्त सैनिकोंको युद्धसे छुट्टी मिल जाय। नरेश्वर! यदि मेरी बात नहीं सुनोगे तो निश्चय ही युद्धमें शत्रुओंके हाथसे मारे जाओगे और उस समय तुम्हें बड़ा पश्चात्ताप होगा॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(वृद्धं पितरमालोक्य गान्धारीं च यशस्विनीम्।
कृपालुर्धर्मराजो हि याचितः शममेष्यति॥

मूलम्

(वृद्धं पितरमालोक्य गान्धारीं च यशस्विनीम्।
कृपालुर्धर्मराजो हि याचितः शममेष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बूढ़े पिता धृतराष्ट्र और यशस्विनी माता गान्धारीकी ओर देखकर दयालु धर्मराज युधिष्ठिर मेरे अनुरोध करनेपर भी संधि कर लेंगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोचितं च वै राज्यमनुज्ञास्यति ते प्रभुः।
विपश्चित् सुमतिर्धीरः सर्वशास्त्रार्थतत्त्ववित् ॥

मूलम्

यथोचितं च वै राज्यमनुज्ञास्यति ते प्रभुः।
विपश्चित् सुमतिर्धीरः सर्वशास्त्रार्थतत्त्ववित् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे सामर्थ्यशाली, विद्वान्, उत्तम बुद्धिसे युक्त, धैर्यवान् तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वको जाननेवाले हैं; अतः तुम्हारे लिये राज्यका जितना भाग उचित है, उसपर शासन करनेके लिये वे तुम्हें स्वयं ही आज्ञा दे देंगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैरं नेष्यति धर्मात्मा स्वजने नास्त्यतिक्रमः।
न विग्रहमतिः कृष्णः स्वजने प्रतिनन्दति॥

मूलम्

वैरं नेष्यति धर्मात्मा स्वजने नास्त्यतिक्रमः।
न विग्रहमतिः कृष्णः स्वजने प्रतिनन्दति॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मात्मा युधिष्ठिर वैर दूर कर देंगे; क्योंकि आत्मीयजनसे कोई भूल हो जाय तो उसे अक्षम्य अपराध नहीं माना जाता। श्रीकृष्ण भी यह नहीं चाहते कि आपसमें कलह हो, वे स्वजनोंपर सदा संतुष्ट रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनार्जुनौ चोभौ माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
वासुदेवमते चैव पाण्डवस्य च धीमतः॥
स्थास्यन्ति पुरुषव्याघ्रास्तयोर्वचनगौरवात् ।

मूलम्

भीमसेनार्जुनौ चोभौ माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
वासुदेवमते चैव पाण्डवस्य च धीमतः॥
स्थास्यन्ति पुरुषव्याघ्रास्तयोर्वचनगौरवात् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीमसेन, अर्जुन और दोनों भाई माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव—ये सब लोग भगवान् श्रीकृष्ण तथा बुद्धिमान् युधिष्ठिरकी रायसे चलते हैं; अतः ये पुरुषसिंह वीर उन दोनोंके आदेशका गौरव रखते हुए युद्धसे निवृत्त हो जायँगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्ष दुर्योधनात्मानमात्मा सर्वस्य भाजनम्॥
जीवने यत्नमातिष्ठ जीवन् भद्राणि पश्यति।

मूलम्

रक्ष दुर्योधनात्मानमात्मा सर्वस्य भाजनम्॥
जीवने यत्नमातिष्ठ जीवन् भद्राणि पश्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधन! तुम स्वयं ही अपनी रक्षा करो। आत्मा ही सब सुखोंका भाजन है। तुम जीवन-रक्षाके लिये प्रयत्न करो। जीवित रहनेवाला पुरुष ही कल्याणका दर्शन करता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यं श्रीश्चैव भद्रं ते जीवमाने तु कल्पते॥
मृतस्य खलु कौरव्य नैव राज्यं कुतः सुखम्।

मूलम्

राज्यं श्रीश्चैव भद्रं ते जीवमाने तु कल्पते॥
मृतस्य खलु कौरव्य नैव राज्यं कुतः सुखम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारा कल्याण हो; तुम जीवित रहोगे, तभी तुम्हें राज्य और लक्ष्मीकी प्राप्ति हो सकती है। कुरुनन्दन! मरे हुएको राज्य नहीं मिलता, फिर सुख कैसे प्राप्त हो सकता है?।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकवृत्तमिदं वृत्तं प्रवृत्तं पश्य भारत॥
शाम्य त्वं पाण्डवैः सार्धं शेषं कुरुकुलस्य च।

मूलम्

लोकवृत्तमिदं वृत्तं प्रवृत्तं पश्य भारत॥
शाम्य त्वं पाण्डवैः सार्धं शेषं कुरुकुलस्य च।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! लोकमें घटित होनेवाले इस प्रचलित व्यवहारकी ओर दृष्टिपात करो; पाण्डवोंके साथ संधि कर लो और कौरवकुलको शेष रहने दो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा भूत् स कालः कौरव्य यदाहमहितं वचः॥
ब्रूयां कामं महाबाहो मावमंस्था वचो मम।

मूलम्

मा भूत् स कालः कौरव्य यदाहमहितं वचः॥
ब्रूयां कामं महाबाहो मावमंस्था वचो मम।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! ऐसा समय कभी न आवे जब कि मैं इच्छानुसार तुमसे कोई अहितकर बात कहूँ; अतः महाबाहो! तुम मेरी बातका अनादर न करो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मिष्ठमिदमत्यर्थं राज्ञश्चैव कुलस्य च॥
एतद्धि परमं श्रेयः कुरुवंशस्य वृद्धये।

मूलम्

धर्मिष्ठमिदमत्यर्थं राज्ञश्चैव कुलस्य च॥
एतद्धि परमं श्रेयः कुरुवंशस्य वृद्धये।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा यह कथन धर्मके अनुकूल तथा राजा और राजकुलके लिये अत्यन्त हितकर है; यह कौरववंशकी वृद्धिके लिये परम कल्याणकारी है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजाहितं च गान्धारे कुलस्य च सुखावहम्॥
पथ्यमायतिसंयुक्तं कर्णोऽप्यर्जुनमाहवे ।
न जेष्यति नरव्याघ्रमिति मे निश्चिता मतिः॥
रोचतां ते नरश्रेष्ठ ममैतद् वचनं शुभम्।
अतोऽन्यथा हि राजेन्द्र विनाशः सुमहान् भवेत्॥)

मूलम्

प्रजाहितं च गान्धारे कुलस्य च सुखावहम्॥
पथ्यमायतिसंयुक्तं कर्णोऽप्यर्जुनमाहवे ।
न जेष्यति नरव्याघ्रमिति मे निश्चिता मतिः॥
रोचतां ते नरश्रेष्ठ ममैतद् वचनं शुभम्।
अतोऽन्यथा हि राजेन्द्र विनाशः सुमहान् भवेत्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘गान्धारीनन्दन! मेरा यह वचन प्रजाजनोंके लिये हितकर, इस कुलके लिये सुखदायक, लाभकारी तथा भविष्यमें भी मंगलकारक है। नरश्रेष्ठ! मेरी यह निश्चित धारणा है कि कर्ण नरव्याघ्र अर्जुनको कदापि जीत न सकेगा; अतः मेरा यह शुभ वचन तुम्हें पसंद आना चाहिये। राजेन्द्र! यदि ऐसा नहीं हुआ तो बड़ा भारी विनाश होगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं च दृष्टं जगता सह त्वया
कृतं यदेकेन किरीटमालिना ।
यथा न कुर्याद् बलभिन्न चान्तको
न चापि धाता भगवान् न यक्षराट् ॥ २५ ॥

मूलम्

इदं च दृष्टं जगता सह त्वया
कृतं यदेकेन किरीटमालिना ।
यथा न कुर्याद् बलभिन्न चान्तको
न चापि धाता भगवान् न यक्षराट् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किरीटधारी अर्जुनने अकेले जो पराक्रम किया है, इसे सारे संसारके साथ तुमने प्रत्यक्ष देख लिया है। ऐसा पराक्रम न तो इन्द्र कर सकते हैं और न यमराज। न धाता कर सकते हैं और न भगवान् यक्षराज कुबेर॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽपि भूयान् स्वगुणैर्धनंजयो
न चातिवर्तिष्यति मे वचोऽखिलम्।
तवानुयात्रां च सदा करिष्यति
प्रसीद राजेन्द्र शमं त्वमाप्नुहि ॥ २६ ॥

मूलम्

अतोऽपि भूयान् स्वगुणैर्धनंजयो
न चातिवर्तिष्यति मे वचोऽखिलम्।
तवानुयात्रां च सदा करिष्यति
प्रसीद राजेन्द्र शमं त्वमाप्नुहि ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यद्यपि अर्जुन अपने गुणोंद्वारा इससे भी बहुत बढ़े-चढ़े हैं, तथापि मुझे विश्वास है कि मेरी कही हुई इन सारी बातोंको कदापि नहीं टालेंगे। यही नहीं, वे सदा तुम्हारा अनुसरण करेंगे; इसलिये राजेन्द्र! तुम प्रसन्न होओ और संधि कर लो॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममापि मानः परमः सदा त्वयि
ब्रवीम्यतस्त्वां परमाच्च सौहृदात् ।
निवारयिष्यामि च कर्णमप्यहं
यदा भवान् सप्रणयो भविष्यति ॥ २७ ॥

मूलम्

ममापि मानः परमः सदा त्वयि
ब्रवीम्यतस्त्वां परमाच्च सौहृदात् ।
निवारयिष्यामि च कर्णमप्यहं
यदा भवान् सप्रणयो भविष्यति ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे प्रति मेरे मनमें भी सदा बड़े आदरका भाव रहा है। हम दोनोंकी जो घनिष्ठ मित्रता है, उसीके कारण मैं तुमसे यह प्रस्ताव करता हूँ। यदि तुम प्रेमपूर्वक राजी हो जाओगे तो मैं कर्णको भी युद्धसे रोक दूँगा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वदन्ति मित्रं सहजं विचक्षणा-
स्तथैव साम्ना च धनेन चार्जितम्।
प्रतापतश्चोपनतं चतुर्विधं
तदस्ति सर्वं तव पाण्डवेषु ॥ २८ ॥

मूलम्

वदन्ति मित्रं सहजं विचक्षणा-
स्तथैव साम्ना च धनेन चार्जितम्।
प्रतापतश्चोपनतं चतुर्विधं
तदस्ति सर्वं तव पाण्डवेषु ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विद्वान् पुरुष चार प्रकारके मित्र बतलाते हैं। एक सहज मित्र होते हैं (जिनके साथ स्वाभाविक मैत्री होती हैं)। दूसरे हैं संधि करके बनाये हुए मित्र। तीसरे वे हैं जो धन देकर अपनाये गये हैं। जो किसीके प्रबल प्रतापसे प्रभावित हो स्वतः शरणमें आ जाते हैं, वे चौथे प्रकारके मित्र हैं। पाण्डवोंके साथ तुम्हारी सभी प्रकारकी मित्रता सम्भव है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसर्गतस्ते तव वीर बान्धवाः
पुनश्च साम्ना समवाप्नुहि प्रभो।
त्वयि प्रसन्ने यदि मित्रतां गते
हितं कृतं स्याज्जगतस्त्वयातुलम् ॥ २९ ॥

मूलम्

निसर्गतस्ते तव वीर बान्धवाः
पुनश्च साम्ना समवाप्नुहि प्रभो।
त्वयि प्रसन्ने यदि मित्रतां गते
हितं कृतं स्याज्जगतस्त्वयातुलम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! एक तो वे तुम्हारे जन्मजात भाई हैं; अतः सहज मित्र हैं। प्रभो! फिर तुम संधि करके उन्हें अपना मित्र बना लो। यदि तुम प्रसन्नतापूर्वक पाण्डवोंसे मित्रता स्वीकार कर लो तो तुम्हारे द्वारा संसारका अनुपम हित हो सकता है’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवमुक्तः सुहृदा वचो हितं
विचिन्त्य निःश्वस्य च दुर्मनाब्रवीत्।
यथा भवानाह सखे तथैव त-
न्ममापि विज्ञापयतो वचः शृणु ॥ ३० ॥

मूलम्

स एवमुक्तः सुहृदा वचो हितं
विचिन्त्य निःश्वस्य च दुर्मनाब्रवीत्।
यथा भवानाह सखे तथैव त-
न्ममापि विज्ञापयतो वचः शृणु ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुहृद् अश्वत्थामाने जब इस प्रकार हितकी बात कही, तब दुर्योधन उसपर विचार करके लंबी साँस खींचकर मन-ही-मन दुःखी हो इस प्रकार बोला—‘सखे! तुम जैसा कहते हो, वह सब ठीक है; परंतु इस विषयमें कुछ मैं भी निवेदन कर रहा हूँ, अतः मेरी बात भी सुन लो॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहत्य दुःशासनमुक्तवान् वचः
प्रसह्य शार्दूलवदेष दुर्मतिः ।
वृकोदरस्तद्‌धृदये मम स्थितं
न तत् परोक्षं भवतः कुतः शमः ॥ ३१ ॥

मूलम्

निहत्य दुःशासनमुक्तवान् वचः
प्रसह्य शार्दूलवदेष दुर्मतिः ।
वृकोदरस्तद्‌धृदये मम स्थितं
न तत् परोक्षं भवतः कुतः शमः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस दुर्बुद्धि भीमसेनने सिंहके समान हठपूर्वक दुःशासनका वध करके जो बात कही थी, वह तुमसे छिपी नहीं है। वह इस समय भी मेरे हृदयमें स्थित होकर पीड़ा दे रही है। ऐसी दशामें कैसे संधि हो सकती है?॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चापि कर्णं प्रसहेद् रणेऽर्जुनो
महागिरिं मेरुमिवोग्रमारुतः ।
न चाश्वसिष्यन्ति पृथात्मजा मयि
प्रसह्य वैरं बहुशो विचिन्त्य ॥ ३२ ॥

मूलम्

न चापि कर्णं प्रसहेद् रणेऽर्जुनो
महागिरिं मेरुमिवोग्रमारुतः ।
न चाश्वसिष्यन्ति पृथात्मजा मयि
प्रसह्य वैरं बहुशो विचिन्त्य ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसके सिवा भयंकर वायु जैसे महापर्वत मेरुका सामना नहीं कर सकती, उसी प्रकार अर्जुन इस रणभूमिमें कर्णका वेग नहीं सह सकते। हमने हठपूर्वक बारंबार जो वैर किया है, उसे सोचकर कुन्तीके पुत्र मुझपर विश्वास भी नहीं करेंगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चापि कर्णं गुरुपुत्र संयुगा-
दुपारमेत्यर्हसि वक्तुमच्युत ।
श्रमेण युक्तो महताद्य फाल्गुन-
स्तमेष कर्णः प्रसभं हनिष्यति ॥ ३३ ॥

मूलम्

न चापि कर्णं गुरुपुत्र संयुगा-
दुपारमेत्यर्हसि वक्तुमच्युत ।
श्रमेण युक्तो महताद्य फाल्गुन-
स्तमेष कर्णः प्रसभं हनिष्यति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपनी मर्यादा न छोड़नेवाले गुरुपुत्र! तुम्हें कर्णसे युद्ध बंद करनेके लिये नहीं कहना चाहिये; क्योंकि इस समय अर्जुन महान् परिश्रमसे थक गये हैं; अतः अब कर्ण उन्हें बलपूर्वक मार डालेगा’॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवमुक्त्वाप्यनुनीय चासकृत्
तवात्मजः स्वाननुशास्ति सैनिकान् ।
विनिघ्नताभिद्रवताहितान् मम
सबाणहस्ताः किमु जोषमासत ॥ ३४ ॥

मूलम्

तमेवमुक्त्वाप्यनुनीय चासकृत्
तवात्मजः स्वाननुशास्ति सैनिकान् ।
विनिघ्नताभिद्रवताहितान् मम
सबाणहस्ताः किमु जोषमासत ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वत्थामासे ऐसा कहकर बारंबार अनुनय-विनयके द्वारा उसे प्रसन्न करके आपके पुत्रने अपने सैनिकोंको आदेश देते हुए कहा—‘अरे! तुमलोग हाथोंमें बाण लिये चुपचाप बैठे क्यों हो? मेरे शत्रुओंपर टूट पड़ो और उन्हें मार डालो’॥३४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि अश्वत्थामवाक्येऽष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें अश्वत्थामाका वचनविषयक अठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८८॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १२ श्लोक मिलाकर कुल ४६ श्लोक हैं।)