भागसूचना
षडशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कर्णके साथ युद्ध करनेके विषयमें श्रीकृष्ण और अर्जुनकी बातचीत तथा अर्जुनका कर्णके सामने उपस्थित होना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमायान्तमभिप्रेक्ष्य वेलोद्वृत्तमिवार्णवम् ।
गर्जन्तं सुमहाकायं दुर्निवारं सुरैरपि ॥ १ ॥
अर्जुनं प्राह दाशार्हः प्रहस्य पुरुषर्षभः।
अयं सरथ आयाति श्वेताश्वः शल्यसारथिः ॥ २ ॥
मूलम्
तमायान्तमभिप्रेक्ष्य वेलोद्वृत्तमिवार्णवम् ।
गर्जन्तं सुमहाकायं दुर्निवारं सुरैरपि ॥ १ ॥
अर्जुनं प्राह दाशार्हः प्रहस्य पुरुषर्षभः।
अयं सरथ आयाति श्वेताश्वः शल्यसारथिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! सीमाको लाँघकर आगे बढ़ते हुए महासागरके सदृश विशालकाय कर्ण गर्जना करता हुआ आगे बढ़ा। वह देवताओंके लिये भी दुर्जय था। उसे आते देख दशार्हकुलनन्दन पुरुषश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णने हँसकर अर्जुनसे कहा—‘पार्थ! जिसके सारथि शल्य हैं और रथमें श्वेत घोड़े जुते हैं, वही यह कर्ण रथसहित इधर आ रहा है॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन ते सह योद्धव्यं स्थिरो भव धनंजय।
पश्य चैनं समायुक्तं रथं कर्णस्य पाण्डव ॥ ३ ॥
श्वेतवाजिसमायुक्तं युक्तं राधासुतेन च।
मूलम्
येन ते सह योद्धव्यं स्थिरो भव धनंजय।
पश्य चैनं समायुक्तं रथं कर्णस्य पाण्डव ॥ ३ ॥
श्वेतवाजिसमायुक्तं युक्तं राधासुतेन च।
अनुवाद (हिन्दी)
‘धनंजय! तुम्हें जिसके साथ युद्ध करना है, वह कर्ण आ गया। अब स्थिर हो जाओ। पाण्डुनन्दन! श्वेत घोड़ोंसे जुते हुए कर्णके इस सजे-सजाये रथको, जिसपर वह स्वयं विराजमान है, देखो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानापताकाकलिलं किङ्किणीजालमालिनम् ॥ ४ ॥
उह्यमानमिवाकाशे विमानं पाण्डुरैर्हयैः ।
ध्वजं च पश्य कर्णस्य नागकक्षं महात्मनः ॥ ५ ॥
मूलम्
नानापताकाकलिलं किङ्किणीजालमालिनम् ॥ ४ ॥
उह्यमानमिवाकाशे विमानं पाण्डुरैर्हयैः ।
ध्वजं च पश्य कर्णस्य नागकक्षं महात्मनः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसपर भाँति-भाँतिकी पताकाएँ फहरा रही हैं तथा वह छोटी-छोटी घंटियोंवाली झालरसे अलंकृत है। ये सफेद घोड़े आकाशमें विमानके समान इस रथको लेकर मानो उड़े जा रहे हैं। महामनस्वी कर्णकी इस ध्वजाको तो देखो, जिसमें हाथीके रस्सेका चिह्न बना हुआ है॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आखण्डलधनुःप्रख्यमुल्लिखन्तमिवाम्बरम् ।
पश्य कर्णं समायान्तं धार्तराष्ट्रप्रियैषिणम् ॥ ६ ॥
शरधारा विमुञ्चन्तं धारासारमिवाम्बुदम् ।
मूलम्
आखण्डलधनुःप्रख्यमुल्लिखन्तमिवाम्बरम् ।
पश्य कर्णं समायान्तं धार्तराष्ट्रप्रियैषिणम् ॥ ६ ॥
शरधारा विमुञ्चन्तं धारासारमिवाम्बुदम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह ध्वज इन्द्रधनुषके समान प्रकाशित होता हुआ आकाशमें रेखा-सा खींच रहा है। देखो, दुर्योधनका प्रिय चाहनेवाला कर्ण इधर ही आ रहा है। वह जलकी धारा गिरानेवाले बादलके समान बाणधाराकी वर्षा कर रहा है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष मद्रेश्वरो राजा रथाग्रे पर्यवस्थितः ॥ ७ ॥
नियच्छति हयानस्य राधेयस्यामितौजसः ।
मूलम्
एष मद्रेश्वरो राजा रथाग्रे पर्यवस्थितः ॥ ७ ॥
नियच्छति हयानस्य राधेयस्यामितौजसः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये मद्रदेशके स्वामी राजा शल्य रथके अग्रभागमें बैठकर अमित बलशाली इस राधापुत्र कर्णके घोड़ोंको काबूमें रख रहे हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु दुन्दुभिनिर्घोषं शङ्खशब्दं च दारुणम् ॥ ८ ॥
सिंहनादांश्च विविधान् शृणु पाण्डव सर्वतः।
मूलम्
शृणु दुन्दुभिनिर्घोषं शङ्खशब्दं च दारुणम् ॥ ८ ॥
सिंहनादांश्च विविधान् शृणु पाण्डव सर्वतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डुनन्दन! सुनो, दुन्दुभिका गम्भीर घोष और भयंकर शंखध्वनि हो रही है। चारों ओर नाना प्रकारके सिंहनाद भी होने लगे हैं, इन्हें सुनो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्धाय महाशब्दान् कर्णेनामिततेजसा ॥ ९ ॥
दोधूयमानस्य भृशं धनुषः शृणु निःस्वनम्।
मूलम्
अन्तर्धाय महाशब्दान् कर्णेनामिततेजसा ॥ ९ ॥
दोधूयमानस्य भृशं धनुषः शृणु निःस्वनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अमित तेजस्वी कर्ण अपने धनुषको बड़े वेगसे हिला रहा है। उसकी टंकारध्वनि बड़ी भारी आवाजको भी दबाकर सुनायी पड़ रही है, सुनो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते दीर्यन्ति सगणाः पञ्चालानां महारथाः ॥ १० ॥
दृष्ट्वा केसरिणं क्रुद्धं मृगा इव महावने।
मूलम्
एते दीर्यन्ति सगणाः पञ्चालानां महारथाः ॥ १० ॥
दृष्ट्वा केसरिणं क्रुद्धं मृगा इव महावने।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे महान् वनमें मृग कुपित हुए सिंहको देखकर भागने लगते हैं, उसी प्रकार ये पांचाल महारथी अपने सैन्यदलके साथ कर्णको देखकर भागे जा रहे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वयत्नेन कौन्तेय हन्तुमर्हसि सूतजम् ॥ ११ ॥
न हि कर्णशरानन्यः सोढुमुत्सहते नरः।
मूलम्
सर्वयत्नेन कौन्तेय हन्तुमर्हसि सूतजम् ॥ ११ ॥
न हि कर्णशरानन्यः सोढुमुत्सहते नरः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीनन्दन! तुम्हें पूर्ण प्रयत्न करके सूतपुत्र कर्णका वध करना चाहिये। दूसरा कोई मनुष्य कर्णके बाणोंको नहीं सह सकता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदेवासुरगन्धर्वांस्त्रील्लोँकान् सचराचरान् ॥ १२ ॥
त्वं हि जेतुं रणे शक्तस्तथैव विदितं मम।
मूलम्
सदेवासुरगन्धर्वांस्त्रील्लोँकान् सचराचरान् ॥ १२ ॥
त्वं हि जेतुं रणे शक्तस्तथैव विदितं मम।
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवता, असुर, गन्धर्व तथा चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंको तुम रणभूमिमें जीत सकते हो; यह मुझे अच्छी तरह मालूम है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीममुग्रं महात्मानं त्र्यक्षं शर्वं कपर्दिनम् ॥ १३ ॥
न शक्ता द्रष्टुमीशानं किं पुनर्योधितुं प्रभुम्।
त्वया साक्षान्महादेवः सर्वभूतशिवः शिवः ॥ १४ ॥
युद्धेनाराधितः स्थाणुर्देवाश्च वरदास्तव ।
तस्य पार्थ प्रसादेन देवदेवस्य शूलिनः ॥ १५ ॥
जहि कर्णं महाबाहो नमुचिं वृत्रहा यथा।
श्रेयस्तेऽस्तु सदा पार्थ युद्धे जयमवाप्नुहि ॥ १६ ॥
मूलम्
भीममुग्रं महात्मानं त्र्यक्षं शर्वं कपर्दिनम् ॥ १३ ॥
न शक्ता द्रष्टुमीशानं किं पुनर्योधितुं प्रभुम्।
त्वया साक्षान्महादेवः सर्वभूतशिवः शिवः ॥ १४ ॥
युद्धेनाराधितः स्थाणुर्देवाश्च वरदास्तव ।
तस्य पार्थ प्रसादेन देवदेवस्य शूलिनः ॥ १५ ॥
जहि कर्णं महाबाहो नमुचिं वृत्रहा यथा।
श्रेयस्तेऽस्तु सदा पार्थ युद्धे जयमवाप्नुहि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनकी मूर्ति बड़ी ही उग्र और भयंकर है, जो महात्मा हैं, जिनके तीन नेत्र और मस्तकपर जटाजूट है, उन सर्वसमर्थ ईश्वर भगवान् शंकरको दूसरे लोग देख भी नहीं सकते फिर उनके साथ युद्ध करनेकी तो बात ही क्या है? परंतु तुमने सम्पूर्ण जीवोंका कल्याण करनेवाले उन्हीं स्थाणुस्वरूप महादेव साक्षात् भगवान् शिवकी युद्धके द्वारा आराधना की है, अन्य देवताओंने भी तुम्हें वरदान दिये है; इसलिये महाबाहु पार्थ! तुम उन देवाधिदेव त्रिशूलधारी भगवान् शंकरकी कृपासे कर्णको उसी प्रकार मार डालो, जैसे वृत्रविनाशक इन्द्रने नमुचिका वध किया था। कुन्तीनन्दन! तुम्हारा सदा ही कल्याण हो। तुम युद्धमें विजय प्राप्त करो’॥१३—१६॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रुव एव जयः कृष्ण मम नास्त्यत्र संशयः।
सर्वलोकगुरुर्यस्त्वं तुष्टोऽसि मधुसूदन ॥ १७ ॥
मूलम्
ध्रुव एव जयः कृष्ण मम नास्त्यत्र संशयः।
सर्वलोकगुरुर्यस्त्वं तुष्टोऽसि मधुसूदन ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— मधुसूदन श्रीकृष्ण! मेरी विजय अवश्य होगी, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण जगत्के गुरु आप मुझपर प्रसन्न हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चोदयाश्वान् हृषीकेश रथं मम महारथ।
नाहत्वा समरे कर्णं निवर्तिष्यति फाल्गुनः ॥ १८ ॥
मूलम्
चोदयाश्वान् हृषीकेश रथं मम महारथ।
नाहत्वा समरे कर्णं निवर्तिष्यति फाल्गुनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महारथी हृषीकेश! आप मेरे रथ और घोड़ोंको आगे बढ़ाइये। अब अर्जुन समरांगणमें कर्णका वध किये बिना पीछे नहीं लौटेगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य कर्णं हतं पश्य मच्छरैः शकलीकृतम्।
मां वा द्रक्ष्यसि गोविन्द कर्णेन निहतं शरैः ॥ १९ ॥
मूलम्
अद्य कर्णं हतं पश्य मच्छरैः शकलीकृतम्।
मां वा द्रक्ष्यसि गोविन्द कर्णेन निहतं शरैः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोविन्द! आज आप मेरे बाणोंसे भरकर टुकड़े-टुकड़े हुए कर्णको देखिये। अथवा मुझे ही कर्णके बाणोंसे मरा हुआ देखियेगा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपस्थितमिदं घोरं युद्धं त्रैलोक्यमोहनम्।
यज्जनाः कथयिष्यन्ति यावद् भूमिर्धरिष्यति ॥ २० ॥
मूलम्
उपस्थितमिदं घोरं युद्धं त्रैलोक्यमोहनम्।
यज्जनाः कथयिष्यन्ति यावद् भूमिर्धरिष्यति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज तीनों लोकोंको मोहमें डालनेवाला यह घोर युद्ध उपस्थित है। जबतक पृथ्वी कायम रहेगी तबतक संसारके लोग इस युद्धकी चर्चा करेंगे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवंस्तदा पार्थः कृष्णमक्लिष्टकारिणम्।
प्रत्युद्ययौ रथेनाशु गजं प्रतिगजो यथा ॥ २१ ॥
मूलम्
एवं ब्रुवंस्तदा पार्थः कृष्णमक्लिष्टकारिणम्।
प्रत्युद्ययौ रथेनाशु गजं प्रतिगजो यथा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णसे ऐसा कहते हुए कुन्तीकुमार अर्जुन उस समय रथके द्वारा शीघ्रतापूर्वक कर्णके सामने गये, मानो किसी हाथीका सामना करनेके लिये प्रतिद्वन्द्वी हाथी जा रहा हो॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरप्याह तेजस्वी पार्थः कृष्णमरिंदमम्।
चोदयाश्वान् हृषीकेश कालोऽयमतिवर्तते ॥ २२ ॥
मूलम्
पुनरप्याह तेजस्वी पार्थः कृष्णमरिंदमम्।
चोदयाश्वान् हृषीकेश कालोऽयमतिवर्तते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय तेजस्वी पार्थने शत्रुदमन श्रीकृष्णसे पुनः इस प्रकार कहा—‘हृषीकेश! मेरे घोड़ोंको हाँकिये, यह समय बीता जा रहा है’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तदा तेन पाण्डवेन महात्मना।
जयेन सम्पूज्य स पाण्डवं तदा
प्रचोदयामास हयान् मनोजवान् ।
स पाण्डुपुत्रस्य रथो मनोजवः
क्षणेन कर्णस्य रथाग्रतोऽभवत् ॥ २३ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तदा तेन पाण्डवेन महात्मना।
जयेन सम्पूज्य स पाण्डवं तदा
प्रचोदयामास हयान् मनोजवान् ।
स पाण्डुपुत्रस्य रथो मनोजवः
क्षणेन कर्णस्य रथाग्रतोऽभवत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामना पाण्डुकुमार अर्जुनके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने विजयसूचक आशीर्वादके द्वारा उनका आदर करके उस समय मनके समान वेगशाली घोड़ोंको तीव्रवेगसे आगे बढ़ाया। पाण्डुपुत्र अर्जुनका वह मनोजव रथ एक ही क्षणमें कर्णके रथके सामने जाकर खड़ा हो गया॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कर्णार्जुनद्वैरथे वासुदेववाक्ये षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें कर्ण और अर्जुनके द्वैरथयुद्धके प्रसंगमें भगवान् श्रीकृष्णका वाक्यविषयक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८६॥