भागसूचना
एकोनाशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनका कौरव-सेनाको विनाश करके खूनकी नदी बहा देना और अपना रथ कर्णके पास ले चलनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णसे कहना तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनको आते देख शल्य और कर्णकी बातचीत तथा अर्जुनद्वारा कौरव-सेनाका विध्वंस
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनस्तु महाराज हत्वा सैन्यं चतुर्विधम्।
सूतपुत्रं च संक्रुद्धं दृष्ट्वा चैव महारणे ॥ १ ॥
शोणितोदां महीं कृत्वा मांसमज्जास्थिपङ्किलाम्।
मनुष्यशीर्षपाषाणां हस्त्यश्वकृतरोधसम् ॥ २ ॥
शूरास्थिचयसंकीर्णां काकगृध्रानुनादिताम् ।
छत्रहंसप्लवोपेतां वीरवृक्षापहारिणीम् ॥ ३ ॥
हारपद्माकरवतीमुष्णीषवरफेनिलाम् ।
धनुःशरध्वजोपेतां नरक्षुद्रकपालिनीम् ॥ ४ ॥
चर्मवर्मभ्रमोपेतां रथोडुपसमाकुलाम् ।
जयैषिणां च सुतरां भीरूणां च सुदुस्तराम् ॥ ५ ॥
नदीं प्रवर्तयित्वा च बीभत्सुः परवीरहा।
वासुदेवमिदं वाक्यमब्रवीत् पुरुषर्षभः ॥ ६ ॥
मूलम्
अर्जुनस्तु महाराज हत्वा सैन्यं चतुर्विधम्।
सूतपुत्रं च संक्रुद्धं दृष्ट्वा चैव महारणे ॥ १ ॥
शोणितोदां महीं कृत्वा मांसमज्जास्थिपङ्किलाम्।
मनुष्यशीर्षपाषाणां हस्त्यश्वकृतरोधसम् ॥ २ ॥
शूरास्थिचयसंकीर्णां काकगृध्रानुनादिताम् ।
छत्रहंसप्लवोपेतां वीरवृक्षापहारिणीम् ॥ ३ ॥
हारपद्माकरवतीमुष्णीषवरफेनिलाम् ।
धनुःशरध्वजोपेतां नरक्षुद्रकपालिनीम् ॥ ४ ॥
चर्मवर्मभ्रमोपेतां रथोडुपसमाकुलाम् ।
जयैषिणां च सुतरां भीरूणां च सुदुस्तराम् ॥ ५ ॥
नदीं प्रवर्तयित्वा च बीभत्सुः परवीरहा।
वासुदेवमिदं वाक्यमब्रवीत् पुरुषर्षभः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! उस महासमरमें शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनने क्रोधमें भरे हुए सूतपुत्रको देखकर कौरवोंकी चतुरंगिणी सेनाका विनाश करके वहाँ रक्तकी नदी बहा दी। जिसमें जलके स्थानमें इस पृथ्वीपर रक्त ही बह रहा था; मांस-मज्जा और हड्डियाँ कीचड़का काम दे रही थीं। मनुष्योंके कटे हुए मस्तक पत्थरोंके टुकड़ोंके समान जान पड़ते थे, हाथी और घोड़ोंकी लाशें कगार बनी हुई थीं, शूरवीरोंकी हड्डियोंके ढेर वहाँ सब ओर बिखरे हुए थे, कौए और गीध वहाँ अपनी बोली बोल रहे थे, छत्र ही हंस और छोटी नौकाका काम देते थे, वीरोंके शरीररूपी वृक्षको वह नदी बहाये लिये जाती थी, उसमें हार ही कमलवन और सफेद पगड़ी ही फेन थी, धनुष और बाण वहाँ मछलीके समान जान पड़ते थे, मनुष्योंकी छोटी-छोटी खोपड़ियाँ वहाँ बिखरी पड़ी थीं, ढाल और कवच ही उसमें भँवरके समान प्रतीत होते थे, रथरूपी छोटी नौकासे व्याप्त वह नदी विजयाभिलाषी वीरोंके लिये सुगमतापूर्वक पार होनेयोग्य और कायरोंके लिये अत्यन्त दुस्तर थी। उस नदीको बहाकर पुरुषप्रवर अर्जुनने वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा—॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष केतू रणे कृष्ण सूतपुत्रस्य दृश्यते।
भीमसेनादयश्चैते योधयन्ति महारथम् ॥ ७ ॥
मूलम्
एष केतू रणे कृष्ण सूतपुत्रस्य दृश्यते।
भीमसेनादयश्चैते योधयन्ति महारथम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— श्रीकृष्ण! रणभूमिमें यह सूतपुत्र कर्णकी ध्वजा दिखायी देती है। ये भीमसेन आदि वीर महारथी कर्णसे युद्ध करते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते द्रवन्ति पञ्चालाः कर्णत्रस्ता जनार्दन।
एष दुर्योधनो राजा श्वेतच्छत्रेण धार्यता ॥ ८ ॥
कर्णेन भग्नान् पञ्चालान् द्रावयन् बहु शोभते।
मूलम्
एते द्रवन्ति पञ्चालाः कर्णत्रस्ता जनार्दन।
एष दुर्योधनो राजा श्वेतच्छत्रेण धार्यता ॥ ८ ॥
कर्णेन भग्नान् पञ्चालान् द्रावयन् बहु शोभते।
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! ये पांचालयोद्धा कर्णसे डरकर भाग रहे हैं, यह राजा दुर्योधन है, जिसके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ है और कर्णने जिनके पाँव उखाड़ दिये हैं उन पांचालोंको खदेड़ता हुआ यह बड़ी शोभा पा रहा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपश्च कृतवर्मा च द्रौणिश्चैव महारथः ॥ ९ ॥
एते रक्षन्ति राजानं सूतपुत्रेण रक्षिताः।
अवध्यमानास्तेऽस्माभिर्घातयिष्यन्ति सोमकान् ॥ १० ॥
मूलम्
कृपश्च कृतवर्मा च द्रौणिश्चैव महारथः ॥ ९ ॥
एते रक्षन्ति राजानं सूतपुत्रेण रक्षिताः।
अवध्यमानास्तेऽस्माभिर्घातयिष्यन्ति सोमकान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृपाचार्य, कृतवर्मा और महारथी अश्वत्थामा—ये सूतपुत्रसे सुरक्षित हो राजा दुर्योधनकी रक्षा करते हैं। यदि हम इन तीनोंको नहीं मारते हैं तो ये सोमकोंका संहार कर डालेंगे॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष शल्यो रथोपस्थे रश्मिसंचारकोविदः।
सूतपुत्ररथं कृष्ण वाहयन् बहु शोभते ॥ ११ ॥
मूलम्
एष शल्यो रथोपस्थे रश्मिसंचारकोविदः।
सूतपुत्ररथं कृष्ण वाहयन् बहु शोभते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! घोड़ोंकी बागडोरका संचालन करनेकी कलामें कुशल ये राजा शल्य रथके निचले भागमें बैठकर सूतपुत्रका रथ हाँकते हुए बड़ी शोभा पाते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र मे बुद्धिरुत्पन्ना वाहयात्र महारथम्।
नाहत्वा समरे कर्णं निवर्तिष्ये कथञ्चन ॥ १२ ॥
राधेयो ह्यन्यथा पार्थान् सृञ्जयांश्च महारथान्।
निःशेषान् समरे कुर्यात् पश्यतां नो जनार्दन ॥ १३ ॥
मूलम्
तत्र मे बुद्धिरुत्पन्ना वाहयात्र महारथम्।
नाहत्वा समरे कर्णं निवर्तिष्ये कथञ्चन ॥ १२ ॥
राधेयो ह्यन्यथा पार्थान् सृञ्जयांश्च महारथान्।
निःशेषान् समरे कुर्यात् पश्यतां नो जनार्दन ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! यहाँ मेरा ऐसा विचार हो रहा है कि आप मेरे इस विशाल रथको वहीं हाँक ले चलें (जहाँ कर्ण खड़ा है)। मैं समरांगणमें कर्णका वध किये बिना किसी प्रकार पीछे नहीं लौटूँगा। अन्यथा राधापुत्र हमारे देखते-देखते पाण्डव तथा सृंजय महारथियोंको समरभूमिमें निःशेष कर देगा—किसीको जीवित नहीं छोड़ेगा॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रायाद् रथेनाशु केशवस्तव वाहिनीम्।
कर्णं प्रति महेष्वासं द्वैरथे सव्यसाचिना ॥ १४ ॥
मूलम्
ततः प्रायाद् रथेनाशु केशवस्तव वाहिनीम्।
कर्णं प्रति महेष्वासं द्वैरथे सव्यसाचिना ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण रथके द्वारा शीघ्र ही सव्यसाची अर्जुनके साथ कर्णका द्वैरथ-युद्ध करानेके लिये आपकी सेनामें महाधनुर्धर कर्णकी ओर चले॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रयातश्च महाबाहुः पाण्डवानुज्ञया हरिः।
आश्वासयन् रथेनैव पाण्डुसैन्यानि सर्वशः ॥ १५ ॥
मूलम्
प्रयातश्च महाबाहुः पाण्डवानुज्ञया हरिः।
आश्वासयन् रथेनैव पाण्डुसैन्यानि सर्वशः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनकी अनुमतिसे महाबाहु श्रीकृष्ण रथके द्वारा ही पाण्डव-सेनाओंको सब ओरसे आश्वासन देते हुए आगे बढ़े॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथघोषः स संग्रामे पाण्डवेयस्य सम्बभौ।
वासवाशनितुल्यस्य मेघौघस्येव मारिष ॥ १६ ॥
मूलम्
रथघोषः स संग्रामे पाण्डवेयस्य सम्बभौ।
वासवाशनितुल्यस्य मेघौघस्येव मारिष ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मान्यवर नरेश! संग्राममें पाण्डुपुत्र अर्जुनके रथका वह यर्घरघोष इन्द्रके वज्रकी गड़गड़ाहट तथा मेघसमूहोंकी गर्जनाके समान प्रतीत होता था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महता रथघोषेण पाण्डवः सत्यविक्रमः।
अभ्ययादप्रमेयात्मा निर्जयंस्तव वाहिनीम् ॥ १७ ॥
मूलम्
महता रथघोषेण पाण्डवः सत्यविक्रमः।
अभ्ययादप्रमेयात्मा निर्जयंस्तव वाहिनीम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यपराक्रमी पाण्डव अर्जुन अप्रमेय आत्मबलसे सम्पन्न थे। वे महान् रथघोषके द्वारा आपकी सेनाको परास्त करते हुए आगे बढ़े॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमायान्तं समीक्ष्यैव श्वेताश्वं कृष्णसारथिम्।
मद्रराजोऽब्रवीत् कर्णं केतुं दृष्ट्वा महात्मनः ॥ १८ ॥
मूलम्
तमायान्तं समीक्ष्यैव श्वेताश्वं कृष्णसारथिम्।
मद्रराजोऽब्रवीत् कर्णं केतुं दृष्ट्वा महात्मनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, उन श्वेतवाहन अर्जुनको आते देख और उन महात्माकी ध्वजापर दृष्टिपात करके मद्रराज शल्यने कर्णसे कहा—॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं स रथ आयाति श्वेताश्वः कृष्णसारथिः।
निघ्नन्नमित्रान् समरे यं कर्ण परिपृच्छसि ॥ १९ ॥
मूलम्
अयं स रथ आयाति श्वेताश्वः कृष्णसारथिः।
निघ्नन्नमित्रान् समरे यं कर्ण परिपृच्छसि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! तुम जिसके विषयमें पूछ रहे थे, वही यह श्वेत घोड़ोंवाला रथ, जिसके सारथि श्रीकृष्ण हैं, समरांगणमें शत्रुओंका संहार करता हुआ इधर ही आ रहा है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष तिष्ठति कौन्तेयः संस्पृशन् गाण्डिवं धनुः।
तं हनिष्यसि चेदद्य तन्नः श्रेयो भविष्यति ॥ २० ॥
मूलम्
एष तिष्ठति कौन्तेयः संस्पृशन् गाण्डिवं धनुः।
तं हनिष्यसि चेदद्य तन्नः श्रेयो भविष्यति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये कुन्तीकुमार अर्जुन हाथमें गाण्डीव धनुष लिये हुए खड़े हैं। यदि तुम आज उनको मार डालोगे तो वह हमलोगोंके लिये श्रेयस्कर होगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुर्ज्या चन्द्रताराङ्का पताकाकिङ्किणीयुता ।
पश्य कर्णार्जुनस्यैषा सौदामन्यम्बरे यथा ॥ २१ ॥
मूलम्
धनुर्ज्या चन्द्रताराङ्का पताकाकिङ्किणीयुता ।
पश्य कर्णार्जुनस्यैषा सौदामन्यम्बरे यथा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! देखो, अर्जुनके धनुषकी यह प्रत्यंचा तथा चन्द्रमा और तारोंसे चिह्नित यह रथकी पताका है, जिसमें छोटी-छोटी घंटियाँ लगी हैं, वह आकाशमें बिजलीके समान चमक रही है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष ध्वजाग्रे पार्थस्य प्रेक्षमाणः समन्ततः।
दृश्यते वानरो भीमो वीराणां भयवर्धनः ॥ २२ ॥
मूलम्
एष ध्वजाग्रे पार्थस्य प्रेक्षमाणः समन्ततः।
दृश्यते वानरो भीमो वीराणां भयवर्धनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीकुमार अर्जुनकी ध्वजाके अग्रभागमें एक भयंकर वानर दिखायी देता है, जो सब ओर देखता हुआ कौरववीरोंका भय बढ़ा रहा है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्चक्रं गदा शङ्खः शार्ङ्गं कृष्णस्य च प्रभो।
दृश्यते पाण्डवरथे वाहयानस्य वाजिनः ॥ २३ ॥
मूलम्
एतच्चक्रं गदा शङ्खः शार्ङ्गं कृष्णस्य च प्रभो।
दृश्यते पाण्डवरथे वाहयानस्य वाजिनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डुपुत्रके रथपर बैठकर घोड़े हाँकते हुए भगवान् श्रीकृष्णके ये चक्र, गदा, शंख तथा शार्ङ्गधनुष दृष्टिगोचर हो रहे हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् कूजति गाण्डीवं विसृष्टं सव्यसाचिना।
एते हस्तवता मुक्ता घ्नन्त्यमित्रान् शिताः शराः ॥ २४ ॥
मूलम्
एतत् कूजति गाण्डीवं विसृष्टं सव्यसाचिना।
एते हस्तवता मुक्ता घ्नन्त्यमित्रान् शिताः शराः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह सव्यसाचीके द्वारा खींचा गया गाण्डीव धनुष टंकार रहा है, सिद्धहस्त अर्जुनके छोड़े हुए ये पैने बाण शत्रुओंका विनाश कर रहे हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशालायतताम्राक्षैः पूर्णचन्द्रनिभाननैः ।
एषा भूः कीर्यते राज्ञां शिरोभिरपलायिनाम् ॥ २५ ॥
मूलम्
विशालायतताम्राक्षैः पूर्णचन्द्रनिभाननैः ।
एषा भूः कीर्यते राज्ञां शिरोभिरपलायिनाम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते, उन राजाओंके कटे हुए मस्तकोंसे यह रणभूमि पटी जा रही है। उन मस्तकोंके नेत्र बड़े-बड़े और लाल हैं तथा मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते परिघसंकाशाः पुण्यगन्धानुलेपनाः ।
उद्धता रणशूराणां पात्यन्ते सायुधा भुजाः ॥ २६ ॥
मूलम्
एते परिघसंकाशाः पुण्यगन्धानुलेपनाः ।
उद्धता रणशूराणां पात्यन्ते सायुधा भुजाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रणवीरोंकी ये अस्त्र-शस्त्रोंसहित उठी हुई भुजाएँ, जो परिघोंके समान मोटी तथा पवित्र सुगन्धयुक्त चन्दनसे चर्चित हैं, काटकर गिरायी जा रही हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरस्तजिह्वानेत्रान्ता वाजिनः सह सादिभिः।
पतिताः पात्यमानाश्च क्षितौ क्षीणा विशेरते ॥ २७ ॥
मूलम्
निरस्तजिह्वानेत्रान्ता वाजिनः सह सादिभिः।
पतिताः पात्यमानाश्च क्षितौ क्षीणा विशेरते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये कौरवपक्षके सवारोंसहित घोड़े क्षत-विक्षत हो, अर्जुनके द्वारा गिराये जा रहे हैं। इनकी जीभें और आँखें बाहर निकल आयी हैं। ये गिरकर पृथ्वीपर सो रहे हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते पर्वतशृङ्गाणां तुल्या हैमवता गजाः।
संछिन्नकुम्भाः पार्थेन प्रपतन्त्यद्रयो यथा ॥ २८ ॥
मूलम्
एते पर्वतशृङ्गाणां तुल्या हैमवता गजाः।
संछिन्नकुम्भाः पार्थेन प्रपतन्त्यद्रयो यथा ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये हिमाचलप्रदेशके हाथी, जो पर्वत-शिखरोंके समान जान पड़ते हैं, पर्वतोंके समान धराशायी हो रहे हैं। अर्जुनने इनके कुम्भस्थल काट डाले हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वनगराकारा रथा वा ते नरेश्वराः।
विमानादिव पुण्यान्ते स्वर्गिणो निपतन्त्यमी ॥ २९ ॥
मूलम्
गन्धर्वनगराकारा रथा वा ते नरेश्वराः।
विमानादिव पुण्यान्ते स्वर्गिणो निपतन्त्यमी ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये गन्धर्व-नगरके समान विशाल रथ हैं, जिनसे ये मारे गये राजालोग उसी प्रकार नीचे गिर रहे हैं, जैसे पुण्य समाप्त होनेपर स्वर्गवासी प्राणी विमानसे नीचे गिर जाते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्याकुलीकृतमत्यर्थं परसैन्यं किरीटिना ।
नानामृगसहस्राणां यूथं केसरिणां यथा ॥ ३० ॥
मूलम्
व्याकुलीकृतमत्यर्थं परसैन्यं किरीटिना ।
नानामृगसहस्राणां यूथं केसरिणां यथा ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘किरीटधारी अर्जुनने शत्रुसेनाको उसी प्रकार अत्यन्त व्याकुल कर दिया है, जैसे सिंह नाना जातिके सहस्रों मृगोंके झुंडको व्याकुल कर देता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वामभिप्रेप्सुरायाति कर्ण निघ्नन् वरान् रथान्।
असह्यमानो राधेय तं याहि प्रति भारत ॥ ३१ ॥
मूलम्
त्वामभिप्रेप्सुरायाति कर्ण निघ्नन् वरान् रथान्।
असह्यमानो राधेय तं याहि प्रति भारत ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राधापुत्र कर्ण! अर्जुन बड़े-बड़े रथियोंका संहार करते हुए तुम्हें ही प्राप्त करनेके लिये इधर आ रहे हैं। ये शत्रुओंके लिये असह्य हैं। तुम इन भरतवंशी वीरका सामना करनेके लिये आगे बढ़ो॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(घृणां त्यक्त्वा प्रमादं च भृगोरस्त्रं च संस्मर।
दृष्टिं मुष्टिं च संधानं स्मृत्वा रामोपदेशजम्।
धनंजयं जयप्रेप्सुः प्रत्युद्गच्छ महारथम्॥)
मूलम्
(घृणां त्यक्त्वा प्रमादं च भृगोरस्त्रं च संस्मर।
दृष्टिं मुष्टिं च संधानं स्मृत्वा रामोपदेशजम्।
धनंजयं जयप्रेप्सुः प्रत्युद्गच्छ महारथम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! तुम दया और प्रमाद छोड़कर भृगुवंशी परशुरामजीके दिये हुए अस्त्रका स्मरण करो, उनके उपदेशके अनुसार लक्ष्यकी ओर दृष्टि रखना, धनुषको अपनी मुट्ठीसे दृढ़तापूर्वक पकड़े रहना और बाणोंका संधान करना आदि बातें याद करके मनमें विजय पानेकी इच्छा लिये महारथी अर्जुनका सामना करनेके लिये आगे बढ़ो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा विदीर्यते सेना धार्तराष्ट्री समन्ततः।
अर्जुनस्य भयात् तूर्णं निघ्नतः शात्रवान् बहून् ॥ ३२ ॥
मूलम्
एषा विदीर्यते सेना धार्तराष्ट्री समन्ततः।
अर्जुनस्य भयात् तूर्णं निघ्नतः शात्रवान् बहून् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अर्जुन थोड़ी ही देरमें बहुत-से शत्रुओंका संहार कर डालते हैं, इसलिये उनके भयसे दुर्योधनकी यह सेना चारों ओरसे छिन्न-भिन्न होकर भागी जा रही है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्जयन् सर्वसैन्यानि त्वरते हि धनंजयः।
त्वदर्थमिति मन्येऽहं यथास्योदीर्यते वपुः ॥ ३३ ॥
मूलम्
वर्जयन् सर्वसैन्यानि त्वरते हि धनंजयः।
त्वदर्थमिति मन्येऽहं यथास्योदीर्यते वपुः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय अर्जुनका शरीर जैसा उत्तेजित हो रहा है उससे मैं समझता हूँ कि वे सारी सेनाओंको छोड़कर तुम्हारे पास पहुँचनेके लिये जल्दी कर रहे हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यवस्थास्यते पार्थो युयुत्सुः केनचित् सह।
त्वामृते क्रोधदीप्तो हि पीड्यमाने वृकोदरे ॥ ३४ ॥
मूलम्
न ह्यवस्थास्यते पार्थो युयुत्सुः केनचित् सह।
त्वामृते क्रोधदीप्तो हि पीड्यमाने वृकोदरे ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीमसेनके पीड़ित होनेसे अर्जुन क्रोधसे तमतमा उठे हैं, इसलिये आज तुम्हारे सिवा और किसीसे युद्ध करनेके लिये वे नहीं रुक सकेंगे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरथं धर्मराजं तु दृष्ट्वा सुदृढविक्षतम्।
शिखण्डिनं सात्यकिं च धृष्टद्युम्नं च पार्षतम् ॥ ३५ ॥
द्रौपदेयान् युधामन्युमुत्तमौजसमेव च ।
नकुलं सहदेवं च भ्रातरौ द्वौ समीक्ष्य च ॥ ३६ ॥
सहसैकरथः पार्थस्त्वामभ्येति परंतपः ।
क्रोधरक्तेक्षणः क्रुद्धो जिघांसुः सर्वपार्थिवान् ॥ ३७ ॥
मूलम्
विरथं धर्मराजं तु दृष्ट्वा सुदृढविक्षतम्।
शिखण्डिनं सात्यकिं च धृष्टद्युम्नं च पार्षतम् ॥ ३५ ॥
द्रौपदेयान् युधामन्युमुत्तमौजसमेव च ।
नकुलं सहदेवं च भ्रातरौ द्वौ समीक्ष्य च ॥ ३६ ॥
सहसैकरथः पार्थस्त्वामभ्येति परंतपः ।
क्रोधरक्तेक्षणः क्रुद्धो जिघांसुः सर्वपार्थिवान् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमने धर्मराज युधिष्ठिरको अत्यन्त घायल करके रथहीन कर दिया है। शिखण्डी, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, सात्यकि, द्रौपदीके पुत्रों, उत्तमौजा, युधामन्यु तथा दोनों भाई नकुल-सहदेवको भी तुम्हारे हाथों बहुत चोट पहुँची है। यह सब देखकर शत्रुओंको संताप देनेवाले कुन्तीकुमार अर्जुन अत्यन्त कुपित हो उठे हैं। उनके नेत्र रोषसे रक्तवर्ण हो गये हैं, अतः वे समस्त राजाओंका संहार करनेकी इच्छासे एकमात्र रथके साथ सहसा तुम्हारे ऊपर चढ़े आ रहे हैं॥३५—३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वरितोऽभिपतत्यस्मांस्त्यक्त्वा सैन्यान्यसंशयम् ।
त्वं कर्ण प्रतियाह्येनं नास्त्यन्यो हि धनुर्धरः ॥ ३८ ॥
मूलम्
त्वरितोऽभिपतत्यस्मांस्त्यक्त्वा सैन्यान्यसंशयम् ।
त्वं कर्ण प्रतियाह्येनं नास्त्यन्यो हि धनुर्धरः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसमें संदेह नहीं कि वे सारी सेनाओंको छोड़कर बड़ी उतावलीके साथ हमलोगोंपर टूट पड़े हैं; अतः कर्ण! अब तुम भी इनका सामना करनेके लिये आगे बढ़ो, क्योंकि तुम्हारे सिवा दूसरा कोई धनुर्धर ऐसा करनेमें समर्थ नहीं है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तं पश्यामि लोकेऽस्मिंस्त्वत्तो ह्यन्यं धनुर्धरम्।
अर्जुनं समरे क्रुद्धं यो वेलामिव धारयेत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
न तं पश्यामि लोकेऽस्मिंस्त्वत्तो ह्यन्यं धनुर्धरम्।
अर्जुनं समरे क्रुद्धं यो वेलामिव धारयेत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस संसारमें मैं तुम्हारे सिवा दूसरे किसी धनुर्धरको ऐसा नहीं देखता जो समुद्रमें उठे हुए ज्वारके समान समरांगणमें कुपित हुए अर्जुनको रोक सके॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चास्य रक्षां पश्यामि पार्श्वतो न च पृष्ठतः।
एक एवाभियाति त्वां पश्य साफल्यमात्मनः ॥ ४० ॥
मूलम्
न चास्य रक्षां पश्यामि पार्श्वतो न च पृष्ठतः।
एक एवाभियाति त्वां पश्य साफल्यमात्मनः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं देखता हूँ कि अगल-बगलसे या पीछेकी ओरसे उनकी रक्षाका कोई प्रबन्ध नहीं किया गया है। वे अकेले ही तुमपर चढ़ाई कर रहे हैं; अतः देखो, तुम्हें अपनी सफलताके लिये कैसा सुन्दर अवसर हाथ लगा है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि कृष्णौ रणे सक्तः संसाधयितुमाहवे।
तवैव भारो राधेय प्रत्युद्याहि धनंजयम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
त्वं हि कृष्णौ रणे सक्तः संसाधयितुमाहवे।
तवैव भारो राधेय प्रत्युद्याहि धनंजयम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राधापुत्र! रणभूमिमें तुम्हीं श्रीकृष्ण और अर्जुनको परास्त करनेकी शक्ति रखते हो, तुम्हारे ऊपर ही यह भार रखा गया है; इसलिये तुम अर्जुनको रोकनेके लिये आगे बढ़ो॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समानो ह्यसि भीष्मेण द्रोणद्रौणिकृपेण च।
सव्यसाचिनमायान्तं निवारय महारणे ॥ ४२ ॥
मूलम्
समानो ह्यसि भीष्मेण द्रोणद्रौणिकृपेण च।
सव्यसाचिनमायान्तं निवारय महारणे ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्यके समान पराक्रमी हो, अतः इस महासमरमें आक्रमण करते हुए सव्यसाची अर्जुनको रोको॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लेलिहानं यथा सर्पं गर्जन्तमृषभं यथा।
वनस्थितं यथा व्याघ्रं जहि कर्ण धनंजयम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
लेलिहानं यथा सर्पं गर्जन्तमृषभं यथा।
वनस्थितं यथा व्याघ्रं जहि कर्ण धनंजयम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! जीभ लपलपाते हुए सर्प, गर्जते हुए साँड़ और वनवासी व्याघ्रके समान भयंकर अर्जुनका तुम वध करो॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते द्रवन्ति समरे धार्तराष्ट्रा महारथाः।
अर्जुनस्य भयात् तूर्णं निरपेक्षा जनाधिपाः ॥ ४४ ॥
मूलम्
एते द्रवन्ति समरे धार्तराष्ट्रा महारथाः।
अर्जुनस्य भयात् तूर्णं निरपेक्षा जनाधिपाः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो! समरभूमिमें दुर्योधनकी सेनाके ये महारथी नरेश अर्जुनके भयसे आत्मीयजनोंकी भी अपेक्षा न रखकर बड़ी उतावलीके साथ भागे जा रहे हैं॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रवतामथ तेषां तु नान्योऽस्ति युधि मानवः।
भयहा यो भवेद् वीरस्त्वामृते सूतनन्दन ॥ ४५ ॥
मूलम्
द्रवतामथ तेषां तु नान्योऽस्ति युधि मानवः।
भयहा यो भवेद् वीरस्त्वामृते सूतनन्दन ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूतनन्दन! इस युद्धस्थलमें तुम्हारे सिवा ऐसा कोई भी वीर पुरुष नहीं है, जो उन भागते हुए नरेशोंका भय दूर कर सके॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते त्वां कुरवः सर्वे द्वीपमासाद्य संयुगे।
धिष्ठिताः पुरुषव्याघ्र त्वत्तः शरणकाङ्क्षिणः ॥ ४६ ॥
मूलम्
एते त्वां कुरवः सर्वे द्वीपमासाद्य संयुगे।
धिष्ठिताः पुरुषव्याघ्र त्वत्तः शरणकाङ्क्षिणः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषसिंह! इस समुद्र-जैसे युद्धस्थलमें तुम द्वीपके समान हो। ये समस्त कौरव तुमसे शरण पानेकी आशा रखकर, तुम्हारे ही आश्रयमें आकर खड़े हुए हैं॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैदेहाम्बष्ठकाम्बोजास्तथा नग्नजितस्त्वया ।
गान्धाराश्च यया धृत्या जिताः संख्ये सुदुर्जयाः।
तां धृतिं कुरु राधेय ततः प्रत्येहि पाण्डवम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
वैदेहाम्बष्ठकाम्बोजास्तथा नग्नजितस्त्वया ।
गान्धाराश्च यया धृत्या जिताः संख्ये सुदुर्जयाः।
तां धृतिं कुरु राधेय ततः प्रत्येहि पाण्डवम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राधानन्दन! तुमने जिस धैर्यसे पहले अत्यन्त दुर्जय विदेह, अम्बष्ठ, काम्बोज, नग्नजित् तथा गान्धार-गणोंको युद्धमें पराजित किया था, उसीको पुनः अपनाओ और पाण्डुपुत्र अर्जुनका सामना करनेके लिये आगे बढ़ो॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवं च वार्ष्णेयं प्रीयमाणं किरीटिना।
प्रत्युद्याहि महाबाहो पौरुषे महति स्थितः ॥ ४८ ॥
मूलम्
वासुदेवं च वार्ष्णेयं प्रीयमाणं किरीटिना।
प्रत्युद्याहि महाबाहो पौरुषे महति स्थितः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! तुम महान् पुरुषार्थमें स्थित होकर अर्जुनसे सतत प्रसन्न रहनेवाले वृष्णिवंशी, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णका भी सामना करो॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(यथैकेन त्वया पूर्वं कृतो दिग्विजयः पुरा।
मरुत्सूनोर्यथा सूनुर्घातितः शक्रदत्तया ॥
तदेतत् सर्वमालम्ब्य जहि पार्थं धनंजयम्।)
मूलम्
(यथैकेन त्वया पूर्वं कृतो दिग्विजयः पुरा।
मरुत्सूनोर्यथा सूनुर्घातितः शक्रदत्तया ॥
तदेतत् सर्वमालम्ब्य जहि पार्थं धनंजयम्।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे पूर्वकालमें तुमने अकेले ही सम्पूर्ण दिशाओंपर विजय पायी थी, इन्द्रकी दी हुई शक्तिसे भीमपुत्र घटोत्कचका वध किया था, उसी तरह इस सारे बल-पराक्रमका आश्रय ले कुन्तीपुत्र अर्जुनको मार डालो’।
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतिस्थोऽसि मे शल्य इदानीं सम्मतस्तथा।
प्रतिभासि महाबाहो मा भैषीस्त्वं धनंजयात् ॥ ४९ ॥
मूलम्
प्रकृतिस्थोऽसि मे शल्य इदानीं सम्मतस्तथा।
प्रतिभासि महाबाहो मा भैषीस्त्वं धनंजयात् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने कहा— शल्य! इस समय तुम अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित हो और मुझसे सहमत जान पड़ते हो। महाबाहो! तुम अर्जुनसे डरो मत॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य बाह्वोर्बलं मेऽद्य शिक्षितस्य च पश्य मे।
एकोऽद्य निहनिष्यामि पाण्डवानां महाचमूम् ॥ ५० ॥
मूलम्
पश्य बाह्वोर्बलं मेऽद्य शिक्षितस्य च पश्य मे।
एकोऽद्य निहनिष्यामि पाण्डवानां महाचमूम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज मेरी इन दोनों भुजाओंका बल देखो और मेरी शिक्षाकी शक्तिपर भी दृष्टिपात करो। आज मैं अकेला ही पाण्डवोंकी विशाल सेनाका संहार कर डालूँगा॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णौ च पुरुषव्याघ्र ततः सत्यं ब्रवीमि ते।
नाहत्वा युधि तौ वीरौ व्यपयास्ये कथंचन ॥ ५१ ॥
मूलम्
कृष्णौ च पुरुषव्याघ्र ततः सत्यं ब्रवीमि ते।
नाहत्वा युधि तौ वीरौ व्यपयास्ये कथंचन ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ कि युद्धस्थलमें उन दोनों वीर श्रीकृष्ण और अर्जुनका वध किये बिना मैं किसी तरह पीछे नहीं हटूँगा॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्स्ये वा निहतस्ताभ्यामनित्यो हि रणे जयः।
कृतार्थोऽद्य भविष्यामि हत्वा वाप्यथवा हतः ॥ ५२ ॥
मूलम्
स्वप्स्ये वा निहतस्ताभ्यामनित्यो हि रणे जयः।
कृतार्थोऽद्य भविष्यामि हत्वा वाप्यथवा हतः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा उन्हीं दोनोंके हाथों मारा जाकर सदाके लिये सो जाऊँगा, क्योंकि रणमें विजय अनिश्चित होती है। आज मैं उन दोनोंको मारकर अथवा मारा जाकर सर्वथा कृतार्थ हो जाऊँगा॥५२॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजय्यमेनं प्रवदन्ति युद्धे
महारथाः कर्ण रथप्रवीरम् ।
एकाकिनं किमु कृष्णाभिगुप्तं
विजेतुमेनं क इहोत्सहेत ॥ ५३ ॥
मूलम्
अजय्यमेनं प्रवदन्ति युद्धे
महारथाः कर्ण रथप्रवीरम् ।
एकाकिनं किमु कृष्णाभिगुप्तं
विजेतुमेनं क इहोत्सहेत ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्यने कहा— कर्ण! रथियोंमें प्रमुख वीर अर्जुन अकेले भी हों तो महारथी योद्धा उन्हें युद्धमें अजेय बताते हैं, फिर इस समय तो वे श्रीकृष्णसे सुरक्षित हैं; ऐसी दशामें कौन इन्हें जीतनेका साहस कर सकता है?॥५३॥
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतादृशो जातु बभूव लोके
रथोत्तमो यावदुपश्रुतं नः ।
तमीदृशं प्रतियोत्स्यामि पार्थं
महाहवे पश्य च पौरुषं मे ॥ ५४ ॥
मूलम्
नैतादृशो जातु बभूव लोके
रथोत्तमो यावदुपश्रुतं नः ।
तमीदृशं प्रतियोत्स्यामि पार्थं
महाहवे पश्य च पौरुषं मे ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण बोला— शल्य! मैंने जहाँतक सुना है, वहाँतक संसारमें ऐसा श्रेष्ठ महारथी वीर कभी नहीं उत्पन्न हुआ, ऐसे कुन्तीकुमार अर्जुनके साथ मैं महासमरमें युद्ध करूँगा, मेरा पुरुषार्थ देखो॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रणे चरत्येष रथप्रवीरः
सितैर्हयैः कौरवराजपुत्रः ।
स वाद्य मां नेष्यति कृच्छ्रमेतत्
कर्णस्यान्तादेतदन्तास्तु सर्वे ॥ ५५ ॥
मूलम्
रणे चरत्येष रथप्रवीरः
सितैर्हयैः कौरवराजपुत्रः ।
स वाद्य मां नेष्यति कृच्छ्रमेतत्
कर्णस्यान्तादेतदन्तास्तु सर्वे ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये रथियोंमें प्रधान वीर कौरवराजकुमार अर्जुन अपने श्वेत अश्वोंद्वारा रणभूमिमें विचर रहे हैं। ये आज मुझे मृत्युके संकटमें डाल देंगे और मुझ कर्णका अन्त होनेपर कौरवदलके अन्य समस्त योद्धाओंका विनाश भी निश्चित ही है॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्वेदिनौ राजपुत्रस्य हस्ता-
ववेपमानौ जातकिणौ बृहन्तौ ।
दृढायुधः कृतिमान् क्षिप्रहस्तो
न पाण्डवेयेन समोऽस्ति योधः ॥ ५६ ॥
मूलम्
अस्वेदिनौ राजपुत्रस्य हस्ता-
ववेपमानौ जातकिणौ बृहन्तौ ।
दृढायुधः कृतिमान् क्षिप्रहस्तो
न पाण्डवेयेन समोऽस्ति योधः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमार अर्जुनके दोनों विशाल हाथोंमें कभी पसीना नहीं होता, उनमें धनुषकी प्रत्यंचाके चिह्न बन गये हैं और वे दोनों हाथ कभी काँपते नहीं हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र भी सुदृढ़ हैं। वे विद्वान् एवं शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले हैं। पाण्डुपुत्र अर्जुनके समान दूसरा कोई योद्धा नहीं है॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृह्णात्यनेकानपि कङ्कपत्रा-
नेकं यथा तान् प्रतियोज्य चाशु।
ते क्रोशमात्रे निपतन्त्यमोघाः
कस्तेन योधोऽस्ति समः पृथिव्याम् ॥ ५७ ॥
मूलम्
गृह्णात्यनेकानपि कङ्कपत्रा-
नेकं यथा तान् प्रतियोज्य चाशु।
ते क्रोशमात्रे निपतन्त्यमोघाः
कस्तेन योधोऽस्ति समः पृथिव्याम् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कंकपत्रयुक्त अनेक बाणोंको इस प्रकार हाथमें लेते हैं, मानो एक ही बाण हो और उन सबको शीघ्रतापूर्वक धनुषपर रखकर चला देते हैं। वे अमोघ बाण एक कोस दूर जाकर गिरते हैं; अतः इस पृथ्वीपर उनके समान दूसरा योद्धा कौन है?॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतोषयत् खाण्डवे यो हुताशं
कृष्णद्वितीयोऽतिरथस्तरस्वी ।
लेभे चक्रं यत्र कृष्णो महात्मा
धनुर्गाण्डीवं पाण्डवः सव्यसाची ॥ ५८ ॥
मूलम्
अतोषयत् खाण्डवे यो हुताशं
कृष्णद्वितीयोऽतिरथस्तरस्वी ।
लेभे चक्रं यत्र कृष्णो महात्मा
धनुर्गाण्डीवं पाण्डवः सव्यसाची ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन वेगशाली और अतिरथी वीर अर्जुनने अपने दूसरे साथी श्रीकृष्णके साथ जाकर खाण्डववनमें अग्निदेवको तृप्त किया था, जहाँ महात्मा श्रीकृष्णको तो चक्र मिला और पाण्डुपुत्र सव्यसाची अर्जुनने गाण्डीव धनुष प्राप्त किया॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वेताश्वयुक्तं च सुघोषमुग्रं
रथं महाबाहुरदीनसत्त्वः ।
महेषुधी चाक्षये दिव्यरूपे
शस्त्राणि दिव्यानि च हव्यवाहात् ॥ ५९ ॥
मूलम्
श्वेताश्वयुक्तं च सुघोषमुग्रं
रथं महाबाहुरदीनसत्त्वः ।
महेषुधी चाक्षये दिव्यरूपे
शस्त्राणि दिव्यानि च हव्यवाहात् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदार अन्तःकरणवाले महाबाहु अर्जुनने अग्निदेवसे श्वेत घोड़ोंसे जुता हुआ गम्भीर घोष करनेवाला एक भयंकर रथ, दो दिव्य विशाल और अक्षय तरकस तथा अलौकिक अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेन्द्रलोके निजघान दैत्या-
नसंख्येयान् कालकेयांश्च सर्वान् ।
लेभे शङ्खं देवदत्तं स्म तत्र
को नाम तेनाभ्यधिकः पृथिव्याम् ॥ ६० ॥
मूलम्
तथेन्द्रलोके निजघान दैत्या-
नसंख्येयान् कालकेयांश्च सर्वान् ।
लेभे शङ्खं देवदत्तं स्म तत्र
को नाम तेनाभ्यधिकः पृथिव्याम् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने इन्द्रलोकमें जाकर असंख्य कालकेय नामक सम्पूर्ण दैत्योंका संहार किया और वहाँ देवदत्त नामक शंख प्राप्त किया; अतः इस पृथ्वीपर उनसे अधिक कौन है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महादेवं तोषयामास योऽस्त्रैः
साक्षात् सुयुद्धेन महानुभावः ।
लेभे ततः पाशुपतं सुघोरं
त्रैलोक्यसंहारकरं महास्त्रम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
महादेवं तोषयामास योऽस्त्रैः
साक्षात् सुयुद्धेन महानुभावः ।
लेभे ततः पाशुपतं सुघोरं
त्रैलोक्यसंहारकरं महास्त्रम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन महानुभावने अस्त्रोंद्वारा उत्तम युद्ध करके साक्षात् महादेवजीको संतुष्ट किया और उनसे त्रिलोकीका संहार करनेमें समर्थ अत्यन्त भयंकर पाशुपतनामक महान् अस्त्र प्राप्त कर लिया॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथक् पृथग्लोकपालाः समेता
ददुर्महास्त्राण्यप्रमेयाणि संख्ये ।
यैस्ताञ्जघानाशु रणे नृसिंहः
सकालकेयानसुरान् समेतान् ॥ ६२ ॥
मूलम्
पृथक् पृथग्लोकपालाः समेता
ददुर्महास्त्राण्यप्रमेयाणि संख्ये ।
यैस्ताञ्जघानाशु रणे नृसिंहः
सकालकेयानसुरान् समेतान् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भिन्न-भिन्न लोकपालोंने आकर उन्हें ऐसे महान् अस्त्र प्रदान किये जो युद्धस्थलमें अपना सानी नहीं रखते। उन पुरुषसिंहने रणभूमिमें उन्हीं अस्त्रोंद्वारा संगठित होकर आये हुए कालकेय नामक असुरोंका शीघ्र ही संहार कर डाला॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा विराटस्य पुरे समेतान्
सर्वानस्मानेकरथेन जित्वा ।
जहार तद् गोधनमाजिमध्ये
वस्त्राणि चादत्त महारथेभ्यः ॥ ६३ ॥
मूलम्
तथा विराटस्य पुरे समेतान्
सर्वानस्मानेकरथेन जित्वा ।
जहार तद् गोधनमाजिमध्ये
वस्त्राणि चादत्त महारथेभ्यः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार विराटनगरमें एकत्र हुए हम सब लोगोंको एकमात्र रथके द्वारा युद्धमें जीतकर अर्जुनने उस विराटका गोधन लौटा लिया और महारथियोंके शरीरोंसे वस्त्र भी उतार लिये॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमीदृशं वीर्यगुणोपपन्नं
कृष्णद्वितीयं परमं नृपाणाम् ।
तमाह्वयन् साहसमुत्तमं वै
जाने स्वयं सर्वलोकस्य शल्य ॥ ६४ ॥
मूलम्
तमीदृशं वीर्यगुणोपपन्नं
कृष्णद्वितीयं परमं नृपाणाम् ।
तमाह्वयन् साहसमुत्तमं वै
जाने स्वयं सर्वलोकस्य शल्य ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्य! इस प्रकार जो पराक्रमसम्बन्धी गुणोंसे सम्पन्न, श्रीकृष्णकी सहायतासे युक्त और क्षत्रियोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं, उन्हें युद्धके लिये ललकारना सम्पूर्ण जगत्के लिये बहुत बड़े साहसका काम है; इस बातको मैं स्वयं भी जानता हूँ॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्तवीर्येण च केशवेन
नारायणेनाप्रतिमेन गुप्तः ।
वर्षायुतैर्यस्य गुणा न शक्या
वक्तुं समेतैरपि सर्वलोकैः ॥ ६५ ॥
महात्मनः शङ्खचक्रासिपाणे-
र्विष्णोर्जिष्णोर्वसुदेवात्मजस्य ।
मूलम्
अनन्तवीर्येण च केशवेन
नारायणेनाप्रतिमेन गुप्तः ।
वर्षायुतैर्यस्य गुणा न शक्या
वक्तुं समेतैरपि सर्वलोकैः ॥ ६५ ॥
महात्मनः शङ्खचक्रासिपाणे-
र्विष्णोर्जिष्णोर्वसुदेवात्मजस्य ।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन उन अनन्त पराक्रमी, उपमारहित, नारायणावतार, हाथोंमें शंख, चक्र और खड्ग धारण करनेवाले, विष्णुस्वरूप, विजयशील, वसुदेवपुत्र महात्मा भगवान् श्रीकृष्णसे सुरक्षित हैं; जिनके गुणोंका वर्णन सम्पूर्ण जगत्के लोग मिलकर दस हजार वर्षोंमें भी नहीं कर सकते॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भयं मे वै जायते साध्वसं च
दृष्ट्वा कृष्णावेकरथे समेतौ ॥ ६६ ॥
अतीव पार्थो युधि कार्मुकिभ्यो
नारायणश्चाप्रति चक्रयुद्धे ।
एवंविधौ पाण्डववासुदेवौ
चलेत् स्वदेशाद्धिमवान् न कृष्णौ ॥ ६७ ॥
मूलम्
भयं मे वै जायते साध्वसं च
दृष्ट्वा कृष्णावेकरथे समेतौ ॥ ६६ ॥
अतीव पार्थो युधि कार्मुकिभ्यो
नारायणश्चाप्रति चक्रयुद्धे ।
एवंविधौ पाण्डववासुदेवौ
चलेत् स्वदेशाद्धिमवान् न कृष्णौ ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण और अर्जुनको एक रथपर मिले हुए देखकर मुझे बड़ा भय लगता है, मेरा हृदय घबरा उठता है। अर्जुन युद्धमें समस्त धनुर्धरोंसे बढ़कर हैं और नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण भी चक्र-युद्धमें अपना सानी नहीं रखते। पाण्डुपुत्र अर्जुन और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण दोनों ऐसे ही पराक्रमी हैं। हिमालय भले ही अपने स्थानसे हट जाय; किंतु दोनों कृष्ण अपनी मर्यादासे विचलित नहीं हो सकते॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभौ हि शूरौ बलिनौ दृढायुधौ
महारथौ संहननोपपन्नौ ।
एतादृशौ फाल्गुनवासुदेवौ
कोऽन्यः प्रतीयान्मदृते तौ तु शल्य ॥ ६८ ॥
मूलम्
उभौ हि शूरौ बलिनौ दृढायुधौ
महारथौ संहननोपपन्नौ ।
एतादृशौ फाल्गुनवासुदेवौ
कोऽन्यः प्रतीयान्मदृते तौ तु शल्य ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों ही शौर्यसम्पन्न, बलवान्, सुदृढ़ आयुधोंवाले और महारथी हैं, उनके शरीर सुगठित एवं शक्तिशाली हैं। शल्य! ऐसे अर्जुन और श्रीकृष्णका सामना करनेके लिये मेरे सिवा दूसरा कौन जा सकता है?॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोरथो यस्तु ममाद्य तस्य
मद्रेश युद्धं प्रति पाण्डवस्य।
नैतच्चिरादाशु भविष्यतीद-
मत्यद्भुतं चित्रमतुल्यरूपम् ॥ ६९ ॥
एतौ च हत्वा युधि पातयिष्ये
मां वापि कृष्णौ निहनिष्यतोऽद्य।
मूलम्
मनोरथो यस्तु ममाद्य तस्य
मद्रेश युद्धं प्रति पाण्डवस्य।
नैतच्चिरादाशु भविष्यतीद-
मत्यद्भुतं चित्रमतुल्यरूपम् ॥ ६९ ॥
एतौ च हत्वा युधि पातयिष्ये
मां वापि कृष्णौ निहनिष्यतोऽद्य।
अनुवाद (हिन्दी)
मद्रराज! अर्जुनके साथ युद्धके विषयमें जो आज मेरा मनोरथ है, वह अविलम्ब और शीघ्र सफल होगा। यह युद्ध अत्यन्त अद्भुत, विचित्र और अनुपम होगा। मैं युद्धस्थलमें इन दोनोंको मार गिराऊँगा अथवा वे दोनों ही कृष्ण मुझे मार डालेंगे॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवन् शल्यममित्रहन्ता
कर्णो रणे मेघ इवोन्ननाद ॥ ७० ॥
अभ्येत्य पुत्रेण तवाभिनन्दितः
समेत्य चोवाच कुरुप्रवीरम् ।
कृपं च भोजं च महाभुजावुभौ
तथैव गान्धारपतिं सहानुजम् ॥ ७१ ॥
गुरोः सुतं चावरजं तथाऽऽत्मनः
पदातिनोऽथ द्विपसादिनश्च तान् ।
निरुध्यताभिद्रवताच्युतार्जुनौ
श्रमेण संयोजयताशु सर्वशः ॥ ७२ ॥
यथा भवद्भिर्भृशविक्षितावुभौ
सुखेन हन्यामहमद्य भूमिपाः ।
मूलम्
इति ब्रुवन् शल्यममित्रहन्ता
कर्णो रणे मेघ इवोन्ननाद ॥ ७० ॥
अभ्येत्य पुत्रेण तवाभिनन्दितः
समेत्य चोवाच कुरुप्रवीरम् ।
कृपं च भोजं च महाभुजावुभौ
तथैव गान्धारपतिं सहानुजम् ॥ ७१ ॥
गुरोः सुतं चावरजं तथाऽऽत्मनः
पदातिनोऽथ द्विपसादिनश्च तान् ।
निरुध्यताभिद्रवताच्युतार्जुनौ
श्रमेण संयोजयताशु सर्वशः ॥ ७२ ॥
यथा भवद्भिर्भृशविक्षितावुभौ
सुखेन हन्यामहमद्य भूमिपाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! शत्रुहन्ता कर्ण शल्यसे ऐसा कहकर रणभूमिमें मेघके समान उच्चस्वरसे गर्जना करने लगा। उस समय आपके पुत्र दुर्योधनने निकट आकर उसका अभिनन्दन किया। उससे मिलकर कर्णने कुरुकुलके उस प्रमुख वीरसे, महाबाहु कृपाचार्य और कृतवर्मासे, भाइयोंसहित गान्धारराज शकुनिसे, गुरुपुत्र अश्वत्थामासे, अपने छोटे भाईसे तथा पैदल और गजारोही सैनिकोंसे इस प्रकार कहा—‘वीरो! श्रीकृष्ण और अर्जुनपर धावा करो, उन्हें आगे बढ़नेसे रोको तथा शीघ्र ही सब प्रकारसे प्रयत्न करके उन्हें परिश्रमसे थका दो। भूमिपालो! ऐसा करो, जिससे तुम्हारेद्वारा अत्यन्त क्षत-विक्षत हुए उन दोनों कृष्णोंको आज मैं सुखपूर्वक मार सकूँ’॥७०—७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति चोक्त्वा त्वरिताः स्म तेऽर्जुनं
जिघांसवो वीरतराः समभ्ययुः ॥ ७३ ॥
शरैश्च जघ्नुर्युधि तं महारथा
धनंजयं कर्णनिदेशकारिणः ।
मूलम्
तथेति चोक्त्वा त्वरिताः स्म तेऽर्जुनं
जिघांसवो वीरतराः समभ्ययुः ॥ ७३ ॥
शरैश्च जघ्नुर्युधि तं महारथा
धनंजयं कर्णनिदेशकारिणः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे अत्यन्त वीर सैनिक बड़ी उतावलीके साथ अर्जुनको मार डालनेके लिये एक साथ आगे बढ़े। कर्णकी आज्ञाका पालन करनेवाले वे महारथी योद्धा युद्धस्थलमें बाणोंद्वारा अर्जुनको चोट पहुँचाने लगे॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदीनदं भूरिजलो महार्णवो
यथा तथा तान् समरेऽर्जुनोऽग्रसत् ॥ ७४ ॥
न संदधानो न तथा शरोत्तमान्
प्रमुञ्चमानो रिपुभिः प्रदृश्यते ।
धनंजयास्तैस्तु शरैर्विदारिता
हता निपेतुर्नरवाजिकुञ्जराः ॥ ७५ ॥
मूलम्
नदीनदं भूरिजलो महार्णवो
यथा तथा तान् समरेऽर्जुनोऽग्रसत् ॥ ७४ ॥
न संदधानो न तथा शरोत्तमान्
प्रमुञ्चमानो रिपुभिः प्रदृश्यते ।
धनंजयास्तैस्तु शरैर्विदारिता
हता निपेतुर्नरवाजिकुञ्जराः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जैसे प्रचुर जलसे भरा हुआ महासागर नदियों और नदोंके जलको आत्मसात् कर लेता है, उसी प्रकार अर्जुनने समरांगणमें उन सब वीरोंको ग्रस लिया। वे कब धनुषपर उत्तम बाणोंका संधान करते और कब उन्हें छोड़ते हैं, यह शत्रुओंको नहीं दिखायी देता था; किंतु अर्जुनके बाणोंसे विदीर्ण हुए हाथी, घोड़े और मनुष्य प्राणशून्य हो धड़ाधड़ गिरते जा रहे थे॥७४-७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरार्चिषं गाण्डिवचारुमण्डलं
युगान्तसूर्यप्रतिमानतेजसम् ।
न कौरवाः शेकुरुदीक्षितुं जयं
यथा रविं व्याधितचक्षुषो जनाः ॥ ७६ ॥
मूलम्
शरार्चिषं गाण्डिवचारुमण्डलं
युगान्तसूर्यप्रतिमानतेजसम् ।
न कौरवाः शेकुरुदीक्षितुं जयं
यथा रविं व्याधितचक्षुषो जनाः ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अर्जुन प्रलयकालके सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ते थे। उनके बाण किरण-समूहोंके समान सब ओर छिटक रहे थे। खींचा हुआ गाण्डीव धनुष सूर्यके मनोहर मण्डल-सा प्रतीत होता था। जैसे रोगी नेत्रोंवाले मनुष्य सूर्यकी ओर नहीं देख सकते, उसी प्रकार कौरव अर्जुनकी ओर देखनेमें असमर्थ हो गये थे॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरोत्तमान् सम्प्रहितान् महारथै-
श्चिच्छेद पार्थः प्रहसन् शरौघैः।
भूयश्च तानहनद् बाणसङ्घान्
गाण्डीवधन्वायतपूर्णमण्डलः ॥ ७७ ॥
मूलम्
शरोत्तमान् सम्प्रहितान् महारथै-
श्चिच्छेद पार्थः प्रहसन् शरौघैः।
भूयश्च तानहनद् बाणसङ्घान्
गाण्डीवधन्वायतपूर्णमण्डलः ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवमहारथियोंके चलाये हुए उत्तम बाणोंको कुन्तीकुमारने अपने शरसमूहोंद्वारा हँसते-हँसते काट दिया। उनका गाण्डीव धनुष खींचा जाकर पूरा मण्डलाकार बन गया था और उसके द्वारा वे उन शत्रु-सैनिकोंपर बारंबार बाणसमूहोंका प्रहार करते थे॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोग्ररश्मिः शुचिशुक्रमध्यगः
सुखं विवस्वान् हरते जलौघान्।
तथार्जुनो बाणगणान् निरस्य
ददाह सेनां तव पार्थिवेन्द्र ॥ ७८ ॥
मूलम्
यथोग्ररश्मिः शुचिशुक्रमध्यगः
सुखं विवस्वान् हरते जलौघान्।
तथार्जुनो बाणगणान् निरस्य
ददाह सेनां तव पार्थिवेन्द्र ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! जैसे ज्येष्ठ और आषाढ़के मध्यवर्ती प्रचण्ड किरणोंवाले सूर्यदेव धरतीके जलसमूहोंको अनायास ही सोख लेते हैं, उसी प्रकार अर्जुन अपने बाणसमूहोंका प्रहार करके आपकी सेनाको भस्म करने लगे॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमभ्यधावद् विसृजन् कृपः शरां-
स्तथैव भोजस्तव चात्मजः स्वयम्।
महारथो द्रोणसुतश्च सायकै-
रवाकिरंस्तोयधरा यथाचलम् ॥ ७९ ॥
मूलम्
तमभ्यधावद् विसृजन् कृपः शरां-
स्तथैव भोजस्तव चात्मजः स्वयम्।
महारथो द्रोणसुतश्च सायकै-
रवाकिरंस्तोयधरा यथाचलम् ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कृपाचार्य उनपर बाणसमूहोंकी वर्षा करते हुए उनकी ओर दौड़े। इसी प्रकार कृतवर्मा, आपके पुत्र स्वयं राजा दुर्योधन और महारथी अश्वत्थामा भी पर्वतपर वर्षा करनेवाले बादलोंके समान अर्जुनपर बाणोंकी वृष्टि करने लगे॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिघांसुभिस्तान् कुशलः शरोत्तमान्
महाहवे सम्प्रहितान् प्रयत्नतः ।
शरैः प्रचिच्छेद स पाण्डवस्त्वरन्
पराभिनद् वक्षसि चेषुभिस्त्रिभिः ॥ ८० ॥
मूलम्
जिघांसुभिस्तान् कुशलः शरोत्तमान्
महाहवे सम्प्रहितान् प्रयत्नतः ।
शरैः प्रचिच्छेद स पाण्डवस्त्वरन्
पराभिनद् वक्षसि चेषुभिस्त्रिभिः ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वधकी इच्छासे आक्रमण करनेवाले उन सब योद्धाओंद्वारा प्रयत्नपूर्वक चलाये गये उन उत्तम बाणोंको महासमरमें युद्धकुशल पाण्डुपुत्र अर्जुनने तुरंत ही अपने बाणोंद्वारा काट डाला और उन सबकी छातीमें तीन-तीन बाण मारे॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गाण्डिवव्यायतपूर्णमण्डल-
स्तपन् रिपूनर्जुनभास्करो बभौ ।
शरोग्ररश्मिः शुचिशुक्रमध्यगो
यथैव सूर्यः परिवेषवांस्तथा ॥ ८१ ॥
मूलम्
स गाण्डिवव्यायतपूर्णमण्डल-
स्तपन् रिपूनर्जुनभास्करो बभौ ।
शरोग्ररश्मिः शुचिशुक्रमध्यगो
यथैव सूर्यः परिवेषवांस्तथा ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खींचे हुए गाण्डीव धनुषरूपी पूर्ण मण्डलसे युक्त अर्जुनरूपी सूर्य अपनी बाणरूपी प्रचण्ड किरणोंसे प्रकाशित हो शत्रुओंको संताप देते हुए ज्येष्ठ और आषाढ़के मध्यवर्ती उस सूर्यके समान सुशोभित हो रहे थे, जिसपर घेरा पड़ा हुआ हो॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाग्र्यबाणैर्दशभिर्धनंजयं
पराभिनद् द्रोणसुतोऽच्युतं त्रिभिः ।
चतुर्भिरश्वांश्चतुरः कपिं ततः
शरैश्च नाराचवरैरवाकिरत् ॥ ८२ ॥
मूलम्
अथाग्र्यबाणैर्दशभिर्धनंजयं
पराभिनद् द्रोणसुतोऽच्युतं त्रिभिः ।
चतुर्भिरश्वांश्चतुरः कपिं ततः
शरैश्च नाराचवरैरवाकिरत् ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने दस बाणोंसे अर्जुनको, तीनसे भगवान् श्रीकृष्णको और चारसे उनके चारों घोड़ोंको घायल कर दिया। तत्पश्चात् वह ध्वजापर बैठे हुए वानरके ऊपर बाणों तथा उत्तम नाराचोंकी वर्षा करने लगा॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथापि तं प्रस्फुरदात्तकार्मुकं
त्रिभिः शरैर्यन्तृशिरः क्षुरेण ।
हयांश्चतुर्भिश्च पुनस्त्रिभिर्ध्वजं
धनंजयो द्रौणिरथादपातयत् ॥ ८३ ॥
मूलम्
तथापि तं प्रस्फुरदात्तकार्मुकं
त्रिभिः शरैर्यन्तृशिरः क्षुरेण ।
हयांश्चतुर्भिश्च पुनस्त्रिभिर्ध्वजं
धनंजयो द्रौणिरथादपातयत् ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अर्जुनने तीन बाणोंसे चमकते हुए उसके धनुषको, एक छुरके द्वारा सारथिके मस्तकको, चार बाणोंसे उसके चारों घोड़ोंको तथा तीनसे उसके ध्वजको भी अश्वत्थामाके रथसे नीचे गिरा दिया॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रोषपूर्णो मणिवज्रहाटकै-
रलङ्कृतं तक्षकभोगवर्चसम् ।
महाधनं कार्मुकमन्यदाददे
यथा महाहिप्रवरं गिरेस्तटात् ॥ ८४ ॥
मूलम्
स रोषपूर्णो मणिवज्रहाटकै-
रलङ्कृतं तक्षकभोगवर्चसम् ।
महाधनं कार्मुकमन्यदाददे
यथा महाहिप्रवरं गिरेस्तटात् ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर अश्वत्थामाने रोषमें भरकर मणि, हीरा और सुवर्णसे अलंकृत तथा तक्षकके शरीरकी भाँति अरुण कान्तिवाले दूसरे बहुमूल्य धनुषको हाथमें लिया, मानो पर्वतके किनारेसे विशाल अजगरको उठा लिया हो॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमायुधं चोपनिकीर्य भूतले
धनुश्च कृत्वा सगुणं गुणाधिकः।
समार्दयत्तावजितौ नरोत्तमौ
शरोत्तमैर्द्रौणिरविध्यदन्तिकात् ॥ ८५ ॥
मूलम्
स्वमायुधं चोपनिकीर्य भूतले
धनुश्च कृत्वा सगुणं गुणाधिकः।
समार्दयत्तावजितौ नरोत्तमौ
शरोत्तमैर्द्रौणिरविध्यदन्तिकात् ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने टूटे हुए धनुषको पृथ्वीपर फेंककर अधिक गुणशाली अश्वत्थामाने उस धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ायी और किसीसे पराजित न होनेवाले उन दोनों नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुनको उत्तम बाणोंद्वारा निकटसे पीड़ित एवं घायल करना आरम्भ किया॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपश्च भोजश्च तवात्मजश्च ते
शरैरनेकैर्युधि पाण्डवर्षभम् ।
महारथाः संयुगमूर्धनि स्थिता-
स्तमोनुदं वारिधरा इवापतन् ॥ ८६ ॥
मूलम्
कृपश्च भोजश्च तवात्मजश्च ते
शरैरनेकैर्युधि पाण्डवर्षभम् ।
महारथाः संयुगमूर्धनि स्थिता-
स्तमोनुदं वारिधरा इवापतन् ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धके मुहानेपर खड़े हुए कृपाचार्य, कृतवर्मा और आपके पुत्र दुर्योधन—ये तीन महारथी युद्धस्थलमें अनेक बाणोंद्वारा पाण्डवप्रवर अर्जुनको चोट पहुँचाने लगे, मानो बहुत-से मेघ सूर्यदेवपर टूट पड़े हों॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपस्य पार्थः सशरं शरासनं
हयान् ध्वजान् सारथिमेव पत्रिभिः।
समार्पयद् बाहुसहस्रविक्रम-
स्तथा यथा वज्रधरः पुरा बलेः ॥ ८७ ॥
मूलम्
कृपस्य पार्थः सशरं शरासनं
हयान् ध्वजान् सारथिमेव पत्रिभिः।
समार्पयद् बाहुसहस्रविक्रम-
स्तथा यथा वज्रधरः पुरा बलेः ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्र भुजाओंवाले कार्तवीर्य अर्जुनके समान पराक्रमी कुन्तीकुमार अर्जुनने अपने बाणोंद्वारा कृपाचार्यके बाणसहित धनुष, घोड़े, ध्वज और सारथिको भी उसी प्रकार बींध डाला, जैसे पूर्वकालमें वज्रधारी इन्द्रने राजा बलिके धनुष आदिको क्षतिग्रस्त कर दिया था॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पार्थबाणैर्विनिपातितायुधो
ध्वजावमर्दे च कृते महाहवे।
कृतः कृपो बाणसहस्रयन्त्रितो
यथाऽऽपगेयः प्रथमं किरीटिना ॥ ८८ ॥
मूलम्
स पार्थबाणैर्विनिपातितायुधो
ध्वजावमर्दे च कृते महाहवे।
कृतः कृपो बाणसहस्रयन्त्रितो
यथाऽऽपगेयः प्रथमं किरीटिना ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महासमरमें अर्जुनके बाणोंद्वारा जब कृपाचार्यके आयुध नीचे गिरा दिये गये और ध्वज खण्डित कर दिया गया, उस समय किरीटधारी अर्जुनने जैसे पहले भीष्मजीको सहस्रों बाणोंसे आवेष्टित कर दिया था, उसी प्रकार कृपाचार्यको हजारों बाणोंसे बाँध-सा लिया॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरैः प्रचिच्छेद तवात्मजस्य
ध्वजं धनुश्च प्रचकर्त नर्दतः।
जघान चाश्वान् कृतवर्मणः शुभान्
ध्वजं च चिच्छेद ततः प्रतापवान् ॥ ८९ ॥
मूलम्
शरैः प्रचिच्छेद तवात्मजस्य
ध्वजं धनुश्च प्रचकर्त नर्दतः।
जघान चाश्वान् कृतवर्मणः शुभान्
ध्वजं च चिच्छेद ततः प्रतापवान् ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् प्रतापी अर्जुनने गर्जना करनेवाले आपके पुत्र दुर्योधनके ध्वज और धनुषको अपने बाणोंद्वारा काट दिया। फिर कृतवर्माके सुन्दर घोड़ोंको मार डाला और उसकी ध्वजाके भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सवाजिसूतेष्वसनान् सकेतनान्
जघान नागाश्वरथांस्त्वरंश्च सः ।
ततः प्रकीर्णं सुमहद् बलं तव
प्रदारितः सेतुरिवाम्भसा यथा ॥ ९० ॥
मूलम्
सवाजिसूतेष्वसनान् सकेतनान्
जघान नागाश्वरथांस्त्वरंश्च सः ।
ततः प्रकीर्णं सुमहद् बलं तव
प्रदारितः सेतुरिवाम्भसा यथा ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद अर्जुनने बड़ी उतावलीके साथ घोड़े, सारथि, धनुष और ध्वजाओंसहित रथों, हाथियों और अश्वोंकी भी मारना आरम्भ किया। फिर तो पानीसे टूटे हुए पुलके समान आपकी वह विशाल सेना सब ओर बिखर गयी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनस्याशु रथेन केशव-
श्चकार शत्रूनपसव्यमातुरान् ।
ततः प्रयातं त्वरितं धनंजयं
शतक्रतुं वृत्रनिजघ्नुषं यथा ॥ ९१ ॥
समन्वधावन् पुनरुत्थितैर्ध्वजै
रथैः सुयुक्तैरपरे युयुत्सवः ।
मूलम्
ततोऽर्जुनस्याशु रथेन केशव-
श्चकार शत्रूनपसव्यमातुरान् ।
ततः प्रयातं त्वरितं धनंजयं
शतक्रतुं वृत्रनिजघ्नुषं यथा ॥ ९१ ॥
समन्वधावन् पुनरुत्थितैर्ध्वजै
रथैः सुयुक्तैरपरे युयुत्सवः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर श्रीकृष्णने व्याकुल हुए समस्त शत्रुओंको अपने रथके द्वारा शीघ्र ही दाहिने कर दिया। फिर वृत्रासुरको मारनेकी इच्छासे आगे बढ़नेवाले इन्द्रके समान वेगपूर्वक आगे जाते हुए धनंजयपर दूसरे योद्धाओंने ऊँचे किये ध्वजवाले सुसज्जित रथोंद्वारा पुनः धावा किया॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाभिसृत्य प्रतिवार्य तानरीन्
धनंजयस्याभिमुखं महारथाः ॥ ९२ ॥
शिखण्डिशैनेययमाः शितैः शरै-
र्विदारयन्तो व्यनदन् सुभैरवम् ।
मूलम्
अथाभिसृत्य प्रतिवार्य तानरीन्
धनंजयस्याभिमुखं महारथाः ॥ ९२ ॥
शिखण्डिशैनेययमाः शितैः शरै-
र्विदारयन्तो व्यनदन् सुभैरवम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके सम्मुख जाते हुए उन शत्रुओंके सामने पहुँचकर महारथी शिखण्डी, सात्यकि, नकुल और सहदेवने उन्हें रोका और पैने बाणोंद्वारा उन सबको विदीर्ण करते हुए भयंकर गर्जना की॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभिजघ्नुः कुपिताः परस्परं
शरैस्तदाञ्जोगतिभिः सुतेजनैः ॥ ९३ ॥
कुरुप्रवीराः सह सृञ्जयैर्यथा-
सुराः पुरा देवगणैस्तथाऽऽहवे ।
मूलम्
ततोऽभिजघ्नुः कुपिताः परस्परं
शरैस्तदाञ्जोगतिभिः सुतेजनैः ॥ ९३ ॥
कुरुप्रवीराः सह सृञ्जयैर्यथा-
सुराः पुरा देवगणैस्तथाऽऽहवे ।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् सृंजयोंके साथ भिड़े हुए कौरव वीर कुपित हो शीघ्रगामी और तेज बाणोंद्वारा एक-दूसरेपर उसी प्रकार चोट करने लगे, जैसे पूर्वकालमें देवताओंके साथ युद्ध करनेवाले असुरोंने संग्राममें परस्पर प्रहार किया था॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयेप्सवः स्वर्गमनाय चोत्सुकाः
पतन्ति नागाश्वरथाः परंतप ॥ ९४ ॥
जगर्जुरुच्चैर्बलवच्च विव्यधुः
शरैः सुमुक्तैरितरेतरं पृथक् ।
मूलम्
जयेप्सवः स्वर्गमनाय चोत्सुकाः
पतन्ति नागाश्वरथाः परंतप ॥ ९४ ॥
जगर्जुरुच्चैर्बलवच्च विव्यधुः
शरैः सुमुक्तैरितरेतरं पृथक् ।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंको तपानेवाले नरेश! हाथीसवार, घुड़सवार तथा रथी योद्धा विजय चाहते हुए स्वर्गलोकमें जानेके लिये उत्सुक हो शत्रुओंपर टूट पड़ते, उच्च स्वरसे गर्जते और अच्छी तरह छोड़े हुए बाणोंद्वारा एक-दूसरेको पृथक्-पृथक् गहरी चोट पहुँचाते थे॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरान्धकारे तु महात्मभिः कृते
महामृधे योधवरैः परस्परम् ।
चतुर्दिशो वै विदिशश्च पार्थिव
प्रभा च सूर्यस्थ तमोवृताभवत् ॥ ९५ ॥
मूलम्
शरान्धकारे तु महात्मभिः कृते
महामृधे योधवरैः परस्परम् ।
चतुर्दिशो वै विदिशश्च पार्थिव
प्रभा च सूर्यस्थ तमोवृताभवत् ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस महासमरमें महामनस्वी श्रेष्ठ योद्धाओंने परस्पर छोड़े हुए बाणोंद्वारा घोर अन्धकार फैला दिया। चारों दिशाएँ, विदिशाएँ तथा सूर्यकी प्रभा भी उस अन्धकारसे आच्छादित हो गयीं॥९५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि संकुलयुद्धे एकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें संकुलयुद्धविषयक उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७९॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ९८ श्लोक हैं।)