भागसूचना
षट्षष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरका अर्जुनसे भ्रमवश कर्णके मारे जानेका वृत्तान्त पूछना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वागतं देवकीमातः स्वागतं ते धनंजय।
प्रियं मे दर्शनं गाढं युवयोरच्युतार्जुनौ ॥ १ ॥
अक्षताभ्यामरिष्टाभ्यां हतः कर्णो महारथः।
मूलम्
स्वागतं देवकीमातः स्वागतं ते धनंजय।
प्रियं मे दर्शनं गाढं युवयोरच्युतार्जुनौ ॥ १ ॥
अक्षताभ्यामरिष्टाभ्यां हतः कर्णो महारथः।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— देवकीनन्दन! तुम्हारा स्वागत हो। धनंजय! तुम्हारा भी स्वागत है। श्रीकृष्ण और अर्जुन! इस समय तुम दोनोंका दर्शन मुझे अत्यन्त प्रिय लगा है; क्योंकि तुम दोनोंने स्वयं किसी प्रकारकी क्षति न उठाकर सकुशल रहते हुए महारथी कर्णको मार डाला है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीविषसमं युद्धे सर्वशस्त्रविशारदम् ॥ २ ॥
अग्रगं धार्तराष्ट्राणां सर्वेषां शर्म वर्म च।
रक्षितं वृषसेनेन सुषेणेन च धन्विना ॥ ३ ॥
मूलम्
आशीविषसमं युद्धे सर्वशस्त्रविशारदम् ॥ २ ॥
अग्रगं धार्तराष्ट्राणां सर्वेषां शर्म वर्म च।
रक्षितं वृषसेनेन सुषेणेन च धन्विना ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण युद्धमें विषधर सर्पके समान भयंकर, सम्पूर्ण शस्त्र-विद्याओंमें निपुण तथा कौरवोंका अगुआ था। वह शत्रुपक्षमें सबका कल्याण-साधक और कवच बना हुआ था। वृषसेन और सुषेण-जैसे धनुर्धर उसकी रक्षा करते थे॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञातं महावीर्यं रामेणास्त्रे सुदुर्जयम्।
अग्र्यं सर्वस्य लोकस्य रथिनं लोकविश्रुतम् ॥ ४ ॥
मूलम्
अनुज्ञातं महावीर्यं रामेणास्त्रे सुदुर्जयम्।
अग्र्यं सर्वस्य लोकस्य रथिनं लोकविश्रुतम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामजीसे अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करके वह महान् शक्तिशाली और अत्यन्त दुर्जय हो गया था। समस्त संसारका सर्वश्रेष्ठ रथी एवं विश्वविख्यात वीर था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रातारं धार्तराष्ट्राणां गन्तारं वाहिनीमुखे।
हन्तारं परसैन्यानाममित्रगणमर्दनम् ॥ ५ ॥
मूलम्
त्रातारं धार्तराष्ट्राणां गन्तारं वाहिनीमुखे।
हन्तारं परसैन्यानाममित्रगणमर्दनम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रपुत्रोंका रक्षक, सेनाके मुहानेपर जाकर युद्ध करनेवाला, शत्रुसैनिकोंका संहार करनेमें समर्थ तथा विरोधियोंका मान मर्दन करनेवाला था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनहिते युक्तमस्मद्दुःखाय चोद्यतम् ।
अप्रधृष्यं महायुद्धे देवैरपि सवासवैः ॥ ६ ॥
मूलम्
दुर्योधनहिते युक्तमस्मद्दुःखाय चोद्यतम् ।
अप्रधृष्यं महायुद्धे देवैरपि सवासवैः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सदा दुर्योधनके हितमें संलग्न रहकर हम-लोगोंको दुःख देनेके लिये उद्यत रहता था। महायुद्ध-में इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी उसे परास्त नहीं कर सकते थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनलानिलयोस्तुल्यं तेजसा च बलेन च।
पातालमिव गम्भीरं सुहृदां नन्दिवर्धनम् ॥ ७ ॥
अन्तकं मम मित्राणां हत्वा कर्णं महामृधे।
दिष्ट्या युवामनुप्राप्तौ जित्वासुरमिवामरौ ॥ ८ ॥
मूलम्
अनलानिलयोस्तुल्यं तेजसा च बलेन च।
पातालमिव गम्भीरं सुहृदां नन्दिवर्धनम् ॥ ७ ॥
अन्तकं मम मित्राणां हत्वा कर्णं महामृधे।
दिष्ट्या युवामनुप्राप्तौ जित्वासुरमिवामरौ ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह तेजमें अग्नि, बलमें वायु और गम्भीरतामें पातालके समान था। अपने मित्रोंका आनन्द बढ़ानेवाला और मेरे मित्रोंके लिये यमराजके समान था। किसी असुरको जीतकर आये हुए दो देवताओंके समान तुम दोनों मित्र महासमरमें कर्णको मारकर यहाँ आ गये, यह बड़े सौभाग्यकी बात है॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घोरं युद्धमदीनेन मया ह्यद्याच्युतार्जुनौ।
कृतं तेनान्तकेनेव प्रजाः सर्वा जिघांसता ॥ ९ ॥
मूलम्
घोरं युद्धमदीनेन मया ह्यद्याच्युतार्जुनौ।
कृतं तेनान्तकेनेव प्रजाः सर्वा जिघांसता ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण और अर्जुन! सम्पूर्ण प्रजाका संहार करनेकी इच्छा रखनेवाले कालके समान उस कर्णने आज मेरे साथ घोर युद्ध किया था। फिर भी मैंने उसमें दीनता नहीं दिखायी॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन केतुश्च मे छिन्नो हतौ च पार्ष्णिसारथी।
हतवाहस्ततश्चास्मि युयुधानस्य पश्यतः ॥ १० ॥
धृष्टद्युम्नस्य यमयोर्वीरस्य च शिखण्डिनः।
पश्यतां द्रौपदेयानां पञ्चालानां च सर्वशः ॥ ११ ॥
मूलम्
तेन केतुश्च मे छिन्नो हतौ च पार्ष्णिसारथी।
हतवाहस्ततश्चास्मि युयुधानस्य पश्यतः ॥ १० ॥
धृष्टद्युम्नस्य यमयोर्वीरस्य च शिखण्डिनः।
पश्यतां द्रौपदेयानां पञ्चालानां च सर्वशः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने सात्यकि, धृष्टद्युम्न, नकुल, सहदेव, वीर शिखण्डी, द्रौपदीपुत्र तथा पांचालोंके देखते-देखते मेरी ध्वजा काट डाली, पार्श्वरक्षकोंको मार डाला और मेरे घोड़ोंका भी संहार कर डाला था॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एताञ्जित्वा महावीर्यः कर्णः शत्रुगणान् बहून्।
जितवान् मां महाबाहो यतमानो महारणे ॥ १२ ॥
मूलम्
एताञ्जित्वा महावीर्यः कर्णः शत्रुगणान् बहून्।
जितवान् मां महाबाहो यतमानो महारणे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! महायुद्धमें विजयके लिये प्रयत्न करनेवाले महापराक्रमी कर्णने इन बहुसंख्यक शत्रुगणोंको परास्त करके मुझपर विजय पायी थी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिसृत्य च मां युद्धे परुषाण्युक्तवान् बहु।
तत्र तत्र युधां श्रेष्ठ परिभूय न संशयः ॥ १३ ॥
भीमसेनप्रभावात्तु यज्जीवामि धनंजय ।
बहुनात्र किमुक्तेन नाहं तत् सोढुमुत्सहे ॥ १४ ॥
मूलम्
अभिसृत्य च मां युद्धे परुषाण्युक्तवान् बहु।
तत्र तत्र युधां श्रेष्ठ परिभूय न संशयः ॥ १३ ॥
भीमसेनप्रभावात्तु यज्जीवामि धनंजय ।
बहुनात्र किमुक्तेन नाहं तत् सोढुमुत्सहे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योद्धाओंमें श्रेष्ठ वीर! उसने युद्धमें मेरा पीछा करके जहाँ-तहाँ मुझे अपमानित करते हुए बहुत-से कटुवचन सुनाये हैं—इसमें संशय नहीं है। धनंजय! मैं इस समय भीमसेनके प्रभावसे ही जीवित हूँ। यहाँ अधिक कहनेसे क्या लाभ? मैं उस अपमानको किसी प्रकार सह नहीं सकता॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयोदशाहं वर्षाणि यस्माद् भीतो धनंजय।
न स्म निद्रां लभे रात्री न चाहनि सुखं क्वचित्॥१५॥
मूलम्
त्रयोदशाहं वर्षाणि यस्माद् भीतो धनंजय।
न स्म निद्रां लभे रात्री न चाहनि सुखं क्वचित्॥१५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन! मैं जिससे भयभीत होकर तेरह वर्षोंतक न तो रातमें अच्छी तरह नींद ले सका और न दिनमें ही कहीं सुख पा सका॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य द्वेषेण संयुक्तः परिदह्ये धनंजय।
आत्मनो मरणे यातो वाध्रीणस इव द्विपः ॥ १६ ॥
मूलम्
तस्य द्वेषेण संयुक्तः परिदह्ये धनंजय।
आत्मनो मरणे यातो वाध्रीणस इव द्विपः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनंजय! मैं उसके द्वेषसे निरन्तर जलता रहा। जैसे वाध्रीणस नामक पशु अपनी मौतके लिये ही वधस्थानमें पहुँच जाय, उसी प्रकार मैं भी अपनी मृत्युके लिये कर्णका सामना करने चला गया था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यायमगमत् कालश्चिन्तयानस्य मे चिरम्।
कथं कर्णो मया शक्यो युद्धे क्षपयितुं भवेत् ॥ १७ ॥
मूलम्
तस्यायमगमत् कालश्चिन्तयानस्य मे चिरम्।
कथं कर्णो मया शक्यो युद्धे क्षपयितुं भवेत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं कर्णको युद्धमें कैसे मार सकता हूँ, यही सोचते हुए मेरा यह दीर्घकाल व्यतीत हुआ है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाग्रत्स्वपंश्च कौन्तेय कर्णमेव सदा ह्यहम्।
पश्यामि तत्र तत्रैव कर्णभूतमिदं जगत् ॥ १८ ॥
मूलम्
जाग्रत्स्वपंश्च कौन्तेय कर्णमेव सदा ह्यहम्।
पश्यामि तत्र तत्रैव कर्णभूतमिदं जगत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! मैं जागते और सोते समय सदा कर्णको ही देखा करता था। यह सारा जगत् मेरे लिये जहाँ-तहाँ कर्णमय हो रहा था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्र हि गच्छामि कर्णाद् भीतो धनंजय।
तत्र तत्र हि पश्यामि कर्णमेवाग्रतः स्थितम् ॥ १९ ॥
मूलम्
यत्र यत्र हि गच्छामि कर्णाद् भीतो धनंजय।
तत्र तत्र हि पश्यामि कर्णमेवाग्रतः स्थितम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनंजय! मैं जहाँ-जहाँ भी जाता, कर्णसे भयभीत होनेके कारण सदा उसीको अपने सामने खड़ा देखता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं तेनैव वीरेण समरेष्वपलायिना।
सहयः सरथः पार्थ जित्वा जीवन् विसर्जितः ॥ २० ॥
मूलम्
सोऽहं तेनैव वीरेण समरेष्वपलायिना।
सहयः सरथः पार्थ जित्वा जीवन् विसर्जितः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! मैं समरभूमिमें कभी पीठ न दिखानेवाले उसी वीर कर्णके द्वारा रथ और घोड़ोंसहित परास्त करके केवल जीवित छोड़ दिया गया हूँ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को नु मे जीवितेनार्थो राज्येनार्थो भवेत् पुनः।
ममैवं विक्षतस्याद्य कर्णेनाहवशोभिना ॥ २१ ॥
मूलम्
को नु मे जीवितेनार्थो राज्येनार्थो भवेत् पुनः।
ममैवं विक्षतस्याद्य कर्णेनाहवशोभिना ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मुझे इस जीवनसे तथा राज्यसे क्या प्रयोजन है? जब कि आज युद्धमें शोभा पानेवाले कर्णने मुझे इस प्रकार क्षत-विक्षत कर डाला है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न प्राप्तपूर्वं यद् भीष्मात् कृपद्रोणाच्च संयुगे।
तत् प्राप्तमद्य मे युद्धे सूतपुत्रान्महारथात् ॥ २२ ॥
मूलम्
न प्राप्तपूर्वं यद् भीष्मात् कृपद्रोणाच्च संयुगे।
तत् प्राप्तमद्य मे युद्धे सूतपुत्रान्महारथात् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले कभी भीष्म, द्रोण और कृपाचार्यसे भी मुझे युद्धस्थलमें जो अपमान नहीं प्राप्त हुआ था, वही आज महारथी सूतपुत्रसे युद्धमें प्राप्त हो गया है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वां पृच्छामि कौन्तेय यथाद्य कुशलं तथा।
तन्ममाचक्ष्व कार्त्स्न्येन यथा कर्णो हतस्त्वया ॥ २३ ॥
मूलम्
स त्वां पृच्छामि कौन्तेय यथाद्य कुशलं तथा।
तन्ममाचक्ष्व कार्त्स्न्येन यथा कर्णो हतस्त्वया ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! इसीलिये मैं तुमसे पूछता हूँ कि आज जिस प्रकार सकुशल रहकर तुमने कर्णको मारा है, वह सारा समाचार मुझे पूर्णरूपसे बताओ॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्रतुल्यबलो युद्धे यमतुल्यः पराक्रमे।
रामतुल्यस्तथास्त्रेण स कथं वै निषूदितः ॥ २४ ॥
मूलम्
शक्रतुल्यबलो युद्धे यमतुल्यः पराक्रमे।
रामतुल्यस्तथास्त्रेण स कथं वै निषूदितः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो युद्धमें इन्द्रके समान बलवान्, यमराजके समान पराक्रमी और परशुरामजीके समान अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञाता था, वह कर्ण कैसे मारा गया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महारथः समाख्यातः सर्वयुद्धविशारदः ।
धनुर्धराणां प्रवरः सर्वेषामेकपूरुषः ॥ २५ ॥
पूजितो धृतराष्ट्रेण सपुत्रेण महाबलः।
त्वदर्थमेव राधेयः स कथं निहतस्त्वया ॥ २६ ॥
मूलम्
महारथः समाख्यातः सर्वयुद्धविशारदः ।
धनुर्धराणां प्रवरः सर्वेषामेकपूरुषः ॥ २५ ॥
पूजितो धृतराष्ट्रेण सपुत्रेण महाबलः।
त्वदर्थमेव राधेयः स कथं निहतस्त्वया ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण युद्धकी कलामें कुशल, विख्यात महारथी, धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ तथा सब शत्रुओंमें प्रधान पुरुष था, जिसे पुत्रसहित धृतराष्ट्रने तुम्हारा सामना करनेके लिये ही सम्मानपूर्वक रखा था, वह महाबली राधापुत्र कर्ण तुम्हारे द्वारा कैसे मारा गया?॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धार्तराष्ट्रो हि योधेषु सर्वेष्वेव सदार्जुन।
तव मृत्युं रणे कर्णं मन्यते पुरुषर्षभ ॥ २७ ॥
मूलम्
धार्तराष्ट्रो हि योधेषु सर्वेष्वेव सदार्जुन।
तव मृत्युं रणे कर्णं मन्यते पुरुषर्षभ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर अर्जुन! दुर्योधन रणक्षेत्रमें सम्पूर्ण योद्धाओंमेंसे कर्णको ही तुम्हारी मृत्यु मानता था॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वया पुरुषव्याघ्र कथं युद्धे निषूदितः।
तन्ममाचक्ष्व कौन्तेय यथा कर्णो हतस्त्वया ॥ २८ ॥
मूलम्
स त्वया पुरुषव्याघ्र कथं युद्धे निषूदितः।
तन्ममाचक्ष्व कौन्तेय यथा कर्णो हतस्त्वया ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीपुत्र! पुरुषसिंह! तुमने कैसे युद्धमें उस कर्णको मारा है? कर्ण जिस प्रकार तुम्हारे द्वारा मारा गया है, वह सब समाचार मुझे बताओ॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युध्यमानस्य च शिरः पश्यतां सुहृदां हृतम्।
त्वया पुरुषशार्दूल सिंहेनेव यथा रुरोः ॥ २९ ॥
मूलम्
युध्यमानस्य च शिरः पश्यतां सुहृदां हृतम्।
त्वया पुरुषशार्दूल सिंहेनेव यथा रुरोः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! जैसे सिंह रुरु नामक मृगका मस्तक काट लेता है, उसी प्रकार तुमने समस्त सुहृदोंके देखते-देखते जो जूझते हुए कर्णका सिर धड़से अलग कर दिया है, वह किस प्रकार सम्भव हुआ॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः पर्युपासीत् प्रदिशो दिशश्च
त्वां सूतपुत्रः समरे परीप्सन्।
दित्सुः कर्णः समरे हस्तिषड्गवं
स हीदानीं कङ्कपत्रैः सुतीक्ष्णैः ॥ ३० ॥
त्वया रणे निहतः सूतपुत्रः
कच्चिच्छेते भूमितले दुरात्मा ।
प्रियश्च मे परमो वै कृतोऽयं
त्वया रणे सूतपुत्रं निहत्य ॥ ३१ ॥
मूलम्
यः पर्युपासीत् प्रदिशो दिशश्च
त्वां सूतपुत्रः समरे परीप्सन्।
दित्सुः कर्णः समरे हस्तिषड्गवं
स हीदानीं कङ्कपत्रैः सुतीक्ष्णैः ॥ ३० ॥
त्वया रणे निहतः सूतपुत्रः
कच्चिच्छेते भूमितले दुरात्मा ।
प्रियश्च मे परमो वै कृतोऽयं
त्वया रणे सूतपुत्रं निहत्य ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन! समरांगणमें जो सूतपुत्र कर्ण सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओंमें तुम्हें पानेके लिये चक्कर लगाता था और तुम्हारा पता बतानेवालेको हाथीके समान छः बैल देना चाहता था, वही दुरात्मा सूतपुत्र क्या इस समय रणभूमिमें तुम्हारे द्वारा कंकपत्रयुक्त तीखे बाणोंसे मारा जाकर पृथ्वीपर सो रहा है? आज रणक्षेत्रमें सूतपुत्रको मारकर तुमने मेरा यह परम प्रिय कार्य पूर्ण किया है?॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सर्वतः पर्यपतत्त्वदर्थे
सदार्चितो गर्वितः सूतपुत्रः ।
स शूरमानी समरे समेत्य
कच्चित्त्वया निहतः संयुगेऽसौ ॥ ३२ ॥
मूलम्
यः सर्वतः पर्यपतत्त्वदर्थे
सदार्चितो गर्वितः सूतपुत्रः ।
स शूरमानी समरे समेत्य
कच्चित्त्वया निहतः संयुगेऽसौ ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सदा सम्मानित होकर घमंडमें भरा हुआ सूतपुत्र तुम्हारे लिये सब ओर धावा किया करता था, अपनेको शूरवीर माननेवाले उस कर्णको समरांगणमें उसके साथ युद्ध करके क्या तुमने मार डाला है?॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रौक्मं वरं हस्तिगजाश्वयुक्तं
रथं प्रदित्सुर्यः परेभ्यस्त्वदर्थे ।
सदा रणे स्पर्धते यः स पापः
कच्चित्त्वया निहतस्तात युद्धे ॥ ३३ ॥
मूलम्
रौक्मं वरं हस्तिगजाश्वयुक्तं
रथं प्रदित्सुर्यः परेभ्यस्त्वदर्थे ।
सदा रणे स्पर्धते यः स पापः
कच्चित्त्वया निहतस्तात युद्धे ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! जो रणक्षेत्रमें तुम्हारा पता बतानेके लिये दूसरोंको हाथी-घोड़ोंसे युक्त सोनेका बना हुआ सुन्दर रथ देनेका हौसला रखता और सदा तुमसे होड़ लगाता था, वह पापी क्या युद्धस्थलमें तुम्हारे द्वारा मार डाला गया?॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ सदा शूरमदेन मत्तो
विकत्थते संसदि कौरवाणाम् ।
प्रियोऽत्यर्थं तस्य सुयोधनस्य
कच्चित् सपापो निहतस्त्वयाद्य ॥ ३४ ॥
मूलम्
योऽसौ सदा शूरमदेन मत्तो
विकत्थते संसदि कौरवाणाम् ।
प्रियोऽत्यर्थं तस्य सुयोधनस्य
कच्चित् सपापो निहतस्त्वयाद्य ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शौर्यके मदसे उन्मत्त हो कौरवोंकी सभामें सदा बढ-बढ़कर बातें बनाया करता था और दुर्योधनको अत्यन्त प्रिय था, क्या उस पापी कर्णको तुमने आज मार डाला?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चित् समागम्य धनुःप्रयुक्तै-
स्त्वत्प्रेषितैर्लोहिताङ्गैर्विहङ्गैः ।
शेते स पापः सुविभिन्नगात्रः
कच्चिद् भग्नौ धार्तराष्ट्रस्य बाहू ॥ ३५ ॥
मूलम्
कच्चित् समागम्य धनुःप्रयुक्तै-
स्त्वत्प्रेषितैर्लोहिताङ्गैर्विहङ्गैः ।
शेते स पापः सुविभिन्नगात्रः
कच्चिद् भग्नौ धार्तराष्ट्रस्य बाहू ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या आज युद्धमें तुमसे भिड़कर तुम्हारे द्वारा धनुषसे छोड़े गये लाल अंगोंवाले आकाशचारी बाणोंसे सारा शरीर छिन्न-भिन्न हो जोनेके कारण वह पापी कर्ण आज पृथ्वीपर पड़ा है? क्या उसके मरनेसे दुर्योधनकी दोनों बाँहें टूट गयीं?॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ सदा श्लाघते राजमध्ये
दुर्योधनं हर्षयन् दर्पपूर्णः ।
अहं हन्ता फाल्गुनस्येति मोहात्
कच्चिद्वचस्तस्य न वै तथा तत् ॥ ३६ ॥
मूलम्
योऽसौ सदा श्लाघते राजमध्ये
दुर्योधनं हर्षयन् दर्पपूर्णः ।
अहं हन्ता फाल्गुनस्येति मोहात्
कच्चिद्वचस्तस्य न वै तथा तत् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजाओंके बीचमें दुर्योधनका हर्ष बढ़ाता हुआ घमंडमें भरकर सदा मोहवश यह डींग हाँकता था कि मैं अर्जुनका वध कर सकता हूँ। क्या उसकी वह बात आज निष्फल हो गयी?॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं पादौ धावयिष्ये कदाचित्
यावत् स्थितः पार्थ इत्यल्पबुद्धेः।
व्रतं तस्यैतत् सर्वदा शक्रसूनो
कच्चित् त्वया निहतः सोऽद्य कर्णः ॥ ३७ ॥
मूलम्
नाहं पादौ धावयिष्ये कदाचित्
यावत् स्थितः पार्थ इत्यल्पबुद्धेः।
व्रतं तस्यैतत् सर्वदा शक्रसूनो
कच्चित् त्वया निहतः सोऽद्य कर्णः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रकुमार! उस मन्दबुद्धि कर्णने सदाके लिये यह व्रत ले रखा था