भागसूचना
चतुःषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनद्वारा अश्वत्थामाकी पराजय, कौरव-सेनामें भगदड़ एवं दुर्योधनसे प्रेरित कर्णद्वारा भार्गवास्त्रसे पांचालोंका संहार
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौणिस्तु रथवंशेन महता परिवारितः।
अपतत् सहसा राजन् यत्र पार्थो व्यवस्थितः ॥ १ ॥
मूलम्
द्रौणिस्तु रथवंशेन महता परिवारितः।
अपतत् सहसा राजन् यत्र पार्थो व्यवस्थितः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा विशाल रथसेनासे घिरा सहसा वहाँ आ पहुँचा, जहाँ अर्जुन खड़े थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमापतन्तं सहसा शूरः शौरिसहायवान्।
दधार सहसा पार्थो वेलेव मकरालयम् ॥ २ ॥
मूलम्
तमापतन्तं सहसा शूरः शौरिसहायवान्।
दधार सहसा पार्थो वेलेव मकरालयम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण जिनके सहायक थे, उन शूरवीर कुन्तीकुमार अर्जुनने सहसा अपनी ओर आते हुए अश्वत्थामाको तत्काल उसी तरह रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्रको आगे बढ़नेसे रोकती है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो महाराज द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
अर्जुनं वासुदेवं च छादयामास सायकैः ॥ ३ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धो महाराज द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
अर्जुनं वासुदेवं च छादयामास सायकैः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तब क्रोधमें भरे हुए प्रतापी द्रोणपुत्रने अर्जुन और श्रीकृष्णको अपने बाणोंसे ढक दिया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवच्छन्नौ ततः कृष्णौ दृष्ट्वा तत्र महारथाः।
विस्मयं परमं गत्वा प्रैक्षन्त कुरवस्तदा ॥ ४ ॥
मूलम्
अवच्छन्नौ ततः कृष्णौ दृष्ट्वा तत्र महारथाः।
विस्मयं परमं गत्वा प्रैक्षन्त कुरवस्तदा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उन दोनोंको बाणोंद्वारा आच्छादित हुआ देख समस्त कौरव महारथी महान् आश्चर्यमें पड़कर उधर ही देखने लगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनस्तु ततो दिव्यमस्त्रं चक्रे हसन्निव।
तदस्त्रं वारयामास ब्राह्मणो युधि भारत ॥ ५ ॥
मूलम्
अर्जुनस्तु ततो दिव्यमस्त्रं चक्रे हसन्निव।
तदस्त्रं वारयामास ब्राह्मणो युधि भारत ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तब अर्जुनने हँसते हुए-से दिव्यास्त्र प्रकट किया; परंतु ब्राह्मण अश्वत्थामाने युद्धस्थलमें उनके उस दिव्यास्त्रका निवारण कर दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् यद्धि व्याक्षिपद् युद्धे पाण्डवोऽस्त्रजिघांसया।
तत् तदस्त्रं महेष्वासो द्रोणपुत्रो व्यशातयत् ॥ ६ ॥
मूलम्
यद् यद्धि व्याक्षिपद् युद्धे पाण्डवोऽस्त्रजिघांसया।
तत् तदस्त्रं महेष्वासो द्रोणपुत्रो व्यशातयत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें पाण्डुकुमार अर्जुन अश्वत्थामाके अस्त्रोंको नष्ट करनेके लिये जो-जो अस्त्र चलाते थे, महाधनुर्धर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा उनके उस-उस अस्त्रको काट गिराता था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्रयुद्धे ततो राजन् वर्तमाने महाभये।
अपश्याम रणे द्रौणिं व्यात्ताननमिवान्तकम् ॥ ७ ॥
मूलम्
अस्त्रयुद्धे ततो राजन् वर्तमाने महाभये।
अपश्याम रणे द्रौणिं व्यात्ताननमिवान्तकम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार महाभयंकर अस्त्र-युद्ध आरम्भ होनेपर हमलोगोंने रणक्षेत्रमें द्रोणपुत्र अश्वत्थामाको मुँह बाये हुए यमराजके समान देखा था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दिशः प्रदिशश्चैव च्छादयित्वा ह्यजिह्मगैः।
वासुदेवं त्रिभिर्बाणैरविध्यद् दक्षिणे भुजे ॥ ८ ॥
मूलम्
स दिशः प्रदिशश्चैव च्छादयित्वा ह्यजिह्मगैः।
वासुदेवं त्रिभिर्बाणैरविध्यद् दक्षिणे भुजे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने सीधे जानेवाले बाणोंके द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं और कोणोंको आच्छादित करके श्रीकृष्णकी दाहिनी भुजामें तीन बाण मारे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनो हयान् हत्वा सर्वांस्तस्य महात्मनः।
चकार समरे भूमिं शोणितौघतरङ्गिणीम् ॥ ९ ॥
मूलम्
ततोऽर्जुनो हयान् हत्वा सर्वांस्तस्य महात्मनः।
चकार समरे भूमिं शोणितौघतरङ्गिणीम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अर्जुनने उस महामनस्वी वीरके समस्त घोड़ोंको मारकर समरभूमिमें खूनकी नदी-सी बहा दी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वलोकवहां रौद्रां परलोकवहां नदीम्।
सरथान् रथिनः सर्वान् पार्थचापच्युतैः शरैः ॥ १० ॥
द्रौणेरपहतान् संख्ये ददृशुः स च तां तथा।
प्रावर्तयन्महाघोरां नदीं परवहां तदा ॥ ११ ॥
मूलम्
सर्वलोकवहां रौद्रां परलोकवहां नदीम्।
सरथान् रथिनः सर्वान् पार्थचापच्युतैः शरैः ॥ १० ॥
द्रौणेरपहतान् संख्ये ददृशुः स च तां तथा।
प्रावर्तयन्महाघोरां नदीं परवहां तदा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह रक्तमयी भयंकर सरिता परलोकवाहिनी थी और सब लोगोंको अपने प्रवाहमें बहाये लिये जाती थी। वहाँ खड़े हुए सब लोगोंने देखा कि अश्वत्थामाके सारे रथी अर्जुनके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा युद्धभूमिमें मारे गये। स्वयं अश्वत्थामाने भी उनकी वह अवस्था देखी। उस समय उसने भी महाभयंकर परलोकवाहिनी नदी बहा दी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोस्तु व्याकुले युद्धे द्रौणेः पार्थस्य दारुणे।
अमर्यादं योधयन्तः पर्यधावन्त पृष्ठतः ॥ १२ ॥
मूलम्
तयोस्तु व्याकुले युद्धे द्रौणेः पार्थस्य दारुणे।
अमर्यादं योधयन्तः पर्यधावन्त पृष्ठतः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामा और अर्जुनके उस भयंकर एवं घमासान युद्धमें सब योद्धा मर्यादारहित होकर युद्ध करते हुए आगे-पीछे सब ओर भागने लगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथैर्हताश्वसूतैश्च हतारोहैश्च वाजिभिः ।
द्विरदैश्च हतारोहैर्महामात्रैर्हतद्विपैः ॥ १३ ॥
पार्थेन समरे राजन् कृतो घोरो जनक्षयः।
विहता रथिनः पेतुः पार्थचापच्युतैः शरैः ॥ १४ ॥
मूलम्
रथैर्हताश्वसूतैश्च हतारोहैश्च वाजिभिः ।
द्विरदैश्च हतारोहैर्महामात्रैर्हतद्विपैः ॥ १३ ॥
पार्थेन समरे राजन् कृतो घोरो जनक्षयः।
विहता रथिनः पेतुः पार्थचापच्युतैः शरैः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथोंके घोड़े और सारथि मार दिये गये। घोड़ोंके सवार नष्ट हो गये। गजारोही मार डाले गये और हाथी बचे रहे एवं कहीं हाथी ही मार डाले गये तथा महावत बचे रहे। राजन्! इस प्रकार समरांगणमें अर्जुनने घोर जनसंहार मचा दिया। उनके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा मारे जाकर बहुत-से रथी धराशायी हो गये॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयाश्च पर्यधावन्त मुक्तयोक्त्रास्ततस्ततः ।
तद् दृष्ट्वा कर्म पार्थस्य द्रौणिराहवशोभिनः ॥ १५ ॥
अर्जुनं जयतां श्रेष्ठं त्वरितोऽभ्येत्य वीर्यवान्।
विधुन्वानो महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् ॥ १६ ॥
अवाकिरत्ततो द्रौणिः समन्तान्निशितैः शरैः।
मूलम्
हयाश्च पर्यधावन्त मुक्तयोक्त्रास्ततस्ततः ।
तद् दृष्ट्वा कर्म पार्थस्य द्रौणिराहवशोभिनः ॥ १५ ॥
अर्जुनं जयतां श्रेष्ठं त्वरितोऽभ्येत्य वीर्यवान्।
विधुन्वानो महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् ॥ १६ ॥
अवाकिरत्ततो द्रौणिः समन्तान्निशितैः शरैः।
अनुवाद (हिन्दी)
घोड़ोंके बन्धन खुल गये और वे चारों ओर दौड़ लगाने लगे। युद्धमें शोभा पानेवाले अर्जुनका वह पराक्रम देखकर पराक्रमी द्रोणकुमार अश्वत्थामा तुरंत उनके पास आ गया और अपने सुवर्ण-भूषित विशाल धनुषको हिलाते हुए उसने विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ अर्जुनको पैने बाणोंद्वारा सब ओरसे ढक दिया॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयोऽर्जुनं महाराज द्रौणिरायम्य पत्रिणा ॥ १७ ॥
वक्षोदेशे भृशं पार्थं ताडयामास निर्दयम्।
मूलम्
भूयोऽर्जुनं महाराज द्रौणिरायम्य पत्रिणा ॥ १७ ॥
वक्षोदेशे भृशं पार्थं ताडयामास निर्दयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर द्रोणकुमारने धनुष खींचकर छोड़े हुए पंखयुक्त बाणसे कुन्तीकुमार अर्जुनकी छातीपर पुनः बड़े जोरसे निर्दयतापूर्वक प्रहार किया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽतिविद्धो रणे तेन द्रोणपुत्रेण भारत ॥ १८ ॥
गाण्डीवधन्वा प्रसभं शरवर्षैरुदारधीः ।
संछाद्य समरे द्रौणिं चिच्छेदास्य च कार्मुकम् ॥ १९ ॥
मूलम्
सोऽतिविद्धो रणे तेन द्रोणपुत्रेण भारत ॥ १८ ॥
गाण्डीवधन्वा प्रसभं शरवर्षैरुदारधीः ।
संछाद्य समरे द्रौणिं चिच्छेदास्य च कार्मुकम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! रणभूमिमें द्रोणपुत्रके द्वारा अत्यन्त घायल किये गये उदारबुद्धि गाण्डीवधारी अर्जुनने समरांगणमें बलपूर्वक बाणोंकी वर्षा करके अश्वत्थामाको ढक दिया और उसके धनुषको भी काट डाला॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स छिन्नधन्वा परिघं वज्रस्पर्शसमं युधि।
आदाय चिक्षेप तदा द्रोणपुत्रः किरीटिने ॥ २० ॥
मूलम्
स छिन्नधन्वा परिघं वज्रस्पर्शसमं युधि।
आदाय चिक्षेप तदा द्रोणपुत्रः किरीटिने ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुष कट जानेपर द्रोणपुत्रने युद्धस्थलमें एक ऐसा परिघ हाथमें लिया, जिसका स्पर्श वज्रके समान कठोर था। उसने उस परिघको तत्काल ही किरीटधारी अर्जुनपर दे मारा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमापतन्तं परिघं जाम्बूनदपरिष्कृतम् ।
चिच्छेद सहसा राजन् प्रहसन्निव पाण्डवः ॥ २१ ॥
मूलम्
तमापतन्तं परिघं जाम्बूनदपरिष्कृतम् ।
चिच्छेद सहसा राजन् प्रहसन्निव पाण्डवः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस सुवर्णभूषित परिघको सहसा अपने ऊपर आते देख पाण्डुपुत्र अर्जुनने हँसते हुए-से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पपात तदा भूमौ निकृत्तः पार्थसायकैः।
विकीर्णः पर्वतो राजन् यथा वज्रेण ताडितः ॥ २२ ॥
मूलम्
स पपात तदा भूमौ निकृत्तः पार्थसायकैः।
विकीर्णः पर्वतो राजन् यथा वज्रेण ताडितः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जैसे वज्रका मारा हुआ पर्वत टूट-फूटकर सब ओर बिखर जाता है, उसी प्रकार अर्जुनके बाणोंसे कटा हुआ वह परिघ उस समय पृथ्वीपर गिर पड़ा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो महाराज द्रोणपुत्रो महारथः।
ऐन्द्रेण चास्त्रवेगेन बीभत्सुं समवाकिरत् ॥ २३ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धो महाराज द्रोणपुत्रो महारथः।
ऐन्द्रेण चास्त्रवेगेन बीभत्सुं समवाकिरत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तब महारथी द्रोणपुत्रने कुपित होकर अर्जुनपर ऐन्द्रास्त्रद्वारा वेगपूर्वक बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्येन्द्रजालावततं समीक्ष्य
पार्थो राजन् गाण्डिवमाददे सः।
ऐन्द्रं जालं प्रत्यहरत् तरस्वी
वरास्त्रमादाय महेन्द्रसृष्टम् ॥ २४ ॥
मूलम्
तस्येन्द्रजालावततं समीक्ष्य
पार्थो राजन् गाण्डिवमाददे सः।
ऐन्द्रं जालं प्रत्यहरत् तरस्वी
वरास्त्रमादाय महेन्द्रसृष्टम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अर्जुनने अश्वत्थामाद्वारा किये हुए इन्द्रजालका विस्तार देखकर बड़े वेगसे गाण्डीव धनुष हाथमें लिया और महेन्द्रद्वारा निर्मित उत्तम अस्त्रका आश्रय लेकर उस इन्द्रजालका संहार कर दिया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदार्य तज्जालमथेन्द्रमुक्तं
पार्थस्ततो द्रौणिरथं क्षणेन ।
प्रच्छादयामास ततोऽभ्युपेत्य
द्रौणिस्तदा पार्थशराभिभूतः ॥ २५ ॥
मूलम्
विदार्य तज्जालमथेन्द्रमुक्तं
पार्थस्ततो द्रौणिरथं क्षणेन ।
प्रच्छादयामास ततोऽभ्युपेत्य
द्रौणिस्तदा पार्थशराभिभूतः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार इन्द्रास्त्रद्वारा छोड़े गये उस बाण-जालको विदीर्ण करके अर्जुनने निकटवर्ती होकर क्षणभरमें अश्वत्थामाके रथको ढक दिया। उस समय अश्वत्थामा अर्जुनके बाणोंसे अभिभूत हो गया था॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विगाह्य तां पाण्डवबाणवृष्टिं
शरैः परं नाम ततः प्रकाश्य।
शतेन कृष्णं सहसाभ्यविद्ध्यत्
त्रिभिः शतैरर्जुनं क्षुद्रकाणाम् ॥ २६ ॥
मूलम्
विगाह्य तां पाण्डवबाणवृष्टिं
शरैः परं नाम ततः प्रकाश्य।
शतेन कृष्णं सहसाभ्यविद्ध्यत्
त्रिभिः शतैरर्जुनं क्षुद्रकाणाम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अश्वत्थामाने अपने बाणोंद्वारा अर्जुनकी उस बाण-वर्षाका निवारण करके अपना नाम प्रकाशित करते हुए सहसा सौ बाणोंसे श्रीकृष्णको घायल कर दिया और अर्जुनपर भी तीन सौ बाणोंका प्रहार किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनः सायकानां शतेन
गुरोः सुतं मर्मसु निर्बिभेद।
अश्वांश्च सूतं च तथा धनुर्ज्या-
मवाकिरत् पश्यतां तावकानाम् ॥ २७ ॥
मूलम्
ततोऽर्जुनः सायकानां शतेन
गुरोः सुतं मर्मसु निर्बिभेद।
अश्वांश्च सूतं च तथा धनुर्ज्या-
मवाकिरत् पश्यतां तावकानाम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद अर्जुनने सौ बाणोंसे गुरुपुत्रके मर्मस्थानोंको विदीर्ण कर दिया तथा आपके पुत्रोंके देखते-देखते उसके घोड़ों, सारथि, धनुष और प्रत्यंचापर बाणोंकी झड़ी लगा दी॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विद्ध्वा मर्मसु द्रौणिं पाण्डवः परवीरहा।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ २८ ॥
मूलम्
स विद्ध्वा मर्मसु द्रौणिं पाण्डवः परवीरहा।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पाण्डुपुत्र अर्जुनने अश्वत्थामाके मर्मस्थानोंमें चोट पहुँचाकर एक भल्लसे उसके सारथिको रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स संगृह्य स्वयं वाहान् कृष्णौ प्राच्छादयच्छरैः।
तत्राद्भुतमपश्याम द्रौणेराशु पराक्रमम् ॥ २९ ॥
प्रायच्छत्तुरगान् यच्च फाल्गुनं चाप्ययोधयत्।
यदस्य समरे राजन् सर्वे योधा अपूजयन् ॥ ३० ॥
मूलम्
स संगृह्य स्वयं वाहान् कृष्णौ प्राच्छादयच्छरैः।
तत्राद्भुतमपश्याम द्रौणेराशु पराक्रमम् ॥ २९ ॥
प्रायच्छत्तुरगान् यच्च फाल्गुनं चाप्ययोधयत्।
यदस्य समरे राजन् सर्वे योधा अपूजयन् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उसने स्वयं ही घोड़ोंकी बागडोर हाथमें लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुनको बाणोंसे ढक दिया। वहाँ हमने द्रोणपुत्रका शीघ्र प्रकट होनेवाला वह अद्भुत पराक्रम देखा कि वह घोड़ोंको भी काबूमें रखता था और अर्जुनके साथ युद्ध भी करता था। राजन्! समरांगणमें सभी योद्धाओंने उसके इस कार्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रहस्य बीभत्सुर्द्रोणपुत्रस्य संयुगे।
क्षिप्रं रश्मीनथाश्वानां क्षुरप्रैश्चिच्छिदे जयः ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततः प्रहस्य बीभत्सुर्द्रोणपुत्रस्य संयुगे।
क्षिप्रं रश्मीनथाश्वानां क्षुरप्रैश्चिच्छिदे जयः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर विजयी अर्जुनने हँसकर युद्धस्थलमें द्रोणपुत्रके घोड़ोंकी बागडोरोंको क्षुरप्रोंद्वारा शीघ्रतापूर्वक काट दिया॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राद्रवंस्तुरगास्ते तु शरवेगप्रपीडिताः ।
ततोऽभून्निनदो घोरस्तव सैन्यस्य भारत ॥ ३२ ॥
मूलम्
प्राद्रवंस्तुरगास्ते तु शरवेगप्रपीडिताः ।
ततोऽभून्निनदो घोरस्तव सैन्यस्य भारत ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इसके बाद बाणोंके वेगसे अत्यन्त पीड़ित हुए उसके घोड़े वहाँसे भाग चले। उस समय वहाँ आपकी सेनामें भयंकर कोलाहल मच गया॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा तव सैन्यं समाद्रवन्।
समन्तान्निशितान् बाणान् विमुञ्चन्तो जयैषिणः ॥ ३३ ॥
मूलम्
पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा तव सैन्यं समाद्रवन्।
समन्तान्निशितान् बाणान् विमुञ्चन्तो जयैषिणः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव विजय पाकर आपकी सेनापर टूट पड़े और पुनः विजयकी अभिलाषा ले चारों ओरेसे पैने बाणोंका प्रहार करने लगे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवैस्तु महाराज धार्तराष्ट्री महाचमूः।
पुनः पुनरथो वीरैरभञ्जि जितकाशिभिः ॥ ३४ ॥
मूलम्
पाण्डवैस्तु महाराज धार्तराष्ट्री महाचमूः।
पुनः पुनरथो वीरैरभञ्जि जितकाशिभिः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! विजयसे उल्लसित होनेवाले पाण्डवोंने दुर्योधनकी विशाल सेनामें बारंबार भगदड़ मचा दी॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यतां ते महाराज पुत्राणां चित्रयोधिनाम्।
शकुनेः सौबलेयस्य कर्णस्य च विशाम्पते ॥ ३५ ॥
मूलम्
पश्यतां ते महाराज पुत्राणां चित्रयोधिनाम्।
शकुनेः सौबलेयस्य कर्णस्य च विशाम्पते ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! प्रजानाथ! विचित्र युद्ध करनेवाले आपके पुत्रोंके, सुबलपुत्र शकुनिके तथा कर्णके देखते-देखते यह सब हो रहा था॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्यमाणा महासेना पुत्रैस्तव जनेश्वर।
न चातिष्ठत संग्रामे पीड्यमाना समन्ततः ॥ ३६ ॥
मूलम्
वार्यमाणा महासेना पुत्रैस्तव जनेश्वर।
न चातिष्ठत संग्रामे पीड्यमाना समन्ततः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! सब ओरसे पीड़ित हुई आपकी विशाल सेना आपके पुत्रोंके बहुत रोकनेपर भी युद्धभूमिमें खड़ी न रह सकी॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो योधैर्महाराज पलायद्भिः समन्ततः।
अभवद् व्याकुलं भीतं पुत्राणां ते महद् बलम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
ततो योधैर्महाराज पलायद्भिः समन्ततः।
अभवद् व्याकुलं भीतं पुत्राणां ते महद् बलम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! सब ओर भागनेवाले योद्धाओंके कारण आपके पुत्रोंकी वह विशाल सेना भयभीत और व्याकुल हो उठी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिष्ठ तिष्ठेति च ततः सूतपुत्रस्य जल्पतः।
नावतिष्ठति सा सेना वध्यमाना महात्मभिः ॥ ३८ ॥
मूलम्
तिष्ठ तिष्ठेति च ततः सूतपुत्रस्य जल्पतः।
नावतिष्ठति सा सेना वध्यमाना महात्मभिः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्र कर्ण ‘ठहरो, ठहरो’ की पुकार करता ही रह गया; परंतु महामनस्वी पाण्डवोंकी मार खाती हुई वह सेना किसी तरह ठहर न सकी॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोत्क्रुष्टं महाराज पाण्डवैर्जितकाशिभिः ।
धार्तराष्ट्रबलं दृष्ट्वा विद्रुतं वै समन्ततः ॥ ३९ ॥
मूलम्
अथोत्क्रुष्टं महाराज पाण्डवैर्जितकाशिभिः ।
धार्तराष्ट्रबलं दृष्ट्वा विद्रुतं वै समन्ततः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! दुर्योधनकी सेनाको सब ओर भागती देख विजयसे उल्लसित होनेवाले पाण्डव जोर-जोरसे सिंहनाद करने लगे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनः कर्णमब्रवीत् प्रणयादिव।
पश्य कर्ण महासेना पञ्चालैरर्दिता भृशम् ॥ ४० ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनः कर्णमब्रवीत् प्रणयादिव।
पश्य कर्ण महासेना पञ्चालैरर्दिता भृशम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय दुर्योधनने कर्णसे प्रेमपूर्वक कहा—‘कर्ण! देखो, पांचालोंने मेरी इस विशाल सेनाको अत्यन्त पीड़ित कर दिया है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयि तिष्ठति संत्रासात् पलायनपरायणा।
एतज्ज्ञात्वा महाबाहो कुरु प्राप्तमरिंदम ॥ ४१ ॥
मूलम्
त्वयि तिष्ठति संत्रासात् पलायनपरायणा।
एतज्ज्ञात्वा महाबाहो कुरु प्राप्तमरिंदम ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुदमन महाबाहु वीर! तुम्हारे रहते हुए भयके कारण मेरी सेना भाग रही है; यह जानकर इस समय जो कर्तव्य प्राप्त हो उसे करो॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्राणि च योधानां त्वामेव पुरुषोत्तम।
क्रोशन्ति समरे वीर द्राव्यमाणानि पाण्डवैः ॥ ४२ ॥
मूलम्
सहस्राणि च योधानां त्वामेव पुरुषोत्तम।
क्रोशन्ति समरे वीर द्राव्यमाणानि पाण्डवैः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषोत्तम! वीर! पाण्डवोंद्वारा खदेड़े जानेवाले सहस्रों कौरव-सैनिक समरांगणमें तुम्हें ही पुकार रहे हैं’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वापि राधेयो दुर्योधनवचो महान्।
मद्रराजमिदं वाक्यमब्रवीत् प्रहसन्निव ॥ ४३ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वापि राधेयो दुर्योधनवचो महान्।
मद्रराजमिदं वाक्यमब्रवीत् प्रहसन्निव ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महावीर राधापुत्र कर्णने दुर्योधनकी यह बात सुनकर मद्रराज शल्यसे हँसते हुए-से इस प्रकार कहा—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य मे भुजयोर्वीर्यमस्त्राणां च जनेश्वर।
अद्य हन्मि रणे सर्वान् पञ्चालान् पाण्डुभिः सह ॥ ४४ ॥
वाहयाश्वान् नरव्याघ्र भद्रेणैव न संशयः।
मूलम्
पश्य मे भुजयोर्वीर्यमस्त्राणां च जनेश्वर।
अद्य हन्मि रणे सर्वान् पञ्चालान् पाण्डुभिः सह ॥ ४४ ॥
वाहयाश्वान् नरव्याघ्र भद्रेणैव न संशयः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! आज तुम मेरी दोनों भुजाओं और अस्त्रोंका बल देखो। मैं रणभूमिमें पाण्डवोंसहित समस्त पांचालोंका वध किये देता हूँ, इसमें संशय नहीं है। पुरुषसिंह! आप कल्याणचिन्तनपूर्वक ही इन घोड़ोंको आगे बढ़ाइये’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा महाराज सूतपुत्रः प्रतापवान् ॥ ४५ ॥
प्रगृह्य विजयं वीरो धनुः श्रेष्ठं पुरातनम्।
सज्यं कृत्वा महाराज संगृह्य च पुनः पुनः ॥ ४६ ॥
संनिवार्य च योधान् स सत्येन शपथेन च।
प्रायोजयदमेयात्मा भार्गवास्त्रं महाबलः ॥ ४७ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा महाराज सूतपुत्रः प्रतापवान् ॥ ४५ ॥
प्रगृह्य विजयं वीरो धनुः श्रेष्ठं पुरातनम्।
सज्यं कृत्वा महाराज संगृह्य च पुनः पुनः ॥ ४६ ॥
संनिवार्य च योधान् स सत्येन शपथेन च।
प्रायोजयदमेयात्मा भार्गवास्त्रं महाबलः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! ऐसा कहकर प्रतापी वीर सूतपुत्र कर्णने अपने विजय नामक श्रेष्ठ एवं पुरातन धनुषको लेकर उसपर प्रत्यंचा चढ़ायी; फिर उसे बारंबार हाथमें लेकर सत्यकी शपथ दिलाते हुए समस्त योद्धाओंको रोका। इसके बाद अमेय आत्मबलसे सम्पन्न उस महाबली वीरने भार्गवास्त्रका प्रयोग किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राजन् सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
कोटिशश्च शरास्तीक्ष्णा निरगच्छन् महामृधे ॥ ४८ ॥
मूलम्
ततो राजन् सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
कोटिशश्च शरास्तीक्ष्णा निरगच्छन् महामृधे ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! फिर तो उस महासमरमें सहस्रों, लाखों, करोड़ों और अरबों तीखे बाण उस अस्त्रसे प्रकट होने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्वलितैस्तैः शरैर्घोरैः कङ्कबर्हिणवाजितैः ।
संछन्ना पाण्डवी सेना न प्राज्ञायत किञ्चन ॥ ४९ ॥
मूलम्
ज्वलितैस्तैः शरैर्घोरैः कङ्कबर्हिणवाजितैः ।
संछन्ना पाण्डवी सेना न प्राज्ञायत किञ्चन ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कंक और मोरकी पाँखवाले उन प्रज्वलित एवं भयंकर बाणोंद्वारा पाण्डव-सेना आच्छादित हो गयी। कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहाकारो महानासीत् पञ्चालानां विशाम्पते।
पीडितानां बलवता भार्गवास्त्रेण संयुगे ॥ ५० ॥
मूलम्
हाहाकारो महानासीत् पञ्चालानां विशाम्पते।
पीडितानां बलवता भार्गवास्त्रेण संयुगे ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! प्रबल भार्गवास्त्रसे समरांगणमें पीड़ित होनेवाले पांचालोंका महान् हाहाकार सब ओर गूँजने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निपतद्भिर्गजै राजन्नश्वैश्चापि सहस्रशः ।
रथैश्चापि नरव्याघ्र नरैश्चैव समन्ततः ॥ ५१ ॥
प्राकम्पत मही राजन् निहतैस्तैः समन्ततः।
व्याकुलं सर्वमभवत् पाण्डवानां महद् बलम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
निपतद्भिर्गजै राजन्नश्वैश्चापि सहस्रशः ।
रथैश्चापि नरव्याघ्र नरैश्चैव समन्ततः ॥ ५१ ॥
प्राकम्पत मही राजन् निहतैस्तैः समन्ततः।
व्याकुलं सर्वमभवत् पाण्डवानां महद् बलम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! गिरते हुए हाथियों, सहस्रों घोड़ों, रथों और मारे गये पैदल मनुष्योंके गिरनेसे सारी पृथ्वी सब ओर कम्पित होने लगी। पाण्डवोंकी सारी विशाल सेना व्याकुल हो गयी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णस्त्वेको युधां श्रेष्ठो विधूम इव पावकः।
दहन् शत्रून् नरव्याघ्र शुशुभे स परंतपः ॥ ५३ ॥
मूलम्
कर्णस्त्वेको युधां श्रेष्ठो विधूम इव पावकः।
दहन् शत्रून् नरव्याघ्र शुशुभे स परंतपः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरव्याघ्र! शत्रुओंको तपानेवाला योद्धाओंमें श्रेष्ठ एकमात्र कर्ण ही धूमरहित अग्निके समान शत्रुओंको दग्ध करता हुआ शोभा पा रहा था॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वध्यमानाः कर्णेन पञ्चालाश्चेदिभिः सह।
तत्र तत्र व्यमुह्यन्त वनदाहे यथा द्विपाः ॥ ५४ ॥
मूलम्
ते वध्यमानाः कर्णेन पञ्चालाश्चेदिभिः सह।
तत्र तत्र व्यमुह्यन्त वनदाहे यथा द्विपाः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वनमें आग लगनेपर उसमें रहनेवाले हाथी जहाँ-तहाँ दग्ध होकर मूर्च्छित हो जाते हैं, उसी प्रकार कर्णके द्वारा मारे जानेवाले पांचाल और चेदि योद्धा यत्र-तत्र मूर्च्छित होकर पड़े थे॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चुक्रुशुश्च नरव्याघ्र यथा व्याघ्रा नरोत्तमाः।
तेषां तु क्रोशतामासीद् भीतानां रणमूर्धनि ॥ ५५ ॥
धावतां च ततो राजंस्त्रस्तानां च समन्ततः।
आर्तनादो महांस्तत्र भूतानामिव सम्प्लवे ॥ ५६ ॥
मूलम्
चुक्रुशुश्च नरव्याघ्र यथा व्याघ्रा नरोत्तमाः।
तेषां तु क्रोशतामासीद् भीतानां रणमूर्धनि ॥ ५५ ॥
धावतां च ततो राजंस्त्रस्तानां च समन्ततः।
आर्तनादो महांस्तत्र भूतानामिव सम्प्लवे ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! वे श्रेष्ठ योद्धा व्याघ्रोंके समान चीत्कार करते थे। राजन्! युद्धके मुहानेपर भयभीत हो चिल्लाते और डरकर सब ओर भागते हुए उन सैनिकोंका महान् आर्तनाद प्रलयकालमें समस्त प्राणियोंके चीत्कारके समान जान पड़ता था॥५५-५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वध्यमानांस्तु तान् दृष्ट्वा सूतपुत्रेण मारिष।
वित्रेसुः सर्वभूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि ॥ ५७ ॥
मूलम्
वध्यमानांस्तु तान् दृष्ट्वा सूतपुत्रेण मारिष।
वित्रेसुः सर्वभूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! सूतपुत्रके द्वारा मारे जाते हुए उन योद्धाओंको देखकर समस्त प्राणी पशु-पक्षी भी भयसे थर्रा उठे॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वध्यमानाः समरे सूतपुत्रेण सृञ्जयाः।
अर्जुनं वासुदेवं च क्रोशन्ति च मुहुर्मुहुः ॥ ५८ ॥
प्रेतराजपुरे यद्वत् प्रेतराजं विचेतसः।
मूलम्
ते वध्यमानाः समरे सूतपुत्रेण सृञ्जयाः।
अर्जुनं वासुदेवं च क्रोशन्ति च मुहुर्मुहुः ॥ ५८ ॥
प्रेतराजपुरे यद्वत् प्रेतराजं विचेतसः।
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्रद्वारा समरांगणमें मारे जाते हुए सृंजय बारंबार अर्जुन और श्रीकृष्णको पुकारते थे। ठीक उसी तरह, जैसे प्रेतराजके नगरमें क्लेशसे अचेत हुए प्राणी प्रेतराजको ही पुकारते हैं॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तु निनदं तेषां वध्यतां कर्णसायकैः ॥ ५९ ॥
अथाब्रवीद् वासुदेवं कुन्तीपुत्रो धनंजयः।
भार्गवास्त्रं महाघोरं दृष्ट्वा तत्र समीरितम् ॥ ६० ॥
मूलम्
श्रुत्वा तु निनदं तेषां वध्यतां कर्णसायकैः ॥ ५९ ॥
अथाब्रवीद् वासुदेवं कुन्तीपुत्रो धनंजयः।
भार्गवास्त्रं महाघोरं दृष्ट्वा तत्र समीरितम् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके बाणोंद्वारा मारे जाते हुए उन सैनिकोंका आर्तनाद सुनकर तथा वहाँ महाभयंकर भार्गवास्त्रका प्रयोग हुआ देखकर कुन्तीपुत्र अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—॥५९-६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य कृष्ण महाबाहो भार्गवास्त्रस्य विक्रमम्।
नैतदस्त्रं हि समरे शक्यं हन्तुं कथञ्चन ॥ ६१ ॥
मूलम्
पश्य कृष्ण महाबाहो भार्गवास्त्रस्य विक्रमम्।
नैतदस्त्रं हि समरे शक्यं हन्तुं कथञ्चन ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु श्रीकृष्ण! यह भार्गवास्त्रका पराक्रम देखिये। समरांगणमें किसी तरह इस अस्त्रको नष्ट नहीं किया जा सकता॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतपुत्रं च संरब्धं पश्य कृष्ण महारणे।
अन्तकप्रतिमं वीर्ये कुर्वाणं कर्म दारुणम् ॥ ६२ ॥
मूलम्
सूतपुत्रं च संरब्धं पश्य कृष्ण महारणे।
अन्तकप्रतिमं वीर्ये कुर्वाणं कर्म दारुणम् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण! देखिये, क्रोधमें भरा हुआ सूतपुत्र, जो पराक्रममें यमराजके समान है, महासमरमें कैसा दारुण कर्म कर रहा है॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभीक्ष्णं चोदयन्नश्वान् प्रेक्षते मां मुहुर्मुहुः।
न च पश्यामि समरे कर्णं प्रति पलायितुम् ॥ ६३ ॥
मूलम्
अभीक्ष्णं चोदयन्नश्वान् प्रेक्षते मां मुहुर्मुहुः।
न च पश्यामि समरे कर्णं प्रति पलायितुम् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह निरन्तर घोड़ोंको हाँकता हुआ बारंबार मेरी ही ओर देख रहा है। समरभूमिमें कर्णके सामनेसे पलायन करना मैं उचित नहीं समझता॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवन् प्राप्नोति पुरुषः संख्ये जयपराजयौ।
मृतस्य तु हृषीकेश भङ्ग एव कुतो जयः ॥ ६४ ॥
मूलम्
जीवन् प्राप्नोति पुरुषः संख्ये जयपराजयौ।
मृतस्य तु हृषीकेश भङ्ग एव कुतो जयः ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य जीवित रहे तो वह युद्धमें विजय और पराजय दोनों पाता है। हृषीकेश! मरे हुए मनुष्यका तो नाश ही हो जाता है; फिर उसकी विजय कहाँसे हो सकती है’॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु पार्थेन कृष्णो मतिमतां वरम्।
धनंजयमुवाचेदं प्राप्तकालमरिंदमम् ॥ ६५ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु पार्थेन कृष्णो मतिमतां वरम्।
धनंजयमुवाचेदं प्राप्तकालमरिंदमम् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके ऐसा कहनेपर श्रीकृष्णने बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ शत्रुदमन अर्जुनसे यह समयोचित बात कही—॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णेन हि दृढं राजा कुन्तीपुत्रः परिक्षितः।
तं दृष्ट्वाऽऽश्वास्य च पुनः कर्णं पार्थ वधिष्यसि ॥ ६६ ॥
मूलम्
कर्णेन हि दृढं राजा कुन्तीपुत्रः परिक्षितः।
तं दृष्ट्वाऽऽश्वास्य च पुनः कर्णं पार्थ वधिष्यसि ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पार्थ! कर्णने राजा युधिष्ठिरको अत्यन्त क्षत-विक्षत कर दिया है। उनसे मिलकर उन्हें धीरज बँधाकर फिर तुम कर्णका वध करना’॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा पुनः प्रायाद् द्रष्टुमिच्छन् युधिष्ठिरम्।
श्रमेण ग्राहयिष्यंश्च युद्धे कर्णं विशाम्पते ॥ ६७ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा पुनः प्रायाद् द्रष्टुमिच्छन् युधिष्ठिरम्।
श्रमेण ग्राहयिष्यंश्च युद्धे कर्णं विशाम्पते ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! ऐसा कहकर वे पुनः युधिष्ठिरसे मिलनेकी इच्छासे तथा कर्णको युद्धमें अधिक थकावट प्राप्त करानेके लिये वहाँसे चल दिये॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो धनंजयो द्रष्टुं राजानं बाणपीडितम्।
रथेन प्रययौ क्षिप्रं संग्रामात् केशवाज्ञया ॥ ६८ ॥
मूलम्
ततो धनंजयो द्रष्टुं राजानं बाणपीडितम्।
रथेन प्रययौ क्षिप्रं संग्रामात् केशवाज्ञया ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् अर्जुन श्रीकृष्णकी आज्ञासे बाणपीड़ित राजा युधिष्ठिरको देखनेके लिये रथके द्वारा युद्धस्थलसे शीघ्रतापूर्वक गये॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छन्नेव तु कौन्तेयो धर्मराजदिदृक्षया।
सैन्यमालोकयामास नापश्यत् तत्र चाग्रजम् ॥ ६९ ॥
युद्धं कृत्वा तु कौन्तेयो द्रोणपुत्रेण भारत।
दुःसहं वज्रिणा संख्ये पराजित्य गुरोः सुतम् ॥ ७० ॥
मूलम्
गच्छन्नेव तु कौन्तेयो धर्मराजदिदृक्षया।
सैन्यमालोकयामास नापश्यत् तत्र चाग्रजम् ॥ ६९ ॥
युद्धं कृत्वा तु कौन्तेयो द्रोणपुत्रेण भारत।
दुःसहं वज्रिणा संख्ये पराजित्य गुरोः सुतम् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! कुन्तीकुमार अर्जुनने द्रोणपुत्रके साथ युद्ध करके रणभूमिमें वज्रधारी इन्द्रके लिये भी दुःसह उस गुरुपुत्रको पराजित करनेके पश्चात् जाते समय धर्मराजको देखनेकी इच्छासे सारी सेनापर दृष्टिपात किया। परंतु वहाँ कहीं भी अपने बड़े भाईको नहीं देखा॥६९-७०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि धर्मराजशोधने चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें युधिष्ठिरकी खोजविषयक चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६४॥