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भागसूचना

षष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका अर्जुनसे दुर्योधन और कर्णके पराक्रमका वर्णन करके कर्णको मारनेके लिये अर्जुनको उत्साहित करना तथा भीमसेनके दुष्कर पराक्रमका वर्णन करना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नन्तरे कृष्णः पार्थं वचनमब्रवीत्।
दर्शयन्निव कौन्तेयं धर्मराजं युधिष्ठिरम् ॥ १ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नन्तरे कृष्णः पार्थं वचनमब्रवीत्।
दर्शयन्निव कौन्तेयं धर्मराजं युधिष्ठिरम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! इसी समय भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको धर्मराज युधिष्ठिरका दर्शन कराते हुए-से इस प्रकार कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष पाण्डव ते भ्राता धार्तराष्ट्रैर्महाबलैः।
जिघांसुभिर्महेष्वासैर्द्रुतं पार्थोऽनुसार्यते ॥ २ ॥

मूलम्

एष पाण्डव ते भ्राता धार्तराष्ट्रैर्महाबलैः।
जिघांसुभिर्महेष्वासैर्द्रुतं पार्थोऽनुसार्यते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन! ये तुम्हारे भाई कुन्तीकुमार युधिष्ठिर हैं, जिन्हें मार डालनेकी इच्छासे महाबली महाधनुर्धर धृतराष्ट्रपुत्र शीघ्रतापूर्वक इनका पीछा कर रहे हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं चानुयान्ति संरब्धाः पञ्चाला युद्धदुर्मदाः।
युधिष्ठिरं महात्मानं परीप्सन्तो महाबलाः ॥ ३ ॥

मूलम्

तं चानुयान्ति संरब्धाः पञ्चाला युद्धदुर्मदाः।
युधिष्ठिरं महात्मानं परीप्सन्तो महाबलाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रणदुर्मद महाबली पांचाल-सैनिक महात्मा युधिष्ठिरकी रक्षा करते हुए बड़े रोष और आवेशमें भरकर उनके साथ जा रहे हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष दुर्योधनः पार्थ रथानीकेन दंशितः।
राजा सर्वस्य लोकस्य राजानमनुधावति ॥ ४ ॥

मूलम्

एष दुर्योधनः पार्थ रथानीकेन दंशितः।
राजा सर्वस्य लोकस्य राजानमनुधावति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! यह सम्पूर्ण जगत्‌का राजा दुर्योधन कवच धारण करके रथसेनाके साथ राजा युधिष्ठिरका पीछा कर रहा है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिघांसुः पुरुषव्याघ्र भ्रातृभिः सहितो बली।
आशीविषसमस्पर्शैः सर्वयुद्धविशारदैः ॥ ५ ॥

मूलम्

जिघांसुः पुरुषव्याघ्र भ्रातृभिः सहितो बली।
आशीविषसमस्पर्शैः सर्वयुद्धविशारदैः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह! जिनका स्पर्श विषधर सर्पोंके समान भयंकर है तथा जो सम्पूर्ण युद्ध-कलाओंमें निपुण हैं, उन भाइयोंके साथ बली दुर्योधन राजा युधिष्ठिरको मार डालनेकी इच्छासे उनके पीछे लगा हुआ है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते जिघृक्षवो यान्ति द्विपाश्वरथपत्तयः।
युधिष्ठिरं धार्तराष्ट्रा नरोत्तममिवार्थिनः ॥ ६ ॥

मूलम्

एते जिघृक्षवो यान्ति द्विपाश्वरथपत्तयः।
युधिष्ठिरं धार्तराष्ट्रा नरोत्तममिवार्थिनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे याचक किसी श्रेष्ठ पुरुषको पाना चाहते हैं, उसी प्रकार हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंसहित ये दुर्योधनके सैनिक युधिष्ठिरको पकड़नेके लिये उनपर चढ़ाई करते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य सात्वतभीमाभ्यां निरुद्धाधिष्ठिताः पुनः।
जिहीर्षवोऽमृतं दैत्याः शक्राग्निभ्यामिवासकृत् ॥ ७ ॥

मूलम्

पश्य सात्वतभीमाभ्यां निरुद्धाधिष्ठिताः पुनः।
जिहीर्षवोऽमृतं दैत्याः शक्राग्निभ्यामिवासकृत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, जैसे अमृतका अपहरण करनेकी इच्छावाले दैत्योंको इन्द्र और अग्निने बारंबार रोका था, उसी प्रकार ये दुर्योधनके सैनिक सात्यकि और भीमसेनके द्वारा अवरुद्ध होकर पुनः खड़े हो गये हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते बहुत्वात्त्वरिताः पुनर्गच्छन्ति पाण्डवम्।
समुद्रमिव वार्योघाः प्रावृट्काले महारथाः ॥ ८ ॥

मूलम्

एते बहुत्वात्त्वरिताः पुनर्गच्छन्ति पाण्डवम्।
समुद्रमिव वार्योघाः प्रावृट्काले महारथाः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे वर्षाकालमें जलके प्रवाह अधिक होनेके कारण समुद्रतक चले जाते हैं, उसी प्रकार ये कौरव महारथी बहुसंख्यक होनेके कारण पुनः बड़ी उतावलीके साथ पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरपर चढ़े जा रहे हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदन्तः सिंहनादांश्च धमन्तश्चापि वारिजान्।
बलवन्तो महेष्वासा विधुन्वन्तो धनूंषि च ॥ ९ ॥

मूलम्

नदन्तः सिंहनादांश्च धमन्तश्चापि वारिजान्।
बलवन्तो महेष्वासा विधुन्वन्तो धनूंषि च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे बलवान् और महाधनुर्धर कौरव सिंहनाद करते, शंख बजाते और अपने धनुषोंको कँपाते हुए आगे बढ़ रहे हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्योर्मुखगतं मन्ये कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
हुतमग्नौ च कौन्तेयं दुर्योधनवशं गतम् ॥ १० ॥

मूलम्

मृत्योर्मुखगतं मन्ये कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
हुतमग्नौ च कौन्तेयं दुर्योधनवशं गतम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तो समझता हूँ कि इस समय कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर दुर्योधनके अधीन हो मृत्युके मुखमें चले गये हैं अथवा प्रज्वलित अग्निकी आहुति बन गये हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाविधमनीकं तु धार्तराष्ट्रस्य पाण्डव।
नास्य शक्रोऽपि मुच्येत सम्प्राप्तो बाणगोचरम् ॥ ११ ॥

मूलम्

यथाविधमनीकं तु धार्तराष्ट्रस्य पाण्डव।
नास्य शक्रोऽपि मुच्येत सम्प्राप्तो बाणगोचरम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन! दुर्योधनकी सेनाका जैसा व्यूह दिखायी दे रहा है, उससे यह जान पड़ता है कि उसके बाणोंके मार्गमें आ जानेपर इन्द्र भी जीवित नहीं छूट सकते॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनस्य वीरस्य शरौघान् शीघ्रमस्यतः।
संक्रुद्धस्यान्तकस्येव को वेगं संसहेद् रणे ॥ १२ ॥

मूलम्

दुर्योधनस्य वीरस्य शरौघान् शीघ्रमस्यतः।
संक्रुद्धस्यान्तकस्येव को वेगं संसहेद् रणे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्रोधमें भरे हुए यमराजके समान शीघ्रतापूर्वक बाणसमूहोंकी वर्षा करनेवाले वीर दुर्योधनका वेग इस युद्धमें कौन सह सकता है?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनस्य वीरस्य द्रौणेः शारद्वतस्य च।
कर्णस्य चेषुवेगो वै पर्वतानपि शातयेत् ॥ १३ ॥

मूलम्

दुर्योधनस्य वीरस्य द्रौणेः शारद्वतस्य च।
कर्णस्य चेषुवेगो वै पर्वतानपि शातयेत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर दुर्योधन, अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा कर्णके बाणोंका वेग पर्वतोंको भी विदीर्ण कर सकता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णेन च कृतो राजा विमुखः शत्रुतापनः।
बलवाल्ँलघुहस्तश्च कृती युद्धविशारदः ॥ १४ ॥

मूलम्

कर्णेन च कृतो राजा विमुखः शत्रुतापनः।
बलवाल्ँलघुहस्तश्च कृती युद्धविशारदः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्णने शत्रुओंको संताप देनेवाले, शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले, बलवान्, विद्वान् और युद्धकुशल राजा युधिष्ठिरको युद्धसे विमुख कर दिया है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राधेयः पाण्डवश्रेष्ठं शक्तः पीडयितुं रणे।
सहितो धृतराष्ट्रस्य पुत्रैः शूरैर्महाबलैः ॥ १५ ॥

मूलम्

राधेयः पाण्डवश्रेष्ठं शक्तः पीडयितुं रणे।
सहितो धृतराष्ट्रस्य पुत्रैः शूरैर्महाबलैः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धृतराष्ट्रके महाबली शूरवीर पुत्रोंके साथ रहकर राधापुत्र कर्ण रणभूमिमें पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिरको अवश्य पीड़ा दे सकता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैभिर्युध्यमानस्य संग्रामे संयतात्मनः ।
अन्यैरपि च पार्थस्य हृतं वर्म महारथैः ॥ १६ ॥

मूलम्

तस्यैभिर्युध्यमानस्य संग्रामे संयतात्मनः ।
अन्यैरपि च पार्थस्य हृतं वर्म महारथैः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संग्राममें जूझते हुए संयतचित्त कुन्तीकुमार युधिष्ठिरके कवचको इन दुर्योधन आदि धृतराष्ट्रपुत्रों तथा अन्य महारथियोंने नष्ट कर दिया है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासकृशो राजा भृशं भरतसत्तमः।
ब्राह्मे बले स्थितो ह्येष न क्षात्रे हि बले विभुः॥१७॥

मूलम्

उपवासकृशो राजा भृशं भरतसत्तमः।
ब्राह्मे बले स्थितो ह्येष न क्षात्रे हि बले विभुः॥१७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतकुलशिरोमणि राजा युधिष्ठिर उपवास करनेसे अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। ये ब्राह्मबलमें स्थित हैं, क्षात्रबल प्रकट करनेमें समर्थ नहीं हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णेन चाभियुक्तोऽयं भूपतिः शत्रुतापनः।
संशयं समनुप्राप्तः पाण्डवो वै युधिष्ठिरः ॥ १८ ॥

मूलम्

कर्णेन चाभियुक्तोऽयं भूपतिः शत्रुतापनः।
संशयं समनुप्राप्तः पाण्डवो वै युधिष्ठिरः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंको तपानेवाले ये पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर कर्णके साथ युद्ध करके प्राणसंकटकी अवस्थामें पहुँच गये हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जीवति महाराजो मन्ये पार्थ युधिष्ठिरः।
यद् भीमसेनः सहते सिंहनादममर्षणः ॥ १९ ॥
नदतां धार्तराष्ट्राणां पुनः पुनररिंदमः।
धमतां च महाशङ्खान् संग्रामे जितकाशिनाम् ॥ २० ॥

मूलम्

न जीवति महाराजो मन्ये पार्थ युधिष्ठिरः।
यद् भीमसेनः सहते सिंहनादममर्षणः ॥ १९ ॥
नदतां धार्तराष्ट्राणां पुनः पुनररिंदमः।
धमतां च महाशङ्खान् संग्रामे जितकाशिनाम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! मुझे जान पड़ता है कि महाराज युधिष्ठिर जीवित नहीं हैं; क्योंकि अमर्षशील शत्रुदमन भीमसेन संग्राममें विजयसे उल्लसित हो बड़े-बड़े शंख बजाते और बारंबार गर्जते हुए धृतराष्ट्रपुत्रोंका सिंहनाद चुपचाप सहन करते हैं॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरं पाण्डवेयं हतेति भरतर्षभ।
संचोदयत्यसौ कर्णो धार्तराष्ट्रान् महाबलान् ॥ २१ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरं पाण्डवेयं हतेति भरतर्षभ।
संचोदयत्यसौ कर्णो धार्तराष्ट्रान् महाबलान् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! वह कर्ण महाबली धृतराष्ट्रपुत्रोंको यह प्रेरणा दे रहा है कि तुम सब लोग मिलकर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको मार डालो॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थूणाकर्णेन्द्रजालेन पार्थ पाशुपतेन च।
प्रच्छादयन्ति राजानं शस्त्रजालैर्महारथाः ॥ २२ ॥

मूलम्

स्थूणाकर्णेन्द्रजालेन पार्थ पाशुपतेन च।
प्रच्छादयन्ति राजानं शस्त्रजालैर्महारथाः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! कौरव महारथी स्थूणाकर्ण, इन्द्रजाल, पाशुपत तथा अन्य प्रकारके शस्त्रसमूहोंसे राजा युधिष्ठिरको आच्छादित कर रहे हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आतुरो हि कृतो राजा संनिषेव्यश्च भारत।
यथैनमनुवर्तन्ते पञ्चालाः सह पाण्डवैः ॥ २३ ॥

मूलम्

आतुरो हि कृतो राजा संनिषेव्यश्च भारत।
यथैनमनुवर्तन्ते पञ्चालाः सह पाण्डवैः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! राजा युधिष्ठिर आतुर एवं सेवाके योग्य कर दिये गये हैं; जैसा कि पाण्डवोंसहित पांचाल उनके पीछे-पीछे सेवाके लिये जा रहे हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वरमाणास्त्वराकाले सर्वशस्त्रभृतां वराः ।
मज्जन्तमिव पाताले बलिनोऽप्युज्जिहीर्षवः ॥ २४ ॥

मूलम्

त्वरमाणास्त्वराकाले सर्वशस्त्रभृतां वराः ।
मज्जन्तमिव पाताले बलिनोऽप्युज्जिहीर्षवः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शीघ्रताके अवसरपर शीघ्रता करनेवाले सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ बलवान् पाण्डव-योद्धा युधिष्ठिरका ऐसी अवस्थामें उद्धार करनेके लिये उत्सुक दिखायी देते हैं, मानो वे पातालमें डूब रहे हों॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न केतुर्दृश्यते राज्ञः कर्णेन निहतः शरैः।
पश्यतोर्यमयोः पार्थ सात्यकेश्च शिखण्डिनः ॥ २५ ॥
धृष्टद्युम्नस्य भीमस्य शतानीकस्य वा विभो।
पञ्चालानां च सर्वेषां चेदीनां चैव भारत ॥ २६ ॥

मूलम्

न केतुर्दृश्यते राज्ञः कर्णेन निहतः शरैः।
पश्यतोर्यमयोः पार्थ सात्यकेश्च शिखण्डिनः ॥ २५ ॥
धृष्टद्युम्नस्य भीमस्य शतानीकस्य वा विभो।
पञ्चालानां च सर्वेषां चेदीनां चैव भारत ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! राजाका ध्वज नहीं दिखायी देता है। कर्णने अपने बाणोंद्वारा उसे काट डाला है। भरतनन्दन! प्रभो! यह कार्य उसने नकुल-सहदेव, सात्यकि, शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, भीमसेन, शतानीक, समस्त पांचाल-सैनिक तथा चेदिदेशीय योद्धाओंके देखते-देखते किया है॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष कर्णो रणे पार्थ पाण्डवानामनीकिनीम्।
शरैर्विध्वंसयति वै नलिनीमिव कुञ्जरः ॥ २७ ॥

मूलम्

एष कर्णो रणे पार्थ पाण्डवानामनीकिनीम्।
शरैर्विध्वंसयति वै नलिनीमिव कुञ्जरः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! जैसे हाथी कमलोंसे भरी हुई पुष्करिणीको मथ डालता है, उसी प्रकार यह कर्ण रणभूमिमें अपने बाणोंद्वारा पाण्डव-सेनाका विध्वंस कर रहा है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते द्रवन्ति रथिनस्त्वदीयाः पाण्डुनन्दन।
पश्य पश्य यथा पार्थ गच्छन्त्येते महारथाः ॥ २८ ॥

मूलम्

एते द्रवन्ति रथिनस्त्वदीयाः पाण्डुनन्दन।
पश्य पश्य यथा पार्थ गच्छन्त्येते महारथाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन! ये तुम्हारे रथी भागे जा रहे हैं। पार्थ! देखो, देखो, ये महारथी भी कैसे खिसके जा रहे हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते भारत मातङ्गाः कर्णेनाभिहताः शरैः।
आर्तनादान् विकुर्वाणा विद्रवन्ति दिशो दश ॥ २९ ॥

मूलम्

एते भारत मातङ्गाः कर्णेनाभिहताः शरैः।
आर्तनादान् विकुर्वाणा विद्रवन्ति दिशो दश ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! कर्णके बाणोंसे मारे गये ये मतवाले हाथी आर्तनाद करते हुए दसों दिशाओंमें भाग रहे हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथानां द्रवते वृन्दमेतच्चैव समन्ततः।
द्राव्यमाणं रणे पार्थ कर्णेनामित्रकर्षिणा ॥ ३० ॥

मूलम्

रथानां द्रवते वृन्दमेतच्चैव समन्ततः।
द्राव्यमाणं रणे पार्थ कर्णेनामित्रकर्षिणा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीकुमार! रणभूमिमें शत्रुसूदन कर्णके द्वारा खदेड़ा हुआ यह रथियोंका समूह सब ओर पलायन कर रहा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्तिकक्ष्यां रणे पश्य चरन्तीं तत्र तत्र ह।
रथस्थं सूतपुत्रस्य केतुं केतुमतां वर ॥ ३१ ॥

मूलम्

हस्तिकक्ष्यां रणे पश्य चरन्तीं तत्र तत्र ह।
रथस्थं सूतपुत्रस्य केतुं केतुमतां वर ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ध्वज धारण करनेवाले रथियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! देखो, सूतपुत्रके रथपर कैसी ध्वजा फहरा रही है? हाथीकी रस्सीके चिह्नसे युक्त उसकी पताका रणभूमिमें यत्र-तत्र कैसे विचरण कर रही है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असौ धावति राधेयो भीमसेनरथं प्रति।
किरञ्शरशतान्येव विनिघ्नंस्तव वाहिनीम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

असौ धावति राधेयो भीमसेनरथं प्रति।
किरञ्शरशतान्येव विनिघ्नंस्तव वाहिनीम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह राधापुत्र कर्ण सैकड़ों बाणोंकी वर्षा करके तुम्हारी सेनाका संहार करता हुआ भीमसेनके रथपर धावा कर रहा है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतान् पश्य च पञ्चालान्‌ द्राव्यमाणान् महारथान्।
शक्रेणेव यथा दैत्यान् हन्यमानान् महाहवे ॥ ३३ ॥

मूलम्

एतान् पश्य च पञ्चालान्‌ द्राव्यमाणान् महारथान्।
शक्रेणेव यथा दैत्यान् हन्यमानान् महाहवे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे देवराज इन्द्र दैत्योंको खदेड़ते और मारते हैं, उसी प्रकार महासमरमें कर्णके द्वारा खदेड़े और मारे जानेवाले इन पांचाल महारथियोंको देखो॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष कर्णो रणे जित्वा पञ्चालान् पाण्डुसृञ्जयान्।
दिशो विप्रेक्षते सर्वास्त्वदर्थमिति मे मतिः ॥ ३४ ॥

मूलम्

एष कर्णो रणे जित्वा पञ्चालान् पाण्डुसृञ्जयान्।
दिशो विप्रेक्षते सर्वास्त्वदर्थमिति मे मतिः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह कर्ण रणभूमिमें पांचालों, पाण्डवों और सृंजयोंको जीतकर अब तुम्हें परास्त करनेके लिये सारी दिशाओंमें दृष्टिपात कर रहा है; ऐसा मेरा मत है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य पार्थ धनुः श्रेष्ठं विकर्षन् साधु शोभते।
शत्रुं जित्वा यथा शक्रो देवसंघैः समावृतः ॥ ३५ ॥

मूलम्

पश्य पार्थ धनुः श्रेष्ठं विकर्षन् साधु शोभते।
शत्रुं जित्वा यथा शक्रो देवसंघैः समावृतः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन! देखो, जैसे देवराज इन्द्र शत्रुपर विजय पाकर देवसमूहोंसे घिरे हुए शोभा पाते हैं, उसी प्रकार यह कर्ण कौरवोंके बीचमें अपने श्रेष्ठ धनुषको खींचता हुआ सुशोभित हो रहा है—॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते नर्दन्ति कौरव्या दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम्।
त्रासयन्तो रणे पाण्डून् सृञ्जयांश्च समन्ततः ॥ ३६ ॥

मूलम्

एते नर्दन्ति कौरव्या दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम्।
त्रासयन्तो रणे पाण्डून् सृञ्जयांश्च समन्ततः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्णका पराक्रम देखकर ये कौरवयोद्धा रणभूमिमें पाण्डवों और सृंजयोंको सब ओरसे डराते हुए जोर-जोरसे गर्जना करते हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष सर्वात्मना पाण्डूंस्त्रासयित्वा महारणे।
अभिभाषति राधेयः सर्वसैन्यानि मानद ॥ ३७ ॥

मूलम्

एष सर्वात्मना पाण्डूंस्त्रासयित्वा महारणे।
अभिभाषति राधेयः सर्वसैन्यानि मानद ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मानद! यह राधापुत्र कर्ण महासमरमें पाण्डव-सैनिकोंको सर्वथा भयभीत करके अपनी सम्पूर्ण सेनाओंसे इस प्रकार कह रहा है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिद्रवत भद्रं वो द्रुतं द्रवत कौरवाः।
यथा जीवन्न वः कश्चिन्मुच्येत युधि सृञ्जयः ॥ ३८ ॥
तथा कुरुत संयत्ता वयं यास्याम पृष्ठतः।

मूलम्

अभिद्रवत भद्रं वो द्रुतं द्रवत कौरवाः।
यथा जीवन्न वः कश्चिन्मुच्येत युधि सृञ्जयः ॥ ३८ ॥
तथा कुरुत संयत्ता वयं यास्याम पृष्ठतः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवो! तुम्हारा कल्याण हो। दौड़ो और वेगपूर्वक धावा करो। आज युद्धस्थलमें कोई सृंजय तुम्हारे हाथसे जिस प्रकार भी जीवित न छूटने पावे, सावधान होकर वैसा ही प्रयत्न करो। हम सब लोग तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा गतो ह्येष पृष्ठतो विकिरन् शरान् ॥ ३९ ॥
पश्य कर्णं रणे पार्थ श्वेतच्छत्रविराजितम्।
उदयं पर्वतं यद्वच्छशाङ्केनाभिशोभितम् ॥ ४० ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा गतो ह्येष पृष्ठतो विकिरन् शरान् ॥ ३९ ॥
पश्य कर्णं रणे पार्थ श्वेतच्छत्रविराजितम्।
उदयं पर्वतं यद्वच्छशाङ्केनाभिशोभितम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसा कहकर यह कर्ण पीछेसे बाण-वर्षा करता हुआ गया है। पार्थ! रणभूमिमें श्वेत छत्रसे विराजमान कर्णको देखो। वह चन्द्रमासे सुशोभित उदयाचलके समान जान पड़ता है॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णचन्द्रनिकाशेन मूर्ध्निच्छत्रेण भारत ।
ध्रियमाणेन समरे श्रीमच्छतशलाकिना ॥ ४१ ॥
एष त्वां प्रेक्षते कर्णः सकटाक्षं विशाम्पते।
उत्तमं जवमास्थाय ध्रुवमेष्यति संयुगे ॥ ४२ ॥

मूलम्

पूर्णचन्द्रनिकाशेन मूर्ध्निच्छत्रेण भारत ।
ध्रियमाणेन समरे श्रीमच्छतशलाकिना ॥ ४१ ॥
एष त्वां प्रेक्षते कर्णः सकटाक्षं विशाम्पते।
उत्तमं जवमास्थाय ध्रुवमेष्यति संयुगे ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! प्रजानाथ! समरांगणमें जिसके मस्तकपर सौ तेजस्वी शलाकाओंसे युक्त और पूर्ण चन्द्रमाके समान प्रकाशमान श्वेत छत्र तना हुआ है, वही यह कर्ण तुम्हारी ओर कटाक्षपूर्वक देख रहा है। निश्चय ही यह युद्धस्थलमें उत्तम वेगका आश्रय लेकर तुम्हारे सामने आयेगा॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य ह्येनं महाबाहो विधुन्वानं महद् धनुः।
शरांश्चाशीविषाकारान् विसृजन्तं महारणे ॥ ४३ ॥

मूलम्

पश्य ह्येनं महाबाहो विधुन्वानं महद् धनुः।
शरांश्चाशीविषाकारान् विसृजन्तं महारणे ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! इसे देखो, यह अपना विशाल धनुष हिलाता हुआ महासमरमें विषधर सर्पोंके समान विषैले बाणोंकी वृष्टि कर रहा है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असौ निवृत्तो राधेयो दृष्ट्वा ते वानरध्वजम्।
प्रार्थयन् समरे पार्थ त्वया सह परंतप ॥ ४४ ॥

मूलम्

असौ निवृत्तो राधेयो दृष्ट्वा ते वानरध्वजम्।
प्रार्थयन् समरे पार्थ त्वया सह परंतप ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंको संताप देनेवाले कुन्तीकुमार! वह देखो, तुम्हारे वानरध्वजको देखकर समरमें तुम्हारे साथ द्वैरथ युद्ध चाहता हुआ राधापुत्र कर्ण इधर लौट पड़ा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधाय चात्मनोऽभ्येति दीप्तास्यं शलभो यथा।
कर्णमेकाकिनं दृष्ट्वा रथानीकेन भारत ॥ ४५ ॥
रिरक्षिषुः सुसंवृत्तो धार्तराष्ट्रो निवर्तते।

मूलम्

वधाय चात्मनोऽभ्येति दीप्तास्यं शलभो यथा।
कर्णमेकाकिनं दृष्ट्वा रथानीकेन भारत ॥ ४५ ॥
रिरक्षिषुः सुसंवृत्तो धार्तराष्ट्रो निवर्तते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे पतंग प्रज्वलित आगके मुखमें आ पड़ता है, उसी प्रकार यह कर्ण अपने वधके लिये ही तुम्हारे पास आ रहा है। भारत! कर्णको अकेला देख उसकी रक्षाके लिये धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन भी रथसेनासे घिरा हुआ इधर ही लौट रहा है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वैः सहैभिर्दुष्टात्मा वध्यतां च प्रयत्नतः ॥ ४६ ॥
त्वया यशश्च राज्यं च सुखं चोत्तममिच्छता।

मूलम्

सर्वैः सहैभिर्दुष्टात्मा वध्यतां च प्रयत्नतः ॥ ४६ ॥
त्वया यशश्च राज्यं च सुखं चोत्तममिच्छता।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम यश, राज्य और उत्तम सुखकी अभिलाषा रखकर इन सबके साथ दुष्टात्मा कर्णका प्रयत्नपूर्वक वध कर डालो॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदीनयोर्विश्रुतयोर्युवयोर्योत्स्यमानयोः ॥ ४७ ॥
देवासुरे पार्थमृधे देवदानवयोरिव ।
पश्यन्तु कौरवाः सर्वे तव पार्थ पराक्रमम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

अदीनयोर्विश्रुतयोर्युवयोर्योत्स्यमानयोः ॥ ४७ ॥
देवासुरे पार्थमृधे देवदानवयोरिव ।
पश्यन्तु कौरवाः सर्वे तव पार्थ पराक्रमम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! जैसे देवासुरसंग्राममें देवताओं और दानवोंका युद्ध हुआ था, उसी प्रकार जब तुम दोनों विश्वविख्यात वीरोंमें सोत्साह युद्ध होने लगे, उस समय समस्त कौरव तुम्हारा पराक्रम देखें॥४७-४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां च दृष्ट्वातिसंरब्धं कर्णं च भरतर्षभ।
असौ दुर्योधनः क्रुद्धो नोत्तरं प्रतिपद्यते ॥ ४९ ॥

मूलम्

त्वां च दृष्ट्वातिसंरब्धं कर्णं च भरतर्षभ।
असौ दुर्योधनः क्रुद्धो नोत्तरं प्रतिपद्यते ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए तुमको और कर्णको देखकर उस क्रोधी दुर्योधनको कोई उत्तर नहीं सूझ पड़ेगा॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मानं च कृतात्मानं समीक्ष्य भरतर्षभ।
कृतागसं च राधेयं धर्मात्मनि युधिष्ठिरे।
प्रतिपद्यस्व कौन्तेय प्राप्तकालमनन्तरम् ॥ ५० ॥

मूलम्

आत्मानं च कृतात्मानं समीक्ष्य भरतर्षभ।
कृतागसं च राधेयं धर्मात्मनि युधिष्ठिरे।
प्रतिपद्यस्व कौन्तेय प्राप्तकालमनन्तरम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतभूषण कुन्तीकुमार! तुम अपनेको पुण्यात्मा तथा राधापुत्र कर्णको धर्मात्मा युधिष्ठिरका अपराधी समझकर अब समयोचित कर्तव्यका पालन करो॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा प्रत्येहि रथयूथपम्।
पञ्च ह्येतानि मुख्यानि रथानां रथसत्तम ॥ ५१ ॥
शतान्यायान्ति समरे बलिनां तिग्मतेजसाम्।
पञ्च नागसहस्राणि द्विगुणा वाजिनस्तथा ॥ ५२ ॥
अभिसंहत्य कौन्तेय पदातिप्रयुतानि च।

मूलम्

आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा प्रत्येहि रथयूथपम्।
पञ्च ह्येतानि मुख्यानि रथानां रथसत्तम ॥ ५१ ॥
शतान्यायान्ति समरे बलिनां तिग्मतेजसाम्।
पञ्च नागसहस्राणि द्विगुणा वाजिनस्तथा ॥ ५२ ॥
अभिसंहत्य कौन्तेय पदातिप्रयुतानि च।

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धविषयक श्रेष्ठ बुद्धिका आश्रय लेकर तुम रथयूथपति कर्णपर चढ़ाई करो। रथियोंमें श्रेष्ठ वीर! देखो, समरभूमिमें ये प्रचण्ड तेजस्वी, महाबली एवं मुख्य-मुख्य पाँच सौ रथी आ रहे हैं। इनके साथ ही पाँच हजार हाथी और दस हजार घोड़े हैं। कुन्तीनन्दन! ये सब-के-सब संगठित हो दस लाख पैदल योद्धाओंको साथ ले आ रहे हैं॥५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यरक्षितं वीर बलं त्वामभिवर्तते ॥ ५३ ॥
द्रोणपुत्रं पुरस्कृत्य तच्छीघ्रं संनिषुदय।

मूलम्

अन्योन्यरक्षितं वीर बलं त्वामभिवर्तते ॥ ५३ ॥
द्रोणपुत्रं पुरस्कृत्य तच्छीघ्रं संनिषुदय।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! द्रोणपुत्र अश्वत्थामाको आगे करके एक-दूसरेके द्वारा सुरक्षित यह सेना तुमपर आक्रमण कर रही है। तुम शीघ्र ही इसका संहार कर डालो॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निकृत्यैतद्रथानीकं बलिनं लोकविश्रुतम् ॥ ५४ ॥
सूतपुत्रं महेष्वासं दर्शयात्मानमात्मना ।

मूलम्

निकृत्यैतद्रथानीकं बलिनं लोकविश्रुतम् ॥ ५४ ॥
सूतपुत्रं महेष्वासं दर्शयात्मानमात्मना ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस रथसेनाका संहार करके विश्वविख्यात महाधनुर्धर बलवान् सूतपुत्र कर्णके सामने स्वयं ही अपने-आपको प्रकट करो॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तमं जवमास्थाय प्रत्येहि भरतर्षभ ॥ ५५ ॥
असौ कर्णः सुसंरब्धः पञ्चालानभिधावति।
केतुमस्य हि पश्यामि धृष्टद्युम्नरथं प्रति ॥ ५६ ॥

मूलम्

उत्तमं जवमास्थाय प्रत्येहि भरतर्षभ ॥ ५५ ॥
असौ कर्णः सुसंरब्धः पञ्चालानभिधावति।
केतुमस्य हि पश्यामि धृष्टद्युम्नरथं प्रति ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतभूषण! तुम उत्तम वेगका आश्रय लेकर शत्रुदलपर आक्रमण करो। वह क्रोधमें भरा हुआ कर्ण पांचालोंपर धावा बोल रहा है। मैं उसकी ध्वजाको धृष्टद्युम्नके रथके पास देख रहा हूँ॥५५-५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुपैष्यति पञ्चालानिति मन्ये परंतप।
आचक्षे च प्रियं पार्थ तवेदं भरतर्षभ ॥ ५७ ॥
राजासौ कुशली श्रीमान् धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
असौ भीमो महाबाहुः संनिवृत्तश्चमूमुखे ॥ ५८ ॥

मूलम्

समुपैष्यति पञ्चालानिति मन्ये परंतप।
आचक्षे च प्रियं पार्थ तवेदं भरतर्षभ ॥ ५७ ॥
राजासौ कुशली श्रीमान् धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
असौ भीमो महाबाहुः संनिवृत्तश्चमूमुखे ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतप! मैं समझता हूँ, कर्ण पांचालोंपर अवश्य ही आक्रमण करेगा। भरतश्रेष्ठ पार्थ! मैं तुमसे एक प्रिय समाचार कह रहा हूँ—धर्मपुत्र श्रीमान् राजा युधिष्ठिर सकुशल हैं; क्योंकि वे महाबाहु भीमसेन सेनाके मुहानेपर लौट रहे हैं॥५७-५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृतः सृञ्जयसैन्येन शैनेयेन च भारत।
वध्यन्त एते समरे कौरवा निशितैः शरैः ॥ ५९ ॥
भीमसेनेन कौन्तेय पञ्चालैश्च महात्मभिः।

मूलम्

वृतः सृञ्जयसैन्येन शैनेयेन च भारत।
वध्यन्त एते समरे कौरवा निशितैः शरैः ॥ ५९ ॥
भीमसेनेन कौन्तेय पञ्चालैश्च महात्मभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! उनके साथ सृंजयोंकी सेना और सात्यकि भी हैं। कुन्तीकुमार! भीमसेन तथा महामनस्वी पांचाल वीर समरांगणमें अपने तीखे बाणोंद्वारा इन कौरवोंका वध कर रहे हैं॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेना हि धार्तराष्ट्रस्य विमुखा विक्षरद्‌व्रणा ॥ ६० ॥
विप्रधावति वेगेन भीमस्याभिहता शरैः।

मूलम्

सेना हि धार्तराष्ट्रस्य विमुखा विक्षरद्‌व्रणा ॥ ६० ॥
विप्रधावति वेगेन भीमस्याभिहता शरैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीमके बाणोंसे घायल हो दुर्योधनकी सेना युद्धसे मुँह फेरकर बड़े वेगसे भाग रही है। उसके घावोंसे रक्तकी धारा बह रही है॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपन्नसस्येव मही रुधिरेण समुक्षिता ॥ ६१ ॥
भारती भरतश्रेष्ठ सेना कृपणदर्शना।

मूलम्

विपन्नसस्येव मही रुधिरेण समुक्षिता ॥ ६१ ॥
भारती भरतश्रेष्ठ सेना कृपणदर्शना।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! खूनसे लथपथ हुई कौरव-सेना, जहाँकी खेती नष्ट हो गयी है उस भूमिके समान अत्यन्त दयनीय दिखायी देती है॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तं पश्य कौन्तेय भीमसेनं युधां पतिम् ॥ ६२ ॥
आशीविषमिव क्रुद्धं द्रावयन्तं वरूथिनीम्।

मूलम्

निवृत्तं पश्य कौन्तेय भीमसेनं युधां पतिम् ॥ ६२ ॥
आशीविषमिव क्रुद्धं द्रावयन्तं वरूथिनीम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! देखो, योद्धाओंके अधिपति भीमसेन लौटकर विषधर सर्पके समान कुपित हो कौरव-सेनाको खदेड़ रहे हैं॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीतरक्तासितसितास्ताराचन्द्रार्कमण्डिताः ॥ ६३ ॥
पताका विप्रकीर्यन्ते छत्राण्येतानि चार्जुन।

मूलम्

पीतरक्तासितसितास्ताराचन्द्रार्कमण्डिताः ॥ ६३ ॥
पताका विप्रकीर्यन्ते छत्राण्येतानि चार्जुन।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन! तारों और सूर्य-चन्द्रमाके चिह्नोंसे अलंकृत ये लाल, पीली, काली और सफेद पताकाएँ तथा ये श्वेत छत्र बिखरे पड़े हैं॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौवर्णा राजताश्चैव तैजसाश्च पृथग्विधाः ॥ ६४ ॥
केतवोऽभिनिपात्यन्ते हस्त्यश्वं च प्रकीर्यते।

मूलम्

सौवर्णा राजताश्चैव तैजसाश्च पृथग्विधाः ॥ ६४ ॥
केतवोऽभिनिपात्यन्ते हस्त्यश्वं च प्रकीर्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘सोने, चाँदी तथा पीतल आदि तैजस द्रव्योंके बने हुए नाना प्रकारके ध्वज काट-काटकर गिराये जा रहे हैं। हाथी और घोड़े तितर-बितर हो गये हैं॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथेभ्यः प्रपतन्त्येते रथिनो विगतासवः ॥ ६५ ॥
नानावर्णैर्हता बाणैः पञ्चालैरपलायिभिः ।

मूलम्

रथेभ्यः प्रपतन्त्येते रथिनो विगतासवः ॥ ६५ ॥
नानावर्णैर्हता बाणैः पञ्चालैरपलायिभिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धसे पीठ न दिखानेवाले पांचाल-वीरोंके विभिन्न रंगोंवाले बाणोंसे मारे जाकर ये प्राणशून्य रथी रथोंसे नीचे गिर रहे हैं॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्मनुष्यान् गजानश्वान् रथांश्चैव धनंजय ॥ ६६ ॥
समाद्रवन्ति पञ्चाला धार्तराष्ट्रांस्तरस्विनः ।
विमृद्नन्ति नरव्याघ्रा भीमसेनबलाश्रयात् ॥ ६७ ॥

मूलम्

निर्मनुष्यान् गजानश्वान् रथांश्चैव धनंजय ॥ ६६ ॥
समाद्रवन्ति पञ्चाला धार्तराष्ट्रांस्तरस्विनः ।
विमृद्नन्ति नरव्याघ्रा भीमसेनबलाश्रयात् ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनंजय! ये वेगशाली पुरुषसिंह पांचालयोद्धा भीमसेनके बलका आश्रय लेकर मनुष्योंसे रहित हाथियों, घोड़ों, रथों और वेगशाली धृतराष्ट्र-सैनिकोंपर आक्रमण करते और उन्हें धूलमें मिलाते जा रहे हैं॥६६-६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलं परेषां दुर्धर्षास्त्यक्त्वा प्राणानरिंदम।
एते नर्दन्ति पञ्चाला ध्यापयन्ति च वारिजान् ॥ ६८ ॥

मूलम्

बलं परेषां दुर्धर्षास्त्यक्त्वा प्राणानरिंदम।
एते नर्दन्ति पञ्चाला ध्यापयन्ति च वारिजान् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन वीर! दुर्जय पांचाल-सैनिक प्राणोंका मोह छोड़कर शत्रुओंकी सेनाको नष्ट करते हुए गरजते और शंख बजाते हैं॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिद्रवन्ति च रणे मृद्‌नन्तः सायकेः परान्।
पश्यस्वैषां च माहात्म्यं पञ्चाला हि पराक्रमात् ॥ ६९ ॥
धार्तराष्ट्रान्‌ विनिघ्नन्ति क्रुद्धाः सिंहा इव द्विपान्।

मूलम्

अभिद्रवन्ति च रणे मृद्‌नन्तः सायकेः परान्।
पश्यस्वैषां च माहात्म्यं पञ्चाला हि पराक्रमात् ॥ ६९ ॥
धार्तराष्ट्रान्‌ विनिघ्नन्ति क्रुद्धाः सिंहा इव द्विपान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन! देखो, इन वीरोंकी कैसी महिमा है? जैसे क्रोधमें भरे हुए सिंह हाथियोंको मार डालते हैं, उसी प्रकार ये पांचाल-योद्धा पराक्रम करके अपने बाणोंद्वारा शत्रुओंको रौंदते हुए रणभूमिमें सब ओर दौड़ रहे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शस्त्रमाच्छिद्य शत्रूणां सायुधानां निरायुधाः ॥ ७० ॥
तेनैवैतानमोघास्त्रा निघ्नन्ति च नदन्ति च।

मूलम्

शस्त्रमाच्छिद्य शत्रूणां सायुधानां निरायुधाः ॥ ७० ॥
तेनैवैतानमोघास्त्रा निघ्नन्ति च नदन्ति च।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे स्वयं अस्त्र-शस्त्रोंसे रहित होनेपर भी आयुधधारी शत्रुओंके शस्त्र छीनकर उसीसे उन्हें मार डालते और गर्जना करते हैं; उनके अस्त्रोंका निशाना कभी खाली नहीं जाता॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरांस्येतानि पात्यन्ते शत्रूणां बाहवोऽपि च ॥ ७१ ॥
रथनागहया वीरा यशस्याः सर्व एव च।

मूलम्

शिरांस्येतानि पात्यन्ते शत्रूणां बाहवोऽपि च ॥ ७१ ॥
रथनागहया वीरा यशस्याः सर्व एव च।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये शत्रुओंके मस्तक, भुजाएँ, रथ, हाथी, घोड़े और समस्त यशस्वी वीर धरतीपर गिराये जा रहे हैं॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वतश्चाभिपन्नैषा धार्तराष्ट्री महाचमूः ॥ ७२ ॥
पञ्चालैर्मानसादेत्य हंसैर्गङ्गेव वेगितैः ।

मूलम्

सर्वतश्चाभिपन्नैषा धार्तराष्ट्री महाचमूः ॥ ७२ ॥
पञ्चालैर्मानसादेत्य हंसैर्गङ्गेव वेगितैः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे वेगशाली हंस मानसरोवरसे निकलकर गंगाजीपर सब ओरसे छा जाते हैं, उसी प्रकार पांचाल-सैनिकोंद्वारा दुर्योधनकी यह विशाल सेना चारों ओरसे आक्रान्त हो रही है॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुभृशं च पराक्रान्ताः पञ्चालानां निवारणे ॥ ७३ ॥
कृपकर्णादयो वीरा ऋषभाणामिवर्षभाः ।

मूलम्

सुभृशं च पराक्रान्ताः पञ्चालानां निवारणे ॥ ७३ ॥
कृपकर्णादयो वीरा ऋषभाणामिवर्षभाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कृपाचार्य और कर्ण आदि वीर इन पांचालोंको रोकनेके लिये अत्यन्त पराक्रम दिखा रहे हैं। ठीक उसी तरह, जैसे साँड़ दूसरे साँड़ोंको दबानेकी चेष्टा करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमास्त्रेण सुनिर्भग्नान् धार्तराष्ट्रान्‌ महारथान् ॥ ७४ ॥
धृष्टद्युम्नमुखा वीरा घ्नन्ति शत्रून् सहस्रशः।

मूलम्

भीमास्त्रेण सुनिर्भग्नान् धार्तराष्ट्रान्‌ महारथान् ॥ ७४ ॥
धृष्टद्युम्नमुखा वीरा घ्नन्ति शत्रून् सहस्रशः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीमसेनके बाणोंसे हतोत्साह होकर भागनेवाले कौरवमहारथियों तथा सहस्रों शत्रुओंको धृष्टद्युम्न आदि वीर मार रहे हैं॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चालेष्वभिभूतेषु द्विषद्भिरपभीर्नदन् ॥ ७५ ॥
शत्रुपक्षमवस्कन्द्य शरानस्यति मारुतिः ।

मूलम्

पञ्चालेष्वभिभूतेषु द्विषद्भिरपभीर्नदन् ॥ ७५ ॥
शत्रुपक्षमवस्कन्द्य शरानस्यति मारुतिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंद्वारा पांचालोंके पराजित होनेपर ये वायुपुत्र भीमसेन निर्भय गर्जना करते हुए शत्रुदलपर आक्रमण करके बाणोंकी वर्षा कर रहे हैं॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषण्णभूयिष्ठतरा धार्तराष्ट्री महाचमूः ॥ ७६ ॥
रथाश्चैते सुवित्रस्ता भीमसेनभयार्दिताः ।

मूलम्

विषण्णभूयिष्ठतरा धार्तराष्ट्री महाचमूः ॥ ७६ ॥
रथाश्चैते सुवित्रस्ता भीमसेनभयार्दिताः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधनकी विशाल सेनाके अधिकांश वीर अत्यन्त खिन्न हो उठे हैं और वे रथी भीमसेनके भयसे पीड़ित हो संत्रस्त हो गये हैं॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य भीमेन नाराचैर्भिन्ना नागाः पतन्त्यमी ॥ ७७ ॥
वज्रिवज्रहतानीव शिखराणि धराभृताम् ।

मूलम्

पश्य भीमेन नाराचैर्भिन्ना नागाः पतन्त्यमी ॥ ७७ ॥
वज्रिवज्रहतानीव शिखराणि धराभृताम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, इन्द्रके वज्रसे आहत होकर गिरनेवाले पर्वतशिखरोंके समान ये बड़े-बड़े हाथी भीमसेनके चलाये हुए नाराचोंसे विदीर्ण होकर पृथ्वीपर गिर रहे हैं॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनस्य निर्विद्धा बाणैः संनतपर्वभिः ॥ ७८ ॥
स्वान्यनीकानि मृद्नन्तो द्रवन्त्येते महागजाः।

मूलम्

भीमसेनस्य निर्विद्धा बाणैः संनतपर्वभिः ॥ ७८ ॥
स्वान्यनीकानि मृद्नन्तो द्रवन्त्येते महागजाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीमसेनके झुकी हुई गाँठवाले बाणोंसे अत्यन्त घायल हुए ये विशालकाय हाथी अपनी ही सेनाओंको कुचलते हुए भागते हैं॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(एते द्रवन्ति कुरवो भीमसेनभयार्दिताः।
त्यक्त्वा गजान् हयांश्चैव रथांश्चैव सहस्रशः॥
हस्त्यश्वरथपत्तीनां द्रवतां निःस्वनं शृणु।
भीमसेनस्य निनदं द्रावयाणस्य कौरवान्॥)

मूलम्

(एते द्रवन्ति कुरवो भीमसेनभयार्दिताः।
त्यक्त्वा गजान् हयांश्चैव रथांश्चैव सहस्रशः॥
हस्त्यश्वरथपत्तीनां द्रवतां निःस्वनं शृणु।
भीमसेनस्य निनदं द्रावयाणस्य कौरवान्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये भीमसेनके भयसे पीड़ित हुए कौरव-योद्धा अपने सहस्रों हाथियों, रथों और घोड़ोंको छोड़-छोड़कर भाग रहे हैं। भागते हुए हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंका वह आर्तनाद तथा कौरवोंको खदेड़ते हुए भीमसेनकी यह गर्जना सुन लो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिजानीहि भीमस्य सिंहनादं सुदुःसहम् ॥ ७९ ॥
नदतोऽर्जुन संग्रामे वीरस्य जितकाशिनः।

मूलम्

अभिजानीहि भीमस्य सिंहनादं सुदुःसहम् ॥ ७९ ॥
नदतोऽर्जुन संग्रामे वीरस्य जितकाशिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन! विजयश्रीसे सुशोभित हो गर्जना करनेवाले वीर भीमसेनका संग्राममें जो अत्यन्त दुःसह सिंहनाद हो रहा है, उसे पहचानो॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष नैषादिरभ्येति द्विपमुख्येन पाण्डवम् ॥ ८० ॥
जिघांसुस्तोमरैः क्रुद्धो दण्डपाणिरिवान्तकः ।

मूलम्

एष नैषादिरभ्येति द्विपमुख्येन पाण्डवम् ॥ ८० ॥
जिघांसुस्तोमरैः क्रुद्धो दण्डपाणिरिवान्तकः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह निषादपुत्र श्रेष्ठ गजराजपर आरूढ़ हो तोमरोंद्वारा भीमसेनको मार डालनेकी इच्छासे क्रोधमें भरे हुए दण्डपाणि यमराजके समान उनपर आक्रमण कर रहा है॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतोमरावस्य भुजौ छिन्नौ भीमेन गर्जतः ॥ ८१ ॥
तीक्ष्णैरग्निरविप्रख्यैर्नाराचैर्दशभिर्हतः ।

मूलम्

सतोमरावस्य भुजौ छिन्नौ भीमेन गर्जतः ॥ ८१ ॥
तीक्ष्णैरग्निरविप्रख्यैर्नाराचैर्दशभिर्हतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, भीमसेनने गरजते हुए निषादपुत्रकी तोमरसहित दोनों भुजाओंको काट दिया और अग्नि एवं सूर्यके समान तेजस्वी दस तीखे नाराचोंद्वारा उसे मार डाला॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हत्वैनं पुनरायाति नागानन्यान् प्रहारिणः ॥ ८२ ॥
पश्य नीलाम्बुदनिभान् महामात्रैरधिष्ठितान् ।
शक्तितोमरसंघातैर्विनिघ्नन्तं वृकोदरम् ॥ ८३ ॥

मूलम्

हत्वैनं पुनरायाति नागानन्यान् प्रहारिणः ॥ ८२ ॥
पश्य नीलाम्बुदनिभान् महामात्रैरधिष्ठितान् ।
शक्तितोमरसंघातैर्विनिघ्नन्तं वृकोदरम् ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस निषादपुत्रका वध करके वे पुनः प्रहार करनेवाले दूसरे-दूसरे हाथियोंपर आक्रमण कर रहे हैं। देखो, भीमसेन शक्ति और तोमरोंके समूहोंसे काले मेघोंकी घटाके समान हाथियोंको, जिनके कंधोंपर महावत बैठे हैं, मार रहे हैं॥८२-८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तसप्त च नागांस्तान् वैजयन्तीश्च सध्वजाः।
निहत्य निशितैर्बाणैश्छिन्नाः पार्थाग्रजेन ते ॥ ८४ ॥

मूलम्

सप्तसप्त च नागांस्तान् वैजयन्तीश्च सध्वजाः।
निहत्य निशितैर्बाणैश्छिन्नाः पार्थाग्रजेन ते ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! तुम्हारे बड़े भाई भीमसेनने अपने पैने बाणोंसे ध्वजसहित वैजयन्ती पताकाओंको नष्ट करके उनचास हाथियोंको काट गिराया है॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशभिर्दशभिश्चैको नाराचैर्निहतो गजः ।
न चासौ धार्तराष्ट्राणां श्रूयते निनदस्तथा ॥ ८५ ॥
पुरंदरसमे क्रुद्धे निवृत्ते भरतर्षभ।

मूलम्

दशभिर्दशभिश्चैको नाराचैर्निहतो गजः ।
न चासौ धार्तराष्ट्राणां श्रूयते निनदस्तथा ॥ ८५ ॥
पुरंदरसमे क्रुद्धे निवृत्ते भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन्होंने दस-दस नाराचोंसे एक-एक हाथीका वध किया है। भरतभूषण! इन्द्रके समान पराक्रमी भीमसेनके क्रोधपूर्वक लौटनेपर धृतराष्ट्रपुत्रोंका वह सिंहनाद अब नहीं सुनायी दे रहा है॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षौहिण्यस्तथा तिस्रो धार्तराष्ट्रस्य संहताः।
क्रुद्धेन भीमसेनेन नरसिंहेन वारिताः ॥ ८६ ॥

मूलम्

अक्षौहिण्यस्तथा तिस्रो धार्तराष्ट्रस्य संहताः।
क्रुद्धेन भीमसेनेन नरसिंहेन वारिताः ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुपित हुए पुरुषसिंह भीमसेनने दुर्योधनकी संगठित हुई तीन अक्षौहिणी सेनाओंको आगे बढ़नेसे रोक दिया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शक्नुवन्ति वै पार्थं पार्थिवाः समुदीक्षितुम्।
मध्यंदिनगतं सूर्यं यथा दुर्बलचक्षुषः ॥ ८७ ॥

मूलम्

न शक्नुवन्ति वै पार्थं पार्थिवाः समुदीक्षितुम्।
मध्यंदिनगतं सूर्यं यथा दुर्बलचक्षुषः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे दुर्बल नेत्रोंवाले प्राणी दोपहरके सूर्यकी ओर नहीं देख सकते, उसी प्रकार राजा लोग कुन्तीकुमार भीमसेनकी ओर आँख उठाकर देख नहीं पा रहे हैं॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते भीमस्य संत्रस्ताः सिंहस्येवेतरे मृगाः।
शरैः संत्रासिताः संख्ये न लभन्ते सुखं क्वचित् ॥ ८८ ॥

मूलम्

एते भीमस्य संत्रस्ताः सिंहस्येवेतरे मृगाः।
शरैः संत्रासिताः संख्ये न लभन्ते सुखं क्वचित् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सिंहसे डरे हुए दूसरे मृग चैन नहीं पाते हैं, उसी प्रकार ये भीमसेनके बाणोंसे भयभीत हुए कौरव-सैनिक युद्धस्थलमें कहीं सुख नहीं पा रहे हैं॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(राजानं च महाबाहुं पीडयन्त्यात्तमन्यवः।
राधेयो बहुभिः सार्धमसौ गच्छति वेगतः॥
वर्जयित्वा तु भीमं तं पार्श्वतो ह्यानयन् धनुः।
तं पालयन् महाराजं धार्तराष्ट्रं बलान्वितः॥)

मूलम्

(राजानं च महाबाहुं पीडयन्त्यात्तमन्यवः।
राधेयो बहुभिः सार्धमसौ गच्छति वेगतः॥
वर्जयित्वा तु भीमं तं पार्श्वतो ह्यानयन् धनुः।
तं पालयन् महाराजं धार्तराष्ट्रं बलान्वितः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डव-सैनिक क्रोधमें भरकर महाबाहु दुर्योधनको पीड़ा दे रहे हैं। बलशाली राधापुत्र कर्ण भीमसेनको छोड़कर बगलमें धनुष लिये महाराज दुर्योधनकी रक्षाके लिये बहुतेरे सैनिकोंके साथ वेगपूर्वक उसके पास जा रहा है।’

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा महाबाहुर्वासुदेवाद् धनंजयः ।
भीमसेनेन तत् कर्म कृतं दृष्ट्वा सुदुष्करम् ॥ ८९ ॥
अर्जुनो व्यधमच्छिष्टानहितान् निशितैः शरैः।

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा महाबाहुर्वासुदेवाद् धनंजयः ।
भीमसेनेन तत् कर्म कृतं दृष्ट्वा सुदुष्करम् ॥ ८९ ॥
अर्जुनो व्यधमच्छिष्टानहितान् निशितैः शरैः।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे यह सब सुनकर और भीमसेनके द्वारा किये हुए उस अत्यन्त दुष्कर कर्मको अपनी आँखों देखकर महाबाहु अर्जुनने अपने पैने बाणोंद्वारा शेष शत्रुओंको मार भगाया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वध्यमानाः समरे संशप्तकगणाः प्रभो ॥ ९० ॥
प्रभग्नाः समरे भीता दिशो दश महाबलाः।
शक्रस्यातिथितां गत्वा विशोका ह्यभवंस्तदा ॥ ९१ ॥

मूलम्

ते वध्यमानाः समरे संशप्तकगणाः प्रभो ॥ ९० ॥
प्रभग्नाः समरे भीता दिशो दश महाबलाः।
शक्रस्यातिथितां गत्वा विशोका ह्यभवंस्तदा ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! समरांगणमें मारे जाते हुए महाबली संशप्तकगण हतोत्साह एवं भयभीत हो दसों दिशाओंमें भाग गये और कितने ही वीर इन्द्रके अतिथि बनकर तत्काल शोकसे छुटकारा पा गये॥९०-९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थश्च पुरुषव्याघ्रः शरैः संनतपर्वभिः।
जघान धार्तराष्ट्रस्य चतुर्विधबलां चमूम् ॥ ९२ ॥

मूलम्

पार्थश्च पुरुषव्याघ्रः शरैः संनतपर्वभिः।
जघान धार्तराष्ट्रस्य चतुर्विधबलां चमूम् ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह पार्थने झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा दुर्योधनकी चतुरंगिणी सेनाका संहार कर डाला॥९२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कृष्णार्जुनसंवादे षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका संवादविषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ९६ श्लोक हैं)