भागसूचना
षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नकुल-सहदेवके साथ दुर्योधनका युद्ध, धृष्टद्युम्नसे दुर्योधनकी पराजय, कर्णद्वारा पांचाल-सेनासहित योद्धाओंका संहार, भीमसेनद्वारा कौरव योद्धाओंका सेनासहित विनाश, अर्जुनद्वारा संशप्तकोंका वध तथा अश्वत्थामाका अर्जुनके साथ घोर युद्ध करके पराजित होना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनं सपाञ्चाल्यं चेदिकेकयसंवृतम् ।
वैकर्तनः स्वयं रुद्ध्वा वारयामास सायकैः ॥ १ ॥
मूलम्
भीमसेनं सपाञ्चाल्यं चेदिकेकयसंवृतम् ।
वैकर्तनः स्वयं रुद्ध्वा वारयामास सायकैः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! पांचालों, चेदियों और केकयोंसे घिरे हुए भीमसेनको स्वयं वैकर्तन कर्णने बाणोंद्वारा अवरुद्ध करके उन्हें आगे बढ़नेसे रोक दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु चेदिकारूषान् सृञ्जयांश्च महारथान्।
कर्णो जघान समरे भीमसेनस्य पश्यतः ॥ २ ॥
मूलम्
ततस्तु चेदिकारूषान् सृञ्जयांश्च महारथान्।
कर्णो जघान समरे भीमसेनस्य पश्यतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर समरांगणमें कर्णने भीमसेनके देखते-देखते चेदि, कारूष और सृंजय महारथियोंका संहार आरम्भ कर दिया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनस्ततः कर्णं विहाय रथसत्तमम्।
प्रययौ कौरवं सैन्यं कक्षमग्निरिव ज्वलन् ॥ ३ ॥
मूलम्
भीमसेनस्ततः कर्णं विहाय रथसत्तमम्।
प्रययौ कौरवं सैन्यं कक्षमग्निरिव ज्वलन् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भीमसेनने भी रथियोंमें श्रेष्ठ कर्णको छोड़कर जैसे आग घास-फूँसको जलाती है, उसी प्रकार कौरव-सेनाको दग्ध करनेके लिये उसपर आक्रमण किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतपुत्रोऽपि समरे पञ्चालान् केकयांस्तथा।
सृञ्जयांश्च महेष्वासान् निजघान सहस्रशः ॥ ४ ॥
मूलम्
सूतपुत्रोऽपि समरे पञ्चालान् केकयांस्तथा।
सृञ्जयांश्च महेष्वासान् निजघान सहस्रशः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्र कर्णने समरांगणमें सहस्रों पांचाल, केकय तथा सृंजय योद्धाओंको, जो महाधनुर्धर थे, मार डाला॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संशप्तकेषु पार्थश्च कौरवेषु वृकोदरः।
पञ्चालेषु तथा कर्णः क्षयं चक्रुर्महारथाः ॥ ५ ॥
मूलम्
संशप्तकेषु पार्थश्च कौरवेषु वृकोदरः।
पञ्चालेषु तथा कर्णः क्षयं चक्रुर्महारथाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन संशप्तकोंकी, भीमसेन कौरवोंकी तथा कर्ण पांचालोंकी सेनामें घुसकर युद्ध करते थे! इन तीनों महारथियोंने बहुत-से शत्रुओंका संहार कर डाला॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते क्षत्रिया दह्यमानास्त्रिभिस्तैः पावकोपमैः।
जग्मुर्विनाशं समरे राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ ६ ॥
मूलम्
ते क्षत्रिया दह्यमानास्त्रिभिस्तैः पावकोपमैः।
जग्मुर्विनाशं समरे राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निके समान तेजस्वी इन तीनों वीरोंद्वारा दग्ध होते हुए क्षत्रिय समरांगणमें विनाशको प्राप्त हो रहे थे। राजन्! यह सब आपकी कुमन्त्रणाका फल है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनः क्रुद्धो नकुलं नवभिः शरैः।
विव्याध भरतश्रेष्ठ चतुरश्चास्य वाजिनः ॥ ७ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनः क्रुद्धो नकुलं नवभिः शरैः।
विव्याध भरतश्रेष्ठ चतुरश्चास्य वाजिनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! तब दुर्योधनने कुपित होकर नौ बाणोंसे नकुल तथा उनके चारों घोड़ोंको घायल कर दिया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुनरमेयात्मा तव पुत्रो जनाधिप।
क्षुरेण सहदेवस्य ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम् ॥ ८ ॥
मूलम्
ततः पुनरमेयात्मा तव पुत्रो जनाधिप।
क्षुरेण सहदेवस्य ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! इसके बाद अमेय आत्मबलसे सम्पन्न आपके पुत्रने एक क्षुरके द्वारा सहदेवकी सुवर्णमयी ध्वजा काट डाली॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलस्तु ततः क्रुद्धस्तव पुत्रं च सप्तभिः।
जघान समरे राजन् सहदेवश्च पञ्चभिः ॥ ९ ॥
मूलम्
नकुलस्तु ततः क्रुद्धस्तव पुत्रं च सप्तभिः।
जघान समरे राजन् सहदेवश्च पञ्चभिः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तत्पश्चात् समरभूमिमें आपके पुत्रको क्रोधमें भरे हुए नकुलने सात और सहदेवने पाँच बाण मारे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावुभौ भरतश्रेष्ठौ ज्येष्ठौ सर्वधनुष्मताम्।
विव्याधोरसि संक्रुद्धः पञ्चभिः पञ्चभिः शरैः ॥ १० ॥
मूलम्
तावुभौ भरतश्रेष्ठौ ज्येष्ठौ सर्वधनुष्मताम्।
विव्याधोरसि संक्रुद्धः पञ्चभिः पञ्चभिः शरैः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों श्रेष्ठ वीर समस्त धनुर्धारियोंमें प्रधान थे। दुर्योधनने कुपित होकर उन दोनोंकी छातीमें पाँच-पाँच बाण मारे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽपराभ्यां भल्लाभ्यां धनुषी समकृन्तत।
यमयोः सहसा राजन् विव्याध च त्रिसप्तभिः ॥ ११ ॥
मूलम्
ततोऽपराभ्यां भल्लाभ्यां धनुषी समकृन्तत।
यमयोः सहसा राजन् विव्याध च त्रिसप्तभिः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! फिर सहसा उसने दो भल्लोंसे नकुल और सहदेवके धनुष काट डाले तथा उन दोनोंको भी इक्कीस बाणोंसे घायल कर दिया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावन्ये धनुषी श्रेष्ठे शक्रचापनिभे शुभे।
प्रगृह्य रेजतुः शूरौ देवपुत्रसमौ युधि ॥ १२ ॥
मूलम्
तावन्ये धनुषी श्रेष्ठे शक्रचापनिभे शुभे।
प्रगृह्य रेजतुः शूरौ देवपुत्रसमौ युधि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे दोनों वीर इन्द्रधनुषके समान सुन्दर दूसरे श्रेष्ठ धनुष लेकर युद्धस्थलमें देवकुमारोंके समान सुशोभित होने लगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तौ रभसौ युद्धे भ्रातरौ भ्रातरं युधि।
शरैर्ववृषतुर्घोरैर्महामेघौ यथाचलम् ॥ १३ ॥
मूलम्
ततस्तौ रभसौ युद्धे भ्रातरौ भ्रातरं युधि।
शरैर्ववृषतुर्घोरैर्महामेघौ यथाचलम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् जैसे दो महामेघ किसी पर्वतपर जलकी वर्षा करते हों, उसी प्रकार दोनों वेगशाली बन्धु नकुल और सहदेव भाई दुर्योधनपर युद्धमें भयंकर बाणोंकी वृष्टि करने लगे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो महाराज तव पुत्रो महारथः।
पाण्डुपुत्रौ महेष्वासौ वारयामास पत्रिभिः ॥ १४ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धो महाराज तव पुत्रो महारथः।
पाण्डुपुत्रौ महेष्वासौ वारयामास पत्रिभिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तब आपके महारथी पुत्रने कुपित होकर उन दोनों महाधनुर्धर पाण्डुपुत्रोंको बाणोंद्वारा आगे बढ़नेसे रोक दिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुर्मण्डलमेवास्य दृश्यते युधि भारत।
सायकाश्चैव दृश्यन्ते निश्चरन्तः समन्ततः ॥ १५ ॥
आच्छादयन् दिशः सर्वाः सूर्यस्येवांशवो यथा।
मूलम्
धनुर्मण्डलमेवास्य दृश्यते युधि भारत।
सायकाश्चैव दृश्यन्ते निश्चरन्तः समन्ततः ॥ १५ ॥
आच्छादयन् दिशः सर्वाः सूर्यस्येवांशवो यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उस समय केवल उसका मण्डलाकार धनुष ही दिखायी देता था और उससे चारों ओर छूटनेवाले बाण सूर्यकी किरणोंके समान सम्पूर्ण दिशाओंको ढके हुए दृष्टिगोचर होते थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणभूते ततस्तस्मिन् संछन्ने च नभस्तले ॥ १६ ॥
यमाभ्यां ददृशे रूपं कालान्तकयमोपमम्।
मूलम्
बाणभूते ततस्तस्मिन् संछन्ने च नभस्तले ॥ १६ ॥
यमाभ्यां ददृशे रूपं कालान्तकयमोपमम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय जब आकाश आच्छादित होकर बाणमय हो रहा था, तब नकुल और सहदेवने आपके पुत्रका स्वरूप काल, अन्तक एवं यमराजके समान भयंकर देखा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पराक्रमं तु तं दृष्ट्वा तव सूनोर्महारथाः ॥ १७ ॥
मृत्योरुपान्तिकं प्राप्तौ माद्रीपुत्रौ स्म मेनिरे।
मूलम्
पराक्रमं तु तं दृष्ट्वा तव सूनोर्महारथाः ॥ १७ ॥
मृत्योरुपान्तिकं प्राप्तौ माद्रीपुत्रौ स्म मेनिरे।
अनुवाद (हिन्दी)
आपके पुत्रका वह पराक्रम देखकर सब महारथी ऐसा मानने लगे कि माद्रीके दोनों पुत्र मृत्युके निकट पहुँच गये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सेनापती राजन् पाण्डवस्य महारथः ॥ १८ ॥
पार्षतः प्रययौ तत्र यत्र राजा सुयोधनः।
मूलम्
ततः सेनापती राजन् पाण्डवस्य महारथः ॥ १८ ॥
पार्षतः प्रययौ तत्र यत्र राजा सुयोधनः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब पाण्डव-सेनापति द्रुपदपुत्र महारथी धृष्टद्युम्न जहाँ राजा दुर्योधन था, वहाँ जा पहुँचे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माद्रीपुत्रौ ततः शूरौ व्यतिक्रम्य महारथौ ॥ १९ ॥
धृष्टद्युम्नस्तव सुतं वारयामास सायकैः।
मूलम्
माद्रीपुत्रौ ततः शूरौ व्यतिक्रम्य महारथौ ॥ १९ ॥
धृष्टद्युम्नस्तव सुतं वारयामास सायकैः।
अनुवाद (हिन्दी)
महारथी शूरवीर माद्रीकुमार नकुल-सहदेवको लाँघकर धृष्टद्युम्नने अपने बाणोंकी मारसे आपके पुत्रको रोक दिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमविध्यदमेयात्मा तव पुत्रो ह्यमर्षणः ॥ २० ॥
पाञ्चाल्यं पञ्चविंशत्या प्रहसन् पुरुषर्षभः।
मूलम्
तमविध्यदमेयात्मा तव पुत्रो ह्यमर्षणः ॥ २० ॥
पाञ्चाल्यं पञ्चविंशत्या प्रहसन् पुरुषर्षभः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब अमेय आत्मबलसे सम्पन्न आपके अमर्षशील पुत्र पुरुषरत्न दुर्योधनने हँसते हुए पचीस बाण मारकर धृष्टद्युम्नको घायल कर दिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुनरमेयात्मा तव पुत्रो ह्यमर्षणः ॥ २१ ॥
विद्ध्वा ननाद पाञ्चाल्यं षष्ट्या पञ्चभिरेव च।
मूलम्
ततः पुनरमेयात्मा तव पुत्रो ह्यमर्षणः ॥ २१ ॥
विद्ध्वा ननाद पाञ्चाल्यं षष्ट्या पञ्चभिरेव च।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अमेय आत्मबलसे सम्पन्न आपके अमर्षशील पुत्रने पैंसठ बाणोंसे धृष्टद्युम्नको घायल करके बड़े जोरसे गर्जना की॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथास्य सशरं चापं हस्तावापं च मारिष ॥ २२ ॥
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन राजा चिच्छेद संयुगे।
मूलम्
तथास्य सशरं चापं हस्तावापं च मारिष ॥ २२ ॥
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन राजा चिच्छेद संयुगे।
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! फिर राजा दुर्योधनने युद्धस्थलमें एक तीखे क्षुरप्रसे धृष्टद्युम्नके बाणसहित धनुष और दस्तानेको भी काट दिया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदपास्य धनुश्छिन्नं पाञ्चाल्यः शत्रुकर्शनः ॥ २३ ॥
अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भारसहं नवम्।
मूलम्
तदपास्य धनुश्छिन्नं पाञ्चाल्यः शत्रुकर्शनः ॥ २३ ॥
अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भारसहं नवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन धृष्टद्युम्नने उस कटे हुए धनुषको फेंककर वेगपूर्वक दूसरा धनुष हाथमें ले लिया, जो भार सहनेमें समर्थ और नवीन था॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्वलन्निव वेगेन संरम्भाद् रुधिरेक्षणः ॥ २४ ॥
अशोभत महेष्वासो धृष्टद्युम्नः कृतव्रणः।
मूलम्
प्रज्वलन्निव वेगेन संरम्भाद् रुधिरेक्षणः ॥ २४ ॥
अशोभत महेष्वासो धृष्टद्युम्नः कृतव्रणः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उनकी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं। सारे शरीरमें घाव हो रहे थे; अतः वे महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न वेगसे जलते हुए अग्निदेवके समान शोभा पा रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पञ्चदश नाराचाञ्शवसतः पन्नगानिव ॥ २५ ॥
जिघांसुर्भरतश्रेष्ठं धृष्टद्युम्नो व्यपासृजत् ।
मूलम्
स पञ्चदश नाराचाञ्शवसतः पन्नगानिव ॥ २५ ॥
जिघांसुर्भरतश्रेष्ठं धृष्टद्युम्नो व्यपासृजत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
धृष्टद्युम्नने भरतश्रेष्ठ दुर्योधनको मार डालनेकी इच्छासे उसके ऊपर फुफकारते हुए सर्पोंके समान पंद्रह नाराच छोड़े॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वर्म हेमविकृतं भित्त्वा राज्ञः शिलाशिताः ॥ २६ ॥
विविशुर्वसुधां वेगात् कङ्कबर्हिणवाससः ।
मूलम्
ते वर्म हेमविकृतं भित्त्वा राज्ञः शिलाशिताः ॥ २६ ॥
विविशुर्वसुधां वेगात् कङ्कबर्हिणवाससः ।
अनुवाद (हिन्दी)
शिलापर तेज किये हुए कंक और मयूरके पंखोंसे युक्त वे बाण राजा दुर्योधनके सुवर्णमय कवचको छेदकर बड़े वेगसे पृथ्वीमें समा गये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽतिविद्धो महाराज पुत्रस्तेऽतिव्यराजत ॥ २७ ॥
वसन्तकाले सुमहान् प्रफुल्ल इव किंशुकः।
मूलम्
सोऽतिविद्धो महाराज पुत्रस्तेऽतिव्यराजत ॥ २७ ॥
वसन्तकाले सुमहान् प्रफुल्ल इव किंशुकः।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय अत्यन्त घायल हुआ आपका पुत्र वसन्त-ऋतुमें खिले हुए महान् पलाश वृक्षके समान अत्यन्त सुशोभित हो रहा था॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सच्छिन्नवर्मा नाराचप्रहारैर्जर्जरीकृतः ॥ २८ ॥
धृष्टद्युम्नस्य भल्लेन क्रुद्धश्चिच्छेद कार्मुकम्।
मूलम्
सच्छिन्नवर्मा नाराचप्रहारैर्जर्जरीकृतः ॥ २८ ॥
धृष्टद्युम्नस्य भल्लेन क्रुद्धश्चिच्छेद कार्मुकम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उसका कवच कट गया था और शरीर नाराचोंके प्रहारसे जर्जर कर दिया गया था। उस अवस्थामें उसने कुपित होकर एक भल्लसे धृष्टद्युम्नके धनुषको काट डाला॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महीपतिः ॥ २९ ॥
सायकैर्दशभी राजन् भ्रुवोर्मध्ये समार्पयत्।
मूलम्
अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महीपतिः ॥ २९ ॥
सायकैर्दशभी राजन् भ्रुवोर्मध्ये समार्पयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! धनुष कट जानेपर धृष्टद्युम्नकी दोनों भौहोंके मध्यभागमें राजा दुर्योधनने तुरंत ही दस बाणोंका प्रहार किया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तेऽशोभयन् वक्त्रं कर्मारपरिमार्जिताः ॥ ३० ॥
प्रफुल्लं पङ्कजं यद्वद् भ्रमरा मधुलिप्सवः।
मूलम्
तस्य तेऽशोभयन् वक्त्रं कर्मारपरिमार्जिताः ॥ ३० ॥
प्रफुल्लं पङ्कजं यद्वद् भ्रमरा मधुलिप्सवः।
अनुवाद (हिन्दी)
कारीगरके द्वारा साफ किये गये वे बाण धृष्टद्युम्नके मुखकी ऐसी शोभा बढ़ाने लगे, मानो मधुलोभी भ्रमर प्रफुल्ल कमल-पुष्पका रसास्वादन कर रहे हों॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदपास्य धनुश्छिन्नं धृष्टद्युम्नो महामनाः ॥ ३१ ॥
अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भल्लांश्च षोडश।
मूलम्
तदपास्य धनुश्छिन्नं धृष्टद्युम्नो महामनाः ॥ ३१ ॥
अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भल्लांश्च षोडश।
अनुवाद (हिन्दी)
महामना धृष्टद्युम्नने उस कटे हुए धनुषको फेंककर बड़े वेगसे दूसरा धनुष और सोलह भल्ल हाथमें ले लिये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनस्याश्वान् हत्वा सूतं च पञ्चभिः ॥ ३२ ॥
धनुश्चिच्छेद भल्लेन जातरूपपरिष्कृतम् ।
मूलम्
ततो दुर्योधनस्याश्वान् हत्वा सूतं च पञ्चभिः ॥ ३२ ॥
धनुश्चिच्छेद भल्लेन जातरूपपरिष्कृतम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे पाँच भल्लोंद्वारा दुर्योधनके सारथि और घोड़ोंको मारकर एक भल्लसे उसके सुवर्णभूषित धनुषको काट डाला॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथं सोपस्करं छत्रं शक्तिं खड्गं गदां ध्वजम् ॥ ३३ ॥
भल्लैश्चिच्छेद दशभिः पुत्रस्य तव पार्षतः।
मूलम्
रथं सोपस्करं छत्रं शक्तिं खड्गं गदां ध्वजम् ॥ ३३ ॥
भल्लैश्चिच्छेद दशभिः पुत्रस्य तव पार्षतः।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् दस भल्लोंसे द्रुपदकुमारने आपके पुत्रके सब सामग्रियोंसहित रथ, छत्र, शक्ति, खड्ग, गदा और ध्वज काट दिये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपनीयाङ्गदं चित्रं नागं मणिमयं शुभम् ॥ ३४ ॥
ध्वजं कुरुपतेश्छिन्नं ददृशुः सर्वपार्थिवाः।
मूलम्
तपनीयाङ्गदं चित्रं नागं मणिमयं शुभम् ॥ ३४ ॥
ध्वजं कुरुपतेश्छिन्नं ददृशुः सर्वपार्थिवाः।
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त राजाओंने देखा कि कुरुराज दुर्योधनका सोनेके अंगदोंसे विभूषित नाग-चिह्नयुक्त विचित्र, मणिमय एवं सुन्दर ध्वज कटकर धराशायी हो गया है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनं तु विरथं छिन्नवर्मायुधं रणे ॥ ३५ ॥
भ्रातरं पर्यरक्षन्त सोदरा भरतर्षभ।
मूलम्
दुर्योधनं तु विरथं छिन्नवर्मायुधं रणे ॥ ३५ ॥
भ्रातरं पर्यरक्षन्त सोदरा भरतर्षभ।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! रणभूमिमें जिसके कवच और आयुध छिन्न-भिन्न हो गये थे, उस रथहीन दुर्योधनकी उसके सगे भाई सब ओरसे रक्षा करने लगे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमारोप्य रथे राजन् दण्डधारो नराधिपम् ॥ ३६ ॥
अपाहरदसम्भ्रान्तो धृष्टद्युम्नस्य पश्यतः ।
मूलम्
तमारोप्य रथे राजन् दण्डधारो नराधिपम् ॥ ३६ ॥
अपाहरदसम्भ्रान्तो धृष्टद्युम्नस्य पश्यतः ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसी समय दण्डधार धृष्टद्युम्नके देखते-देखते राजा दुर्योधनको अपने रथपर बिठाकर बिना किसी घबराहटके रणभूमिसे दूर हटा ले गया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णस्तु सात्यकिं जित्वा राजगृद्धी महाबलः ॥ ३७ ॥
द्रोणहन्तारमुग्रेषुं ससाराभिमुखो रणे ।
मूलम्
कर्णस्तु सात्यकिं जित्वा राजगृद्धी महाबलः ॥ ३७ ॥
द्रोणहन्तारमुग्रेषुं ससाराभिमुखो रणे ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दुर्योधनका हित चाहनेवाला महाबली कर्ण सात्यकिको परास्त करके रणभूमिमें भयंकर बाण धारण करनेवाले द्रोणहन्ता धृष्टद्युम्नके सामने गया॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पृष्ठतोऽभ्ययात् तूर्णं शैनेयो वितुदञ्छरैः ॥ ३८ ॥
वारणं जघनोपान्ते विषाणाभ्यामिव द्विपः।
मूलम्
तं पृष्ठतोऽभ्ययात् तूर्णं शैनेयो वितुदञ्छरैः ॥ ३८ ॥
वारणं जघनोपान्ते विषाणाभ्यामिव द्विपः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय शिनिपौत्र सात्यकि अपने बाणोंसे कर्णको पीड़ा देते हुए तुरंत उसके पीछे-पीछे गये, मानो कोई गजराज अपने दोनों दाँतोंसे दूसरे गजराजकी जाँघोंमें चोट पहुँचाता हुआ उसका पीछा कर रहा हो॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भारत महानासीद् योधानां सुमहात्मनाम् ॥ ३९ ॥
कर्णपार्षतयोर्मध्ये त्वदीयानां महारणः ।
मूलम्
स भारत महानासीद् योधानां सुमहात्मनाम् ॥ ३९ ॥
कर्णपार्षतयोर्मध्ये त्वदीयानां महारणः ।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! कर्ण और धृष्टद्युम्नके बीचमें खड़े हुए आपके महामनस्वी योद्धाओंका पाण्डव-सैनिकोंके साथ महान् संग्राम हुआ॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पाण्डवानां नास्माकं योधः कश्चित् पराङ्मुखः ॥ ४० ॥
प्रत्यदृश्यत् ततः कर्णः पञ्चालांस्त्वरितो ययौ।
मूलम्
न पाण्डवानां नास्माकं योधः कश्चित् पराङ्मुखः ॥ ४० ॥
प्रत्यदृश्यत् ततः कर्णः पञ्चालांस्त्वरितो ययौ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय पाण्डवों तथा हमलोगोंमेंसे कोई भी योद्धा युद्धसे मुँह फेरकर पीछे हटता नहीं दिखायी दिया। तब कर्णने तुरंत ही पांचालोंपर आक्रमण किया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् क्षणे नरश्रेष्ठ गजवाजिजनक्षयः ॥ ४१ ॥
प्रादुरासीदुभयतो राजन् मध्यगतेऽहनि ।
मूलम्
तस्मिन् क्षणे नरश्रेष्ठ गजवाजिजनक्षयः ॥ ४१ ॥
प्रादुरासीदुभयतो राजन् मध्यगतेऽहनि ।
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ नरेश्वर! मध्याह्नकी उस बेलामें दोनों पक्षोंके हाथी, घोड़ों और मनुष्योंका संहार होने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चालास्तु महाराज त्वरिता विजिगीषवः ॥ ४२ ॥
ते सर्वेऽभ्यद्रवन् कर्णं पतत्रिण इव द्रुमम्।
मूलम्
पञ्चालास्तु महाराज त्वरिता विजिगीषवः ॥ ४२ ॥
ते सर्वेऽभ्यद्रवन् कर्णं पतत्रिण इव द्रुमम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! विजयकी इच्छा रखनेवाले समस्त पांचाल योद्धा कर्णपर उसी प्रकार टूट पड़े, जैसे पक्षी वृक्षकी ओर उड़े जाते हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तथाधिरथिः क्रुद्धो यतमानान् मनस्विनः ॥ ४३ ॥
विचिन्वन्निव बाणौघैः समासादयदग्रगान् ।
मूलम्
तांस्तथाधिरथिः क्रुद्धो यतमानान् मनस्विनः ॥ ४३ ॥
विचिन्वन्निव बाणौघैः समासादयदग्रगान् ।
अनुवाद (हिन्दी)
अधिरथपुत्र कर्ण कुपित हो विजयके लिये प्रयत्नशील, मनस्वी एवं अग्रगामी वीरोंको मानो चुन-चुनकर बाणसमूहोंद्वारा मारने लगा॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्याघ्रकेतुं सुशर्माणं चित्रं चोग्रायुधं जयम् ॥ ४४ ॥
शुक्लं च रोचमानं च सिंहसेनं च दुर्जयम्।
मूलम्
व्याघ्रकेतुं सुशर्माणं चित्रं चोग्रायुधं जयम् ॥ ४४ ॥
शुक्लं च रोचमानं च सिंहसेनं च दुर्जयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वह व्याघ्रकेतु, सुशर्मा1, चित्र, उग्रायुध, जय, शुक्ल, रोचमान और दुर्जय वीर सिंहसेनपर जा चढ़ा॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वीरा रथमार्गेण परिवव्रुर्नरोत्तमम् ॥ ४५ ॥
सृजन्तं सायकान् क्रुद्धं कर्णमाहवशोभिनम्।
मूलम्
ते वीरा रथमार्गेण परिवव्रुर्नरोत्तमम् ॥ ४५ ॥
सृजन्तं सायकान् क्रुद्धं कर्णमाहवशोभिनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उन सभी वीरोंने रथ-मार्गसे आकर युद्धभूमिमें शोभा पाने तथा कुपित होकर बाणोंकी वर्षा करनेवाले नरश्रेष्ठ कर्णको चारों ओरसे घेर लिया॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युध्यमानांस्तु तान् दूरान्मनुजेन्द्र प्रतापवान् ॥ ४६ ॥
अष्टाभिरष्टौ राधेयोऽभ्यर्दयन्निशितैः शरैः ।
मूलम्
युध्यमानांस्तु तान् दूरान्मनुजेन्द्र प्रतापवान् ॥ ४६ ॥
अष्टाभिरष्टौ राधेयोऽभ्यर्दयन्निशितैः शरैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! प्रतापी राधापुत्र कर्णने दूरसे युद्ध करनेवाले उन आठों वीरोंको आठ पैने बाणोंसे घायल कर दिया॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापरान् महाराज सूतपुत्रः प्रतापवान् ॥ ४७ ॥
जघान बहुसाहस्रान् योधान् युद्धविशारदान्।
मूलम्
अथापरान् महाराज सूतपुत्रः प्रतापवान् ॥ ४७ ॥
जघान बहुसाहस्रान् योधान् युद्धविशारदान्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर प्रतापी सूतपुत्रने कई हजार युद्धकुशल योद्धाओंको मार डाला॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिष्णुं च जिष्णुकर्माणं देवापिं भद्रमेव च ॥ ४८ ॥
दण्डं च राजन् समरे चित्रं चित्रायुधं हरिम्।
सिंहकेतुं रोचमानं शलभं च महारथम् ॥ ४९ ॥
निजघान सुसंक्रुद्धश्चेदीनां च महारथान्।
मूलम्
जिष्णुं च जिष्णुकर्माणं देवापिं भद्रमेव च ॥ ४८ ॥
दण्डं च राजन् समरे चित्रं चित्रायुधं हरिम्।
सिंहकेतुं रोचमानं शलभं च महारथम् ॥ ४९ ॥
निजघान सुसंक्रुद्धश्चेदीनां च महारथान्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तत्पश्चात् क्रोधमें भरे हुए कर्णने समरांगणमें जिष्णु, जिष्णुकर्मा, देवापि, भद्र, दण्ड, चित्र, चित्रायुध, हरि, सिंहकेतु, रोचमान तथा महारथी शलभ—इन चेदिदेशीय महारथियोंका संहार कर डाला॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामाददतः प्राणानासीदाधिरथेर्वपुः ॥ ५० ॥
शोणिताभ्युक्षिताङ्गस्य रुद्रस्येवोर्जितं महत् ।
मूलम्
तेषामाददतः प्राणानासीदाधिरथेर्वपुः ॥ ५० ॥
शोणिताभ्युक्षिताङ्गस्य रुद्रस्येवोर्जितं महत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
इन वीरोंके प्राण लेते समय रक्तसे भीगे अंगोंवाले सूतपुत्र कर्णका शरीर प्राणियोंका संहार करनेवाले भगवान् रुद्रके विशाल शरीरकी भाँति देदीप्यमान हो रहा था॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र भारत कर्णेन मातङ्गास्ताडिताः शरैः ॥ ५१ ॥
सर्वतोऽभ्यद्रवन् भीताः कुर्वन्तो महदाकुलम्।
मूलम्
तत्र भारत कर्णेन मातङ्गास्ताडिताः शरैः ॥ ५१ ॥
सर्वतोऽभ्यद्रवन् भीताः कुर्वन्तो महदाकुलम्।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! वहाँ कर्णके बाणोंसे घायल हुए हाथी विशाल सेनाको व्याकुल करते हुए भयभीत हो चारों ओर भागने लगे॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निपेतुरुर्व्यां समरे कर्णसायकताडिताः ॥ ५२ ॥
कुर्वन्तो विविधान् नादान् वज्रनुन्ना इवाचलाः।
मूलम्
निपेतुरुर्व्यां समरे कर्णसायकताडिताः ॥ ५२ ॥
कुर्वन्तो विविधान् नादान् वज्रनुन्ना इवाचलाः।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके बाणोंसे आहत होकर समरांगणमें नाना प्रकारके आर्तनाद करते हुए वज्रके मारे हुए पर्वतोंके समान धराशायी हो रहे थे॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजवाजिमनुष्यैश्च निपतद्भिः समन्ततः ॥ ५३ ॥
रथैश्चाधिरथेर्मार्गे समास्तीर्यत मेदिनी ।
मूलम्
गजवाजिमनुष्यैश्च निपतद्भिः समन्ततः ॥ ५३ ॥
रथैश्चाधिरथेर्मार्गे समास्तीर्यत मेदिनी ।
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्र कर्णके रथके मार्गमें सब ओर गिरते हुए हाथियों, घोड़ों, मनुष्यों और रथोंके द्वारा वहाँ सारी पृथ्वी पट गयी थी॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवं भीष्मो न च द्रोणो नान्ये युधि च तावकाः॥५४॥
चक्रुः स्म तादृशं कर्म यादृशं वै कृतं रणे।
मूलम्
नैवं भीष्मो न च द्रोणो नान्ये युधि च तावकाः॥५४॥
चक्रुः स्म तादृशं कर्म यादृशं वै कृतं रणे।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने उस समय रणभूमिमें जैसा पराक्रम किया था, वैसा न तो भीष्म, न द्रोणाचार्य और न आपके दूसरे कोई योद्धा ही कर सके थे॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतपुत्रेण नागेषु हयेषु च रथेषु च ॥ ५५ ॥
नरेषु च महाराज कृतं स्म कदनं महत्।
मूलम्
सूतपुत्रेण नागेषु हयेषु च रथेषु च ॥ ५५ ॥
नरेषु च महाराज कृतं स्म कदनं महत्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! सूतपुत्रने हाथियों, घोड़ों, रथों और पैदल मनुष्योंके दलमें घुसकर बड़ा भारी संहार मचा दिया था॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगमध्ये यथा सिंहो दृश्यते निर्भयश्चरन् ॥ ५६ ॥
पञ्चालानां तथा मध्ये कर्णोऽचरदभीतवत्।
मूलम्
मृगमध्ये यथा सिंहो दृश्यते निर्भयश्चरन् ॥ ५६ ॥
पञ्चालानां तथा मध्ये कर्णोऽचरदभीतवत्।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सिंह मृगोंके झुंडमें निर्भय विचरता दिखायी देता है, उसी प्रकार कर्ण पांचालोंकी सेनामें निर्भीकके समान विचरण करता था॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मृगगणांस्त्रस्तान् सिंहो द्रावयते दिशः ॥ ५७ ॥
पञ्चालानां रथव्रातान् कर्णो व्यद्रावयत् तथा।
मूलम्
यथा मृगगणांस्त्रस्तान् सिंहो द्रावयते दिशः ॥ ५७ ॥
पञ्चालानां रथव्रातान् कर्णो व्यद्रावयत् तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे भयभीत हुए मृगसमूहोंको सिंह सब ओर खदेड़ता है, उसी प्रकार कर्ण पांचालोंके रथसमूहोंको भगा रहा था॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहास्यं च यथा प्राप्य न जीवन्ति मृगाः क्वचित्॥५८॥
तथा कर्णमनुप्राप्य न जिजीवुर्महारथाः।
मूलम्
सिंहास्यं च यथा प्राप्य न जीवन्ति मृगाः क्वचित्॥५८॥
तथा कर्णमनुप्राप्य न जिजीवुर्महारथाः।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मृग सिंहके मुखके समीप पहुँचकर जीवित नहीं बचते, उसी प्रकार पांचाल महारथी कर्णके निकट पहुँचकर जीवित नहीं रह पाते थे॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैश्वानरं यथा प्राप्य प्रतिदह्यन्ति वै जनाः ॥ ५९ ॥
कर्णाग्निना रणे तद्वद् दग्धा भारत सृञ्जयाः।
मूलम्
वैश्वानरं यथा प्राप्य प्रतिदह्यन्ति वै जनाः ॥ ५९ ॥
कर्णाग्निना रणे तद्वद् दग्धा भारत सृञ्जयाः।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! जैसे जलती आगमें पड़ जानेपर सभी मनुष्य दग्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार सृंजय-सैनिक रणभूमिमें कर्णरूपी अग्निसे जलकर भस्म हो गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णेन चेदिकैकेयपाञ्चालेषु च भारत ॥ ६० ॥
विश्राव्य नाम निहता बहवः शूरसम्मताः।
मूलम्
कर्णेन चेदिकैकेयपाञ्चालेषु च भारत ॥ ६० ॥
विश्राव्य नाम निहता बहवः शूरसम्मताः।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! कर्णने चेदि, केकय और पांचाल योद्धाओंमेंसे बहुत-से शूरसम्मत रथियोंको नाम सुनाकर मार डाला॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम चासीन्मती राजन् दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम् ॥ ६१ ॥
नैकोऽप्याधिरथेर्जीवन् पाञ्चाल्यो मोक्ष्यते युधि।
पञ्चालान् व्यधमत् संख्ये सूतपुत्रः पुनः पुनः ॥ ६२ ॥
मूलम्
मम चासीन्मती राजन् दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम् ॥ ६१ ॥
नैकोऽप्याधिरथेर्जीवन् पाञ्चाल्यो मोक्ष्यते युधि।
पञ्चालान् व्यधमत् संख्ये सूतपुत्रः पुनः पुनः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कर्णका पराक्रम देखकर मेरे मनमें यही निश्चय हुआ कि युद्धस्थलमें एक भी पांचाल योद्धा सूतपुत्रके हाथसे जीवित नहीं छूट सकता; क्योंकि सूतपुत्र बारंबार युद्धस्थलमें पांचालोंका ही विनाश कर रहा था॥६१-६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चालानथ निघ्नन्तं कर्णं दृष्ट्वा महारणे।
अभ्यधावत् सुसंक्रुद्धो धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ६३ ॥
मूलम्
पञ्चालानथ निघ्नन्तं कर्णं दृष्ट्वा महारणे।
अभ्यधावत् सुसंक्रुद्धो धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महासमरमें कर्णको पांचालोंका संहार करते देख धर्मराज युधिष्ठिरने अत्यन्त कुपित होकर उसपर धावा बोल दिया॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नश्च राधेयं द्रौपदेयाश्च मारिष।
परिवव्रुरमित्रघ्नं शतशश्चापरे जनाः ॥ ६४ ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नश्च राधेयं द्रौपदेयाश्च मारिष।
परिवव्रुरमित्रघ्नं शतशश्चापरे जनाः ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! धृष्टद्युम्न, द्रौपदीके पुत्र तथा दूसरे सैकड़ों मनुष्य शत्रुनाशक राधापुत्र कर्णको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिखण्डी सहदेवश्च नकुलो नाकुलिस्तथा।
जनमेजयः शिनेर्नप्ता बहवश्च प्रभद्रकाः ॥ ६५ ॥
एते पुरोगमा भूत्वा धृष्टद्युम्नस्य संयुगे।
कर्णमस्यन्तमिष्वस्त्रैर्विचेरुरमितौजसः ॥ ६६ ॥
मूलम्
शिखण्डी सहदेवश्च नकुलो नाकुलिस्तथा।
जनमेजयः शिनेर्नप्ता बहवश्च प्रभद्रकाः ॥ ६५ ॥
एते पुरोगमा भूत्वा धृष्टद्युम्नस्य संयुगे।
कर्णमस्यन्तमिष्वस्त्रैर्विचेरुरमितौजसः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिखण्डी, सहदेव, नकुल, शतानीक, जनमेजय, सात्यकि तथा बहुत-से प्रभद्रकगण—ये सभी अमिततेजस्वी वीर युद्धस्थलमें धृष्टद्युम्नके आगे होकर बाण बरसानेवाले कर्णपर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करते हुए विचरने लगे॥६५-६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तत्राधिरथिः संख्ये चेदिपाञ्चालपाण्डवान् ।
एको बहूनभ्यपतद् गरुत्मान् पन्नगानिव ॥ ६७ ॥
मूलम्
तांस्तत्राधिरथिः संख्ये चेदिपाञ्चालपाण्डवान् ।
एको बहूनभ्यपतद् गरुत्मान् पन्नगानिव ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्रने समरांगणमें अकेला होनेपर भी जैसे गरुड़ अनेक सर्पोंपर एक साथ आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार बहुसंख्यक चेदि, पांचाल और पाण्डवोंपर आक्रमण किया॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैः कर्णस्याभवद् युद्धं घोररूपं विशाम्पते।
तादृग् यादृक् पुरा वृत्तं देवानां दानवैः सह ॥ ६८ ॥
मूलम्
तैः कर्णस्याभवद् युद्धं घोररूपं विशाम्पते।
तादृग् यादृक् पुरा वृत्तं देवानां दानवैः सह ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! उन सबके साथ कर्णका वैसा ही भयानक युद्ध हुआ, जैसा पूर्वकालमें देवताओंका दानवोंके साथ हुआ था॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् समेतान् महेष्वासान् शरवर्षौघवर्षिणः।
एको व्यधमदव्यग्रस्तमांसीव दिवाकरः ॥ ६९ ॥
मूलम्
तान् समेतान् महेष्वासान् शरवर्षौघवर्षिणः।
एको व्यधमदव्यग्रस्तमांसीव दिवाकरः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे एक ही सूर्य सम्पूर्ण अन्धकार-राशिको नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार एक ही कर्णने ढेर-के-ढेर बाण-वर्षा करनेवाले उन समस्त महाधनुर्धरोंको बिना किसी व्यग्रताके नष्ट कर दिया॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनस्तु संसक्ते राधेये पाण्डवैः सह।
सर्वतोऽभ्यहनत् क्रुद्धो यमदण्डनिभैः शरैः।
वाह्लीकान् केकयान् मत्स्यान् वासात्यान् मद्रसैन्धवान् ॥ ७० ॥
एकः संख्ये महेष्वासो योधयन् बह्वशोभत।
मूलम्
भीमसेनस्तु संसक्ते राधेये पाण्डवैः सह।
सर्वतोऽभ्यहनत् क्रुद्धो यमदण्डनिभैः शरैः।
वाह्लीकान् केकयान् मत्स्यान् वासात्यान् मद्रसैन्धवान् ॥ ७० ॥
एकः संख्ये महेष्वासो योधयन् बह्वशोभत।
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय राधापुत्र कर्ण पाण्डवोंके साथ उलझा हुआ था, उसी समय महाधनुर्धर भीमसेन क्रोधमें भरकर यमदण्डके समान भयंकर बाणोंद्वारा बाह्लीक, केकय, मत्स्य, वसातीय, मद्र तथा सिंधुदेशीय सैनिकोंका सब ओरसे संहार कर रहे थे। वे युद्धभूमिमें अकेले ही इन सबके साथ युद्ध करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र मर्मसु भीमेन नाराचैस्ताडिता गजाः ॥ ७१ ॥
प्रपतन्तो हतारोहाः कम्पयन्ति स्म मेदिनीम्।
मूलम्
तत्र मर्मसु भीमेन नाराचैस्ताडिता गजाः ॥ ७१ ॥
प्रपतन्तो हतारोहाः कम्पयन्ति स्म मेदिनीम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भीमसेनके नाराचोंद्वारा मर्मस्थानोंमें घायल हुए हाथी सवारोंसहित धराशायी हो इस पृथ्वीको कम्पित कर देते थे॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाजिनश्च हतारोहाः पत्तयश्च गतासवः ॥ ७२ ॥
शेरते युधि निर्भिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु।
मूलम्
वाजिनश्च हतारोहाः पत्तयश्च गतासवः ॥ ७२ ॥
शेरते युधि निर्भिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु।
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके सवार मारे गये थे, वे घोड़े और पैदल सैनिक भी युद्धस्थलमें छिन्न-भिन्न हो मुँहसे बहुत-सा रक्त वमन करते हुए प्राणशून्य होकर पड़े थे॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रशश्च रथिनः पातिताः पतितायुधाः ॥ ७३ ॥
ते क्षताः समदृश्यन्त भीतभीता गतासवः।
मूलम्
सहस्रशश्च रथिनः पातिताः पतितायुधाः ॥ ७३ ॥
ते क्षताः समदृश्यन्त भीतभीता गतासवः।
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्रों रथी रथसे नीचे गिरा दिये गये थे। उनके अस्त्र-शस्त्र भी गिर चुके थे। वे सब-के-सब क्षत-विक्षत हो भीमसेनके भयसे भीत एवं प्राणहीन दिखायी दे रहे थे॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथिभिः सादिभिः सूतैः पादातैर्वाजिभिर्गजैः ॥ ७४ ॥
भीमसेन शरैश्छिन्नैराच्छन्ना वसुधाभवत् ।
मूलम्
रथिभिः सादिभिः सूतैः पादातैर्वाजिभिर्गजैः ॥ ७४ ॥
भीमसेन शरैश्छिन्नैराच्छन्ना वसुधाभवत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनके बाणोंसे छिन्न-भिन्न हुए रथियों, घुड़सवारों, सारथियों, पैदलों, घोड़ों और हाथियोंकी लाशोंसे वहाँकी धरती आच्छादित हो गयी थी॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् स्तम्भितमिवातिष्ठद् भीमसेनभयार्दितम् ॥ ७५ ॥
दुर्योधनबलं सर्वं निरुत्साहं कृतव्रणम्।
निश्चेष्टं तुमुलं दीनं बभौ तस्मिन् महारणे ॥ ७६ ॥
मूलम्
तत् स्तम्भितमिवातिष्ठद् भीमसेनभयार्दितम् ॥ ७५ ॥
दुर्योधनबलं सर्वं निरुत्साहं कृतव्रणम्।
निश्चेष्टं तुमुलं दीनं बभौ तस्मिन् महारणे ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महासमरमें दुर्योधनकी सारी सेना भीमसेनके भयसे पीड़ित हो स्तब्ध-सी खड़ी थी। उत्साहशून्य, घायल, निश्चेष्ट, भयंकर और अत्यन्त दीन-सी प्रतीत होती थी॥७५-७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसन्नसलिले काले यथा स्यात् सागरो नृप।
तद्वत् तव बलं तद् वै निश्चलं समवस्थितम् ॥ ७७ ॥
मूलम्
प्रसन्नसलिले काले यथा स्यात् सागरो नृप।
तद्वत् तव बलं तद् वै निश्चलं समवस्थितम् ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जिस समय ज्वार न उठनेसे जल स्वच्छ एवं शान्त हो, उस समय जैसे समुद्र निश्चल दिखायी देता है, उसी प्रकार आपकी सारी सेना निश्चेष्ट खड़ी थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्युवीर्यबलोपेतं दर्पात् प्रत्यवरोपितम् ।
अभवत् तव पुत्रस्य तत् सैन्यं निष्प्रभं तदा ॥ ७८ ॥
मूलम्
मन्युवीर्यबलोपेतं दर्पात् प्रत्यवरोपितम् ।
अभवत् तव पुत्रस्य तत् सैन्यं निष्प्रभं तदा ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि आपके सैनिकोंमें क्रोध, पराक्रम और बलकी कमी नहीं थी तो भी उनका घमंड चूर-चूर हो गया था; इसलिये उस समय आपके पुत्रकी वह सारी सेना तेजोहीन-सी प्रतीत होती थी॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् बलं भरतश्रेष्ठ वध्यमानं परस्परम्।
रुधिरौघपरिक्लिन्नं रुधिरार्द्रं बभूव ह ॥ ७९ ॥
जगाम भरतश्रेष्ठ वध्यमानं परस्परम्।
मूलम्
तद् बलं भरतश्रेष्ठ वध्यमानं परस्परम्।
रुधिरौघपरिक्लिन्नं रुधिरार्द्रं बभूव ह ॥ ७९ ॥
जगाम भरतश्रेष्ठ वध्यमानं परस्परम्।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! परस्पर मार खाती हुई वह सेना रक्तके प्रवाहमें डूबकर खूनसे लथपथ हो गयी थी और एक-दूसरेकी चोट खाकर विनाशको प्राप्त हो रही थी॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतपुत्रो रणे क्रुद्धः पाण्डवानामनीकिनीम् ॥ ८० ॥
भीमसेनः कुरूंश्चापि द्रावयन्तौ विरेजतुः।
मूलम्
सूतपुत्रो रणे क्रुद्धः पाण्डवानामनीकिनीम् ॥ ८० ॥
भीमसेनः कुरूंश्चापि द्रावयन्तौ विरेजतुः।
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्र कर्ण रणभूमिमें कुपित हो पाण्डव-सेनाको और भीमसेन कौरव-सैनिकोंको खदेड़ते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमाने तथा रौद्रे संग्रामेऽद्भुतदर्शने ॥ ८१ ॥
निहत्य पृतनामध्ये संशप्तकगणान् बहून्।
अर्जुनो जयतां श्रेष्ठो वासुदेवमथाब्रवीत् ॥ ८२ ॥
मूलम्
वर्तमाने तथा रौद्रे संग्रामेऽद्भुतदर्शने ॥ ८१ ॥
निहत्य पृतनामध्ये संशप्तकगणान् बहून्।
अर्जुनो जयतां श्रेष्ठो वासुदेवमथाब्रवीत् ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब इस प्रकार अद्भुत दिखायी देनेवाला वह भयंकर संग्राम चल ही रहा था, उस समय दूसरी ओर विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ अर्जुन सेनाके मध्यभागमें बहुत-से संशप्तकोंका संहार करके भगवान् श्रीकृष्णसे बोले—॥८१-८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभग्नं बलमेतद्धि योत्स्यमानं जनार्दन।
एते द्रवन्ति सगणाः संशप्तकमहारथाः ॥ ८३ ॥
अपारयन्तो मद्बाणान् सिंहशब्दं मृगा इव।
मूलम्
प्रभग्नं बलमेतद्धि योत्स्यमानं जनार्दन।
एते द्रवन्ति सगणाः संशप्तकमहारथाः ॥ ८३ ॥
अपारयन्तो मद्बाणान् सिंहशब्दं मृगा इव।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जनार्दन! युद्ध करती हुई इस संशप्तक-सेनाके पाँव उखड़ गये हैं। ये संशप्तक महारथी अपने-अपने दलके साथ भागे जा रहे हैं। जैसे मृग सिंहकी गर्जना सुनकर हतोत्साह हो जाते हैं, उसी प्रकार ये लोग मेरे बाणोंकी चोट सहन करनेमें असमर्थ हो गये हैं॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्यते च महत् सैन्यं सृञ्जयानां महारणे ॥ ८४ ॥
हस्तिकक्षो ह्यसौ कृष्ण केतुः कर्णस्य धीमतः।
दृश्यते राजसैन्यस्य मध्ये विचरतो मुदा ॥ ८५ ॥
मूलम्
दीर्यते च महत् सैन्यं सृञ्जयानां महारणे ॥ ८४ ॥
हस्तिकक्षो ह्यसौ कृष्ण केतुः कर्णस्य धीमतः।
दृश्यते राजसैन्यस्य मध्ये विचरतो मुदा ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उधर वह सृंजयोंकी विशाल सेना भी महासमरमें विदीर्ण हो रही है। श्रीकृष्ण! वह हाथीकी रस्सीके चिह्नसे युक्त बुद्धिमान् कर्णका ध्वज दिखायी दे रहा है। वह राजाओंकी सेनाके बीच सानन्द विचरण कर रहा है॥८४-८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च कर्णं रणे शक्ता जेतुमन्ये महारथाः।
जानीते हि भवान् कर्णं वीर्यवन्तं पराक्रमे ॥ ८६ ॥
मूलम्
न च कर्णं रणे शक्ता जेतुमन्ये महारथाः।
जानीते हि भवान् कर्णं वीर्यवन्तं पराक्रमे ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जनार्दन! आप तो जानते ही हैं कि कर्ण कितना बलवान् तथा पराक्रम प्रकट करनेमें समर्थ है। अतः रणभूमिमें दूसरे महारथी उसे जीत नहीं सकते हैं॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र याहि यतः कर्णो द्रावयत्येष नो बलम्।
वर्जयित्वा रणे याहि सूतपुत्रं महारथम् ॥ ८७ ॥
एतन्मे रोचते कृष्ण यथा वा तव रोचते।
मूलम्
तत्र याहि यतः कर्णो द्रावयत्येष नो बलम्।
वर्जयित्वा रणे याहि सूतपुत्रं महारथम् ॥ ८७ ॥
एतन्मे रोचते कृष्ण यथा वा तव रोचते।
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण! जहाँ यह कर्ण हमारी सेनाको खदेड़ रहा है, वहीं चलिये। रणभूमिमें संशप्तकोंको छोड़कर अब महारथी सूतपुत्रके ही पास रथ ले चलिये। ‘मुझे यही ठीक जान पड़ता है अथवा आपको जैसा जँचे, वैसा कीजिये’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य गोविन्दः प्रहसन्निव ॥ ८८ ॥
अब्रवीदर्जुनं तूर्णं कौरवाञ्जहि पाण्डव।
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य गोविन्दः प्रहसन्निव ॥ ८८ ॥
अब्रवीदर्जुनं तूर्णं कौरवाञ्जहि पाण्डव।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने उनसे हँसते हुए-से कहा—‘पाण्डुनन्दन! तुम शीघ्र ही कौरव-सैनिकोंका संहार करो’॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तव महासैन्यं गोविन्दप्रेरिता हयाः ॥ ८९ ॥
हंसवर्णाः प्रविविशुर्वहन्तः कृष्णपाण्डवौ ।
मूलम्
ततस्तव महासैन्यं गोविन्दप्रेरिता हयाः ॥ ८९ ॥
हंसवर्णाः प्रविविशुर्वहन्तः कृष्णपाण्डवौ ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर श्रीकृष्णके द्वारा हाँके गये हंसके समान श्वेत रंगवाले घोड़े श्रीकृष्ण और अर्जुनको लेकर आपकी विशाल सेनामें घुस गये॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केशवप्रेरितैरश्वैः श्वेतैः काञ्चनभूषणैः ॥ ९० ॥
प्रविशद्भिस्तव बलं चतुर्दिशमभिद्यत ।
मूलम्
केशवप्रेरितैरश्वैः श्वेतैः काञ्चनभूषणैः ॥ ९० ॥
प्रविशद्भिस्तव बलं चतुर्दिशमभिद्यत ।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णद्वारा संचालित हुए उन सुवर्णभूषित श्वेत अश्वोंके प्रवेश करते ही आपकी सेनामें चारों ओर भगदड़ मच गयी॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघस्तनितनिर्ह्रादः स रथो वानरध्वजः ॥ ९१ ॥
चलत्पताकस्तां सेनां विमानं द्यामिवाविशत्।
मूलम्
मेघस्तनितनिर्ह्रादः स रथो वानरध्वजः ॥ ९१ ॥
चलत्पताकस्तां सेनां विमानं द्यामिवाविशत्।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई विमान स्वर्गलोकमें प्रवेश कर रहा हो, उसी प्रकार चंचल पताकाओंसे युक्त वह कपिध्वज रथ मेघोंकी गर्जनाके समान गम्भीर घोष करता हुआ उस सेनामें जा घुसा॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ विदार्य महासेनां प्रविष्टौ केशवार्जुनौ ॥ ९२ ॥
क्रुद्धौ संरम्भरक्ताक्षौ व्यभ्राजेतां महाद्युती।
मूलम्
तौ विदार्य महासेनां प्रविष्टौ केशवार्जुनौ ॥ ९२ ॥
क्रुद्धौ संरम्भरक्ताक्षौ व्यभ्राजेतां महाद्युती।
अनुवाद (हिन्दी)
उस विशाल सेनाको विदीर्ण करके उसके भीतर प्रविष्ट हुए वे दोनों श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने महान् तेजसे प्रकाशित हो रहे थे। उनके मनमें शत्रुओंके प्रति क्रोध भरा हुआ था और उनकी आँखें रोषसे लाल हो रही थीं॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धशौण्डौ समाहूतावागतौ तौ रणाध्वरम् ॥ ९३ ॥
यज्वभिर्विधिनाहूतौ मखे देवाविवाश्विनौ ।
मूलम्
युद्धशौण्डौ समाहूतावागतौ तौ रणाध्वरम् ॥ ९३ ॥
यज्वभिर्विधिनाहूतौ मखे देवाविवाश्विनौ ।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे यज्ञमें ऋत्विजोंद्वारा विधिपूर्वक आवाहन किये जानेपर दोनों अश्विनीकुमार नामक देवता पदार्पण करते हैं, उसी प्रकार युद्धनिपुण वे श्रीकृष्ण और अर्जुन भी मानो आह्वान किये जानेपर उस रणयज्ञमें पधारे थे॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धौ तौ तु नरव्याघ्रौ वेगवन्तौ बभूवतुः ॥ ९४ ॥
तलशब्देन रुषितौ यथा नागौ महावने।
मूलम्
क्रुद्धौ तौ तु नरव्याघ्रौ वेगवन्तौ बभूवतुः ॥ ९४ ॥
तलशब्देन रुषितौ यथा नागौ महावने।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे विशाल वनमें तालीकी आवाजसे कुपित हुए दो हाथी दौड़े आ रहे हों, उसी प्रकार क्रोधमें भरे हुए वे दोनों पुरुषसिंह बड़े वेगसे बढ़े आ रहे थे॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विगाह्य तु रथानीकमश्वसंघांश्च फाल्गुनः ॥ ९५ ॥
व्यचरत् पृतनामध्ये पाशहस्त इवान्तकः।
मूलम्
विगाह्य तु रथानीकमश्वसंघांश्च फाल्गुनः ॥ ९५ ॥
व्यचरत् पृतनामध्ये पाशहस्त इवान्तकः।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन रथसेना और घुड़सवारोंके समूहमें घुसकर पाशधारी यमराजके समान कौरव-सेनाके मध्यभागमें विचरने लगे॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा युधि विक्रान्तं सेनायां तव भारत ॥ ९६ ॥
संशप्तकगणान् भूयः पुत्रस्ते समचूचुदत्।
मूलम्
तं दृष्ट्वा युधि विक्रान्तं सेनायां तव भारत ॥ ९६ ॥
संशप्तकगणान् भूयः पुत्रस्ते समचूचुदत्।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! युद्धमें पराक्रम प्रकट करनेवाले अर्जुनको आपकी सेनामें घुसा हुआ देख आपके पुत्र दुर्योधनने पुनः संशप्तकगणोंको उनपर आक्रमण करनेके लिये प्रेरित किया॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रथसहस्रेण द्विरदानां त्रिभिः शतैः ॥ ९७ ॥
चतुर्दशसहस्रैस्तु तुरगाणां महाहवे ।
द्वाभ्यां शतसहस्राभ्यां पदातीनां च धन्विनाम् ॥ ९८ ॥
शूराणां लब्धलक्ष्याणां विदितानां समन्ततः।
अभ्यवर्तन्त कौन्तेयं छादयन्तो महारथाः ॥ ९९ ॥
शरवर्षैर्महाराज सर्वतः पाण्डुनन्दनम् ।
मूलम्
ततो रथसहस्रेण द्विरदानां त्रिभिः शतैः ॥ ९७ ॥
चतुर्दशसहस्रैस्तु तुरगाणां महाहवे ।
द्वाभ्यां शतसहस्राभ्यां पदातीनां च धन्विनाम् ॥ ९८ ॥
शूराणां लब्धलक्ष्याणां विदितानां समन्ततः।
अभ्यवर्तन्त कौन्तेयं छादयन्तो महारथाः ॥ ९९ ॥
शरवर्षैर्महाराज सर्वतः पाण्डुनन्दनम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तब एक हजार रथ, तीन सौ हाथी, चौदह हजार घोड़े और लक्ष्य वेधनेमें निपुण, सर्वत्र विख्यात एवं शौर्यसम्पन्न दो लाख पैदल सैनिक साथ लेकर संशप्तक महारथी कुन्तीकुमार पाण्डुनन्दन अर्जुनको अपने बाणोंकी वर्षासे आच्छादित करते हुए उनपर चढ़ आये॥९७—९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च्छाद्यमानः समरे शरैः परबलार्दनः ॥ १०० ॥
दर्शयन् रौद्रमात्मानं पाशहस्त इवान्तकः।
निघ्नन् संशप्तकान् पार्थः प्रेक्षणीयतरोऽभवत् ॥ १०१ ॥
मूलम्
स च्छाद्यमानः समरे शरैः परबलार्दनः ॥ १०० ॥
दर्शयन् रौद्रमात्मानं पाशहस्त इवान्तकः।
निघ्नन् संशप्तकान् पार्थः प्रेक्षणीयतरोऽभवत् ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय समरांगणमें उनके बाणोंसे आच्छादित होते हुए शत्रुसैन्यसंहारक कुन्तीकुमार अर्जुन पाशधारी यमराजके समान अपना भयंकर रूप दिखाते और संशप्तकोंका वध करते हुए अत्यन्त दर्शनीय हो रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विद्युत्प्रभैर्बाणैः कार्तस्वरविभूषितैः ।
निरन्तरमिवाकाशमासीच्छन्नं किरीटिना ॥ १०२ ॥
मूलम्
ततो विद्युत्प्रभैर्बाणैः कार्तस्वरविभूषितैः ।
निरन्तरमिवाकाशमासीच्छन्नं किरीटिना ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर किरीटधारी अर्जुनके चलाये हुए विद्युत्के समान प्रकाशमान सुवर्णभूषित बाणोंद्वारा आच्छादित हो आकाश ठसाठस भर गया॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरीटिभुजनिर्मुक्तैः सम्पतद्भिर्महाशरैः ।
समाच्छन्नं बभौ सर्वं काद्रवेयैरिव प्रभो ॥ १०३ ॥
मूलम्
किरीटिभुजनिर्मुक्तैः सम्पतद्भिर्महाशरैः ।
समाच्छन्नं बभौ सर्वं काद्रवेयैरिव प्रभो ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! किरीटधारी अर्जुनकी भुजाओंसे छूटकर सब ओर गिरनेवाले बड़े-बड़े बाणोंसे आवृत होकर वहाँका सारा प्रदेश सर्पोंसे व्याप्त-सा प्रतीत हो रहा था॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुक्मपुङ्खान् प्रसन्नाग्रान् शरान् संनतपर्वणः।
अवासृजदमेयात्मा दिक्षु सर्वासु पाण्डवः ॥ १०४ ॥
मूलम्
रुक्मपुङ्खान् प्रसन्नाग्रान् शरान् संनतपर्वणः।
अवासृजदमेयात्मा दिक्षु सर्वासु पाण्डवः ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमेय आत्मबलसे सम्पन्न पाण्डुनन्दन अर्जुन सम्पूर्ण दिशाओंमें सुवर्णमय पंख, स्वच्छ धार और झुकी हुई गाँठवाले बाणोंकी वर्षा कर रहे थे॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मही वियद् दिशः सर्वाः समुद्रा गिरयोऽपि वा।
स्फुटन्तीति जना जज्ञुः पार्थस्य तलनिःस्वनात् ॥ १०५ ॥
मूलम्
मही वियद् दिशः सर्वाः समुद्रा गिरयोऽपि वा।
स्फुटन्तीति जना जज्ञुः पार्थस्य तलनिःस्वनात् ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सब लोग यही समझने लगे कि ‘अर्जुनके तलशब्द (हथेलीकी आवाज)-से पृथ्वी, आकाश, सम्पूर्ण दिशाएँ, समुद्र और पर्वत भी फटे जा रहे हैं’॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा दशसहस्राणि पार्थिवानां महारथः।
संशप्तकानां कौन्तेयः प्रत्यक्षं त्वरितोऽभ्ययात् ॥ १०६ ॥
मूलम्
हत्वा दशसहस्राणि पार्थिवानां महारथः।
संशप्तकानां कौन्तेयः प्रत्यक्षं त्वरितोऽभ्ययात् ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महारथी कुन्तीकुमार अर्जुन सबके देखते-देखते दस हजार संशप्तक नरेशोंका वध करके तुरंत आगे बढ़ गये॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं च समासाद्य पार्थः काम्बोजरक्षितम्।
प्रममाथ बलं बाणैर्दानवानिव वासवः ॥ १०७ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षं च समासाद्य पार्थः काम्बोजरक्षितम्।
प्रममाथ बलं बाणैर्दानवानिव वासवः ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे इन्द्रने दानवोंका विनाश किया था, उसी प्रकार अर्जुनने हमारी आँखोंके सामने काम्बोजराजके द्वारा सुरक्षित सेनाके पास पहुँचकर अपने बाणोंद्वारा उसका संहार कर डाला॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रचिच्छेदाशु भल्लेन द्विषतामाततायिनाम् ।
शस्त्रं पाणिं तथा बाहुं तथापि च शिरांस्युत ॥ १०८ ॥
मूलम्
प्रचिच्छेदाशु भल्लेन द्विषतामाततायिनाम् ।
शस्त्रं पाणिं तथा बाहुं तथापि च शिरांस्युत ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने भल्लके द्वारा आततायी शत्रुओंके शस्त्र, हाथ, भुजा तथा मस्तकोंको बड़ी फुर्तीसे काट रहे थे॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गाङ्गावयवैश्छिन्नैर्व्यायुधास्तेऽपतन् भुवि ।
विष्वग्वाताभिसम्भग्ना बहुशाखा इव द्रुमाः ॥ १०९ ॥
मूलम्
अङ्गाङ्गावयवैश्छिन्नैर्व्यायुधास्तेऽपतन् भुवि ।
विष्वग्वाताभिसम्भग्ना बहुशाखा इव द्रुमाः ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सब ओरसे उठी हुई आँधीके उखाड़े हुए अनेक शाखाओंवाले वृक्ष धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार अपने शरीरका एक-एक अवयव कट जानेसे वे शस्त्रहीन शत्रु भूतलपर गिर पड़ते थे॥१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्त्यश्वरथपत्तीनां व्रातान् निघ्नन्तमर्जुनम् ।
सुदक्षिणादवरजः शरवृष्ट्याभ्यवीवृषत् ॥ ११० ॥
मूलम्
हस्त्यश्वरथपत्तीनां व्रातान् निघ्नन्तमर्जुनम् ।
सुदक्षिणादवरजः शरवृष्ट्याभ्यवीवृषत् ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंके समूहोंका संहार करनेवाले अर्जुनपर काम्बोजराज सुदक्षिणका छोटा भाई अपने बाणोंकी वर्षा करने लगा॥११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यास्यतोऽर्धचन्द्राभ्यां बाहू परिघसंनिभौ ।
पूर्णचन्द्राभवक्त्रं च क्षुरेणाभ्यहरच्छिरः ॥ १११ ॥
मूलम्
तस्यास्यतोऽर्धचन्द्राभ्यां बाहू परिघसंनिभौ ।
पूर्णचन्द्राभवक्त्रं च क्षुरेणाभ्यहरच्छिरः ॥ १११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अर्जुनने बाण-वर्षा करनेवाले उस वीरकी परिघके समान मोटी और सुदृढ़ भुजाओंको दो अर्धचन्द्राकार बाणोंसे काट डाला और एक छुरेके द्वारा पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर मुखवाले उसके मस्तकको भी धड़से अलग कर दिया॥१११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पपात ततो वाहात् सुलोहितपरिस्रवः।
मनःशिलागिरेः शृङ्गं वज्रेणेवावदारितम् ॥ ११२ ॥
मूलम्
स पपात ततो वाहात् सुलोहितपरिस्रवः।
मनःशिलागिरेः शृङ्गं वज्रेणेवावदारितम् ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो वह रक्तका झरना-सा बहाता हुआ अपने वाहनसे नीचे गिर पड़ा, मानो मैनसिलके पहाड़का शिखर वज्रसे विदीर्ण होकर भूतलपर आ गिरा हो॥११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदक्षिणादवरजं काम्बोजं ददृशुर्हतम् ।
प्रांशुं कमलपत्राक्षमत्यर्थं प्रियदर्शनम् ॥ ११३ ॥
काञ्चनस्तम्भसदृशं भिन्नं हेमगिरिं यथा।
मूलम्
सुदक्षिणादवरजं काम्बोजं ददृशुर्हतम् ।
प्रांशुं कमलपत्राक्षमत्यर्थं प्रियदर्शनम् ॥ ११३ ॥
काञ्चनस्तम्भसदृशं भिन्नं हेमगिरिं यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सब लोगोंने देखा कि सुदक्षिणका छोटा भाई काम्बोजदेशीय वीर जो देखनेमें अत्यन्त प्रिय, कमल-दलके समान नेत्रोंसे सुशोभित तथा सोनेके खम्भेके समान ऊँचा कदका था, मारा जाकर विदीर्ण हुए सुवर्णमय पर्वतके समान धरतीपर पड़ा है॥११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभवत् पुनर्युद्धं घोरमत्यर्थमद्भुतम् ॥ ११४ ॥
नानावस्थाश्च योधानां बभूवुस्तत्र युद्ध्यताम्।
मूलम्
ततोऽभवत् पुनर्युद्धं घोरमत्यर्थमद्भुतम् ॥ ११४ ॥
नानावस्थाश्च योधानां बभूवुस्तत्र युद्ध्यताम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पुनः अत्यन्त घोर एवं अद्भुत युद्ध होने लगा। वहाँ युद्ध करते हुए योद्धाओंकी विभिन्न अवस्थाएँ प्रकट होने लगीं॥११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकेषुनिहतैरश्वैः काम्बोजैर्यवनैः शकैः ॥ ११५ ॥
शोणिताक्तैस्तदा रक्तं सर्वमासीद् विशाम्पते।
मूलम्
एकेषुनिहतैरश्वैः काम्बोजैर्यवनैः शकैः ॥ ११५ ॥
शोणिताक्तैस्तदा रक्तं सर्वमासीद् विशाम्पते।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! एक-एक बाणसे मारे गये रक्तरंजित काबुली घोड़ों, यवनों और शकोंके खूनसे वह सारा युद्धस्थल लाल हो गया था॥११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथैर्हताश्वसूतैश्च हतारोहैश्च वाजिभिः ॥ ११६ ॥
द्विरदैश्च हतारोहैर्महामात्रैर्हतद्विपैः ।
अन्योन्येन महाराज कृपो घोरो जनक्षयः ॥ ११७ ॥
मूलम्
रथैर्हताश्वसूतैश्च हतारोहैश्च वाजिभिः ॥ ११६ ॥
द्विरदैश्च हतारोहैर्महामात्रैर्हतद्विपैः ।
अन्योन्येन महाराज कृपो घोरो जनक्षयः ॥ ११७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथोंके घोड़े और सारथि, घोड़ोंके सवार, हाथियोंके आरोही, महावत और स्वयं हाथी भी मारे गये थे। महाराज! इन सबने परस्पर प्रहार करके घोर जनसंहार मचा दिया था॥११६-११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् प्रपक्षे पक्षे च निहते सव्यसाचिना।
अर्जुनं जयतां श्रेष्ठं त्वरितो द्रौणिरभ्ययात् ॥ ११८ ॥
विधुन्वानो महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् ।
आददानः शरान् घोरान् स्वरश्मीनिव भास्करः ॥ ११९ ॥
मूलम्
तस्मिन् प्रपक्षे पक्षे च निहते सव्यसाचिना।
अर्जुनं जयतां श्रेष्ठं त्वरितो द्रौणिरभ्ययात् ॥ ११८ ॥
विधुन्वानो महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् ।
आददानः शरान् घोरान् स्वरश्मीनिव भास्करः ॥ ११९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस युद्धमें जब सव्यसाची अर्जुनने शत्रुओंके पक्ष और प्रपक्ष दोनोंको मार गिराया, तब द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अपने सुवर्णभूषित विशाल धनुषको हिलाता और अपनी किरणोंको धारण करनेवाले सूर्यदेवके समान भयंकर बाण हाथमें लेता हुआ तुरंत विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ अर्जुनके सामने आ पहुँचा॥११८-११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधामर्षविवृत्तास्यो लोहिताक्षो बभौ बली।
अन्तकाले यथा क्रुद्धो मृत्युः किङ्करदण्डभृत् ॥ १२० ॥
मूलम्
क्रोधामर्षविवृत्तास्यो लोहिताक्षो बभौ बली।
अन्तकाले यथा क्रुद्धो मृत्युः किङ्करदण्डभृत् ॥ १२० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय क्रोध और अमर्षसे उसका मुँह खुला हुआ था, नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे तथा वह बलवान् अश्वत्थामा अन्तकालमें किंकर नामक दण्ड धारण करनेवाले कुपित यमराजके समान जान पड़ता था॥१२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रासृजदुग्राणि शरवर्षाणि संघशः।
तैर्विसृष्टैर्महाराज व्यद्रवत् पाण्डवी चमूः ॥ १२१ ॥
मूलम्
ततः प्रासृजदुग्राणि शरवर्षाणि संघशः।
तैर्विसृष्टैर्महाराज व्यद्रवत् पाण्डवी चमूः ॥ १२१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तत्पश्चात् वह समूह-के-समूह भयंकर बाणोंकी वर्षा करने लगा। उसके छोड़े हुए बाणोंसे व्यथित हो पाण्डव-सेना भागने लगी॥१२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दृष्ट्वैव तु दाशार्हं स्यन्दनस्थं विशाम्पते।
पुनः प्रासृजदुग्राणि शरवर्षाणि मारिष ॥ १२२ ॥
मूलम्
स दृष्ट्वैव तु दाशार्हं स्यन्दनस्थं विशाम्पते।
पुनः प्रासृजदुग्राणि शरवर्षाणि मारिष ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय प्रजानाथ! वह रथपर बैठे हुए श्रीकृष्णकी ओर देखकर ही पुनः उनके ऊपर भयानक बाणोंकी वृष्टि करने लगा॥१२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैः पतद्भिर्महाराज द्रौणिमुक्तैः समन्ततः।
संछादितौ रथस्थौ तावुभौ कृष्णधनंजयौ ॥ १२३ ॥
मूलम्
तैः पतद्भिर्महाराज द्रौणिमुक्तैः समन्ततः।
संछादितौ रथस्थौ तावुभौ कृष्णधनंजयौ ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! अश्वत्थामाके हाथोंसे छूटकर सब ओर गिरनेवाले उन बाणोंसे रथपर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ही ढक गये॥१२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शरशतैस्तीक्ष्णैरश्वत्थामा प्रतापवान् ।
निश्चेष्टौ तावुभौ युद्धे चक्रे माधवपाण्डवौ ॥ १२४ ॥
मूलम्
ततः शरशतैस्तीक्ष्णैरश्वत्थामा प्रतापवान् ।
निश्चेष्टौ तावुभौ युद्धे चक्रे माधवपाण्डवौ ॥ १२४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् प्रतापी अश्वत्थामाने सैकड़ों तीखे बाणोंद्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनोंको युद्धस्थलमें निश्चेष्ट कर दिया॥१२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहाकृतमभूत् सर्वं स्थावरं जङ्गमं तथा।
चराचरस्य गोप्तारौ दृष्ट्वा संछादितौ शरैः ॥ १२५ ॥
मूलम्
हाहाकृतमभूत् सर्वं स्थावरं जङ्गमं तथा।
चराचरस्य गोप्तारौ दृष्ट्वा संछादितौ शरैः ॥ १२५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चराचर जगत्की रक्षा करनेवाले उन दोनों वीरोंको बाणोंसे आच्छादित हुआ देख स्थावर-जंगम समस्त प्राणी हाहाकार कर उठे॥१२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्धचारणसंघाश्च सम्पेतुस्ते समन्ततः ।
चिन्तयन्तो भवेदद्य लोकानां स्वस्त्यपीति च ॥ १२६ ॥
मूलम्
सिद्धचारणसंघाश्च सम्पेतुस्ते समन्ततः ।
चिन्तयन्तो भवेदद्य लोकानां स्वस्त्यपीति च ॥ १२६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिद्धों और चारणोंके समुदाय सब ओरसे वहाँ आ पहुँचे और यह चिन्तन करने लगे कि ‘आज सम्पूर्ण जगत्का कल्याण हो’॥१२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मया तादृशो राजन् दृष्टपूर्वः पराक्रमः।
संग्रामे यादृशो द्रौणेः कृष्णौ संछादयिष्यतः ॥ १२७ ॥
मूलम्
न मया तादृशो राजन् दृष्टपूर्वः पराक्रमः।
संग्रामे यादृशो द्रौणेः कृष्णौ संछादयिष्यतः ॥ १२७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! समरांगणमें श्रीकृष्ण और अर्जुनको बाणोंद्वारा आच्छादित करनेवाले अश्वत्थामाका जैसा पराक्रम उस दिन देखा गया, वैसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था॥१२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौणेस्तु धनुषः शब्दमहितत्रासनं रणे।
अश्रौषं बहुशो राजन् सिंहस्य निनदो यथा ॥ १२८ ॥
मूलम्
द्रौणेस्तु धनुषः शब्दमहितत्रासनं रणे।
अश्रौषं बहुशो राजन् सिंहस्य निनदो यथा ॥ १२८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मैंने रणभूमिमें अश्वत्थामाके धनुषकी शत्रुओंको भयभीत कर देनेवाली टंकार बारंबार सुनी, मानो किसी सिंहके दहाड़नेकी आवाज हो रही हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्या चास्य चरतो युद्धे सव्यदक्षिणमस्यतः।
विद्युदम्बुदमध्यस्था भ्राजमानेव साभवत् ॥ १२९ ॥
मूलम्
ज्या चास्य चरतो युद्धे सव्यदक्षिणमस्यतः।
विद्युदम्बुदमध्यस्था भ्राजमानेव साभवत् ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मेघोंकी घटाके बीचमें बिजली चमकती है, उसी प्रकार युद्धमें दायें-बायें बाण-वर्षापूर्वक विचरते हुए अशत्थामाके धनुषकी प्रत्यंचा भी प्रकाशित हो रही थी॥१२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथा क्षिप्रकारी च दृढहस्तश्च पाण्डवः।
प्रमोहं परमं गत्वा प्रेक्ष्य तं द्रोणजं ततः ॥ १३० ॥
विक्रमं विहतं मेन आत्मनः स महायशाः।
तस्यास्य समरे राजन् वपुरासीत् सुदुर्दृशम् ॥ १३१ ॥
मूलम्
स तथा क्षिप्रकारी च दृढहस्तश्च पाण्डवः।
प्रमोहं परमं गत्वा प्रेक्ष्य तं द्रोणजं ततः ॥ १३० ॥
विक्रमं विहतं मेन आत्मनः स महायशाः।
तस्यास्य समरे राजन् वपुरासीत् सुदुर्दृशम् ॥ १३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें फुर्ती करने और दृढ़तापूर्वक हाथ चलानेवाले महायशस्वी पाण्डुनन्दन अर्जुन द्रोणकुमारकी ओर देखकर भारी मोहमें पड़ गये और अपने पराक्रमको प्रतिहत हुआ मानने लगे। राजन्! उस समरांगणमें अश्वत्थामाके शरीरकी ओर देखना भी अत्यन्त कठिन हो रहा था॥१३०-१३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौणिपाण्डवयोरेवं वर्तमाने महारणे ।
वर्धमाने च राजेन्द्र द्रोणपुत्रे महाबले ॥ १३२ ॥
हीयमाने च कौन्तेये कृष्णे रोषः समाविशत्।
मूलम्
द्रौणिपाण्डवयोरेवं वर्तमाने महारणे ।
वर्धमाने च राजेन्द्र द्रोणपुत्रे महाबले ॥ १३२ ॥
हीयमाने च कौन्तेये कृष्णे रोषः समाविशत्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! इस प्रकार अश्वत्थामा और अर्जुनमें महान् युद्ध आरम्भ होनेपर जब महाबली द्रोणपुत्र बढ़ने लगा और कुन्तीकुमार अर्जुनका पराक्रम मन्द पड़ने लगा, तब भगवान् श्रीकृष्णको बड़ा क्रोध हुआ॥१३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रोषान्निःश्वसन् राजन् निर्दहन्निव चक्षुषा ॥ १३३ ॥
द्रौणिं ह्यपश्यत् संग्रामे फाल्गुनं च मुहुर्मुहुः।
मूलम्
स रोषान्निःश्वसन् राजन् निर्दहन्निव चक्षुषा ॥ १३३ ॥
द्रौणिं ह्यपश्यत् संग्रामे फाल्गुनं च मुहुर्मुहुः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे रोषसे लंबी साँस खींचते और अपने नेत्रोंद्वारा दग्ध-सा करते हुए युद्धस्थलमें अश्वत्थामा और अर्जुनकी ओर बारंबार देखने लगे॥१३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धोऽब्रवीत् कृष्णः पार्थं सप्रणयं तदा ॥ १३४ ॥
अत्यद्भुतमिदं पार्थ तव पश्यामि संयुगे।
अतिशेते हि यत्र त्वां द्रोणपुत्रोऽद्य भारत ॥ १३५ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धोऽब्रवीत् कृष्णः पार्थं सप्रणयं तदा ॥ १३४ ॥
अत्यद्भुतमिदं पार्थ तव पश्यामि संयुगे।
अतिशेते हि यत्र त्वां द्रोणपुत्रोऽद्य भारत ॥ १३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् क्रोधमें भरे हुए श्रीकृष्ण उस समय अर्जुनसे प्रेमपूर्वक बोले—‘पार्थ! युद्धस्थलमें तुम्हारा यह उपेक्षायुक्त अद्भुत बर्ताव देख रहा हूँ। भारत! आज द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तुमसे सर्वथा बढ़ता जा रहा है॥१३४-१३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिद् वीर्यं यथापूर्वं भुजयोर्वा बलं तव।
कच्चित् ते गाण्डिवं हस्ते रथे तिष्ठसि चार्जुन ॥ १३६ ॥
मूलम्
कच्चिद् वीर्यं यथापूर्वं भुजयोर्वा बलं तव।
कच्चित् ते गाण्डिवं हस्ते रथे तिष्ठसि चार्जुन ॥ १३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अर्जुन! तुम्हारी शारीरिक शक्ति पहलेके समान ही ठीक है न? अथवा तुम्हारी भुजाओंमें पूर्ववत् बल तो है न? तुम्हारे हाथमें गाण्डीव धनुष तो है न? और तुम रथपर ही खड़े हो न?॥१३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चित् कुशलिनौ बाहू मुष्टिर्वा न व्यशीर्यत।
उदीर्यमाणं हि रणे पश्यामि द्रौणिमाहवे ॥ १३७ ॥
मूलम्
कच्चित् कुशलिनौ बाहू मुष्टिर्वा न व्यशीर्यत।
उदीर्यमाणं हि रणे पश्यामि द्रौणिमाहवे ॥ १३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्या तुम्हारी दोनों भुजाएँ सकुशल हैं? तुम्हारी मुट्ठी तो ढीली नहीं हो गयी है? अर्जुन! मैं देखता हूँ कि युद्धस्थलमें अश्वत्थामा तुमसे बढ़ा जा रहा है॥१३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुपुत्र इति ह्येनं मानयन् भरतर्षभ।
उपेक्षां कुरु मा पार्थ नायं काल उपेक्षितुम् ॥ १३८ ॥
मूलम्
गुरुपुत्र इति ह्येनं मानयन् भरतर्षभ।
उपेक्षां कुरु मा पार्थ नायं काल उपेक्षितुम् ॥ १३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतश्रेष्ठ! कुन्तीनन्दन! यह मेरे गुरुका पुत्र है, ऐसा मानकर तुम इसके प्रति उपेक्षाभाव न करो। यह समय उपेक्षा करनेका नहीं है’॥१३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु कृष्णेन गृह्य भल्लांश्चतुर्दश।
त्वरमाणस्त्वराकाले द्रौणेर्धनुरथच्छिनत् ॥ १३९ ॥
ध्वजं छत्रं पताकाश्च खड्गं शक्तिं गदां तथा।
जत्रुदेशे च सुभृशं वत्सदन्तैरताडयत् ॥ १४० ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु कृष्णेन गृह्य भल्लांश्चतुर्दश।
त्वरमाणस्त्वराकाले द्रौणेर्धनुरथच्छिनत् ॥ १३९ ॥
ध्वजं छत्रं पताकाश्च खड्गं शक्तिं गदां तथा।
जत्रुदेशे च सुभृशं वत्सदन्तैरताडयत् ॥ १४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर अर्जुनने चौदह भल्ल हाथमें लेकर शीघ्रता करनेके अवसरपर फुर्ती दिखायी और अश्वत्थामाके धनुषको काट डाला। साथ ही उसके ध्वज, छत्र, पताका, खड्ग, शक्ति और गदाके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तदनन्तर अश्वत्थामाके गलेकी हँसलीपर ‘वत्सदन्त’ नामक बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी॥१३९-१४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मूर्च्छां परमां गत्वा ध्वजयष्टिं समाश्रितः।
तं विसंज्ञं महाराज शत्रुणा भृशपीडितम् ॥ १४१ ॥
अपोवाह रणात् सूतो रक्षमाणो धनंजयात्।
मूलम्
स मूर्च्छां परमां गत्वा ध्वजयष्टिं समाश्रितः।
तं विसंज्ञं महाराज शत्रुणा भृशपीडितम् ॥ १४१ ॥
अपोवाह रणात् सूतो रक्षमाणो धनंजयात्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस आघातसे भारी मूर्च्छामें पड़कर अश्वत्थामा ध्वजदण्डके सहारे लुढ़क गया। शत्रुसे अत्यन्त पीड़ित एवं अचेत हुए अश्वत्थामाको उसका सारथि अर्जुनसे उसकी रक्षा करता हुआ रणभूमिसे दूर हटा ले गया॥१४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नेव काले च विजयः शत्रुतापनः ॥ १४२ ॥
व्यहनत् तावकं सैन्यं शतशोऽथ सहस्रशः।
पश्यतस्तस्य वीरस्य तव पुत्रस्य भारत ॥ १४३ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नेव काले च विजयः शत्रुतापनः ॥ १४२ ॥
व्यहनत् तावकं सैन्यं शतशोऽथ सहस्रशः।
पश्यतस्तस्य वीरस्य तव पुत्रस्य भारत ॥ १४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इसी समय शत्रुओंको संताप देनेवाले अर्जुनने आपकी सेनाके सैकड़ों और हजारों योद्धाओंको आपके वीर पुत्रके देखते-देखते मार डाला॥१४२-१४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेष क्षयो वृत्तस्तावकानां परैः सह।
क्रूरो विशसनो घोरो राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ १४४ ॥
मूलम्
एवमेष क्षयो वृत्तस्तावकानां परैः सह।
क्रूरो विशसनो घोरो राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ १४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार आपकी कुमन्त्रणाके फलस्वरूप शत्रुओंके साथ आपके योद्धाओंका यह विनाशकारी, भयंकर एवं क्रूरतापूर्ण संग्राम हुआ॥१४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संशप्तकांश्च कौन्तेयः कुरूंश्चापि वृकोदरः।
वसुषेणश्च पञ्चालान् क्षणेन व्यधमद् रणे ॥ १४५ ॥
मूलम्
संशप्तकांश्च कौन्तेयः कुरूंश्चापि वृकोदरः।
वसुषेणश्च पञ्चालान् क्षणेन व्यधमद् रणे ॥ १४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय रणभूमिमें कुन्तीकुमार अर्जुनने संशप्तकोंका, भीमसेनने कौरवोंका और कर्णने पांचाल-सैनिकोंका क्षणभरमें संहार कर डाला॥१४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमाने तथा रौद्रे राजन् वीरवरक्षये।
उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः ॥ १४६ ॥
मूलम्
वर्तमाने तथा रौद्रे राजन् वीरवरक्षये।
उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः ॥ १४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जब बड़े-बड़े वीरोंका विनाश करनेवाला वह भीषण संग्राम हो रहा था, उस समय चारों ओर असंख्य कबन्ध खड़े दिखायी देते थे॥१४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरोऽपि संग्रामे प्रहारैर्गाढवेदनः ।
क्रोशमात्रमपक्रम्य तस्थौ भरतसत्तम ॥ १४७ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरोऽपि संग्रामे प्रहारैर्गाढवेदनः ।
क्रोशमात्रमपक्रम्य तस्थौ भरतसत्तम ॥ १४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! संग्राममें युधिष्ठिरपर बहुत अधिक प्रहार किये गये थे, जिससे उन्हें गहरी वेदना हो रही थी। वे रणभूमिसे एक कोस दूर हटकर खड़े थे॥१४७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि संकुलयुद्धे षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें संकुलयुद्धविषयक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५६॥
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संशप्तकोंके सेनापति त्रिगर्तराज सुशर्मा कौरवोंके पक्षमें था। यह सुशर्मा उससे भिन्न पाण्डव-पक्षका योद्धा था। ↩︎