भागसूचना
त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनद्वारा दस हजार संशप्तक योद्धाओं और उनकी सेनाका संहार
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमाने तथा युद्धे क्षत्रियाणां निमज्जने।
गाण्डीवस्य महाघोषः श्रूयते युधि मारिष ॥ १ ॥
मूलम्
वर्तमाने तथा युद्धे क्षत्रियाणां निमज्जने।
गाण्डीवस्य महाघोषः श्रूयते युधि मारिष ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— आर्य! जब क्षत्रियोंका संहार करनेवाला वह भयानक युद्ध चल रहा था, उसी समय दूसरी ओर बड़े जोर-जोरसे गाण्डीव धनुषकी टंकार सुनायी देती थी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संशप्तकानां कदनमकरोद् यत्र पाण्डवः।
कोसलानां तथा राजन् नारायणबलस्य च ॥ २ ॥
मूलम्
संशप्तकानां कदनमकरोद् यत्र पाण्डवः।
कोसलानां तथा राजन् नारायणबलस्य च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वहाँ पाण्डुनन्दन अर्जुन संशप्तकोंका, कोसलदेशीय योद्धाओंका तथा नारायणी-सेनाका संहार कर रहे थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संशप्तकास्तु समरे शरवृष्टीः समन्ततः।
अपातयन् पार्थमूर्ध्नि जयगृद्धाः प्रमन्यवः ॥ ३ ॥
मूलम्
संशप्तकास्तु समरे शरवृष्टीः समन्ततः।
अपातयन् पार्थमूर्ध्नि जयगृद्धाः प्रमन्यवः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें विजयकी इच्छा रखनेवाले संशप्तकोंने अत्यन्त कुपित होकर अर्जुनके मस्तकपर चारों ओरसे बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता वृष्टीः सहसा राजंस्तरसा धारयन् प्रभुः।
व्यगाहत रणे पार्थो विनिघ्नन् रथिनां वरान् ॥ ४ ॥
मूलम्
ता वृष्टीः सहसा राजंस्तरसा धारयन् प्रभुः।
व्यगाहत रणे पार्थो विनिघ्नन् रथिनां वरान् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस बाण-वर्षाको सहसा वेगपूर्वक सहते और श्रेष्ठ रथियोंका संहार करते हुए शक्तिशाली अर्जुन रणभूमिमें विचरने लगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विगाह्य तद् रथानीकं कङ्कपत्रैः शिलाशितैः।
आससाद ततः पार्थः सुशर्माणं वरायुधम् ॥ ५ ॥
मूलम्
विगाह्य तद् रथानीकं कङ्कपत्रैः शिलाशितैः।
आससाद ततः पार्थः सुशर्माणं वरायुधम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए कंकपत्रयुक्त बाणोंद्वारा प्रहार करते हुए कुन्तीपुत्र अर्जुन रथियोंकी सेनामें घुसकर श्रेष्ठ आयुध धारण करनेवाले सुशर्माके पास जा पहुँचे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्य शरवर्षाणि ववर्ष रथिनां वरः।
तथा संशप्तकाश्चैव पार्थं बाणैः समार्पयन् ॥ ६ ॥
मूलम्
स तस्य शरवर्षाणि ववर्ष रथिनां वरः।
तथा संशप्तकाश्चैव पार्थं बाणैः समार्पयन् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंमें श्रेष्ठ सुशर्मा उनके ऊपर बाणोंकी वर्षा करने लगा तथा अन्य संशप्तकोंने भी अर्जुनको अनेक बाण मारे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुशर्मा तु ततः पार्थं विद्ध्वा दशभिराशुगैः।
जनार्दनं त्रिभिर्बाणैरहनद् दक्षिणे भुजे ॥ ७ ॥
मूलम्
सुशर्मा तु ततः पार्थं विद्ध्वा दशभिराशुगैः।
जनार्दनं त्रिभिर्बाणैरहनद् दक्षिणे भुजे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुशर्माने दस बाणोंसे अर्जुनको घायल करके श्रीकृष्णकी दाहिनी भुजापर तीन बाण मारे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽपरेण भल्लेन केतुं विव्याध मारिष।
स वानरवरो राजन् विश्वकर्मकृतो महान् ॥ ८ ॥
ननाद सुमहानादं भीषयाणो जगर्ज च।
मूलम्
ततोऽपरेण भल्लेन केतुं विव्याध मारिष।
स वानरवरो राजन् विश्वकर्मकृतो महान् ॥ ८ ॥
ननाद सुमहानादं भीषयाणो जगर्ज च।
अनुवाद (हिन्दी)
मान्यवर! तदनन्तर दूसरे भल्लसे उनकी ध्वजाको बींध डाला। राजन्! उस समय विश्वकर्माका बनाया हुआ वह महान् वानर सबको भयभीत करता हुआ बड़े जोर-जोरसे गर्जना करने लगा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपेस्तु निनदं श्रुत्वा संत्रस्ता तव वाहिनी ॥ ९ ॥
भयं विपुलमाधाय निश्चेष्टा समपद्यत।
मूलम्
कपेस्तु निनदं श्रुत्वा संत्रस्ता तव वाहिनी ॥ ९ ॥
भयं विपुलमाधाय निश्चेष्टा समपद्यत।
अनुवाद (हिन्दी)
वानरकी वह गर्जना सुनकर आपकी सेना संत्रस्त हो उठी और मनमें महान् भय लेकर निश्चेष्ट हो गयी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सा शुशुभे सेना निश्चेष्टावस्थिता नृप ॥ १० ॥
नानापुष्पसमाकीर्णं यथा चैत्ररथं वनम्।
मूलम्
ततः सा शुशुभे सेना निश्चेष्टावस्थिता नृप ॥ १० ॥
नानापुष्पसमाकीर्णं यथा चैत्ररथं वनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! फिर वहाँ निश्चेष्ट खड़ी हुई आपकी वह सेना भाँति-भाँतिके पुष्पोंसे भरे हुए चैत्ररथ नामक वनके समान शोभा पाने लगी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां योधास्ते कुरुसत्तम ॥ ११ ॥
अर्जुनं सिषिचुर्बाणैः पर्वतं जलदा इव।
मूलम्
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां योधास्ते कुरुसत्तम ॥ ११ ॥
अर्जुनं सिषिचुर्बाणैः पर्वतं जलदा इव।
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! तदनन्तर होशमें आकर आपके योद्धा अर्जुनपर उसी प्रकार बाणोंकी बौछार करने लगे, जैसे बादल पर्वतपर जलकी वर्षा करते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिवव्रुस्ततः सर्वे पाण्डवस्य महारथम् ॥ १२ ॥
निगृह्य तं प्रचुक्रुशुर्वध्यमानाः शितैः शरैः।
मूलम्
परिवव्रुस्ततः सर्वे पाण्डवस्य महारथम् ॥ १२ ॥
निगृह्य तं प्रचुक्रुशुर्वध्यमानाः शितैः शरैः।
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबने मिलकर पाण्डुपुत्र अर्जुनके उस विशाल रथको घेर लिया। यद्यपि उनपर तीखे बाणोंकी मार पड़ रही थी, तो भी वे उस रथको पकड़कर जोर-जोरसे चिल्लाने लगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते हयान् रथचक्रे च रथेषां चापि मारिष ॥ १३ ॥
निग्रहीतुमुपाक्रामन् क्रोधाविष्टाः समन्ततः ।
मूलम्
ते हयान् रथचक्रे च रथेषां चापि मारिष ॥ १३ ॥
निग्रहीतुमुपाक्रामन् क्रोधाविष्टाः समन्ततः ।
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! क्रोधमें भरे हुए संशप्तकोंने सब ओरसे आक्रमण करके अर्जुनके रथके घोड़ों, दोनों पहियों तथा ईषादण्डको भी पकड़ना आरम्भ किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निगृह्य तं रथं तस्य योधास्ते तु सहस्रशः ॥ १४ ॥
निगृह्य बलवत् सर्वे सिंहनादमथानदन्।
मूलम्
निगृह्य तं रथं तस्य योधास्ते तु सहस्रशः ॥ १४ ॥
निगृह्य बलवत् सर्वे सिंहनादमथानदन्।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे सब हजारों योद्धा रथको जबरदस्ती पकड़कर सिंहनाद करने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरे जगृहुश्चैव केशवस्य महाभुजौ ॥ १५ ॥
पार्थमन्ये महाराज रथस्थं जगृहुर्मुदा।
मूलम्
अपरे जगृहुश्चैव केशवस्य महाभुजौ ॥ १५ ॥
पार्थमन्ये महाराज रथस्थं जगृहुर्मुदा।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कई योद्धाओंने भगवान् श्रीकृष्णकी दोनों विशाल भुजाएँ पकड़ लीं। दूसरोंने रथपर बैठे हुए अर्जुनको भी प्रसन्नतापूर्वक पकड़ लिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केशवस्तु ततो बाहू विधुन्वन् रणमूर्धनि ॥ १६ ॥
पातयामास तान् सर्वान् दुष्टहस्तीव हस्तिपान्।
मूलम्
केशवस्तु ततो बाहू विधुन्वन् रणमूर्धनि ॥ १६ ॥
पातयामास तान् सर्वान् दुष्टहस्तीव हस्तिपान्।
अनुवाद (हिन्दी)
तब जैसे दुष्ट हाथी महावतोंको नीचे गिरा देता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने अपनी दोनों बाँहें झटककर उन सब लोगोंको युद्धके मुहानेपर नीचे गिरा दिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो रणे पार्थः संवृतस्तैर्महारथैः ॥ १७ ॥
निगृहीतं रथं दृष्ट्वा केशवं चाप्यभिद्रुतम्।
मूलम्
ततः क्रुद्धो रणे पार्थः संवृतस्तैर्महारथैः ॥ १७ ॥
निगृहीतं रथं दृष्ट्वा केशवं चाप्यभिद्रुतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन महारथियोंसे घिरे हुए अर्जुन अपने रथको पकड़ा गया और श्रीकृष्णपर भी आक्रमण हुआ देख रणभूमिमें कुपित हो उठे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथारूढांस्तु सुबहून् पदातींश्चाप्यपातयत् ॥ १८ ॥
आसन्नांश्च तथा योधान् शरैरासन्नयोधिभिः।
छादयामास समरे केशवं चेदमब्रवीत् ॥ १९ ॥
मूलम्
रथारूढांस्तु सुबहून् पदातींश्चाप्यपातयत् ॥ १८ ॥
आसन्नांश्च तथा योधान् शरैरासन्नयोधिभिः।
छादयामास समरे केशवं चेदमब्रवीत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने रथपर चढ़े हुए बहुत-से पैदल सैनिकोंको धक्के देकर नीचे गिरा दिया और आस-पास खड़े हुए संशप्तक-योद्धाओंको निकटसे युद्ध करनेमें उपयोगी बाणोंद्वारा ढक दिया एवं समरांगणमें भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा—॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य कृष्ण महाबाहो संशप्तकगणान् बहून्।
कुर्वाणान् दारुणं कर्म वध्यमानान् सहस्रशः ॥ २० ॥
मूलम्
पश्य कृष्ण महाबाहो संशप्तकगणान् बहून्।
कुर्वाणान् दारुणं कर्म वध्यमानान् सहस्रशः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु श्रीकृष्ण! देखिये, ये क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाले बहुसंख्यक संशप्तक योद्धा किस प्रकार सहस्रोंकी संख्यामें मारे जा रहे हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथबन्धमिमं घोरं पृथिव्यां नास्ति कश्चन।
यः सहेत पुमाल्ँलोके मदन्यो यदुपुङ्गव ॥ २१ ॥
मूलम्
रथबन्धमिमं घोरं पृथिव्यां नास्ति कश्चन।
यः सहेत पुमाल्ँलोके मदन्यो यदुपुङ्गव ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदुपुंगव! जगत्में इस भूतलपर मेरे सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो इस भयानक रथबन्ध (रथकी पकड़ अथवा रथोंके घेरे)-का सामना कर सके’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्त्वा बीभत्सुर्देवदत्तमथाधमत् ।
पाञ्चजन्यं च कृष्णोऽपि पूरयन्निव रोदसी ॥ २२ ॥
मूलम्
इत्येवमुक्त्वा बीभत्सुर्देवदत्तमथाधमत् ।
पाञ्चजन्यं च कृष्णोऽपि पूरयन्निव रोदसी ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर अर्जुनने देवदत्त नामक शंख बजाया। फिर भगवान् श्रीकृष्णने भी पृथ्वी और आकाशको गुँजाते हुए-से पांचजन्य नामक शंखकी ध्वनि फैलायी॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु शङ्खस्वनं श्रुत्वा संशप्तकवरूथिनी।
संचचाल महाराज वित्रस्ता चाद्रवद् भृशम् ॥ २३ ॥
मूलम्
तं तु शङ्खस्वनं श्रुत्वा संशप्तकवरूथिनी।
संचचाल महाराज वित्रस्ता चाद्रवद् भृशम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस शंखनादको सुनकर संशप्तकोंकी सेना काँप उठी और भयभीत होकर जोर-जोरसे भागने लगी॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादबन्धं ततश्चक्रे पाण्डवः परवीरहा।
नागमस्त्रं महाराज सम्प्रकीर्य मुहुर्मुहुः ॥ २४ ॥
मूलम्
पादबन्धं ततश्चक्रे पाण्डवः परवीरहा।
नागमस्त्रं महाराज सम्प्रकीर्य मुहुर्मुहुः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तदनन्तर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पाण्डुनन्दन अर्जुनने बारंबार नागास्त्रका प्रयोग करके उन सबके पैर बाँध लिये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते बद्धाः पादबन्धेन पाण्डवेन महात्मना।
निश्चेष्टाश्चाभवन् राजन्नश्मसारमया इव ॥ २५ ॥
मूलम्
ते बद्धाः पादबन्धेन पाण्डवेन महात्मना।
निश्चेष्टाश्चाभवन् राजन्नश्मसारमया इव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन महात्मा पाण्डुपुत्र अर्जुनके द्वारा पैर बाँध दिये जानेके कारण वे संशप्तक योद्धा लोहेके बने हुए पुतलोंके समान निश्चेष्ट हो गये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निश्चेष्टांस्तु ततो योधानवधीत् पाण्डुनन्दनः।
यथेन्द्रः समरे दैत्यांस्तारकस्य वधे पुरा ॥ २६ ॥
मूलम्
निश्चेष्टांस्तु ततो योधानवधीत् पाण्डुनन्दनः।
यथेन्द्रः समरे दैत्यांस्तारकस्य वधे पुरा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर पूर्वकालमें इन्द्रने तारकासुरके वधके समय समरांगणमें जिस प्रकार दैत्योंका वध किया था, उसी प्रकार पाण्डुनन्दन अर्जुनने निश्चेष्ट हुए संशप्तक योद्धाओंका संहार आरम्भ किया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वध्यमानाः समरे मुमुचुस्तं रथोत्तमम्।
आयुधानि च सर्वाणि विस्रष्टुमुपचक्रमुः ॥ २७ ॥
मूलम्
ते वध्यमानाः समरे मुमुचुस्तं रथोत्तमम्।
आयुधानि च सर्वाणि विस्रष्टुमुपचक्रमुः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें बाणोंकी मार पड़नेपर उन्होंने अर्जुनके उस उत्तम रथको छोड़ दिया और उनके ऊपर अपने समस्त अस्त्र-शस्त्रोंको छोड़नेका प्रयास किया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते बद्धाः पादबन्धेन न शेकुश्चेष्टितुं नृप।
ततस्तानवधीत् पार्थः शरैः संनतपर्वभिः ॥ २८ ॥
मूलम्
ते बद्धाः पादबन्धेन न शेकुश्चेष्टितुं नृप।
ततस्तानवधीत् पार्थः शरैः संनतपर्वभिः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उस समय पैर बँधे होनेके कारण वे हिल भी न सके। तब अर्जुन झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा उनका वध करने लगे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वयोधा हि समरे भुजगैर्वेष्टिताभवन्।
यानुद्दिश्य रणे पार्थः पादबन्धं चकार ह ॥ २९ ॥
मूलम्
सर्वयोधा हि समरे भुजगैर्वेष्टिताभवन्।
यानुद्दिश्य रणे पार्थः पादबन्धं चकार ह ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें कुन्तीकुमार अर्जुनने जिन-जिन योद्धाओंको लक्ष्य करके पादबन्धास्त्रका प्रयोग किया, वे समस्त योद्धा समरांगणमें नागोंद्वारा जकड़ लिये गये थे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुशर्मा राजेन्द्र गृहीतां वीक्ष्य वाहिनीम्।
सौपर्णमस्त्रं त्वरितः प्रादुश्चक्रे महारथः ॥ ३० ॥
मूलम्
ततः सुशर्मा राजेन्द्र गृहीतां वीक्ष्य वाहिनीम्।
सौपर्णमस्त्रं त्वरितः प्रादुश्चक्रे महारथः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! महारथी सुशर्माने अपनी सेनाको नागोंद्वारा बँधी हुई देख तुरंत ही गारुडास्त्र प्रकट किया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुपर्णाः सम्पेतुर्भक्षयन्तो भुजङ्गमान्।
ते वै विदुद्रुवुर्नागा दृष्ट्वा तान् खचरान् नृप ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततः सुपर्णाः सम्पेतुर्भक्षयन्तो भुजङ्गमान्।
ते वै विदुद्रुवुर्नागा दृष्ट्वा तान् खचरान् नृप ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो गरुड पक्षी प्रकट होकर उन नागोंपर टूट पड़े और उन्हें खाने लगे। नरेश्वर! उन पक्षियोंको प्रकट हुआ देख वे सारे नाग भाग चले॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बभौ बलं तद्विमुक्तं पादबन्धाद् विशाम्पते।
मेघवृन्दाद् यथा मुक्तो भास्करस्तापयन् प्रजाः ॥ ३२ ॥
मूलम्
बभौ बलं तद्विमुक्तं पादबन्धाद् विशाम्पते।
मेघवृन्दाद् यथा मुक्तो भास्करस्तापयन् प्रजाः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! जैसे सूर्यदेव मेघोंकी घटासे मुक्त होकर सारी प्रजाको ताप देते हुए प्रकाशित हो उठते हैं, उसी प्रकार पैरोंके बन्धनसे छुटकारा पाकर वह सारी सेना बड़ी शोभा पाने लगी॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रमुक्तास्तु ते योधाः फाल्गुनस्य रथं प्रति।
ससृजुर्बाणसंघांश्च शस्त्रसंघांश्च मारिष ॥ ३३ ॥
विविधानि च शस्त्राणि प्रत्यविध्यन्त सर्वशः।
मूलम्
विप्रमुक्तास्तु ते योधाः फाल्गुनस्य रथं प्रति।
ससृजुर्बाणसंघांश्च शस्त्रसंघांश्च मारिष ॥ ३३ ॥
विविधानि च शस्त्राणि प्रत्यविध्यन्त सर्वशः।
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! बन्धनमुक्त होनेपर संशप्तक योद्धा अर्जुनके रथको लक्ष्य करके बाणों तथा शस्त्रसमूहोंकी वर्षा करने लगे तथा उनके नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंको सब ओरसे काटने लगे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां महास्त्रमयीं वृष्टिं संछिद्य शरवृष्टिभिः ॥ ३४ ॥
न्यवधीच्च ततो योधान् वासविः परवीरहा।
मूलम्
तां महास्त्रमयीं वृष्टिं संछिद्य शरवृष्टिभिः ॥ ३४ ॥
न्यवधीच्च ततो योधान् वासविः परवीरहा।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले इन्द्रपुत्र अर्जुनने अपने बाणोंकी वर्षासे उनकी भारी अस्त्र-वृष्टिका निवारण करके उन योद्धाओंका संहार आरम्भ कर दिया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुशर्मा तु ततो राजन् बाणेनानतपर्वणा ॥ ३५ ॥
अर्जुनं हृदये विद्ध्वा विव्याधान्यैस्त्रिभिः शरैः।
मूलम्
सुशर्मा तु ततो राजन् बाणेनानतपर्वणा ॥ ३५ ॥
अर्जुनं हृदये विद्ध्वा विव्याधान्यैस्त्रिभिः शरैः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसी समय सुशर्माने झुकी हुई गाँठवाले बाणसे अर्जुनकी छातीमें चोट पहुँचाकर अन्य तीन बाणोंद्वारा भी उन्हें घायल कर दिया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत् ॥ ३६ ॥
तत उच्चुक्रुशुः सर्वे हतः पार्थ इति स्म ह।
ततः शङ्खनिनादाश्च भेरीशब्दाश्च पुष्कलाः ॥ ३७ ॥
नानावादित्रनिनदाः सिंहनादाश्च जज्ञिरे ।
मूलम्
स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत् ॥ ३६ ॥
तत उच्चुक्रुशुः सर्वे हतः पार्थ इति स्म ह।
ततः शङ्खनिनादाश्च भेरीशब्दाश्च पुष्कलाः ॥ ३७ ॥
नानावादित्रनिनदाः सिंहनादाश्च जज्ञिरे ।
अनुवाद (हिन्दी)
उन बाणोंकी गहरी चोट खाकर अर्जुन व्यथित हो रथके पिछले भागमें बैठ गये। फिर तो सब लोग जोर-जोरसे चिल्लाकर कहने लगे कि ‘अर्जुन मारे गये!’ उस समय शंख बजने लगे, भेरियोंकी गम्भीर ध्वनि फैलने लगी तथा नाना प्रकारके वाद्योंकी ध्वनिके साथ ही योद्धाओंकी सिंहगर्जना भी होने लगी॥३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां श्वेताश्वः कृष्णसारथिः ॥ ३८ ॥
ऐन्द्रमस्त्रममेयात्मा प्रादुश्चक्रे त्वरान्वितः ।
मूलम्
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां श्वेताश्वः कृष्णसारथिः ॥ ३८ ॥
ऐन्द्रमस्त्रममेयात्मा प्रादुश्चक्रे त्वरान्वितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, उन अमेय आत्मबलसे सम्पन्न श्वेतवाहन अर्जुनने होशमें आकर बड़ी उतावलीके साथ ऐन्द्रास्त्रका प्रयोग किया॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो बाणसहस्राणि समुत्पन्नानि मारिष ॥ ३९ ॥
सर्वदिक्षु व्यदृश्यन्त निघ्नन्ति तव वाहिनीम्।
मूलम्
ततो बाणसहस्राणि समुत्पन्नानि मारिष ॥ ३९ ॥
सर्वदिक्षु व्यदृश्यन्त निघ्नन्ति तव वाहिनीम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मान्यवर! उससे सम्पूर्ण दिशाओंमें सहस्रों बाण प्रकट हो-होकर आपकी सेनाका संहार करते दिखायी दिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयान् रथांश्च समरे शस्त्रैः शतसहस्रशः ॥ ४० ॥
वध्यमाने ततः सैन्ये भयं सुमहदाविशत्।
संशप्तकगणानां च गोपालानां च भारत ॥ ४१ ॥
मूलम्
हयान् रथांश्च समरे शस्त्रैः शतसहस्रशः ॥ ४० ॥
वध्यमाने ततः सैन्ये भयं सुमहदाविशत्।
संशप्तकगणानां च गोपालानां च भारत ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें शस्त्रोंद्वारा सैकड़ों और हजारों घोड़े तथा रथ मारे जाने लगे। भारत! इस प्रकार जब सेनाका संहार होने लगा, तब संशप्तकगणों और नारायणी सेनाके ग्वालोंको बड़ा भय हुआ॥४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि तत्र पुमान् कश्चिद् योऽर्जुनं प्रत्यविध्यत।
पश्यतां तत्र वीराणामहन्यत बलं तव ॥ ४२ ॥
मूलम्
न हि तत्र पुमान् कश्चिद् योऽर्जुनं प्रत्यविध्यत।
पश्यतां तत्र वीराणामहन्यत बलं तव ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वहाँ कोई भी ऐसा पुरुष नहीं था, जो अर्जुनपर चोट कर सके। वहाँ सब वीरोंके देखते-देखते आपकी सेनाका वध होने लगा॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्यमानमपश्यंश्च निश्चेष्टं स्म पराक्रमे।
अयुतं तत्र योधानां हत्वा पाण्डुसुतो रणे ॥ ४३ ॥
व्यभ्राजत महाराज विधूमोऽग्निरिव ज्वलन्।
मूलम्
हन्यमानमपश्यंश्च निश्चेष्टं स्म पराक्रमे।
अयुतं तत्र योधानां हत्वा पाण्डुसुतो रणे ॥ ४३ ॥
व्यभ्राजत महाराज विधूमोऽग्निरिव ज्वलन्।
अनुवाद (हिन्दी)
सारी सेना स्वयं निश्चेष्ट हो गयी थी। उससे पराक्रम करते नहीं बनता था और उस अवस्थामें वह मारी जा रही थी। मैंने यह सब अपनी आँखों देखा था। महाराज! पाण्डुपुत्र अर्जुन रणभूमिमें वहाँ दस हजार योद्धाओंका संहार करके धूमरहित अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्दश सहस्राणि यानि शिष्टानि भारत ॥ ४४ ॥
रथानामयुतं चैव त्रिसाहस्राश्च दन्तिनः।
मूलम्
चतुर्दश सहस्राणि यानि शिष्टानि भारत ॥ ४४ ॥
रथानामयुतं चैव त्रिसाहस्राश्च दन्तिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उस समय संशप्तकोंके चौदह हजार पैदल, दस हजार रथ और तीन हजार हाथी शेष रह गये थे॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः संशप्तका भूयः परिवव्रुर्धनंजयम् ॥ ४५ ॥
मर्तव्यमिति निश्चित्य जयं वाप्यनिवर्तनम्।
मूलम्
ततः संशप्तका भूयः परिवव्रुर्धनंजयम् ॥ ४५ ॥
मर्तव्यमिति निश्चित्य जयं वाप्यनिवर्तनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
संशप्तकोंने पुनः यह निश्चय करके कि ‘मर जायँगे अथवा विजय प्राप्त करेंगे, किंतु युद्धसे पीछे नहीं हटेंगे’ अर्जुनको चारों ओरसे घेर लिया॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र युद्धं महच्चासीत् तावकानां विशाम्पते।
शूरेण बलिना सार्धं पाण्डवेन किरीटिना ॥ ४६ ॥
(जित्वा तान् न्यहनत् पार्थः शत्रूञ्शक्र इवासुरान्॥)
मूलम्
तत्र युद्धं महच्चासीत् तावकानां विशाम्पते।
शूरेण बलिना सार्धं पाण्डवेन किरीटिना ॥ ४६ ॥
(जित्वा तान् न्यहनत् पार्थः शत्रूञ्शक्र इवासुरान्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! फिर तो वहाँ किरीटधारी बलवान् शूरवीर पाण्डुपुत्र अर्जुनके साथ आपके सैनिकोंका बड़ा भारी युद्ध हुआ। उसमें कुन्तीपुत्र अर्जुनने उन शत्रुओंको जीतकर उनका उसी प्रकार संहार कर डाला, जैसे देवराज इन्द्रने असुरोंका किया था॥४६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि संकुलयुद्धे त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें संकुलयुद्धविषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५३॥
Misc Detail
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ४६ श्लोक हैं)