०५२

भागसूचना

द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दोनों सेनाओंका घोर युद्ध और कौरव-सेनाका व्यथित होना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियास्ते महाराज परस्परवधैषिणः ।
अन्योन्यं समरे जघ्नुः कृतवैराः परस्परम् ॥ १ ॥

मूलम्

क्षत्रियास्ते महाराज परस्परवधैषिणः ।
अन्योन्यं समरे जघ्नुः कृतवैराः परस्परम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! एक-दूसरेके वधकी इच्छावाले वे क्षत्रिय परस्पर वैरभाव रखकर समरांगणमें एक-दूसरेको मारने लगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथौघाश्च हयौघाश्च नरौघाश्च समन्ततः।
गजौघाश्च महाराज संसक्ताश्च परस्परम् ॥ २ ॥

मूलम्

रथौघाश्च हयौघाश्च नरौघाश्च समन्ततः।
गजौघाश्च महाराज संसक्ताश्च परस्परम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! रथसमूह, अश्वसमूह, हाथियोंके झुंड और पैदल मनुष्योंके समुदाय सब ओर एक-दूसरेसे उलझे हुए थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदानां परिघाणां च कणपानां च क्षिप्यताम्।
प्रासानां भिन्दिपालानां भुशुण्डीनां च सर्वशः ॥ ३ ॥
सम्पातं चानुपश्याम संग्रामे भृशदारुणे।
शलभा इव सम्पेतुः समन्ताच्छरवृष्टयः ॥ ४ ॥

मूलम्

गदानां परिघाणां च कणपानां च क्षिप्यताम्।
प्रासानां भिन्दिपालानां भुशुण्डीनां च सर्वशः ॥ ३ ॥
सम्पातं चानुपश्याम संग्रामे भृशदारुणे।
शलभा इव सम्पेतुः समन्ताच्छरवृष्टयः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अत्यन्त दारुण संग्राममें हमलोग निरन्तर चलाये जानेवाले परिघों, गदाओं, कणपों, प्रासों, भिन्दिपालों और भुशुण्डियोंकी धारा-सी गिरती देख रहे थे। सब ओर टिड्डी-दलोंके समान बाणोंकी वर्षा हो रही थी॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागान् नागाः समासाद्य व्यधमन्त परस्परम्।
हया हयांश्च समरे रथिनो रथिनस्तथा ॥ ५ ॥
पत्तयः पत्तिसंघांश्च हयसंघांश्च पत्तयः।
पत्तयो रथमातङ्गान् रथा हस्त्यश्वमेव च ॥ ६ ॥
नागाश्च समरे त्र्यङ्गं ममृदुः शीघ्रगा नृप।

मूलम्

नागान् नागाः समासाद्य व्यधमन्त परस्परम्।
हया हयांश्च समरे रथिनो रथिनस्तथा ॥ ५ ॥
पत्तयः पत्तिसंघांश्च हयसंघांश्च पत्तयः।
पत्तयो रथमातङ्गान् रथा हस्त्यश्वमेव च ॥ ६ ॥
नागाश्च समरे त्र्यङ्गं ममृदुः शीघ्रगा नृप।

अनुवाद (हिन्दी)

हाथी हाथियोंसे भिड़कर एक-दूसरेको संताप देने लगे। उस समरांगणमें घोड़े घोड़ों, रथी रथियों एवं पैदल पैदलसमूहों, अश्वसमुदायों तथा रथों और हाथियोंका भी मर्दन कर रहे थे। नरेश्वर! इसी प्रकार रथी हाथी और घोड़ोंका तथा शीघ्रगामी हाथी उस युद्धस्थलमें हाथी सेनाके अन्य तीन अंगोंको रौंदने लगे॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वध्यतां तत्र शूराणां क्रोशतां च परस्परम् ॥ ७ ॥
घोरमायोधनं जज्ञे पशूनां वैशसं यथा।

मूलम्

वध्यतां तत्र शूराणां क्रोशतां च परस्परम् ॥ ७ ॥
घोरमायोधनं जज्ञे पशूनां वैशसं यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ मारे जाते और एक-दूसरेको कोसते हुए शूरवीरोंके आर्तनादसे वह युद्धस्थल वैसा ही भयंकर जान पड़ता था, मानो वहाँ पशुओंका वध किया जा रहा हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुधिरेण समास्तीर्णा भाति भारत मेदिनी ॥ ८ ॥
शक्रगोपगणाकीर्णा प्रावृषीव यथा धरा।

मूलम्

रुधिरेण समास्तीर्णा भाति भारत मेदिनी ॥ ८ ॥
शक्रगोपगणाकीर्णा प्रावृषीव यथा धरा।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! खूनसे ढकी हुई यह पृथ्वी वर्षाकालमें वीरबहूटी नामक लाल रंगके कीड़ोंसे व्याप्त हुई भूमिके समान शोभा पाती थी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा वा वाससी शुक्ले महारञ्जनरञ्जिते ॥ ९ ॥
बिभृयाद् युवती श्यामा तद्वदासीद् वसुंधरा।
मांसशोणितचित्रेव शातकुम्भमयीव च ॥ १० ॥

मूलम्

यथा वा वाससी शुक्ले महारञ्जनरञ्जिते ॥ ९ ॥
बिभृयाद् युवती श्यामा तद्वदासीद् वसुंधरा।
मांसशोणितचित्रेव शातकुम्भमयीव च ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा जैसे कोई श्यामवर्णा युवती श्वेत रंगके वस्त्रोंको हल्दीके गाढ़े रंगमें रँगकर पहन ले, वैसी ही वह रणभूमि प्रतीत होती थी। मांस और रक्तसे चित्रित-सी जान पड़नेवाली वह भूमि सुवर्णमयी-सी प्रतीत होती थी॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिन्नानां चोत्तमाङ्गानां बाहूनां चोरुभिः सह।
कुण्डलानां प्रवृद्धानां भूषणानां च भारत ॥ ११ ॥
निष्काणामथ शूराणां शरीराणां च धन्विनाम्।
चर्मणां सपताकानां संघास्तत्रापतन् भुवि ॥ १२ ॥

मूलम्

भिन्नानां चोत्तमाङ्गानां बाहूनां चोरुभिः सह।
कुण्डलानां प्रवृद्धानां भूषणानां च भारत ॥ ११ ॥
निष्काणामथ शूराणां शरीराणां च धन्विनाम्।
चर्मणां सपताकानां संघास्तत्रापतन् भुवि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वहाँ भूतलपर कटे हुए मस्तकों, भुजाओं, जाँघों, बड़े-बड़े कुण्डलों, अन्यान्य आभूषणों, निष्कों, धनुर्धर शूरवीरोंके शरीरों, ढालों और पताकाओंके ढेर-के-ढेर पड़े थे॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजा गजान् समासाद्य विषाणैरार्दयन् नृप।
विषाणाभिहतास्तत्र भ्राजन्ते द्विरदास्तथा ॥ १३ ॥
रुधिरेणावसिक्ताङ्गा गैरिकप्रस्रवा इव ।
यथा भ्राजन्ति स्यन्दन्तः पर्वता धातुमण्डिताः ॥ १४ ॥

मूलम्

गजा गजान् समासाद्य विषाणैरार्दयन् नृप।
विषाणाभिहतास्तत्र भ्राजन्ते द्विरदास्तथा ॥ १३ ॥
रुधिरेणावसिक्ताङ्गा गैरिकप्रस्रवा इव ।
यथा भ्राजन्ति स्यन्दन्तः पर्वता धातुमण्डिताः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! हाथी हाथियोंसे भिड़कर अपने दाँतोंसे परस्पर पीड़ा दे रहे थे। दाँतोंकी चोटसे घायल हो खूनसे भीगे शरीरवाले हाथी गेरूके रंगसे मिले हुए जलका स्रोत बहानेवाले झरनोंसे युक्त धातुमण्डित पर्वतोंके समान शोभा पाते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोमरान् सादिभिर्मुक्तान् प्रतीपानास्थितान् बहून्।
हस्तैर्विचेरुस्ते नागा बभञ्जुश्चापरे तथा ॥ १५ ॥

मूलम्

तोमरान् सादिभिर्मुक्तान् प्रतीपानास्थितान् बहून्।
हस्तैर्विचेरुस्ते नागा बभञ्जुश्चापरे तथा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने ही हाथी घुड़सवारोंके छोड़े हुए तोमरों तथा अनेक विपक्षियोंको भी सूँड़ोंसे पकड़कर रणभूमिमें विचरते थे तथा दूसरे उनको टुकड़े-टुकड़े कर डालते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाराचैश्छिन्नवर्माणो भ्राजन्ति स्म गजोत्तमाः।
हिमागमे यथा राजन् व्यभ्रा इव महीधराः ॥ १६ ॥

मूलम्

नाराचैश्छिन्नवर्माणो भ्राजन्ति स्म गजोत्तमाः।
हिमागमे यथा राजन् व्यभ्रा इव महीधराः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! नाराचोंसे कवच छिन्न-भिन्न होनेके कारण गजराजोंकी वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे हेमन्त-ऋतुमें बिना बादलोंके पर्वत शोभित होते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरैः कनकपुङ्खैश्च चित्रा रेजुर्गजोत्तमाः।
उल्काभिः सम्प्रदीप्ताग्राः पर्वता इव भारत ॥ १७ ॥

मूलम्

शरैः कनकपुङ्खैश्च चित्रा रेजुर्गजोत्तमाः।
उल्काभिः सम्प्रदीप्ताग्राः पर्वता इव भारत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! विचित्र प्रकारसे सजे हुए उत्तम हाथी सुवर्णमय पंखवाले बाणोंके लगनेसे उल्काओंद्वारा उद्दीप्त शिखरोंवाले पर्वतोंके समान शोभा पा रहे थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिदभ्याहता नागैर्नागा नगनिभोपमाः ।
विनेशुः समरे तस्मिन् पक्षवन्त इवाद्रयः ॥ १८ ॥

मूलम्

केचिदभ्याहता नागैर्नागा नगनिभोपमाः ।
विनेशुः समरे तस्मिन् पक्षवन्त इवाद्रयः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस संग्राममें पर्वतोंके समान प्रतीत होनेवाले कितने ही हाथी हाथियोंसे घायल हो पंखधारी शैलसमूहोंके समान नष्ट हो गये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे प्राद्रवन् नागाः शल्यार्ता व्रणपीडिताः।
प्रतिमानैश्च कुम्भैश्च पेतुरुर्व्यां महाहवे ॥ १९ ॥

मूलम्

अपरे प्राद्रवन् नागाः शल्यार्ता व्रणपीडिताः।
प्रतिमानैश्च कुम्भैश्च पेतुरुर्व्यां महाहवे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे बहुत-से हाथी बाणोंसे व्यथित और घावोंसे पीड़ित हो भाग चले और कितने ही उस महासमरमें दोनों दाँतों और कुम्भस्थलोंको धरतीपर टेककर धराशायी हो गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनेदुः सिंहवच्चान्ये नदन्तो भैरवान् रवान्।
बभ्रमुर्बहवो राजंश्चुक्रुशुश्चापरे गजाः ॥ २० ॥

मूलम्

विनेदुः सिंहवच्चान्ये नदन्तो भैरवान् रवान्।
बभ्रमुर्बहवो राजंश्चुक्रुशुश्चापरे गजाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! दूसरे अनेक गजराज भयंकर गर्जना करते हुए सिंहके समान दहाड़ रहे थे और दूसरे बहुतेरे हाथी इधर-उधर चक्कर काटते और चीखते-चिल्लाते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हयाश्च निहता बाणैर्हेमभाण्डविभूषिताः ।
निषेदुश्चैव मम्लुश्च बभ्रमुश्च दिशो दश ॥ २१ ॥

मूलम्

हयाश्च निहता बाणैर्हेमभाण्डविभूषिताः ।
निषेदुश्चैव मम्लुश्च बभ्रमुश्च दिशो दश ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोनेके आभूषणोंसे विभूषित बहुसंख्यक घोड़े बाणोंद्वारा घायल होकर बैठ जाते, मलिन हो जाते और दसों दिशाओंमें भागने लगते थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे कृष्यमाणाश्च विचेष्टन्तो महीतले।
भावान् बहुविधांश्चक्रुस्ताडिताः शरतोमरैः ॥ २२ ॥

मूलम्

अपरे कृष्यमाणाश्च विचेष्टन्तो महीतले।
भावान् बहुविधांश्चक्रुस्ताडिताः शरतोमरैः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाणों और तोमरोंद्वारा ताड़ित होकर कितने ही अश्व धरतीपर लोट जाते और हाथियोंद्वारा खींचे जानेपर छटपटाते हुए नाना प्रकारके भाव व्यक्त करते थे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरास्तु निहता भूमौ कूजन्तस्तत्र मारिष।
दृष्ट्वा च बान्धवानन्ये पितॄनन्ये पितामहान् ॥ २३ ॥

मूलम्

नरास्तु निहता भूमौ कूजन्तस्तत्र मारिष।
दृष्ट्वा च बान्धवानन्ये पितॄनन्ये पितामहान् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! वहाँ घायल होकर पृथ्वीपर पड़े हुए कितने ही मनुष्य अपने बान्धव-जनोंको देखकर कराह उठते थे। कितने ही अपने बाप-दादोंको देखकर कुछ अस्फुट स्वरमें बोलने लगते थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावमानान् परांश्चान्यान्‌ दृष्ट्वान्ये तत्र भारत।
गोत्रनामानि ख्यातानि शशंसुरितरेतरम् ॥ २४ ॥

मूलम्

धावमानान् परांश्चान्यान्‌ दृष्ट्वान्ये तत्र भारत।
गोत्रनामानि ख्यातानि शशंसुरितरेतरम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! दूसरे बहुत-से मनुष्य अन्यान्य लोगोंको दौड़ते देख एक-दूसरेसे अपने प्रसिद्ध नाम और गोत्र बताने लगते थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां छिन्ना महाराज भुजाः कनकभूषणाः।
उद्वेष्टन्ते विचेष्टन्ते पतन्ते चोत्पतन्ति च ॥ २५ ॥
निपतन्ति तथैवान्ये स्फुरन्ति च सहस्रशः।

मूलम्

तेषां छिन्ना महाराज भुजाः कनकभूषणाः।
उद्वेष्टन्ते विचेष्टन्ते पतन्ते चोत्पतन्ति च ॥ २५ ॥
निपतन्ति तथैवान्ये स्फुरन्ति च सहस्रशः।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! मनुष्योंकी कटी हुई सहस्रों सुवर्णभूषित भुजाएँ कभी टेढ़ी होकर किसी शरीरसे लिपट जातीं, कभी छटपटातीं, गिरतीं, ऊपरको उछलतीं, नीचे आ जातीं और तड़पने लगती थीं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेगांश्चान्ये रणे चक्रुः पञ्चास्या इव पन्नगाः ॥ २६ ॥
ते भुजा भोगिभोगाभाश्चन्दनाक्ता विशाम्पते।
लोहितार्द्रा भृशं रेजुस्तपनीयध्वजा इव ॥ २७ ॥

मूलम्

वेगांश्चान्ये रणे चक्रुः पञ्चास्या इव पन्नगाः ॥ २६ ॥
ते भुजा भोगिभोगाभाश्चन्दनाक्ता विशाम्पते।
लोहितार्द्रा भृशं रेजुस्तपनीयध्वजा इव ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! सर्पोंके शरीरोंके समान प्रतीत होनेवाली कितनी ही चन्दनचर्चित भुजाएँ रणभूमिमें पाँच मुँहवाले सर्पोंके समान महान् वेग प्रकट करतीं तथा रक्तरंजित होनेके कारण सुवर्णमयी ध्वजाओंके समान अधिकाधिक शोभा पाती थीं॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्तमाने तथा घोरे संकुले सर्वतोदिशम्।
अविज्ञाताः स्म युध्यन्ते विनिघ्नन्तः परस्परम् ॥ २८ ॥

मूलम्

वर्तमाने तथा घोरे संकुले सर्वतोदिशम्।
अविज्ञाताः स्म युध्यन्ते विनिघ्नन्तः परस्परम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस घोर घमासान युद्धके चालू होनेपर सम्पूर्ण योद्धा एक-दूसरेपर चोट करते हुए बिना जाने-पहचाने ही युद्ध करते थे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भौमेन रजसाऽऽकीर्णे शस्त्रसम्पातसंकुले ।
नैव स्वे न परे राजन् व्यज्ञायन्त तमोवृताः ॥ २९ ॥

मूलम्

भौमेन रजसाऽऽकीर्णे शस्त्रसम्पातसंकुले ।
नैव स्वे न परे राजन् व्यज्ञायन्त तमोवृताः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! शस्त्रोंकी धारावाहिक वृष्टिसे व्याप्त तथा धरतीकी धूलसे आच्छादित हुए उस प्रदेशमें अपने और शत्रुपक्षके सैनिक अन्धकारसे आच्छादित होनेके कारण पहचानमें नहीं आते थे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तदभवद् युद्धं घोररूपं भयानकम्।
लोहितोदा महानद्यः प्रसस्रुस्तत्र चासकृत् ॥ ३० ॥

मूलम्

तथा तदभवद् युद्धं घोररूपं भयानकम्।
लोहितोदा महानद्यः प्रसस्रुस्तत्र चासकृत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह युद्ध ऐसा घोर एवं भयानक हो रहा था कि वहाँ बारंबार खूनकी बड़ी-बड़ी नदियाँ बह चलती थीं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीर्षपाषाणसंछन्नाः केशशैवलशाद्वलाः ।
अस्थिमीनसमाकीर्णा धनुःशरगदोडुपाः ॥ ३१ ॥

मूलम्

शीर्षपाषाणसंछन्नाः केशशैवलशाद्वलाः ।
अस्थिमीनसमाकीर्णा धनुःशरगदोडुपाः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

योद्धाओंके कटे हुए मस्तक शिलाखण्डोंके समान उन नदियोंको आच्छादित किये रहते थे। उनके केश ही सेवार और घासके समान प्रतीत होते थे, हड्डियाँ ही उनमें मछलियोंके समान व्याप्त हो रही थीं, धनुष, बाण और गदाएँ नौकाके समान जान पड़ती थीं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मांसशोणितपङ्किन्यो घोररूपाः सुदारुणाः ।
नदीः प्रवर्तयामासुः शोणितौघविवर्धिनीः ॥ ३२ ॥

मूलम्

मांसशोणितपङ्किन्यो घोररूपाः सुदारुणाः ।
नदीः प्रवर्तयामासुः शोणितौघविवर्धिनीः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके भीतर मांस और रक्तकी ही कीचड़ जमी थी। रक्तके प्रवाहको बढ़ानेवाली उन घोर एवं भयंकर नदियोंको वहाँ योद्धाओंने प्रवाहित किया था॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीरुवित्रासकारिण्यः शूराणां हर्षवर्धनाः ।
ता नद्यो घोररूपास्तु नयन्त्यो यमसादनम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

भीरुवित्रासकारिण्यः शूराणां हर्षवर्धनाः ।
ता नद्यो घोररूपास्तु नयन्त्यो यमसादनम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भयानक रूपवाली नदियाँ कायरोंको डराने और शूरवीरोंका हर्ष बढ़ानेवाली थीं तथा प्राणियोंको यमलोक पहुँचाती थीं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवगाढान् मज्जयन्त्यः क्षत्रस्याजनयन् भयम्।
क्रव्यादानां नरव्याघ्र नर्दतां तत्र तत्र ह ॥ ३४ ॥
घोरमायोधनं जज्ञे प्रेतराजपुरोपमम् ।

मूलम्

अवगाढान् मज्जयन्त्यः क्षत्रस्याजनयन् भयम्।
क्रव्यादानां नरव्याघ्र नर्दतां तत्र तत्र ह ॥ ३४ ॥
घोरमायोधनं जज्ञे प्रेतराजपुरोपमम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो उनमें प्रवेश करते, उन्हें वे डुबो देती थीं और क्षत्रियोंके मनमें भय उत्पन्न करती थीं। नरव्याघ्र! वहाँ गरजते हुए मांसभक्षी जन्तुओंके शब्दसे वह युद्धस्थल प्रेतराजकी नगरीके समान भयानक जान पड़ता था॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः ॥ ३५ ॥
नृत्यन्ति वै भूतगणाः सुतृप्ता मांसशोणितैः।
पीत्वा च शोणितं तत्र वसां पीत्वा च भारत॥३६॥

मूलम्

उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः ॥ ३५ ॥
नृत्यन्ति वै भूतगणाः सुतृप्ता मांसशोणितैः।
पीत्वा च शोणितं तत्र वसां पीत्वा च भारत॥३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ चारों ओर उठे हुए अगणित कबन्ध और रक्त-मांससे तृप्त हुए भूतगण नृत्य कर रहे थे। भारत! ये सब-के-सब रक्त तथा वसा पीकर छके हुए थे॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेदोमज्जावसामत्तास्तृप्ता मांसस्य चैव ह।
धावमानाः स्म दृश्यन्ते काकगृध्रबकास्तथा ॥ ३७ ॥

मूलम्

मेदोमज्जावसामत्तास्तृप्ता मांसस्य चैव ह।
धावमानाः स्म दृश्यन्ते काकगृध्रबकास्तथा ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेदा, वसा, मज्जा और मांससे तृप्त एवं मतवाले कौए, गीध और बक सब ओर उड़ते दिखायी देते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूरास्तु समरे राजन् भयं त्यक्त्वा सुदुस्त्यजम्।
योधव्रतसमाख्याताश्चक्रुः कर्माण्यभीतवत् ॥ ३८ ॥

मूलम्

शूरास्तु समरे राजन् भयं त्यक्त्वा सुदुस्त्यजम्।
योधव्रतसमाख्याताश्चक्रुः कर्माण्यभीतवत् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समरमें योद्धाओंके व्रतका पालन करनेमें विख्यात शूरवीर जिसका त्याग करना अत्यन्त कठिन है, उस भयको छोड़कर निर्भयके समान पराक्रम प्रकट करते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरशक्तिसमाकीर्णे क्रव्यादगणसंकुले ।
व्यचरन्त रणे शूराः ख्यापयन्तः स्वपौरुषम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

शरशक्तिसमाकीर्णे क्रव्यादगणसंकुले ।
व्यचरन्त रणे शूराः ख्यापयन्तः स्वपौरुषम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाण और शक्तियोंसे व्याप्त तथा मांसभक्षी जन्तुओंसे भरे हुए उस रणक्षेत्रमें शूरवीर अपने पुरुषार्थकी ख्याति बढ़ाते हुए विचर रहे थे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यं श्रावयन्ति स्म नामगोत्राणि भारत।
पितृनामानि च रणे गोत्रनामानि वा विभो ॥ ४० ॥
श्रावयाणाश्च बहवस्तत्र योद्धा विशाम्पते।
अन्योन्यमवमृद्‌नन्तः शक्तितोमरपट्टिशैः ॥ ४१ ॥

मूलम्

अन्योन्यं श्रावयन्ति स्म नामगोत्राणि भारत।
पितृनामानि च रणे गोत्रनामानि वा विभो ॥ ४० ॥
श्रावयाणाश्च बहवस्तत्र योद्धा विशाम्पते।
अन्योन्यमवमृद्‌नन्तः शक्तितोमरपट्टिशैः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! प्रभो! रणभूमिमें कितने ही योद्धा एक-दूसरेको अपने और पिताके नाम तथा गोत्र सुनाते थे। प्रजानाथ! नाम और गोत्र सुनाते हुए बहुतेरे योद्धा शक्ति, तोमर और पट्टिशोंद्वारा एक-दूसरेको धूलमें मिला रहे थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्तमाने तथा युद्धे घोररूपे सुदारुणे।
व्यषीदत् कौरवी सेना भिन्ना नौरिव सागरे ॥ ४२ ॥

मूलम्

वर्तमाने तथा युद्धे घोररूपे सुदारुणे।
व्यषीदत् कौरवी सेना भिन्ना नौरिव सागरे ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वह दारुण एवं भयंकर युद्ध चल ही रहा था कि समुद्रमें टूटी हुई नौकाके समान कौरव-सेना छिन्न-भिन्न हो गयी और विषाद करने लगी॥४२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि संकुलयुद्धे द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें संकुलयुद्धविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५२॥