०४९

भागसूचना

एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कर्ण और युधिष्ठिरका संग्राम, कर्णकी मूर्च्छा, कर्णद्वारा युधिष्ठिरकी पराजय और तिरस्कार तथा पाण्डवोंके हजारों योद्धाओंका वध और रक्त-नदीका वर्णन तथा पाण्डव महारथियोंद्वारा कौरव-सेनाका विध्वंस और उसका पलायन

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदार्य कर्णस्तां सेनां युधिष्ठिरमथाद्रवत्।
रथहस्त्यश्वपत्तीनां सहस्रैः परिवारितः ॥ १ ॥

मूलम्

विदार्य कर्णस्तां सेनां युधिष्ठिरमथाद्रवत्।
रथहस्त्यश्वपत्तीनां सहस्रैः परिवारितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! सहस्रों रथ, हाथी, घोड़े और पैदलोंसे घिरे हुए कर्णने उस सेनाको विदीर्ण करके युधिष्ठिरपर धावा किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानायुधसहस्राणि प्रेरितान्यरिभिर्वृषः ।
छित्त्वा बाणशतैरुग्रैस्तानविध्यदसम्भ्रमात् ॥ २ ॥

मूलम्

नानायुधसहस्राणि प्रेरितान्यरिभिर्वृषः ।
छित्त्वा बाणशतैरुग्रैस्तानविध्यदसम्भ्रमात् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्मा कर्णने शत्रुओंके चलाये हुए नाना प्रकारके हजारों अस्त्र-शस्त्रोंको काटकर उन सबको सैकड़ों उग्र बाणोंद्वारा बिना किसी घबराहटके बींध डाला॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निचकर्त शिरांस्येषां बाहूनूरूंश्च सूतजः।
ते हता वसुधां पेतुर्भग्नाश्चान्ये विदुद्रुवुः ॥ ३ ॥

मूलम्

निचकर्त शिरांस्येषां बाहूनूरूंश्च सूतजः।
ते हता वसुधां पेतुर्भग्नाश्चान्ये विदुद्रुवुः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्रने पाण्डव-सैनिकोंके मस्तकों, भुजाओं और जाँघोंको काट डाला। वे मरकर पृथ्वीपर गिर पड़े और दूसरे बहुत-से योद्धा घायल होकर भाग गये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्राविडास्तु निषादास्तु पुनः सात्यकिचोदिताः।
अभ्यद्रवञ्जिघांसन्तः पत्तयः कर्णमाहवे ॥ ४ ॥

मूलम्

द्राविडास्तु निषादास्तु पुनः सात्यकिचोदिताः।
अभ्यद्रवञ्जिघांसन्तः पत्तयः कर्णमाहवे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सात्यकिसे प्रेरित होकर द्रविड और निषाद देशोंके पैदल सैनिक कर्णको युद्धमें मार डालनेकी इच्छासे पुनः उसपर टूट पड़े॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते विबाहुशिरस्त्राणाः प्रहताः कर्णसायकैः।
पेतुः पृथिव्यां युगपच्छिन्नं शालवनं यथा ॥ ५ ॥

मूलम्

ते विबाहुशिरस्त्राणाः प्रहताः कर्णसायकैः।
पेतुः पृथिव्यां युगपच्छिन्नं शालवनं यथा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु कर्णके बाणोंसे घायल होकर बाहु, मस्तक और कवच आदिसे रहित हो वे कटे हुए शालवनके समान एक साथ ही पृथ्वीपर गिर पड़े॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं योधशतान्याजौ सहस्राण्ययुतानि च।
हतानीयुर्महीं देहैर्यशसा पूरयन् दिशः ॥ ६ ॥

मूलम्

एवं योधशतान्याजौ सहस्राण्ययुतानि च।
हतानीयुर्महीं देहैर्यशसा पूरयन् दिशः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार युद्धस्थलमें मारे गये सैकड़ों, हजार और दस हजार योद्धा शरीरसे तो इस पृथ्वीपर गिर पड़े, किंतु अपने यशसे उन्होंने सम्पूर्ण दिशाओंको पूर्ण कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वैकर्तनं कर्णं रणे क्रुद्धमिवान्तकम्।
रुरुधुः पाण्डुपाञ्चाला व्याधिं मन्त्रौषधैरिव ॥ ७ ॥

मूलम्

अथ वैकर्तनं कर्णं रणे क्रुद्धमिवान्तकम्।
रुरुधुः पाण्डुपाञ्चाला व्याधिं मन्त्रौषधैरिव ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रणक्षेत्रमें कुपित हुए यमराजके समान वैकर्तन कर्णको पाण्डवों और पांचालोंने अपने बाणोंद्वारा उसी प्रकार रोक दिया, जैसे चिकित्सक मन्त्रों और औषधोंसे रोगोंकी रोकथाम कर लेते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तान् प्रमृद्याभ्यपतत् पुनरेव युधिष्ठिरम्।
मन्त्रौषधिक्रियातीतो व्याधिरत्युल्बणो यथा ॥ ८ ॥

मूलम्

स तान् प्रमृद्याभ्यपतत् पुनरेव युधिष्ठिरम्।
मन्त्रौषधिक्रियातीतो व्याधिरत्युल्बणो यथा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु मन्त्र और ओषधियोंकी क्रियासे असाध्य भयानक रोगकी भाँति कर्णने उन सबको रौंदकर पुनः युधिष्ठिरपर ही आक्रमण किया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजगृद्धिभी रुद्धः पाण्डुपाञ्चालकेकयैः।
नाशकत् तानतिक्रान्तुं मृत्युर्ब्रह्मविदो यथा ॥ ९ ॥

मूलम्

स राजगृद्धिभी रुद्धः पाण्डुपाञ्चालकेकयैः।
नाशकत् तानतिक्रान्तुं मृत्युर्ब्रह्मविदो यथा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाकी रक्षा चाहनेवाले पाण्डवों, पांचालों और केकयोंने पुनः कर्णको रोक दिया। जैसे मृत्यु ब्रह्मवेत्ताओंको नहीं लाँघ सकती, उसी प्रकार कर्ण उन सबको लाँघकर आगे न बढ़ सका॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरः कर्णमदूरस्थं निवारितम्।
अब्रवीत् परवीरघ्नं क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ १० ॥

मूलम्

ततो युधिष्ठिरः कर्णमदूरस्थं निवारितम्।
अब्रवीत् परवीरघ्नं क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय युधिष्ठिरने क्रोधसे लाल आँखें करके शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले कर्णसे जो पास ही रोक दिया गया था, इस प्रकार कहा—॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्ण कर्ण वृथादृष्टे सूतपुत्र वचः शृणु।
सदा स्पर्धसि संग्रामे फाल्गुनेन तरस्विना ॥ ११ ॥
तथास्मान् बाधसे नित्यं धार्तराष्ट्रमते स्थितः।

मूलम्

कर्ण कर्ण वृथादृष्टे सूतपुत्र वचः शृणु।
सदा स्पर्धसि संग्रामे फाल्गुनेन तरस्विना ॥ ११ ॥
तथास्मान् बाधसे नित्यं धार्तराष्ट्रमते स्थितः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! कर्ण! मिथ्यादर्शी सूतपुत्र! मेरी बात सुनो। तुम संग्राममें वेगशाली वीर अर्जुनके साथ सदा डाह रखते और दुर्योधनके मतमें रहकर सर्वदा हमें बाधा पहुँचाते हो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् बलं यच्च ते वीर्यं प्रद्वेषो यस्तु पाण्डुषु॥१२॥
तत् सर्वं दर्शयस्वाद्य पौरुषं महदास्थितः।
युद्धश्रद्धां च तेऽद्याहं विनेष्यामि महाहवे ॥ १३ ॥

मूलम्

यद् बलं यच्च ते वीर्यं प्रद्वेषो यस्तु पाण्डुषु॥१२॥
तत् सर्वं दर्शयस्वाद्य पौरुषं महदास्थितः।
युद्धश्रद्धां च तेऽद्याहं विनेष्यामि महाहवे ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु आज तुम्हारे पास जितना बल हो, जो पराक्रम हो तथा पाण्डवोंके प्रति तुम्हारे मनमें जो विद्वेष हो, वह सब महान् पुरुषार्थका आश्रय लेकर दिखाओ। आज महासमरमें मैं तुम्हारा युद्धका हौसला मिटा दूँगा’॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा महाराज कर्णं पाण्डुसुतस्तदा।
सुवर्णपुङ्खैर्दशभिर्विव्याधायस्मयैः शरैः ॥ १४ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा महाराज कर्णं पाण्डुसुतस्तदा।
सुवर्णपुङ्खैर्दशभिर्विव्याधायस्मयैः शरैः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ऐसा कहकर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरने लोहेके बने हुए सुवर्णपंखयुक्त दस बाणोंद्वारा कर्णको बींध डाला॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं सूतपुत्रो दशभिः प्रत्यविद्‌ध्यदरिंदमः।
वत्सदन्तैर्महेष्वासः प्रहसन्निव भारत ॥ १५ ॥

मूलम्

तं सूतपुत्रो दशभिः प्रत्यविद्‌ध्यदरिंदमः।
वत्सदन्तैर्महेष्वासः प्रहसन्निव भारत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तब शत्रुओंका दमन करनेवाले महाधनुर्धर सूतपुत्रने हँसते हुए-से वत्सदन्त नामक दस बाणोंद्वारा युधिष्ठिरको घायल कर दिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽवज्ञाय तु निर्विद्धः सूतपुत्रेण मारिष।
प्रजज्वाल ततः क्रोधाद्धविषेव हुताशनः ॥ १६ ॥

मूलम्

सोऽवज्ञाय तु निर्विद्धः सूतपुत्रेण मारिष।
प्रजज्वाल ततः क्रोधाद्धविषेव हुताशनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! सूतपुत्रके द्वारा अवज्ञापूर्वक घायल किये जानेपर फिर राजा युधिष्ठिर घीकी आहुतिसे प्रज्वलित हुई अग्निके समान क्रोधसे जल उठे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्वालामालापरिक्षिप्तो राज्ञो देहो व्यदृश्यत।
युगान्ते दग्धुकामस्य संवर्ताग्नेरिवापरः ॥ १७ ॥

मूलम्

ज्वालामालापरिक्षिप्तो राज्ञो देहो व्यदृश्यत।
युगान्ते दग्धुकामस्य संवर्ताग्नेरिवापरः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्वालामालाओंसे घिरा हुआ युधिष्ठिरका शरीर प्रलयकालमें जगत्‌को दग्ध करनेकी इच्छावाले द्वितीय संवर्तक अग्निके समान दिखायी देता था॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विस्फार्य सुमहच्चापं हेमपरिष्कृतम्।
समाधत्त शितं बाणं गिरीणामपि दारणम् ॥ १८ ॥

मूलम्

ततो विस्फार्य सुमहच्चापं हेमपरिष्कृतम्।
समाधत्त शितं बाणं गिरीणामपि दारणम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन्होंने अपने सुवर्णभूषित विशाल धनुषको फैलाकर उसपर पर्वतोंको भी विदीर्ण कर देनेवाले तीखे बाणका संधान किया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पूर्णायतोत्कृष्टं यमदण्डनिभं शरम्।
मुमोच त्वरितो राजा सूतपुत्रजिघांसया ॥ १९ ॥

मूलम्

ततः पूर्णायतोत्कृष्टं यमदण्डनिभं शरम्।
मुमोच त्वरितो राजा सूतपुत्रजिघांसया ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिरने सूतपुत्रको मार डालनेकी इच्छासे तुरंत ही धनुषको पूर्णरूपसे खींचकर वह यमदण्डके समान बाण उसके ऊपर छोड़ दिया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु वेगवता मुक्तो बाणो वज्राशनिस्वनः।
विवेश सहसा कर्णं सव्ये पार्श्वे महारथम् ॥ २० ॥

मूलम्

स तु वेगवता मुक्तो बाणो वज्राशनिस्वनः।
विवेश सहसा कर्णं सव्ये पार्श्वे महारथम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेगवान् युधिष्ठिरका छोड़ा हुआ वज्र और बिजलीके समान शब्द करनेवाला वह बाण सहसा महारथी कर्णकी बायीं पसलीमें घुस गया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु तेन प्रहारेण पीडितः प्रमुमोह वै।
स्रस्तगात्रो महाबाहुर्धनुरुत्सृज्य स्यन्दने ॥ २१ ॥

मूलम्

स तु तेन प्रहारेण पीडितः प्रमुमोह वै।
स्रस्तगात्रो महाबाहुर्धनुरुत्सृज्य स्यन्दने ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस प्रहारसे पीड़ित हो महाबाहु कर्ण धनुष छोड़कर रथपर ही मूर्च्छित हो गया। उसका सारा शरीर शिथिल हो गया था॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतासुरिव निश्चेताः शल्यस्याभिमुखोऽपतत् ।
राजापि भूयो नाजघ्ने कर्णं पार्थहितेप्सया ॥ २२ ॥

मूलम्

गतासुरिव निश्चेताः शल्यस्याभिमुखोऽपतत् ।
राजापि भूयो नाजघ्ने कर्णं पार्थहितेप्सया ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह शल्यके सामने ही अचेत होकर ऐसे गिर पड़ा, मानो उसके प्राण निकल गये हों। राजा युधिष्ठिरने अर्जुनके हितकी इच्छासे कर्णपर पुनः प्रहार नहीं किया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो हाहाकृतं सर्वं धार्तराष्ट्रबलं महत्।
विवर्णमुखभूयिष्ठं कर्णं दृष्ट्वा तथागतम् ॥ २३ ॥

मूलम्

ततो हाहाकृतं सर्वं धार्तराष्ट्रबलं महत्।
विवर्णमुखभूयिष्ठं कर्णं दृष्ट्वा तथागतम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कर्णको उस अवस्थामें देखकर दुर्योधनकी सारी विशाल सेनामें हाहाकार मच गया और अधिकांश सैनिकोंके मुखका रंग विषादसे फीका पड़ गया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहनादश्च संजज्ञे क्ष्वेलाः किलकिलास्तथा।
पाण्डवानां महाराज दृष्ट्वा राज्ञः पराक्रमम् ॥ २४ ॥

मूलम्

सिंहनादश्च संजज्ञे क्ष्वेलाः किलकिलास्तथा।
पाण्डवानां महाराज दृष्ट्वा राज्ञः पराक्रमम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! राजाका वह पराक्रम देखकर पाण्डव-सैनिकोंमें सिंहनाद, आनन्द, कलरव और किलकिल शब्द होने लगा॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलभ्य तु राधेयः संज्ञां नातिचिरादिव।
दध्रे राजविनाशाय मनः क्रूरपराक्रमः ॥ २५ ॥

मूलम्

प्रतिलभ्य तु राधेयः संज्ञां नातिचिरादिव।
दध्रे राजविनाशाय मनः क्रूरपराक्रमः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब क्रूर पराक्रमी राधापुत्र कर्णने थोड़ी ही देरमें होशमें आकर राजा युधिष्ठिरको मार डालनेका विचार किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हेमविकृतं चापं विस्फार्य विजयं महत्।
अवाकिरदमेयात्मा पाण्डवं निशितैः शरैः ॥ २६ ॥

मूलम्

स हेमविकृतं चापं विस्फार्य विजयं महत्।
अवाकिरदमेयात्मा पाण्डवं निशितैः शरैः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अमेय आत्मबलसे सम्पन्न वीरने विजय नामक अपने विशाल सुवर्णजटित धनुषको खींचकर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको पैने बाणोंसे ढक दिया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्षुराभ्यां पाञ्चाल्यौ चक्ररक्षौ महात्मनः।
जघान चन्द्रदेवं च दण्डधारं च संयुगे ॥ २७ ॥

मूलम्

ततः क्षुराभ्यां पाञ्चाल्यौ चक्ररक्षौ महात्मनः।
जघान चन्द्रदेवं च दण्डधारं च संयुगे ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् दो क्षुरोंसे महात्मा युधिष्ठिरके चक्ररक्षक दो पांचाल वीर चन्द्रदेव और दण्डधारको युद्धस्थलमें मार डाला॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ धर्मराजस्य प्रवीरौ परिपार्श्वतः।
रथाभ्याशे चकाशेते चन्द्रस्येव पुनर्वसू ॥ २८ ॥

मूलम्

तावुभौ धर्मराजस्य प्रवीरौ परिपार्श्वतः।
रथाभ्याशे चकाशेते चन्द्रस्येव पुनर्वसू ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराजके रथके समीप पार्श्वभागमें वे दोनों प्रमुख पांचाल वीर चन्द्रमाके पास रहनेवाले दो पुनर्वसु नामक नक्षत्रोंके समान प्रकाशित हो रहे थे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरः पुनः कर्णमविद्‌ध्यत् त्रिंशता शरैः।
सुषेणं सत्यसेनं च त्रिभिस्त्रिभिरताडयत् ॥ २९ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरः पुनः कर्णमविद्‌ध्यत् त्रिंशता शरैः।
सुषेणं सत्यसेनं च त्रिभिस्त्रिभिरताडयत् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पुनः तीस बाणोंसे कर्णको बींध डाला तथा सुषेण और सत्यसेनको भी तीन-तीन बाणोंसे घायल कर दिया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शल्यं नवत्या विव्याध त्रिसप्तत्या च सूतजम्।
तांस्तस्य गोप्तॄन् विव्याध त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः ॥ ३० ॥

मूलम्

शल्यं नवत्या विव्याध त्रिसप्तत्या च सूतजम्।
तांस्तस्य गोप्तॄन् विव्याध त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने शल्यको नब्बे और सूतपुत्र कर्णको तिहत्तर बाण मारे। साथ ही उनके रक्षकोंको सीधे जानेवाले तीन-तीन बाणोंसे बेध दिया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहस्याधिरथिर्विधुन्वानः स कार्मुकम्।
भित्त्वा भल्लेन राजानं विद्‌ध्वा षष्ट्‌यानदत्तदा ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततः प्रहस्याधिरथिर्विधुन्वानः स कार्मुकम्।
भित्त्वा भल्लेन राजानं विद्‌ध्वा षष्ट्‌यानदत्तदा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अधिरथपुत्र कर्णने अपने धनुषको हिलाते हुए हँसकर एक भल्लद्वारा राजा युधिष्ठिरके धनुषको काट दिया और उन्हें भी साठ बाणोंसे घायल करके सिंहके समान गर्जना की॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रवीराः पाण्डूनामभ्यधावन्नमर्षिताः ।
युधिष्ठिरं परीप्सन्तः कर्णमभ्यर्दयञ्छरैः ॥ ३२ ॥

मूलम्

ततः प्रवीराः पाण्डूनामभ्यधावन्नमर्षिताः ।
युधिष्ठिरं परीप्सन्तः कर्णमभ्यर्दयञ्छरैः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अमर्षमें भरे हुए प्रमुख पाण्डव वीर युधिष्ठिरकी रक्षाके लिये दौड़े आये और कर्णको अपने बाणोंसे पीड़ित करने लगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकिश्चेकितानश्च युयुत्सुः पाण्ड्‌य एव च।
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपदेयाः प्रभद्रकाः ॥ ३३ ॥
यमौ च भीमसेनश्च शिशुपालस्य चात्मजः।
कारूषा मत्स्यशेषाश्च केकयाः काशिकोसलाः ॥ ३४ ॥
एते च त्वरिता वीरा वसुषेणमताडयन्।

मूलम्

सात्यकिश्चेकितानश्च युयुत्सुः पाण्ड्‌य एव च।
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपदेयाः प्रभद्रकाः ॥ ३३ ॥
यमौ च भीमसेनश्च शिशुपालस्य चात्मजः।
कारूषा मत्स्यशेषाश्च केकयाः काशिकोसलाः ॥ ३४ ॥
एते च त्वरिता वीरा वसुषेणमताडयन्।

अनुवाद (हिन्दी)

सात्यकि, चेकितान, युयुत्सु, पाण्ड्‌य, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदीके पाँचों पुत्र, प्रभद्रकगण, नकुल-सहदेव, भीमसेन और शिशुपालपुत्र एवं करूष, मत्स्य, केकय, काशि और कोसल-देशोंके योद्धा—ये सभी वीर सैनिक तुरंत ही वसुषेण (कर्ण)-को घायल करने लगे॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमेजयश्च पाञ्चाल्यः कर्णं विव्याध सायकैः ॥ ३५ ॥
वाराहकर्णनाराचैर्नालीकैर्निशितैः शरैः ।
वत्सदन्तैर्विपाठैश्च क्षुरप्रैश्चटकामुखैः ॥ ३६ ॥
नानाप्रहरणैश्चोग्रै रथहस्त्यश्वसादिभिः ।
सर्वतोऽभ्यद्रवत् कर्णं परिवार्य जिघांसया ॥ ३७ ॥

मूलम्

जनमेजयश्च पाञ्चाल्यः कर्णं विव्याध सायकैः ॥ ३५ ॥
वाराहकर्णनाराचैर्नालीकैर्निशितैः शरैः ।
वत्सदन्तैर्विपाठैश्च क्षुरप्रैश्चटकामुखैः ॥ ३६ ॥
नानाप्रहरणैश्चोग्रै रथहस्त्यश्वसादिभिः ।
सर्वतोऽभ्यद्रवत् कर्णं परिवार्य जिघांसया ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पांचालवीर जनमेजयने रथ, हाथी और घुड़सवारोंकी सेना साथ लेकर सब ओरसे कर्णपर धावा किया और उसे मार डालनेकी इच्छासे घेरकर बाण, वाराहकर्ण, नाराच, नालीक, पैने बाण, वत्सदन्त, विपाठ, क्षुरप्र, चटकामुख तथा नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा चोट पहुँचाना आरम्भ किया॥३५—३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पाण्डवानां प्रवरैः सर्वतः समभिद्रुतः।
उदीरयन् ब्राह्ममस्त्रं शरैरापूरयद् दिशः ॥ ३८ ॥

मूलम्

स पाण्डवानां प्रवरैः सर्वतः समभिद्रुतः।
उदीरयन् ब्राह्ममस्त्रं शरैरापूरयद् दिशः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवपक्षके प्रमुख वीरोंद्वारा सब ओरसे आक्रान्त होनेपर कर्णने ब्रह्मास्त्र प्रकट करके बाणोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित कर दिया॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ततः पुनरमेयात्मा चेदीनां प्रवरान् दश।
न्यहनद् भरतश्रेष्ठ कर्णो वैकर्तनस्तदा॥

मूलम्

(ततः पुनरमेयात्मा चेदीनां प्रवरान् दश।
न्यहनद् भरतश्रेष्ठ कर्णो वैकर्तनस्तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर अप्रमेय आत्मबलसे सम्पन्न वैकर्तन कर्णने चेदिदेशके दस प्रधान वीरोंको पुनः मार डाला।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य बाणसहस्राणि सम्प्रपन्नानि मारिष।
दृश्यन्ते दिक्षु सर्वासु शलभानामिव व्रजाः॥

मूलम्

तस्य बाणसहस्राणि सम्प्रपन्नानि मारिष।
दृश्यन्ते दिक्षु सर्वासु शलभानामिव व्रजाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! कर्णके गिरते हुए सहस्रों बाण सम्पूर्ण दिशाओंमें टिड्डीदलोंके समान दिखायी देते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णनामाङ्किता बाणाः स्वर्णपुङ्खाः सुतेजनाः।
नराश्वकायान् निर्भिद्य पेतुरुर्व्यां समन्ततः॥

मूलम्

कर्णनामाङ्किता बाणाः स्वर्णपुङ्खाः सुतेजनाः।
नराश्वकायान् निर्भिद्य पेतुरुर्व्यां समन्ततः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके नामसे अंकित सुवर्णमय पंखवाले तेज बाण मनुष्यों और घोड़ोंके शरीरोंको विदीर्ण करके सब ओरसे पृथ्वीपर गिरने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णेनैकेन समरे चेदीनां प्रवरा रथाः।
सृंजयानां च सर्वेषां शतशो निहता रणे॥

मूलम्

कर्णेनैकेन समरे चेदीनां प्रवरा रथाः।
सृंजयानां च सर्वेषां शतशो निहता रणे॥

अनुवाद (हिन्दी)

समरांगणमें अकेले कर्णने चेदिदेशके प्रधान रथियोंका तथा सम्पूर्ण सृंजयोंके सैकड़ों योद्धाओंका भी संहार कर डाला।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्य शरसंछन्नं बभूव विपुलं तमः।
नाज्ञायत ततः किञ्चित् परेषामात्मनोऽपि वा॥

मूलम्

कर्णस्य शरसंछन्नं बभूव विपुलं तमः।
नाज्ञायत ततः किञ्चित् परेषामात्मनोऽपि वा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके बाणोंसे सारी दिशाएँ ढक जानेके कारण वहाँ महान् अन्धकार छा गया। उस समय शत्रुपक्षकी तथा अपने पक्षकी भी कोई वस्तु पहचानी नहीं जाती थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्तमसि भूते च क्षत्रियाणां भयंकरे।
विचचार महाबाहुर्निर्दहन् क्षत्रियान् बहून्॥)

मूलम्

तस्मिंस्तमसि भूते च क्षत्रियाणां भयंकरे।
विचचार महाबाहुर्निर्दहन् क्षत्रियान् बहून्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंके लिये भयदायक उस घोर अन्धकारमें महाबाहु कर्ण बहुसंख्यक राजपूतोंको दग्ध करता हुआ विचरने लगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरमहाज्वालो वीर्योष्मा कर्णपावकः।
निर्दहन् पाण्डववनं वीरः पर्यचरद् रणे ॥ ३९ ॥

मूलम्

ततः शरमहाज्वालो वीर्योष्मा कर्णपावकः।
निर्दहन् पाण्डववनं वीरः पर्यचरद् रणे ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वीर कर्ण अग्निके समान हो रहा था। बाण ही उसकी ऊँचेतक उठती हुई ज्वालाओंके समान थे, पराक्रम ही उसका ताप था और वह पाण्डवरूपी वनको दग्ध करता हुआ रणभूमिमें विचर रहा था॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ततस्तेषां महाराज पाण्डवानां महारथाः।
सृञ्जयानां च सर्वेषां शतशोऽथ सहस्रशः॥
अस्त्रैः कर्णं महेष्वासं समन्तात् पर्यवारयन्।)

मूलम्

(ततस्तेषां महाराज पाण्डवानां महारथाः।
सृञ्जयानां च सर्वेषां शतशोऽथ सहस्रशः॥
अस्त्रैः कर्णं महेष्वासं समन्तात् पर्यवारयन्।)

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब सम्पूर्ण सृंजयों और पाण्डवोंके सैकड़ों-हजारों महारथियोंने महाधनुर्धर कर्णपर बाणोंकी वर्षा करते हुए उसे चारों ओरसे घेर लिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स संधाय महास्त्राणि महेष्वासा महामनाः।
प्रहस्य पुरुषेन्द्रस्य शरैश्चिच्छेद कार्मुकम् ॥ ४० ॥

मूलम्

स संधाय महास्त्राणि महेष्वासा महामनाः।
प्रहस्य पुरुषेन्द्रस्य शरैश्चिच्छेद कार्मुकम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाधनुर्धर महामना कर्णने हँसकर महान् अस्त्रोंका संधान किया और अपने बाणोंसे महाराज युधिष्ठिरका धनुष काट दिया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संधाय नवतिं निमेषान्नतपर्वणाम्।
बिभेद कवचं राज्ञो रणे कर्णः शितैः शरैः ॥ ४१ ॥

मूलम्

ततः संधाय नवतिं निमेषान्नतपर्वणाम्।
बिभेद कवचं राज्ञो रणे कर्णः शितैः शरैः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् पलक मारते-मारते झुकी हुई गाँठवाले नब्बे बाणोंका संधान करके कर्णने उन पैने बाणोंद्वारा रणभूमिमें राजा युधिष्ठिरके कवचको छिन्न-भिन्न कर डाला॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वर्म हेमविकृतं रत्नचित्रं बभौ पतत्।
सविद्युदभ्रं सवितुः श्लिष्टं वातहतं यथा ॥ ४२ ॥

मूलम्

तद् वर्म हेमविकृतं रत्नचित्रं बभौ पतत्।
सविद्युदभ्रं सवितुः श्लिष्टं वातहतं यथा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका वह सुवर्णभूषित रत्नजटित कवच गिरते समय ऐसी शोभा पा रहा था, मानो सूर्यसे सटा हुआ बिजलीसहित बादल वायुका आघात पाकर नीचे गिर रहा हो॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदङ्गात् पुरुषेन्द्रस्य भ्रष्टं वर्म व्यरोचत।
रत्नैरलंकृतं चित्रैर्व्यभ्रं निशि यथा नभः ॥ ४३ ॥
छिन्नवर्मा शरैः पार्थो रुधिरेण समुक्षितः।

मूलम्

तदङ्गात् पुरुषेन्द्रस्य भ्रष्टं वर्म व्यरोचत।
रत्नैरलंकृतं चित्रैर्व्यभ्रं निशि यथा नभः ॥ ४३ ॥
छिन्नवर्मा शरैः पार्थो रुधिरेण समुक्षितः।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे रात्रिमें बिना बादलका आकाश नक्षत्रमण्डलसे विचित्र शोभा धारण करता है, उसी प्रकार नरेन्द्र युधिष्ठिरके शरीरसे गिरा हुआ वह कवच विभिन्न रत्नोंसे अलंकृत होनेके कारण अद्भुत शोभा पा रहा था। बाणोंसे कवच कट जानेपर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर रक्तसे भीग गये॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(बभासे पुरुषश्रेष्ठ उद्यन्निव दिवाकरः।
स शराचितसर्वाङ्गश्छिन्नवर्माथ संयुगे ॥
क्षत्रधर्मं समास्थाय सिंहनादमकुर्वत ।)

मूलम्

(बभासे पुरुषश्रेष्ठ उद्यन्निव दिवाकरः।
स शराचितसर्वाङ्गश्छिन्नवर्माथ संयुगे ॥
क्षत्रधर्मं समास्थाय सिंहनादमकुर्वत ।)

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय युद्धस्थलमें पुरुषश्रेष्ठ युधिष्ठिर उगते हुए सूर्यके समान लाल दिखायी देते थे। उनके सारे अंगोंमें बाण धँसे हुए थे और कवच छिन्न-भिन्न हो गया था, तो भी वे क्षत्रिय-धर्मका आश्रय लेकर वहाँ सिंहके समान दहाड़ रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वायसीं शक्तिं चिक्षेपाधिरथिं प्रति ॥ ४४ ॥
तां ज्वलन्तीमिवाकाशे शरैश्चिच्छेद सप्तभिः।
सा छिन्ना भूमिमगमन्महेष्वासस्य सायकैः ॥ ४५ ॥

मूलम्

ततः सर्वायसीं शक्तिं चिक्षेपाधिरथिं प्रति ॥ ४४ ॥
तां ज्वलन्तीमिवाकाशे शरैश्चिच्छेद सप्तभिः।
सा छिन्ना भूमिमगमन्महेष्वासस्य सायकैः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अधिरथपुत्र कर्णपर सम्पूर्णतः लोहेकी बनी हुई शक्ति चलायी, परंतु उसने सात बाणोंद्वारा उस प्रज्वलित शक्तिको आकाशमें ही काट डाला। महाधनुर्धर कर्णके सायकोंसे कटी हुई वह शक्ति पृथ्वीपर गिर पड़ी॥४४-४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो बाह्वोर्ललाटे च हृदि चैव युधिष्ठिरः।
चतुर्भिस्तोमरैः कर्णं ताडयित्वानदन्मुदा ॥ ४६ ॥

मूलम्

ततो बाह्वोर्ललाटे च हृदि चैव युधिष्ठिरः।
चतुर्भिस्तोमरैः कर्णं ताडयित्वानदन्मुदा ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् युधिष्ठिरने कर्णकी दोनों भुजाओं, ललाट और छातीमें चार तोमरोंका प्रहार करके सानन्द सिंहनाद किया॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्भिन्नरुधिरः कर्णः क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्।
ध्वजं चिच्छेद भल्लेन त्रिभिर्विव्याध पाण्डवम् ॥ ४७ ॥
इषुधी चास्य चिच्छेद रथं च तिलशोऽच्छिनत्।

मूलम्

उद्भिन्नरुधिरः कर्णः क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्।
ध्वजं चिच्छेद भल्लेन त्रिभिर्विव्याध पाण्डवम् ॥ ४७ ॥
इषुधी चास्य चिच्छेद रथं च तिलशोऽच्छिनत्।

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके शरीरसे रक्त बहने लगा। फिर तो क्रोधमें भरे हुए सर्पके समान फुफकारते हुए कर्णने एक भल्लसे युधिष्ठिरकी ध्वजा काट डाली और तीन बाणोंसे उन पाण्डुपुत्रको भी घायल कर दिया। उनके दोनों तरकस काट दिये और रथके भी तिल-तिल करके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(एतस्मिन्नन्तरे शूराः पाण्डवानां महारथाः।
ववृषुः शरवर्षाणि राधेयं प्रति भारत॥

मूलम्

(एतस्मिन्नन्तरे शूराः पाण्डवानां महारथाः।
ववृषुः शरवर्षाणि राधेयं प्रति भारत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इसी बीचमें शूरवीर पाण्डव महारथी राधापुत्र कर्णपर बाणोंकी वर्षा करने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकिः पञ्चविंशत्या शिखण्डी नवभिः शरैः।
अवर्षतां महाराज राधेयं शत्रुकर्शनम्॥

मूलम्

सात्यकिः पञ्चविंशत्या शिखण्डी नवभिः शरैः।
अवर्षतां महाराज राधेयं शत्रुकर्शनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! सात्यकिने शत्रुसूदन राधापुत्रपर पचीस और शिखण्डीने नौ बाणोंकी वर्षा की।

विश्वास-प्रस्तुतिः

शैनेयं तु ततः क्रुद्धः कर्णः पञ्चभिरायसैः।
विव्याध समरे राजंस्त्रिभिश्चान्यैः शिलीमुखैः॥

मूलम्

शैनेयं तु ततः क्रुद्धः कर्णः पञ्चभिरायसैः।
विव्याध समरे राजंस्त्रिभिश्चान्यैः शिलीमुखैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब क्रोधमें भरे हुए कर्णने समरांगणमें सात्यकिको पहले लोहेके बने हुए पाँच बाणोंसे घायल करके फिर दूसरे तीन बाणोंद्वारा उन्हें बींध डाला।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणं तु भुजं तस्य त्रिभिः कर्णोऽप्यविध्यत।
सव्यं षोडशभिर्बाणैर्यन्तारं चास्य सप्तभिः॥

मूलम्

दक्षिणं तु भुजं तस्य त्रिभिः कर्णोऽप्यविध्यत।
सव्यं षोडशभिर्बाणैर्यन्तारं चास्य सप्तभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद कर्णने सात्यकिकी दाहिनी भुजाको तीन, बायीं भुजाको सोलह और सारथिको सात बाणोंसे क्षत-विक्षत कर दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथास्य चतुरो वाहांश्चतुर्भिर्निशितैः शरैः।
सूतपुत्रोऽनयत् क्षिप्रं यमस्य सदनं प्रति॥

मूलम्

अथास्य चतुरो वाहांश्चतुर्भिर्निशितैः शरैः।
सूतपुत्रोऽनयत् क्षिप्रं यमस्य सदनं प्रति॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर चार पैने बाणोंसे सूतपुत्रने सात्यकिके चारों घोड़ोंको भी तुरंत ही यमलोक पहुँचा दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरेणाथ भल्लेन धनुश्छित्त्वा महारथः।
सारथेः सशिरस्त्राणं शिरः कायादपाहरत्॥

मूलम्

अपरेणाथ भल्लेन धनुश्छित्त्वा महारथः।
सारथेः सशिरस्त्राणं शिरः कायादपाहरत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर दूसरे भल्लसे महारथी कर्णने उनका धनुष काटकर उनके सारथिके शिरस्त्राणसहित मस्तकको शरीरसे अलग कर दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हताश्वसूते तु रथे स्थितः स शिनिपुङ्गवः।
शक्तिं चिक्षेप कर्णाय वैडूर्यमणिभूषिताम्॥

मूलम्

हताश्वसूते तु रथे स्थितः स शिनिपुङ्गवः।
शक्तिं चिक्षेप कर्णाय वैडूर्यमणिभूषिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके घोड़े और सारथि मारे गये थे, उसी रथपर खड़े हुए शिनिप्रवर सात्यकिने कर्णके ऊपर वैदूर्यमणिसे विभूषित शक्ति चलायी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं सहसा द्विधा चिच्छेद भारत।
कर्णो वै धन्विनां श्रेष्ठस्तांश्च सर्वानवारयत्॥
ततस्तान् निशितैर्बाणैः पाण्डवानां महारथान्।
न्यवारयदमेयात्मा शिक्षया च बलेन च॥

मूलम्

तामापतन्तीं सहसा द्विधा चिच्छेद भारत।
कर्णो वै धन्विनां श्रेष्ठस्तांश्च सर्वानवारयत्॥
ततस्तान् निशितैर्बाणैः पाण्डवानां महारथान्।
न्यवारयदमेयात्मा शिक्षया च बलेन च॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ कर्णने अपने ऊपर आती हुई उस शक्तिके सहसा दो टुकड़े कर डाले और उन सब महारथियोंको आगे बढ़नेसे रोक दिया, फिर अमेय आत्मबलसे सम्पन्न कर्णने अपनी शिक्षा और बलके प्रभावसे तीखे बाणोंद्वारा उन सभी पाण्डव-महारथियोंकी गति अवरुद्ध कर दी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्दयित्वा शरैस्तांस्तु सिंहः क्षुद्रमृगानिव।
पीडयन् धर्मराजानं शरैः संनतपर्वभिः॥
अभ्यद्रवत राधेयो धर्मपुत्रं शितैः शरैः।)

मूलम्

अर्दयित्वा शरैस्तांस्तु सिंहः क्षुद्रमृगानिव।
पीडयन् धर्मराजानं शरैः संनतपर्वभिः॥
अभ्यद्रवत राधेयो धर्मपुत्रं शितैः शरैः।)

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सिंह छोटे मृगोंको पीड़ा देता है, उसी प्रकार राधापुत्र कर्णने उन महारथियोंको बाणोंसे पीड़ित करके झुकी हुई गाँठवाले तीखे बाणोंसे चोट पहुँचाते हुए वहाँ धर्मराज धर्मपुत्र युधिष्ठिरपर पुनः आक्रमण किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालवालास्तु ये पार्थं दन्तवर्णावहन् हयाः ॥ ४८ ॥
तैर्युक्तं रथमास्थाय प्रायाद् राजा पराङ्‌मुखः।

मूलम्

कालवालास्तु ये पार्थं दन्तवर्णावहन् हयाः ॥ ४८ ॥
तैर्युक्तं रथमास्थाय प्रायाद् राजा पराङ्‌मुखः।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय दाँतोंके समान सफेद रंग और काली पूँछवाले जो घोड़े युधिष्ठिरकी सवारीमें थे, उन्हींसे जुते हुए दूसरे रथपर बैठकर राजा युधिष्ठिर रणभूमिसे विमुख हो शिविरकी ओर चल दिये॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पार्थोऽभ्यपायात् स निहतः पार्ष्णिसारथिः ॥ ४९ ॥
अशक्नुवन् प्रमुखतः स्थातुं कर्णस्य दुर्मनाः।

मूलम्

एवं पार्थोऽभ्यपायात् स निहतः पार्ष्णिसारथिः ॥ ४९ ॥
अशक्नुवन् प्रमुखतः स्थातुं कर्णस्य दुर्मनाः।

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरका पृष्ठरक्षक पहले ही मार दिया गया था। उनका मन बहुत दुःखी था, इसलिये वे कर्णके सामने ठहर न सके और युद्धस्थलसे हट गये॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिद्रुत्य तु राधेयः पाण्डुपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ५० ॥
वज्रच्छत्रांकुशैर्मत्स्यैर्ध्वजकूर्माम्बुजादिभिः ।
लक्षणैरुपपन्नेन पाण्डुना पाण्डुनन्दनम् ॥ ५१ ॥
पवित्रीकर्तुमात्मानं स्कन्धे संस्पृश्य पाणिना।
ग्रहीतुमिच्छन् स बलात् कुन्तीवाक्यं च सोऽस्मरत् ॥ ५२ ॥

मूलम्

अभिद्रुत्य तु राधेयः पाण्डुपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ५० ॥
वज्रच्छत्रांकुशैर्मत्स्यैर्ध्वजकूर्माम्बुजादिभिः ।
लक्षणैरुपपन्नेन पाण्डुना पाण्डुनन्दनम् ॥ ५१ ॥
पवित्रीकर्तुमात्मानं स्कन्धे संस्पृश्य पाणिना।
ग्रहीतुमिच्छन् स बलात् कुन्तीवाक्यं च सोऽस्मरत् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय राधापुत्र कर्ण पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरका पीछा करके वज्र, छत्र, अंकुश, मत्स्य, ध्वज, कूर्म और कमल आदि शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न गोरे हाथसे उनका कंधा छूकर, मानो अपने-आपको पवित्र करनेके लिये उन्हें बलपूर्वक पकड़नेकी इच्छा करने लगा। उसी समय उसे कुन्तीदेवीको दिये हुए अपने वचनका स्मरण हो आया॥५०—५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं शल्यः प्राह मा कर्ण गृहीथाः पार्थिवोत्तमम्।
गृहीतमात्रो हत्वा त्वां मा करिष्यति भस्मसात् ॥ ५३ ॥

मूलम्

तं शल्यः प्राह मा कर्ण गृहीथाः पार्थिवोत्तमम्।
गृहीतमात्रो हत्वा त्वां मा करिष्यति भस्मसात् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय राजा शल्यने कहा—‘कर्ण! इन नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरको हाथ न लगाना, अन्यथा वे पकड़ते ही तुम्हारा वध करके अपनी क्रोधाग्निसे तुम्हें भस्म कर डालेंगे’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रवीत् प्रहसन् राजन् कुत्सयन्निव पाण्डवम्।
कथं नाम कुले जातः क्षत्रधर्मे व्यवस्थितः ॥ ५४ ॥
प्रजह्यात् समरं भीतः प्राणान् रक्षन् महाहवे।
न भवान् क्षत्रधर्मेषु कुशलो हीति मे मतिः ॥ ५५ ॥

मूलम्

अब्रवीत् प्रहसन् राजन् कुत्सयन्निव पाण्डवम्।
कथं नाम कुले जातः क्षत्रधर्मे व्यवस्थितः ॥ ५४ ॥
प्रजह्यात् समरं भीतः प्राणान् रक्षन् महाहवे।
न भवान् क्षत्रधर्मेषु कुशलो हीति मे मतिः ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब कर्ण जोर-जोरसे हँस पड़ा और पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरकी निन्दा-सा करता हुआ बोला—‘युधिष्ठिर! जो क्षत्रिय-कुलमें उत्पन्न हो, क्षत्रिय-धर्ममें तत्पर रहता हो, वह महासमरमें प्राणोंकी रक्षाके लिये भयभीत हो युद्ध छोड़कर भाग कैसे सकता है? मेरा तो ऐसा विश्वास है कि तुम क्षत्रिय-धर्ममें निपुण नहीं हो॥५४-५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मे बले भवान् युक्तः स्वाध्याये यज्ञकर्मणि।
मा स्म युद्‌ध्यस्व कौन्तेय मा स्म वीरान् समासदः॥५६॥

मूलम्

ब्राह्मे बले भवान् युक्तः स्वाध्याये यज्ञकर्मणि।
मा स्म युद्‌ध्यस्व कौन्तेय मा स्म वीरान् समासदः॥५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीकुमार! तुम ब्राह्मबल, स्वाध्याय एवं यज्ञ-कर्ममें ही कुशल हो; अतः न तो युद्ध किया करो और न वीरोंके सामने ही जाओ॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा चैतानप्रियं ब्रूहि मा वै व्रज महारणम्।
वक्तव्या मारिषान्ये तु न वक्तव्यास्तु मादृशाः ॥ ५७ ॥

मूलम्

मा चैतानप्रियं ब्रूहि मा वै व्रज महारणम्।
वक्तव्या मारिषान्ये तु न वक्तव्यास्तु मादृशाः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माननीय नरेश! न इन वीरोंसे कभी अप्रिय वचन बोलो और न महान् युद्धमें पैर ही रखो। यदि अप्रिय वचन बोलना ही हो तो दूसरोंसे बोलना; मेरे-जैसे वीरोंसे नहीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मादृशान् विब्रुवन् युद्धे एतदन्यच्च लप्स्यसे।
स्वगृहं गच्छ कौन्तेय यत्र तौ केशवार्जुनौ ॥ ५८ ॥
न हि त्वां समरे राजन् हन्यात् कर्णः कथञ्चन।

मूलम्

मादृशान् विब्रुवन् युद्धे एतदन्यच्च लप्स्यसे।
स्वगृहं गच्छ कौन्तेय यत्र तौ केशवार्जुनौ ॥ ५८ ॥
न हि त्वां समरे राजन् हन्यात् कर्णः कथञ्चन।

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धमें मेरे-जैसे लोगोंसे अप्रिय वचन बोलनेपर तुम्हें यही तथा दूसरा कुफल भी भोगना पड़ेगा। अतः कुन्तीनन्दन! अपने घर चले जाओ अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हों वहीं पधारो। राजन्! कर्ण समरांगणमें किसी तरह भी तुम्हारा वध नहीं करेगा’॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततः पार्थं विसृज्य च महाबलः ॥ ५९ ॥
न्यहनत् पाण्डवीं सेनां वज्रहस्त इवासुरीम्।

मूलम्

एवमुक्त्वा ततः पार्थं विसृज्य च महाबलः ॥ ५९ ॥
न्यहनत् पाण्डवीं सेनां वज्रहस्त इवासुरीम्।

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली कर्णने युधिष्ठिरसे ऐसा कहकर फिर उन्हें छोड़ दिया और जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरसेनाका संहार करते हैं, उसी प्रकार पाण्डव-सेनाका विनाश आरम्भ कर दिया॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपायाद् द्रुतं राजन् व्रीडन्निव नरेश्वरः ॥ ६० ॥
अथापयातं राजानं मत्वान्वीयुस्तमच्युतम् ।
चेदिपाण्डवपाञ्चालाः सात्यकिश्च महारथः ॥ ६१ ॥
द्रौपदेयास्तथा शूरा माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।

मूलम्

ततोऽपायाद् द्रुतं राजन् व्रीडन्निव नरेश्वरः ॥ ६० ॥
अथापयातं राजानं मत्वान्वीयुस्तमच्युतम् ।
चेदिपाण्डवपाञ्चालाः सात्यकिश्च महारथः ॥ ६१ ॥
द्रौपदेयास्तथा शूरा माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब राजा युधिष्ठिर लजाते हुए-से तुरंत रणभूमिसे भाग गये। राजाको रणक्षेत्रसे हटा हुआ जानकर चेदि, पाण्डव और पांचाल वीर, महारथी सात्यकि, द्रौपदीके शूरवीर पुत्र तथा पाण्डुनन्दन माद्रीकुमार नकुल-सहदेव भी धर्म-मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले युधिष्ठिरके पीछे-पीछे चल दिये॥६०-६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरानीकं दृष्ट्वा कर्णः पराङ्‌मुखम् ॥ ६२ ॥
कुरुभिः सहितो वीरः प्रहृष्टः पृष्ठतोऽन्वगात्।

मूलम्

ततो युधिष्ठिरानीकं दृष्ट्वा कर्णः पराङ्‌मुखम् ॥ ६२ ॥
कुरुभिः सहितो वीरः प्रहृष्टः पृष्ठतोऽन्वगात्।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर युधिष्ठिरकी सेनाको युद्धसे विमुख हुई देख हर्षमें भरे हुए वीर कर्णने कौरव-सैनिकोंको साथ लेकर कुछ दूरतक उसका पीछा किया॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भेरीशङ्खमृदङ्गानां कार्मुकाणां च निःस्वनः ॥ ६३ ॥
बभूव धार्तराष्ट्राणां सिंहनादरवस्तथा ।

मूलम्

भेरीशङ्खमृदङ्गानां कार्मुकाणां च निःस्वनः ॥ ६३ ॥
बभूव धार्तराष्ट्राणां सिंहनादरवस्तथा ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भेरी, शंख, मृदंग और धनुषोंकी ध्वनि सब ओर फैल रही थी तथा दुर्योधनके सैनिक सिंहके समान दहाड़ रहे थे॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरस्तु कौरव्य रथमारुह्य सत्वरम् ॥ ६४ ॥
श्रुतकीर्तेर्महाराज दृष्टवान् कर्णविक्रमम् ।

मूलम्

युधिष्ठिरस्तु कौरव्य रथमारुह्य सत्वरम् ॥ ६४ ॥
श्रुतकीर्तेर्महाराज दृष्टवान् कर्णविक्रमम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुवंशी महाराज! युधिष्ठिरके घोड़े थक गये थे; अतः उन्होंने तुरंत ही श्रुतकीर्तिके रथपर आरूढ़ हो कर्णके पराक्रमको देखा॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काल्यमानं बलं दृष्ट्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ६५ ॥
स्वान्‌ योधानब्रवीत्‌ क्रुद्धो निघ्नतैतान्‌ किमासत।

मूलम्

काल्यमानं बलं दृष्ट्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ६५ ॥
स्वान्‌ योधानब्रवीत्‌ क्रुद्धो निघ्नतैतान्‌ किमासत।

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी सेनाको खदेड़ी जाती हुई देख धर्मराज युधिष्ठिरने कुपित हो अपने पक्षके योद्धाओंसे कहा—‘अरे! क्यों चुप बैठे हो? इन शत्रुओंको मार डालो’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राज्ञाभ्यनुज्ञाताः पाण्डवानां महारथाः ॥ ६६ ॥
भीमसेनमुखाः सर्वे पुत्रांस्ते प्रत्युपाद्रवन्।

मूलम्

ततो राज्ञाभ्यनुज्ञाताः पाण्डवानां महारथाः ॥ ६६ ॥
भीमसेनमुखाः सर्वे पुत्रांस्ते प्रत्युपाद्रवन्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजाकी यह आज्ञा पाते ही भीमसेन आदि समस्त पाण्डव महारथी आपके पुत्रोंपर टूट पड़े॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभवत् तुमुलः शब्दो योधानां तत्र भारत ॥ ६७ ॥
रथहस्त्यश्वपत्तीनां शस्त्राणां च ततस्ततः।

मूलम्

अभवत् तुमुलः शब्दो योधानां तत्र भारत ॥ ६७ ॥
रथहस्त्यश्वपत्तीनां शस्त्राणां च ततस्ततः।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! फिर तो वहाँ इधर-उधर सब ओर रथी, हाथीसवार, घुड़सवार और पैदल योद्धाओं एवं अस्त्र-शस्त्रोंका भयंकर शब्द गूँजने लगा॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तिष्ठत प्रहरत प्रैताभिपततेति च ॥ ६८ ॥
इति ब्रुवाणा ह्यन्योन्यं जघ्नुर्योधा महारणे।

मूलम्

उत्तिष्ठत प्रहरत प्रैताभिपततेति च ॥ ६८ ॥
इति ब्रुवाणा ह्यन्योन्यं जघ्नुर्योधा महारणे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘उठो, मारो, आगे बढ़ो, टूट पड़ो’ इत्यादि वाक्य बोलते हुए सब योद्धा उस महासमरमें एक-दूसरेको मारने लगे॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्रच्छायेव तत्रासीच्छरवृष्टिभिरम्बरे ॥ ६९ ॥
समावृतैर्नरवरैर्निघ्नद्भिरितरेतरम् ।

मूलम्

अभ्रच्छायेव तत्रासीच्छरवृष्टिभिरम्बरे ॥ ६९ ॥
समावृतैर्नरवरैर्निघ्नद्भिरितरेतरम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वहाँ अस्त्रोंसे आवृत हो परस्पर आघात करनेवाले नरश्रेष्ठ वीरोंके चलाये हुए बाणोंकी वृष्टिसे आकाशमें मेघोंकी छाया-सी छा रही थी॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपताकध्वजच्छत्रा व्यश्वसूतायुधा रणे ॥ ७० ॥
व्यङ्गाङ्गावयवाः पेतुः क्षितौ क्षीणाः क्षितीश्वराः।

मूलम्

विपताकध्वजच्छत्रा व्यश्वसूतायुधा रणे ॥ ७० ॥
व्यङ्गाङ्गावयवाः पेतुः क्षितौ क्षीणाः क्षितीश्वराः।

अनुवाद (हिन्दी)

कितने ही घायल नरेश पताका, ध्वज, छत्र, अश्व, सारथि, आयुध, शरीर तथा उसके अवयवोंसे रहित हो रणभूमिमें गिर पड़े॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवणादिव शैलानां शिखराणि द्विपोत्तमाः ॥ ७१ ॥
सारोहा निहताः पेतुर्वज्रभिन्ना इवाद्रयः।

मूलम्

प्रवणादिव शैलानां शिखराणि द्विपोत्तमाः ॥ ७१ ॥
सारोहा निहताः पेतुर्वज्रभिन्ना इवाद्रयः।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पर्वतोंके शिखर टूटकर निम्न देशसे लुढ़कते हुए नीचे गिर पड़ते हैं तथा जैसे वज्रसे विदीर्ण किये हुए पर्वत धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार वहाँ मारे गये हाथी अपने सवारोंसहित पृथ्वीपर गिर पड़े॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिन्नभिन्नविपर्यस्तैर्वर्मालङ्कारभूषणैः ॥ ७२ ॥
सारोहास्तुरगाः पेतुर्हतवीराः सहस्रशः ।

मूलम्

छिन्नभिन्नविपर्यस्तैर्वर्मालङ्कारभूषणैः ॥ ७२ ॥
सारोहास्तुरगाः पेतुर्हतवीराः सहस्रशः ।

अनुवाद (हिन्दी)

टूटे-फूटे और अस्त-व्यस्त हुए कवच, अलंकार एवं आभूषणोंसहित सहस्रों घोड़े अपने बहादुर सवारोंके मारे जानेपर उनके साथ ही गिर पड़ते थे॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रविद्धायुधाङ्गाश्च द्विरदाश्वरथैर्हताः ॥ ७३ ॥
प्रतिवीरैश्च सम्मर्दे पत्तिसंघाः सहस्रशः।

मूलम्

विप्रविद्धायुधाङ्गाश्च द्विरदाश्वरथैर्हताः ॥ ७३ ॥
प्रतिवीरैश्च सम्मर्दे पत्तिसंघाः सहस्रशः।

अनुवाद (हिन्दी)

उस संघर्षमें विपक्षी वीरों, हाथियों, घोड़ों तथा रथोंद्वारा मारे गये सहस्रों पैदल योद्धाओंके समुदाय रणभूमिमें सो रहे थे। उनके अस्त्र-शस्त्र और शरीरके अवयव क्षत-विक्षत होकर बिखर गये थे॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशालायतताम्राक्षैः पद्मेन्दुसदृशाननैः ॥ ७४ ॥
शिरोभिर्युद्धशौण्डानां सर्वतः संवृता मही।
यथा भुवि तथा व्योम्नि निःस्वनं शुश्रुवुर्जनाः ॥ ७५ ॥
विमानैरप्सरःसङ्गैर्गीतवादित्रनिःस्वनैः ।

मूलम्

विशालायतताम्राक्षैः पद्मेन्दुसदृशाननैः ॥ ७४ ॥
शिरोभिर्युद्धशौण्डानां सर्वतः संवृता मही।
यथा भुवि तथा व्योम्नि निःस्वनं शुश्रुवुर्जनाः ॥ ७५ ॥
विमानैरप्सरःसङ्गैर्गीतवादित्रनिःस्वनैः ।

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धकुशल वीरोंके विशाल, विस्तृत एवं लाल-लाल आँखों और कमल तथा चन्द्रमाके समान मुखवाले मस्तकोंसे सारी युद्धभूमि सब ओरसे ढक गयी थी। भूतलपर जैसा कोलाहल हो रहा था, वैसा ही आकाशमें भी लोगोंको सुनायी देता था। वहाँ विमानोंपर बैठी हुई झुंड-की-झुंड अप्सराएँ गीत और वाद्योंकी मधुर ध्वनि फैला रही भीं॥७४-७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतानभिमुखान् वीरान् वीरैः शतसहस्रशः ॥ ७६ ॥
आरोप्यारोप्य गच्छन्ति विमानेष्वप्सरोगणाः ।

मूलम्

हतानभिमुखान् वीरान् वीरैः शतसहस्रशः ॥ ७६ ॥
आरोप्यारोप्य गच्छन्ति विमानेष्वप्सरोगणाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वीरोंके द्वारा सम्मुख लड़कर मारे गये लाखों वीरोंको अप्सराएँ विमानोंपर बिठा-बिठाकर स्वर्गलोकमें ले जाती थीं॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं प्रत्यक्षं स्वर्गलिप्सया ॥ ७७ ॥
प्रहृष्टमनसः शूराः क्षिप्रं जघ्नुः परस्परम्।

मूलम्

तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं प्रत्यक्षं स्वर्गलिप्सया ॥ ७७ ॥
प्रहृष्टमनसः शूराः क्षिप्रं जघ्नुः परस्परम्।

अनुवाद (हिन्दी)

यह महान् आश्चर्यकी बात प्रत्यक्ष देखकर हर्ष और उत्साहमें भरे हुए शूरवीर स्वर्गकी लिप्सासे एक-दूसरेको शीघ्रतापूर्वक मारने लगे॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथिनो रथिभिः सार्धं चित्रं युयुधुराहवे ॥ ७८ ॥
पत्तयः पत्तिभिर्नागाः सह नागैर्हयैर्हयाः।

मूलम्

रथिनो रथिभिः सार्धं चित्रं युयुधुराहवे ॥ ७८ ॥
पत्तयः पत्तिभिर्नागाः सह नागैर्हयैर्हयाः।

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धस्थलमें रथियोंके साथ रथी, पैदलोंके साथ पैदल, हाथियोंके साथ हाथी और घोड़ोंके साथ घोड़े विचित्र युद्ध करते थे॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रवृत्ते संग्रामे गजवाजिनरक्षये ॥ ७९ ॥
सैन्येन रजसा व्याप्ते स्वे स्वाञ्जघ्नुः परे परान्।

मूलम्

एवं प्रवृत्ते संग्रामे गजवाजिनरक्षये ॥ ७९ ॥
सैन्येन रजसा व्याप्ते स्वे स्वाञ्जघ्नुः परे परान्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार हाथी, घोड़ों और मनुष्योंका संहार करनेवाले उस संग्रामके आरम्भ होनेपर सैनिकोंद्वारा उड़ायी हुई धूलसे वहाँका सारा प्रदेश आच्छादित हो जानेपर अपने और शत्रुपक्षके योद्धा अपने ही पक्षवालोंका संहार करने लगे॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कचाकचि युद्धमासीद् दन्तादन्ति नखानखि ॥ ८० ॥
मुष्टियुद्धं नियुद्धं च देहपाप्मासुनाशनम्।

मूलम्

कचाकचि युद्धमासीद् दन्तादन्ति नखानखि ॥ ८० ॥
मुष्टियुद्धं नियुद्धं च देहपाप्मासुनाशनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों दलोंके सैनिक एक-दूसरेके केश पकड़कर खींचते, दाँतोंसे काटते, नखोंसे बखोटते, मुक्कोंसे मारते और परस्पर मल्लयुद्ध करने लगते थे। इस प्रकार वह युद्ध सैनिकोंके शरीर, प्राण और पापोंका विनाश करनेवाला हो रहा था॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा वर्तति संग्रामे गजवाजिनरक्षये ॥ ८१ ॥
नराश्वनागदेहेभ्यः प्रसृता लोहितापगा ।
गजाश्वनरदेहान् सा व्युवाह पतितान् बहून् ॥ ८२ ॥

मूलम्

तथा वर्तति संग्रामे गजवाजिनरक्षये ॥ ८१ ॥
नराश्वनागदेहेभ्यः प्रसृता लोहितापगा ।
गजाश्वनरदेहान् सा व्युवाह पतितान् बहून् ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथी, घोड़े और मनुष्योंका विनाश करनेवाला वह संग्राम उसी रूपमें चलने लगा। मनुष्यों, घोड़ों और हाथियोंके शरीरोंसे खूनकी नदी बह चली, जो अपने भीतर पड़े हुए हाथी, घोड़े और मनुष्योंकी बहुसंख्यक लाशोंको बहाये जा रही थी॥८१-८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नराश्वगजसम्बाधे नराश्वगजसादिनाम् ।
लोहितोदा महाघोरा मांसशोणितकर्दमा ॥ ८३ ॥
नराश्वगजदेहान् सा वहन्ती भीरुभीषणा।

मूलम्

नराश्वगजसम्बाधे नराश्वगजसादिनाम् ।
लोहितोदा महाघोरा मांसशोणितकर्दमा ॥ ८३ ॥
नराश्वगजदेहान् सा वहन्ती भीरुभीषणा।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य, घोड़े और हाथियोंसे भरे हुए युद्धस्थलमें मनुष्य, अश्व, हाथी और सवारोंके रक्त ही उस नदीके जल थे। उनका मांस और गाढ़ा खून उस नदीकी कीचड़के समान जान पड़ता था। मनुष्य, घोड़े और हाथियोंके शरीरोंको बहाती हुई वह महाभयंकर नदी भीरु मनुष्योंको भयभीत कर रही थी॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः पारमपारं च व्रजन्ति विजयैषिणः ॥ ८४ ॥
गाधेन चाप्लवन्तश्च निमज्ज्योन्मज्य चापरे।

मूलम्

तस्याः पारमपारं च व्रजन्ति विजयैषिणः ॥ ८४ ॥
गाधेन चाप्लवन्तश्च निमज्ज्योन्मज्य चापरे।

अनुवाद (हिन्दी)

विजयकी अभिलाषा रखनेवाले कितने ही वीर जहाँ थोड़ा रक्तमय जल था वहाँ तैरकर और जहाँ अथाह था वहाँ गोते लगा-लगाकर उसके दूसरे पार पहुँच जाते थे॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु लोहितदिग्धाङ्गा रक्तवर्मायुधाम्बराः ॥ ८५ ॥
सस्नुस्तस्यां पपुश्चास्यां मम्लुश्च भरतर्षभ।

मूलम्

ते तु लोहितदिग्धाङ्गा रक्तवर्मायुधाम्बराः ॥ ८५ ॥
सस्नुस्तस्यां पपुश्चास्यां मम्लुश्च भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबके शरीर रक्तसे रँग गये थे। कवच, आयुध और वस्त्र भी रक्तरंजित हो गये थे। भरतश्रेष्ठ! कितने ही योद्धा उसमें नहा लेते, कितनोंके मुँहमें रक्तकी घूँट चली जाती और कितने ही ग्लानिसे भर जाते थे॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथानश्वान् नरान् नागानायुधाभरणानि च ॥ ८६ ॥
वसनान्यथ वर्माणि वध्यमानान् हतानपि।
भूमिं खं द्यां दिशश्चैव प्रायः पश्याम लोहिताः ॥ ८७ ॥

मूलम्

रथानश्वान् नरान् नागानायुधाभरणानि च ॥ ८६ ॥
वसनान्यथ वर्माणि वध्यमानान् हतानपि।
भूमिं खं द्यां दिशश्चैव प्रायः पश्याम लोहिताः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मारे गये तथा मारे जाते हुए हाथी, घोड़े, रथ, मनुष्य, अस्त्र-शस्त्र, आभूषण, वस्त्र, कवच, पृथ्वी, आकाश, द्युलोक और सम्पूर्ण दिशाएँ—ये सब हमें प्रायः लाल-ही-लाल दिखायी देते थे॥८६-८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोहितस्य तु गन्धेन स्पर्शेन च रसेन च।
रूपेण चातिरक्तेन शब्देन च विसर्पता ॥ ८८ ॥
विषादः सुमहानासीत् प्रायः सैन्यस्य भारत।

मूलम्

लोहितस्य तु गन्धेन स्पर्शेन च रसेन च।
रूपेण चातिरक्तेन शब्देन च विसर्पता ॥ ८८ ॥
विषादः सुमहानासीत् प्रायः सैन्यस्य भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! सब ओर फैली और बढ़ी हुई उस रक्त-राशिकी गन्धसे, स्पर्शसे, रससे, रूपसे और शब्दसे भी प्रायः सारी सेनाके मनमें बड़ा विषाद हो रहा था॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् तु विप्रहतं सैन्यं भीमसेनमुखास्तदा ॥ ८९ ॥
भूयः समाद्रवन् वीराः सात्यकिप्रमुखास्तदा।

मूलम्

तत् तु विप्रहतं सैन्यं भीमसेनमुखास्तदा ॥ ८९ ॥
भूयः समाद्रवन् वीराः सात्यकिप्रमुखास्तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन तथा सात्यकि आदि वीरोंने विशेषरूपसे विनष्ट हुई उस कौरव-सेनापर पुनः बड़े वेगसे आक्रमण किया॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामापततां वेगमविषह्यं निरीक्ष्य च ॥ ९० ॥
पुत्राणां ते महासैन्यमासीद् राजन् पराङ्‌मुखम्।

मूलम्

तेषामापततां वेगमविषह्यं निरीक्ष्य च ॥ ९० ॥
पुत्राणां ते महासैन्यमासीद् राजन् पराङ्‌मुखम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन आक्रमणकारी वीरोंके असह्य वेगको देखकर आपके पुत्रोंकी विशाल सेना युद्धसे विमुख होकर भाग चली॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् प्रकीर्णरथाश्वेभं नरवाजिसमाकुलम् ॥ ९१ ॥
विध्वस्तवर्मकवचं प्रविद्धायुधकार्मुकम् ।
व्यद्रवत् तावकं सैन्यं लोड्‌यमानं समन्ततः।
सिंहार्दितमिवारण्ये यथा गजकुलं तथा ॥ ९२ ॥

मूलम्

तत् प्रकीर्णरथाश्वेभं नरवाजिसमाकुलम् ॥ ९१ ॥
विध्वस्तवर्मकवचं प्रविद्धायुधकार्मुकम् ।
व्यद्रवत् तावकं सैन्यं लोड्‌यमानं समन्ततः।
सिंहार्दितमिवारण्ये यथा गजकुलं तथा ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे जंगलमें सिंहसे पीड़ित हुआ हाथियोंका यूथ व्याकुल होकर भागता है, उसी प्रकार शत्रुओंद्वारा सब ओरसे रौंदी जाती हुई मनुष्यों और घोड़ोंसे परिपूर्ण आपकी विशाल सेना भाग चली। उसके रथ, हाथी और घोड़े तितर-बितर हो गये, आवरण और कवच नष्ट हो गये तथा अस्त्र-शस्त्र और धनुष छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वीपर पड़े थे॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि संकुलयुद्धे एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें संकुलयुद्धविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १९ श्लोक मिलाकर कुल १११ श्लोक हैं)