भागसूचना
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कर्णका आत्मप्रशंसापूर्वक शल्यको फटकारना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुनर्महाराज मद्रराजमरिंदमः ।
अभ्यभाषत राधेयः संनिवार्योत्तरं वचः ॥ १ ॥
मूलम्
ततः पुनर्महाराज मद्रराजमरिंदमः ।
अभ्यभाषत राधेयः संनिवार्योत्तरं वचः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! तदनन्तर शत्रुओंका दमन करनेवाले राधापुत्र कर्णने शल्यको रोककर पुनः उनसे इस प्रकार कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् त्वं निदर्शनार्थं मां शल्य जल्पितवानसि।
नाहं शक्यस्त्वया वाचा बिभीषयितुमाहवे ॥ २ ॥
मूलम्
यत् त्वं निदर्शनार्थं मां शल्य जल्पितवानसि।
नाहं शक्यस्त्वया वाचा बिभीषयितुमाहवे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शल्य! तुमने दृष्टान्तके लिये मेरे प्रति जो वाग्जाल फैलाया है उसके उत्तरमें निवेदन है कि तुम इस युद्धस्थलमें मुझे अपनी बातोंसे नहीं डरा सकते॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मां देवताः सर्वा योधयेयुः सवासवाः।
तथापि मे भयं न स्यात् किमु पार्थात् सकेशवात्॥३॥
मूलम्
यदि मां देवताः सर्वा योधयेयुः सवासवाः।
तथापि मे भयं न स्यात् किमु पार्थात् सकेशवात्॥३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता मुझसे युद्ध करने लगें तो भी मुझे उनसे कोई भय नहीं होगा। फिर श्रीकृष्णसहित अर्जुनसे क्या भय हो सकता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं भीषयितुं शक्यो वाङ्मात्रेण कथंचन।
अन्यं जानीहि यः शक्यस्त्वया भीषयितुं रणे ॥ ४ ॥
मूलम्
नाहं भीषयितुं शक्यो वाङ्मात्रेण कथंचन।
अन्यं जानीहि यः शक्यस्त्वया भीषयितुं रणे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे केवल बातोंसे किसी प्रकार भी डराया नहीं जा सकता, जिसे तुम रणभूमिमें डरा सको, ऐसे किसी दूसरे ही पुरुषका पता लगाओ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीचस्य बलमेतावत् पारुष्यं यत्त्वमात्थ माम्।
अशक्तो मद्गुणान् वक्तुं वल्गसे बहु दुर्मते ॥ ५ ॥
मूलम्
नीचस्य बलमेतावत् पारुष्यं यत्त्वमात्थ माम्।
अशक्तो मद्गुणान् वक्तुं वल्गसे बहु दुर्मते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमने मेरे प्रति जो कटु वचन कहा है, इतना ही नीच पुरुषका बल है। दुर्बुद्धे! तुम मेरे गुणोंका वर्णन करनेमें असमर्थ होकर बहुत-सी ऊटपटांग बातें बकते जा रहे हो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि कर्णः समुद्भूतो भयार्थमिह मद्रक।
विक्रमार्थमहं जातो यशोऽर्थं च तथाऽऽत्मनः ॥ ६ ॥
मूलम्
न हि कर्णः समुद्भूतो भयार्थमिह मद्रक।
विक्रमार्थमहं जातो यशोऽर्थं च तथाऽऽत्मनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मद्रनिवासी शल्य! कर्ण इस संसारमें भयभीत होनेके लिये नहीं पैदा हुआ है। मैं तो पराक्रम प्रकट करने और अपने यशको फैलानेके लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखिभावेन सौहार्दान्मित्रभावेन चैव हि।
कारणैस्त्रिभिरेतैस्त्वं शल्य जीवसि साम्प्रतम् ॥ ७ ॥
मूलम्
सखिभावेन सौहार्दान्मित्रभावेन चैव हि।
कारणैस्त्रिभिरेतैस्त्वं शल्य जीवसि साम्प्रतम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शल्य! एक तो तुम सारथि बनकर मेरे सखा हो गये हो, दूसरे सौहार्दवश मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है और तीसरे मित्र दुर्योधनकी अभीष्टसिद्धिका मेरे मनमें विचार है—इन्हीं तीन कारणोंसे तुम अबतक जीवित हो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञश्च धार्तराष्ट्रस्य कार्यं सुमहदुद्यतम्।
मयि तच्चाहितं शल्य तेन जीवसि मे क्षणम् ॥ ८ ॥
मूलम्
राज्ञश्च धार्तराष्ट्रस्य कार्यं सुमहदुद्यतम्।
मयि तच्चाहितं शल्य तेन जीवसि मे क्षणम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजा दुर्योधनका महान् कार्य उपस्थित हुआ है और उसका सारा भार मुझपर रखा गया है। शल्य! इसीलिये तुम क्षणभर भी जीवित हो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतश्च समयः पूर्वं क्षन्तव्यं विप्रियं तव।
ऋते शल्यसहस्रेण विजयेयमहं परान्।
मित्रद्रोहस्तु पापीयानिति जीवसि साम्प्रतम् ॥ ९ ॥
मूलम्
कृतश्च समयः पूर्वं क्षन्तव्यं विप्रियं तव।
ऋते शल्यसहस्रेण विजयेयमहं परान्।
मित्रद्रोहस्तु पापीयानिति जीवसि साम्प्रतम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसके सिवा, मैंने पहले ही यह शर्त कर दी है कि तुम्हारे अप्रिय वचनोंको क्षमा करूँगा। वैसे तो हजारों शल्य न रहें तो भी मैं शत्रुओंपर विजय पा सकता हूँ; परंतु मित्रद्रोह महान् पाप है, इसीलिये तुम अबतक जीवित हो’॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कर्णशल्यसंवादे त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें कर्ण और शल्यका संवादविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४३॥