०४०

भागसूचना

चत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कर्णका शल्यको फटकारते हुए मद्रदेशके निवासियोंकी निन्दा करना एवं उसे मार डालनेकी धमकी देना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिक्षिप्तस्तु राधेयः शल्येनामिततेजसा ।
शल्यमाह सुसंक्रुद्धो वाक्‌शल्यमवधारयन् ॥ १ ॥

मूलम्

अधिक्षिप्तस्तु राधेयः शल्येनामिततेजसा ।
शल्यमाह सुसंक्रुद्धो वाक्‌शल्यमवधारयन् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! अमिततेजस्वी शल्यके इस प्रकार आक्षेप करनेपर राधापुत्र कर्ण अत्यन्त कुपित हो उठा और यह वचनरूपी शल्य (बाण) छोड़नेके कारण ही इसका नाम शल्य पड़ा है, ऐसा निश्चय करके शल्यसे इस प्रकार बोला॥१॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणान् गुणवतां शल्य गुणवान् वेत्ति नागुणः।
त्वं तु शल्य गुणैर्हीनः किं ज्ञास्यसि गुणागुणम् ॥ २ ॥

मूलम्

गुणान् गुणवतां शल्य गुणवान् वेत्ति नागुणः।
त्वं तु शल्य गुणैर्हीनः किं ज्ञास्यसि गुणागुणम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने कहा— शल्य! गुणवान् पुरुषोंके गुणोंको गुणवान् ही जानता है, गुणहीन नहीं। तुम तो समस्त गुणोंसे शून्य हो; फिर गुण-अवगुण क्या समझोगे?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनस्य महास्त्राणि क्रोधं वीर्यं धनुः शरान्।
अहं शल्याभिजानामि विक्रमं च महात्मनः ॥ ३ ॥

मूलम्

अर्जुनस्य महास्त्राणि क्रोधं वीर्यं धनुः शरान्।
अहं शल्याभिजानामि विक्रमं च महात्मनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य! मैं महात्मा अर्जुनके महान् अस्त्र, क्रोध, बल, धनुष, बाण और पराक्रमको अच्छी तरह जानता हूँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा कृष्णस्य माहात्म्यमृषभस्य महीक्षिताम्।
यथाहं शल्य जानामि न त्वं जानासि तत् तथा॥४॥

मूलम्

तथा कृष्णस्य माहात्म्यमृषभस्य महीक्षिताम्।
यथाहं शल्य जानामि न त्वं जानासि तत् तथा॥४॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य! इसी प्रकार महीपालशिरोमणि श्रीकृष्णके माहात्म्यको जैसा मैं जानता हूँ, वैसा तुम नहीं जानते॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेवात्मनो वीर्यमहं वीर्यं च पाण्डवे।
जानन्नेवाह्वये युद्धे शल्य गाण्डीवधारिणम् ॥ ५ ॥

मूलम्

एवमेवात्मनो वीर्यमहं वीर्यं च पाण्डवे।
जानन्नेवाह्वये युद्धे शल्य गाण्डीवधारिणम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य! मैं अपना और पाण्डुपुत्र अर्जुनका बल-पराक्रम समझकर ही गाण्डीवधारी पार्थको युद्धके लिये बुलाता हूँ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्ति वायमिषुः शल्य सुपुङ्खो रक्तभोजनः।
एकतूणीशयः पत्री सुधौतः समलंकृतः ॥ ६ ॥

मूलम्

अस्ति वायमिषुः शल्य सुपुङ्खो रक्तभोजनः।
एकतूणीशयः पत्री सुधौतः समलंकृतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य! मेरा यह सुन्दर पंखोंसे युक्त बाण शत्रुओंका रक्त पीनेवाला है। यह अकेले ही एक तरकसमें रखा जाता है, जो बहुत ही स्वच्छ, कंकपत्रयुक्त और भलीभाँति अलंकृत है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शेते चन्दनचूर्णेशु पूजितो बहुलाः समाः।
आहेयो विषवानुग्रो नराश्वद्विपसंघहा ॥ ७ ॥

मूलम्

शेते चन्दनचूर्णेशु पूजितो बहुलाः समाः।
आहेयो विषवानुग्रो नराश्वद्विपसंघहा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सर्पमय भयानक विषैला बाण बहुत वर्षोंतक चन्दनके चूर्णमें रखकर पूजित होता आया है, जो मनुष्यों, हाथियों और घोड़ोंके समुदायका संहार करनेवाला है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घोररूपो महारौद्रस्तनुत्रास्थिविदारणः ।
निर्भिन्द्यां येन रुष्टोऽहमपि मेरुं महागिरिम् ॥ ८ ॥

मूलम्

घोररूपो महारौद्रस्तनुत्रास्थिविदारणः ।
निर्भिन्द्यां येन रुष्टोऽहमपि मेरुं महागिरिम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अत्यन्त भयंकर घोर बाण कवच तथा हड्डियोंको भी चीर देनेवाला है। मैं कुपित होनेपर इस बाणके द्वारा महान् पर्वत मेरुको भी विदीर्ण कर सकता हूँ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमहं जातु नास्येयमन्यस्मिन् फाल्गुनादृते।
कृष्णाद् वा देवकीपुत्रात् सत्यं चापि शृणुष्व मे ॥ ९ ॥

मूलम्

तमहं जातु नास्येयमन्यस्मिन् फाल्गुनादृते।
कृष्णाद् वा देवकीपुत्रात् सत्यं चापि शृणुष्व मे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस बाणको मैं अर्जुन अथवा देवकीपुत्र श्रीकृष्णको छोड़कर दूसरे किसीपर कभी नहीं छोड़ूँगा। मेरी सच्ची बातको तुम कान खोलकर सुन लो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनाहमिषुणा शल्य वासुदेवधनंजयौ ।
योत्स्ये परमसंक्रुद्धस्तत् कर्म सदृशं मम ॥ १० ॥

मूलम्

तेनाहमिषुणा शल्य वासुदेवधनंजयौ ।
योत्स्ये परमसंक्रुद्धस्तत् कर्म सदृशं मम ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य! मैं अत्यन्त कुपित होकर उस बाणके द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनके साथ युद्ध करूँगा और वह कार्य मेरे योग्य होगा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषां वृष्णिवीराणां कृष्णे लक्ष्मीः प्रतिष्ठिता।
सर्वेषां पाण्डुपुत्राणां जयः पार्थे प्रतिष्ठितः ॥ ११ ॥
उभयं तु समासाद्य को निवर्तितुमर्हति।

मूलम्

सर्वेषां वृष्णिवीराणां कृष्णे लक्ष्मीः प्रतिष्ठिता।
सर्वेषां पाण्डुपुत्राणां जयः पार्थे प्रतिष्ठितः ॥ ११ ॥
उभयं तु समासाद्य को निवर्तितुमर्हति।

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त वृष्णिवंशी वीरोंकी सम्पत्ति श्रीकृष्णपर ही प्रतिष्ठित है और पाण्डुके सभी पुत्रोंकी विजय अर्जुनपर ही अवलम्बित है; फिर उन दोनोंको एक साथ युद्धमें पाकर कौन वीर पीछे लौट सकता है?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावेतौ पुरुषव्याघ्रौ समेतौ स्यन्दने स्थितौ ॥ १२ ॥
मामेकमभिसंयातौ सुजातं पश्य शल्य मे।

मूलम्

तावेतौ पुरुषव्याघ्रौ समेतौ स्यन्दने स्थितौ ॥ १२ ॥
मामेकमभिसंयातौ सुजातं पश्य शल्य मे।

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य! वे दोनों पुरुषसिंह एक साथ रथपर बैठकर एकमात्र मुझपर आक्रमण करनेवाले हैं। देखो, मेरा जन्म कितना उत्तम है?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृष्वसामातुलजौ भ्रातरावपराजितौ ॥ १३ ॥
मणी सूत्र इव प्रोतौ द्रष्टासि निहतौ मया।

मूलम्

पितृष्वसामातुलजौ भ्रातरावपराजितौ ॥ १३ ॥
मणी सूत्र इव प्रोतौ द्रष्टासि निहतौ मया।

अनुवाद (हिन्दी)

धागेमें पिरोयी हुई दो मणियोंके समान प्रेमसूत्रमें बँधे हुए उन दोनों फुफेरे और ममेरे भाइयोंको, जो किसीसे पराजित नहीं होते, तुम मेरे द्वारा मारा गया देखोगे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुने गाण्डिवं कृष्णे चक्रं तार्क्ष्यकपिध्वजौ ॥ १४ ॥
भीरूणां त्रासजननं शल्य हर्षकरं मम।

मूलम्

अर्जुने गाण्डिवं कृष्णे चक्रं तार्क्ष्यकपिध्वजौ ॥ १४ ॥
भीरूणां त्रासजननं शल्य हर्षकरं मम।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके हाथमें गाण्डीव धनुष और श्रीकृष्णके हाथमें सुदर्शन चक्र है। एक कपिध्वज है तो दूसरा गरुड़ध्वज। शल्य! ये सब वस्तुएँ कायरोंको भय देनेवाली हैं; परंतु मेरा हर्ष बढ़ाती हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं तु दुष्प्रकृतिर्मूढो महायुद्धेष्वकोविदः ॥ १५ ॥
भयावदीर्णः संत्रासादबद्धं बहु भाषसे।

मूलम्

त्वं तु दुष्प्रकृतिर्मूढो महायुद्धेष्वकोविदः ॥ १५ ॥
भयावदीर्णः संत्रासादबद्धं बहु भाषसे।

अनुवाद (हिन्दी)

तुम तो दुष्ट स्वभावके मूर्ख मनुष्य हो। बड़े-बड़े युद्धोंमें कैसे शत्रुका सामना किया जाता है, इस बातसे अनभिज्ञ हो। भयसे तुम्हारा हृदय विदीर्ण-सा हो रहा है; अतः डरके मारे बहुत-सी असंगत बातें कह रहे हो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्तौषि तौ तु केनापि हेतुना त्वं कुदेशज ॥ १६ ॥
तौ हत्वा समरे हन्ता त्वामद्य सहबान्धवम्।
पापदेशज दुर्बुद्धे क्षुद्र क्षत्रियपांसन ॥ १७ ॥

मूलम्

संस्तौषि तौ तु केनापि हेतुना त्वं कुदेशज ॥ १६ ॥
तौ हत्वा समरे हन्ता त्वामद्य सहबान्धवम्।
पापदेशज दुर्बुद्धे क्षुद्र क्षत्रियपांसन ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुष्ट और पापी देशमें उत्पन्न हुए नीच क्षत्रिय-कुलांगार दुर्बुद्धि शल्य! तुम उन दोनोंकी किसी स्वार्थसिद्धिके लिये स्तुति करते हो; परंतु आज समरांगणमें उन दोनोंको मारकर बन्धु-बान्धवोंसहित तुम्हारा भी वध कर डालूँगा॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुहृद् भूत्वा रिपुः किं मां कृष्णाभ्यां भीषयिष्यसि।
तौ वा मामद्य हन्तारौ हनिष्ये वापि तावहम् ॥ १८ ॥

मूलम्

सुहृद् भूत्वा रिपुः किं मां कृष्णाभ्यां भीषयिष्यसि।
तौ वा मामद्य हन्तारौ हनिष्ये वापि तावहम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम मेरे शत्रु होकर भी सुहृद् बनकर मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुनसे क्यों डरा रहे हो। आज या तो वे ही दोनों मुझे मार डालेंगे या मैं ही उन दोनोंका संहार कर दूँगा॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं बिभेमि कृष्णाभ्यां विजानन्नात्मनो बलम्।
वासुदेवसहस्रं वा फाल्गुनानां शतानि वा ॥ १९ ॥
अहमेको हनिष्यामि जोषमास्स्व कुदेशज।

मूलम्

नाहं बिभेमि कृष्णाभ्यां विजानन्नात्मनो बलम्।
वासुदेवसहस्रं वा फाल्गुनानां शतानि वा ॥ १९ ॥
अहमेको हनिष्यामि जोषमास्स्व कुदेशज।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपने बलको अच्छी तरह जानता हूँ; इसलिये श्रीकृष्ण और अर्जुनसे कदापि नहीं डरता हूँ। नीच देशमें उत्पन्न शल्य! तुम चुप रहो। मैं अकेला ही सहस्रों श्रीकृष्णों और सैकड़ों अर्जुनोंको मार डालूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च प्रायः क्रीडागता जनाः ॥ २० ॥
या गाथाः सम्प्रगायन्ति कुर्वन्तोऽध्ययनं यथा।
ता गाथाः शृणु मे शल्य मद्रकेषु दुरात्मसु ॥ २१ ॥
ब्राह्मणैः कथिताः पूर्वं यथावद् राजसंनिधौ।
श्रुत्वा चैकमना मूढ क्षम वा ब्रूहि चोत्तरम् ॥ २२ ॥

मूलम्

स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च प्रायः क्रीडागता जनाः ॥ २० ॥
या गाथाः सम्प्रगायन्ति कुर्वन्तोऽध्ययनं यथा।
ता गाथाः शृणु मे शल्य मद्रकेषु दुरात्मसु ॥ २१ ॥
ब्राह्मणैः कथिताः पूर्वं यथावद् राजसंनिधौ।
श्रुत्वा चैकमना मूढ क्षम वा ब्रूहि चोत्तरम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूर्ख शल्य! स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े लोग, खेलकूदमें लगे हुए मनुष्य और स्वाध्याय करनेवाले पुरुष भी दुरात्मा मद्रनिवासियोंके विषयमें जिन गाथाओंको गाया करते हैं तथा ब्राह्मणोंने पहले राजाके समीप आकर यथावत् रूपसे जिनका वर्णन किया है, उन गाथाओंको एकाग्रचित्त होकर मुझसे सुनो और सुनकर चुपचाप सह लो या जवाब दो॥२०—२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मित्रध्रुङ्‌मद्रको नित्यं यो नो द्वेष्टि स मद्रकः।
मद्रके संगतं नास्ति क्षुद्रवाक्ये नराधमे ॥ २३ ॥

मूलम्

मित्रध्रुङ्‌मद्रको नित्यं यो नो द्वेष्टि स मद्रकः।
मद्रके संगतं नास्ति क्षुद्रवाक्ये नराधमे ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मद्रदेशका अधम मनुष्य सदा मित्रद्रोही होता है। जो हमलोगोंसे अकारण द्वेष करता है, वह मद्रदेशका ही अधम मनुष्य है। क्षुद्रतापूर्ण वचन बोलनेवाले मद्रदेशके निवासीमें किसीके प्रति सौहार्दकी भावना नहीं होती॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुरात्मा मद्रको नित्यं नित्यमानृतिकोऽनृजुः।
यावदन्त्यं हि दौरात्म्यं मद्रकेष्विति नः श्रुतम् ॥ २४ ॥

मूलम्

दुरात्मा मद्रको नित्यं नित्यमानृतिकोऽनृजुः।
यावदन्त्यं हि दौरात्म्यं मद्रकेष्विति नः श्रुतम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मद्रनिवासी मनुष्य सदा ही दुरात्मा, सर्वदा झूठ बोलनेवाला और सदा ही कुटिल होता है। हमने सुन रखा है कि मद्रनिवासियोंमें मरते दमतक दुष्टता बनी रहती है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता पुत्रश्च माता च श्वश्रूश्वशुरमातुलाः।
जामाता दुहिता भ्राता नप्तान्ये ते च बान्धवाः ॥ २५ ॥
वयस्याभ्यागताश्चान्ये दासीदासं च संगतम्।
पुम्भिर्विमिश्रा नार्यश्च ज्ञाताज्ञाताः स्वयेच्छया ॥ २६ ॥
येषां गृहेष्वशिष्टानां सक्तुमत्स्याशिनां तथा।
पीत्वा सीधु सगोमांसं क्रन्दन्ति च हसन्ति च ॥ २७ ॥
गायन्ति चाप्यबद्धानि प्रवर्तन्ते च कामतः।
कामप्रलापिनोऽन्योन्यं तेषु धर्मः कथं भवेत् ॥ २८ ॥
मद्रकेष्ववलिप्तेषु प्रख्याताशुभकर्मसु ।

मूलम्

पिता पुत्रश्च माता च श्वश्रूश्वशुरमातुलाः।
जामाता दुहिता भ्राता नप्तान्ये ते च बान्धवाः ॥ २५ ॥
वयस्याभ्यागताश्चान्ये दासीदासं च संगतम्।
पुम्भिर्विमिश्रा नार्यश्च ज्ञाताज्ञाताः स्वयेच्छया ॥ २६ ॥
येषां गृहेष्वशिष्टानां सक्तुमत्स्याशिनां तथा।
पीत्वा सीधु सगोमांसं क्रन्दन्ति च हसन्ति च ॥ २७ ॥
गायन्ति चाप्यबद्धानि प्रवर्तन्ते च कामतः।
कामप्रलापिनोऽन्योन्यं तेषु धर्मः कथं भवेत् ॥ २८ ॥
मद्रकेष्ववलिप्तेषु प्रख्याताशुभकर्मसु ।

अनुवाद (हिन्दी)

सत्तू और मांस खानेवाले जिन अशिष्ट मद्रनिवासियोंके घरोंमें पिता, पुत्र, माता, सास, ससुर, मामा, बेटी, दामाद, भाई, नाती, पोते, अन्यान्य बन्धु-बान्धव, समवयस्क मित्र, दूसरे अभ्यागत अतिथि और दास-दासी—ये सभी अपनी इच्छाके अनुसार एक-दूसरेसे मिलते हैं। परिचित-अपरिचित सभी स्त्रियाँ सभी पुरुषोंसे सम्पर्क स्थापित कर लेती हैं और गोमांससहित मदिरा पीकर रोती, हँसती, गाती, असंगत बातें करती तथा कामभावसे किये जानेवाले कार्योंमें प्रवृत्त होती हैं। जिनके यहाँ सभी स्त्री-पुरुष एक-दूसरेसे कामसम्बन्धी प्रलाप करते हैं, जिनके पापकर्म सर्वत्र विख्यात हैं, उन घमंडी मद्रनिवासियोंमें धर्म कैसे रह सकता है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापि वैरं न सौहार्दं मद्रकेण समाचरेत् ॥ २९ ॥
मद्रके संगतं नास्ति मद्रको हि सदामलः।

मूलम्

नापि वैरं न सौहार्दं मद्रकेण समाचरेत् ॥ २९ ॥
मद्रके संगतं नास्ति मद्रको हि सदामलः।

अनुवाद (हिन्दी)

मद्रनिवासीके साथ न तो वैर करे और न मित्रता ही स्थापित करे, क्योंकि उसमें सौहार्दकी भावना नहीं होती। मद्रनिवासी सदा पापमें ही डूबा रहता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्रकेषु च संसृष्टं शौचं गान्धारकेषु च ॥ ३० ॥
राजयाजकयाज्ये च नष्टं दत्तं हविर्भवेत्।
शूद्रसंस्कारको विप्रो यथा याति पराभवम् ॥ ३१ ॥
यथा ब्रह्मद्विषो नित्यं गच्छन्तीह पराभवम्।
यथैव संगतं कृत्वा नरः पतति मद्रकैः ॥ ३२ ॥
मद्रके संगतं नास्ति हतं वृश्चिक ते विषम्।
आथर्वणेन मन्त्रेण यथा शान्तिः कृता मया ॥ ३३ ॥

मूलम्

मद्रकेषु च संसृष्टं शौचं गान्धारकेषु च ॥ ३० ॥
राजयाजकयाज्ये च नष्टं दत्तं हविर्भवेत्।
शूद्रसंस्कारको विप्रो यथा याति पराभवम् ॥ ३१ ॥
यथा ब्रह्मद्विषो नित्यं गच्छन्तीह पराभवम्।
यथैव संगतं कृत्वा नरः पतति मद्रकैः ॥ ३२ ॥
मद्रके संगतं नास्ति हतं वृश्चिक ते विषम्।
आथर्वणेन मन्त्रेण यथा शान्तिः कृता मया ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ओ बिच्छू! जैसे मद्रनिवासियोंके पास रखी हुई धरोहर और गान्धारनिवासियोंमें शौचाचार नष्ट हो जाते हैं, जहाँ क्षत्रिय पुरोहित हो उस यजमानके यज्ञमें दिया हुआ हविष्य जैसे नष्ट हो जाता है, जैसे शूद्रोंका संस्कार करानेवाला ब्राह्मण पराभवको प्राप्त होता है, जैसे ब्रह्मद्रोही मनुष्य इस जगत्‌में सदा ही तिरस्कृत होते रहते हैं, जैसे मद्रनिवासियोंके साथ मित्रता करके मनुष्य पतित हो जाता है तथा जिस प्रकार मद्रनिवासीमें सौहार्दकी भावना सर्वथा नष्ट हो गयी है, उसी प्रकार तेरा यह विष भी नष्ट हो गया। मैंने अथर्ववेदके मन्त्रसे तेरे विषको शान्त कर दिया’॥३०—३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति वृश्चिकदष्टस्य विषवेगहतस्य च।
कुर्वन्ति भेषजं प्राज्ञाः सत्यं तच्चापि दृश्यते ॥ ३४ ॥

मूलम्

इति वृश्चिकदष्टस्य विषवेगहतस्य च।
कुर्वन्ति भेषजं प्राज्ञाः सत्यं तच्चापि दृश्यते ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये उपर्युक्त बातें कहकर जो बुद्धिमान् विषवैद्य बिच्छूके काटनेपर उसके विषके वेगसे पीड़ित हुए मनुष्यकी चिकित्सा या औषध करते हैं, उनका वह कथन सत्य ही दिखायी देता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विद्वञ्जोषमास्स्व शृणु चात्रोत्तरं वचः।
वासांस्युत्सृज्य नृत्यन्ति स्त्रियो या मद्यमोहिताः ॥ ३५ ॥
मैथुनेऽसंयताश्चापि यथाकामवराश्च ताः ।
तासां पुत्रः कथं धर्मं मद्रको वक्तुमर्हति ॥ ३६ ॥

मूलम्

एवं विद्वञ्जोषमास्स्व शृणु चात्रोत्तरं वचः।
वासांस्युत्सृज्य नृत्यन्ति स्त्रियो या मद्यमोहिताः ॥ ३५ ॥
मैथुनेऽसंयताश्चापि यथाकामवराश्च ताः ।
तासां पुत्रः कथं धर्मं मद्रको वक्तुमर्हति ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् राजा शल्य! ऐसा समझकर तुम चुपचाप बैठे रहो और इसके बाद जो बात मैं कह रहा हूँ, उसे भी सुन लो। जो स्त्रियाँ मद्यसे मोहित हो कपड़े उतारकर नाचती हैं, मैथुनमें संयम एवं मर्यादाको छोड़कर प्रवृत्त होती हैं और अपनी इच्छाके अनुसार जिस किसी पुरुषका वरण कर लेती हैं, उनका पुत्र मद्रनिवासी नराधम दूसरोंको धर्मका उपदेश कैसे कर सकता है?॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यास्तिष्ठन्त्यः प्रमेहन्ति यथैवोष्ट्रदशेरकाः ।
तासां विभ्रष्टधर्माणां निर्लज्जानां ततस्ततः ॥ ३७ ॥
त्वं पुत्रस्तादृशीनां हि धर्मं वक्तुमिहेच्छसि।

मूलम्

यास्तिष्ठन्त्यः प्रमेहन्ति यथैवोष्ट्रदशेरकाः ।
तासां विभ्रष्टधर्माणां निर्लज्जानां ततस्ततः ॥ ३७ ॥
त्वं पुत्रस्तादृशीनां हि धर्मं वक्तुमिहेच्छसि।

अनुवाद (हिन्दी)

जो ऊँटों और गदहोंके समान खड़ी-खड़ी मूतती हैं तथा जो धर्मसे भ्रष्ट होकर लज्जाको तिलांजलि दे चुकी हैं, वैसी मद्रनिवासिनी स्त्रियोंके पुत्र होकर तुम मुझे यहाँ धर्मका उपदेश करना चाहते हो॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवीरकं याच्यमाना मद्रिका कर्षति स्फिचौ ॥ ३८ ॥
अदातुकामा वचनमिदं वदति दारुणम्।
मा मां सुवीरकं कश्चिद् याचतां दयितं मम ॥ ३९ ॥
पुत्रं दद्यां पतिं दद्यां न तु दद्यां सुवीरकम्।

मूलम्

सुवीरकं याच्यमाना मद्रिका कर्षति स्फिचौ ॥ ३८ ॥
अदातुकामा वचनमिदं वदति दारुणम्।
मा मां सुवीरकं कश्चिद् याचतां दयितं मम ॥ ३९ ॥
पुत्रं दद्यां पतिं दद्यां न तु दद्यां सुवीरकम्।

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई पुरुष मद्रदेशकी किसी स्त्रीसे कांजी माँगता है तो वह उसकी कमर पकड़कर खींच ले जाती है और कांजी न देनेकी इच्छा रखकर यह कठोर वचन बोलती है—‘कोई मुझसे कांजी न माँगे, क्योंकि वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। मैं अपने पुत्रको दे दूँगी, पतिको भी दे दूँगी; परंतु कांजी नहीं दे सकती’॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौर्यो बृहत्यो निर्ह्रीका मद्रिकाः कम्बलावृताः ॥ ४० ॥
घस्मरा नष्टशौचाश्च प्राय इत्यनुशुश्रुम।

मूलम्

गौर्यो बृहत्यो निर्ह्रीका मद्रिकाः कम्बलावृताः ॥ ४० ॥
घस्मरा नष्टशौचाश्च प्राय इत्यनुशुश्रुम।

अनुवाद (हिन्दी)

मद्रदेशकी स्त्रियाँ प्रायः गोरी, लंबे कदवाली, निर्लज्ज, कम्बलसे शरीरको ढकनेवाली, बहुत खानेवाली और अत्यन्त अपवित्र होती हैं, ऐसा हमने सुन रखा है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमादि मयान्यैर्वा शक्यं वक्तुं भवेद् बहु ॥ ४१ ॥
आकेशाग्रान्नखाग्राच्च वक्तव्येषु कुकर्मसु ।

मूलम्

एवमादि मयान्यैर्वा शक्यं वक्तुं भवेद् बहु ॥ ४१ ॥
आकेशाग्रान्नखाग्राच्च वक्तव्येषु कुकर्मसु ।

अनुवाद (हिन्दी)

मद्रनिवासी सिरकी चोटीसे लेकर पैरोंके नखाग्रभागतक निन्दाके ही योग्य हैं। वे सब-के-सब कुकर्ममें लगे रहते हैं। उनके विषयमें हम तथा दूसरे लोग भी ऐसी बहुत-सी बातें कह सकते हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्रकाः सिन्धुसौवीराः धर्मं विद्युः कथं त्विह ॥ ४२ ॥
पापदेशोद्भवा म्लेच्छा धर्माणामविचक्षणाः ।

मूलम्

मद्रकाः सिन्धुसौवीराः धर्मं विद्युः कथं त्विह ॥ ४२ ॥
पापदेशोद्भवा म्लेच्छा धर्माणामविचक्षणाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

मद्र तथा सिन्धु-सौवीर देशके लोग पापपूर्ण देशमें उत्पन्न हुए म्लेच्छ हैं। उन्हें धर्म-कर्मका पता नहीं है। वे इस जगत्‌में धर्मकी बातें कैसे समझ सकते हैं?॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष मुख्यतमो धर्मः क्षत्रियस्येति नः श्रुतम् ॥ ४३ ॥
यदाजौ निहतः शेते सद्भिः समभिपूजितः।

मूलम्

एष मुख्यतमो धर्मः क्षत्रियस्येति नः श्रुतम् ॥ ४३ ॥
यदाजौ निहतः शेते सद्भिः समभिपूजितः।

अनुवाद (हिन्दी)

हमने सुना है कि क्षत्रियके लिये सबसे श्रेष्ठ धर्म यह है कि वह युद्धमें मारा जाकर रणभूमिमें सो जाय और सत्पुरुषोंके आदरका पात्र बने॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयुधानां साम्पराये यन्मुच्येयमहं ततः ॥ ४४ ॥
ममैष प्रथमः कल्पो निधने स्वर्गमिच्छतः।

मूलम्

आयुधानां साम्पराये यन्मुच्येयमहं ततः ॥ ४४ ॥
ममैष प्रथमः कल्पो निधने स्वर्गमिच्छतः।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा किये जानेवाले युद्धमें अपने प्राणोंका परित्याग करूँ, यही मेरे लिये प्रथम श्रेणीका कार्य है; क्योंकि मैं मृत्युके पश्चात् स्वर्ग पानेकी अभिलाषा रखता हूँ॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं प्रियः सखा चास्मि धार्तराष्ट्रस्य धीमतः ॥ ४५ ॥
तदर्थे हि मम प्राणा यच्च मे विद्यते वसु।
व्यक्तं त्वमप्युपहितः पाण्डवैः पापदेशज ॥ ४६ ॥
यथा चामित्रवत् सर्वं त्वमस्मासु प्रवर्तसे।

मूलम्

सोऽयं प्रियः सखा चास्मि धार्तराष्ट्रस्य धीमतः ॥ ४५ ॥
तदर्थे हि मम प्राणा यच्च मे विद्यते वसु।
व्यक्तं त्वमप्युपहितः पाण्डवैः पापदेशज ॥ ४६ ॥
यथा चामित्रवत् सर्वं त्वमस्मासु प्रवर्तसे।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं बुद्धिमान् दुर्योधनका प्रिय मित्र हूँ। अतः मेरे पास जो कुछ धन-वैभव है, वह और मेरे प्राण भी उसीके लिये हैं। परंतु पापदेशमें उत्पन्न हुए शल्य! यह स्पष्ट जान पड़ता है कि पाण्डवोंने तुम्हें हमारा भेद लेनेके लिये ही यहाँ रख छोड़ा है; क्योंकि तुम हमारे साथ शत्रुके समान ही सारा बर्ताव कर रहे हो॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं न खलु शक्योऽहं त्वद्विधानां शतैरपि ॥ ४७ ॥
संग्रामाद् विमुखः कर्तुं धर्मज्ञ इव नास्तिकैः।

मूलम्

कामं न खलु शक्योऽहं त्वद्विधानां शतैरपि ॥ ४७ ॥
संग्रामाद् विमुखः कर्तुं धर्मज्ञ इव नास्तिकैः।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सैकड़ों नास्तिक मिलकर भी धर्मज्ञ पुरुषको धर्मसे विचलित नहीं कर सकते, उसी प्रकार तुम्हारे-जैसे सैकड़ों मनुष्योंके द्वारा भी मुझे संग्रामसे विमुख नहीं किया जा सकता, यह निश्चय है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारङ्ग इव घर्मार्तः कामं विलप शुष्य च ॥ ४८ ॥
नाहं भीषयितुं शक्यः क्षत्रवृत्ते व्यवस्थितः।

मूलम्

सारङ्ग इव घर्मार्तः कामं विलप शुष्य च ॥ ४८ ॥
नाहं भीषयितुं शक्यः क्षत्रवृत्ते व्यवस्थितः।

अनुवाद (हिन्दी)

तुम धूपसे संतप्त हुए हरिणके समान चाहे विलाप करो चाहे सूख जाओ। क्षत्रियधर्ममें स्थित हुए मुझ कर्णको तुम डरा नहीं सकते॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनुत्यजां नृसिंहानामाहवेष्वनिवर्तिनाम् ॥ ४९ ॥
या गतिर्गुरुणा प्रोक्ता पुरा रामेण तां स्मरे।

मूलम्

तनुत्यजां नृसिंहानामाहवेष्वनिवर्तिनाम् ॥ ४९ ॥
या गतिर्गुरुणा प्रोक्ता पुरा रामेण तां स्मरे।

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें गुरुवर परशुरामजीने युद्धमें पीठ न दिखानेवाले एवं शत्रुका सामना करते हुए प्राण विसर्जन कर देनेवाले पुरुषसिंहोंके लिये जो उत्तम गति बतायी है, उसे मैं सदा याद रखता हूँ॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां त्राणार्थमुद्यन्तं वधार्थं द्विषतामपि ॥ ५० ॥
विद्धि मामास्थितं वृत्तं पौरूरवसमुत्तमम्।

मूलम्

तेषां त्राणार्थमुद्यन्तं वधार्थं द्विषतामपि ॥ ५० ॥
विद्धि मामास्थितं वृत्तं पौरूरवसमुत्तमम्।

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य! तुम यह जान लो कि मैं धृतराष्ट्रके पुत्रोंकी रक्षाके लिये वैरियोंका वध करनेके लिये उद्यत हो राजा पुरूरवाके उत्तम1 चरित्रका आश्रय लेकर युद्धभूमिमें डटा हुआ हूँ॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तद् भूतं प्रपश्यामि त्रिषु लोकेषु मद्रप ॥ ५१ ॥
यो मामस्मादभिप्रायाद् वारयेदिति मे मतिः।

मूलम्

न तद् भूतं प्रपश्यामि त्रिषु लोकेषु मद्रप ॥ ५१ ॥
यो मामस्मादभिप्रायाद् वारयेदिति मे मतिः।

अनुवाद (हिन्दी)

मद्रराज! मैं तीनों लोकोंमें किसी ऐसे प्राणीको नहीं देखता, जो मुझे मेरे इस संकल्पसे विचलित कर दे, यह मेरा दृढ़ निश्चय है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विद्वञ्जोषमास्स्व त्रासात् किं बहु भाषसे ॥ ५२ ॥
मा त्वां हत्वा प्रदास्यामि क्रव्याद्भ्यो मद्रकाधम।

मूलम्

एवं विद्वञ्जोषमास्स्व त्रासात् किं बहु भाषसे ॥ ५२ ॥
मा त्वां हत्वा प्रदास्यामि क्रव्याद्भ्यो मद्रकाधम।

अनुवाद (हिन्दी)

समझदार शल्य! ऐसा जानकर चुपचाप बैठे रहो। डरके मारे बहुत बड़बड़ाते क्यों हो। मद्रदेशके नराधम! यदि तुम चुप न हुए तो तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करके मांसभक्षी प्राणियोंको बाँट दूँगा॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मित्रप्रतीक्षया शल्य धृतराष्ट्रस्य चोभयोः ॥ ५३ ॥
अपवादतितिक्षाभिस्त्रिभिरेतैर्हि जीवसि ।

मूलम्

मित्रप्रतीक्षया शल्य धृतराष्ट्रस्य चोभयोः ॥ ५३ ॥
अपवादतितिक्षाभिस्त्रिभिरेतैर्हि जीवसि ।

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य! एक तो मैं मित्र दुर्योधन और राजा धृतराष्ट्र दोनोंके कार्यकी ओर दृष्टि रखता हूँ, दूसरे अपनी निन्दासे डरता हूँ और तीसरे मैंने क्षमा करनेका वचन दिया है—इन्हीं तीन कारणोंसे तुम अबतक जीवित हो॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्चेदीदृशं वाक्यं मद्रराज वदिष्यसि ॥ ५४ ॥
शिरस्ते पातयिष्यामि गदया वज्रकल्पया।

मूलम्

पुनश्चेदीदृशं वाक्यं मद्रराज वदिष्यसि ॥ ५४ ॥
शिरस्ते पातयिष्यामि गदया वज्रकल्पया।

अनुवाद (हिन्दी)

मद्रराज! यदि फिर ऐसी बात बोलोगे तो मैं अपनी वज्र-सरीखी गदासे तुम्हारा मस्तक चूर-चूर करके गिरा दूँगा॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोतारस्त्विदमद्येह द्रष्टारो वा कुदेशज ॥ ५५ ॥
कर्णं वा जघ्नतुः कृष्णौ कर्णो वा निजघान तौ।

मूलम्

श्रोतारस्त्विदमद्येह द्रष्टारो वा कुदेशज ॥ ५५ ॥
कर्णं वा जघ्नतुः कृष्णौ कर्णो वा निजघान तौ।

अनुवाद (हिन्दी)

नीच देशमें उत्पन्न शल्य! आज यहाँ सुननेवाले सुनेंगे और देखनेवाले देख लेंगे कि ‘श्रीकृष्ण और अर्जुनने कर्णको मारा या कर्णने ही उन दोनोंको मार गिराया’॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा तु राधेयः पुनरेव विशाम्पते।
अब्रवीन्मद्रराजानं याहि याहीत्यसम्भ्रमम् ॥ ५६ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा तु राधेयः पुनरेव विशाम्पते।
अब्रवीन्मद्रराजानं याहि याहीत्यसम्भ्रमम् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! ऐसा कहकर राधापुत्र कर्णने बिना किसी घबराहटके पुनः मद्रराज शल्यसे कहा—‘चलो, चलो’॥५६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कर्णमद्राधिपसंवादे चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें कर्ण और शल्यका संवादविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥४०॥


  1. युद्धसे पीछे न हटना ही राजा पुरूरवाका उत्तम चरित्र है। ↩︎