०३९

भागसूचना

एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शल्यका कर्णके प्रति अतन्त आक्षेपपूर्ण वचन कहना

मूलम् (वचनम्)

शल्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा सूतपुत्र दानेन सौवर्णं हस्तिषड्गवम्।
प्रयच्छ पुरुषायाद्य द्रक्ष्यसि त्वं धनंजयम् ॥ १ ॥

मूलम्

मा सूतपुत्र दानेन सौवर्णं हस्तिषड्गवम्।
प्रयच्छ पुरुषायाद्य द्रक्ष्यसि त्वं धनंजयम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शल्य बोले— सूतपुत्र! तुम किसी पुरुषको हाथीके समान हृष्ट-पुष्ट छः बैलोंसे जुता हुआ सोनेका रथ न दो। आज अवश्य ही अर्जुनको देखोगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाल्यादिह त्वं त्यजसि वसु वैश्रवणो यथा।
अयत्नेनैव राधेय द्रष्टास्यद्य धनंजयम् ॥ २ ॥

मूलम्

बाल्यादिह त्वं त्यजसि वसु वैश्रवणो यथा।
अयत्नेनैव राधेय द्रष्टास्यद्य धनंजयम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राधापुत्र! तुम मूर्खतासे ही यहाँ कुबेरके समान धन लुटा रहे हो, आज अर्जुनको तो तुम बिना यत्न किये ही देख लोगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परान् सृजसि यद् वित्तं किंचित्त्वं बहु मूढवत्।
अपात्रदाने ये दोषास्तान् मोहान्नावबुध्यसे ॥ ३ ॥

मूलम्

परान् सृजसि यद् वित्तं किंचित्त्वं बहु मूढवत्।
अपात्रदाने ये दोषास्तान् मोहान्नावबुध्यसे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूढ़ पुरुषोंके समान तुम अपना बहुत कुछ धन जो दूसरोंको दे रहे हो, इससे जान पड़ता है कि अपात्रको धनका दान देनेसे जो दोष पैदा होते हैं, उन्हें मोहवश तुम नहीं समझ रहे हो॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् त्वं प्रेरयसे वित्तं बहु तेन खलु त्वया।
शक्यं बहुविधैर्यज्ञैर्यष्टुं सूत यजस्व तैः ॥ ४ ॥

मूलम्

यत् त्वं प्रेरयसे वित्तं बहु तेन खलु त्वया।
शक्यं बहुविधैर्यज्ञैर्यष्टुं सूत यजस्व तैः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूत! तुम जो बहुत धन देनेकी यहाँ घोषणा कर रहे हो, निश्चय ही उसके द्वारा नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान कर सकते हो; अतः तुम उन धन-वैभवोंद्वारा यज्ञोंका ही अनुष्ठान करो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च प्रार्थयसे हन्तुं कृष्णौ मोहाद् वृथैव तत्।
न हि शुश्रुम सम्मर्दे क्रोष्ट्रा सिंहौ निपातितौ ॥ ५ ॥

मूलम्

यच्च प्रार्थयसे हन्तुं कृष्णौ मोहाद् वृथैव तत्।
न हि शुश्रुम सम्मर्दे क्रोष्ट्रा सिंहौ निपातितौ ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जो तुम मोहवश श्रीकृष्ण तथा अर्जुनको मारना चाहते हो, वह मनसूबा तो व्यर्थ ही है; क्योंकि हमने यह बात कभी नहीं सुनी है कि किसी गीदड़ने युद्धमें दो सिंहोंको मार गिराया हो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रार्थितं प्रार्थयसे सुहृदो न हि सन्ति ते।
ये त्वां न वारयन्त्याशु प्रपतन्तं हुताशने ॥ ६ ॥

मूलम्

अप्रार्थितं प्रार्थयसे सुहृदो न हि सन्ति ते।
ये त्वां न वारयन्त्याशु प्रपतन्तं हुताशने ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम ऐसी चीज चाहते हो, जिसकी अबतक किसीने इच्छा नहीं की थी। जान पड़ता है तुम्हारे कोई सुहृद् नहीं हैं, जो शीघ्र ही आकर तुम्हें चलती आगमें गिरनेसे रोक नहीं रहे हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्याकार्यं न जानीषे कालपक्वोऽस्यसंशयम्।
बह्वबद्धमकर्णीयं को हि ब्रूयाज्जिजीविषुः ॥ ७ ॥

मूलम्

कार्याकार्यं न जानीषे कालपक्वोऽस्यसंशयम्।
बह्वबद्धमकर्णीयं को हि ब्रूयाज्जिजीविषुः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हें कर्तव्य और अकर्तव्यका कुछ भी ज्ञान नहीं है। निःसंदेह तुम्हें कालने पका दिया है। (अतः तुम पके हुए फलके समान गिरनेवाले ही हो); अन्यथा जो जीवित रहना चाहता है, ऐसा कौन पुरुष ऐसी बहुत-सी न सुननेयोग्य ऊटपटांग बातें कह सकता है?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्रतरणं दोर्भ्यां कण्ठे बद्ध्वा यथा शिलाम्।
गिर्यग्राद् वा निपतनं तादृक् तव चिकीर्षितम् ॥ ८ ॥

मूलम्

समुद्रतरणं दोर्भ्यां कण्ठे बद्ध्वा यथा शिलाम्।
गिर्यग्राद् वा निपतनं तादृक् तव चिकीर्षितम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई गलेमें पत्थर बाँधकर दोनों हाथोंसे समुद्र पार करना चाहे अथवा पहाड़की चोटीसे पृथ्वीपर कूदनेकी इच्छा करे, ऐसी ही तुम्हारी सारी चेष्टा और अभिलाषा है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहितः सर्वयोधैस्त्वं व्यूढानीकैः सुरक्षितः।
धनंजयेन युध्यस्व श्रेयश्चेत् प्राप्तुमिच्छसि ॥ ९ ॥

मूलम्

सहितः सर्वयोधैस्त्वं व्यूढानीकैः सुरक्षितः।
धनंजयेन युध्यस्व श्रेयश्चेत् प्राप्तुमिच्छसि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तुम कल्याण प्राप्त करना चाहते हो तो व्यूहरचनापूर्वक खड़े हुए समस्त सैनिकोंके साथ सुरक्षित रहकर अर्जुनसे युद्ध करो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हितार्थं धार्तराष्ट्रस्य ब्रवीमि त्वां न हिंसया।
श्रद्धस्वैवं मया प्रोक्तं यदि तेऽस्ति जिजीविषा ॥ १० ॥

मूलम्

हितार्थं धार्तराष्ट्रस्य ब्रवीमि त्वां न हिंसया।
श्रद्धस्वैवं मया प्रोक्तं यदि तेऽस्ति जिजीविषा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनके हितके लिये ही मैं ऐसा कह रहा हूँ, हिंसाभावसे नहीं। यदि तुम्हें जीनेकी इच्छा है तो मेरे इस कथनपर विश्वास करो॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वबाहुवीर्यमाश्रित्य प्रार्थयाम्यर्जुनं रणे ।
त्वं तु मित्रमुखः शत्रुर्मां भीषयितुमिच्छसि ॥ ११ ॥

मूलम्

स्वबाहुवीर्यमाश्रित्य प्रार्थयाम्यर्जुनं रणे ।
त्वं तु मित्रमुखः शत्रुर्मां भीषयितुमिच्छसि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण बोला— शल्य! मैं अपने बाहुबलका भरोसा करके रणक्षेत्रमें अर्जुनको पाना चाहता हूँ; परंतु तुम तो मुँहसे मित्र बने हुए वास्तवमें शत्रु हो, जो मुझे यहाँ डराना चाहते हो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मामस्मादभिप्रायात् कश्चिदद्य निवर्तयेत्।
अपीन्द्रो वज्रमुद्यम्य किमु मर्त्यः कथंचन ॥ १२ ॥

मूलम्

न मामस्मादभिप्रायात् कश्चिदद्य निवर्तयेत्।
अपीन्द्रो वज्रमुद्यम्य किमु मर्त्यः कथंचन ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु मुझे इस अभिप्रायसे आज कोई भी पीछे नहीं लौटा सकता। वज्र उठाये हुए इन्द्र भी मुझे किसी तरह इस निश्चयसे डिगा नहीं सकते, फिर मनुष्यकी तो बात ही क्या है?॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति कर्णस्य वाक्यान्ते शल्यः प्राहोत्तरं वचः।
चुकोपयिषुरत्यर्थं कर्णं मद्रेश्वरः पुनः ॥ १३ ॥

मूलम्

इति कर्णस्य वाक्यान्ते शल्यः प्राहोत्तरं वचः।
चुकोपयिषुरत्यर्थं कर्णं मद्रेश्वरः पुनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! कर्णकी यह बात समाप्त होते ही मद्रराज शल्य उसे अत्यन्त कुपित करनेकी इच्छासे पुनः इस प्रकार उत्तर देने लगे—॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा वै त्वां फाल्गुनवेगयुक्ता
ज्याचोदिता हस्तवता विसृष्टाः ।
अन्वेतारः कङ्कपत्राः सिताग्रा-
स्तदा तप्स्यस्यर्जुनस्यानुयोगात् ॥ १४ ॥

मूलम्

यदा वै त्वां फाल्गुनवेगयुक्ता
ज्याचोदिता हस्तवता विसृष्टाः ।
अन्वेतारः कङ्कपत्राः सिताग्रा-
स्तदा तप्स्यस्यर्जुनस्यानुयोगात् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! अर्जुनके वेगसे युक्त हो उनकी प्रत्यंचासे प्रेरित और सुशिक्षित हाथोंसे छोड़े हुए तीखी धारवाले कंकपत्रविभूषित बाण जब तुम्हारे शरीरमें घुसने लगेंगे, तब जो तुम अर्जुनको पूछते फिरते हो, इसके लिये पश्चात्ताप करोगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा दिव्यं धनुरादाय पार्थः
प्रतापयन् पृतनां सव्यसाची ।
त्वां मर्दयिष्यन्निशितैः पृषत्कै-
स्तदा पश्चात् तप्स्यसे सूतपुत्र ॥ १५ ॥

मूलम्

यदा दिव्यं धनुरादाय पार्थः
प्रतापयन् पृतनां सव्यसाची ।
त्वां मर्दयिष्यन्निशितैः पृषत्कै-
स्तदा पश्चात् तप्स्यसे सूतपुत्र ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूतपुत्र! जब सव्यसाची कुन्तीकुमार अर्जुन अपने हाथमें दिव्य धनुष लेकर शत्रुसेनाको तपाते हुए पैने बाणोंद्वारा तुम्हें रौंदने लगेंगे, तब तुम्हें अपने कियेपर पछतावा होगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालश्चन्द्रं मातुरङ्के शयानो
यथा कश्चित् प्रार्थयतेऽपहर्तुम् ।
तद्वन्मोहाद् द्योतमानं रथस्थं
सम्प्रार्थयस्यर्जुनं जेतुमद्य ॥ १६ ॥

मूलम्

बालश्चन्द्रं मातुरङ्के शयानो
यथा कश्चित् प्रार्थयतेऽपहर्तुम् ।
तद्वन्मोहाद् द्योतमानं रथस्थं
सम्प्रार्थयस्यर्जुनं जेतुमद्य ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे अपनी माँकी गोदमें सोया हुआ कोई बालक चन्द्रमाको पकड़ लाना चाहता हो, उसी प्रकार तुम भी रथपर बैठे हुए तेजस्वी अर्जुनको आज मोहवश परास्त करना चाहते हो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिशूलमाश्रित्य सुतीक्ष्णधारं
सर्वाणि गात्राणि विघर्षसि त्वम्।
सुतीक्ष्णधारोपमकर्मणा त्वं
युयुत्ससे योऽर्जुनेनाद्य कर्ण ॥ १७ ॥

मूलम्

त्रिशूलमाश्रित्य सुतीक्ष्णधारं
सर्वाणि गात्राणि विघर्षसि त्वम्।
सुतीक्ष्णधारोपमकर्मणा त्वं
युयुत्ससे योऽर्जुनेनाद्य कर्ण ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! अर्जुनका पराक्रम अत्यन्त तीखी धारवाले त्रिशूलके समान है। उन्हीं अर्जुनके साथ आज जो तुम युद्ध करना चाहते हो, वह दूसरे शब्दोंमें यों है कि तुम पैनी धारवाले त्रिशूलको लेकर उसीसे अपने सारे अंगोंको रगड़ना या खुजलाना चाहते हो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रुद्धं सिंहं केसरिणं बृहन्तं
बालो मूढः क्षुद्रमृगस्तरस्वी ।
समाह्वयेत् तद्वदेतत् तवाद्य
समाह्वानं सूतपुत्रार्जुनस्य ॥ १८ ॥

मूलम्

क्रुद्धं सिंहं केसरिणं बृहन्तं
बालो मूढः क्षुद्रमृगस्तरस्वी ।
समाह्वयेत् तद्वदेतत् तवाद्य
समाह्वानं सूतपुत्रार्जुनस्य ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूतपुत्र! जैसे बालक, मूढ़ और वेगसे चौकड़ी भरनेवाला क्षुद्र मृग क्रोधमें भरे हुए विशालकाय, केसरयुक्त सिंहको ललकारे, तुम्हारा आज यह अर्जुनका युद्धके लिये आह्वान करना भी वैसा ही है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा सूतपुत्राह्वय राजपुत्रं
महावीर्यं केसरिणं यथैव ।
वने शृगालः पिशितेन तृप्तो
मा पार्थमासाद्य विनङ्क्ष्यसि त्वम् ॥ १९ ॥

मूलम्

मा सूतपुत्राह्वय राजपुत्रं
महावीर्यं केसरिणं यथैव ।
वने शृगालः पिशितेन तृप्तो
मा पार्थमासाद्य विनङ्क्ष्यसि त्वम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूतपुत्र! तुम महापराक्रमी राजकुमार अर्जुनका आह्वान न करो। जैसे वनमें मांस-भक्षणसे तृप्त हुआ गीदड़ महाबली सिंहके पास जाकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तुम भी अर्जुनसे भिड़कर विनाशके गर्तमें न गिरो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईषादन्तं महानागं प्रभिन्नकरटामुखम् ।
शशको ह्वयसे युद्धे कर्ण पार्थं धनंजयम् ॥ २० ॥

मूलम्

ईषादन्तं महानागं प्रभिन्नकरटामुखम् ।
शशको ह्वयसे युद्धे कर्ण पार्थं धनंजयम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! जैसे कोई खरगोश ईषादण्डके समान दाँतोंवाले महान् मदस्रावी गजराजको अपने साथ युद्धके लिये बुलाता हो, उसी प्रकार तुम भी कुन्तीपुत्र धनंजयका रणक्षेत्रमें आह्वान करते हो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलस्थं कृष्णसर्पं त्वं बाल्यात् काष्ठेन विध्यसि।
महाविषं पूर्णकोपं यत् पार्थं योद्‌धुमिच्छसि ॥ २१ ॥

मूलम्

बिलस्थं कृष्णसर्पं त्वं बाल्यात् काष्ठेन विध्यसि।
महाविषं पूर्णकोपं यत् पार्थं योद्‌धुमिच्छसि ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम यदि पूर्णतः क्रोधमें भरे हुए अर्जुनके साथ जूझना चाहते हो तो मूर्खतावश बिलमें बैठे हुए महाविषैले काले सर्पको किसी काठकी छड़ीसे बींध रहे हो॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहं केसरिणं क्रुद्धमतिक्रम्याभिनर्दसे ।
शृगाल इव मूढस्त्वं नृसिंहं कर्ण पाण्डवम् ॥ २२ ॥

मूलम्

सिंहं केसरिणं क्रुद्धमतिक्रम्याभिनर्दसे ।
शृगाल इव मूढस्त्वं नृसिंहं कर्ण पाण्डवम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! तुम मूर्ख हो; जैसे गीदड़ क्रोधमें भरे हुए केसरी सिंहका अनादर करके गर्जना करे, उसी प्रकार तुम भी मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी और क्रोधमें भरे हुए पाण्डुकुमार अर्जुनका लंघन करके गरज रहे हो॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपर्णं पतगश्रेष्ठं वैनतेयं तरस्विनम्।
भोगीवाह्वयसे पाते कर्ण पार्थं धनंजयम् ॥ २३ ॥

मूलम्

सुपर्णं पतगश्रेष्ठं वैनतेयं तरस्विनम्।
भोगीवाह्वयसे पाते कर्ण पार्थं धनंजयम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! जैसे कोई सर्प अपने पतनके लिये ही पक्षियोंमें श्रेष्ठ वेगशाली विनतानन्दन गरुडका आह्वान करता है, उसी प्रकार तुम भी अपने विनाशके लिये ही कुन्तीकुमार अर्जुनको ललकार रहे हो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वाम्भसां निधिं भीमं मूर्तिमन्तं झषायुतम्।
चन्द्रोदये विवर्धन्तमप्लवः संस्तितीर्षसि ॥ २४ ॥

मूलम्

सर्वाम्भसां निधिं भीमं मूर्तिमन्तं झषायुतम्।
चन्द्रोदये विवर्धन्तमप्लवः संस्तितीर्षसि ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरे! तुम चन्द्रोदयके समय बढ़ते हुए, जलजन्तुओंसे पूर्ण तथा उत्ताल तरंगोंसे व्याप्त अगाध जलराशिवाले भयंकर समुद्रको बिना किसी नावके ही केवल दोनों हाथोंके सहारे पार करना चाहते हो॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषभं दुन्दुभिग्रीवं तीक्ष्णशृङ्गं प्रहारिणम्।
वत्स आह्वयसे युद्धे कर्ण पार्थं धनंजयम् ॥ २५ ॥

मूलम्

ऋषभं दुन्दुभिग्रीवं तीक्ष्णशृङ्गं प्रहारिणम्।
वत्स आह्वयसे युद्धे कर्ण पार्थं धनंजयम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा कर्ण! दुन्दुभिकी ध्वनिके समान जिसका कंठस्वर गम्भीर है, जिसके सींग तीखे हैं तथा जो प्रहार करनेमें कुशल है, उस साँड़के समान पराक्रमी पृथापुत्र अर्जुनको तुम युद्धके लिये ललकार रहे हो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महामेघं महाघोरं दर्दुरः प्रतिनर्दसि।
बाणतोयप्रदं लोके नरपर्जन्यमर्जुनम् ॥ २६ ॥

मूलम्

महामेघं महाघोरं दर्दुरः प्रतिनर्दसि।
बाणतोयप्रदं लोके नरपर्जन्यमर्जुनम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे महाभयंकर महामेघके मुकाबलेमें कोई मेढक टर्र-टर्र कर रहा हो, उसी प्रकार तुम संसारमें बाणरूपी जलकी वर्षा करनेवाले मानवमेघ अर्जुनको लक्ष्य करके गर्जना करते हो॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा च स्वगृहस्थः श्वा व्याघ्रं वनगतं भषेत्।
तथा त्वं भषसे कर्ण नरव्याघ्रं धनंजयम् ॥ २७ ॥

मूलम्

यथा च स्वगृहस्थः श्वा व्याघ्रं वनगतं भषेत्।
तथा त्वं भषसे कर्ण नरव्याघ्रं धनंजयम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! जैसे अपने घरमें बैठा हुआ कोई कुत्ता वनमें रहनेवाले बाघकी ओर भूँके, उसी प्रकार तुम भी नरव्याघ्र अर्जुनको लक्ष्य करके भूँक रहे हो॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृगालोऽपि वने कर्ण शशैः परिवृतो वसन्।
मन्यते सिंहमात्मानं यावत् सिंहं न पश्यति ॥ २८ ॥

मूलम्

शृगालोऽपि वने कर्ण शशैः परिवृतो वसन्।
मन्यते सिंहमात्मानं यावत् सिंहं न पश्यति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! वनमें खरगोशोंके साथ रहनेवाला गीदड़ भी जबतक सिंहको नहीं देखता, तबतक अपनेको सिंह ही मानता रहता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा त्वमपि राधेय सिंहमात्मानमिच्छसि।
अपश्यन् शत्रुदमनं नरव्याघ्रं धनंजयम् ॥ २९ ॥

मूलम्

तथा त्वमपि राधेय सिंहमात्मानमिच्छसि।
अपश्यन् शत्रुदमनं नरव्याघ्रं धनंजयम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राधानन्दन! उसी प्रकार तुम भी शत्रुओंका दमन करनेवाले पुरुषसिंह अर्जुनको न देखनेके कारण ही अपनेको सिंह समझना चाहते हो॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याघ्रं त्वं मन्यसेऽऽत्मानं यावत्‌ कृष्णौ न पश्यसि।
समास्थितावेकरथे सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ ३० ॥

मूलम्

व्याघ्रं त्वं मन्यसेऽऽत्मानं यावत्‌ कृष्णौ न पश्यसि।
समास्थितावेकरथे सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक रथपर बैठे हुए सूर्य और चन्द्रमाके समान सुशोभित श्रीकृष्ण और अर्जुनको जबतक तुम नहीं देख रहे हो, तभीतक अपनेको बाघ माने बैठे हो॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद् गाण्डीवघोषं त्वं न शृणोषि महाहवे।
तावदेव त्वया कर्ण शक्यं वक्तुं यथेच्छसि ॥ ३१ ॥

मूलम्

यावद् गाण्डीवघोषं त्वं न शृणोषि महाहवे।
तावदेव त्वया कर्ण शक्यं वक्तुं यथेच्छसि ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! महासमरमें जबतक गाण्डीवकी टंकार नहीं सुनते हो, तभीतक तुम जैसा चाहो, बक सकते हो॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथशब्दधनुःशब्दैर्नादयन्तं दिशो दश ।
नर्दन्तमिव शार्दूलं दृष्ट्वा क्रोष्टा भविष्यसि ॥ ३२ ॥

मूलम्

रथशब्दधनुःशब्दैर्नादयन्तं दिशो दश ।
नर्दन्तमिव शार्दूलं दृष्ट्वा क्रोष्टा भविष्यसि ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रथकी घर्घराहट और धनुषकी टंकारसे दसों दिशाओंको निनादित करते हुए सिंहसदृश अर्जुनको जब दहाड़ते देखोगे, तब तुरंत गीदड़ बन जाओगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यमेव शृगालस्त्वं नित्यं सिंहो धनंजयः।
वीरप्रद्वेषणान्मूढ तस्मात् क्रोष्टेव लक्ष्यसे ॥ ३३ ॥

मूलम्

नित्यमेव शृगालस्त्वं नित्यं सिंहो धनंजयः।
वीरप्रद्वेषणान्मूढ तस्मात् क्रोष्टेव लक्ष्यसे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ओ मूढ! तुम सदासे ही गीदड़ हो और अर्जुन सदासे ही सिंह हैं। वीरोंके प्रति द्वेष रखनेके कारण ही तुम गीदड़-जैसे दिखायी देते हो॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाखुः स्याद् विडालश्च श्वा व्याघ्रश्च बलाबले।
यथा शृगालः सिंहश्च यथा च शशकुञ्जरौ ॥ ३४ ॥

मूलम्

यथाखुः स्याद् विडालश्च श्वा व्याघ्रश्च बलाबले।
यथा शृगालः सिंहश्च यथा च शशकुञ्जरौ ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे चूहा और बिलाव, कुत्ता और बाघ, गीदड़ और सिंह तथा खरगोश और हाथी अपनी निर्बलता और प्रबलताके लिये प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार तुम निर्बल हो और अर्जुन सबल हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथानृतं च सत्यं च यथा चापि विषामृते।
तथा त्वमपि पार्थश्च प्रख्यातावात्मकर्मभिः ॥ ३५ ॥

मूलम्

यथानृतं च सत्यं च यथा चापि विषामृते।
तथा त्वमपि पार्थश्च प्रख्यातावात्मकर्मभिः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे झूठ और सच तथा विष और अमृत अपना अलग-अलग प्रभाव रखते हैं, उसी प्रकार तुम और अर्जुन भी अपने-अपने कर्मोंके लिये सर्वत्र विख्यात हो’॥३५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कर्णशल्याधिक्षेपे एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें कर्णके प्रति शल्यका आक्षेपविषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३९॥