भागसूचना
षट्त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कर्णका युद्धके लिये प्रस्थान और शल्यसे उसकी बातचीत
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं ते कर्ण सारथ्यं मद्रराजः करिष्यति।
कृष्णादभ्यधिको यन्ता देवेशस्येव मातलिः ॥ १ ॥
मूलम्
अयं ते कर्ण सारथ्यं मद्रराजः करिष्यति।
कृष्णादभ्यधिको यन्ता देवेशस्येव मातलिः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— कर्ण! ये मद्रराज शल्य तुम्हारा सारथ्यकर्म करेंगे। देवराज इन्द्रके सारथि मातलिके समान ये श्रीकृष्णसे भी श्रेष्ठ रथसंचालक हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हरिहयैर्युक्तं संगृह्णाति स मातलिः।
शल्यस्तथा तवाद्यायं संयन्ता रथवाजिनाम् ॥ २ ॥
मूलम्
यथा हरिहयैर्युक्तं संगृह्णाति स मातलिः।
शल्यस्तथा तवाद्यायं संयन्ता रथवाजिनाम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मातलि इन्द्रके घोड़ोंसे जुते हुए रथकी बागडोर सँभालते हैं, उसी प्रकार ये तुम्हारे रथके घोड़ोंको काबूमें रखेंगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योधे त्वयि रथस्थे च मद्रराजे च सारथौ।
रथश्रेष्ठो ध्रुवं संख्ये पार्थानभिभविष्यति ॥ ३ ॥
मूलम्
योधे त्वयि रथस्थे च मद्रराजे च सारथौ।
रथश्रेष्ठो ध्रुवं संख्ये पार्थानभिभविष्यति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब तुम योद्धा बनकर रथपर बैठोगे और मद्रराज शल्य सारथिके रूपमें प्रतिष्ठित होंगे, उस समय वह श्रेष्ठ रथ निश्चय ही युद्धस्थलमें कुन्तीपुत्रोंको पराजित कर देगा॥३॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो भूयो मद्रराजं तरस्विनम्।
उवाच राजन् संग्रामेऽध्युषिते पर्युपस्थिते ॥ ४ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो भूयो मद्रराजं तरस्विनम्।
उवाच राजन् संग्रामेऽध्युषिते पर्युपस्थिते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर दुर्योधनने प्रातःकाल युद्ध उपस्थित होनेपर पुनः वेगशाली मद्रराज शल्यसे कहा—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णस्य यच्छ संग्रामे मद्रराज हयोत्तमान्।
त्वयाभिगुप्तो राधेयो विजेष्यति धनंजयम् ॥ ५ ॥
मूलम्
कर्णस्य यच्छ संग्रामे मद्रराज हयोत्तमान्।
त्वयाभिगुप्तो राधेयो विजेष्यति धनंजयम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मद्रराज! आप संग्राममें कर्णके इन उत्तम घोड़ोंको वशमें कीजिये। आपसे सुरक्षित होकर राधापुत्र कर्ण निश्चय ही अर्जुनको जीत लेगा’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो रथमास्थाय तथेति प्राह भारत।
शल्येऽभ्युपगते कर्णः सारथिं सुमनाब्रवीत् ॥ ६ ॥
त्वं सूत स्यन्दनं मह्यं कल्पयेत्यसकृत् त्वरन्।
मूलम्
इत्युक्तो रथमास्थाय तथेति प्राह भारत।
शल्येऽभ्युपगते कर्णः सारथिं सुमनाब्रवीत् ॥ ६ ॥
त्वं सूत स्यन्दनं मह्यं कल्पयेत्यसकृत् त्वरन्।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! दुर्योधनके ऐसा कहनेपर शल्यने रथका स्पर्श करके कहा—‘तथास्तु।’ जब शल्यने सारथि होना पूर्णरूपसे स्वीकार कर लिया, तब कर्णने प्रसन्नचित्त होकर बारंबार अपने पूर्व सारथिसे शीघ्रतापूर्वक कहा—‘सूत! तुम मेरा रथ सजाकर तैयार करो’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जैत्रं रथवरं गन्धर्वनगरोपमम् ॥ ७ ॥
विधिवत् कल्पितं भद्रं जयेत्युक्त्वा न्यवेदयत्।
मूलम्
ततो जैत्रं रथवरं गन्धर्वनगरोपमम् ॥ ७ ॥
विधिवत् कल्पितं भद्रं जयेत्युक्त्वा न्यवेदयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
तब सारथिने गन्धर्वनगरके समान विशाल, विजयशील श्रेष्ठ और मंगलकारक रथको विधिपूर्वक सुसज्जित करके सूचित किया—‘स्वामिन्! आपकी जय हो! रथ तैयार है’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं रथं रथिनां श्रेष्ठः कर्णोऽभ्यर्च्य यथाविधि ॥ ८ ॥
सम्पादितं ब्रह्मविदा पूर्वमेव पुरोधसा।
कृत्वा प्रदक्षिणं यत्नादुपस्थाय च भास्करम् ॥ ९ ॥
समीपस्थं मद्रराजमारोह त्वमथाब्रवीत् ।
मूलम्
तं रथं रथिनां श्रेष्ठः कर्णोऽभ्यर्च्य यथाविधि ॥ ८ ॥
सम्पादितं ब्रह्मविदा पूर्वमेव पुरोधसा।
कृत्वा प्रदक्षिणं यत्नादुपस्थाय च भास्करम् ॥ ९ ॥
समीपस्थं मद्रराजमारोह त्वमथाब्रवीत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंमें श्रेष्ठ कर्णने वेदज्ञ पुरोहितद्वारा पहलेसे ही जिसका मांगलिक कृत्य सम्पन्न कर दिया गया था, उस रथकी विधिपूर्वक पूजा और प्रदक्षिणा की। तत्पश्चात् सूर्यदेवका प्रयत्नपूर्वक उपस्थान करके पास ही खड़े हुए मद्रराजसे कहा—‘पहले आप रथपर बैठिये’॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कर्णस्य दुर्धर्षं स्यन्दनप्रवरं महत् ॥ १० ॥
आरुरोह महातेजाः शल्यः सिंह इवाचलम्।
मूलम्
ततः कर्णस्य दुर्धर्षं स्यन्दनप्रवरं महत् ॥ १० ॥
आरुरोह महातेजाः शल्यः सिंह इवाचलम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जैसे सिंह पर्वतपर चढ़ता है, उसी प्रकार महातेजस्वी शल्य कर्णके दुर्जय, विशाल एवं श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ हुए॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शल्याश्रितं दृष्ट्वा कर्णः स्वं रथमुत्तमम् ॥ ११ ॥
अध्यतिष्ठद् यथाम्भोदं विद्युत्वन्तं दिवाकरः।
मूलम्
ततः शल्याश्रितं दृष्ट्वा कर्णः स्वं रथमुत्तमम् ॥ ११ ॥
अध्यतिष्ठद् यथाम्भोदं विद्युत्वन्तं दिवाकरः।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण अपने उत्तम रथको सारथि शल्यसे सनाथ हुआ देख स्वयं भी उसपर आरूढ़ हुआ, मानो सूर्यदेव बिजलियोंसे युक्त मेघपर प्रतिष्ठित हुए हों॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावेकरथमारूढावादित्याग्निसमत्विषौ ॥ १२ ॥
अभ्राजेतां यथा मेघं सूर्याग्नी सहितौ दिवि।
मूलम्
तावेकरथमारूढावादित्याग्निसमत्विषौ ॥ १२ ॥
अभ्राजेतां यथा मेघं सूर्याग्नी सहितौ दिवि।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आकाशमें किसी महान् मेघखण्डपर एक साथ बैठे हुए सूर्य और अग्नि प्रकाशित हो रहे हों, उसी प्रकार सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी कर्ण और शल्य उस एक ही रथपर आरूढ़ हो बड़ी शोभा पाने लगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्तूयमानौ तौ वीरौ तदास्तां द्युतिमत्तमौ ॥ १३ ॥
ऋत्विक्सदस्यैरिन्द्राग्नी स्तूयमानाविवाध्वरे ।
मूलम्
संस्तूयमानौ तौ वीरौ तदास्तां द्युतिमत्तमौ ॥ १३ ॥
ऋत्विक्सदस्यैरिन्द्राग्नी स्तूयमानाविवाध्वरे ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उन दोनों परम तेजस्वी वीरोंकी उसी प्रकार स्तुति होने लगी, जैसे यज्ञमण्डपमें ऋत्विजों और सदस्योंद्वारा इन्द्र और अग्नि देवताका स्तवन किया जाता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शल्यसंगृहीताश्वे रथे कर्णः स्थितो बभौ ॥ १४ ॥
धनुर्विस्फारयन् घोरं परिवेषीव भास्करः।
मूलम्
स शल्यसंगृहीताश्वे रथे कर्णः स्थितो बभौ ॥ १४ ॥
धनुर्विस्फारयन् घोरं परिवेषीव भास्करः।
अनुवाद (हिन्दी)
शल्यने घोड़ोंकी बागडोर हाथमें ले ली। उस रथपर बैठा हुआ कर्ण अपने भयंकर धनुषको फैलाकर उसी प्रकार सुशोभित हो रहा था, मानो सूर्यमण्डलपर घेरा पड़ा हो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्थितः स रथश्रेष्ठं कर्णः शरगभस्तिमान् ॥ १५ ॥
प्रबभौ पुरुषव्याघ्रो मन्दरस्थ इवांशुमान्।
मूलम्
आस्थितः स रथश्रेष्ठं कर्णः शरगभस्तिमान् ॥ १५ ॥
प्रबभौ पुरुषव्याघ्रो मन्दरस्थ इवांशुमान्।
अनुवाद (हिन्दी)
उस श्रेष्ठ रथपर चढ़ा हुआ पुरुषसिंह कर्ण अपनी बाणमयी किरणोंसे युक्त हो मन्दराचलके शिखरपर देदीप्यमान होनेवाले सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं रथस्थं महाबाहुं युद्धायामिततेजसम् ॥ १६ ॥
दुर्योधनस्तु राधेयमिदं वचनमब्रवीत् ।
अकृतं द्रोणभीष्माभ्यां दुष्करं कर्म संयुगे ॥ १७ ॥
कुरुष्वाधिरथे वीर मिषतां सर्वधन्विनाम्।
मूलम्
तं रथस्थं महाबाहुं युद्धायामिततेजसम् ॥ १६ ॥
दुर्योधनस्तु राधेयमिदं वचनमब्रवीत् ।
अकृतं द्रोणभीष्माभ्यां दुष्करं कर्म संयुगे ॥ १७ ॥
कुरुष्वाधिरथे वीर मिषतां सर्वधन्विनाम्।
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धके लिये रथपर बैठे हुए अमिततेजस्वी महाबाहु राधापुत्र कर्णसे दुर्योधनने इस प्रकार कहा—‘वीर! अधिरथकुमार! युद्धस्थलमें द्रोणाचार्य और भीष्म भी जिसे न कर सके, वही दुष्कर कर्म तुम सम्पूर्ण धनुर्धरोंके देखते-देखते कर डालो॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोगतं मम ह्यासीद् भीष्मद्रोणौ महारथौ ॥ १८ ॥
अर्जुनं भीमसेनं च निहन्ताराविति ध्रुवम्।
मूलम्
मनोगतं मम ह्यासीद् भीष्मद्रोणौ महारथौ ॥ १८ ॥
अर्जुनं भीमसेनं च निहन्ताराविति ध्रुवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे मनमें यह विश्वास था कि ‘महारथी भीष्म और द्रोणाचार्य अर्जुन और भीमसेनको अवश्य ही मार डालेंगे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताभ्यां यदकृतं वीर वीरकर्म महामृधे ॥ १९ ॥
तत् कर्म कुरु राधेय वज्रपाणिरिवापरः।
मूलम्
ताभ्यां यदकृतं वीर वीरकर्म महामृधे ॥ १९ ॥
तत् कर्म कुरु राधेय वज्रपाणिरिवापरः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर राधापुत्र! वे दोनों जिसे न कर सके, वही वीरोचित कर्म आज महासमरमें दूसरे वज्रधारी इन्द्रके समान तुम निश्चय ही पूर्ण करो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहाण धर्मराजं वा जहि वा त्वं धनंजयम् ॥ २० ॥
भीमसेनं च राधेय माद्रीपुत्रौ यमावपि।
मूलम्
गृहाण धर्मराजं वा जहि वा त्वं धनंजयम् ॥ २० ॥
भीमसेनं च राधेय माद्रीपुत्रौ यमावपि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राधानन्दन! या तो तुम धर्मराज युधिष्ठिरको कैद कर लो या अर्जुन, भीमसेन तथा माद्रीकुमार नकुल-सहदेवको मार डालो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयश्च तेऽस्तु भद्रं ते प्रयाहि पुरुषर्षभ ॥ २१ ॥
पाण्डुपुत्रस्य सैन्यानि कुरु सर्वाणि भस्मसात्।
मूलम्
जयश्च तेऽस्तु भद्रं ते प्रयाहि पुरुषर्षभ ॥ २१ ॥
पाण्डुपुत्रस्य सैन्यानि कुरु सर्वाणि भस्मसात्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषप्रवर! तुम्हारी जय हो। कल्याण हो। अब तुम जाओ और पाण्डुपुत्रकी सारी सेनाओंको भस्म करो’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तूर्यसहस्राणि भेरीणामयुतानि च ॥ २२ ॥
वाद्यमानान्यराजन्त मेघशब्दो यथा दिवि।
मूलम्
ततस्तूर्यसहस्राणि भेरीणामयुतानि च ॥ २२ ॥
वाद्यमानान्यराजन्त मेघशब्दो यथा दिवि।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सहस्रों तूर्य और कई सहस्र रणभेरियाँ बज उठीं, जो आकाशमें मेघोंकी गर्जनाके समान प्रतीत हो रही थीं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिगृह्य तु तद् वाक्यं रथस्थो रथसत्तमः ॥ २३ ॥
अभ्यभाषत राधेयः शल्यं युद्धविशारदम्।
चोदयाश्वान् महाबाहो यावद्धन्मि धनंजयम् ॥ २४ ॥
भीमसेनं यमौ चोभौ राजानं च युधिष्ठिरम्।
मूलम्
प्रतिगृह्य तु तद् वाक्यं रथस्थो रथसत्तमः ॥ २३ ॥
अभ्यभाषत राधेयः शल्यं युद्धविशारदम्।
चोदयाश्वान् महाबाहो यावद्धन्मि धनंजयम् ॥ २४ ॥
भीमसेनं यमौ चोभौ राजानं च युधिष्ठिरम्।
अनुवाद (हिन्दी)
रथपर बैठे हुए रथियोंमें श्रेष्ठ राधापुत्र कर्णने दुर्योधनके उस आदेशको शिरोधार्य करके युद्धकुशल राजा शल्यसे कहा—‘महाबाहो! मेरे घोड़ोंको बढ़ाइये, जिससे कि मैं अर्जुन, भीमसेन, दोनों भाई नकुल-सहदेव तथा राजा युधिष्ठिरका वध कर सकूँ॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य पश्यतु मे शल्य बाहुवीर्यं धनंजयः ॥ २५ ॥
अत्यतः कङ्कपत्राणां सहस्राणि शतानि च।
मूलम्
अद्य पश्यतु मे शल्य बाहुवीर्यं धनंजयः ॥ २५ ॥
अत्यतः कङ्कपत्राणां सहस्राणि शतानि च।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शल्य! आज सैकड़ों और सहस्रों कंकपत्रयुक्त बाणोंकी वर्षा करते हुए मुझ कर्णके बाहुबलको अर्जुन देखें॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य क्षेप्स्याम्यहं शल्य शरान् परमतेजनान् ॥ २६ ॥
पाण्डवानां विनाशाय दुर्योधनजयाय च।
मूलम्
अद्य क्षेप्स्याम्यहं शल्य शरान् परमतेजनान् ॥ २६ ॥
पाण्डवानां विनाशाय दुर्योधनजयाय च।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शल्य! आज मैं पाण्डवोंके विनाश और दुर्योधनकी विजयके लिये अत्यन्त तीखे बाण चलाऊँगा’॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतपुत्र कथं नु त्वं पाण्डवानवमन्यसे ॥ २७ ॥
सर्वास्त्रज्ञान् महेष्वासान् सर्वानेव महाबलान्।
अनिवर्तिनो महाभागानजय्यान् सत्यविक्रमान् ॥ २८ ॥
मूलम्
सूतपुत्र कथं नु त्वं पाण्डवानवमन्यसे ॥ २७ ॥
सर्वास्त्रज्ञान् महेष्वासान् सर्वानेव महाबलान्।
अनिवर्तिनो महाभागानजय्यान् सत्यविक्रमान् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्यने कहा— सूतपुत्र! तुम पाण्डवोंकी अवहेलना कैसे करते हो। वे सब-के-सब तो सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता, महाधनुर्धर, महाबलवान्, युद्धसे पीछे न हटनेवाले, अजेय तथा सत्यपराक्रमी हैं॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि संतनयेयुर्ये भयं साक्षाच्छतक्रतोः।
यदा श्रोष्यसि निर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः ॥ २९ ॥
राधेय गाण्डिवस्याजौ तदा नैवं वदिष्यसि।
मूलम्
अपि संतनयेयुर्ये भयं साक्षाच्छतक्रतोः।
यदा श्रोष्यसि निर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः ॥ २९ ॥
राधेय गाण्डिवस्याजौ तदा नैवं वदिष्यसि।
अनुवाद (हिन्दी)
वे साक्षात् इन्द्रके मनमें भी भय उत्पन्न कर सकते हैं। राधापुत्र! जब तुम युद्धस्थलमें वज्रकी गड़गड़ाहटके समान गाण्डीव धनुषका गम्भीर घोष सुनोगे, तब ऐसी बातें नहीं कहोगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा द्रक्ष्यसि भीमेन कुञ्जरानीकमाहवे ॥ ३० ॥
विशीर्णदन्तं निहतं तदा नैवं वदिष्यसि।
मूलम्
यदा द्रक्ष्यसि भीमेन कुञ्जरानीकमाहवे ॥ ३० ॥
विशीर्णदन्तं निहतं तदा नैवं वदिष्यसि।
अनुवाद (हिन्दी)
जब तुम देखोगे कि भीमसेनने संग्रामभूमिमें गजराजोंकी सेनाके दाँत तोड़-तोड़कर उसका संहार कर डाला है, तब तुम इस प्रकार नहीं बोल सकोगे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा द्रक्ष्यसि संग्रामे धर्मपुत्रं यमौ तथा ॥ ३१ ॥
शितैः पृषत्कैः कुर्वाणानभ्रच्छायामिवाम्बरे ।
अस्यतः क्षिण्वतश्चारील्ँलघुहस्तान् दुरासदान् ।
पार्थिवानपि चान्यांस्त्वं तदा नैवं वदिष्यसि ॥ ३२ ॥
मूलम्
यदा द्रक्ष्यसि संग्रामे धर्मपुत्रं यमौ तथा ॥ ३१ ॥
शितैः पृषत्कैः कुर्वाणानभ्रच्छायामिवाम्बरे ।
अस्यतः क्षिण्वतश्चारील्ँलघुहस्तान् दुरासदान् ।
पार्थिवानपि चान्यांस्त्वं तदा नैवं वदिष्यसि ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब तुम्हें यह दिखायी देगा कि संग्राममें धर्मपुत्र युधिष्ठिर, नकुल-सहदेव तथा अन्यान्य दुर्जय भूपाल बड़ी शीघ्रताके साथ हाथ चला रहे हैं, अपने तीखे बाणोंद्वारा आकाशमें मेघोंकी छायाके समान छाया कर रहे हैं, निरन्तर बाण-वर्षा करते और शत्रुओंका संहार किये डालते हैं, तब तुम ऐसी बातें मुँहसे न निकाल सकोगे॥३१-३२॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादृत्य तु तद् वाक्यं मद्रराजेन भाषितम्।
याहीत्येवाब्रवीत् कर्णो मद्रराजं तरस्विनम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
अनादृत्य तु तद् वाक्यं मद्रराजेन भाषितम्।
याहीत्येवाब्रवीत् कर्णो मद्रराजं तरस्विनम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! मद्रराजकी कही हुई उस बातकी उपेक्षा करके कर्णने उन वेगशाली मद्रनरेशसे कहा—‘चलिये, चलिये’॥३३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि शल्यसंवादे षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें शल्यसंवादविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३६॥