भागसूचना
द्वात्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनकी शल्यसे कर्णका सारथि बननेके लिये प्रार्थना और शल्यका इस विषयमें घोर विरोध करना, पुनः श्रीकृष्णके समान अपनी प्रशंसा सुनकर उसे स्वीकार कर लेना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रस्तव महाराज मद्रराजं महारथम्।
विनयेनोपसंगम्य प्रणयाद् वाक्यमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
पुत्रस्तव महाराज मद्रराजं महारथम्।
विनयेनोपसंगम्य प्रणयाद् वाक्यमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! आपका पुत्र दुर्योधन मद्रराज महारथी शल्यके पास विनीतभावसे जाकर प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोला—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यव्रत महाभाग द्विषतां तापवर्धन।
मद्रेश्वर रणे शूर परसैन्यभयंकर ॥ २ ॥
श्रुतवानसि कर्णस्य ब्रुवतो वदतां वर।
यथा नृपतिसिंहानां मध्ये त्वां वरये स्वयम् ॥ ३ ॥
मूलम्
सत्यव्रत महाभाग द्विषतां तापवर्धन।
मद्रेश्वर रणे शूर परसैन्यभयंकर ॥ २ ॥
श्रुतवानसि कर्णस्य ब्रुवतो वदतां वर।
यथा नृपतिसिंहानां मध्ये त्वां वरये स्वयम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाभाग! सत्यव्रत! शत्रुओंका संताप बढ़ानेवाले मद्रराज! रणवीर! शत्रुसैन्यभयंकर! वक्ताओंमें श्रेष्ठ! आपने कर्णकी बात सुनी है। उसीके अनुसार इन राजसिंहोंके बीचमें मैं स्वयं आपका वरण करता हूँ॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वामप्रतिवीर्याद्य शत्रुपक्षक्षयावह ।
मद्रेश्वर प्रयाचेऽहं शिरसा विनयेन च ॥ ४ ॥
तस्मात् पार्थविनाशार्थं हितार्थं मम चैव हि।
सारथ्यं रथिनां श्रेष्ठ प्रणयात् कर्तुमर्हसि ॥ ५ ॥
मूलम्
तत्त्वामप्रतिवीर्याद्य शत्रुपक्षक्षयावह ।
मद्रेश्वर प्रयाचेऽहं शिरसा विनयेन च ॥ ४ ॥
तस्मात् पार्थविनाशार्थं हितार्थं मम चैव हि।
सारथ्यं रथिनां श्रेष्ठ प्रणयात् कर्तुमर्हसि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुपक्षका विनाश करनेवाले, अनुपम शक्तिशाली, रथियोंमें श्रेष्ठ मद्रराज! मैं मस्तक झुकाकर विनयपूर्वक आपसे यह याचना करता हूँ कि आप अर्जुनके विनाश और मेरे हितके लिये प्रेमपूर्वक कर्णका सारथ्य कीजिये॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयि यन्तरि राधेयो विद्विषो मे विजेष्यते।
अभीषूणां हि कर्णस्य ग्रहीतान्यो न विद्यते ॥ ६ ॥
ऋते हि त्वां महाभाग वासुदेवसमं युधि।
मूलम्
त्वयि यन्तरि राधेयो विद्विषो मे विजेष्यते।
अभीषूणां हि कर्णस्य ग्रहीतान्यो न विद्यते ॥ ६ ॥
ऋते हि त्वां महाभाग वासुदेवसमं युधि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके सारथि होनेपर राधापुत्र कर्ण मेरे शत्रुओंको जीत लेगा। कर्णके रथकी बागडोर पकड़नेवाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। महाभाग! आप युद्धमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके समान हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पाहि सर्वथा कर्णं यथा ब्रह्मा महेश्वरम ॥ ७ ॥
यथा च सर्वथाऽऽपत्सु वार्ष्णेयः पाति पाण्डवम्।
तथा मद्रेश्वराद्य त्वं राधेयं प्रतिपालय ॥ ८ ॥
मूलम्
स पाहि सर्वथा कर्णं यथा ब्रह्मा महेश्वरम ॥ ७ ॥
यथा च सर्वथाऽऽपत्सु वार्ष्णेयः पाति पाण्डवम्।
तथा मद्रेश्वराद्य त्वं राधेयं प्रतिपालय ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे ब्रह्माजीने सारथि बनकर महादेवजीकी रक्षा की थी और जैसे सब प्रकारकी आपत्तियोंसे श्रीकृष्ण अर्जुनकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप कर्णकी सर्वथा रक्षा कीजिये। मद्रराज! आज आप राधापुत्रका प्रतिपालन कीजिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मो द्रोणः कृपः कर्णोभवान् भोजश्च वीर्यवान्।
शकुनिः सौबलो द्रौणिरहमेव च नो बलम् ॥ ९ ॥
मूलम्
भीष्मो द्रोणः कृपः कर्णोभवान् भोजश्च वीर्यवान्।
शकुनिः सौबलो द्रौणिरहमेव च नो बलम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य कर्ण, आप, पराक्रमी कृतवर्मा, सुबलपुत्र शकुनि, द्रोणकुमार अश्वत्थामा और मैं—ये ही हमारे बल हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेष कृतो भागो नवधा पृथिवीपते।
न च भागोऽत्र भीष्मस्य द्रोणस्य च महात्मनः ॥ १० ॥
ताभ्यामतीत्य तौ भागौ निहता मम शत्रवः।
मूलम्
एवमेष कृतो भागो नवधा पृथिवीपते।
न च भागोऽत्र भीष्मस्य द्रोणस्य च महात्मनः ॥ १० ॥
ताभ्यामतीत्य तौ भागौ निहता मम शत्रवः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीपते! इस प्रकार मेरी सेनाके ये नौ भाग किये गये थे। अब यहाँ भीष्म तथा महात्मा द्रोणाचार्यका भाग नहीं रह गया है। उन दोनोंने उनके लिये निर्धारित भागोंसे और आगे बढ़कर मेरे शत्रुओंका संहार किया है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धौ हि तौ महेष्वासौ छलेन निहतौ युधि ॥ ११ ॥
कृत्वा नसुकरं कर्म गतौ स्वर्गमितोऽनघ।
तथान्ये पुरुषव्याघ्राः परैर्विनिहता युधि ॥ १२ ॥
मूलम्
वृद्धौ हि तौ महेष्वासौ छलेन निहतौ युधि ॥ ११ ॥
कृत्वा नसुकरं कर्म गतौ स्वर्गमितोऽनघ।
तथान्ये पुरुषव्याघ्राः परैर्विनिहता युधि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे दोनों महाधनुर्धर योद्धा बूढ़े हो गये थे, इसलिये युद्धमें शत्रुओंद्वारा छलपूर्वक मारे गये। अनघ! वे दुष्कर कर्म करके यहाँसे स्वर्गलोकमें चले गये। इसी प्रकार दूसरे पुरुषसिंह वीर भी युद्धमें शत्रुओंद्वारा मारे गये हैं॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मदीयाश्च बहवः स्वर्गायोपगता रणे।
त्यक्त्वा प्राणान् यथाशक्ति चेष्टां कृत्वा च पुष्कलाम् ॥ १३ ॥
मूलम्
अस्मदीयाश्च बहवः स्वर्गायोपगता रणे।
त्यक्त्वा प्राणान् यथाशक्ति चेष्टां कृत्वा च पुष्कलाम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे पक्षके बहुत-से योद्धा विजयके लिये यथाशक्ति पूरी चेष्टा करके रणभूमिमें प्राण त्यागकर स्वर्गलोकको चले गये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं हतभूयिष्ठं बलं मम नराधिप।
पूर्वमप्यल्पकैः पार्थैर्हतं किमुत साम्प्रतम् ॥ १४ ॥
मूलम्
तदिदं हतभूयिष्ठं बलं मम नराधिप।
पूर्वमप्यल्पकैः पार्थैर्हतं किमुत साम्प्रतम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! इस प्रकार मेरी इस सेनाका अधिकांश भाग नष्ट हो चुका है। पहले भी जब अपनी सारी सेना मौजूद थी, अल्पसंख्यक कुन्तीकुमारोंने कौरवसेनाका नाश कर दिया था। फिर इस समय तो कहना ही क्या है?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलवन्तो महात्मानः कौन्तेयाः सत्यविक्रमाः।
बलं शेषं न हन्यूर्मे यथा तत् कुरु पार्थिव॥१५॥
मूलम्
बलवन्तो महात्मानः कौन्तेयाः सत्यविक्रमाः।
बलं शेषं न हन्यूर्मे यथा तत् कुरु पार्थिव॥१५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भूपाल! बलवान्, महामनस्वी और सत्यपराक्रमी कुन्तीकुमार मेरी शेष सेनाको जिस तरह भी नष्ट न कर सकें, ऐसा उपाय कीजिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतवीरमिदं सैन्यं पाण्डवैः समरे विभो।
कर्णो ह्येको महाबाहुरस्मत्प्रियहिते रतः ॥ १६ ॥
मूलम्
हतवीरमिदं सैन्यं पाण्डवैः समरे विभो।
कर्णो ह्येको महाबाहुरस्मत्प्रियहिते रतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! पाण्डवोंने समरांगणमें मेरी सेनाके प्रमुख वीरोंको मार डाला है। एक महाबाहु कर्ण ही ऐसा है, जो हमारे प्रिय एवं हितसाधनमें लगा हुआ है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवांश्च पुरुषव्याघ्र सर्वलोकमहारथः ।
शल्य कर्णोऽर्जुनेनाद्य योद्धुमिच्छति संयुगे ॥ १७ ॥
मूलम्
भवांश्च पुरुषव्याघ्र सर्वलोकमहारथः ।
शल्य कर्णोऽर्जुनेनाद्य योद्धुमिच्छति संयुगे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषसिंह शल्य! दूसरे आप भी सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात महारथी होकर हमारे हितसाधनमें संलग्न हैं। आज कर्ण रणभूमिमें अर्जुनके साथ युद्ध करना चाहता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिञ्जयाशा विपुला मद्रराज नराधिप।
तस्याभीषुग्रहवरो नान्योऽस्ति भुवि कश्चन ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्मिञ्जयाशा विपुला मद्रराज नराधिप।
तस्याभीषुग्रहवरो नान्योऽस्ति भुवि कश्चन ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मद्रराज! नरेश्वर! उसके मनमें विजयकी बड़ी भारी आशा है, परंतु उसके घोड़ोंकी रास पकड़नेवाला (आपके समान) दूसरा कोई इस भूतलपर नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्थस्य समरे कृष्णो यथाभीषुग्रहो वरः।
तथा त्वमपि कर्णस्य रथेऽभीषुग्रहो भव ॥ १९ ॥
मूलम्
पार्थस्य समरे कृष्णो यथाभीषुग्रहो वरः।
तथा त्वमपि कर्णस्य रथेऽभीषुग्रहो भव ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे संग्रामभूमिमें अर्जुनके रथकी बागडोर सँभालनेवाले श्रेष्ठ सारथि श्रीकृष्ण हैं, उसी प्रकार आप भी कर्णके रथपर बैठकर उसकी बागडोर अपने हाथमें लीजिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन युक्तो रणे पार्थो रक्ष्यमाणश्च पार्थिव।
यानि कर्माणि कुरुते प्रत्यक्षाणि तथैव तत् ॥ २० ॥
मूलम्
तेन युक्तो रणे पार्थो रक्ष्यमाणश्च पार्थिव।
यानि कर्माणि कुरुते प्रत्यक्षाणि तथैव तत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! श्रीकृष्णसे संयुक्त एवं सुरक्षित होकर पार्थ रणभूमिमें जो-जो कर्म करते हैं, वे सब आपकी आँखोंके सामने हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं न समरे ह्येवमवधीदर्जुनो रिपून्।
इदानीं विक्रमो ह्यस्य कृष्णेन सहितस्य च ॥ २१ ॥
मूलम्
पूर्वं न समरे ह्येवमवधीदर्जुनो रिपून्।
इदानीं विक्रमो ह्यस्य कृष्णेन सहितस्य च ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले युद्धमें अर्जुन इस प्रकार शत्रुओंका वध नहीं करते थे। इस समय श्रीकृष्णके साथ होनेसे ही इनका पराक्रम बढ़ गया है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णेन सहितः पार्थो धार्तराष्ट्रीं महाचमूम्।
अहन्यहनि मद्रेश द्रावयन् दृश्यते युधि ॥ २२ ॥
मूलम्
कृष्णेन सहितः पार्थो धार्तराष्ट्रीं महाचमूम्।
अहन्यहनि मद्रेश द्रावयन् दृश्यते युधि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मद्रराज! श्रीकृष्णके साथ अर्जुन प्रतिदिन हमारी विशाल सेनाको युद्धभूमिमें खदेड़ते देखे जाते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भागोऽवशिष्टः कर्णस्य तव चैव महाद्युते।
तं भागं सह कर्णेन युगपन्नाशयाद्य हि ॥ २३ ॥
मूलम्
भागोऽवशिष्टः कर्णस्य तव चैव महाद्युते।
तं भागं सह कर्णेन युगपन्नाशयाद्य हि ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महातेजस्वी नरेश! अब कर्णका और आपका भाग शेष रह गया है। अतः आप कर्णके साथ रहकर शत्रुसेनाके उस भागको एक साथ ही नष्ट कर दीजिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरुणेन यथा सार्धं तमः सूर्यो व्यपोहति।
तथा कर्णेन सहितो जहि पार्थं महाहवे ॥ २४ ॥
मूलम्
अरुणेन यथा सार्धं तमः सूर्यो व्यपोहति।
तथा कर्णेन सहितो जहि पार्थं महाहवे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे अरुणके साथ सूर्य अन्धकारका नाश करते हैं, उसी प्रकार आप महासमरमें कर्णके साथ रहकर कुन्तीकुमार अर्जुनका वध कीजिये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यन्तौ च यथा सूर्यौ बालसूर्यसमप्रभौ।
कर्णशल्यौ रणे दृष्ट्वा विद्रवन्तु महारथाः ॥ २५ ॥
मूलम्
उद्यन्तौ च यथा सूर्यौ बालसूर्यसमप्रभौ।
कर्णशल्यौ रणे दृष्ट्वा विद्रवन्तु महारथाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रातःकालीन सूर्यके तुल्य तेजस्वी कर्ण और शल्यको उदित होते हुए दो सूर्योंके समान रणभूमिमें देखकर शत्रुसेनाके महारथी भाग जायँ॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूर्यारुणौ यथा दृष्ट्वा तमो नश्यति मारिष।
तथा नश्यन्तु कौन्तेयाः सपञ्चालाः ससृंजयाः ॥ २६ ॥
मूलम्
सूर्यारुणौ यथा दृष्ट्वा तमो नश्यति मारिष।
तथा नश्यन्तु कौन्तेयाः सपञ्चालाः ससृंजयाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मान्यवर! जैसे सूर्य और अरुणको देखते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार आप दोनोंको देखकर कुन्तीके पुत्र, पांचाल और सृंजय नष्ट हो जायँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथिनां प्रवरः कर्णो यन्तॄणां प्रवरो भवान्।
संयोगो युवयोर्लोके नाभून्न च भविष्यति ॥ २७ ॥
मूलम्
रथिनां प्रवरः कर्णो यन्तॄणां प्रवरो भवान्।
संयोगो युवयोर्लोके नाभून्न च भविष्यति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण रथियोंमें श्रेष्ठ है और आप सारथियोंके शिरोमणि हैं। संसारमें आप दोनोंका संयोग जो आज बन गया है, न तो कभी हुआ था और न आगे कभी होगा॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सर्वास्ववस्थासु वार्ष्णेयः पाति पाण्डवम्।
तथा भवान् परित्रातुं कर्णं वैकर्तनं रणे ॥ २८ ॥
मूलम्
यथा सर्वास्ववस्थासु वार्ष्णेयः पाति पाण्डवम्।
तथा भवान् परित्रातुं कर्णं वैकर्तनं रणे ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे श्रीकृष्ण सभी अवस्थाओंमें पाण्डुपुत्र अर्जुनकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप रणभूमिमें वैकर्तन कर्णकी रक्षा करें॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(सारथ्यं क्रियतां तस्य युध्यमानस्य संयुगे।)
त्वया सारथिना ह्येष अप्रधृष्यो भविष्यति।
देवतानामपि रणे सशक्राणां महीपते।
किं पुनः पाण्डवेयानां मा विशंकीर्वचो मम ॥ २९ ॥
मूलम्
(सारथ्यं क्रियतां तस्य युध्यमानस्य संयुगे।)
त्वया सारथिना ह्येष अप्रधृष्यो भविष्यति।
देवतानामपि रणे सशक्राणां महीपते।
किं पुनः पाण्डवेयानां मा विशंकीर्वचो मम ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धस्थलमें युद्ध करते समय कर्णके सारथिका कार्य सँभालिये। राजन्! आपके सारथि होनेसे यह कर्ण रणभूमिमें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी अजेय हो जायगा, फिर पाण्डवोंकी तो बात ही क्या है। आप मेरे इस कथनमें संदेह न कीजिये’॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनवचः श्रुत्वा शल्यः क्रोधसमन्वितः।
विशिखां भ्रुकुटिं कृत्वा धुन्वन् हस्तौ पुनः पुनः ॥ ३० ॥
मूलम्
दुर्योधनवचः श्रुत्वा शल्यः क्रोधसमन्वितः।
विशिखां भ्रुकुटिं कृत्वा धुन्वन् हस्तौ पुनः पुनः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! दुर्योधनकी बात सुनकर शल्यको बड़ा क्रोध हुआ। वे अपनी भौंहोंको तीन जगहसे टेढ़ी करके बारंबार हाथ हिलाने लगे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधरक्ते महानेत्रे परिवृत्य महाभुजः।
कुलैश्वर्यश्रुतबलैर्दृप्तः शल्योऽब्रवीदिदम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
क्रोधरक्ते महानेत्रे परिवृत्य महाभुजः।
कुलैश्वर्यश्रुतबलैर्दृप्तः शल्योऽब्रवीदिदम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु शल्यको अपने कुल, ऐश्वर्य, शास्त्रज्ञान और बलका बड़ा अभिमान था। वे क्रोधसे लाल हुए विशाल नेत्रोंको घुमाकर इस प्रकार बोले॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवमन्यसि गान्धारे ध्रुवं च परिशङ्कसे।
यन्मां ब्रवीषि विश्रब्धं सारथ्यं क्रियतामिति ॥ ३२ ॥
मूलम्
अवमन्यसि गान्धारे ध्रुवं च परिशङ्कसे।
यन्मां ब्रवीषि विश्रब्धं सारथ्यं क्रियतामिति ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्यने कहा— गान्धारीपुत्र! तुम मेरा अपमान कर रहे हो, निश्चय ही तुम्हारे मनमें मेरे प्रति संदेह है, तभी तुम निर्भय होकर कह रहे हो कि आप ‘सारथिका कार्य कीजिये’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मत्तोऽभ्यधिकं कर्णं मन्यमानः प्रशंससि।
न चाहं युधि राधेयं गणये तुल्यमात्मनः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अस्मत्तोऽभ्यधिकं कर्णं मन्यमानः प्रशंससि।
न चाहं युधि राधेयं गणये तुल्यमात्मनः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम कर्णको मुझसे श्रेष्ठ मानकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हो; परंतु युद्धस्थलमें राधापुत्र कर्णको मैं अपने समान नहीं गिनता हूँ॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदिश्यतामभ्यधिको ममांशः पृथिवीपते ।
तमहं समरे जित्वा गमिष्यामि यथागतम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
आदिश्यतामभ्यधिको ममांशः पृथिवीपते ।
तमहं समरे जित्वा गमिष्यामि यथागतम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम शत्रुसेनाके अधिक-से-अधिक भागको मेरे हिस्सेमें दे दो, मैं उसे जीतकर जैसे आया हूँ, वैसे लौट जाऊँगा॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवाप्येक एवाहं योत्स्यामि कुरुनन्दन।
पश्य वीर्यं ममाद्य त्वं संग्रामे दहतो रिपून् ॥ ३५ ॥
मूलम्
अथवाप्येक एवाहं योत्स्यामि कुरुनन्दन।
पश्य वीर्यं ममाद्य त्वं संग्रामे दहतो रिपून् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा कुरुनन्दन! आज मैं अकेला ही युद्ध करूँगा। तुम संग्राममें शत्रुओंको दग्ध करते हुए मेरे पराक्रमको देख लेना॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि कामान् कौरव्य निधाय हृदये पुमान्।
अस्मद्विधः प्रवर्तेत मा मां त्वमभिशङ्किथाः ॥ ३६ ॥
मूलम्
न चापि कामान् कौरव्य निधाय हृदये पुमान्।
अस्मद्विधः प्रवर्तेत मा मां त्वमभिशङ्किथाः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरव्य! मेरे-जैसा पुरुष अपने मनमें कुछ कामनाएँ रखकर युद्धमें प्रवृत्त नहीं होता। अतः तुम मुझपर संदेह न करो॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधि वाप्यवमानो मे न कर्तव्यः कथञ्चन।
पश्य पीनौ मम भुजौ वज्रसंहननौ दृढौ ॥ ३७ ॥
धनुः पश्य च मे चित्रं शरांश्चाशीविषोपमान्।
रथं पश्य च मे क्लृप्तं सदश्वैर्वातवेगितैः ॥ ३८ ॥
गदां च पश्य गान्धारे हेमपट्टविभूषिताम्।
मूलम्
युधि वाप्यवमानो मे न कर्तव्यः कथञ्चन।
पश्य पीनौ मम भुजौ वज्रसंहननौ दृढौ ॥ ३७ ॥
धनुः पश्य च मे चित्रं शरांश्चाशीविषोपमान्।
रथं पश्य च मे क्लृप्तं सदश्वैर्वातवेगितैः ॥ ३८ ॥
गदां च पश्य गान्धारे हेमपट्टविभूषिताम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हें युद्धमें किसी प्रकार मेरा अपमान नहीं करना चाहिये। तुम मेरी मोटी और वज्रके समान गँठीली इन सुदृढ़ भुजाओंको तो देखो। मेरे इस विचित्र धनुष और विषधर सर्पके समान इन विषैले बाणोंकी ओर तो दृष्टिपात करो। गन्धारीकुमार! वायुके समान वेगशाली उत्तम घोड़ोंसे जुते हुए मेरे इस सजे-सजाये रथ और सुवर्णपत्रसे मढ़ी हुई गदापर भी तो दृष्टि डालो॥३७-३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दारयेयं महीं कृत्स्नां विकिरेयं च पर्वतान् ॥ ३९ ॥
शोषयेयं समुद्रांश्च तेजसा स्वेन पार्थिव।
मूलम्
दारयेयं महीं कृत्स्नां विकिरेयं च पर्वतान् ॥ ३९ ॥
शोषयेयं समुद्रांश्च तेजसा स्वेन पार्थिव।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मैं सारी पृथ्वीको विदीर्ण कर सकता हूँ, पर्वतोंको तोड़-फोड़कर बिखेर सकता हूँ और अपने तेजसे समुद्रोंको भी सुखा सकता हूँ॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं मामेवंविधं राजन् समर्थमरिनिग्रहे ॥ ४० ॥
कस्माद् युनङ्क्षि सारथ्ये नीचस्याधिरथे रणे।
मूलम्
तं मामेवंविधं राजन् समर्थमरिनिग्रहे ॥ ४० ॥
कस्माद् युनङ्क्षि सारथ्ये नीचस्याधिरथे रणे।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! इस प्रकार शत्रुओंका दमन करनेमें पूर्णतया समर्थ होनेपर भी तुम मुझे इस नीच सूतपुत्र कर्णके सारथिके कामपर कैसे नियुक्त कर रहे हो?॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मामधुरि राजेन्द्र नियोक्तुं त्वमिहार्हसि ॥ ४१ ॥
न हि पापीयसः श्रेयान् भूत्वा प्रेष्यत्वमुत्सहे।
मूलम्
न मामधुरि राजेन्द्र नियोक्तुं त्वमिहार्हसि ॥ ४१ ॥
न हि पापीयसः श्रेयान् भूत्वा प्रेष्यत्वमुत्सहे।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! तुम्हें मुझे नीच कर्ममें नहीं लगाना चाहिये। मैं श्रेष्ठ होकर अत्यन्त नीच पापी पुरुषकी दासता नहीं कर सकता॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो ह्यभ्युपगतं प्रीत्या गरीयांसं वशे स्थितम् ॥ ४२ ॥
वशे पापीयसो धत्ते तत् पापमधरोत्तरम्।
मूलम्
यो ह्यभ्युपगतं प्रीत्या गरीयांसं वशे स्थितम् ॥ ४२ ॥
वशे पापीयसो धत्ते तत् पापमधरोत्तरम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष प्रेमवश अपने पास आकर अपनी आज्ञाके अधीन रहनेवाले किसी श्रेष्ठतम पुरुषको नीचतम मनुष्यके अधीन कर देता है, उसे उच्चको नीच और नीचको उच्च करनेका महान् पाप लगता है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मणा ब्राह्मणाः सृष्टा मुखात् क्षत्रं च बाहुतः ॥ ४३ ॥
ऊरुभ्यामसृजद् वैश्याञ्शूद्रान् पद्भ्यामिति श्रुतिः।
मूलम्
ब्रह्मणा ब्राह्मणाः सृष्टा मुखात् क्षत्रं च बाहुतः ॥ ४३ ॥
ऊरुभ्यामसृजद् वैश्याञ्शूद्रान् पद्भ्यामिति श्रुतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने ब्राह्मणोंको अपने मुखसे, क्षत्रियोंको भुजाओंसे, वैश्योंको जाँघोंसे और शूद्रोंको पैरोंसे उत्पन्न किया है, ऐसा श्रुतिका मत है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेभ्यो वर्णविशेषाश्च प्रतिलोमानुलोमजाः ॥ ४४ ॥
अथान्योन्यस्य संयोगाच्चातुर्वर्ण्यस्य भारत ।
मूलम्
तेभ्यो वर्णविशेषाश्च प्रतिलोमानुलोमजाः ॥ ४४ ॥
अथान्योन्यस्य संयोगाच्चातुर्वर्ण्यस्य भारत ।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इन्हींसे अनुलोम और विलोम क्रमसे विभिन्न वर्णोंकी उत्पत्ति होती है। चारों वर्णोंके पारस्परिक संयोगसे अन्य जातियाँ उत्पन्न हुई हैं॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोप्तारः संगृहीतारो दातारः क्षत्रियाः स्मृताः ॥ ४५ ॥
याजनाध्यापनैर्विप्रा विशुद्धैश्च प्रतिग्रहैः ।
लोकस्यानुग्रहार्थाय स्थापिता ब्राह्मणा भुवि ॥ ४६ ॥
मूलम्
गोप्तारः संगृहीतारो दातारः क्षत्रियाः स्मृताः ॥ ४५ ॥
याजनाध्यापनैर्विप्रा विशुद्धैश्च प्रतिग्रहैः ।
लोकस्यानुग्रहार्थाय स्थापिता ब्राह्मणा भुवि ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनमें क्षत्रिय-जातिके लोग सबकी रक्षा करनेवाले, सबसे कर लेनेवाले और दान देनेवाले बताये गये हैं। ब्राह्मण यज्ञ कराने, वेद पढ़ाने और विशुद्ध दान ग्रहण करनेके द्वारा जीवन-निर्वाह करते हुए सम्पूर्ण जगत्पर अनुग्रह करनेके लिये इस भूतलपर ब्रह्माजीके द्वारा स्थापित किये गये हैं॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृषिश्च पाशुपाल्यं च विशां दानं च धर्मतः।
ब्रह्मक्षत्रविशां शूद्रा विहिताः परिचारकाः ॥ ४७ ॥
मूलम्
कृषिश्च पाशुपाल्यं च विशां दानं च धर्मतः।
ब्रह्मक्षत्रविशां शूद्रा विहिताः परिचारकाः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृषि, पशुपालन और धर्मानुसार दान देना वैश्योंका कर्म है तथा शूद्रलोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवाके काममें नियुक्त किये गये हैं॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मक्षत्रस्य विहिताः सूता वै परिचारकाः।
न क्षत्रियो वै सूतानां शृणुयाच्च कथञ्चन ॥ ४८ ॥
मूलम्
ब्रह्मक्षत्रस्य विहिताः सूता वै परिचारकाः।
न क्षत्रियो वै सूतानां शृणुयाच्च कथञ्चन ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजातिके लोग ब्राह्मणों और क्षत्रियोंके सेवक नियुक्त किये गये हैं, क्षत्रिय सूतोंका सेवक हो, यह कोई किसी प्रकार कहीं नहीं सुन सकता॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं मूर्धाभिषिक्तो हि राजर्षिकुलजो नृपः।
महारथः समाख्यातः सेव्यः स्तुत्यश्च वन्दिनाम् ॥ ४९ ॥
मूलम्
अहं मूर्धाभिषिक्तो हि राजर्षिकुलजो नृपः।
महारथः समाख्यातः सेव्यः स्तुत्यश्च वन्दिनाम् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं राजर्षियोंके कुलमें उत्पन्न हुआ मूर्द्धाभिषिक्त नरेश हूँ, विश्वविख्यात महारथी हूँ, सूतोंद्वारा सेव्य और वन्दीजनोंद्वारा स्तुतिके योग्य हूँ॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहमेतादृशो भूत्वा नेहारिबलसूदनः ।
सूतपुत्रस्य संग्रामे सारथ्यं कर्तुमुत्सहे ॥ ५० ॥
मूलम्
सोऽहमेतादृशो भूत्वा नेहारिबलसूदनः ।
सूतपुत्रस्य संग्रामे सारथ्यं कर्तुमुत्सहे ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा प्रतिष्ठित एवं शत्रुसेनाका संहार करनेमें समर्थ होकर मैं यहाँ युद्धस्थलमें एक सूतपुत्रके सारथिका कार्य कदापि नहीं कर सकता॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवमानमहं प्राप्य न योत्स्यामि कथञ्चन।
आपृच्छे त्वाद्य गान्धारे गमिष्यामि गृहाय वै ॥ ५१ ॥
मूलम्
अवमानमहं प्राप्य न योत्स्यामि कथञ्चन।
आपृच्छे त्वाद्य गान्धारे गमिष्यामि गृहाय वै ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गान्धारीनन्दन! आज इस अपमानको पाकर अब मैं किसी प्रकार युद्ध नहीं करूँगा। अतः तुमसे आज्ञा चाहता हूँ। आज ही अपने घरको लौट जाऊँगा॥५१॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा महाराज शल्यः समितिशोभनः।
उत्थाय प्रययौ तूर्णं राजमध्यादमर्षितः ॥ ५२ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा महाराज शल्यः समितिशोभनः।
उत्थाय प्रययौ तूर्णं राजमध्यादमर्षितः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! ऐसा कहकर युद्धमें शोभा पानेवाले शल्य अमर्षमें भर गये और राजाओंके बीचसे उठकर तुरंत चल दिये॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणयाद् बहुमानाच्च तं निगृह्य सुतस्तव।
अब्रवीन्मधुरं वाक्यं साम्ना सर्वार्थसाधकम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
प्रणयाद् बहुमानाच्च तं निगृह्य सुतस्तव।
अब्रवीन्मधुरं वाक्यं साम्ना सर्वार्थसाधकम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब आपके पुत्रने बड़े प्रेम और आदरसे उन्हें रोका तथा सान्त्वनापूर्ण मधुर स्वरमें उनसे यह सर्वार्थसाधक वचन कहा—॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा शल्य विजानीषे एवमेतदसंशयम्।
अभिप्रायस्तु मे कश्चित् तं निबोध जनेश्वर ॥ ५४ ॥
मूलम्
यथा शल्य विजानीषे एवमेतदसंशयम्।
अभिप्रायस्तु मे कश्चित् तं निबोध जनेश्वर ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज शल्य! आप अपने विषयमें जैसा समझते हैं ऐसी ही बात है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। मेरा कोई और ही अभिप्राय है, उसे ध्यान देकर सुनिये॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कर्णोऽभ्यधिकस्त्वत्तो न शङ्के त्वां च पार्थिव।
न हि मद्रेश्वरो राजा कुर्याद् यदनृतं भवेत् ॥ ५५ ॥
मूलम्
न कर्णोऽभ्यधिकस्त्वत्तो न शङ्के त्वां च पार्थिव।
न हि मद्रेश्वरो राजा कुर्याद् यदनृतं भवेत् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भूपाल! न तो कर्ण आपसे श्रेष्ठ है और न आपके प्रति मैं संदेह ही करता हूँ। मद्रदेशके स्वामी राजा शल्य कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकते, जो उनकी सत्य प्रतिज्ञाके विपरीत हो॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋतमेव हि पूर्वास्ते वदन्ति पुरुषोत्तमाः।
तस्मादार्तायनिः प्रोक्तो भवानिति मतिर्मम ॥ ५६ ॥
मूलम्
ऋतमेव हि पूर्वास्ते वदन्ति पुरुषोत्तमाः।
तस्मादार्तायनिः प्रोक्तो भवानिति मतिर्मम ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके पूर्वज श्रेष्ठ पुरुष थे और सदा सत्य ही बोला करते थे, इसीलिये आप ‘आर्तायनि’ कहलाते हैं; मेरी ऐसी ही धारणा है॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शल्यभूतस्तु शत्रूणां यस्मात्त्वं युधि मानद।
तस्माच्छल्यो हि ते नाम कथ्यते पृथिवीतले ॥ ५७ ॥
मूलम्
शल्यभूतस्तु शत्रूणां यस्मात्त्वं युधि मानद।
तस्माच्छल्यो हि ते नाम कथ्यते पृथिवीतले ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मानद! आप युद्धस्थलमें शत्रुओंके लिये शल्य (काँटे)-के समान हैं, इसीलिये इस भूतलपर आपका शल्य नाम विख्यात है॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेतद् व्याहृतं पूर्वं भवता भूरिदक्षिण।
तदेव कुरु धर्मज्ञ मदर्थं यद् यदुच्यते ॥ ५८ ॥
मूलम्
यदेतद् व्याहृतं पूर्वं भवता भूरिदक्षिण।
तदेव कुरु धर्मज्ञ मदर्थं यद् यदुच्यते ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यज्ञोंमें प्रचुर दक्षिणा देनेवाले धर्मज्ञ नरेश्वर! आपने पहले यह जो कुछ कहा है और इस समय जो कुछ कह रहे हैं, उसीको मेरे लिये पूर्ण करें॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च त्वत्तो हि राधेयो न चाहमपि वीर्यवान्।
वृणेऽहं त्वां हयाग्र्याणां यन्तारमिह संयुगे ॥ ५९ ॥
मूलम्
न च त्वत्तो हि राधेयो न चाहमपि वीर्यवान्।
वृणेऽहं त्वां हयाग्र्याणां यन्तारमिह संयुगे ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपकी अपेक्षा न तो राधापुत्र कर्ण बलवान् है और न मैं ही। आप उत्तम अश्वोंके सर्वश्रेष्ठ संचालक (अश्वविद्याके सर्वोत्तम ज्ञाता) हैं, इसलिये इस युद्धस्थलमें आपका वरण कर रहा हूँ॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये चाभ्यधिकं शल्य गुणैः कर्णं धनंजयात्।
भवन्तं वासुदेवाच्च लोकोऽयमिति मन्यते ॥ ६० ॥
मूलम्
मन्ये चाभ्यधिकं शल्य गुणैः कर्णं धनंजयात्।
भवन्तं वासुदेवाच्च लोकोऽयमिति मन्यते ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शल्य! मैं कर्णको अर्जुनसे अधिक गुणवान् मानता हूँ और यह सारा जगत् आपको वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णसे श्रेष्ठ मानता है॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णो ह्यभ्यधिकः पार्थादस्त्रैरेव नरर्षभ।
भवानभ्यधिकः कृष्णादश्वज्ञाने बले तथा ॥ ६१ ॥
मूलम्
कर्णो ह्यभ्यधिकः पार्थादस्त्रैरेव नरर्षभ।
भवानभ्यधिकः कृष्णादश्वज्ञाने बले तथा ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरश्रेष्ठ! कर्ण तो अर्जुनसे केवल अस्त्र-ज्ञानमें ही बढ़ा-चढ़ा है, परंतु आप श्रीकृष्णसे अश्वविद्या और बल दोनोंमें बड़े हैं॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाश्वहृदयं वेद वासुदेवो महामनाः।
द्विगुणं त्वं तथा वेत्सि मद्रराजेश्वरात्मज ॥ ६२ ॥
मूलम्
यथाश्वहृदयं वेद वासुदेवो महामनाः।
द्विगुणं त्वं तथा वेत्सि मद्रराजेश्वरात्मज ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मद्रराजकुमार! महामनस्वी श्रीकृष्ण जिस प्रकार अश्वविद्याका रहस्य जानते हैं, वैसा ही, बल्कि उससे भी दूना आप जानते हैं’॥६२॥
मूलम् (वचनम्)
शल्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्मां ब्रवीषि गान्धारे मध्ये सैन्यस्य कौरव।
विशिष्टं देवकीपुत्रात् प्रीतिमानस्म्यहं त्वयि ॥ ६३ ॥
मूलम्
यन्मां ब्रवीषि गान्धारे मध्ये सैन्यस्य कौरव।
विशिष्टं देवकीपुत्रात् प्रीतिमानस्म्यहं त्वयि ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्यने कहा— कौरव! गान्धारीपुत्र! तुम सारी सेनाके बीचमें जो मुझे देवकीनन्दन श्रीकृष्णसे भी बढ़कर बता रहे हो, इससे मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष सारथ्यमातिष्ठे राधेयस्य यशस्विनः।
युध्यतः पाण्डवाग्र्येण यथा त्वं वीर मन्यसे ॥ ६४ ॥
मूलम्
एष सारथ्यमातिष्ठे राधेयस्य यशस्विनः।
युध्यतः पाण्डवाग्र्येण यथा त्वं वीर मन्यसे ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! जैसा तुम चाहते हो उसके अनुसार मैं पाण्डव-शिरोमणि अर्जुनके साथ युद्ध करते हुए यशस्वी कर्णका सारथिकर्म अब स्वीकार किये लेता हूँ॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समयश्च हि मे वीर कश्चिद् वैकर्तनं प्रति।
उत्सृजेयं यथाश्रद्धमहं वाचोऽस्य संनिधौ ॥ ६५ ॥
मूलम्
समयश्च हि मे वीर कश्चिद् वैकर्तनं प्रति।
उत्सृजेयं यथाश्रद्धमहं वाचोऽस्य संनिधौ ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु वीरवर! कर्णके साथ मेरी एक शर्त रहेगी। ‘मैं इसके समीप, जैसी मेरी इच्छा हो, वैसी बातें कर सकता हूँ’॥६५॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति राजन् पुत्रस्ते सह कर्णेन भारत।
अब्रवीन्मद्रराजस्य मतं भरतसत्तम ॥ ६६ ॥
मूलम्
तथेति राजन् पुत्रस्ते सह कर्णेन भारत।
अब्रवीन्मद्रराजस्य मतं भरतसत्तम ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— भारत! भरतभूषण नरेश! इसपर कर्णसहित आपके पुत्रने ‘बहुत अच्छा’ कहकर शल्यकी शर्त स्वीकार कर ली॥६६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि शल्यसारथ्ये द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें शल्यका सारथिकर्मविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ६६ श्लोक हैं)