०३१

भागसूचना

एकत्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

रात्रिमें कौरवोंकी मन्त्रणा, धृतराष्ट्रके द्वारा दैवकी प्रबलताका प्रतिपादन, संजयद्वारा धृतराष्ट्रपर दोषारोप तथा कर्ण और दुर्योधनकी बातचीत

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वेनच्छन्देन नः सर्वानवधीद् व्यक्तमर्जुनः।
न ह्यस्य समरे मुच्येदन्तकोऽप्याततायिनः ॥ १ ॥

मूलम्

स्वेनच्छन्देन नः सर्वानवधीद् व्यक्तमर्जुनः।
न ह्यस्य समरे मुच्येदन्तकोऽप्याततायिनः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने कहा— संजय! निश्चय ही अर्जुनने अपनी इच्छासे हमारे सब सैनिकोंका वध किया। समरांगणमें यदि वे शस्त्र उठा लें तो यमराज भी उनके हाथसे जीवित नहीं छूट सकता॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थश्चैकोऽहरद् भद्रामेकश्चाग्निमतर्पयत् ।
एकश्चेमां महीं जित्वा चक्रे बलिभूतो नृपान् ॥ २ ॥

मूलम्

पार्थश्चैकोऽहरद् भद्रामेकश्चाग्निमतर्पयत् ।
एकश्चेमां महीं जित्वा चक्रे बलिभूतो नृपान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने अकेले ही सुभद्राका अपहरण किया, अकेले ही खाण्डव वनमें अग्निदेवको तृप्त किया और अकेले ही इस पृथ्वीको जीतकर सम्पूर्ण नरेशोंको कर देनेवाला बना दिया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको निवातकवचानहनद् दिव्यकार्मुकः ।
एकः किरातरूपेण स्थितं शर्वमयोधयत् ॥ ३ ॥

मूलम्

एको निवातकवचानहनद् दिव्यकार्मुकः ।
एकः किरातरूपेण स्थितं शर्वमयोधयत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने दिव्य धनुष धारण करके अकेले ही निवातकवचोंका संहार कर डाला और किरातरूप धारण करके खड़े हुए महादेवजीके साथ भी अकेले ही युद्ध किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको ह्यरक्षद् भरतानेको भवमतोषयत्।
तेनैकेन जिताः सर्वे महीपा ह्युग्रतेजसा ॥ ४ ॥

मूलम्

एको ह्यरक्षद् भरतानेको भवमतोषयत्।
तेनैकेन जिताः सर्वे महीपा ह्युग्रतेजसा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने अकेले ही घोषयात्राके समय दुर्योधन आदि भरतवंशियोंकी रक्षा की, अकेले ही अपने पराक्रमसे महादेवजीको संतुष्ट किया और उन उग्रतेजस्वी वीरने अकेले ही (विराटनगरमें) कौरव-दलके समस्त भूमिपालोंको पराजित किया था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते निन्द्याः प्रशस्यास्ते यत्ते चक्रुर्ब्रवीहि तत्।
ततो दुर्योधनः सूत पश्चात् किमकरोत् तदा ॥ ५ ॥

मूलम्

न ते निन्द्याः प्रशस्यास्ते यत्ते चक्रुर्ब्रवीहि तत्।
ततो दुर्योधनः सूत पश्चात् किमकरोत् तदा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये वे हमारे पक्षके सैनिक या नरेश निन्दनीय नहीं हैं, प्रशंसाके ही पात्र हैं। उन्होंने जो कुछ किया हो, बताओ। सूत! सेनाके शिविरमें लौट आनेके पश्चात् उस समय दुर्योधनने क्या किया?॥५॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतप्रहतविध्वस्ता विवर्मायुधवाहनाः ।
दीनस्वरा दूयमाना मानिनः शत्रुनिर्जिताः ॥ ६ ॥

मूलम्

हतप्रहतविध्वस्ता विवर्मायुधवाहनाः ।
दीनस्वरा दूयमाना मानिनः शत्रुनिर्जिताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय बोले— राजन्! कौरव-सैनिक बाणोंसे घायल, छिन्न-भिन्न अवयवोंसे युक्त और अपने वाहनोंसे भ्रष्ट हो गये थे। उनके कवच, आयुध और वाहन नष्ट हो गये थे। उनके स्वरोंमें दीनता थी। शत्रुओंसे पराजित होनेके कारण वे स्वाभिमानी कौरव मन-ही-मन बहुत दुःख पा रहे थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिबिरस्थाः पुनर्मन्त्रं मन्त्रयन्ति स्म कौरवाः।
भग्नदंष्ट्रा हतविषाः पादाक्रान्ता इवोरगाः ॥ ७ ॥

मूलम्

शिबिरस्थाः पुनर्मन्त्रं मन्त्रयन्ति स्म कौरवाः।
भग्नदंष्ट्रा हतविषाः पादाक्रान्ता इवोरगाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिविरमें आनेपर वे कौरव पुनः गुप्त मन्त्रणा करने लगे। उस समय उनकी दशा पैरसे कुचले गये उन सर्पोंके समान हो रही थी, जिनके दाँत तोड़ दिये और विष नष्ट कर दिये गये हों॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानब्रवीत् ततः कर्णः क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्।
करं करेण निष्पीड्‌य प्रेक्षमाणस्तवात्मजम् ॥ ८ ॥

मूलम्

तानब्रवीत् ततः कर्णः क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्।
करं करेण निष्पीड्‌य प्रेक्षमाणस्तवात्मजम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय क्रोधमें भरकर फुफकारते हुए सर्पके समान कर्णने हाथ-से-हाथ दबाकर आपके पुत्रकी ओर देखते हुए उन कौरव वीरोंसे इस प्रकार कहा—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्तो दृढश्च दक्षश्च धृतिमानर्जुनस्तदा।
सम्बोधयति चाप्येनं यथाकालमधोक्षजः ॥ ९ ॥

मूलम्

यत्तो दृढश्च दक्षश्च धृतिमानर्जुनस्तदा।
सम्बोधयति चाप्येनं यथाकालमधोक्षजः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन सावधान, दृढ़, चतुर और धैर्यवान् हैं। साथ ही उन्हें समय-समयपर श्रीकृष्ण भी कर्तव्यका ज्ञान कराते रहते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहसास्त्रविसर्गेण वयं तेनाद्य वञ्चिताः।
श्वस्त्वहं तस्य संकल्पं सर्वं हन्ता महीपते ॥ १० ॥

मूलम्

सहसास्त्रविसर्गेण वयं तेनाद्य वञ्चिताः।
श्वस्त्वहं तस्य संकल्पं सर्वं हन्ता महीपते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसीलिये उन्होंने सहसा अस्त्रोंका प्रयोग करके आज हमें ठग लिया है; परंतु भूपाल! कल मैं उनके सारे मनसूबेको नष्ट कर दूँगा’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा सोऽनुजज्ञे नृपोत्तमान् ।
तेऽनुज्ञाता नृपाः सर्वे स्वानि वेश्मानि भेजिरे ॥ ११ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा सोऽनुजज्ञे नृपोत्तमान् ।
तेऽनुज्ञाता नृपाः सर्वे स्वानि वेश्मानि भेजिरे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके ऐसा कहनेपर दुर्योधनने ‘तथास्तु’ कहकर समस्त श्रेष्ठ राजाओंको विश्रामके लिये जानेकी आज्ञा दी। आज्ञा पाकर वे सब नरेश अपने-अपने शिविरोंमें चले गये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखोषितास्तां रजनीं हृष्टा युद्धाय निर्ययुः।
तेऽपश्यन् विहितं व्यूहं धर्मराजेन दुर्जयम् ॥ १२ ॥
प्रयत्नात् कुरुमुख्येन बृहस्पत्युशनोमते ।

मूलम्

सुखोषितास्तां रजनीं हृष्टा युद्धाय निर्ययुः।
तेऽपश्यन् विहितं व्यूहं धर्मराजेन दुर्जयम् ॥ १२ ॥
प्रयत्नात् कुरुमुख्येन बृहस्पत्युशनोमते ।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ रातभर सुखसे रहे। फिर प्रसन्नतापूर्वक युद्धके लिये निकले। निकलकर उन्होंने देखा कि कुरुवंशके श्रेष्ठ पुरुष धर्मराज युधिष्ठिरने बृहस्पति और शुक्राचार्यके मतके अनुसार प्रयत्नपूर्वक अपनी सेनाका दुर्जय व्यूह बना रखा है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ प्रतीपकर्तारं प्रवीरं परवीरहा ॥ १३ ॥
सस्मार वृषभस्कन्धं कर्णं दुर्योधनस्तदा।

मूलम्

अथ प्रतीपकर्तारं प्रवीरं परवीरहा ॥ १३ ॥
सस्मार वृषभस्कन्धं कर्णं दुर्योधनस्तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले दुर्योधनने शत्रुओंके विरुद्ध व्यूह-रचनामें समर्थ और वृषभके समान पुष्ट कंधोंवाले प्रमुख वीर कर्णका स्मरण किया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरंदरसमं युद्धे मरुद्‌गणसमं बले ॥ १४ ॥
कार्तवीर्यसमं वीर्ये कर्णं राज्ञोऽगमन्मनः।

मूलम्

पुरंदरसमं युद्धे मरुद्‌गणसमं बले ॥ १४ ॥
कार्तवीर्यसमं वीर्ये कर्णं राज्ञोऽगमन्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण युद्धमें इन्द्रके समान पराक्रमी, मरुद्‌गणोंके समान बलवान् तथा कार्तवीर्य अर्जुनके समान शक्तिशाली था। राजा दुर्योधनका मन उसीकी ओर गया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषां चैव सैन्यानां कर्णमेवागमन्मनः।
सूतपुत्रं महेष्वासं बन्धुमात्ययिकेष्विव ॥ १५ ॥

मूलम्

सर्वेषां चैव सैन्यानां कर्णमेवागमन्मनः।
सूतपुत्रं महेष्वासं बन्धुमात्ययिकेष्विव ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे प्राण-संकटकालमें लोग अपने बन्धुजनोंका स्मरण करते हैं, उसी प्रकार समस्त सेनाओंमेंसे केवल महाधनुर्धर सूतपुत्र कर्णकी ओर ही उसका मन गया॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनः सूत पश्चात् किमकरोत्तदा।
यद्वोऽगमन्मनो मन्दाः कर्णं वैकर्तनं प्रति ॥ १६ ॥
अप्यपश्यत राधेयं शीतार्ता इव भास्करम्।

मूलम्

ततो दुर्योधनः सूत पश्चात् किमकरोत्तदा।
यद्वोऽगमन्मनो मन्दाः कर्णं वैकर्तनं प्रति ॥ १६ ॥
अप्यपश्यत राधेयं शीतार्ता इव भास्करम्।

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा —सूत! तत्पश्चात् दुर्योधनने क्या किया। मूर्खो! तुमलोगोंका मन जो वैकर्तन कर्णकी ओर गया था, उसका क्या कारण है। जैसे शीतसे पीड़ित हुए प्राणी सूर्यकी ओर देखते हैं, क्या उसी प्रकार तुमलोग भी राधापुत्र कर्णकी ओर देखते थे?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतेऽवहारे सैन्यानां प्रवृत्ते च रणे पुनः ॥ १७ ॥
कथं वैकर्तनः कर्णस्तत्रायुध्यत संजय।
कथं च पाण्डवाः सर्वे युयुधुस्तत्र सूतजम् ॥ १८ ॥

मूलम्

कृतेऽवहारे सैन्यानां प्रवृत्ते च रणे पुनः ॥ १७ ॥
कथं वैकर्तनः कर्णस्तत्रायुध्यत संजय।
कथं च पाण्डवाः सर्वे युयुधुस्तत्र सूतजम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! सेनाको शिविरकी ओर लौटानेके बाद जब रात बीती और प्रातःकाल पुनः संग्राम आरम्भ हुआ, उस समय वैकर्तन कर्णने वहाँ किस प्रकार युद्ध किया तथा समस्त पाण्डवोंने सूतपुत्र कर्णके साथ किस प्रकार युद्ध आरम्भ किया?॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णो ह्येको महाबाहुर्हन्यात्‌ पार्थान्‌ ससृंजयान्।
कर्णस्य भुजयोर्वीर्यं शक्रविष्णुसमं युधि ॥ १९ ॥
तस्य शस्त्राणि घोराणि विक्रमश्च महात्मनः।
कर्णमाश्रित्य संग्रामे मत्तो दुर्योधनो नृपः ॥ २० ॥

मूलम्

कर्णो ह्येको महाबाहुर्हन्यात्‌ पार्थान्‌ ससृंजयान्।
कर्णस्य भुजयोर्वीर्यं शक्रविष्णुसमं युधि ॥ १९ ॥
तस्य शस्त्राणि घोराणि विक्रमश्च महात्मनः।
कर्णमाश्रित्य संग्रामे मत्तो दुर्योधनो नृपः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अकेला महाबाहु कर्ण सृंजयोंसहित समस्त कुन्तीपुत्रोंको मार सकता है। युद्धमें कर्णका बाहुबल इन्द्र और विष्णुके समान है। उसके अस्त्र-शस्त्र भयंकर हैं तथा उस महामनस्वी वीरका पराक्रम भी अद्भुत है।’ यह सब सोचकर राजा दुर्योधन संग्राममें कर्णका सहारा ले मतवाला हो उठा था॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनं ततो दृष्ट्वा पाण्डवेन भृशार्दितम्।
पराक्रान्तान् पाण्डुसुतान्‌ दृष्ट्वा चापि महारथः ॥ २१ ॥

मूलम्

दुर्योधनं ततो दृष्ट्वा पाण्डवेन भृशार्दितम्।
पराक्रान्तान् पाण्डुसुतान्‌ दृष्ट्वा चापि महारथः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु उस समय पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरद्वारा दुर्योधनको अत्यन्त पीड़ित होते और पाण्डुपुत्रोंको पराक्रम प्रकट करते देखकर भी महारथी कर्णने क्या किया?॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णमाश्रित्य संग्रामे मन्दो दुर्योधनः पुनः।
जेतुमुत्सहते पार्थान् सपुत्रान् सहकेशवान् ॥ २२ ॥

मूलम्

कर्णमाश्रित्य संग्रामे मन्दो दुर्योधनः पुनः।
जेतुमुत्सहते पार्थान् सपुत्रान् सहकेशवान् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूर्ख दुर्योधन संग्राममें कर्णका आश्रय लेकर पुनः पुत्रोसहित कुलीकुमारों और श्रीकृष्णको जीतनेके लिये उत्साहित हुआ था॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो बत महद् दुःखं यत्र पाण्डुसुतान् रणे।
नातरद् रभसः कर्णो दैवं नूनं परायणम् ॥ २३ ॥

मूलम्

अहो बत महद् दुःखं यत्र पाण्डुसुतान् रणे।
नातरद् रभसः कर्णो दैवं नूनं परायणम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! यह महान् दुःखकी बात है कि वेगशाली वीर कर्ण भी रणभूमिमें पाण्डवोंसे पार न पा सका। अवश्य दैव ही सबका परम आश्रय है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो द्यूतस्य निष्ठेयं घोरा सम्प्रति वर्तते।
अहो तीव्राणि दुःखानि दुर्योधनकृतान्यहम् ॥ २४ ॥
सोढा घोराणि बहुशः शल्यभूतानि संजय।

मूलम्

अहो द्यूतस्य निष्ठेयं घोरा सम्प्रति वर्तते।
अहो तीव्राणि दुःखानि दुर्योधनकृतान्यहम् ॥ २४ ॥
सोढा घोराणि बहुशः शल्यभूतानि संजय।

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! द्यूतक्रीडाका यह घोर परिणाम इस समय प्रकट हुआ है। संजय! आश्चर्य है कि मैंने दुर्योधनके कारण बहुत-से तीव्र एवं भयंकर दुःख, जो काँटोंके समान कसक रहे हैं, सहन किये हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौबलं च तदा तात नीतिमानिति मन्यते ॥ २५ ॥
कर्णश्च रभसो नित्यं राजा तं चाप्यनुव्रतः।

मूलम्

सौबलं च तदा तात नीतिमानिति मन्यते ॥ २५ ॥
कर्णश्च रभसो नित्यं राजा तं चाप्यनुव्रतः।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! दुर्योधन उन दिनों शकुनिको बड़ा नीतिज्ञ मानता था तथा वेगशाली वीर कर्ण भी नीतिज्ञ है, ऐसा समझकर राजा दुर्योधन उसका भी भक्त बना रहा॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेवं वर्तमानेषु महायुद्धेषु संजय ॥ २६ ॥
अश्रौषं निहतान् पुत्रान् नित्यमेव विनिर्जितान्।
न पाण्डवानां समरे कश्चिदस्ति निवारकः ॥ २७ ॥
स्त्रीमध्यमिव गाहन्ते दैवं तु बलवत्तरम्।

मूलम्

यदेवं वर्तमानेषु महायुद्धेषु संजय ॥ २६ ॥
अश्रौषं निहतान् पुत्रान् नित्यमेव विनिर्जितान्।
न पाण्डवानां समरे कश्चिदस्ति निवारकः ॥ २७ ॥
स्त्रीमध्यमिव गाहन्ते दैवं तु बलवत्तरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! इस प्रकार वर्तमान महान् युद्धोंमें जो मैं प्रतिदिन ही अपने कुछ पुत्रोंको मारा गया और कुछको पराजित हुआ सुनता आ रहा हूँ, इससे मुझे यह विश्वास हो गया है कि समरांगणमें कोई भी ऐसा वीर नहीं है जो पाण्डवोंको रोक सके। जैसे लोग स्त्रियोंके बीचमें निर्भय प्रवेश कर जाते हैं, उसी प्रकार पाण्डव मेरी सेनामें बेखटके घुस जाते हैं। अवश्य इस विषयमें दैव ही अत्यन्त प्रबल है॥२६-२७॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् पूर्वनिमित्तानि धर्मिष्ठानि विचिन्तय ॥ २८ ॥
अतिकान्तं हि यत् कार्यं पश्चाच्चिन्तयते नरः।
तच्चास्य न भवेत् कार्यं चिन्तया च विनश्यति ॥ २९ ॥

मूलम्

राजन् पूर्वनिमित्तानि धर्मिष्ठानि विचिन्तय ॥ २८ ॥
अतिकान्तं हि यत् कार्यं पश्चाच्चिन्तयते नरः।
तच्चास्य न भवेत् कार्यं चिन्तया च विनश्यति ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! पूर्वकालमें आपने जो द्यूतक्रीडा आदि धर्मसंगत कारण उपस्थित किये थे, उन्हें याद तो कीजिये। जो मनुष्य बीती हुई बातके लिये पीछे चिन्ता करता है, उसका वह कार्य तो सिद्ध होता नहीं, केवल चिन्ता करनेसे वह स्वयं नष्ट हो जाता है॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिदं तव कार्यं तु दूरप्राप्तं विजानता।
न कृतं यत् त्वया पूर्वं प्राप्ताप्राप्तविचारणम् ॥ ३० ॥

मूलम्

तदिदं तव कार्यं तु दूरप्राप्तं विजानता।
न कृतं यत् त्वया पूर्वं प्राप्ताप्राप्तविचारणम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंके राज्यके अपहरणरूपी इस कार्यमें सफलता मिलनी आपके लिये दूरकी बात थी। यह जानते हुए भी आपने पहले इस बातका विचार नहीं किया कि यह उचित है या अनुचित॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तोऽसि बहुधा राजन् मा युध्यस्वेति पापडवैः।
गृह्णीषे न च तन्मोहाद् वचनं च विशाम्पते ॥ ३१ ॥

मूलम्

उक्तोऽसि बहुधा राजन् मा युध्यस्वेति पापडवैः।
गृह्णीषे न च तन्मोहाद् वचनं च विशाम्पते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पाण्डवोंने तो आपसे बारंबार कहा था कि ‘आप युद्ध न छेड़िये।’ किन्तु प्रजानाथ! आपने मोहवश उनकी बात नहीं मानी॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया पापानि घोराणि समाचीर्णानि पाण्डुषु।
त्वत्कृते वर्तते घोरः पार्थिवानां जनक्षयः ॥ ३२ ॥

मूलम्

त्वया पापानि घोराणि समाचीर्णानि पाण्डुषु।
त्वत्कृते वर्तते घोरः पार्थिवानां जनक्षयः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने पाण्डवोंपर भयंकर अत्याचार किये हैं। आपके ही कारण राजाओंद्वारा यह घोर नरसंहार हो रहा है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्त्विदानीमतिक्रान्तं मा शुचो भरतर्षभ।
शृणु सर्वं यथावृत्तं घोरं वैशसमुच्यते ॥ ३३ ॥

मूलम्

तत्त्विदानीमतिक्रान्तं मा शुचो भरतर्षभ।
शृणु सर्वं यथावृत्तं घोरं वैशसमुच्यते ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वह बात तो अब बीत गयी। उसके लिये शोक न करें। युद्धका सारा वृत्तान्त यथावत् रूपसे सुनें। मैं उस भयंकर विनाशका वर्णन करता हूँ॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभातायां रजन्यां तु कर्णो राजानमभ्ययात्।
समेत्य च महाबाहुर्दुर्योधनमथाब्रवीत् ॥ ३४ ॥

मूलम्

प्रभातायां रजन्यां तु कर्णो राजानमभ्ययात्।
समेत्य च महाबाहुर्दुर्योधनमथाब्रवीत् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब रात बीती और प्रातःकाल हो गया, तब महाबाहु कर्ण राजा दुर्योधनके पास आया और उससे मिलकर इस प्रकार बोला॥३४॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य राजन् समेष्यामि पाण्डवेन यशस्विना।
निहनिष्यामि तं वीरं स वा मां निहनिष्यति ॥ ३५ ॥

मूलम्

अद्य राजन् समेष्यामि पाण्डवेन यशस्विना।
निहनिष्यामि तं वीरं स वा मां निहनिष्यति ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने कहा— राजन्! आज मैं यशस्वी पाण्डुपुत्र अर्जुनके साथ संग्राम करूँगा। या तो मैं ही उस वीरको मार डालूँगा या वही मेरा वध कर डालेगा॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुत्वान्मम कार्याणां तथा पार्थस्य भारत।
नाभूत् समागमो राजन् मम चैवार्जुनस्य च ॥ ३६ ॥

मूलम्

बहुत्वान्मम कार्याणां तथा पार्थस्य भारत।
नाभूत् समागमो राजन् मम चैवार्जुनस्य च ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशी नरेश! मेरे तथा अर्जुनके सामने बहुत-से कार्य आते गये; इसीलिये अबतक मेरा और उनका द्वैरथ युद्ध न हो सका॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु मे यथाप्राज्ञं शृणु वाक्यं विशाम्पते।
अनिहत्य रणे पार्थं नाहमेष्यामि भारत ॥ ३७ ॥

मूलम्

इदं तु मे यथाप्राज्ञं शृणु वाक्यं विशाम्पते।
अनिहत्य रणे पार्थं नाहमेष्यामि भारत ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! भरतनन्दन! मैं अपनी बुद्धिके अनुसार निश्चय करके यह जो बात कह रहा हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो। आज मैं रणभूमिमें अर्जुनका वध किये बिना नहीं लौटूँगा॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतप्रवीरे सैन्येऽस्मिन् मयि चावस्थिते युधि।
अभियास्यति मां पार्थः शक्रशक्तिविनाकृतम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

हतप्रवीरे सैन्येऽस्मिन् मयि चावस्थिते युधि।
अभियास्यति मां पार्थः शक्रशक्तिविनाकृतम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारी इस सेनाके प्रमुख वीर मारे गये हैं। अतः मैं युद्धमें जब इस सेनाके भीतर खड़ा होऊँगा, उस समय अर्जुन मुझे इन्द्रकी दी हुई शक्तिसे वंचित जानकर अवश्य मुझपर आक्रमण करेंगे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः श्रेयस्करं यच्च तन्निबोध जनेश्वर।
आयुधानां च मे वीर्यं दिव्यानामर्जुनस्य च ॥ ३९ ॥

मूलम्

ततः श्रेयस्करं यच्च तन्निबोध जनेश्वर।
आयुधानां च मे वीर्यं दिव्यानामर्जुनस्य च ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! अब जो यहाँ हितकर बात है, उसे सुनिये। मेरे तथा अर्जुनके पास भी दिव्यास्त्रोंका समान बल है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कायस्य महतो भेदे लाघवे दूरपातने।
सौष्ठवे चास्त्रपाते च सव्यसाची न मत्समः ॥ ४० ॥

मूलम्

कायस्य महतो भेदे लाघवे दूरपातने।
सौष्ठवे चास्त्रपाते च सव्यसाची न मत्समः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथी आदिके विशाल शरीरका भेदन करने, शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने, दूरका लक्ष्य वेधने, सुन्दर रीतिसे युद्ध करने तथा दिव्यास्त्रोंके प्रयोगमें भी सव्यसाची अर्जुन मेरे समान नहीं हैं॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणे शौर्येऽथ विज्ञाने विक्रमे चापि भारत।
निमित्तज्ञानयोगे च सव्यसाची न मत्समः ॥ ४१ ॥

मूलम्

प्राणे शौर्येऽथ विज्ञाने विक्रमे चापि भारत।
निमित्तज्ञानयोगे च सव्यसाची न मत्समः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! शारीरिक बल, शौर्य, अस्त्रविज्ञान, पराक्रम तथा शत्रुओंपर विजय पानेके उपायको ढूँढ़ निकालनेमें भी सव्यसाची अर्जुन मेरी समानता नहीं कर सकते॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वायुधमहामात्रं विजयं नाम तद्धनुः।
इन्द्रार्थं प्रियकामेन निर्मितं विश्वकर्मणा ॥ ४२ ॥

मूलम्

सर्वायुधमहामात्रं विजयं नाम तद्धनुः।
इन्द्रार्थं प्रियकामेन निर्मितं विश्वकर्मणा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे धनुषका नाम विजय है। यह समस्त आयुधोंमें श्रेष्ठ है। इसे इन्द्रका प्रिय चाहनेवाले विश्वकर्माने उन्हींके लिये बनाया था॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन दैत्यगणान् राजञ्जितवान् वै शतक्रतुः।
यस्य घोषेण दैत्यानां व्यामुह्यन्त दिशो दश ॥ ४३ ॥
तद् भार्गवाय प्रायच्छच्छक्रः परमसम्मतम्।
तद् दिव्यं भार्गवो मह्यमददाद् धनुरुत्तमम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

येन दैत्यगणान् राजञ्जितवान् वै शतक्रतुः।
यस्य घोषेण दैत्यानां व्यामुह्यन्त दिशो दश ॥ ४३ ॥
तद् भार्गवाय प्रायच्छच्छक्रः परमसम्मतम्।
तद् दिव्यं भार्गवो मह्यमददाद् धनुरुत्तमम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इन्द्रने जिसके द्वारा दैत्योंको जीता था, जिसकी टंकारसे दैत्योंको दसों दिशाओंके पहचाननेमें भ्रम हो जाता था, उसी अपने परम प्रिय दिव्य धनुषको इन्द्रने परशुरामजीको दिया था और परशुरामजीने वह दिव्य उत्तम धनुष मुझे दे दिया है॥४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन योत्स्ये महाबाहुमर्जुनं जयतां वरम्।
यथेन्द्रः समरे सर्वान् दैतेयान् वै समागतान् ॥ ४५ ॥

मूलम्

तेन योत्स्ये महाबाहुमर्जुनं जयतां वरम्।
यथेन्द्रः समरे सर्वान् दैतेयान् वै समागतान् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी धनुषके द्वारा मैं विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ महाबाहु अर्जुनके साथ युद्ध करूँगा। ठीक वैसे ही जैसे समरांगणमें आये हुए समस्त दैत्योंके साथ इन्द्रने युद्ध किया था॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुर्घोरं रामदत्तं गाण्डीवात् तद् विशिष्यते।
त्रिस्सप्तकृत्वः पृथिवी धनुषा येन निर्जिता ॥ ४६ ॥

मूलम्

धनुर्घोरं रामदत्तं गाण्डीवात् तद् विशिष्यते।
त्रिस्सप्तकृत्वः पृथिवी धनुषा येन निर्जिता ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजीका दिया हुआ वह घोर धनुष गाण्डीवसे श्रेष्ठ है। यह वही धनुष है, जिसके द्वारा परशुरामजीने पृथ्वीपर इक्कीस बार विजय पायी थी॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुषो ह्यस्य कर्माणि दिव्यानि प्राह भार्गवः।
तद् रामो ह्यददान्मह्यं तेन योत्स्यामि पाण्डवम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

धनुषो ह्यस्य कर्माणि दिव्यानि प्राह भार्गवः।
तद् रामो ह्यददान्मह्यं तेन योत्स्यामि पाण्डवम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं भृगुनन्दन परशुरामने ही मुझे उस धनुषके दिव्य कर्म बताये हैं और उसे उन्होंने मुझे अर्पित कर दिया है; उसी धनुषके द्वारा मैं पाण्डुकुमार अर्जुनके साथ युद्ध करूँगा॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य दुर्योधनाहं त्वां नन्दयिष्ये सबान्धवम्।
निहत्य समरे वीरमर्जुनं जयतां वरम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

अद्य दुर्योधनाहं त्वां नन्दयिष्ये सबान्धवम्।
निहत्य समरे वीरमर्जुनं जयतां वरम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन! आज मैं समरभूमिमें विजयी पुरुषोंमें श्रेष्ठ वीर अर्जुनका वध करके बन्धु-बान्धवोंसहित तुम्हें आनन्दित करूँगा॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सपर्वतवनद्वीपा हतवीरा ससागरा ।
पुत्रपौत्रप्रतिष्ठा ते भविष्यत्यद्य पार्थिव ॥ ४९ ॥

मूलम्

सपर्वतवनद्वीपा हतवीरा ससागरा ।
पुत्रपौत्रप्रतिष्ठा ते भविष्यत्यद्य पार्थिव ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! आज उस वीरके मारे जानेपर पर्वत, वन, द्वीप और समुद्रोंसहित यह सारी पृथ्वी तुम्हारे पुत्र-पौत्रोंकी परम्परामें प्रतिष्ठित हो जायगी॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाशक्यं विद्यते मेऽद्य त्वत्प्रियार्थं विशेषतः।
सम्यग्धर्मानुरक्तस्य सिद्धिरात्मवतो यथा ॥ ५० ॥

मूलम्

नाशक्यं विद्यते मेऽद्य त्वत्प्रियार्थं विशेषतः।
सम्यग्धर्मानुरक्तस्य सिद्धिरात्मवतो यथा ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे उत्तम धर्ममें अनुरक्त हुए मनस्वी पुरुषके लिये सिद्धि दुर्लभ नहीं है, उसी प्रकार आज विशेषतः तुम्हारा प्रिय करनेके हेतु मेरे लिये कुछ भी असम्भव नहीं है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मां समरे सोढुं संशक्तोऽग्निं तरुर्यथा।
अवश्यं तु मया वाच्यं येन हीनोऽस्मि फाल्गुनात् ॥ ५१ ॥

मूलम्

न हि मां समरे सोढुं संशक्तोऽग्निं तरुर्यथा।
अवश्यं तु मया वाच्यं येन हीनोऽस्मि फाल्गुनात् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वृक्ष अग्निका आक्रमण नहीं सह सकता, उसी प्रकार अर्जुनमें ऐसी शक्ति नहीं है कि मेरा वेग सह सकें; परंतु जिस बातमें मैं अर्जुनसे कम हूँ, वह भी मुझे अवश्य ही बता देना उचित है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्या तस्य धनुषो दिव्या तथाक्षय्ये महेषुधी।
सारथिस्तस्य गोविन्दो मम तादृङ् न विद्यते ॥ ५२ ॥

मूलम्

ज्या तस्य धनुषो दिव्या तथाक्षय्ये महेषुधी।
सारथिस्तस्य गोविन्दो मम तादृङ् न विद्यते ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके धनुषकी प्रत्यंचा दिव्य है। उनके पास दो बड़े-बड़े दिव्य तरकस हैं, जो कभी खाली नहीं होते तथा उनके सारथि श्रीकृष्ण हैं, ये सब मेरे पास वैसे नहीं हैं॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य दिव्यं धनुः श्रेष्ठं गाण्डीवमजितं युधि।
विजयं च महद्दिव्यं ममापि धनुरुत्तमम् ॥ ५३ ॥

मूलम्

तस्य दिव्यं धनुः श्रेष्ठं गाण्डीवमजितं युधि।
विजयं च महद्दिव्यं ममापि धनुरुत्तमम् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि उनके पास युद्धमें अजेय, श्रेष्ठ, दिव्य गाण्डीव धनुष है तो मेरे पास भी विजय नामक महान् दिव्य एवं उत्तम धनुष मौजूद है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राहमधिकः पार्थाद् धनुषा तेन पार्थिव।
येन चाप्यधिको वीरः पाण्डवस्तन्निबोध मे ॥ ५४ ॥

मूलम्

तत्राहमधिकः पार्थाद् धनुषा तेन पार्थिव।
येन चाप्यधिको वीरः पाण्डवस्तन्निबोध मे ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! धनुषकी दृष्टिसे तो मैं ही अर्जुनसे बढ़ा-चढ़ा हूँ; परंतु वीर पाण्डुकुमार अर्जुन जिसके कारण मुझसे बढ़ जाते हैं, वह भी सुन लो॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रश्मिग्राहश्च दाशार्हः सर्वलोकनमस्कृतः ।
अग्निदत्तश्च वै दिव्यो रथः काञ्चनभूषणः ॥ ५५ ॥
अच्छेद्यः सर्वतो वीर वाजिनश्च मनोजवाः।
ध्वजश्च दिव्यो द्युतिमान् वानरो विस्मयंकरः ॥ ५६ ॥

मूलम्

रश्मिग्राहश्च दाशार्हः सर्वलोकनमस्कृतः ।
अग्निदत्तश्च वै दिव्यो रथः काञ्चनभूषणः ॥ ५५ ॥
अच्छेद्यः सर्वतो वीर वाजिनश्च मनोजवाः।
ध्वजश्च दिव्यो द्युतिमान् वानरो विस्मयंकरः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वलोकवन्दित, दशार्हकुलनन्दन श्रीकृष्ण उनके घोड़ोंकी रास सँभालते हैं। वीर! उनके पास अग्निका दिया हुआ सुवर्णभूषित दिव्य रथ है, जिसे किसी प्रकार नष्ट नहीं किया जा सकता। उनके घोड़े भी मनके समान वेगशाली हैं। उनका तेजस्वी ध्वज दिव्य है, जिसके ऊपर सबको आश्चर्यमें डालनेवाला वानर बैठा रहता है॥५५-५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णश्च स्रष्टा जगतो रथं तमभिरक्षति।
एतैर्द्रव्यैरहं हीनो योद्धुमिच्छामि पाण्डवम् ॥ ५७ ॥

मूलम्

कृष्णश्च स्रष्टा जगतो रथं तमभिरक्षति।
एतैर्द्रव्यैरहं हीनो योद्धुमिच्छामि पाण्डवम् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण जगत्‌के स्रष्टा हैं। वे अर्जुनके उस रथकी रक्षा करते हैं। इन्हीं वस्तुओंसे हीन होकर मैं पाण्डुपुत्र अर्जुनसे युद्धकी इच्छा रखता हूँ॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं तु सदृशः शौरेः शल्यः समितिशोभनः।
सारथ्यं यदि मे कुर्याद् ध्रुवस्ते विजयो भवेत् ॥ ५८ ॥

मूलम्

अयं तु सदृशः शौरेः शल्यः समितिशोभनः।
सारथ्यं यदि मे कुर्याद् ध्रुवस्ते विजयो भवेत् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवश्य ही ये युद्धमें शोभा पानेवाले राजा शल्य श्रीकृष्णके समान हैं, यदि ये मेरे सारथिका कार्य कर सकें तो तुम्हारी विजय निश्चित है॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य मे सारथिः शल्यो भवत्वसुकरः परैः।
नाराचान् गार्ध्रपत्रांश्च शकटानि वहन्तु मे ॥ ५९ ॥

मूलम्

तस्य मे सारथिः शल्यो भवत्वसुकरः परैः।
नाराचान् गार्ध्रपत्रांश्च शकटानि वहन्तु मे ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंसे सुगमतापूर्वक जीते न जा सकनेवाले राजा शल्य मेरे सारथि हो जायँ और बहुत-से छकड़े मेरे पास गीधकी पाँखोंसे युक्त नाराच पहुँचाते रहें॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथाश्च मुख्या राजेन्द्र युक्ता वाजिभिरुत्तमैः।
अयान्तु पश्चात् सततं मामेव भरतर्षभ ॥ ६० ॥

मूलम्

रथाश्च मुख्या राजेन्द्र युक्ता वाजिभिरुत्तमैः।
अयान्तु पश्चात् सततं मामेव भरतर्षभ ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! भरतश्रेष्ठ! उत्तम घोड़ोंसे जुते हुए अच्छे-अच्छे रथ सदा मेरे पीछे चलते रहें॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमभ्यधिकः पार्थाद् भविष्यामि गुणैरहम्।
शल्योऽप्यधिकः कृष्णादर्जुनादपि चाप्यहम् ॥ ६१ ॥

मूलम्

एवमभ्यधिकः पार्थाद् भविष्यामि गुणैरहम्।
शल्योऽप्यधिकः कृष्णादर्जुनादपि चाप्यहम् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी व्यवस्था होनेपर मैं गुणोंमें पार्थसे बढ़ जाऊँगा। शल्य भी श्रीकृष्णसे बड़े-चढ़े हैं और मैं भी अर्जुनसे श्रेष्ठ हूँ॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाश्वहृदयं वेद दाशार्हः परवीरहा।
तथा शल्यो विजानीते हयज्ञानं महारथः ॥ ६२ ॥

मूलम्

यथाश्वहृदयं वेद दाशार्हः परवीरहा।
तथा शल्यो विजानीते हयज्ञानं महारथः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले दशार्हवंशी श्रीकृष्ण अश्वविद्याके रहस्यको जिस प्रकार जानते हैं, उसी प्रकार महारथी शल्य भी अश्वविज्ञानके विशेषज्ञ हैं॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहुवीर्ये समो नास्ति मद्रराजस्य कश्चन।
तथास्त्रे मत्समो नास्ति कश्चिदेव धनुर्धरः ॥ ६३ ॥

मूलम्

बाहुवीर्ये समो नास्ति मद्रराजस्य कश्चन।
तथास्त्रे मत्समो नास्ति कश्चिदेव धनुर्धरः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाहुबलमें मद्रराज शल्यकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। उसी प्रकार अस्त्रविद्यामें मेरे समान कोई भी धनुर्धर नहीं है॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा शल्यसमो नास्ति हयज्ञाने हि कश्चन।
सोऽयमभ्यधिकः कृष्णाद् भविष्यति रथो मम ॥ ६४ ॥

मूलम्

तथा शल्यसमो नास्ति हयज्ञाने हि कश्चन।
सोऽयमभ्यधिकः कृष्णाद् भविष्यति रथो मम ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वविज्ञानमें भी शल्यके समान कोई नहीं है। शल्यके सारथि होनेपर मेरा यह रथ अर्जुनके रथसे बढ़ जायगा॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं कृते रथस्थोऽहं गुणैरभ्यधिकोऽर्जुनात्।
भवे युधि जयेयं च फाल्गुनं कुरुसत्तम ॥ ६५ ॥
समुद्यातुं न शक्ष्यन्ति देवा अपि सवासवाः।

मूलम्

एवं कृते रथस्थोऽहं गुणैरभ्यधिकोऽर्जुनात्।
भवे युधि जयेयं च फाल्गुनं कुरुसत्तम ॥ ६५ ॥
समुद्यातुं न शक्ष्यन्ति देवा अपि सवासवाः।

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी व्यवस्था कर लेनेपर जब मैं रथमें बैठूँगा, उस समय सभी गुणोंद्वारा अर्जुनसे बढ़ जाऊँगा। कुरुश्रेष्ठ! फिर तो मैं युद्धमें अर्जुनको अवश्य जीत लूँगा। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी मेरा सामना नहीं कर सकेंगे॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् कृतं महाराज त्वयेच्छामि परंतप ॥ ६६ ॥
क्रियतामेष कामो मे मा वः कालोऽत्यगादयम्।

मूलम्

एतत् कृतं महाराज त्वयेच्छामि परंतप ॥ ६६ ॥
क्रियतामेष कामो मे मा वः कालोऽत्यगादयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले महाराज! मैं चाहता हूँ कि आपके द्वारा यही व्यवस्था हो जाय। मेरा यह मनोरथ पूर्ण किया जाय। अब आपलोगोंका यह समय व्यर्थ नहीं बीतना चाहिये॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं कृते कृतं साह्यं सर्वकामैर्भविष्यति ॥ ६७ ॥
ततो द्रक्ष्यसि संग्रामे यत् करिष्यामि भारत।
सर्वथा पाण्डवान् संख्ये विजेष्ये वै समागतान् ॥ ६८ ॥

मूलम्

एवं कृते कृतं साह्यं सर्वकामैर्भविष्यति ॥ ६७ ॥
ततो द्रक्ष्यसि संग्रामे यत् करिष्यामि भारत।
सर्वथा पाण्डवान् संख्ये विजेष्ये वै समागतान् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा करनेपर मेरी सम्पूर्ण इच्छाओंके अनुसार सहायता सम्पन्न हो जायगी। भारत! उस समय मैं संग्राममें जो कुछ करूँगा, उसे तुम स्वयं देख लोगे। युद्धस्थलमें आये हुए समस्त पाण्डवोंको निश्चय ही मैं सब प्रकारसे जीत लूँगा॥६७-६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मे समरे शक्ताः समुद्यातुं सुरसुराः।
किमु पाण्डुसुता राजन् रणे मानुषयोनयः ॥ ६१ ॥

मूलम्

न हि मे समरे शक्ताः समुद्यातुं सुरसुराः।
किमु पाण्डुसुता राजन् रणे मानुषयोनयः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! समरांगणमें देवता और असुर भी मेरा सामना नहीं कर सकते, फिर मनुष्य-योनिमें उत्पन्न हुए पाण्डव तो कर ही कैसे सकते हैं॥६९॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तव सुतः कर्णेनाहवशोभिना ।
सम्पूज्य सम्प्रहृष्टात्मा ततो राधेयमब्रवीत् ॥ ७० ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तव सुतः कर्णेनाहवशोभिना ।
सम्पूज्य सम्प्रहृष्टात्मा ततो राधेयमब्रवीत् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! युद्धमें शोभा पानेवाले कर्णके ऐसा कहनेपर आपके पुत्र दुर्योधनका मन प्रसन्न हो गया। फिर उसने राधापुत्र कर्णका पूर्णतः सम्मान करके उससे कहा॥७०॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतत् करिष्यामि यथा त्वं कर्ण मन्यसे।
सोपासङ्गा रथाः साश्वाः स्वनुयास्यन्ति संयुगे ॥ ७१ ॥

मूलम्

एवमेतत् करिष्यामि यथा त्वं कर्ण मन्यसे।
सोपासङ्गा रथाः साश्वाः स्वनुयास्यन्ति संयुगे ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— कर्ण! जैसा तुम ठीक समझते हो उसीके अनुसार यह सारा कार्य मैं करूँगा। युद्धस्थलमें अनेक तरकसोंसे भरे हुए बहुत-से अश्वयुक्त रथ तुम्हारे पीछे-पीछे जायँगे॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाराचान् गार्ध्रपत्रांश्च शकटानि वहन्तु ते।
अनुयास्याम कर्ण त्वां वयं सर्वे च पार्थिवाः ॥ ७२ ॥

मूलम्

नाराचान् गार्ध्रपत्रांश्च शकटानि वहन्तु ते।
अनुयास्याम कर्ण त्वां वयं सर्वे च पार्थिवाः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कई छकड़े तुम्हारे पास गीधकी पाँखोंसे युक्त नाराच पहुँचाया करेंगे। कर्ण! हमलोग तथा समस्त भूपालगण तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे॥७२॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा महाराज तव पुत्रः प्रतापवान्।
अभिगम्याब्रवीद् राजा मद्रराजमिदं वचः ॥ ७३ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा महाराज तव पुत्रः प्रतापवान्।
अभिगम्याब्रवीद् राजा मद्रराजमिदं वचः ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! ऐसा कहकर आपके प्रतापी पुत्र राजा दुर्योधनने मद्रराज शल्यके पास जाकर इस प्रकार कहा—॥७३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कर्णदुर्योधनसंवादे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें कर्ण और दुर्योधनका संवादविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१॥