भागसूचना
एकोनत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरके द्वारा दुर्योधनकी पराजय
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतितीव्राणि दुःखानि दुःसहानि बहूनि च।
त्वत्तोऽहं संजयाश्रौषं पुत्राणां चैव संक्षयम् ॥ १ ॥
यथा त्वं मे कथयसे तथा युद्धमवर्तत।
न सन्ति सूत कौरव्या इति मे निश्चिता मतिः॥२॥
मूलम्
अतितीव्राणि दुःखानि दुःसहानि बहूनि च।
त्वत्तोऽहं संजयाश्रौषं पुत्राणां चैव संक्षयम् ॥ १ ॥
यथा त्वं मे कथयसे तथा युद्धमवर्तत।
न सन्ति सूत कौरव्या इति मे निश्चिता मतिः॥२॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! तुमसे मैंने अबतक अत्यन्त तीव्र और दुःसह दुःख देनेवाली बहुत-सी घटनाएँ सुनी हैं। अपने पुत्रोंके विनाशकी बात भी सुन ली। सूत! जैसा तुम मुझसे कह रहे हो और जिस प्रकार वह युद्ध सम्पन्न हुआ, उसे देखते हुए मेरा यह दृढ़ निश्चय हो रहा है कि अब कुरुवंशी जीवित नहीं रहे॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनश्च विरथः कृतस्तत्र महारथः।
धर्मपुत्रः कथं चक्रे तस्य वा नृपतिः कथम् ॥ ३ ॥
मूलम्
दुर्योधनश्च विरथः कृतस्तत्र महारथः।
धर्मपुत्रः कथं चक्रे तस्य वा नृपतिः कथम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुनता हूँ महारथी दुर्योधन भी वहाँ रथहीन कर दिया गया। धर्मपुत्र युधिष्ठिरने उसके साथ किस प्रकार युद्ध किया अथवा राजा दुर्योधनने युधिष्ठिरके प्रति कैसा बर्ताव किया?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपराह्णे कथं युद्धमभवल्लोमहर्षणम् ।
तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन कुशलो ह्यसि संजय ॥ ४ ॥
मूलम्
अपराह्णे कथं युद्धमभवल्लोमहर्षणम् ।
तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन कुशलो ह्यसि संजय ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! अपराह्णकालमें किस प्रकार वह रोमांचकारी युद्ध हुआ था? यह मुझे ठीक-ठीक बताओ; क्योंकि तुम उसका वर्णन करनेमें कुशल हो॥४॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसक्तेषु तु सैन्येषु वध्यमानेषु भागशः।
रथमन्यं समास्थाय पुत्रस्तव विशाम्पते ॥ ५ ॥
क्रोधेन महता युक्तः सविषो भुजगो यथा।
मूलम्
संसक्तेषु तु सैन्येषु वध्यमानेषु भागशः।
रथमन्यं समास्थाय पुत्रस्तव विशाम्पते ॥ ५ ॥
क्रोधेन महता युक्तः सविषो भुजगो यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— प्रजानाथ! जब सारी सेनाएँ विभिन्न भागोंमें बँटकर जूझने और मरने लगीं, तब आपका पुत्र दुर्योधन दूसरे रथपर बैठकर विषधर सर्पके समान अत्यन्त कुपित हो उठा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(सर्वसैन्यमुदीक्ष्यैव क्रोधादुद्वृत्तलोचनः ।
दृष्ट्वा धर्मसुतं चापि सैन्यमध्ये व्यवस्थितम्॥
श्रिया ज्वलन्तं कौन्तेयं यथा वज्रधरं युधि।)
दुर्योधनः समालक्ष्य धर्मराजं युधिष्ठिरम् ॥ ६ ॥
प्रोवाच सूतं त्वरितो याहि याहीति भारत।
तत्र मां प्रापय क्षिप्रं सारथे यत्र पाण्डवः ॥ ७ ॥
ध्रियमाणातपत्रेण राजा राजति दंशितः।
मूलम्
(सर्वसैन्यमुदीक्ष्यैव क्रोधादुद्वृत्तलोचनः ।
दृष्ट्वा धर्मसुतं चापि सैन्यमध्ये व्यवस्थितम्॥
श्रिया ज्वलन्तं कौन्तेयं यथा वज्रधरं युधि।)
दुर्योधनः समालक्ष्य धर्मराजं युधिष्ठिरम् ॥ ६ ॥
प्रोवाच सूतं त्वरितो याहि याहीति भारत।
तत्र मां प्रापय क्षिप्रं सारथे यत्र पाण्डवः ॥ ७ ॥
ध्रियमाणातपत्रेण राजा राजति दंशितः।
अनुवाद (हिन्दी)
सारी सेनाओंपर दृष्टिपात करके क्रोधसे उसकी आँखें घूमने लगीं। उस समय युद्धस्थलमें धर्मपुत्र कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर वज्रधारी इन्द्रके समान अपनी दिव्य कान्तिसे प्रकाशित होते हुए सेनाके बीचमें खड़े थे। भारत! उन धर्मराज युधिष्ठिरको देखकर दुर्योधनने तुरंत अपने सारथिसे कहा—‘सारथे! चलो, चलो, जहाँ पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर कवच बाँधकर छत्र धारण किये सुशोभित हो रहे हैं, वहाँ मुझे शीघ्र पहुँचा दो’॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सूतश्चोदितो राज्ञा राज्ञः स्यन्दनमुत्तमम् ॥ ८ ॥
युधिष्ठिरस्याभिमुखं प्रेषयामास संयुगे ।
मूलम्
स सूतश्चोदितो राज्ञा राज्ञः स्यन्दनमुत्तमम् ॥ ८ ॥
युधिष्ठिरस्याभिमुखं प्रेषयामास संयुगे ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दुर्योधनसे इस प्रकार प्रेरित होकर सारथिने उस उत्तम रथको राजा युधिष्ठिरके सामने बढ़ाया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरः क्रुद्धः प्रभिन्न इव कुञ्जरः ॥ ९ ॥
सारथिं चोदयामास याहि यत्र सुयोधनः।
मूलम्
ततो युधिष्ठिरः क्रुद्धः प्रभिन्न इव कुञ्जरः ॥ ९ ॥
सारथिं चोदयामास याहि यत्र सुयोधनः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब मदस्रावी हाथीके समान कुपित हुए राजा युधिष्ठिरने भी अपने सारथिको आज्ञा दी, ‘जहाँ दुर्योधन है, वहीं चलो’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ समाजग्मतुर्वीरौ भ्रातरौ रथसत्तमौ ॥ १० ॥
समेत्य च महावीरौ संरब्धौ युद्धदुर्मदौ।
ववर्षतुर्महेष्वासौ शरैरन्योन्यमाहवे ॥ ११ ॥
मूलम्
तौ समाजग्मतुर्वीरौ भ्रातरौ रथसत्तमौ ॥ १० ॥
समेत्य च महावीरौ संरब्धौ युद्धदुर्मदौ।
ववर्षतुर्महेष्वासौ शरैरन्योन्यमाहवे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे महाधनुर्धर, महावीर और महारथी दोनों रणदुर्मद बन्धु एक-दूसरेके सामने आ गये और क्रोधपूर्वक आपसमें भिड़कर युद्धस्थलमें परस्पर बाणोंकी वर्षा करने लगे॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा धर्मशीलस्य मारिष।
शिलाशितेन भल्लेन धनुश्चिच्छेद संयुगे ॥ १२ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा धर्मशीलस्य मारिष।
शिलाशितेन भल्लेन धनुश्चिच्छेद संयुगे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मान्यवर! तदनन्तर युद्धस्थलमें राजा दुर्योधनने सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए भल्लसे धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरका धनुष काट दिया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं नामृष्यत संक्रुद्धो ह्यवमानं युधिष्ठिरः।
अपविध्य धनुश्छिन्नं क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ १३ ॥
अन्यत् कार्मुकमादाय धर्मपुत्रश्चमूमुखे ।
दुर्योधनस्य चिच्छेद ध्वजं कार्मुकमेव च ॥ १४ ॥
मूलम्
तं नामृष्यत संक्रुद्धो ह्यवमानं युधिष्ठिरः।
अपविध्य धनुश्छिन्नं क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ १३ ॥
अन्यत् कार्मुकमादाय धर्मपुत्रश्चमूमुखे ।
दुर्योधनस्य चिच्छेद ध्वजं कार्मुकमेव च ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिर उस अपमानको सहन न कर सके। उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। उनकी आँखें रोषसे लाल हो गयीं। उन्होंने उस कटे हुए धनुषको फेंककर दूसरा हाथमें ले लिया। फिर उन धर्मपुत्रने सेनाके मुहानेपर दुर्योधनके ध्वज और धनुषको भी काट डाला॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यद् धनुरादाय प्राविध्यत युधिष्ठिरम्।
तावन्योन्यं सुसंक्रुद्धौ शस्त्रवर्षाण्यमुञ्चताम् ॥ १५ ॥
मूलम्
अथान्यद् धनुरादाय प्राविध्यत युधिष्ठिरम्।
तावन्योन्यं सुसंक्रुद्धौ शस्त्रवर्षाण्यमुञ्चताम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् दुर्योधनने दूसरा धनुष लेकर युधिष्ठिरको बींध डाला। वे दोनों वीर अत्यन्त क्रोधमें भरकर एक-दूसरेपर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहाविव सुसंरब्धौ परस्परजिगीषया ।
जघ्नतुस्तौ रणेऽन्योन्यं नर्दमानौ वृषाविव ॥ १६ ॥
मूलम्
सिंहाविव सुसंरब्धौ परस्परजिगीषया ।
जघ्नतुस्तौ रणेऽन्योन्यं नर्दमानौ वृषाविव ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परस्पर विजयकी इच्छासे रोषमें भरे हुए दो सिंहोंके समान दहाड़ते अथवा दो साँड़ोंके समान गरजते हुए वे रणभूमिमें एक-दूसरेपर चोट करते थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरं मार्गमाणौ च चेरतुस्तौ महारथौ।
ततः पूर्णायतोत्सृष्टैः शरैस्तौ तु कृतव्रणौ ॥ १७ ॥
विरेजतुर्महाराज किंशुकाविव पुष्पितौ ।
मूलम्
अन्तरं मार्गमाणौ च चेरतुस्तौ महारथौ।
ततः पूर्णायतोत्सृष्टैः शरैस्तौ तु कृतव्रणौ ॥ १७ ॥
विरेजतुर्महाराज किंशुकाविव पुष्पितौ ।
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों महारथी एक-दूसरेका अन्तर (प्रहार करनेका अवसर) ढूँढ़ते हुए रणभूमिमें विचर रहे थे। महाराज! धनुषको पूर्णतः खींचकर छोड़े गये बाणोंद्वारा वे दोनों वीर क्षत-विक्षत होकर फूले हुए दो पलाश-वृक्षोंके समान शोभा पा रहे थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राजन् विमुञ्चन्तौ सिंहनादान् मुहुर्मुहुः ॥ १८ ॥
तलयोश्च तथा शब्दान् धनुषश्च महाहवे।
शङ्खशब्दवरांश्चैव चक्रतुस्तौ नरेश्वरौ ॥ १९ ॥
मूलम्
ततो राजन् विमुञ्चन्तौ सिंहनादान् मुहुर्मुहुः ॥ १८ ॥
तलयोश्च तथा शब्दान् धनुषश्च महाहवे।
शङ्खशब्दवरांश्चैव चक्रतुस्तौ नरेश्वरौ ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब वे दोनों नरेश बारंबार सिंहनाद करते हुए उस महासमरमें तालियाँ बजाने, धनुषकी टंकार करने और उत्तम शंखनाद फैलाने लगे॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यं तौ महाराज पीडयाञ्चक्रतुर्भृशम्।
ततो युधिष्ठिरो राजा पुत्रं तव शरैस्त्रिभिः ॥ २० ॥
आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रवेगैर्दुरासदैः ।
मूलम्
अन्योन्यं तौ महाराज पीडयाञ्चक्रतुर्भृशम्।
ततो युधिष्ठिरो राजा पुत्रं तव शरैस्त्रिभिः ॥ २० ॥
आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रवेगैर्दुरासदैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वे दोनों एक-दूसरेको अत्यन्त पीड़ा दे रहे थे। तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने वज्रके समान वेगशाली एवं दुर्जय तीन बाणोंद्वारा आपके पुत्रकी छातीमें क्रोधपूर्वक प्रहार किया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिविव्याध तं तूर्णं तव पुत्रो महीपतिः ॥ २१ ॥
पञ्चभिर्निशितैर्बाणैः स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः ।
मूलम्
प्रतिविव्याध तं तूर्णं तव पुत्रो महीपतिः ॥ २१ ॥
पञ्चभिर्निशितैर्बाणैः स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
आपके पुत्र राजा दुर्योधनने भी शिलापर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले पाँच पैने बाणोंद्वारा युधिष्ठिरको घायल करके तुरंत बदला चुकाया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो राजा शक्तिं चिक्षेप भारत ॥ २२ ॥
सर्वपारशवीं तीक्ष्णां महोल्काप्रतिमां तदा।
मूलम्
ततो दुर्योधनो राजा शक्तिं चिक्षेप भारत ॥ २२ ॥
सर्वपारशवीं तीक्ष्णां महोल्काप्रतिमां तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इसके बाद राजा दुर्योधनने सम्पूर्णतः लोहेकी बनी हुई एक तीखी शक्ति चलायी, जो उस समय बड़ी भारी उल्काके समान प्रतीत हो रही थी॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामापतन्तीं सहसा धर्मराजः शितैः शरैः ॥ २३ ॥
त्रिभिश्चिच्छेद सहसा तं च विव्याध पञ्चभिः।
मूलम्
तामापतन्तीं सहसा धर्मराजः शितैः शरैः ॥ २३ ॥
त्रिभिश्चिच्छेद सहसा तं च विव्याध पञ्चभिः।
अनुवाद (हिन्दी)
सहसा अपने ऊपर आती हुई उस शक्तिको धर्मराज युधिष्ठिरने तीन तीखे बाणोंसे तत्काल काट डाला और दुर्योधनको भी पाँच बाणोंसे घायल कर दिया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निपपात ततः साऽथ स्वर्णदण्डा महास्वना ॥ २४ ॥
निपतन्ती महोल्केव व्यराजच्छिखिसंनिभा ।
मूलम्
निपपात ततः साऽथ स्वर्णदण्डा महास्वना ॥ २४ ॥
निपतन्ती महोल्केव व्यराजच्छिखिसंनिभा ।
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्णमय दण्डवाली वह शक्ति आकाशसे गिरती हुई बड़ी भारी उल्काके समान महान् शब्दके साथ गिर पड़ी। उस समय वह अग्निके तुल्य प्रकाशित हो रही थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्तिं विनिहतां दृष्ट्वा पुत्रस्तव विशाम्पते ॥ २५ ॥
नवभिर्निशितैर्भल्लैर्निजघान युधिष्ठिरम् ।
मूलम्
शक्तिं विनिहतां दृष्ट्वा पुत्रस्तव विशाम्पते ॥ २५ ॥
नवभिर्निशितैर्भल्लैर्निजघान युधिष्ठिरम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! उस शक्तिको नष्ट हुई देख आपके पुत्रने नौ तीखे भल्लोंसे युधिष्ठिरको गहरी चोट पहुँचायी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽतिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुतापनः ॥ २६ ॥
दुर्योधनं समुद्दिश्य बाणं जग्राह सत्वरः।
समाधत्त च तं बाणं धनुर्मध्ये महाबलः ॥ २७ ॥
मूलम्
सोऽतिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुतापनः ॥ २६ ॥
दुर्योधनं समुद्दिश्य बाणं जग्राह सत्वरः।
समाधत्त च तं बाणं धनुर्मध्ये महाबलः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलवान् शत्रुके द्वारा अत्यन्त घायल किये जानेपर शत्रुओंको संताप देनेवाले महाबली युधिष्ठिरने दुर्योधनको लक्ष्य करके एक बाण हाथमें लिया और उसे धनुषके मध्यभागमें रखा॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिक्षेप च महाराज ततः क्रुद्धः पराक्रमी।
स तु बाणः समासाद्य तव पुत्रं महारथम् ॥ २८ ॥
व्यामोहयत राजानं धरणीं च ददार ह।
मूलम्
चिक्षेप च महाराज ततः क्रुद्धः पराक्रमी।
स तु बाणः समासाद्य तव पुत्रं महारथम् ॥ २८ ॥
व्यामोहयत राजानं धरणीं च ददार ह।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तत्पश्चात् पराक्रमी युधिष्ठिरने उस बाणको क्रोधपूर्वक चला दिया। उस बाणने आपके महारथी पुत्र दुर्योधनको घायल करके उसे मूर्च्छित कर दिया और पृथ्वीको भी विदीर्ण कर डाला॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनः क्रुद्धो गदामुद्यम्य वेगितः ॥ २९ ॥
विधित्सुः कलहस्यान्तं धर्मराजमुपाद्रवत् ।
मूलम्
ततो दुर्योधनः क्रुद्धो गदामुद्यम्य वेगितः ॥ २९ ॥
विधित्सुः कलहस्यान्तं धर्मराजमुपाद्रवत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उसके बाद क्रोधमें भरे हुए दुर्योधनने वेगपूर्वक गदा उठाकर कलहका अन्त कर देनेकी इच्छासे धर्मराज युधिष्ठिरपर आक्रमण किया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुद्यतगदं दृष्ट्वा दण्डहस्तमिवान्तकम् ॥ ३० ॥
धर्मराजो महाशक्तिं प्राहिणोत् तव सूनवे।
दीप्यमानां महावेगां महोल्कां ज्वलितामिव ॥ ३१ ॥
मूलम्
तमुद्यतगदं दृष्ट्वा दण्डहस्तमिवान्तकम् ॥ ३० ॥
धर्मराजो महाशक्तिं प्राहिणोत् तव सूनवे।
दीप्यमानां महावेगां महोल्कां ज्वलितामिव ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दण्डधारी यमराजके समान उसे गदा उठाये देख धर्मराजने आपके उस पुत्रपर अत्यन्त वेगशालिनी महाशक्तिका प्रहार किया, जो प्रज्वलित हुई बड़ी भारी उल्काके समान देदीप्यमान हो रही थी॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथस्थः स तया विद्धो वर्म भित्त्वा स्तनान्तरे।
भृशं संविग्नहृदयः पपात च मुमोह च ॥ ३२ ॥
मूलम्
रथस्थः स तया विद्धो वर्म भित्त्वा स्तनान्तरे।
भृशं संविग्नहृदयः पपात च मुमोह च ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथपर बैठे हुए ही दुर्योधनका कवच फाड़कर वह शक्ति उसकी छातीमें चुभ गयी। इससे अत्यन्त उद्विग्नचित्त होकर दुर्योधन गिरा और मूर्च्छित हो गया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमस्तमाह च ततः प्रतिज्ञामनुचिन्तयन्।
नायं वध्यस्तव नृप इत्युक्तः स न्यवर्तत ॥ ३३ ॥
मूलम्
भीमस्तमाह च ततः प्रतिज्ञामनुचिन्तयन्।
नायं वध्यस्तव नृप इत्युक्तः स न्यवर्तत ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भीमसेनने अपनी प्रतिज्ञाका विचार करते हुए युधिष्ठिरसे कहा—‘महाराज! यह राजा दुर्योधन आपका वध्य नहीं है।’ उनके ऐसा कहनेपर राजा युधिष्ठिर उसके वधसे निवृत्त हो गये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त्वरितमागम्य कृतवर्मा तवात्मजम् ।
प्रत्यपद्यत राजानं निमग्नं व्यसनार्णवे ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततस्त्वरितमागम्य कृतवर्मा तवात्मजम् ।
प्रत्यपद्यत राजानं निमग्नं व्यसनार्णवे ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कृतवर्मा विपत्तिके समुद्रमें डूबे हुए आपके पुत्र राजा दुर्योधनके पास तुरंत आकर उसकी रक्षाके लिये उद्यत हो गया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गदामादाय भीमोऽपि हेमपट्टपरिष्कृताम् ।
अभिदुद्राव वेगेन कृतवर्माणमाहवे ॥ ३५ ॥
मूलम्
गदामादाय भीमोऽपि हेमपट्टपरिष्कृताम् ।
अभिदुद्राव वेगेन कृतवर्माणमाहवे ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख भीमसेन भी सुवर्णपत्रजटित गदा हाथमें लेकर युद्धस्थलमें बड़े वेगसे कृतवर्मापर टूट पड़े॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तदभवद् युद्धं त्वदीयानां परैः सह।
अपराह्णे महाराज काङ्क्षतां विजयं युधि ॥ ३६ ॥
मूलम्
एवं तदभवद् युद्धं त्वदीयानां परैः सह।
अपराह्णे महाराज काङ्क्षतां विजयं युधि ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इस प्रकार अपराह्णके समय रणक्षेत्रमें विजय चाहनेवाले आपके योद्धाओंका शत्रुओंके साथ भीषण युद्ध होने लगा॥३६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि संकुलयुद्धे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें संकुल-युद्धविषयक उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९॥