भागसूचना
अष्टाविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिर और दुर्योधनका युद्ध, दुर्योधनकी पराजय तथा उभयपक्षकी सेनाओंका अमर्यादित भयंकर संग्राम
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरं महाराज विसृजन्तं शरान् बहुन्।
स्वयं दुर्योधनो राजा प्रत्यगृह्णादभीतवत् ॥ १ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरं महाराज विसृजन्तं शरान् बहुन्।
स्वयं दुर्योधनो राजा प्रत्यगृह्णादभीतवत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! बहुत-से बाणोंकी वर्षा करते हुए युधिष्ठिरका स्वयं राजा दुर्योधनने एक निर्भीक वीरकी भाँति सामना किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमापतन्तं सहसा तव पुत्रं महारथम्।
धर्मराजो द्रुतं विद्ध्वा तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ २ ॥
मूलम्
तमापतन्तं सहसा तव पुत्रं महारथम्।
धर्मराजो द्रुतं विद्ध्वा तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहसा आते हुए आपके महारथी पुत्रको धर्मराज युधिष्ठिरने तुरंत ही घायल करके कहा—‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु तं प्रतिविव्याध नवभिर्निशितैः शरैः।
सारथिं चास्य भल्लेन भृशं क्रुद्धोऽभ्यताडयत् ॥ ३ ॥
मूलम्
स तु तं प्रतिविव्याध नवभिर्निशितैः शरैः।
सारथिं चास्य भल्लेन भृशं क्रुद्धोऽभ्यताडयत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे दुर्योधनको बड़ा क्रोध हुआ। उसने युधिष्ठिरको नौ तीखे बाणोंसे बेधकर बदला चुकाया और उनके सारथिपर भी एक भल्लका प्रहार किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो राजन् स्वर्णपुङ्खाञ्छिलीमुखान्।
दुर्योधनाय चिक्षेप त्रयोदश शिलाशितान् ॥ ४ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो राजन् स्वर्णपुङ्खाञ्छिलीमुखान्।
दुर्योधनाय चिक्षेप त्रयोदश शिलाशितान् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब युधिष्ठिरने सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले तेरह बाण दुर्योधनपर चलाये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्भिश्चतुरो वाहांस्तस्य हत्वा महारथः।
पञ्चमेन शिरः कायात् सारथेश्च समाक्षिपत् ॥ ५ ॥
मूलम्
चतुर्भिश्चतुरो वाहांस्तस्य हत्वा महारथः।
पञ्चमेन शिरः कायात् सारथेश्च समाक्षिपत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महारथी युधिष्ठिरने उनमेंसे चार बाणोंद्वारा दुर्योधनके चारों घोड़ोंको मारकर पाँचवेंसे उसके सारथिका भी मस्तक धड़से काट गिराया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षष्ठेन तु ध्वजं राज्ञः सप्तमेन तु कार्मुकम्।
अष्टमेन तथा खड्गं पातयामास भूतले ॥ ६ ॥
मूलम्
षष्ठेन तु ध्वजं राज्ञः सप्तमेन तु कार्मुकम्।
अष्टमेन तथा खड्गं पातयामास भूतले ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर छठे बाणसे राजा दुर्योधनके ध्वजको, सातवेंसे उसके धनुषको और आठवेंसे उसकी तलवारको भी पृथ्वीपर गिरा दिया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चभिर्नृपतिं चापि धर्मराजोऽर्दयद् भृशम्।
मूलम्
पञ्चभिर्नृपतिं चापि धर्मराजोऽर्दयद् भृशम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पाँच बाणोंसे धर्मराजने राजा दुर्योधनको भी गहरी चोट पहुँचायी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हताश्वात्तु रथात्तस्मादवप्लुत्य सुतस्तव ॥ ७ ॥
उत्तमं व्यसनं प्राप्तो भूमावेवावतिष्ठत।
मूलम्
हताश्वात्तु रथात्तस्मादवप्लुत्य सुतस्तव ॥ ७ ॥
उत्तमं व्यसनं प्राप्तो भूमावेवावतिष्ठत।
अनुवाद (हिन्दी)
उस अश्वहीन रथसे कूदकर आपका पुत्र भारी संकटमें पड़नेपर भी वहाँ पृथ्वीपर ही खड़ा रहा (युद्ध छोड़कर भागा नहीं)॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु कृच्छ्रगतं दृष्ट्वा कर्णद्रौणिकृपादयः ॥ ८ ॥
अभ्यवर्तन्त सहसा परीप्सन्तो नराधिपम्।
मूलम्
तं तु कृच्छ्रगतं दृष्ट्वा कर्णद्रौणिकृपादयः ॥ ८ ॥
अभ्यवर्तन्त सहसा परीप्सन्तो नराधिपम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उसे संकटमें पड़ा देख कर्ण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य आदि वीर अपने राजाकी रक्षा चाहते हुए सहसा युधिष्ठिरके सामने आ पहुँचे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ पाण्डुसुताः सर्वे परिवार्य युधिष्ठिरम् ॥ ९ ॥
अन्वयुः समरे राजंस्ततो युद्धमवर्तत।
मूलम्
अथ पाण्डुसुताः सर्वे परिवार्य युधिष्ठिरम् ॥ ९ ॥
अन्वयुः समरे राजंस्ततो युद्धमवर्तत।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तत्पश्चात् समस्त पाण्डव भी युधिष्ठिरको सब ओरसे घेरकर उनका अनुसरण करने लगे; फिर तो दोनों दलोंमें भारी युद्ध छिड़ गया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तूर्यसहस्राणि प्रावाद्यन्त महामृधे ॥ १० ॥
ततः किलकिलाशब्दाः प्रादुरासन् महीपते।
मूलम्
ततस्तूर्यसहस्राणि प्रावाद्यन्त महामृधे ॥ १० ॥
ततः किलकिलाशब्दाः प्रादुरासन् महीपते।
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! तदनन्तर उस महासमरमें सहस्रों बाजे बजने लगे और वहाँ किलकिलाहटकी आवाज गूँज उठी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्राभ्यगच्छन् समरे पञ्चालाः कौरवैः सह ॥ ११ ॥
नरा नरैः समाजग्मुर्वारणा वरवारणैः।
रथाश्च रथिभिः सार्धं हयाश्च हयसादिभिः ॥ १२ ॥
मूलम्
यत्राभ्यगच्छन् समरे पञ्चालाः कौरवैः सह ॥ ११ ॥
नरा नरैः समाजग्मुर्वारणा वरवारणैः।
रथाश्च रथिभिः सार्धं हयाश्च हयसादिभिः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस युद्धमें समस्त पांचाल कौरवोंके साथ भिड़ गये। पैदल पैदलोंके, हाथी हाथियोंके, रथी रथियोंके और घुड़सवार घुड़सवारोंके साथ युद्ध करने लगे॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वन्द्वान्यासन् महाराज प्रेक्षणीयानि संयुगे।
विविधान्यप्यचिन्त्यानि शस्त्रवन्त्युत्तमानि च ॥ १३ ॥
मूलम्
द्वन्द्वान्यासन् महाराज प्रेक्षणीयानि संयुगे।
विविधान्यप्यचिन्त्यानि शस्त्रवन्त्युत्तमानि च ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस रणभूमिमें होनेवाले नाना प्रकारके अचिन्तनीय, शस्त्रयुक्त तथा उत्तम द्वन्द्वयुद्ध देखने ही योग्य थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते शूराः समरे सर्वे चित्रं लघु च सुष्ठु च।
अयुध्यन्त महावेगाः परस्परवधैषिणः ॥ १४ ॥
मूलम्
ते शूराः समरे सर्वे चित्रं लघु च सुष्ठु च।
अयुध्यन्त महावेगाः परस्परवधैषिणः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महान् वेगशाली समस्त शूरवीर समरांगणमें एक-दूसरेके वधकी इच्छासे विचित्र, शीघ्रतापूर्ण तथा सुन्दर रीतिसे युद्ध करने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यं समरे जघ्नुर्योधव्रतमनुष्ठिताः ।
न हि ते समरं चक्रुः पृष्ठतो वै कथञ्चन॥१५॥
मूलम्
अन्योन्यं समरे जघ्नुर्योधव्रतमनुष्ठिताः ।
न हि ते समरं चक्रुः पृष्ठतो वै कथञ्चन॥१५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे वीर योद्धाके व्रतका पालन करते हुए युद्धस्थलमें एक-दूसरेको मारते थे। उन्होंने किसी तरह भी युद्धमें पीठ नहीं दिखायी॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तमेव तद् युद्धमासीन्मधुरदर्शनम् ।
तत उन्मत्तवद् राजन् निर्मर्यादमवर्तत ॥ १६ ॥
मूलम्
मुहूर्तमेव तद् युद्धमासीन्मधुरदर्शनम् ।
तत उन्मत्तवद् राजन् निर्मर्यादमवर्तत ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दो ही घड़ीतक वह युद्ध देखनेमें मधुर जान पड़ा। फिर तो वहाँ उन्मत्तके समान मर्यादाशून्य बर्ताव होने लगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथी नागं समासाद्य दारयन् निशितैः शरैः।
प्रेषयामास कालाय शरैः संनतपर्वभिः ॥ १७ ॥
मूलम्
रथी नागं समासाद्य दारयन् निशितैः शरैः।
प्रेषयामास कालाय शरैः संनतपर्वभिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथी हाथीका सामना करके झुकी हुई गाँठवाले तीखे बाणोंद्वारा उसे विदीर्ण करते हुए कालके गालमें भेजने लगे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नागा हयान् समासाद्य विक्षिपन्तो बहून् रणे।
दारयामासुरत्युग्रं तत्र तत्र तदा तदा ॥ १८ ॥
मूलम्
नागा हयान् समासाद्य विक्षिपन्तो बहून् रणे।
दारयामासुरत्युग्रं तत्र तत्र तदा तदा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथी बहुत-से घोड़ोंको पकड़-पकड़कर रणभूमिमें इधर-उधर फेंकने और विदीर्ण करने लगे। उससे वहाँ उस समय बड़ा भयंकर दृश्य उपस्थित हो गया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयारोहाश्च बहवः परिवार्य गजोत्तमान्।
तलशब्दरवांश्चक्रुः सम्पतन्तस्ततस्ततः ॥ १९ ॥
धावमानांस्ततस्तांस्तु द्रवमाणान् महागजान् ।
पार्श्वतः पृष्ठतश्चैव निजघ्नुर्हयसादिनः ॥ २० ॥
मूलम्
हयारोहाश्च बहवः परिवार्य गजोत्तमान्।
तलशब्दरवांश्चक्रुः सम्पतन्तस्ततस्ततः ॥ १९ ॥
धावमानांस्ततस्तांस्तु द्रवमाणान् महागजान् ।
पार्श्वतः पृष्ठतश्चैव निजघ्नुर्हयसादिनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से घुड़सवार उत्तम गजराजोंको चारों ओरसे घेरकर इधर-उधर दौड़ने और ताली पीटने लगे। इससे जब वे विशालकाय हाथी दौड़ने और भागने लगते, तब वे घुड़सवार अगल-बगलसे और पीछेकी ओरसे उनपर बाणोंकी चोट करते थे॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्राव्य च बहूनश्वान् नागा राजन् मदोत्कटाः।
विषाणैश्चापरे जघ्नुर्ममृदुश्चापरे भृशम् ॥ २१ ॥
मूलम्
विद्राव्य च बहूनश्वान् नागा राजन् मदोत्कटाः।
विषाणैश्चापरे जघ्नुर्ममृदुश्चापरे भृशम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कितने ही मदोन्मत्त हाथी भी बहुत-से घोड़ोंको खदेड़कर उन्हें दाँतोंसे दबाकर मार डालते अथवा वेगपूर्वक पैरोंसे कुचल डालते थे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साश्वारोहांश्च तुरगान् विषाणैर्विव्यधू रुषा।
अपरे चिक्षिपुर्वेगात् प्रगृह्यातिबलास्तदा ॥ २२ ॥
मूलम्
साश्वारोहांश्च तुरगान् विषाणैर्विव्यधू रुषा।
अपरे चिक्षिपुर्वेगात् प्रगृह्यातिबलास्तदा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही हाथियोंने रोषमें भरकर सवारोंसहित घोड़ोंको अपने दाँतोंसे विदीर्ण कर डाला तथा कुछ अत्यन्त बलवान् गजराजोंने उन घोड़ोंको पकड़कर वेगपूर्वक दूर फेंक दिया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादातैराहता नागा विवरेषु समन्ततः।
चक्रुरार्तस्वरं घोरं दुद्रुवुश्च दिशो दश ॥ २३ ॥
मूलम्
पादातैराहता नागा विवरेषु समन्ततः।
चक्रुरार्तस्वरं घोरं दुद्रुवुश्च दिशो दश ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रहारका अवसर मिलनेपर पैदल सैनिक भी चारों ओरसे हाथियोंको गहरी चोट पहुँचाते और वे घोर आर्तनाद करते हुए सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर भाग जाते थे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पदातीनां तु सहसा प्रद्रुतानां महाहवे।
उत्सृज्याभरणं तूर्णमवप्लुत्य रणाजिरे ॥ २४ ॥
निमित्तं मन्यमानास्तु परिणाम्य महागजाः।
जगृहुर्बिभिदुश्चैव चित्राण्याभरणानि च ॥ २५ ॥
मूलम्
पदातीनां तु सहसा प्रद्रुतानां महाहवे।
उत्सृज्याभरणं तूर्णमवप्लुत्य रणाजिरे ॥ २४ ॥
निमित्तं मन्यमानास्तु परिणाम्य महागजाः।
जगृहुर्बिभिदुश्चैव चित्राण्याभरणानि च ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पैदल सैनिक युद्धस्थलमें अपने आभूषण त्यागकर तुरंत उछल-उछलकर बड़े वेगसे भागने लगे। उस समय सहसा भागते हुए उन पैदलोंके उन विचित्र आभूषणोंको अपने ऊपर प्रहार होनेमें निमित्त मानकर हाथी उन्हें सूँड़से उठा लेते और फिर दाँतोंसे दबाकर फोड़ डालते थे॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तु तत्र प्रसक्तान् वै परिवार्य पदातयः।
हस्त्यारोहान् निजघ्नुस्ते महावेगा बलोत्कटाः ॥ २६ ॥
मूलम्
तांस्तु तत्र प्रसक्तान् वै परिवार्य पदातयः।
हस्त्यारोहान् निजघ्नुस्ते महावेगा बलोत्कटाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आभूषणोंमें उलझे हुए उन हाथियों और उनके सवारोंको चारों ओरसे घेरकर महान् वेगशाली तथा बलोन्मत्त पैदल योद्धा मार डालते थे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरे हस्तिभिर्हस्तैः खं विक्षिप्ता महाहवे।
निपतन्तो विषाणाग्रैर्भृशं विद्धाः सुशिक्षितैः ॥ २७ ॥
मूलम्
अपरे हस्तिभिर्हस्तैः खं विक्षिप्ता महाहवे।
निपतन्तो विषाणाग्रैर्भृशं विद्धाः सुशिक्षितैः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही पैदल सैनिक उस महासमरमें सुशिक्षित हाथियोंकी सूँड़ोंसे आकाशमें फेंक दिये जाते और उधरसे गिरते समय उन हाथियोंके दन्ताग्रभागोंद्वारा अत्यन्त विदीर्ण कर दिये जाते थे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरे सहसा गृह्य विषाणैरेव सूदिताः।
सेनान्तरं समासाद्य केचित् तत्र महागजैः ॥ २८ ॥
क्षुण्णगात्रा महाराज विक्षिप्य च पुनः पुनः।
अपरे व्यजनानीव विभ्राम्य निहता मृधे ॥ २९ ॥
मूलम्
अपरे सहसा गृह्य विषाणैरेव सूदिताः।
सेनान्तरं समासाद्य केचित् तत्र महागजैः ॥ २८ ॥
क्षुण्णगात्रा महाराज विक्षिप्य च पुनः पुनः।
अपरे व्यजनानीव विभ्राम्य निहता मृधे ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही योद्धा हाथियोंद्वारा पकड़े जाकर उनके दाँतोंसे ही मार डाले गये। महाराज! बहुत-से विशालकाय गजराज सेनाके भीतर घुसकर कितने ही पैदलोंको सहसा पकड़कर उनके शरीरोंको बारंबार पटक-झटककर चूर-चूर कर देते और कितनोंको व्यजनोंके समान घुमाकर युद्धमें मार डालते थे॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरःसराश्च नागानामपरेषां विशाम्पते ।
शरीराण्यतिविद्धानि तत्र तत्र रणाजिरे ॥ ३० ॥
मूलम्
पुरःसराश्च नागानामपरेषां विशाम्पते ।
शरीराण्यतिविद्धानि तत्र तत्र रणाजिरे ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! जो हाथियोंके आगे चलनेवाले पैदल थे, वे दूसरे पक्षके हाथियोंके शरीरोंको जहाँ-तहाँ रणभूमिमें अत्यन्त घायल कर देते थे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिमानेषु कुम्भेषु दन्तवेष्टेषु चापरे।
निगृहीता भृशं नागाः प्रासतोमरशक्तिभिः ॥ ३१ ॥
मूलम्
प्रतिमानेषु कुम्भेषु दन्तवेष्टेषु चापरे।
निगृहीता भृशं नागाः प्रासतोमरशक्तिभिः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं-कहीं पैदल सैनिक प्रास, तोमर और शक्तिद्वारा शत्रुपक्षके हाथियोंके दोनों दाँतोंके बीचके स्थानमें, कुम्भस्थलमें और ओठोंके ऊपर प्रहार करके उन्हें अत्यन्त काबूमें कर लेते थे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निगृह्य च गजाः केचित् पार्श्वस्थैर्भृशदारुणैः।
रथाश्वसादिभिस्तत्र सम्भिन्ना न्यपतन् भुवि ॥ ३२ ॥
मूलम्
निगृह्य च गजाः केचित् पार्श्वस्थैर्भृशदारुणैः।
रथाश्वसादिभिस्तत्र सम्भिन्ना न्यपतन् भुवि ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही हाथियोंको अवरुद्ध करके पार्श्वभागमें खड़े हुए अत्यन्त भयंकर रथी और घुड़सवार उन्हें बाणोंसे विदीर्ण कर डालते, जिससे वे हाथी वहीं पृथ्वीपर गिर जाते थे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहसा सादिनस्तत्र तोमरेण महामृधे।
भूमावमृद्नन् वेगेन सचर्माणं पदातिनम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
सहसा सादिनस्तत्र तोमरेण महामृधे।
भूमावमृद्नन् वेगेन सचर्माणं पदातिनम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महासमरमें कितने ही हाथीसवार सहसा तोमरका प्रहार करके ढालसहित पैदल योद्धाको गिराकर उसे वेगपूर्वक धरतीपर रौंद डालते थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा सावरणान् कांश्चित्तत्र तत्र विशाम्पते।
रथान् नागाः समासाद्य परिगृह्य च मारिष ॥ ३४ ॥
व्याक्षिपन् सहसा तत्र घोररूपे भयानके।
नाराचैर्निहताश्चापि गजाः पेतुर्महाबलाः ॥ ३५ ॥
पर्वतस्येव शिखरं वज्ररुग्णं महीतले।
मूलम्
तथा सावरणान् कांश्चित्तत्र तत्र विशाम्पते।
रथान् नागाः समासाद्य परिगृह्य च मारिष ॥ ३४ ॥
व्याक्षिपन् सहसा तत्र घोररूपे भयानके।
नाराचैर्निहताश्चापि गजाः पेतुर्महाबलाः ॥ ३५ ॥
पर्वतस्येव शिखरं वज्ररुग्णं महीतले।
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! उस घोर एवं भयानक युद्धमें कितने ही हाथी निकट आकर अपनी सूँड़ोंसे कुछ आवरणयुक्त रथोंको पकड़ लेते और उन्हें वेगपूर्वक खींचकर सहसा दूर फेंक देते थे। फिर वे महाबली हाथी भी नाराचोंसे मारे जाकर वज्रके तोड़े हुए पर्वत-शिखरकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ते थे॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योधा योधान् समासाद्य मुष्टिभिर्व्यहनन् युधि ॥ ३६ ॥
केशेष्वन्योन्यमाक्षिप्य चिक्षिपुर्बिभिदुश्च ह ।
मूलम्
योधा योधान् समासाद्य मुष्टिभिर्व्यहनन् युधि ॥ ३६ ॥
केशेष्वन्योन्यमाक्षिप्य चिक्षिपुर्बिभिदुश्च ह ।
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से पैदल योद्धा दूसरे योद्धाओंको निकट पाकर युद्धस्थलमें उनपर मुक्कोंसे प्रहार करने लगते थे। कितने ही एक-दूसरेकी चुटिया पकड़कर परस्पर झटकते-फेंकते और एक-दूसरेको घायल करते थे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यम्य च भुजावन्यो निक्षिप्य च महीतले ॥ ३७ ॥
पदा चोरः समाक्रम्य स्फुरतोऽपाहरच्छिरः।
मूलम्
उद्यम्य च भुजावन्यो निक्षिप्य च महीतले ॥ ३७ ॥
पदा चोरः समाक्रम्य स्फुरतोऽपाहरच्छिरः।
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरा योद्धा अपनी दोनों भुजाओंको उठाकर उनके द्वारा शत्रुको पृथ्वीपर पटक देता और एक पैरसे उसकी छातीको दबाकर उसके छटपटाते रहनेपर भी उसका सिर काट लेता था॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पततश्चापरो राजन् विजहारासिना शिरः ॥ ३८ ॥
जीवतश्च तथैवान्यः शस्त्रं काये न्यमज्जयत्।
मूलम्
पततश्चापरो राजन् विजहारासिना शिरः ॥ ३८ ॥
जीवतश्च तथैवान्यः शस्त्रं काये न्यमज्जयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दूसरा सैनिक किसी गिरते हुए योद्धाका सिर अपनी तलवारसे काट लेता था और कोई जीवित शत्रुके ही शरीरमें अपना शस्त्र घुसेड़ देता था॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुष्टियुद्धं महच्चासीद् योधानां तत्र भारत ॥ ३९ ॥
तथा केशग्रहश्चोग्रो बाहुयुद्धं च भैरवम्।
मूलम्
मुष्टियुद्धं महच्चासीद् योधानां तत्र भारत ॥ ३९ ॥
तथा केशग्रहश्चोग्रो बाहुयुद्धं च भैरवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! वहाँ योद्धाओंमें बहुत बड़ा मुष्टियुद्ध हो रहा था। साथ ही भयंकर केशग्रहण और भयानक बाहुयुद्ध भी चालू था॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समासक्तस्य चान्येन अविज्ञातस्तथापरः ॥ ४० ॥
जहार समरे प्राणान् नानाशस्त्रैरनेकधा।
मूलम्
समासक्तस्य चान्येन अविज्ञातस्तथापरः ॥ ४० ॥
जहार समरे प्राणान् नानाशस्त्रैरनेकधा।
अनुवाद (हिन्दी)
कोई-कोई योद्धा दूसरेके साथ उलझे हुए सैनिकसे स्वयं अपरिचित रहकर नाना प्रकारके अनेक अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा युद्धमें उसके प्राण हर लेता था॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसक्तेषु च योधेषु वर्तमाने च संकुले ॥ ४१ ॥
कबन्धान्युत्थितानि स्युः शतशोऽथ सहस्रशः।
मूलम्
संसक्तेषु च योधेषु वर्तमाने च संकुले ॥ ४१ ॥
कबन्धान्युत्थितानि स्युः शतशोऽथ सहस्रशः।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब सभी योद्धा युद्धमें लगे थे और तुमुल संग्राम चल रहा था, उस समय सैकड़ों और हजारों कबन्ध (धड़) उठ खड़े हुए थे॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोणितैः सिच्यमानानि शस्त्राणि कवचानि च ॥ ४२ ॥
महारागानुरक्तानि वस्त्राणीव चकाशिरे ।
मूलम्
शोणितैः सिच्यमानानि शस्त्राणि कवचानि च ॥ ४२ ॥
महारागानुरक्तानि वस्त्राणीव चकाशिरे ।
अनुवाद (हिन्दी)
खूनसे भीगे हुए शस्त्र और कवच गाढ़े रंगमें रँगे हुए वस्त्रोंके समान सुशोभित होते थे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतन्महद् युद्धं दारुणे शस्त्रसंकुलम् ॥ ४३ ॥
उन्मत्तगङ्गाप्रतिमं शब्देनापूरयज्जगत् ।
मूलम्
एवमेतन्महद् युद्धं दारुणे शस्त्रसंकुलम् ॥ ४३ ॥
उन्मत्तगङ्गाप्रतिमं शब्देनापूरयज्जगत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अस्त्र-शस्त्रोंसे परिपूर्ण यह महाभयानक युद्ध बढ़ी हुई गंगाके समान जगत्को कोलाहलसे परिपूर्ण कर रहा था॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव स्वे न परे राजन् विज्ञायन्ते शरातुराः ॥ ४४ ॥
योद्धव्यमिति युध्यन्ते राजानो जयगृद्धिनः।
मूलम्
नैव स्वे न परे राजन् विज्ञायन्ते शरातुराः ॥ ४४ ॥
योद्धव्यमिति युध्यन्ते राजानो जयगृद्धिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! बाणोंकी चोटसे व्याकुल हुए अपने और पराये योद्धा पहचानमें नहीं आते थे। विजयकी अभिलाषा रखनेवाले राजालोग—‘युद्ध करना अपना कर्तव्य है’ यह समझकर जूझ रहे थे॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वान् स्वे जघ्नुर्महाराज परांश्चैव समागतान् ॥ ४५ ॥
उभयोः सेनयोर्वीरैर्व्याकुलं समपद्यत ।
मूलम्
स्वान् स्वे जघ्नुर्महाराज परांश्चैव समागतान् ॥ ४५ ॥
उभयोः सेनयोर्वीरैर्व्याकुलं समपद्यत ।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! सामने आये हुए अपने और शत्रुपक्षके योद्धाओंको भी अपने ही पक्षके लोग मार डालते थे। दोनों सेनाओंके वीर मर्यादाशून्य युद्धमें प्रवृत्त हो गये थे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथैर्भग्नैर्महाराज वारणैश्च निपातितैः ॥ ४६ ॥
हयैश्च पतितैस्तत्र नरैश्च विनिपातितैः।
अगम्यरूपा पृथिवी क्षणेन समपद्यत ॥ ४७ ॥
मूलम्
रथैर्भग्नैर्महाराज वारणैश्च निपातितैः ॥ ४६ ॥
हयैश्च पतितैस्तत्र नरैश्च विनिपातितैः।
अगम्यरूपा पृथिवी क्षणेन समपद्यत ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! टूटे हुए रथों, धराशायी हुए हाथियों, मरकर गिरे हुए घोड़ों और गिराये गये पैदल सैनिकोंसे क्षणभरमें यह पृथ्वी ऐसी हो गयी कि वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया॥४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षणेनासीन्महीपाल क्षतजैघिप्रवर्तिनी ।
पञ्चालानहनत् कर्णस्त्रिगर्तांश्च धनंजयः ॥ ४८ ॥
मूलम्
क्षणेनासीन्महीपाल क्षतजैघिप्रवर्तिनी ।
पञ्चालानहनत् कर्णस्त्रिगर्तांश्च धनंजयः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! क्षणभरमें वहाँ भूतलपर खूनकी नदी बह चली। कर्णने पंचालोंका और अर्जुनने त्रिगर्तोंका संहार कर डाला॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनः कुरून् राजन् हस्त्यनीकं च सर्वशः।
एवमेष क्षयो वृत्तः कुरुपाण्डवसेनयोः।
अपराह्णे गते सूर्ये काङ्क्षतां विपुलं यशः ॥ ४९ ॥
मूलम्
भीमसेनः कुरून् राजन् हस्त्यनीकं च सर्वशः।
एवमेष क्षयो वृत्तः कुरुपाण्डवसेनयोः।
अपराह्णे गते सूर्ये काङ्क्षतां विपुलं यशः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भीमसेनने कौरवों तथा आपकी गजसेनाको सर्वथा नष्ट कर दिया। इस प्रकार सूर्यदेवके अपराह्णकालमें जाते-जाते कौरव और पाण्डव दोनों सेनाओंमें महान् यशकी अभिलाषा रखनेवाले वीरोंका यह विनाश-कार्य सम्पन्न हुआ॥४९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि संकुलयुद्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें संकुल-युद्धविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८॥