भागसूचना
षड्विंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कृपाचार्यसे धृष्टद्युम्नका भय तथा कृतवर्माके द्वारा शिखण्डीकी पराजय
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नं कृपो राजन् वारयामास संयुगे।
यथा दृष्ट्वा वने सिंहं शरभो वारयेद् युधि ॥ १ ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नं कृपो राजन् वारयामास संयुगे।
यथा दृष्ट्वा वने सिंहं शरभो वारयेद् युधि ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! कृपाचार्यने धृष्टद्युम्नको आक्रमण करते देख युद्धभूमिमें उसी प्रकार उन्हें आगे बढ़नेसे रोका, जैसे वनमें शरभ1 सिंहको रोक देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरुद्धः पार्षतस्तेन गौतमेन बलीयसा।
पदात् पदं विचलितुं नाशकत्तत्र भारत ॥ २ ॥
मूलम्
निरुद्धः पार्षतस्तेन गौतमेन बलीयसा।
पदात् पदं विचलितुं नाशकत्तत्र भारत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! अत्यन्त बलवान् गौतमगोत्रीय कृपाचार्यसे अवरुद्ध होकर धृष्टद्युम्न एक पग भी चलनेमें समर्थ न हो सका॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौतमस्य रथं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नरथं प्रति।
वित्रेसुः सर्वभूतानि क्षयं प्राप्तं च मेनिरे ॥ ३ ॥
मूलम्
गौतमस्य रथं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नरथं प्रति।
वित्रेसुः सर्वभूतानि क्षयं प्राप्तं च मेनिरे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृपाचार्यके रथको धृष्टद्युम्नके रथकी ओर जाते देख समस्त प्राणी भयसे थर्रा उठे और धृष्टद्युम्नको नष्ट हुआ ही मानने लगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रावोचन् विमनसो रथिनः सादिनस्तथा।
द्रोणस्य निधनान्नूनं संक्रुद्धो द्विपदां वरः ॥ ४ ॥
शारद्वतो महातेजा दिव्यास्त्रविदुदारधीः ।
अपि स्वस्ति भवेदद्य धृष्टद्युम्नस्य गौतमात् ॥ ५ ॥
मूलम्
तत्रावोचन् विमनसो रथिनः सादिनस्तथा।
द्रोणस्य निधनान्नूनं संक्रुद्धो द्विपदां वरः ॥ ४ ॥
शारद्वतो महातेजा दिव्यास्त्रविदुदारधीः ।
अपि स्वस्ति भवेदद्य धृष्टद्युम्नस्य गौतमात् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सभी रथी और घुड़सवार उदास होकर कहने लगे कि ‘निश्चय ही द्रोणाचार्यके मारे जानेसे दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता, उदारबुद्धि, महातेजस्वी, नरश्रेष्ठ, शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्य अत्यन्त कुपित हो उठे होंगे। क्या आज कृपाचार्यसे धृष्टद्युम्न कुशलपूर्वक सुरक्षित रह सकेंगे?॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपीयं वाहिनी कृत्स्ना मुच्येत महतो भयात्।
अप्ययं ब्राह्मणः सर्वान् न नो हन्यात् समागतान् ॥ ६ ॥
मूलम्
अपीयं वाहिनी कृत्स्ना मुच्येत महतो भयात्।
अप्ययं ब्राह्मणः सर्वान् न नो हन्यात् समागतान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्या यह सारी सेना महान् भयसे मुक्त हो सकती है? कहीं ऐसा न हो कि ये ब्राह्मण देवता यहाँ आये हुए हम सब लोगोंका वध कर डालें?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यादृशं दृश्यते रूपमन्तकप्रतिमं भृशम्।
गमिष्यत्यद्य पदवीं भारद्वाजस्य गौतमः ॥ ७ ॥
मूलम्
यादृशं दृश्यते रूपमन्तकप्रतिमं भृशम्।
गमिष्यत्यद्य पदवीं भारद्वाजस्य गौतमः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इनका यमराजके समान जैसा अत्यन्त भयंकर रूप दिखायी देता है, उससे जान पड़ता है, आज कृपाचार्य भी द्रोणाचार्यके पथपर ही चलेंगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्यः क्षिप्रहस्तश्च विजयी च सदा युधि।
अस्त्रवान् वीर्यसम्पन्नः क्रोधेन च समन्वितः ॥ ८ ॥
मूलम्
आचार्यः क्षिप्रहस्तश्च विजयी च सदा युधि।
अस्त्रवान् वीर्यसम्पन्नः क्रोधेन च समन्वितः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कृपाचार्य शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले तथा युद्धमें सर्वथा विजय प्राप्त करनेवाले हैं। वे अस्त्रवेत्ता, पराक्रमी और क्रोधसे युक्त हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्षतश्च महायुद्धे विमुखोऽद्याभिलक्ष्यते ।
इत्येवं विविधा वाचस्तावकानां परैः सह ॥ ९ ॥
व्यश्रूयन्त महाराज तयोस्तत्र समागमे।
मूलम्
पार्षतश्च महायुद्धे विमुखोऽद्याभिलक्ष्यते ।
इत्येवं विविधा वाचस्तावकानां परैः सह ॥ ९ ॥
व्यश्रूयन्त महाराज तयोस्तत्र समागमे।
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज इस महायुद्धमें धृष्टद्युम्न विमुख होता दिखायी देता है।’ महाराज! इस प्रकार वहाँ धृष्टद्युम्न और कृपाचार्यका समागम होनेपर आपके सैनिकोंकी शत्रुओंके साथ होनेवाली नाना प्रकारकी बातें सुनायी देने लगीं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनिःश्वस्य ततः क्रोधात् कृपः शारद्वतो नृप ॥ १० ॥
पार्षतं चार्दयामास निश्चेष्टं सर्वमर्मसु।
मूलम्
विनिःश्वस्य ततः क्रोधात् कृपः शारद्वतो नृप ॥ १० ॥
पार्षतं चार्दयामास निश्चेष्टं सर्वमर्मसु।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तदनन्तर शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्यने क्रोधसे लंबी साँस खींचकर निश्चेष्ट खड़े हुए धृष्टद्युम्नके सम्पूर्ण मर्मस्थानोंमें गहरी चोट पहुँचायी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हन्यमानः समरे गौतमेन महात्मना ॥ ११ ॥
कर्तव्यं न स्म जानाति मोहेन महताऽऽवृतः।
मूलम्
स हन्यमानः समरे गौतमेन महात्मना ॥ ११ ॥
कर्तव्यं न स्म जानाति मोहेन महताऽऽवृतः।
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें महामना कृपाचार्यके द्वारा आहत होनेपर भी धृष्टद्युम्नको कोई कर्तव्य नहीं सूझता था। वे महान् मोहसे आच्छन्न हो गये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीत्ततो यन्ता कच्चित् क्षेमं तु पार्षत ॥ १२ ॥
ईदृशं व्यसनं युद्धे न ते दृष्टं मया क्वचित्।
मूलम्
तमब्रवीत्ततो यन्ता कच्चित् क्षेमं तु पार्षत ॥ १२ ॥
ईदृशं व्यसनं युद्धे न ते दृष्टं मया क्वचित्।
अनुवाद (हिन्दी)
तब उनके सारथिने उनसे कहा—‘द्रुपदनन्दन! कुशल तो है न? युद्धमें आपपर कभी ऐसा संकट आया हो, यह मैंने नहीं देखा है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवयोगात्तु ते बाणा नापतन् मर्मभेदिनः ॥ १३ ॥
प्रेषिता द्विजमुख्येन मर्माण्युद्दिश्य सर्वतः।
मूलम्
दैवयोगात्तु ते बाणा नापतन् मर्मभेदिनः ॥ १३ ॥
प्रेषिता द्विजमुख्येन मर्माण्युद्दिश्य सर्वतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजश्रेष्ठ कृपाचार्यने सब ओरसे आपके मर्मस्थानोंको लक्ष्य करके बाण चलाये थे; परंतु दैवयोगसे ही वे मर्मभेदी बाण आपके मर्मस्थानोंपर नहीं पड़े हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यावर्तये रथं तूर्णं नदीवेगमिवार्णवात् ॥ १४ ॥
अवध्यं ब्राह्मणं मन्ये येन ते विक्रमो हतः।
मूलम्
व्यावर्तये रथं तूर्णं नदीवेगमिवार्णवात् ॥ १४ ॥
अवध्यं ब्राह्मणं मन्ये येन ते विक्रमो हतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे कोई शक्तिशाली पुरुष समुद्रसे नदीके वेगको पीछे लौटा दे, उसी प्रकार मैं आपके इस रथको तुरंत लौटा ले चलूँगा। मेरी समझमें ये ब्राह्मण देवता अवध्य हैं, जिनसे आज आपका पराक्रम प्रतिहत हो गया’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नस्ततो राजन् शनकैरब्रवीद् वचः ॥ १५ ॥
मुह्यते मे मनस्तात गात्रस्वेदश्च जायते।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च सारथे ॥ १६ ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नस्ततो राजन् शनकैरब्रवीद् वचः ॥ १५ ॥
मुह्यते मे मनस्तात गात्रस्वेदश्च जायते।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च सारथे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह सुनकर धृष्टद्युम्नने धीरेसे कहा—‘सारथे! मेरे मनपर मोह छा रहा है और शरीरसे पसीना छूटने लगा है। मेरे सारे अंग काँप रहे हैं और रोमांच हो आया है॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्जयन् ब्राह्मणं युद्धे शनैर्याहि यतोऽर्जुनः।
अर्जुनं भीमसेनं वा समरे प्राप्य सारथे ॥ १७ ॥
क्षेममद्य भवेदेवमेषा मे नैष्ठिकी मतिः।
मूलम्
वर्जयन् ब्राह्मणं युद्धे शनैर्याहि यतोऽर्जुनः।
अर्जुनं भीमसेनं वा समरे प्राप्य सारथे ॥ १७ ॥
क्षेममद्य भवेदेवमेषा मे नैष्ठिकी मतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम युद्धस्थलमें ब्राह्मण कृपाचार्यको छोड़ते हुए धीरे-धीरे जहाँ अर्जुन हैं, उसी ओर चल दो। समरांगणमें अर्जुन अथवा भीमसेनके पास पहुँचकर ही आज मैं सकुशल रह सकता हूँ, ऐसा मेरा दृढ़ विचार है’॥१७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रायान्महाराज सारथिस्त्वरयन् हयान् ॥ १८ ॥
यतो भीमो महेष्वासो युयुधे तव सैनिकैः।
मूलम्
ततः प्रायान्महाराज सारथिस्त्वरयन् हयान् ॥ १८ ॥
यतो भीमो महेष्वासो युयुधे तव सैनिकैः।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तब सारथि घोड़ोंको तेजीसे हाँकता हुआ उसी ओर चल दिया जहाँ महाधनुर्धर भीमसेन आपके सैनिकोंके साथ युद्ध कर रहे थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रद्रुतं च रथं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नस्य मारिष ॥ १९ ॥
किरन् शतशतान्येव गौतमोऽनुययौ तदा।
मूलम्
प्रद्रुतं च रथं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नस्य मारिष ॥ १९ ॥
किरन् शतशतान्येव गौतमोऽनुययौ तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
मान्यवर नरेश! धृष्टद्युम्नके रथको वहाँसे भागते देख कृपाचार्यने सैकड़ों बाणोंकी वर्षा करते हुए उनका पीछा किया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खं च पूरयामास मुहुर्मुहुररिंदमः ॥ २० ॥
पार्षतं त्रासयामास महेन्द्रो नमुचिं यथा।
मूलम्
शङ्खं च पूरयामास मुहुर्मुहुररिंदमः ॥ २० ॥
पार्षतं त्रासयामास महेन्द्रो नमुचिं यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंका दमन करनेवाले कृपाचार्यने बारंबार शंखध्वनि की और जैसे इन्द्रने नमुचिको डराया था, उसी प्रकार उन्होंने धृष्टद्युम्नको भयभीत कर दिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिखण्डिनं तु समरे भीष्ममृत्युं दुरासदम् ॥ २१ ॥
हार्दिक्यो वारयामास स्मयन्निव मुहुर्मुहुः।
मूलम्
शिखण्डिनं तु समरे भीष्ममृत्युं दुरासदम् ॥ २१ ॥
हार्दिक्यो वारयामास स्मयन्निव मुहुर्मुहुः।
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरी ओर समरांगणमें दुर्जय वीर शिखण्डीको, जो भीष्मके लिये मृत्युस्वरूप था, कृतवर्माने बारंबार मुसकराते हुए-से रोका॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिखण्डी तु समासाद्य हृदिकानां महारथम् ॥ २२ ॥
पञ्चभिर्निशितैर्भल्लैर्जत्रुदेशे समाहनत् ।
मूलम्
शिखण्डी तु समासाद्य हृदिकानां महारथम् ॥ २२ ॥
पञ्चभिर्निशितैर्भल्लैर्जत्रुदेशे समाहनत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
हृदिकवंशी यादवोंके महारथी वीर कृतवर्माको सामने पाकर शिखण्डीने उसके गलेकी हँसलीपर पाँच तीखे भल्लोंद्वारा प्रहार किया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतवर्मा तु संक्रुद्धो भित्त्वा षष्ट्या पतत्रिभिः ॥ २३ ॥
धनुरेकेन चिच्छेद हसन् राजन् महारथः।
मूलम्
कृतवर्मा तु संक्रुद्धो भित्त्वा षष्ट्या पतत्रिभिः ॥ २३ ॥
धनुरेकेन चिच्छेद हसन् राजन् महारथः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब महारथी कृतवर्माने अत्यन्त कुपित हो साठ बाणोंसे शिखण्डीको घायल करके एकसे हँसते-हँसते उसका धनुष काट डाला॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यद् धनुरादाय द्रुपदस्यात्मजो बली ॥ २४ ॥
तिष्ठ तिष्ठेति संक्रुद्धो हार्दिक्यं प्रत्यभाषत।
मूलम्
अथान्यद् धनुरादाय द्रुपदस्यात्मजो बली ॥ २४ ॥
तिष्ठ तिष्ठेति संक्रुद्धो हार्दिक्यं प्रत्यभाषत।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् द्रुपदके बलवान् पुत्रने दूसरा धनुष हाथमें लेकर कृतवर्मासे क्रोधपूर्वक कहा—‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्य नवतिं बाणान् रुक्मपुङ्खान् सुतेजनान् ॥ २५ ॥
प्रेषयामास राजेन्द्र तेऽस्याभ्रश्यन्त वर्मणः।
मूलम्
ततोऽस्य नवतिं बाणान् रुक्मपुङ्खान् सुतेजनान् ॥ २५ ॥
प्रेषयामास राजेन्द्र तेऽस्याभ्रश्यन्त वर्मणः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! फिर सोनेकी पाँखवाले नब्बे पैने बाण उसने चलाये, परंतु वे कृतवर्माके कवचसे फिसलकर गिर गये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वितथांस्तान् समालक्ष्य पतितांश्च महीतले ॥ २६ ॥
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन कार्मुकं चिच्छिदे भृशम्।
मूलम्
वितथांस्तान् समालक्ष्य पतितांश्च महीतले ॥ २६ ॥
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन कार्मुकं चिच्छिदे भृशम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें व्यर्थ होकर पृथ्वीपर गिरा देख शिखण्डीने तीखे क्षुरप्रसे कृतवर्माके धनुषके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनं छिन्नधन्वानं भग्नशृङ्गमिवर्षभम् ॥ २७ ॥
अशीत्या मार्गणैः क्रुद्धो बाह्वोरुरसि चार्पयत्।
मूलम्
अथैनं छिन्नधन्वानं भग्नशृङ्गमिवर्षभम् ॥ २७ ॥
अशीत्या मार्गणैः क्रुद्धो बाह्वोरुरसि चार्पयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
धनुष कट जानेपर कृतवर्माकी दशा टूटे सींगवाले बैलके समान हो गयी। उस समय शिखण्डीने कुपित होकर उसकी दोनों भुजाओं तथा छातीमें अस्सी बाण मारे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतवर्मा तु संक्रुद्धो मार्गणैः क्षतविक्षतः ॥ २८ ॥
ववाम रुधिरं गात्रैः कुम्भवक्त्रादिवोदकम्।
मूलम्
कृतवर्मा तु संक्रुद्धो मार्गणैः क्षतविक्षतः ॥ २८ ॥
ववाम रुधिरं गात्रैः कुम्भवक्त्रादिवोदकम्।
अनुवाद (हिन्दी)
कृतवर्मा उन बाणोंसे क्षत-विक्षत होकर अत्यन्त कुपित हो उठा और जैसे घड़ेके मुँहसे जल गिर रहा हो, उसी प्रकार वह अपने अंगोंसे रक्त वमन करने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुधिरेण परिक्लिन्नः कृतवर्मा त्वराजत ॥ २९ ॥
वर्षेण क्लेदितो राजन् यथा गैरिकपर्वतः।
मूलम्
रुधिरेण परिक्लिन्नः कृतवर्मा त्वराजत ॥ २९ ॥
वर्षेण क्लेदितो राजन् यथा गैरिकपर्वतः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! खूनसे लथपथ हुआ कृतवर्मा वर्षासे भीगे हुए गेरूके पहाड़के समान शोभा पा रहा था॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यद् धनुरादाय समार्गणगुणं प्रभुः ॥ ३० ॥
शिखण्डिनं बाणगणैः स्कन्धदेशे व्यताडयत्।
मूलम्
अथान्यद् धनुरादाय समार्गणगुणं प्रभुः ॥ ३० ॥
शिखण्डिनं बाणगणैः स्कन्धदेशे व्यताडयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर शक्तिशाली कृतवर्माने बाण और प्रत्यंचा-सहित दूसरा धनुष हाथमें लेकर शिखण्डीके कंधोंपर अपने बाण-समूहोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्कन्धदेशस्थितैर्बाणैः शिखण्डी तु व्यराजत ॥ ३१ ॥
शाखाप्रशाखाविपुलः सुमहान् पादपो यथा।
मूलम्
स्कन्धदेशस्थितैर्बाणैः शिखण्डी तु व्यराजत ॥ ३१ ॥
शाखाप्रशाखाविपुलः सुमहान् पादपो यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
कंधोंमें धँसे हुए उन बाणोंसे शिखण्डी वैसी ही शोभा पाने लगा, जैसे कोई महान् वृक्ष अपनी शाखा-प्रशाखाओंके कारण अधिक विस्तृत दिखायी देता हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावन्योन्यं भृशं विद्ध्वा रुधिरेण समुक्षितौ ॥ ३२ ॥
(पोप्लूयमानौ हि यथा महान्तौ शोणितह्रदे।)
मूलम्
तावन्योन्यं भृशं विद्ध्वा रुधिरेण समुक्षितौ ॥ ३२ ॥
(पोप्लूयमानौ हि यथा महान्तौ शोणितह्रदे।)
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों महान् वीर एक-दूसरेको अत्यन्त घायल करके खूनसे इस प्रकार नहा गये थे, मानो रक्तके सरोवरमें बारंबार डुबकी लगाकर आये हों॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यशृङ्गाभिहतौ रेजतुर्वृषभाविव ।
मूलम्
अन्योन्यशृङ्गाभिहतौ रेजतुर्वृषभाविव ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय एक-दूसरेके सींगोंसे चोट खाये हुए दो साँड़के समान उन दोनोंकी बड़ी शोभा हो रही थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यस्य वधे यत्नं कुर्वाणौ तौ महारथौ ॥ ३३ ॥
रथाभ्यां चेरतुस्तत्र मण्डलानि सहस्रशः।
मूलम्
अन्योन्यस्य वधे यत्नं कुर्वाणौ तौ महारथौ ॥ ३३ ॥
रथाभ्यां चेरतुस्तत्र मण्डलानि सहस्रशः।
अनुवाद (हिन्दी)
एक-दूसरेके वधके लिये प्रयत्न करते हुए वे दोनों महारथी अपने रथके द्वारा वहाँ सहस्रों बार मण्डलाकार गतिसे विचरते थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतवर्मा महाराज पार्षतं निशितैः शरैः ॥ ३४ ॥
रणे विव्याध सप्तत्या स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः।
मूलम्
कृतवर्मा महाराज पार्षतं निशितैः शरैः ॥ ३४ ॥
रणे विव्याध सप्तत्या स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कृतवर्माने रणभूमिमें सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले सत्तर बाणोंसे द्रुपदपुत्र शिखण्डीको घायल कर दिया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्य समरे बाणं भोजः प्रहरतां वरः ॥ ३५ ॥
जीवितान्तकरं घोरं व्यसृजत्त्वरयान्वितः ।
मूलम्
ततोऽस्य समरे बाणं भोजः प्रहरतां वरः ॥ ३५ ॥
जीवितान्तकरं घोरं व्यसृजत्त्वरयान्वितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् प्रहार करनेवाले योद्धाओंमें श्रेष्ठ कृतवर्माने उसके ऊपर समरांगणमें बड़ी उतावलीके साथ एक भयंकर प्राणान्तकारी बाण छोड़ा॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तेनाभिहतो राजन् मूर्च्छामाशु समाविशत् ॥ ३६ ॥
ध्वजयष्टिं च सहसा शिश्रिये कश्मलावृतः।
मूलम्
स तेनाभिहतो राजन् मूर्च्छामाशु समाविशत् ॥ ३६ ॥
ध्वजयष्टिं च सहसा शिश्रिये कश्मलावृतः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस बाणसे आहत हो शिखण्डी तत्काल मूर्च्छित हो गया। उसने सहसा मोहाच्छन्न होकर ध्वजदण्डका सहारा ले लिया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपोवाह रणात्तूर्णं सारथी रथिनां वरम् ॥ ३७ ॥
हार्दिक्यशरसंतप्तं निःश्वसन्तं पुनः पुनः।
मूलम्
अपोवाह रणात्तूर्णं सारथी रथिनां वरम् ॥ ३७ ॥
हार्दिक्यशरसंतप्तं निःश्वसन्तं पुनः पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
कृतवर्माके बाणोंसे संतप्त हो बारंबार लंबी साँस खींचते हुए रथियोंमें श्रेष्ठ शिखण्डीको उसका सारथि तुरंत रणभूमिसे बाहर हटा ले गया॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पराजिते ततः शूरे द्रुपदस्यात्मजे प्रभो।
व्यद्रवत् पाण्डवी सेना वध्यमाना समन्ततः ॥ ३८ ॥
मूलम्
पराजिते ततः शूरे द्रुपदस्यात्मजे प्रभो।
व्यद्रवत् पाण्डवी सेना वध्यमाना समन्ततः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! शूरवीर द्रुपदपुत्रके पराजित हो जानेपर सब ओरसे मारी जाती हुई पाण्डव-सेना भागने लगी॥३८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि संकुलयुद्धे षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें संकुल-युद्धविषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ३८ श्लोक हैं)
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शरभ आठ पैरोंका एक जानवर है, जिसका आधा शरीर पशुका और आधा पक्षीका होता है। भगवान् नृसिंहकी भाँति उसका शरीर भी द्विविध आकृतियोंके सम्मिश्रणसे बना है। वह इतना प्रबल है कि सिंहको भी मार सकता है। ↩︎