०२५

भागसूचना

पञ्चविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युयुत्सु और उलूकका युद्ध, युयुत्सुका पलायन, शतानीक और धृतराष्ट्रपुत्र श्रुतकर्माका तथा सुतसोम और शकुनिका घोर युद्ध एवं शकुनिद्वारा पाण्डव-सेनाका विनाश

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युयुत्सुं तव पुत्रस्य द्रावयन्तं बलं महत्।
उलूको न्यपतत्तूर्णं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

युयुत्सुं तव पुत्रस्य द्रावयन्तं बलं महत्।
उलूको न्यपतत्तूर्णं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! दूसरी ओर युयुत्सु आपके पुत्रकी विशाल सेनाको खदेड़ रहा था। यह देख उलूक तुरंत वहाँ आ धमका और युयुत्सुसे बोला—‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युयुत्सुश्च ततो राजन् शितधारेण पत्रिणा।
उलूकं ताडयामास वज्रेणेन्द्र इवाचलम् ॥ २ ॥

मूलम्

युयुत्सुश्च ततो राजन् शितधारेण पत्रिणा।
उलूकं ताडयामास वज्रेणेन्द्र इवाचलम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब युयुत्सुने तीखी धारवाले बाणसे महाबली उलूकको उसी प्रकार पीट दिया, जैसे इन्द्र पर्वतपर वज्रका प्रहार करते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलूकस्तु ततः क्रुद्धस्तव पुत्रस्य संयुगे।
क्षुरप्रेण धनुश्छित्त्वा ताडयामास कर्णिना ॥ ३ ॥

मूलम्

उलूकस्तु ततः क्रुद्धस्तव पुत्रस्य संयुगे।
क्षुरप्रेण धनुश्छित्त्वा ताडयामास कर्णिना ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे उलूकको बड़ा क्रोध हुआ। उसने युद्धस्थलमें एक क्षुरप्रके द्वारा आपके पुत्रका धनुष काटकर उसपर कर्णी नामक बाणका प्रहार किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदपास्य धनुश्छिन्नं युयुत्सुर्वेगवत्तरम् ।
अन्यदादत्त सुमहच्चापं संरक्तलोचनः ॥ ४ ॥

मूलम्

तदपास्य धनुश्छिन्नं युयुत्सुर्वेगवत्तरम् ।
अन्यदादत्त सुमहच्चापं संरक्तलोचनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युयुत्सुने उस कटे हुए धनुषको फेंककर क्रोधसे आँखें लाल करके दूसरा अत्यन्त वेगशाली एवं विशाल धनुष हाथमें लिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाकुनिं तु ततः षष्ट्‌या् विव्याध भरतर्षभ।
सारथिं त्रिभिरानर्छत्तं च भूयो व्यविध्यत ॥ ५ ॥

मूलम्

शाकुनिं तु ततः षष्ट्‌या् विव्याध भरतर्षभ।
सारथिं त्रिभिरानर्छत्तं च भूयो व्यविध्यत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उसने शकुनिपुत्र उलूकको साठ बाणोंसे बेध दिया और तीन बाणोंसे उसके सारथिको पीड़ित किया। तत्पश्चात् उसे और भी घायल कर दिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलूकस्तं तु विंशत्या विद््ध्वा‌ स्वर्णविभूषितैः।
अथास्य समरे क्रुद्धो ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम् ॥ ६ ॥

मूलम्

उलूकस्तं तु विंशत्या विद््ध्वा‌ स्वर्णविभूषितैः।
अथास्य समरे क्रुद्धो ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उलूकने संग्रामभूमिमें कुपित हो स्वर्णभूषित बीस बाणोंसे युयुत्सुको घायल करके उनके सुवर्णमय ध्वजको भी काट डाला॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सच्छिन्नयष्टिः सुमहान् शीर्यमाणो महाध्वजः।
पपात प्रमुखे राजन् युयुत्सोः काञ्चनध्वजः ॥ ७ ॥

मूलम्

सच्छिन्नयष्टिः सुमहान् शीर्यमाणो महाध्वजः।
पपात प्रमुखे राजन् युयुत्सोः काञ्चनध्वजः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ध्वजका दण्ड कट जानेपर युयुत्सुका वह विशाल कांचनध्वज छिन्न-भिन्न हो उसके सामने ही गिर पड़ा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजमुन्मथितं दृष्ट्वा युयुत्सुः क्रोधमूर्च्छितः।
उलूकं पञ्चभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे ॥ ८ ॥

मूलम्

ध्वजमुन्मथितं दृष्ट्वा युयुत्सुः क्रोधमूर्च्छितः।
उलूकं पञ्चभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने ध्वजका यह विध्वंस देखकर युयुत्सु क्रोधसे मूर्च्छित-सा हो गया और उसने पाँच बाणोंसे उलूककी छाती छेद डाली॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलूकस्तस्य समरे तैलधौतेन मारिष।
शिरश्चिच्छेद भल्लेन यन्तुर्भरतसत्तम ॥ ९ ॥

मूलम्

उलूकस्तस्य समरे तैलधौतेन मारिष।
शिरश्चिच्छेद भल्लेन यन्तुर्भरतसत्तम ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय भरतभूषण! उलूकने तेलसे साफ किये हुए भल्लके द्वारा युयुत्सुके सारथिका मस्तक काट डाला॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छिन्नमपतद् भूमौ युयुत्सोः सारथेस्तदा।
तारारूपं यथा चित्रं निपपात महीतले ॥ १० ॥

मूलम्

तच्छिन्नमपतद् भूमौ युयुत्सोः सारथेस्तदा।
तारारूपं यथा चित्रं निपपात महीतले ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय युयुत्सुके सारथिका वह कटा हुआ मस्तक पृथ्वीपर उसी भाँति गिरा, मानो आकाशसे भूतलपर कोई विचित्र तारा टूट पड़ा हो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जघान चतुरोऽश्वांश्च तं च विव्याध पञ्चभिः।
सोऽतिविद्धो बलवता प्रत्यपायाद् रथान्तरम् ॥ ११ ॥

मूलम्

जघान चतुरोऽश्वांश्च तं च विव्याध पञ्चभिः।
सोऽतिविद्धो बलवता प्रत्यपायाद् रथान्तरम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उलूकने युयुत्सुके चारों घोड़ोंको भी मार डाला और पाँच बाणोंसे उसे भी घायल कर दिया। उस बलवान् वीरके द्वारा अत्यन्त घायल हो युयुत्सु दूसरे रथपर आरूढ़ हो वहाँसे भाग गया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं निर्जित्य रणे राजन्नुलूकस्त्वरितो ययौ।
पञ्चालान् सृञ्जयांश्चैव विनिघ्नन् निशितैः शरैः ॥ १२ ॥

मूलम्

तं निर्जित्य रणे राजन्नुलूकस्त्वरितो ययौ।
पञ्चालान् सृञ्जयांश्चैव विनिघ्नन् निशितैः शरैः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! रणभूमिमें युयुत्सुको पराजित करके उलूक तुरंत ही पांचालों और सृंजयोंकी ओर चला गया और उन्हें तीखे बाणोंसे मारने लगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतानीकं महाराज श्रुतकर्मा सुतस्तव।
व्यश्वसूतरथं चक्रे निमेषार्धादसम्भ्रमः ॥ १३ ॥

मूलम्

शतानीकं महाराज श्रुतकर्मा सुतस्तव।
व्यश्वसूतरथं चक्रे निमेषार्धादसम्भ्रमः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! दूसरी ओर आपके पुत्र श्रुतकर्माने बिना किसी घबराहटके आधे निमेषमें ही शतानीकके रथको घोड़ों और सारथिसे शून्य कर दिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हताश्वे तु रथे तिष्ठन् शतानीको महारथः।
गदां चिक्षेप संक्रुद्धस्तव पुत्रस्य मारिष ॥ १४ ॥

मूलम्

हताश्वे तु रथे तिष्ठन् शतानीको महारथः।
गदां चिक्षेप संक्रुद्धस्तव पुत्रस्य मारिष ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मान्यवर! महारथी शतानीकने कुपित होकर अपने अश्वहीन रथपर खड़े रहकर ही आपके पुत्रके ऊपर गदाका प्रहार किया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा कृत्वा स्यन्दनं भस्म हयांश्चैव ससारथीन्।
पपात धरणीं तूर्णं दारयन्तीव भारत ॥ १५ ॥

मूलम्

सा कृत्वा स्यन्दनं भस्म हयांश्चैव ससारथीन्।
पपात धरणीं तूर्णं दारयन्तीव भारत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वह गदा तुरंत ही श्रुतकर्माके रथ, घोड़ों और सारथिको भस्म करके पृथ्वीको विदीर्ण करती हुई-सी गिर पड़ी॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ विरथौ वीरौ कुरूणां कीर्तिवर्धनौ।
व्यपाक्रमेतां युद्धात्तु प्रेक्षमाणौ परस्परम् ॥ १६ ॥

मूलम्

तावुभौ विरथौ वीरौ कुरूणां कीर्तिवर्धनौ।
व्यपाक्रमेतां युद्धात्तु प्रेक्षमाणौ परस्परम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले वे दोनों वीर रथहीन हो एक-दूसरेको देखते हुए युद्धस्थलसे हट गये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रस्तु तव सम्भ्रान्तो विवित्सो रथमारुहत्।
शतानीकोऽपि त्वरितः प्रतिविन्ध्यरथं गतः ॥ १७ ॥

मूलम्

पुत्रस्तु तव सम्भ्रान्तो विवित्सो रथमारुहत्।
शतानीकोऽपि त्वरितः प्रतिविन्ध्यरथं गतः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका पुत्र श्रुतकर्मा घबरा गया था। वह विवित्सुके रथपर जा चढ़ा और शतानीक भी तुरंत ही प्रतिविन्ध्यके रथपर चला गया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुतसोमं तु शकुनिर्विद्‌ध्वा तु निशितैः शरैः।
नाकम्पयत संक्रुद्धो वार्योघ इव पर्वतम् ॥ १८ ॥

मूलम्

सुतसोमं तु शकुनिर्विद्‌ध्वा तु निशितैः शरैः।
नाकम्पयत संक्रुद्धो वार्योघ इव पर्वतम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरी ओर शकुनि अत्यन्त कुपित हो अपने तीखे बाणोंसे सुतसोमको घायल करके भी उसे विचलित न कर सका। ठीक उसी तरह जैसे जलका प्रवाह पर्वतको नहीं हिला सकता॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुतसोमस्तु तं दृष्ट्वा पितुरत्यन्तवैरिणम्।
शरैरनेकसाहस्रैश्छादयामास भारत ॥ १९ ॥

मूलम्

सुतसोमस्तु तं दृष्ट्वा पितुरत्यन्तवैरिणम्।
शरैरनेकसाहस्रैश्छादयामास भारत ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! सुतसोमने अपने पिताके अत्यन्त वैरी शकुनिको सामने देखकर उसे कई हजार बाणोंसे आच्छादित कर दिया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताञ्शराञ्शकुनिस्तूर्णं चिच्छेदान्यैः पतत्रिभिः ।
लघ्वस्त्रश्चित्रयोधी च जितकाशी च संयुगे ॥ २० ॥
निवार्य समरे चापि शरांस्तान् निशितैः शरैः।
आजघान सुसंक्रुद्धः सुतसोमं त्रिभिः शरैः ॥ २१ ॥

मूलम्

ताञ्शराञ्शकुनिस्तूर्णं चिच्छेदान्यैः पतत्रिभिः ।
लघ्वस्त्रश्चित्रयोधी च जितकाशी च संयुगे ॥ २० ॥
निवार्य समरे चापि शरांस्तान् निशितैः शरैः।
आजघान सुसंक्रुद्धः सुतसोमं त्रिभिः शरैः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु शकुनिने तुरंत ही दूसरे बाणोंद्वारा सुतसोमके बाणोंको काट डाला। वह शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलानेवाला, विचित्र युद्धमें कुशल और युद्धस्थलमें विजयश्रीसे सुशोभित होनेवाला था। उसने समरांगणमें अपने तीखे बाणोंसे सुतसोमके बाणोंका निवारण करके अत्यन्त कुपित हो तीन बाणोंद्वारा सुतसोमको भी घायल कर दिया॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याश्वान् केतनं सूतं तिलशो व्यधमच्छरैः।
स्यालस्तव महाराज तत उच्चुक्रुशुर्जनाः ॥ २२ ॥

मूलम्

तस्याश्वान् केतनं सूतं तिलशो व्यधमच्छरैः।
स्यालस्तव महाराज तत उच्चुक्रुशुर्जनाः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! आपके सालेने सुतसोमके घोड़ोंको तथा ध्वज और सारथिको भी अपने बाणोंसे तिल-तिल करके काट डाला; इससे सब लोग हर्षसूचक कोलाहल करने लगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हताश्वो विरथश्चैव छिन्नकेतुश्च मारिष।
धन्वी धनुर्वरं गृह्य रथाद् भूमावतिष्ठत ॥ २३ ॥

मूलम्

हताश्वो विरथश्चैव छिन्नकेतुश्च मारिष।
धन्वी धनुर्वरं गृह्य रथाद् भूमावतिष्ठत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मान्यवर! घोड़े, रथ और ध्वजके नष्ट हो जानेपर धनुर्धर सुतसोम अपने हाथमें श्रेष्ठ धनुष लिये रथसे उतरकर धरतीपर खड़ा हो गया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यसृजत्‌ सायकांश्चैव स्वर्णपुङ्खान् शिलाशितान्।
छादयामास समरे तव स्यालस्य तं रथम् ॥ २४ ॥

मूलम्

व्यसृजत्‌ सायकांश्चैव स्वर्णपुङ्खान् शिलाशितान्।
छादयामास समरे तव स्यालस्य तं रथम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उसने शिलापर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले बहुत-से बाण छोड़े। उन बाणोंद्वारा समरभूमिमें उसने आपके सालेके रथको ढक दिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शलभानामिव व्राताञ्शरव्रातान् महारथः ।
रथोपगान् समीक्ष्यैवं विव्यथे नैव सौबलः ॥ २५ ॥
प्रममाथ शरांस्तस्य शरव्रातैर्महायशाः ।

मूलम्

शलभानामिव व्राताञ्शरव्रातान् महारथः ।
रथोपगान् समीक्ष्यैवं विव्यथे नैव सौबलः ॥ २५ ॥
प्रममाथ शरांस्तस्य शरव्रातैर्महायशाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उसके बाणसमूह टिड्डीदलोंके समान जान पड़ते थे। उन्हें अपने रथके समीप देखकर भी महारथी सुबलपुत्र शकुनिके मनमें तनिक भी व्यथा नहीं हुई। उस महायशस्वी वीरने अपने बाणसमूहोंद्वारा सुतसोमके सारे बाणोंको पूर्णतया मथ डाला॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रातुष्यन्त योधाश्च सिद्धाश्चापि दिवि स्थिताः ॥ २६ ॥
सुतसोमस्य तत् कर्म दृष्ट्वा श्रद्धेयमद्भुतम्।
रथस्थं शकुनिं यस्तु पदातिः समयोधयत् ॥ २७ ॥

मूलम्

तत्रातुष्यन्त योधाश्च सिद्धाश्चापि दिवि स्थिताः ॥ २६ ॥
सुतसोमस्य तत् कर्म दृष्ट्वा श्रद्धेयमद्भुतम्।
रथस्थं शकुनिं यस्तु पदातिः समयोधयत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुतसोम जो वहाँ पैदल होकर भी रथपर बैठे हुए शकुनिके साथ युद्ध कर रहा था। उसके इस अविश्वसनीय और अद्भुत कर्मको देखकर वहाँ खड़े हुए समस्त योद्धा तथा आकाशमें स्थित हुए सिद्धगण भी बहुत संतुष्ट हुए॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तीक्ष्णैर्महावेगैर्भल्लैः संनतपर्वभिः ।
व्यहनत् कार्मुकं राजंस्तूणीरांश्चैव सर्वशः ॥ २८ ॥

मूलम्

तस्य तीक्ष्णैर्महावेगैर्भल्लैः संनतपर्वभिः ।
व्यहनत् कार्मुकं राजंस्तूणीरांश्चैव सर्वशः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय शकुनिने अत्यन्त वेगशाली और झुकी हुई गाँठवाले तीखे भल्लोंद्वारा सुतसोमके धनुष, तरकस तथा अन्य सब उपकरणोंको भी नष्ट कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च्छिन्नधन्वा विरथः खड्‌गमुद्यम्य चानदत्।
वैदूर्योत्पलवर्णाभं दन्तिदन्तमयत्सरुम् ॥ २९ ॥

मूलम्

स च्छिन्नधन्वा विरथः खड्‌गमुद्यम्य चानदत्।
वैदूर्योत्पलवर्णाभं दन्तिदन्तमयत्सरुम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथ तो नष्ट हो ही चुका था, जब धनुष भी कट गया, तब सुतसोमने वैदूर्यमणि तथा नील कमलके समान श्याम रंगवाले, हाथीके दाँतकी बनी हुई मूठसे युक्त खड्गको ऊपर उठाकर बड़े जोरसे गर्जना की॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्राम्यमाणं ततस्तं तु विमलाम्बरवर्चसम्।
कालदण्डोपमं मेने सुतसोमस्य धीमतः ॥ ३० ॥

मूलम्

भ्राम्यमाणं ततस्तं तु विमलाम्बरवर्चसम्।
कालदण्डोपमं मेने सुतसोमस्य धीमतः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् सुतसोमके उस निर्मल आकाशके समान कान्तिवाले खड्गको घुमाया जाता देख शकुनिने उसे अपने लिये कालदण्डके समान माना॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽचरत् सहसा खड्गी मण्डलानि समन्ततः।
चतुर्दश महाराज शिक्षाबलसमन्वितः ॥ ३१ ॥

मूलम्

सोऽचरत् सहसा खड्गी मण्डलानि समन्ततः।
चतुर्दश महाराज शिक्षाबलसमन्वितः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! सुतसोम शिक्षा और बल दोनोंसे सम्पन्न था, वह खड्ग लेकर सहसा उसके चौदह मण्डल (पैंतरे) दिखाता हुआ रणभूमिमें सब ओर विचरने लगा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रान्तमुद्भ्रान्तमाविद्धमाप्लुतं विप्लुतं सृतम् ।
सम्पातसमुदीर्णे च दर्शयामास संयुगे ॥ ३२ ॥

मूलम्

भ्रान्तमुद्भ्रान्तमाविद्धमाप्लुतं विप्लुतं सृतम् ।
सम्पातसमुदीर्णे च दर्शयामास संयुगे ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने युद्धस्थलमें भ्रान्त, उद्भ्रान्त, आविद्ध, आप्लुत, प्लुत, सृत, सम्पात और समुदीर्ण आदि गतियोंको दिखाया॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौबलस्तु ततस्तस्य शरांश्चिक्षेप वीर्यवान्।
तानापतत एवाशु चिच्छेद परमासिना ॥ ३३ ॥

मूलम्

सौबलस्तु ततस्तस्य शरांश्चिक्षेप वीर्यवान्।
तानापतत एवाशु चिच्छेद परमासिना ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पराक्रमी सुबलपुत्रने सुतसोमपर बहुत-से बाण चलाये; परंतु उसने अपने उत्तम खड्गसे निकट आते ही उन सब बाणोंको काट गिराया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो महाराज सौबलः परवीरहा।
प्राहिणोत् सुतसोमाय शरानाशीविषोपमान् ॥ ३४ ॥

मूलम्

ततः क्रुद्धो महाराज सौबलः परवीरहा।
प्राहिणोत् सुतसोमाय शरानाशीविषोपमान् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इससे शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले सुबलपुत्र शकुनिको बड़ा क्रोध हुआ। उसने सुतसोमपर विषधर सर्पोंके समान बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिच्छेद तांस्तु खड्गेन शिक्षया च बलेन च।
दर्शयल्ँलाघवं युद्धे तार्क्ष्यतुल्यपराक्रमः ॥ ३५ ॥

मूलम्

चिच्छेद तांस्तु खड्गेन शिक्षया च बलेन च।
दर्शयल्ँलाघवं युद्धे तार्क्ष्यतुल्यपराक्रमः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु गरुडके तुल्य पराक्रमी सुतसोमने अपनी शिक्षा और बलके अनुसार युद्धमें फुर्ती दिखाते हुए खड्गसे उन सब बाणोंके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य संचरतो राजन् मण्डलावर्तने तदा।
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन खड्गं चिच्छेद सुप्रभम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

तस्य संचरतो राजन् मण्डलावर्तने तदा।
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन खड्गं चिच्छेद सुप्रभम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सुतसोम जब अपनी चमकीली तलवारको मण्डलाकार घुमा रहा था, उसी समय शकुनिने तीखे क्षुरप्रसे उसके दो टुकड़े कर दिये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च्छिन्नः सहसा भूमौ निपपात महानसिः।
अर्धमस्य स्थितं हस्ते सुत्सरोस्तत्र भारत ॥ ३७ ॥

मूलम्

स च्छिन्नः सहसा भूमौ निपपात महानसिः।
अर्धमस्य स्थितं हस्ते सुत्सरोस्तत्र भारत ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह महान् खड्ग कटकर सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ा। भारत! सुन्दर मूठवाले उस खड्गका आधा भाग सुतसोमके हाथमें ही रह गया॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिन्नमाज्ञाय निस्त्रिंशमवप्लुत्य पदानि षट्।
प्राविध्यत ततः शेषं सुतसोमो महारथः ॥ ३८ ॥

मूलम्

छिन्नमाज्ञाय निस्त्रिंशमवप्लुत्य पदानि षट्।
प्राविध्यत ततः शेषं सुतसोमो महारथः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने उस खड्गको कटा हुआ जान महारथी सुतसोमने छः पग ऊँचे उछलकर उसके शेष भागको ही शकुनिपर दे मारा॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छित्त्वा सगुणं चापं रणे तस्य महात्मनः।
पपात धरणीं तूर्णं स्वर्णवज्रविभूषितम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

तच्छित्त्वा सगुणं चापं रणे तस्य महात्मनः।
पपात धरणीं तूर्णं स्वर्णवज्रविभूषितम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह स्वर्ण और हीरेसे विभूषित कटा हुआ खड्ग रणभूमिमें महामना शकुनिके धनुषको प्रत्यंचासहित काटकर तुरंत ही पृथ्वीपर गिर पड़ा॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुतसोमस्ततोऽगच्छच्छ्रुतकीर्तेर्महारथम् ।
सौबलोऽपि धनुर्गृह्य घोरमन्यत् सुदुर्जयम् ॥ ४० ॥
अभ्ययात्‌ पाण्डवानीकं निघ्नञ्शत्रुगणान् बहून्।

मूलम्

सुतसोमस्ततोऽगच्छच्छ्रुतकीर्तेर्महारथम् ।
सौबलोऽपि धनुर्गृह्य घोरमन्यत् सुदुर्जयम् ॥ ४० ॥
अभ्ययात्‌ पाण्डवानीकं निघ्नञ्शत्रुगणान् बहून्।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् सुतसोम श्रुतकीर्तिके विशाल रथपर चढ़ गया। उधर शकुनि भी दूसरा अत्यन्त दुर्जय एवं भयंकर धनुष लेकर बहुत-से शत्रुओंका संहार करता हुआ पाण्डव-सेनाकी ओर चल दिया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र नादो महानासीत् पाण्डवानां विशाम्पते ॥ ४१ ॥
सौबलं समरे दृष्ट्वा विचरन्तमभीतवत्।

मूलम्

तत्र नादो महानासीत् पाण्डवानां विशाम्पते ॥ ४१ ॥
सौबलं समरे दृष्ट्वा विचरन्तमभीतवत्।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! सुबलपुत्र शकुनिको समरभूमिमें निर्भयसे विचरते देख पाण्डव-दलमें महान् सिंहनाद होने लगा॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्यनीकानि दृप्तानि शस्त्रवन्ति महान्ति च ॥ ४२ ॥
द्राव्यमाणान्यदृश्यन्त सौबलेन महात्मना ।

मूलम्

तान्यनीकानि दृप्तानि शस्त्रवन्ति महान्ति च ॥ ४२ ॥
द्राव्यमाणान्यदृश्यन्त सौबलेन महात्मना ।

अनुवाद (हिन्दी)

महामना शकुनिने घमंडमें भरे हुए उन शस्त्रसम्पन्न महान् सैनिकोंको भगा दिया। यह सब हमने अपनी आँखों देखा॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा दैत्यचमूं राजन् देवराजो ममर्द ह।
तथैव पाण्डवीं सेनां सौबलेयो व्यनाशयत् ॥ ४३ ॥

मूलम्

यथा दैत्यचमूं राजन् देवराजो ममर्द ह।
तथैव पाण्डवीं सेनां सौबलेयो व्यनाशयत् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जिस प्रकार देवराज इन्द्रने दैत्योंकी सेनाको कुचल दिया था, उसी प्रकार सुबलपुत्र शकुनिने पाण्डव-सेनाका विनाश कर डाला॥४३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि सुतसोमसौबलयुद्धे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें सुतसोम और शकुनिका युद्धविषयक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२५॥